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अनेकान्त
[किरण ३
भी होता था, इस अवसर पर कई देशोंक साधु संघ एक किया है। आयुर्वेदिक ग्रन्थोंमें 'अपान' का अर्थ है वह स्थान पर एकत्र होकर प्रतिक्रमणके अतिरिक तत्व सम्बंधी गन्दी वायु, जो श्वास श्रादि द्वारा शरीरसे बाहर भाती तथा प्राचार - विचार-सम्बन्धी तथा लोक कल्याणकी है। इन सात अपानांमें पहले तीन अपान कालसूचक हैं समस्याओं पर विचार किया करते थे।
और शेष अन्तिम चार अपान चर्या सूचक है। इस सूक्तइस तथ्यकी ओर संकेत करते हुए विनयपिटकमें
। का बुद्धिगम्य अर्थ यही है कि-पौर्णमासी, अष्टमी और
का लिखा है, कि एक समय बुद्ध भगवान राजगृहके गृद्ध कूट
अमावाश्या वाले दिन व्रात्य लोगों में पर्व: दिन माने जाते पर्वत पर रहते थे उस समय दूसरे मतवाले परिवाजक
थे और वे इन दिनोंमें श्रद्धा (धर्मोपदेश) दीक्षा (धर्मदीक्षा) चतुर्दशी, पूर्णमासी, और अष्टमीको इकट्ठा होकर धर्मो.
यज्ञ (वत, उपवास, प्रतिक्रमण वन्दना-स्तवन) और पदेश किया करते थे। इन अवसरों पर नगर और प्रामाके
(दक्षिणादान दक्षिणा) द्वारा धर्मकी विशेष माधना कर स्त्री पुरुष धर्म सुननेके लिए उनके पास जाया करते थे।
पात्म शुद्धि किया करते थे। बृह उप 1.५.१४मे अमाजिससे कि वे दूसरे मतवाले परिवाजोंके प्रति प्रेम और
वस्याके दिन सब प्रकारका हिंसा कर्म वर्जित बनलाया श्रद्धा करने लग जाते थे और दूसर मतवाले परिवाजक गया है। अपने लिये अनुयायी पाते थे। यह देख बुद्ध भगवानने इसी प्रकार महाभारत अनुशासन पर्व अभ्याय १०६ भी अपने भिन्तु मांकां अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासीको और १०७ में पर्वक दिनाम साधुग्री व गृहस्थीजन द्वारा एकत्र होने, धर्मोपदेश देने, उपोमह करने और प्रतिमोक्ष- किये जाने वाले व्रत उपवामांकी महिमा भीष्म युधिष्ठिर प्रतिक्रमणपाठ-करनेकी अनुमति दे दी थी ।
संवाद द्वारा यो वर्णन की गई है-भीम युधिष्टिरको इन प्रात्य लोगोंकी (व्रतधारी श्रमण लोग) कहते हैं कि-उपवायांकी जो विधि मैने तपस्वी अंगिरासं' उपर्यत जीवनचर्या को ही दृप्टिमें रख कर ब्राह्मण सुनी है वही में तुझे बताता हूँ-जो मनुष्य जितेन्द्रय भूषियोंने अथर्ववेद-वास्यकाण्ड १५ सूक्त १६ में।
होकर पंचमी अष्टमी और पूर्णिमाका केवल एक बार बायोंके निम्न सात अपानांका वर्णन किया है
भोजन करता है वह समायुक्त, रूपवान और शास्त्रज्ञ हो १. पूर्णमासी, २. अष्टमी, ३. श्रमावश्या, ४ श्रद्धा, ५.
जाता है। जो मनुष्य अष्टमी और कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको दीक्षा, ६..यज्ञ... दक्षिणा इस सक्तमें ऋषिवरको उपवास करता है वह निरोग और बलवान होता है। वास्योंके उन साधनांका वर्णन करना अभीष्ट मालूम होता
अध्याय १०६ श्लोक ४-२०) है जिनके द्वारा वे अपने भीतरी दोषोंकी निवृति किया करते पुनः अध्याय १०६ श्लोक १६ से लेकर श्लोक ३० थे। इसीलिये ऋषिवरने इन दोष निवृत्तिमूलक साधनोको तक अगहन, पौष माघ फागुन,चैत्र श्रादि द्वादश महीनोंसर्वसाधारणकी परिभाषामें 'भपान' संज्ञाय उद्बाधित के क्रममे उपवापांका फल वर्णन किया गया है इन - - - ----
उपयुक्त उपवामांमे लोक सुरव और स्वर्ग सुम्ब मिलने १ व्याख्या प्रज्ञप्ति १२.१.१३.६॥ उत्तराध्ययन सूत्र
हैं। पुनः अध्याय १०६ श्लोक १०से अध्यायके अन्त तक ५.६७. २२
तथा अध्याय १०७ में विविध प्रकारके उपवामोंका फल अंगपत्ति -प्रकीर्णक श्लोक २८
बतलाते हुए कहा है कि इन उपवासोंको यदि मांस, इन्द्रनन्दी कृत-श्रुतावनार ॥ ८७
मदिरा, मधु त्याग कर ब्रह्मचर्य अहिंमा सत्यवादिता जिनसेन कृत-श्रादिपुराण पर्व ३८ श्लोक २५-३४ अोर सर्वभूत हितकी भावनामे किया जावे तो मनुप्यको त्रिलोकमार-॥७६ ॥
अग्निष्टोम, वाजपेय, अश्वमेध गोमेध, विश्वजित अति
रात्र, द्वादशार, बहुसुवर्ण, सर्वमेध, देवसत्र, राजसूय पाशाधर कृत-सागार धर्मामृत २.२६
- ---- - ------- ---- - जयसेनकृत-प्रतिष्ठापाठ ॥५५-५८॥
२. विनय पिटक-उपोसथ स्कन्धक ।