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बंकापुर
(विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री) बंकापुर पूना-वगलूर रेलवे लाइनमें, हरिहर रेलवे से लोकादित्यके द्वारा स्थापित किया गया था। और स्टेशनके समीपवर्ती हारि रेलवे स्टेशनसे १५ मील उम जमाने में इसे एक समृद्धिशाली जैन राजधानी पर, धारवाड जिले में है । यह-वह पवित्र स्थान है, होनेका सौभाग्य प्राप्त था। बंकेय भी सामान्य व्यक्ति जहां पर प्रातः स्मरणीय आचार्य गुणभद्रने मं० ८२० नहीं था। राष्ट्र-कूट नरेश नृपतुङ्गके लिये राज्य कार्योंमें अपने गुरु भगवजिनसेनके विश्रुत महापुराणांतर्गत में जैन वीर बंकेय ही पथ प्रदशक था। मुकुलका पुत्र उत्तर पुराणको समाप्त किया था । आचार्य जिनसेन एरकोरि, एरकोरिका पुत्र घोर और घोरका पुत्र बंकेय
और गुणभद्र जैन संसारके न्यानि प्राप्त महाकवियोंमें था । बंकेयका पुत्रपितामह मुकुल शुभतुङ्ग कृष्णराज'से हैं । इस बातको माहित्य-संसार अच्छी तरह जानता का पितामह एरकोरि शुभतुबके पुत्र ध्रुवदेवका एवं हैं। संस्कृत साहित्यमें महाराण वस्तुतः एक अनूठा पिता घोर चक्री गोविन्दराजका राजकार्य सारथि था। रत्न है। इसका विशेष परिचय और किसी लेखमें इससे सिद्ध होता है कि लोकादित्य और बंकेय ही दिया जायगा। उत्तरपुराणके ममाप्ति-कालमें बंकापुर- नहीं; इनके पितामहादि भी राज्य-कार्य पटु तथा महासे जैन वीरबंकेयका सुयोग्य पुत्र लोकादित्य विजय शूर थे। नगरके यशस्वी एवं प्रतापी शासक अकालवर्ष या अस्तु, नृपतुङ्गको बंकेय पर अटूट श्रद्धा थी। कृष्णराज (द्विनीय) के सामंतके रूपमें राज्य करता यही कारण है कि एक लेख में नृपतुङ्गने बंकेयके था । लोकादित्य महाशूर तेजस्वी और शत्रु-विजयी सम्बन्धमें "विततज्योतिनिशितासिरि वा परः" यों कहा था। इसके ध्वजमें मयूरका चिन्ह अङ्कित था। और है। पहले बंकेय नृपतुनके आप्त सेनानायकके रूपमें यह चेल्लध्वजका अनुज और चेल्लकेत (बंकय) का अनेक युद्धोंमें विजय प्राप्तकर नरेशके पूर्ण कृपापात्र पुत्र था। उस समय समूचा वनवास (वनवासि) प्रदेश बनने के फल-स्वरूप बादमें वह विशाल वनवास या लाकादित्यके ही वशमें रहा । उत्तरपुराणकी प्रशस्ति निवासिप्रांतका सामन्त बना दिया गया था। सामन्त देखें।
बंकेयने ही गंगराज राजमल्लको एक युद्धमें हराकर उपर्यत बंकापुर श्रद्धय पिता वीर बंकयके नाम बन्दी बना लिया था । बल्कि इस विजयोपलक्ष्य में
भरी सभामें वीर बंकेयका नृपतुनके द्वारा जब शक संवत २० प्राचार्य गुणभद्रके उत्तर पुराणका कोई अभीष्ट वर मांगनेकी आज्ञा हुई तब जिनभक्त ममाप्ति कान नहीं है किन्तु यह उनके शिष्य मुनि लोकसेन
बंकेयने मगद्गद महाराज नृपतुंगने यह प्रार्थना की की प्रशस्तिका पद्य है जिसमें उसकी पूजाके समयका
कि 'महाराज, अब मेरी कोई लौकिक कामना बाकी उपख किया गया है। --परमानन्द जैन
नहीं रही। अगर आपको कुछ देना ही अभीष्ट हो तो
कोलनूरमें मेरे द्वारा निर्माणित पवित्र जिनमंदिरके + उत्तर पुराणको प्रशस्ति देखें।
लिये सुचारु रूपसे पूजादिकार्य संचालनार्थ एक भूदान उत्तर पुराणकी प्रशस्तिमे दिया हुमा "चेल्लपताके" प्रदान कर सकते हैं। बस, ऐसे ही किया गया। वाक्यम चेल्ल शब्दका अर्थ अमरकोष और विश्वलाचन कोषमें यह उल्लेख एक विशाल प्रस्तर खण्डमें शासनके रूपमें चोल (पक्ष। विशेष ) पाया जाता है। अतः खोकादिस्यकी आज भी उपलब्ध होता है । बंकेयके असीम धर्म-प्रेमयजामें चीलका चिन्ह था न कि मोरकार
के लिये यह एक उदाहरण ही पर्याप्त है। इस प्रसंग-परमानन्द जैन में यह उल्लेख कर देना भी आवश्यक है कि वीर