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किरण ३]
भारतदेश योगियोंका देश है
इन्द्रिय सुख निस्य नहीं है, वे मनुष्यके पास आते हैं मिथ्यात्व, प्रज्ञान, प्रमाद. कषाय, अविरवि, राग-द्वेष, पुरष व्यतीत होने पर वे उसे छोड़ कर ऐसे चले जाते हैं मोह-माया. अहंकार मादि जितने भी विपरीत भाव है,, जैसे पक्षी फल विहीन वृक्षको छोड़ कर चले जाते हैं ये सभी प्रात्माके सुख-शान्ति सौन्दर्य रूप स्वभावके सुख दुखकी खान हैं।
घातक है। इसलिये ये सभी हिंसा है और इनका प्रभाव जो निर्ममत्व हैं वे वायुके समान, पक्षीके समान,
अहिंसा है। अविछिन्न गतिसे गमन करते हैं।
__ प्राणियोंका घात होनेसे भास्माका ही घात होता है। सुग्बी वही है जो किसी वस्तुको अपनी नहीं समझता, आत्मघात हित नहीं है इसलिए बुद्धिमान योगोंको प्राणिजब किसी वस्तुका हरण बनाश हो जाता है तो वह यह योंका घात महीं करना चाहिये। समझकर कि उसकी किसी वस्तुका नाश व हरण नहीं भन्यजीवोंको चाहिये कि वह प्रमाद छोड़ कर दूसरे हुमा, सम भाव बना रहता है।
प्राणियोंके साथ बन्धु समान व्यवहार करें। ___ यदि धन धान्यके ढेर लाश पर्वतके समान उंचे अहिंसा ही जगतकी रक्षा करने वाली माता। मिल जावें तो भी तृप्ति नहीं होती, जोम आकाश समान अहिंसा हो मानन्दको बढ़ाने वाली पद्धति है, अहिंसा अनन्त है और धन परमित है, अत सन्तोष धन हो ही उत्तम गति है, महिमा ही सदा रहने वाली महान धन है।।
बचमी है। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता इसीलिए साधु जन कभी किसी प्राणीका पात नहीं करते. श्रमण संस्कृतिक पर्व भोर धर्मकी प्रभावना 'प्राणोंका घात महापाप है।
ये योगीजन प्रत्येक दिन सम्ध्या समय अर्थात-पातप्राणियोंका धात चाहे देवी देवताओंके लिये किया मध्यान्ह और सायंकालमें सामायिक करते थे। प्रत्येक जावे, चाहे अतिथि सेवा व गुरु भक्षिके लिये किया जावे पपके पर्वके दिनों में पर्थात पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, चाहे उदरपूर्ति अथवा मनोविनोदके लिये किया जावे पर्णमासी एवं प्रमावास्याको ये पोसह (उपवास) करते थे, उसका फल सदा अशुभ है, इसीलिये हिंसाको पाप और तथाान व अज्ञान वश किये हये दोषोंकी निवृत्तिके अर्थ दयाको धर्म माना गया है१२।
प्रायश्चित करनेके लिये प्रतिक्रमण पाठ अथवा प्रतिमोफ धर्मका मूल दया है, दयाका मूल अहिंसा है और पाठ पढ़ते थे और एक स्थानमें एकत्र हो सर्वसाधारणअहिंसाका मूल जीवन - साम्यता है, इसलिये जो सभी को धर्मोपदेश देते थे। इन पारिकपोंके अतिरिक हर जीवोंको अपने समान प्रिय समझता है, श्रेय समझता है मास वर्षाऋतुके चतुर्मासमें भषाद सुदि एकमसे कार्तिक वही धर्मात्मा है।
बदी पम्दरम तक माधु सन्तोंके एकजगह ठहरनेके कारण समझानेके लिये तो पापको पाँच प्रकारका बतलाया लोगोंमें खूब मस्मंग रहता था इन चनुमासमें धर्म-साधना जाता है-हिंसा, मूठ, चोरी. कुशीन और परिग्रह, परन्तु प्रोषध-उपवास, बन्दना-स्तवन, प्रतिक्रमणादि धार्मिक वास्तवमे ये सब हिंसा रूप ही है क्योंकि ये सब पाएमाकी माधनायें सविशेष करनेके लिये उपासक जन साधुओंके साम्यदृष्टि और साम्यवृत्तिका घात करने वाले हैं। समागममें एक स्थानमें एकत्र होते थे। इन मेलोंकी एक उत्तराध्ययन सूत्र
विशेषता यह होती थी कि इस अवसर पर एकत्रित हुए जन एक दूसरेसे अपने दोषोंकी पमा मांगा करते थे।
इनके अतिरिक्त प्रत्येक वर्ष एक साम्बस्सरिक सम्मेलन E-18
१४ प्राचार्य अमृतचन्द्र-पुरुषार्थसिक्युपाय ॥४॥
१५ वट्टकेर प्राचार्य कृत मूलाधार ॥२१॥ १२ कार्तिकेयानुमेशा
" शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव", १३ प्राचार्य अमृतचन्द्र-पुरुषार्थसिद्धयुपाय ॥२॥ . " " ॥१२॥
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