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________________ उत्तम मार्दव (श्री. पूज्य पुलक गणेशप्रसादजी वर्णी) मात्र मार्दव धर्म है, समाधर्म विदा हो रहा है, विदा गुरुका इतमा पाकर्षण रहता है कि वह उसे एक साथ तो होता ही है उसका एक दृष्टांत भापको सुनाता हूँ। मैं सब कुछ बतलानेको तैयार रहता है। एक स्थान पर एक मदियामें दुलारमाके पास न्याय पढ़ता था, वे न्याय पण्डितजी रहते थे पहले गुरुभोंके घर पर स्नेह अधिक शास्त्रके बड़े भारी विद्वान थे। उन्होंने अपने जीवन में २५ था। पपिडतानी उनको बार कहतीं कि सभी सबके तो वर्ष न्याय ही न्याय पढ़ा था । वे व्याकरण प्रायः नहीं मापकी विग्य करते हैं पापको मानते है फिर भाप इसी जानते थे, एक दिन उन्होंने किसी प्रकरण में अपने गुरूजी- एक की क्यों प्रशंसा करते हैं ? पण्डितजीने कहा कि इस से कहा कि जैसा "बाकी" होता है वैसा "वीति" क्यों जैसा कोई मुझे नहीं चाहता। यदि तुम इसकी परीक्षा ही नहीं होता? उनके गुरू उनकी मूर्खता पर बहुत ऋद्ध हुए करनी चाहती हो तो मेरे पास बैठ जामो मामका सीज़न और बोले बैल भाग जा यहाँ से दुलाकाको था, गुरुने अपने हाथ पर एक पट्टीके भीतर पाम बाँध बहुत बुरा लगा उसका एक साथी था, जो व्याकरण लिया और दुःवी जैसी मूरत बनाकर कराहने लगे। अच्छा जानता था और न्याय पढ़ता था। दुलारझाने कहा तमाम छात्र गुरूजीके पास दौदे पाये, गुरूने कहा दुर्भाकि यहाँ क्या पढ़ते हो चलां घर पर हम तुम्हें न्याय बढ़िया ग्यवश भारी फोड़ा हो गया है। कानोंने कहा मैं अभी से बढ़िया पढ़ा देंगे, साथी इनके साथ गाँवको चला गया- वैद्य जाता हूँ । ठीक हो जायगा । गुरूने कहा बेटो! यह वहाँ उन्होंने उससे एक सालमें तमाम व्याकरण पढ़ डाला वेचसे अच्छा नहीं होता-एक बार पहले भी मुझे हुमा और एक साल बाद अपने गुरूके पास जाकर क्रोधमे कहा था तब मेरे पिताने इसे चूमकर अच्छा किया था यह कि तुम्हारे पापको धूल दी, पूछ ले व्याकरण, कहाँ पूछता चूसनेसे ही अच्छा हो सकता है। मवादसे भरा फोका कौन है। गुरूने हंसकर कहा पात्रो बेटा मैं यही तो चाहता चूसे ? सब ठिठककर रह गये । इतने में वह यात्रा गया था कि तुम इसी तरह निर्भीक बनो । मैं तुम्हारी निर्भी. जिमकी कि गुरू बहुत प्रशंसा किया करते थे। भाकर पर मेरी बात याद रक्खी- बोला गुरूजी क्या कष्ट है ? बेटा फोदा है, चूमनेसे अच्छा अपगधिनि चेत्क्रोधः क्रोधे क्रांधः कथं नहि । होगा। गुरूके कहनेकी दर थी कि उस छात्रने उसे अपने धर्मार्थ-काम-मोक्षायां चतुर्या परिपन्थिनि ॥ मुंह में ले लिया। फोरा तो था ही नहीं पाम था पगिडदुलारझा अपने गुरुकी समाको देखकर नतमस्तक रह तानीको अपने पतिके वचनों पर विश्वास हुआ। गये । क्षमाम क्या नहीं होता । श्रच्छ अच्छे मनुष्यांका क्या कहें प्राजकी बात ! मात्र तो विनय रह ही नही मान नष्ट हो जाता है। . गया। सभी अपने आपको बड़े से बड़ा अनुभव करते हैं। ___ मार्दवका नाम कोमलना है, कोमलतामें अनेक गुण मेरा मन नहीं चला जाय इसकी फिकर में सब पड़े है पर वृद्धि पाते हैं। यदि कठोर जमीनमें बीज डाला जाय तो इस तरह किंमका मान रहा है। आप किसीको हाथ जोर व्यर्थ चला जायेगा । पानीकी बारिशम जी जमीन काम न कर या सिर झुकाकर उसका उपकार नहीं करते यक्षिक हो जाती है उसमें बीज जमना है। बच्चे को प्रारम्भमें अपने हृदयमे मानरूपी शत्रको हटाकर अपने पापका उपपढ़ाया जाता है कार करते हैं। किमीने किसीकी बात मानक्षी, उसे हाय "विद्या पदाति विनयं विनयाद्याति पात्रनाम् । जोड लिये मिर मुका दिया, इतनेसे ही वह खुश हो जाता पात्रत्वादनमाप्नोति धनाद्धमैं नतः मुम्बम् ॥" है और कहना है इसने हमारा मान रख लिया-मान विद्या विनयको देनी, विनय पात्रता आती है। रग्ब क्या लिया. मान खो दिया। अपने हृदय में जो महंपात्रतासे धन मिलताई धनसे धर्म और धर्म सुख प्राप्त कार था उसने उसे आपके शरीरको क्रियासे दूर कर दिया। होता है। जिसने अपने हृदयमे विनय धारण नहीं किया केल आपने मम्यग्दर्शनका प्रकरण सुना था। जिस प्रकार वह धर्मका अधिकारी कैसे हो सकता है। विनयी छात्र पर अन्य लोगोंक यहाँ ईश्वर या खुदाका महात्म्य है वैसा ही
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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