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प्रात्मा
(श्री १०५ पूज्य तुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी)
भान स्वभाव पास्माका बावरे। लषण वही जो लिया तो स्वर्गमें जाधो और वेष कर लिया तो नरकमें बषयमें पाया जावे। पास्माका बाबज्ञान ही है जिससे पड़ी। इससे मध्यस्थ रहो । उनमें देखो, और जानो। जैसे बषय बास्माकी सिद्धि होती है। वैसे तो पास्मामें अनंत प्रदर्शनीमें वस्तुएं केवल देखने और जानने के लिये होती गुण है जैसे दर्शन, चारित्र, बीर्य, सुख इत्यादि, पर इन है वैसे ही संसारके पदार्थ भी केवल देखने और जानने मब गुणों को बतलानेवाला कौन है ? एक हान ही है। के लिये हैं। प्रदर्शनीमें यदि एक भी वस्तुकी चोरी करोतो धनी, निर्धन, रंक, राव, मनुष्य, स्त्री इनको कीन जानता बंधना पड़ता है उसी प्रकार संसार पदार्थोके ग्रहस है? केवल एक शान । ज्ञानही पास्माका असाधारण नषण करनेकी अभिलाषा करो तोपंधन, अन्यथा देखो और है। दोनों (भारमा और ज्ञान) के प्रदेशोंमें अमेदपना है। जानो। कभी स्त्री बीमार पड़ी तो उसके मोहमें ध्यान जानीजन ज्ञानमें ही लीन रहते और परमानन्दका अनुभव हो गये। वाई लानेकी चिन्ता हो गई; क्योंकि उसे अपना करते है।वह अन्यत्र नहीं भटकते और परमार्थसे विचारो मान लिया, नहीं तो देखो और जानो । निजत्वकीपमा नो केवल ज्ञानके सिवाय अपना है क्या? हम पदार्थोंका करना ही दुःखका कारक है। भोग करते है, बंजनारिके स्वार लेते हैं, उसमें ज्ञानका 'समयसार' में एक शिष्यने प्राचार्यसे प्रश्न कियाही तो परिणमन होता है। यदि ज्ञानोपयोग हमारा
महाराज! यदि भारमा ज्ञानी है तो उपदेश देनेकी पावदूसरी ओर हो जाय तो सुन्दरसे सुन्दर विषय-सामग्री भी
श्यकता नहीं । और अज्ञानी है तो उसे उपदेशको हमको नहीं सुहाये। उस ज्ञानकी अद्भुत महिमा है।
आवश्यकता नहीं । प्राचार्य ने कहा कि जबतक कर्म और वह कैसा है? दर्पणवत् निर्मल है। जैसे दर्पण में पदार्थ नोकर्मको अपनाते रहोगे अर्थात् पराक्षित बुद्धि रहेगी प्रतिविम्बित होते है वैसे ही शानमें ज्ञेय स्वयंमेव मसकते
तबतक तुम अज्ञानी हो और जब स्वाभित बुद्धिही है। तो मी ज्ञानमें उन ज्ञेयोंका प्रवेश नहीं होता। अब
जायगी नभी नुम ज्ञानी बनोगे। देखो, दर्पगाके सामने शेर गुजार करता है तो क्या शेर
एक मनुष्यके यहाँ दामाद और उसकारका माता पंयम चला जाता है? नहीं। केवल दर्पणमें शेरके
है। बड़का तो स्वेच्छाले इपर-उधर पर्यटन करता है। श्राकाररूप परिणमन अवश्य हो जाता है। वर्षय अपनी
परन्तु दामादका अद्यपि अभ्यधिक भादर होतास भी जगह पर है, शेर अपने स्थानपर है। उसी तरह ज्ञानमें
वह सिकुला-सिकुदासा घूमता है। अतएव स्वाचित बुद्धिही शेय मसकते हैं तो मलको उसका स्वभावही देखना और
कल्याणप्रद है। आचार्य ने वही एक शान-स्वरूप में जानमा इसका कोई क्या करे? हाँ, रागादिक करना
बीन रहनेका उपदेश दिया है। जैसाकि नाटक समयसारमें यही बन्धका जनक है। हम हमको देखते हैं, उनको देखते
लिग:है और सबको देखते हैं, तो देखो, पर अमुझसे रूचि हुई
'पूर्णकाच्युतशुद्धबाध महिमा बोद्धा न बोम्यादयं । उससे राग और अमुकसे अचि हुई उससे द्वेष कर लिया,
यायात्कापि विक्रिया तत इतो दोपः प्रकाश्यादिव ।। यह कहांका न्याय है ? बतायो। अरे उस ज्ञानका काम
तवस्तुस्थितिबांधवन्धधिषणा एते किमहानिनो। केबल देखना और जानना मात्र था, सो देख लिया और जान लिया। चलो बुट्टी पाई। ज्ञानको ज्ञान रहने देनेका '
रागद्वेषमया भवन्ति सहजा मुंचन्त्युदासीनताम ।२६।' ही उपदेश है, उसमें कोई प्रकारको इप्टानिष्ट कल्पना
यह ज्ञानी पूर्ण एक अच्युत राड (विकारसे रहित) करनेको नहीं कहा। पर हम बोग ज्ञानको शान कहां
ऐसे ज्ञानस्वरूप जिसकी महिमा है ऐसा है। ऐसा हानी रहने देते हैं? कठिनता तो यही है।
ज्ञेच पदार्थो कुछ भी विकार को नहीं प्राप्त होता । जम भगवानको देखो और जायो । यदि उनसे राग कर दीपक प्रकाराने योग्य बट पदादि पदायोमे विकारको प्राप्त