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________________ किरण ३] उत्चम क्षमा [१२१ है कि जिसके पास जो चीज होती है वह वही चीज उसे स्वार्थसिद्धि किया करता था, परन्तु विकके जागृत होते ही देता है। मेरे पास गालियां नहीं हैं प्रत. मैं उन्हें नहीं दे वह मेरी मिथ्या दृष्टि विलीन हो गई और मुझे अपनी उस सकता, लोक में खरगोशके सींग नहीं होते तो उन्हें कोई पालतीका भान हो गया। अब मेरा निश्चय कि किसीको देता भी नहीं है। पर पदार्थ मेरा कुछ भी बिगार-सुधार नहीं कर सकता। फिर भी ज्ञानी सोचता है कि गाली देने वालेने जो विगाव-सुधार स्वयं मेरे परणामों पर ही निर्भर है। मेरी गालियां दी है उसका कोई न कोई कारण अवश्य होना अन्तर्बाह्य परिणतिही मेरे कार्यको साधक-बाधक है। अतः चाहिये। यदि मेरे किसी भी व्यवहारसे उसे का पहुंचा मुझे प्रात्म-शोधन द्वारा अपनी परिणतिको ही सुधारनेका हो अथवा दुख हुआ हो तो उसने उसका दला गाली यस्न करना चाहिये। ज्ञानी और अज्ञानीकी विचार-धारामें बदा भारी भेद है। जहां ज्ञानी वस्तुतत्वका मर्म और देकर दिया है, सो ठीक है, मेरा असद् म्यवहार ही उम गालीका कारण है। फिर विचारता है, कि यदि मैंने विवेकी होता है वहां अज्ञानी अविवेकी और हिताहितके विचारसे शून्य होता है। इसके साथ कोई जानबूझ कर बुरा व्यवहार नहीं किया, उसने गलतीसे ही ऐसा किया है। तो उसने असद् यदि वस्तुतत्वका गहरा विचार किया जाय, और उससे व्यवहार करके मेरा उपकार ही किया है, मेरी परीक्षा समुत्पन विवेक पर रष्टि दी जाय तो यह स्पष्ट हो जाता हो गई, मेरा प्रारमा विभावरूप नहीं परिणमा, है कि क्रोधादिक परिणाम विभाव है पनिमित्तसे होने यही मेरे लिये हितकर है। और उस बेचारे व्यक्किने वाले श्रीदयिक परिणाम है। यही मेरे जीवनके शत्र है, तो अपना अपकार ही किया है, वह बेचारा दीन इनको मुझे प्रक्रोधभावसे जीतना चाहिये और अहंकार है; मेरे द्वारा समाका पात्र ही है । उसने मुझे गाली ममकारके कारण होने वाले अनिष्ट परिणामसे सदा बचने का यस्न करना चाहिये । मनुष्यका प्रारमा जितना नियन देकर जो मेरे अशुभ कर्मकी निर्जरा कराई ई श्रतः होगा, हित अहितके विचारकी शक्ति उतनी ही मन्द होगी वह मेरा बन्धु ही है, शत् नहीं । क्यों कि शत्रुताका और वह क्रोधादि विभावोंके प्रभाव में प्राकर अपने स्वरूपसे व्यवहार अपकार करने वालेके प्रति होता है, मो वह तो प्युन हो जाता है, उसकी बुद्धि अच्छे कार्यों में न जाकर मेरा उपकारी ही है, अतः वह मेरा शत्रू नहीं हो सकता। बुराईकी ओर ही जाती है, वह धास्मनिरीक्षण करने में मेरा शव तो मेर में उदित होने वाला क्रोधादिरूप विभाव भी असमर्थ होता है, इसीमे उसे अपनी मिर्षलताका परिणाम है जो मेरी आत्म निधिक विकासमें बाधक है। भान नहीं हो पाता, यही उसके पुरुषार्थकी कमी है जिससे अतः मुझे उम क्रोधरूपी वैरीका विनाश करना चाहिये वह प्रारमहित बंचित रहता है। महापुरुषांने अज्ञानीकी जिससे मेरी प्रात्म निधिका संरक्षण हो सके। इस पुरुपार्थ कमीको दूर करनेका उपदेश दिया है जिससे मेरा क्रोध उस अपराधी पर ही है,जो मेरा शन्न है, यदि वह अपनी निर्बलताको दूर करके अपनी शक्निका यथार्थ ऐसा है तो भाग्माका अपराधी तो कांध है; क्योंकि क्रोधने अनुभव कर मके और क्रोधादि शापर विजय प्राप्त ही मेरा अपराध किया है-मेरे श्रात्म-गुणोंको नष्ट करनेका करनेका उपक्रम कर सके, तथा क्षमा नामक गुणकी महत्ताप्रयत्न किया है, इसलिये क्रोधही मेरा शत्र है। अतएव सभी परिचित हो सके। कायरता और मनोबलकी कममुझे उसी पर क्रोध करना चाहिये। अन्य व्यकियों पर जारी दूर होते ही उसमें सहनशीलता आने लगती है और क्रोध करनेसे क्या लाभ; दूसरे व्यकि तो अपने अपने फिर उममें वचन महिष्णुना भी उदित होने लगती है। उपार्जित कर्मों के श्राधीन हैं। वे मेरा कोई बिगाइ-सुधार उसकी वृद्धि होने पर वह बचन सम्बन्धि असहिष्णुताके नहीं कर सकते, किन्तु विगाह सुधार होने पर वे निमित्त परिणाम वच जाता है। अवश्य बन जाते हैं। अतः मैं अपनेको कर्म बन्धनमें एक साधु कहीं जंगल में से गुजर रहा था, अचानक डालकर दूसरोंके उपकार अपकारमें निमित्त क्यों बनूं। साकया गए उनमें से एक हाकूने साधूको एक चांटा मारा मैं मोहवश अज्ञानसे परको कर्ता माने हुए था। इसी और उसका कमंडलु छीन लिया, साधु विवेकी और कारण दूसरेमें शव मित्रकी कल्पना कर अपनी ऐहिक सहिष्णु था, उसने डाकसे कहा कि आपके इस हाथमें चोट
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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