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________________ ३५० ] कि पलंग पर कौन सोये। सबमें परम्पर मनुहारें होने लगी। कोई कहता था मैं इस बडप्पनके योग्य नहीं। कोई कहता था- मैं अधिक अनुभवी नहीं । कोई कहता था मुझमें विद्या बुद्धि कम है। आखिर किमीने पलंग पर सोना स्वीकार नहीं किया। वे बड़े समझदार थे--उसने विचार किया नींद क्यों नष्ट की जाय ? सबको पलंगकी ओर सिर करके मो जाना चाहिए। सबने रात भर खूब श्रानन्दसे नींद ली । प्रात-काल मंत्रीने सारा किस्सा सुनकर उनको बड़े सन्कारके साथ बड़े-बड़े पद सौंपकर सम्मान किया ।" जबतक यह स्थिति न हो यानी पदके प्रति आकर्षण कम न हो तब तक राष्ट्र-निर्माण कैसे हो सकता है। देहली प्रवासमें मेरी पं० नेहरूजी से जब-जब मुलाकात हुई तो मैंने प्रसंगवश कहा“पंडितजी ! लोगोंमें कुर्सीकी इतनी छीनाझपटी क्यों ही रही है ?” उन्होंने खेद भरे शब्दोंमें कहा - "महाराज ! हम इससे बड़े परेशान हैं परन्तु करें क्या ?” जिम राष्ट्र में यह श्रहंमन्यता, पदलोलुपता और अधिकारोंकी भावनाका बोलबाला है वह राष्ट्र ऊंचे उठनेके स्वप्न कैसे देख सकता है ? वह तो दिन प्रतिदिन दुःखित, पीडित और श्रवनत होता जायगा । महाभारत में लिखा है--- बहवो यत्र नेतारः सर्वे पंडितमानिनः । सर्वे महत्वमिच्छन्ति, तद्राष्ट्रमवसीदति ॥ अनेकान्त [ किरण ११ जिम राष्ट्रमें मब व्यक्ति नेता बन बैठते हैं, सबके सब अपने आपको पंडित मानते हैं और सब बड़े बनना चाहते हैं वह राष्ट्र जरूर दुःखी रहेगा । भारतकी स्थिति करीब-करीब ऐसी हो रही है इसलिए राष्ट्रकी बुराइयोंको मिटानेके लिए सत्य-निष्ठा और प्रामाणिकताकी अत्यन्त आवश्यकता है। जबतक सत्य-निष्ठा और प्रामाणिकता जीवनका मूलमंत्र नहीं बन जाती तबतक मानवताका सूत्र पहचाना जाय यह कभी भी संभव नहीं और राष्ट्रका निर्माण हो जाय यह भी कभी नहीं हो सकता । उपसंहार अन्तमें मैं यही कहूँगा कि लोग धर्मके नामसे चिढें नहीं । धमं कल्याणका एकमात्र साधन है। उसके नाम पर फैली हुई बुराइयोंको मिटाना आवश्यक है न कि धर्मको । मैं चाहता हूँ कि धर्म और राष्ट्रके वास्तविक स्वरूप और पृथकत्वको समझकर धर्मके मुख्य अंग अहिंसा, सत्य और सन्तोषकी भित्तिपर राष्ट्रके निर्माणके महान कार्यको सम्पन किया जाय । मैं समझता हूँ कि यदि ऐसा हुआ तो राष्ट्र ऊँचा, सुखी, सम्पन व विकसित होगा । वहाँ धर्मका भी वास्तविक रूप निखरेगा तथा उससे जन-जनको एक नई प्रेरणा भी प्राप्त हो सकेगी। ( जैन भारतीसे ) 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से ११ वे वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं । फाइलें थोड़ी ही रह गई हैं । अतः मंगाने में शीघ्रता करें। फाइलों को लागत मूल्य पर दिया जायेगा । पोस्टेज खर्च अलग होगा । मैनेजर - 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दिल्ली ।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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