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किर १) मात्मा
[३५ परेबहतोकी स्त्रियों मरती है, तू इतना बेचेन क्यों होता मान दसरेकी चीजको अपनी मानकर कबतक सुखी रह है? वहांला तुम समझते नहीं हो। उसमें मेरी मम बुद्धि सकता है? जो चीज तुम्हारी है उसी में सुख मानो। लगी है इसीलिये मैं दुखी हूँ। दुनियांकी स्त्रियां मरती हैं
महादेवजीके कार्तिकेय और गणेश नामक दो पुत्र थे। तो उनसे मेरा ममत्व नहीं इसही में मेरा ममत्व था। एक दिन महादेवजीने उनसे कहा, 'जामो, बसुन्धराकी उसी समय दूसरा बोला 'अरे, तुझमे जब महंबुद्धि हे परिक्रमा कर भाभो. तब कातिकेय और गणेश दोनों हाथ तभी तो ममबुद्धि करता है । यदि तेरेमें महंबुद्धि न हो
पकड़कर दौदे । गणेशजी तो पीछे रह गए और कार्तिकेय तो ममद्धि किससे करे ? तो महबुद्धि और ममबुद्धिको बहुत भागे चले गये । गणेशजीमे वहीं पर महादेवजीकी मिटामो, पर महबुद्धि और ममबुद्धि जिसमें होती है, उसे ही परिक्रमा करनी। जब कार्तिकेय लौटे और महादेवजीने जानो । देखो लोकमें वह मनुष्य मूर्ख माना जाता है जो गणेशजीकी भोर संकेत कर कहा, 'यह पहले भाए' तो अपना नाम, अपने गांवका नाम, अपने व्यवसायका नाम कार्तिकेयने पूछा 'यह पहले भाये? बताइये। उसी समय
ता हो उसी तरह परमार्थसे वह मनुष्य मूख इजा उन्होंने अपना मुंह फार दिया जिसमें तीनों लोक दीखने अपने पापको न जानता हो । इसलिये अपनेको जानो। वोहली नुम हो जभी तो सारा ससार है। श्राख माचला ता कुछ कमा करली।' तो केवलज्ञानीकी इतनी बड़ी महिमा है नहीं। एक प्रादमी मर जाता तो केवल शरीर ही तो किजिसमें तीनो लोकोंकी चराचर वस्तुए भासमान होने पदा रह जाता है बार फिर पञ्चन्द्रियां अपने अपने
लगती हैं। हाथी के पैरमें बतानो किसका पैर नहीं समाताविषयों में क्यों नहीं प्रवर्ततीं ? इससे मालूम पड़ता है कि
ऊंटका, घोडेका, सबोंका पैर समा जाता है। अतः उस उस प्रारमा एक चेतनाका ही चमत्कार है । उस जानकी बडी शक्ति है । और वह ज्ञान तब ही पैदा होता चंतनाका जाने बिना तुम्हारे सारे कार्य व्यर्थ है। है जब हम अपनेको जानें । पर पदार्थोसे अपनी चित्तवृत्ति
माह में ही इन सबको हम अपना ही मानते हैं। एक को हटाकर अपने में संयोजित करें । देखो समुद्रसे मानसून मनुष्यने अपनी स्त्रीसे कहा कि अच्छा बढ़िया भोजन उठते हैं और बादल बनकर पानीके रूपमें बरस पड़ते हैं। बनानो हम अभी खानेको भाते हैं । जरा बजार हो पाएँ। तो पानीका यह स्वभाव होता है कि वह नीचेकी भोर अब मार्गमे चले तो वहां मुनिरामका समागम हो गया। ढलता है। जब बरसा तो देखो रावी चिनाव झेलम सतउपदंश पातं ही वह भी मुन हो गया। और वहीं मुनि लज होता हुआ फिर उसी समुद्र में जा गिरता है। उसी बनकर आहारके लिये वहां मा गये। तो देखो उस समय प्रकार पारमा मोहमें जो यत्र तत्र चतुर्दिक भ्रमण कर रहा कैमा अभिप्राय था अब कैसे भाव हो गये । चक्रवर्ती ने हो था ज्योही वह माह मिटा तो यही प्रात्मा अपन में सिकुद दखा । वह छः खण्डका मोहमे ही तो पकड़े है । जब चराग्य कर अपने में ही समा जाता है । या ही केवलज्ञान उदय होता है तो सारी विभूतिको छोड़ बनवासी बन जाता होता है । ज्ञानको सय पर पदार्थोंसे हटाकर अपने में है। तो देखा वह उस इच्छाको ही तो मिटा देता है कि ही संयोजित कर दिया-बस केवलज्ञान हो गया । 'इदम् मम' यह मेरी है। वह इच्छा मिट गई अबका और क्या है? ग्वयको बताओ कौन संभाले ? जब महल हो न रहा तब हम पर पदार्थों में सुख मानते हैं। पर उसमें सवा उसका क्या करे इच्छाको घटाना ही सर्वस्व है। दानभी सुख नहीं है। मरावदाकी बात है। वहांसे ललितपुर २६ यदि इच्छा करके दिया जाय तो बेवकूफी है। समझो मीसकी दूरी पर पड़ता है। वहाँ सर्दी बहुत पड़ती है। यह हमारी चीज ही नहीं है। तुम कदाचित् यह जानते हो एक समय कुछ यात्री जा रहे थे । जब बीच में उन्हें अधिक कि यदि हम दान न देखें तो उसे कौन दे १ अरे उसे सर्दी मालूम हुई तो उन लोगोंने जंगलसं घासफूस एक्ट्रा सिलना होगा तो दूसरा दान दे देगा फिर ममत्व बुद्धि किया और उसमें दियासलाई लगा आँचसे तापने लगे। रखके क्यों दान देता है ? वास्तवमें तो कोई किसीकी चीज उपर वृत्ती पर बन्दर बेठे हुए यह कौतुक देख रहे थे। जब नहीं है । म्यर्थ ही अभिमान करता है। अभिमानको मिटा वे यात्री वांग चले गये तो बन्दर ऊपरसे उतरे और उन्होंने करके अपनी चीज मानना महाबुद्धिमत्ता है। कौन बुद्धि वैसा ही घासफूस इकट्ठा कर लिया। अब कुछ घिसनेक