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________________ ३६६ ] अनेकान्त [किरण १२ (१) होऊण जगदि पुज्जो अक्खयसो क्खं लहइ मोक्खं । पालेइ कट्ठसहियं सो गाहदि उत्तम ठाणं । (मूलाचार, गुणा०३६) (लिंगपाहुर २२) सो तेण वीदरागो भविश्रो भवसायरं तरदि। (५) एवं मए अभियुदा अणगारा गारवेहिं उम्मुक्का । (पंचास्तिकाय १७६ (२) जो उवजूंजदि पिच्चं सो सिद्धि जादि विसुद्धप्पा। धरणिधरेहिं य महिया देंतु समाधिं च बोधि च ॥ (मूला. पडाव. १९३) (मूलाचार अनगारभा० १२१) अत्थे ठाहिदि चेया सो होहि उत्तमं सोकावं । एवं मएऽभित्र्या अणयारा रागदोसपरिसुद्धा । - (समयसार ५१४) संघस्स वरसमाहिं मज्झवि दुक्खक्खयं दितु ।। (३) तह सव्वलोगणाहा विमलगदिगदा पसीदंतु। (योगिक्ति, २३) (मूलाचार बारसश्रणु०७१) अन्तिम सदरणका साहश्य हो दोनों रचनामोंकी एक सिग्धं मे सुदलाहं जिणवरवसहा पयच्छंतु । (श्रतभक्ति ) प्राचार्य-कत ताका स्पष्ट उद्घोष कर रहा है। (४) जो पालेदि विसुद्धो सो पावदि सव्वकल्लाणं । उपयुक्त तुलनासे पाठक स्वयं हो इस निर्णय पर (मूलाचार. शीलगु० १२५) पहुंचेंगे कि मूलाचारके रचयिता प्राचार्य कुन्दकुन्द ही हैं। श्रमण बलिदान ( श्री अखिल) [यह लेख ई. सन् १९१० में मद्रासकी पोन्नि' नामक तामिलपत्रिकाके मकान्ति-विशेषांक में प्रकट हुना था। इसके प्रशंसनीय लेखक 'अखिल' नामक व्यक्ति हैं जो कि समताभाव एवं मचाई के साथ लिखने वाले ऊंचे दर्जे के लेखकों में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने तामिल में कई पुस्तकें लिखी हैं जिनके कारण इनका नाम स्खून प्रसिद्ध है। इनकीलेम्वनशैली एवं यथार्थ भावनाका पाठक इस लेखसे कितना ही पता लगा सकते हैं। आपने अजैन होते हुए भी जैनस्वकी गरिमा पर खुले दिलसे विचार किया है। साथ ही 'सित्तावासल' पुदुक्कोटा) के कलामय एक चित्रको आधार बना कर ८वीं सदोमें जैनोंके प्रति अजैनों द्वारा जो अनर्थ एवं पैशाचिक नरसंहारका अनुष्ठान 'तिरुनावुक्करसु' एवं संबन्ध नामक ब्राह्मणोंके हाथों किया गया था उसका छोटा सा वर्णन किया है। इसके अलावा जैनिया द्वारा तामिलके प्रति की हुई साहित्य-सेवा और उसके गुणका अभिनन्दन भी किया है। इस उत्तर हिन्दुस्तान वाले भी पढ़कर विचारमे नासके, इसीलिए हिन्दीमें यह भाषान्तर प्रस्तुत किया गया है -अनुगदक मल्लिनाथ जैन शास्त्री। 'लोकाः भिरचयः' इस नोतिके अनुसार लौकिक-जन मारुत अपनी मन्दगतिसे चलकर प्रामोद - प्रमोद भिन्न-भिन्न रुचि एवं विचार वाले होते हैं; तदनुसार मैं कराता है। भी एक दिन कुछ रसिक. लेखक और प्रकाशक आदि मित्र हम लोग वहाँ सम्प्रति 'एनडिपट्टम' के नामसे महानुभावाक साथ एक छोटे पहाड़ पर चित्रित "सित्ता पुकारी जाने वाली एक गुकामें प्रविष्ट होकर अपनी वासल' की सुन्दर एवं पुरातन सजीव चित्रकलाको देखने- थकावटको दूर करनेके वास्ते बैठने लगे और हममें से के लिये निकल पड़ा। कुछ उस चिकनी राथ्यापर भारूढ़ होकर अपने तन एवं ___ वह मनोज्ञ स्थान 'पुदुक्कोग' से करीब दस मीलकी मनको सन्तोष पहुंचाने लगे। मैं भी उनमेंसे एक हूँ इसे दूरी पर है। वहाँ जंगलके बीच में पहाडके पत्थर पर खोद भूल न जाइयेगा । लेटने पर दो तीन मिनट के अन्दर ही कर कलाविज्ञ श्रमणों (जैनों) ने अपनी कर-कौशलता मुझे गाढ निद्रा मा गयी और मैं सो गया। (स्वप्नमें)दिखलाई हैं। वहाँ दो तीन शय्यायें बनायी गयी है जिन पहारसे गिरने वाली छोटो भरनीके शब्दसमान मन्दहासपर हाथ रखनेसे हाय सचिक्कनताका अनुभव करने जगता का मधुर बन्द गंज उठा। मुडकर देखा-मित्रोंमें से है। प्रीष्मकानकी कठिन धूपके समग्रमें भी वहाँ मन्द- एक भी नहीं है। लेकिन एक नवयौवना नारी मेरे सम्मुख
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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