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________________ अनेकान्त [ किरण १ तुम्हारे वीतराग भाव होंगे तत्क्षय तुम्हें सुखकी प्राप्ति होगी : आमाकी विलक्षण महिमा है । कहना तो सरल है पर जिसने प्राप्त कर लिया वही धन्य है और जितना पढ़ना लिखना है उसी श्रात्माको पहचानेके अर्थ हैं ! पुस्तकोंका निमत्त पाकर वह विकसित हो जाता है वैराग्य कहीं नहीं वहा ? तुम्हारी आत्मामें ही विमान है। अतः जैसे बने वैसे उस आत्माको पहचानो । ३६] चाहिए तो दिवासबाईकी जगह वे जुगनूको पकड़कर लाए और घिसकर डालदी पर भाँच नहीं सुलगे । बार बार वे उन्हें पकड़ कर जाए और घिस बिस कर डाल दें पर पाँच सुखगे तो कैसे सुलगे । इसी तरह पर पदार्थोंमें सुख मिले तो कैसे मिले ? वहाँ तो आकुलता ही मिलेगी और आकुलतामें सुख कहाँ ? तुम्हें प्राकुलता हुई कि चलो मन्दिर में पूजा करें और फिर शास्त्र श्रवण करें। तो जब तक तुम पूजा करके शास्त्र नहीं सुन लोगे तब तक तुम्हें सुख नहीं है; क्योंकि प्राकुलता लगी है। उसी श्राकुलताको मिटाने के लिए तुम्हारा साग परिश्रम है। तुम्हें दुकान खोलने की आकुलता हुई। दुकान खोल ली चलो आकुलता मिंट गई। तुम्हारे जितने भी कार्य है सब श्राकुलताका मेटनेके लिए हैं। तो श्राकुलतामें सुख नहीं । आत्मा का सुख निराकुल है वह कहीं नहीं है, अपनी श्रात्मामें ही विद्यमान है; एक चय पर पदार्थोंसे राग द्वेष हटा कर देखो तो तुम्हें आत्मामें निराकुल सुख प्रकट होगा। यह नहीं, अब कार्य करें और फल बादको मिले। जिस क्षण एक कोरी था। उसे कहींसे एक पाजामा मिल गया । उसने पाजामा कभी पहिना तो था नहीं। वह कभी मिरसे इसे पहिनता तो ठीक नहीं बैठता। कभी कमरमे लपेट लेता तो भी ठीक नहीं बैठता। एक दिन उसने ज्योही एक पैर एक पाजामामें और दूसरा पैर दूसरेमें डाला तो ठीक बैठ गया । वह बड़ा खुश हुआ। इसी तरह हम भी इतस्तत: भ्रमण कर दुखी हो रहे हैं। पर जिस काल हमे अपने स्वरूपका ज्ञान होता है तभी हमें सच्चे सुखकी प्राप्ति होती है । इसलिये उसकी प्राप्तिका निरन्तर प्रयाम करना चाहिये । ( मुरार में दिए हुए प्रब बनोसे) हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण efers गोम्मटेश्वर बाहुबलीकी उस लोक प्रसिद्ध प्रशान्तमूर्तिका दर्शन, महामस्तिकाभिषेक, जो बारह वर्ष में सम्पन्न होता है, उसे देखने तथा अन्य तीर्थ क्षेत्रो की यात्रा करने एवं उनके सम्बन्धमें कुछ ऐतिहासिक बातें मालूम करनेकी आकांक्षा मेरे हृदयमें उथल-पुथल मचा रही थी। और तीर्थयात्रा के लिए अनेक संघ भी जा रहे थे तथा देहलीके प्रतिष्ठित सज्जन और वीरसेवामन्दिर के व्यवस्थापक ला• रामकृष्णजीजैनने अपनी मोटर द्वारा सपरिवार यात्रा करना निश्चित कर लिया था, उन्हें यात्राका अनुभव भी था, कार्य : कुसलता उनके कर्मठ व्यक्ति होनेकी ओर संकेत भी कर रही थी। बालाजीने वीर सेवामन्दिरके अधिष्ठाता साहित्य तपस्वी प्राचार्य शगुन किशोरजी मुख्तार से प्रेरणा की कि तीर्थयात्रा के सम्बन्ध में ऐसी कोई पुस्तक नहीं है, जिसमें तीर्थक्षेत्रोंका ऐतिहासिक परिचय निहित हो और तीर्थयात्राके मार्गों तथा मात्रियोंके ठहरने प्रादिके स्थानोंका भी निर्देश हो, जिससे यात्री अपनी यात्रा सुविधापूर्वक कर सकें। इसके सिवाय, श्रवणबेसगोल जैसे पवित्र स्थान पर वीरसेवामन्दिरका नैमित्तिक अधिवेशन करने, मार्ग में पड़ने वाले तीर्थक्षेत्रों का इतिहास मालूम करने एवं वहाँकी ऐतिहासिक सामग्री के संकलित करने और उनके चित्रादि लेनेकी योजनाको सम्पन्न करनेकी भावना व्यक्तकी उक्त भावनाको साकार रूप देने तथा उन सब सद् उद्देश्यांको लेकर मुस्तार लाहबने भी वीरसेवामन्दिर संघ लं चलने की अपनी स्वीकृति प्रदान की फलस्वरूप किरायेकी एक लारीमें बीरसेवा मन्दिर परिवार, जिसमें एक फोटोग्राफर भी शामिल है, तथा अन्य कुछ सज्जन जिनमें बा पन्नालालजी अग्रवाल, देहली भी थे । हम सब बागोने गणतंत्र दिवस मनानेके उपरान्त वा० २६ जनवरीको लाला राजकृष्णजीकी अपनी स्टेशन बैंगनके साथ चार बजे के करीब देहलीसे प्रस्थान किया ! और
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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