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________________ २५० ] अनेकान्त [किरण जलपात्र लेकर संकल्प करनेके लिए तैयार हुभा । तब आकर भी धर्म और सत्यमें अविचल है। अतः देवोंसे शुक्राचार्यने अपने निश्चयको बदलने के लिये राजाको बहुत भी दुर्लभ मेरे स्थानके योग्य तो यह कभीका हो चुका है, समझाया तथा उस दानको सर्वनाशकारी बतलाया। पर जब तक पाठवां सावर्णि मन्वन्तर प्रारम्भ हो, तब बखि राजाने गरुकी सत्ताहको अमान्य करते हुए कहा कि तक भले ही सुतल निवास करे। वहाँ मानसिक कष्ट, प्रहलादका पौत्र होकर मैं अपनी प्रतिज्ञा-सत्यसे विचलित मालस्य, थकावट, पराभव तथा शारीरिक उपद्रव नहीं, कदापि नहीं हो सकता । उसे शुक्राचार्यने अपनी आज्ञा मेरे संरक्षणमें रहते हुए सदा अपनेको मेरे पास ही पायेगा उलंघन करने के अपराधमें राज्य लक्ष्मीसे भ्रष्ट होनेका दैत्योंके संसर्गजन्य इसके आसुरी भाव भी मेरे प्रभाव मे श्राप दे दिया। क गरुसे श्राप पाकर भी महान नरेश्वर नष्ट हो जायेंगे पीछे सावर्णि मनुके समय में यह इन्द्र सत्यसे भ्रष्ट नहीं हमा। उनकी पत्नी विन्ध्यावती भी होगा और मैं हर समय इसका रक्षण करूंगा। उसे प्रतिज्ञापालनमें रह रहनेके लिये उत्तेजित करती हुई इसके बाद शुक्राचार्यने भगवानकी श्राज्ञासे बलि वामनजीके चरण प्रक्षालनार्थ स्वर्ण कलश लेकर शीघ्रतासे राजाका अपूर्ण यज्ञ पूर्ण किया । बलि राजा सपरिवार भा पहुँची। बलि राजामे वामनजीके चरण युगल प्रचालन अपने पितामह प्रहलाद के साथ सुतन में रहने लगा । इस कर उनके द्वारा याचित तीन डग भूमि दान की । वामन- प्रकार भगवानने अदितिकी मनोकामना पूरी की तथा जीका शरीर तत्काल प्रभुत रूपमे बढ़ने लगा देखते देखते इन्द्रको पुन: उसका स्वर्ग प्राप्त करा दिया। पृथ्वी, स्वर्ग, दिशायें और प्राकाश उनके स्वरूप में समा इस कथाका जैन ग्रन्थामें विष्णुकुमारको कथाके रूप में गये । उन्होंने बलि राजाकी समस्त पृथ्वीको एक पैरसे इस प्रकार वर्णन मिलता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर तथा दूसरे पैरसे स्वर्गकी भूमिको अधिकृत कर लिया। दोनों सम्प्रदायाके ग्रन्थों में जैन मुनि विष्णुकुमारनं किस तीसरे पैरकी भूमि मापने के लिए बलि राजाके पास क्या प्रकार मुनियोंके धर्मकी रक्षा की। इसके उदाहरण रूपमें बचा था ? उनके कद्ध अनुचर वामनजीका मायाचार देख यह कथा अनेक ग्रन्थों में वर्णित है। अनेक ग्रन्थोंकी कर मारने दौड़े। जिन्हें बलिराजाने अपने दुर्दिनको दोष टीकामोंमें एवं कथासंग्रह ग्रन्थों में अपनी अपनी शैली में देहए रोक दिया। तत्पश्चात् तीसरे पैरकी भूमि मांगने अनेक जैन विद्वानांने इसे प्रस्तुत किया है। परवर्ती कतिपर बलि राजाने अपने मस्तक बताते हुए कहा कि तीसरा पय मौलिक रचनायें भी प्राप्त है उन सबमें 'वसुदेवपैर मेरे मस्तक पर रखिये । मुझे अपकीर्तिका जितना हिंडी' ग्रंथ ही सबसे प्राचीन ज्ञात हुआ है, जो संघदासने भय है, स्थानभ्रष्ट होने का नहीं। पापन मुक मदान्धका ५वीं सदीमें प्राकृत भाषामें बनाया है। विविध दृष्टियोस ऐश्वर्य नष्ट करके उपकार ही किया है। यह अन्य अत्यन्त मूल्यवान है उनका संक्षिप्त परिचय मैंने उस समय ब्रह्माजी वामन भगवानको निवेदन करने नागरीप्रचारिणी पत्रिकामे प्रकाशित किया है। जैन प्रारमा लगे हे ईश्वर ! आपने बाल राजाका सर्वस्व हरण कर नन्द सभा, भावनगरसं इसका मूल एव गुजराती अनु लिया है और बन्धनमें डाल दिया है फिर भी इसने वाद प्रकाशित हो चुका है । जैन ग्रंथ 'वसुदेवहिंडी' में अपना ऐश्वर्य तथा अपने आपको श्री चरणामें समपित वर्णित विष्णुकुमारको कथा निम्न प्रकारमे हैकर दिया है लोग तो श्रापको जल दूर्वा देकर ही उत्तम हस्तिनापुर नगरमें पद्मरथ नामक राजा था, जिसके गति पा लेते हैं फिर इसकी यह दशा करना योग्य लक्ष्मीमती नामक रानी और विष्णु एवं महापद्म नामक नहीं है। दो पुत्र थे । पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ स्वामीकी परश्री वामन भगवानने कहा-हे ब्रह्मा ! मैं जिन पर पराके सुवतं नामक मणगार के पास राजाने विष्णुकुमारके प्रसन्न होता हूँ उनका धन हरण कर लेता हूँ क्योंकि साथ दीक्षा ली और महापद्म हस्तिनापुरका राज्य करने धनमद में प्राणी कल्याण मार्गसे परांगमुख हो जाता है। लगा। परम संविग्न भावसे संयमाराधन कर राजर्षि यह बलि राजा देस्य और दानवों में अग्रणी है, इसने मेरी पद्मरथ निवार्ण प्राप्त हुए । धर्मश्रद्धासे अविचल श्रमण पार्जित मायाको भी जीत लिया है। क्योंकि ऐसे दुर्भाग्य- विष्णुकुमारने आठ हजार वर्ष पर्यन्त दुष्कर बप किया पूर्ण समय में भी यह निर्भय निराकुल है छलस बन्धनमें जिससे उन्हें विकुर्वणी, सूचम बादर, विविधरूपकारिणी'
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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