SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण १०] को क्षति पहुंचाने का कोई उपक्रम नहीं कियां । बीजापुर से चलकर हम लोग रास्ते में एक बड़ी नदीको पार कर १ बजेके करीब शोलापुर पहुँचे और जैन श्राविकाश्रममें टहरे । हमारी तीर्थयात्रा के संस्मरण 1 प्रात कालको नैमित्तिक क्रियाओंसे फ़ारिख हो कर जिनमन्दिर में दर्शन किये और श्रीमती सुमतिवाईने श्राविकाश्रम में एक सभाका आयोजन किया जिसमें मुख्तार साला ० राजकृष्णजी बाबूलाल जमादार, मेरा, विद्युल्लता और सुमतिबाईजीके संक्षिप्त भाषण हुए । श्राविकाश्रमका कार्य अच्छा चल रहा है। श्री सुमतिबाई जी अपना अधिकांश समय संस्था संचालनमें तथा कुछ समय ज्ञान -गोष्ठी में भी बिताती हैं। सालापुरमें कई जैनसंस्थाएँ हैं । जैन समाजका पुरातन पत्र 'जैन बोधक' हाॅ से ही प्रकाशित होता है, श्रीकुन्थुसागर मंथमालाके' प्रकाशन भी यहाँ से ही होते हैं और जीवराज ग्रन्थमालाका आफिम और सेठ माणिकचन्द दि० जैन परीक्षालय बम्बईका दफ्तर भी यहाँ ही है । सोलापुर व्यापारका केन्द्रस्थल है। सोलापुरसे ता० १२ के दुपहर बाद चल कर हम लोग वार्सी आए। और वहां सेठजीके एक क्वाटरमें ठहरे जो एक मिलके मालिक हैं और जिनके अनुरोधसे आचार्य शांतिसागरजी उन्हींके बगीचे में ठहरे हुए थे । हम लोगोंने रात्रिमें विश्राम कर प्रातःकाल आवश्यक क्रियाओंसे निमिट कर आचार्यश्री के दर्शन करने गये । प्रथम जिनदर्शन कर आचार्य महाराजके दर्शन किये, जहाँ पं० तनसुम्बरायजी कालाने लाला राजकृष्णजी और मुख्तार साहब आदिका परिचय कुछ भ्रान्त एवं आक्षेपात्मकरूपमें उपस्थित किया जिसका तत्काल परिहार किया गया और जनता ने तथा आचार्य महाराजने पंडितजीकी उस अनर्गल प्रवृत्तिको रोका। उसके बाद आचार्य महाराजका उपदेश प्रारम्भ हुआ । आपने श्रावक व्रतोंका कथन करते हुए कहा कि जिन भगवानने श्रावकोंको जिन पूजादिका उपदेश दिया । तब मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीने आचार्यश्रीसे पूछा कि महाराज श्राचार्य पात्रकेशरीने, जे. अकलंकदेव से पूर्ववर्ती हैं, उन्होंने अपने 'जिनेन्द्रस्तुति' नामके प्रन्थ में यह स्पष्ट बतलाया है कि ज्वलित (देदीप्यमान) केवल ज्ञानके धारक जिनेन्द्रभगवानने [ ३२१ मुक्ति-सुबके लिये चैत्यनिर्माण करना, दान देना और पूजनादिक क्रियाओं का उपदेश नहीं दिया; क्योंकि ये सब क्रियाएँ प्राणियोंके मरण और पीड़नादिककी कारण हैं; किन्तु आपके गुणों में अनुराग करने वाले श्रावउनके निम्न पद्यसे स्पष्ट है कोंने स्वयं ही उनका अनुष्ठान कर लिया है जैसा कि "विमोक्षसुखचैत्यदानपरिपूजनाद्यात्मिकाः, क्रिया बहुविधासुभ्रन्मरणपीड़नादिहेतवः ।” त्वया ज्वलितकेवलेन नहि देशितः किंतु तास्त्वयि प्रसृतभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः || ३७॥ इस पद्यको सुनकर आचार्यश्रीने कहा कि आदिपुराण में जिनसेनाचार्योंने जिनपूजाका सम्मुल्लेख किया है । तब मुख्तार साहबने कहा कि भगवान आदि नाथने गृहस्थ अवस्थामें भले ही जिनपूजाका उपदेश दिया हो; किन्तु केवलज्ञान प्राप्त करनेके बाद उपदेश दिया हो, ऐसी कोई उल्लेख अभी तक किसी प्रन्थमें देखने में नहीं आया । इसके बाद आचार्यश्रीसे कुछ समय एकान्त में तत्त्व चर्चाके लिए समय प्रदान करनेकी प्रार्थन की गई, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया । अनन्तर आचार्यश्री चर्याके लिए चले गए। और हम लोग उनके आहारके बाद डेरे पर आये, तथा भोजनादिसे निवृत्त होकर और सामानको लारीमें व्यवस्थि कर आचार्यश्री के पास मुख्तार सा०, लाला राजकृष्णजी और सेठ छदामीलालजी बाबूलाल जमादार और मैं गए। और करीब डेढ़ घण्टे तक त्रिविध विषयों पर बड़ी शांति से चर्चा होती रही। पश्चात् हम लोग ४ बजेके लगभग वार्सटाउनसे रवाना होकर सिद्ध क्षेत्र कुंथलगिरी श्राये | कुंथलगिरिमें देखा तो धर्मशाला यात्रियोंसे परिपूर्ण थी । फिर भी जैसे तैसे थोड़ी नींद लेकर रात्रि व्यतीत की, रात्रिमें और भी यात्री आये । और प्रातःकाल नैमित्तिक क्रिय वन्दना की । निर्वाणकाण्डके अनुसार कुंथलगिरिसे कुलभूषण और देशभूषण मुनि मुक्ति गये थे जैसा कि निर्वाणकाण्डकी निम्न गाथासे प्रकट है। वंसस्थलवरणियरे पच्छिमभायम्मि कुंथुगिरीसिहरे कुलदेसभूषणमुखी, णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥ : यहाँ पर १० १२ मन्दिर हैं। पर वे प्रायः सब ही
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy