SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२] अनेकान्त [किरण ३ जान गई लाइये मैं इसे दवा जिससे उसकी पीड़ा गृहस्थ अपनी मर्यादाके अनुसार माका अपने कम हो जाय । यह कह कर साधु कूके हाथको दवाने जीवन में प्राचरण कर लोकमें सुखी हो सकता है-जो लगा। बाकू साधुके शान्त स्वभाव और उसके सहनशील सरष्टी पुरुष, विवेकी और कर्तव्यनिक वह संसारके व्यवहारको देखकर उसके चरणों में गिर पड़ा और बोला किसी भी प्राणीका बुरा न चाहते हुए अपने दयालु स्वभावमहाराज! मैने पापका बड़ा अपराध किया है, जो मैंने से भास्मरक्षा करता हुमा सरेको प्रयत्न पूर्वक कष्ट न बिना कुछ कहे पापको चांटा मारा और कमंडलु छीना। पहुँचा कर मांसारिक व्यवहार करते हुए भी धमाका भाप मेरा अपराधमा कीजिये और अपना यह कमंडलु पात्र बन सकता है। बीजिये । इतना कह कर डावहांसे चले गए किन्तु उन साधु च कि प्रात्म-साधनामें निष्ठ है सांसारिक संघर्षसे पर साधुकी उस सहिष्णुताका अमिट प्रभाव पड़ा। दूर रहता है क्योंकि वह संघर्षके कारण परिग्रहका मोह ___यदि आमाको प्रारमाका स्वभाव या धर्म न माना जाय छोड़ चुका है । यहां तक कि वह अपने शरारसे भी निस्पृह तो जो क्रोधी व्यक्ति है उसका क्रोध सदा बना रहना हो चुका है। अतएव वह दूसरोंको पीदा देने या पहुंचाने चाहिये । पर ऐसा नहीं होता, क्रोध उदित होता और की भावनासे कोसों दूर है, अतः उसका किसीसे वैर-विरोध चला जाता है, इससे यह स्पष्ट समझमें भा जाता है कि भी नहीं है, वह सदष्टि और विवेकी तपस्वी है। अतएव क्रोध बारमाका स्वभाव नहीं है पुद्गलकमके निमित्तसे होने वह उत्तम क्षमाका धारक है। उसके यदि पूर्व कर्मकृत वाला औदायिक परिणाम है । क्रोधीका संसारमें कोई मित्र अशुभका उदय श्रा जाता है और मनुष्य तिर्यंचादिके द्वारा नहीं बनता और समाशील व्यक्तिका कोई शत्रु नहीं बनता; कोई उपसर्ग परीषह भी सहना पड़े तो उन्हें खुशीसे सह क्योंकि वह स्वप्नमें भी किसीका बुरा चिन्तवन नहीं करवा लेता है-वह कभी दिलगीर नहीं होता और शरीरके विनष्ट और न किसीका पुरा करनेकी चेष्टा ही करता है। उसका हो जानेपर भी विकृतिको कोई स्थान नहीं देता। वह तो संसारके समस्त जीवास मैत्री भाव रहता है। तपस्वी क्षमाका पूर्ण अधिकारी है। पमा शीलही अहिंसक समाधर्मके दो स्वामी है गृहस्थ और साधु । ये दोनों है, जो क्रोधी है वह हिंसक है। अतः हमें क्रोधरूप विभावही प्राणी अपने २ पदानुसार कषायोके उपशम, लय और भावका परित्याग करने, उसे दबाने या क्षय कर क्षमा शील हयोपशमके अनुसार समा गुणके अधिकारी होते हैं। बननेका प्रयत्न करना चाहिये। दस लक्षण धर्म-पर्व (श्री दौलतराम 'मित्र') संवर निर्जरा कारक प्रात्माकी बीतराग परतिको ये आत्माकी अहित (पाश्रव बन्ध ) कारक सराग परधर्म कहते है, जो कि मुक्तिका मार्ग है। णति है। अतएव सदा सावधान रहकर इससे बचते रहना उत्तम मादि दस लक्षण धर्म, रत्नमय धर्म । सम्यक है। स्व. पं० दौलतरामजीने यही बात क्या ही अच्छे दर्शन ज्ञान चारित्र) से भिन्न नहीं है, किन्तु एक है! शब्दोंमें कही है उत्तम मा, मादव प्रार्जव, शौच, सत्य ये पांच "आतमके अहित विपय कपाय । समय सम्यक् दर्शन शान स्वरूप है, तथा संयम, तप, इनमें मेरी परणति न जाय ॥" स्याग भाकिंचन प्रक्षचर्य ये पांच लक्षण सम्यक्-चारित्र परन्तु आश्चर्य है कि आजकल हम लोगोंने विषय स्वरूप है। कपाय शोधक दस लक्षण धर्म पर्वको अधिकांश में विषय एक मिथ्यात्व और चार अनन्तानुयन्धी कषाय इनके कषाय पोषक त्यौहार सरीखा बना रखा है। इसमें संशो. अनुदयसे पूर्वार्धके पाँच लक्षण (अथवा स. दर्शन ज्ञान) धन होना आवश्यक है, अन्यथा हम मुक्ति मार्गसे हट वैदा होते है, तथा शेष कषायोंक अनुदयसे उत्तरार्धके जायेंगे। किसीने सच कहा हैपांच लक्षण अथवा-सम्यक् चारित्र) पैदा होते हैं। "पर्व (पोर ) खाने (भोगनेकी) बरतु नहीं, किंतु मिथ्यात्व (=विषयेषु सुख प्रान्ति और कषाय बोने (त्यागनेकी) वस्तु है "
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy