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अनेकान्द
[किरण मन्दिर विक्रमकी 18 वीं शताब्दीका प्रतिष्ठित किया तत्वांका जगतमें प्रचार किया है। गुमानपंथका जन्म भी
था-संवत् १९६१ में वैशाख शुक्ल पंचमीकै दिन जयपुरसे ही हुआ है। तेरह पंथियोंके बढ़े मन्दिरमें बाबा भट्टारक सुखेन्द्रकीर्तिक उपदेशसे संगही रायचन्द्र बावड़ा- दुलीचन्दजीका एक बहुत बड़ा शास्त्र भण्डार है, बाबाजी ने उसकी प्रतिष्ठा कराई थी इस मन्दिरके कुएँका पानी हमडवंशी श्रावक थे और जैनधर्मके दृढ़ श्रद्धालु । उन्होंने मोठा और अच्छा है, वैसा पानी जयपुर शहरमें नहीं बड़े भारी परिश्रमसे शास्त्रभण्डारकी योजना की थी। मिला। यहाँसे चलकर 5 बजे के करीब जयपुर पहुँचे सेठ उनकी श्रायु सौ वर्षसे अधिक थी। उन्होंने अनेक प्रन्योगोपीचन्दजी डोक्याकी धर्मशालामें ठहरनेका विचार किया, को स्वयं अपने हाथसे लिखा है। वे बहुत बारीक एवं
और वहाँ देखा तो धर्मशाला में अत्यन्त बदबू और गंदगी सुन्दर अक्षर लिखते थे। एक बार भोजन करते थे और थी जिससे ठहरनेके लिये जी नहीं चाहा। तब कलकत्ता सातवें दिन नीहार (मलमोचन) करने जाते थे। प्रकृतिसे निवासी संठ वैजनाथजी सरावगीके मकान पर ठहरे। याज उच्च और निर्भय थे। जो कुछ कहना होता था उसं स्पष्ट कल जयपुर शहरमें गंदापन बहुत अधिक रहने लगा है. कह देते थे। सफाईकी ओर जनताका ध्यान कम है।
____ जयपुरके प्राचीन मन्दिरांका तो कोई पता नहीं चलता ___जयपुर राजपुतानेका एक प्रसिद्ध, शहर है। इसकी क्योंकि वहाँ कितने ही मन्दिर शिवालय आदिके रूप बसासत बड़े परछे हुँग्स की गई है। यह साहबके अनु- परिणत कर दिये गए हैं। अतः विद्यमान मन्दिर दो-तीन सार विद्याधरने, जो जैन या इसके बसानेमें अपना पूरा सौ वर्ष पुराने प्रतीत होते हैं। निगोतियोंके मन्दिरमें सबसे योग दिया था । जयपुरकी राजधानी पहले आमेर थी। प्राचीन मूर्ति भगवान पार्वनाथ की है, जो विक्रमकी १२ किन्तु सवाई जयसिंहने सन १७२८ वि० संवत् १७८५ में वीं शताब्दीके उत्तरार्धकी अर्थात् सं० १९७१ की प्रति
आमेरसे राजधानी जयपुर में स्थापित की। जयसिंह प्ठित है। अठारह महाराज वाले मन्दिर में भी एक मूर्ति (द्वितीय) बड़े बुद्धिवान थे। उन्होंने ज्योतिषविद्याके विक्रम की १४ वीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध-वि. संवत १३२० भी कई स्थानों पर यन्त्र बनवाये । जयपुर जैन संस्कृतिका की प्रतिष्ठित है जिसे जमीनमें से निकली हुई बतलाया अच्छा केन्द्र रहा है। यहाँ खण्डेलवाल दि. जैनियांका जाता है । सांगोके मन्दिर मे भी सं० १९.को प्रतिष्ठित अच्छा प्रभुत्व था। अनेक खण्डेलवाल श्रावक राज्यके मूर्ति विराजमान है। इसके सिवाय सं० ११३८, १९४८, ऊँचे-मे-ऊँचे पद पर आसीन रहे हैं। उन्होंने जयपुर राज्य- १६६१ और १८२६ आदि की भी मूर्तियां पाई जाती हैं। का संरक्षण और संवर्धन किया है। दीवान रामचन्द्र हम सब लोगोंने सानन्द यात्रा की । कई मन्दिर कलापूर्ण छावकाने तो भामेर राजधानीको मुसलमानोंके पंजेसे छुदा- और दर्शनीय हैं। जयपुरकी कला प्रसिद्ध है। कर स्वतन्त्र किया था। राज्यमें अनेक दीवान (प्रधानमंत्री महावीर तीर्थ क्षेत्र कमेटीके प्रधानमंत्री सेठ वधीचन्दनी जैसे पद पर अपना कार्य कर चुके हैं। यहाँ जैनियोंके ५० गंगवालने सभी संघको भोजन पानादिसे सम्मानित किया। मन्दिर शिखर बन्द है धार ७६ चैत्यालय हैं। कितने ही यहाँ पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ बड़े मिलनसार विद्वान मन्दिराम हस्तलिखित ग्रन्थोके वृहद् शास्त्र भण्डार है। हैं। वह वहां की समाजमें जैनधर्म व संस्कृतिका प्रचार जयपुर शहरके बाहर भी अनेक मन्दिर निशि वा नशियाँ है। करते हुए अपना समय अध्ययन अध्यापनमें व्यतीत कर यहाँ भहारकांकी दो गहियों थी। जयपुरमें प्राकृत संस्कृतके रहे हैं। वे प्रकृतितः भद्र है। जानकार अनेक विद्वान हुए हैं जिन्होंने प्राकृत संस्कृतके ता. २६ जनवरी सन् ५३ को हम लोग तीन बजेके अनेक महत्वपूर्ण प्रधांकी हिन्दी टीकाएं बनाकर जैन करीब जयपुरसे ८० मील चल कर अजमेर पहुँचे
बजे के करीब किशनगढ़में हम लोगोंने शामका भोजन * संवत १९६१ बर्षे वैशाख शुक्ल पंचम्यां भी सवाई किया । और फिर वहांसे चलकर ॥ बजे अजमेर में सरसेट
जयसिंह नगरे भहारक श्री सुखेन्द्रकीर्ति गुरुवायु पयो- भागचन्दजी सोनीकी धर्मशालामें ठहरे। रात्रि विश्राम देशात छावहा गोत्रे संग (ही)दी वाण] रायचन्द्रण करनेके बाद प्रातःकाल मित्तिक क्रियामासे निपट कर प्रतिष्ठा कारिता।
शहरमें यात्राके लिये गये।