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हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण
(श्री पं० परमानन्द जैन शास्त्री) कारकलसे ३४ मील चलकर 'वरंगल' पाए । यहाँ स चौकीके समीप हमें रुकना पड़ा। और शिमोगा एक छोटीसी धर्मशाला एक कुवा और तालाबके अन्दर जानेके लिये हमें बतलाया गया कि इस रास्तेसे लारी एक मदिर है दूरसे देखने पर पावापुरका दृश्य आँखोंके नहीं जा सकती आपको कुछ घेरेसे जाना पड़ेगा। सामने आ जाता है। मंदिरमें जानेके लिये तालाबमें अतः हमें विवश हो कर सीधा मार्ग छोड़ कर मोड़से एक छोटीसी नौका रहती है जिसमें मुश्किलसे १०-१२ बांए हाथकी ओर वाली सड़कसे गुजरना पड़ा, क्योंकि आदमी बैठ कर जाते हैं। हमलोग ४-५ बारमें गए मीधे रास्तेसे जाने पर नदीके पुल पर से कार ही जा और उतनी ही बार में वापिस लौट कर आए। नौकाका सकती थी, लारी नहीं, उस मोड़से हम दो तीन मील चार्ज ३॥) दिया। मंदिर विशाल है। ४-५ जगह दर्शन ही चले थे कि एक ग्राम मिला, जिसका नाम मुझे इस हैं। मूर्तियोंको संख्या अधिक है और वे संभवतः दोसौके 'ममय स्मरण नहीं है, वहाँ हम लोगोंने शामका भोजन लगभग होंगी। मध्य मंदिरके चारों किनारों पर भी दश किया। उसके बाद उसी गांवकी नदीके मध्य में से निकल सुन्दर मूर्तियाँ विराजमान हैं । मन्दिरमें बैठ कर शांति कर पार वाली घाटीकी सड़कमें हमारा रास्ता मिल गया। का अनुभव होता है। इस मन्दिरका प्रबन्ध 'हुम्मच' यहाँ नदीका पल नहीं है, नदीमें पानी अधिक नहीं था, के भट्टारके आधीन है । प्रबन्ध साधारण है। परन्तु सिर्फ घुटने तक ही था, हम लोगाने लारीसे उतर कर तालाबमें सफाई कम थी-घास-फूस हो रहा था। नदीको पैरोंसे पार कर पुनः लारीमें बैठ गए। घाटीके बरसात कम होनेसे तालाबमें पानी भी कम था, तालाब रास्ते में मीलकी चदाई है और इतनी ही उतराई है। में कमल भी लगे हुए हैं, जब वे प्रातःकाल खिलते हैं सड़कके दोनों ओर सघन वृक्षोंकी ऊँची ऊँची विशाल तब तालाबकी शोभा देखते ही बनती है। गर्मी के दिनों में पंक्तियाँ मनोहर जान पड़ती हैं। सलोंकी सघन कतारी तालाबका पानी भी गरम हो जाता है । परन्तु मन्दिरमें के कारण ऊँची नीची भूमि-विषयक विषम स्थान दुर्गम स्थित लोगोंको ठंडी वायुके झकोरे शान्ति प्रदान करते से दिखाई देते थे । चढ़ाई अधिक हानेके कारण हैं। उक्त भट्टारकजीके पास वरंगक्षेत्र-सम्बन्धी एक मोटरका इञ्जन जब अधिक गर्म हो जाता था तब हम 'स्थलपुराण' और उसका महात्म्य भी है ऐसा कहा
लोग उतर कर कुछ दूर पैदल ही चलते थे । परन्तु जाता है। हुम्मच शिमोगा जिले में है। यहांके पद्मा
रात्रिको वह स्थान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था। वती वस्तिक मंदिर में एक बड़ा भारी शिलालेख अंकित
कहा जाता है कि उस जंगल में शेर व्याघ्र, चीता वगैरह है जो कनाड़ी और संस्कृत भापामें उत्कीणे किया हुआ हिंस्त्र-जन्तओंका निवास है। पर हम लोग बिना किसी है। उसमें अनेक जैनाचार्योंका इतिवृत्त और नाम अंकित
भयके १८ मील लम्बी उस घाटीको पार कर । बजे मिलते हैं जो अनुसन्धान प्रिय विद्वानोंके लिये बहुत रात्रिक करीव शिमोगा पहुंचे। और वहां दुकानोंकी उपयोगी हैं। यहाँ पुरानी भट्टारकीय गही है जिस पर पटडियों पर बिछौना बिछा कर थोड़ी नींद ली। और आज भी भट्टारक देवेन्दुकीर्ति मौजूद हैं। यहाँ एक प्रातः काल नैमित्तिक कार्योंसे निवृत्त होकर तथा मंदिरमें शास्त्रभंडार भी है जिसमें संस्कृत प्राकृत और कनाड़ी दर्शन कर हरिहरके लिये चल दिये। और साड़े ग्यारह भाषाके अनेक अप्रकाशित ग्रन्थ मौजूद हैं। बजेके लगभग हम हरिहर पहुँचे । हरिहरमें हम सर
वरंगसे चलते समय काजू और सुपारी आदिके कारी बंगलामें ठहरे और वहाँ भोजनादि बना खाकर विशाल सुन्दर पेड़ दिखाई देते थे। दृश्य बड़ा ही दो बजेके करीब चलकर रातको । बजेके लगभग मनोरम था। सड़कके दोनों ओरकी हरित वृक्षावलो हुगली पहुंचे और मोटरसे केवल बिस्तरादि उतार कर दर्शकके चित्तको आकृष्ट कर रही थी। हम लोग वरंग हम लोगोंने मंदिरमे दर्शन किये मंदिर अच्छा है उस से १०-१२ मीलका ही रास्ता तय कर पाये थे कि पुलि- में मूल नायककी मूर्ति बड़ी मुन्दर हैं । जैन मन्दिरकी