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________________ - किरण १] हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण [३७ हम लोग देहतीस १. मोल बजकर चौरासो मधुराने पांडे राजमलके जम्बस्वामीचरितमें मिलता है। और पहुँचकर रात्रिको नौ बजेके करीब पंच भवनमें ठहरे । वहां जिनका जीगोंदार साधु टोडरने, जो मठानियाकोवा (पनीफिरोजाबाद निवासी मेठ बदामीलालजी भी अपने परिवार- गढ़) का रहने वाला अपवास बंशी भावक था, चतुविध के साथ संघमें मिल गए प्रातःकाल उठकर दैनिक क्रियानों- संघको बुलाकर उत्सबके साथ संवत् १ की ज्येष्ठ से निवृत्त होकर मन्दिरजीम पहुंचे और वहाँ दर्शन पूजन शुक्ला द्वादशी बुधवारके दिन घदीके अपर पूजन तथा किया। मंदिरजीकी मूलवेदी कुछ अधिक ऊँचाईको लिये सूरिमंत्र पूर्वक प्रतिष्ठा कराई थी। हुये है जिस पर मूलनायक भगवान अजितनायकी भव्य इस समय मथुरामें जैनियोंके शिखर बन्द मन्दिर है मूर्ति विराजमान है, उसके सामने ही किसी मजनने दूसरी और दो चैत्यालय है। यहाँ अनेक धर्मशाखाएं हैं परन्तु एक मूर्ति और भी विराजमान कर दी है. जिमसं दर्शकको उन सबमें जैनियोंके ठहरनेके लिए बियामंडीमें मन्दिरजीके दर्शन पूजन करने में असुविधाका अनुभव होता है और सामने वाली धर्मशाला उपयुक्त है । परन्तु शहरको दर्शकके चित्तमें ठेस पहुंचती है। उसके चित्रादि लेनेमे अपेक्षा चौरामीमें ठहरने में सुविधा अधिक है। भी बाधा पड़ती है। और यह कार्य ठीक भी नहीं भोजनादिके पश्चात् हम सब लोग मधुरा शहरके है । यहाँ मन्वादि चारण ऋद्धिधारी सम ऋषियोंकी मन्दिर के दर्शन करने गए। और मधुरा शहरसे बाबर मूर्तियाँ नई प्रतिष्ठित हैं। मूलवेदी की मूर्तिभी वृन्दावन पर विरखा मन्दिरके इस पोर एक पुराने मन्दिरके अधिक प्राचीन नहीं है, वह विक्रमकी १५ वीं शता- भी दर्शन किये, जिसका जीर्णोद्धा मंवत् १६०८ में न्दीकी प्रतिष्ठित जान पड़ती है, क्योकि उस पर किया गया था। यह मन्दिर वास्तवमें प्राचीन रहा है। अंकित लेस्बसे ज्ञात होता है कि वह ग्वालियर के तोमरवंशी वेदीमें कुल चार मूर्तिर्या विराजमान हैं, जिनमें पार्श्वनाथराजा गणपतीके पुत्र राजा इंगरसिंहक राज्यमें प्रतिष्ठित की एक मूर्ति सबसे अधिक प्राचीन है और वह विक्रम दई है। चूंकि राजा डूंगरसिहका राज्यकाल विक्रम संवत १५५ की प्रतिष्ठिन है। और नी मतियों पमप्रभु १४८1 मे 11.नक सुनिश्चित है । अतः यह मनि भी और पार्श्वनाथकी संवत् ११४८ की प्रतिष्ठित हैं चौथी विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके उत्तरार्धकी जान पड़ती है। मूर्ति सोलहवं तीर्थकर शान्तिनाथकी है जो वीर नि. मनि लेम्बमे प्रतिष्ठाका सवत् अंकित नहीं है। चौरामीमें संवत् २४६६ में प्रतिष्ठित हुई है। मन्दिरके सामने नमार दि. जैन संघ कार्यालय और ऋषभप्रह्मचर्याश्रम दोनो ही दीवारीके अन्दर एक छोटा सा बाग है और बागमें कुवा मम्मा अपना अपना कार्य रही हैं। भी स्थित है। मथुरा एक प्राचीन नगर है हिन्द और जनियाका मधुरस मील चलकर भरतपुर तथा महुमा होने एक पवित्र स्थान है। किसी समय मथुरा जन संस्कृतिका हु" हमलांग र हुए हमलांग रात्रिको १ बजेक करीब भी महावीरजीमें केन्द्र था। यहांके कंकालो टीलेस जैनियों और बौदाने पहुँचे, और धर्मशालाम ठहर गए थोड़ी देर बाद गनिम अनेक मूर्तियाँ षाण कालकी प्राप्त हुई है। श्रीकृष्णका मन्दिाजीमे दर्शन करने गए. उस समय मन्दिर में सर्वत्र जन्म भी यहीं हुआ था। कंकाली टीलंस जो सामग्री शान्तिका साम्राज्य था। भगवान महावीपकी उस भूमिका उपलब्ध हुई है। उससं जैन संस्कृतिकी महत्ताका अरछा दर्शन किया साथमे अगल बगसकी अन्य मूर्तियांका भी आभास मिल जाता है। दर्शन कर अपूर्व प्रानन्द प्राप्त हुअा। रात्रि विश्राम करने के बाद प्रातः काल नैमित्तिक क्रियाओंसे मुक्त होकर यहाँकी पुरातन बहुमूल्य सामग्रीका विनाश विदेशियोक भगवान महावीरका दर्शन पूजनादि किया महावीरजीका इम और मुसलमानी बादशाहोके समयमे हुआई मथुरा- स्थान बड़ा ही सुन्दर और शान्तिप्रद है। * आस पासके टीलोम जैन इतिहासकी प्रचुर मामग्री दी महावीरजी से 110 मील चलकर जयपुर पहुंचे। पदी है जो खुदाई करने पर प्राप्त हो सकती है । पर जेन अयपरम कोई ३-४ मीब पहले की हमलांग 'खानियां' समाजकी इस दिशामें भारी उपेक्षा है। अस्तु, स्थान पर रुक गए और वहाँ मन्दिरीक बाहर ठहर कर मथुरामें दि. जैनियां स्तूपांके हानेका उल्लम्ब शामका भोजन किया, तथा मन्दिरोंके दर्शन किये । वह
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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