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________________ ३४] अनेकान्त किरण १] नहीं होता उस तरह। ऐसी बस्तुकी मर्यादाके ज्ञानसे भर प्रयास करते हैं। पर, सिद्धान्त यही कहता है कि रहित जिनकी बुद्धि है ऐसे अज्ञानी जाव अपनी स्वाभा रागादिक छोड़ना ही सर्वस्व है। जिसने इन्हें दुःस्व-दायी विक उदासीनताको क्यों छोड़ते हैं और राग-द्वेषमय समम कर त्याग दिया, वही हमतो कहते हैं 'धन्य है।' क्या होते हैं ? कहने सुननेसे क्या होता है? इतने जनाने शास्त्र श्रवण कुछ लोग ज्ञानावरण कर्मके उदयको अपना घातक किया तो क्या सबके रागादिकांकी निवृति हो गई? अब मान दु:खी होते हैं। तो कहते हैं कि कर्मके उदयमें दुखी देखो पाल्हा उदलकी कथा बांचते है तो वहां कहते हैं होनेकी आवश्यकता नहीं है। अरे जितमा योपशम है 'थों मारा, यों काटा' पर यहां किसीके एक तमाचा तक उसी में पानन्द मानो । पर हम मानते कहां है। सर्वज्ञता नहीं लगा। तो केवल कहनेसे कुछ नहीं होता। जिसने लानेका प्रयास जो करते हैं। अब हम आपसे पूछते रागादिक त्याग दिए बस उसोका मजा है। जैसे हलवाई सर्वज्ञतामें क्या है। हमने इतना देख लिया और जान मिठाई तो बनाता है पर उनके स्वादको नहीं जानता। लिया तो हमें कौनसा सुख हो गया? तो देखने और वैसे ही शास्त्र वाचना तो मिठाई बनाना है पर जिमने जानने में सुख नहीं है। सुबका कारण उनमें रागादिक न चख लिया बस उसीको ही मजा है। होने देना है। सर्वज्ञ भी देखो अनंत पदार्थोंको देखते और आत्माका श्रावृत स्वरूप जानते हैं पर रागादिक नहीं करते, इसलिये पूर्ण सुखी हैं। भारमा अनन्त शक्ति तिरोभूत है । जैसे सूर्यका अतः देखवे और जाननेकी महिमा नहीं है। महिमा तो प्रकाश मेघपटलोंसे अच्छादित होने पर अप्रकट रहता है रागादिकके प्रभावमें ही है। वैसे ही कर्मोंके प्रावरणसे आत्माको अनन्त शक्तियां प्रकट लेकिन हम चाहते हैं कि रागादिक छोड़ना न पड़े जिस समय प्राव हट जाते है उसी समय और उस सुखका अनुभव भी हो जावे तो यह कैसे बने ? : वे शक्तियां पूर्णरूपेण विकसित हो जाती है । देखो निगोदमूखी खात्रो और केशरका स्वाद भी पाजाय; यह कैसे हो से लेकर मनुष्य पर्याय धारणकर मुक्तिके पात्र बने, इससे सकता है? रागादिक तो दुखके ही कारण हैं। उनमें यदि प्रास्माकी अचिस्य शक्ति ही तो विदित होती है अतः सुख चाहा ता कस मिल सकता हा रागता सवथा इय हा हमें उस (आत्मा) को जाननेका अवश्यमेव प्रयत्न करना है। अनादिकालसे हमने भारमाके उस स्वाभाविक सुखका चाहिये । जसे बालक मिट्टी के खिलौने बनाते फिर बिगाड स्वाद नहीं जाना, इसलिये रागके द्वारा उत्पन्न किंचित् देते है वैसे ही हम ही ने संसार बनाया और हम ही यदि सुखको वास्तविक सुख समझ लिया। प्राचार्य कहते हैं तो मार सक्त हो सकते हैं। कि परे उस सुम्बका कुछ तो अनुभव करो। अब देखो, हम नाना प्रकारके मनोरथ करते हैं। उनमें एक मनोकड़वी दवाको मां कहती है कि 'बेटा इसे प्रांख मीच कर रथ मुक्तिका भी सही । वास्तवमे हमारे सब मनोरथ पी जाओ। अरे, आँख मीचनेसे कहीं कड़वापन तो नहीं बालूकी भीतिकी भाँति ढह जाते हैं, यह सब मोहोदयकी मिट जायगा ? पर कहती है कि बेटा पी जामो। वैसे ही विचित्रता है । जहाँ मोह गला कोई मनोरथ नहीं रह उम सुखका किचित् भी तो अनुभव करो। पर हम चाहते जाता । हम रात्रि दिन पापाचार करते हैं और भगवानसे हैं कि बच्चोंसे मोद छोड़ना न पड़े और उस सुखका प्रार्थना करते हैं कि भगवान हमारे पाप क्षमा करें-यह अनुभव भी हो जाय। भी कहींका न्याय है? कोई पाप करे और कोई समा 'हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखा आ जाय।' करे । उसका फल उसहीको भुगतना पड़ेगा । भगवान अच्छा, बच्चोंसे मोह मत छोड़ो तो उस स्वामीक तुम्हें कोई मुक्ति नहीं पहुँचा देंगे । मुक्ति पानोगे तुम सुम्बका तो घात मत करो। पर क्या है ? उधर रष्टि नहीं अपने पुरुषार्थ द्वारा । यदि विचार किया जाय तो मनुष्य देवे इसीलिये दुःखके पात्र हैं। __ स्वयं ही कल्याण कर सकता है। ऐसी बात नहीं है किसीके रागादिक घटते न हों। एक पुरुष था । उसकी स्त्रीका अकस्मात् देहान्त हो सभी संसारमें ऐसे प्राणी है जो रागादिक छोदनेका शकि गया । वह बना दुखी हुमा । एक मादमीने उससे कहा
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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