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________________ किरण ] वामनावतार और जैन मुनि विष्णुकुमार [२४६ बजिने देना स्वीकार किया। विष्णुने दो पांवमें भूलोक भागवत्में वामनावतारकी कथा जिस रूपमें वर्णित है और सुरलोक माप लिया : तीसरे पांवमें बलिको अपना उसका सार निम्न प्रकार है:शरीर देना पड़ा, फलतः वह पातालमें जा बसे, और इन्द्रका भृगुवंशी शुक्राचार्यने बलि राजाको जीवित किया। फिर अपना राज्य मिल गया। विष्णुने बह वामन रूप तबसे वह उनका शिष्य हो गया। और उनकी सेवा करने इन्द्र की सहायता करनेके लिये धारण किया था। लगा । स्वर्ग जीतनेके इच्छुक बलि राजासे उस प्रतापी ___ यह पौराणिक कथा एक वैदिक पाख्यानका विस्तृत ब्राह्मणने विश्वजीत नामक यज्ञ करवाया। यज्ञमें स्य, संस्करण है। वह पाख्यान इस प्रकार है घोड़ा, ध्वज, धनुष, तरकश और दिव्य कवच, ये वस्तुयें "विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो वतानि पस्पशे। प्राप्त हुई। इन अलोकिक वस्तुओंको पाकर राजा इन्द्रको इन्द्रस्य युज्यः सखा (ऋक् १-२२-१६) इदं विष्णुविच- जीतनेके लिये स्वर्गपुरीको चला।। क्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूदमस्य पांसुरे (ऋक् ।२२-१७) इन्द्रने गुरु वृहस्पतिसे बलि राजाके पुण्य प्रतापकी ब्रीणि पदविक्रमे विष्णुगोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि कथा ज्ञात की, तण शत्रके इन पढ़ते दिनों में स्वर्ग त्याग धारयन् (ऋक् १-२२-15) कर चले जानेकी सलाहको मानकर स्वर्गपुरीकी राजधानी विष्णुके कर्मों को देखो जिसके द्वारा यजमानादि व्रतों- बोदकर वे देवताओं के साथ अन्यत्र चले गये और पनि का अनुष्ठान करते हैं। विष्णु इन्द्र के योग्य सखा है। इस राजाने वहीं रहते हुये एक सौ अश्वमेध यज्ञ किये। (सारे जग पर) विष्णु चल्ले (उन्होंने) विधा पांव देव माता अदितिने अपने पुत्रोंकी दुर्दशासे दुखी रक्खा । उनके धूजसे भरे पावसे ( यह सारा जगत ) ढक होकर पति कश्यप ऋषिसे सारा वृत्तान्त कहा। ऋषिने गया। अजेय, ( जगत् के) रक्षक विष्णु तीन पद चले, फालगुन शुक्ल पक्षके १२ दिनों तक भगवान वासुदेवकी धम्मोको धारण करते हुये। उपासना 'माइम् नमो भगवते वासुदेवाय' द्वादशायरी विष्णु और इन्दके सखा होनेके कई उदाहरण आये महामन्त्रका जाप और ब्रह्मचर्य, हिंसा, असत्य आदि हैं। गउओके उद्धारमें तथा असुरांसे लड़ने में उन्होंने त्याग कर केवल दुग्धाहारमे जपयज्ञ करनेका आदेश बराबर इन्द्रका साथ दिया है। उन्होंने ये तीन पांव भी दिया। पति आज्ञा शिरोधार्य कर अदितिने ऐसा ही किया, इन्द्र के कहनेसे ही रखे, क्योंकि ऋक् ४-१८-11 में जिससे भगवानने प्रसन होकर उसके यहाँ अवतार ग्रहण वर्णन मिलता है। कर, अभीष्ट सम्पादन करनेका वरदान दिया। इसके बाद 'प्रथाब्रवीत् वृत्रमिन्द्रो हनिष्यन्मखे विष्णो वितरं विक्रमस्य' योग्य समयमें अदितिकी कुटिमें पाकर भगवान वासुदेवन अथ वृत्तको मारते हुए इन्द्रने कहा हे सखे विष्णु ' भाद्रशुक्ला १२ 'विजयाद्वादशी के दिन वामन रूपसे जन्म लिया । वामन बड़े तेजस्वी और उग्र तेज वाले थे। बड़े बड़े पांव रखो। "वितरं विक्रमस्य' का शब्दार्थ यही ह वे योग्य वयमें सब संस्कार द्वारा सम्पन्न हुये। यहाँ 'क्रमस्व' जो क्रिया पद पाया है वह भी ऊपरके मंत्रोंके "विचक्रमे का सजातीय है। परन्तु सायणके एक बार बलि राजाका अश्वमेध यज्ञ श्रवण कर भाष्यमें बड़े पराक्रमी हो' ऐसा अर्थ किया गया है। वामन नर्मदा नदीके तट पर भृगुकच्छ क्षेत्रमें गये जिससे अस्तु ये तीनो पद कहां रखे गये १ एक मत तो यह है समस्त ऋषि भीर सभासद् गण निस्तेज हो गये । वामन कि विष्णुने पृथ्वी अन्तरिक्ष और प्राकाश में पांव रखा। राजाने तेजस्वी राजाका बड़ा भादर सत्कार किया दूसरा मत यह भी है कि पहला पांच समारोह (उदयाचल) और इच्छित वस्तु याचना करनेके खिये निवेदन किया। में दूसरा आकाश (विष्णु पद) में और तीसरा ( जय वामनने उनके पूर्वजों और उसके दानगुणकी सराहना शिरस) अस्ताचलमें रखा गया। तीसरा मत यह है कि करते हुये अपने पैरके मापसे तीन ग पृथ्वी मांगी बलि विष्णु पृथ्वी पर भग्निरूपसे, अन्तरिक्षमें वायु रूपमें, राजाने अधिक मांगनेका बहुत भाग्रह किया। पर भगवान और आकाशमें सूर्यरूपसे वर्तमान है। वामनने अधिक कुछ भी लेना स्वीकार न किया। वैदिक मतानुयायियोंके प्रति मान्य प्रन्य श्रीमद् राजा बलि याचित पृथ्वीदान करनेके लिये हाथमें
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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