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________________ मात्मा, चेतना या जीवन [१४५ ही कर सकते है। पास्माको केवल भास्मा-द्वारा ही की एकाग्रता जिस विषबकी भी हो उस विषयमें समताको अनुभूत किया जा सकता है। प्रारम्भमें मनकी एकाग्रता बढ़ाती है। यदि ध्यानका विषय राधमात्मा ही स्वयं इसमें सहायक होती है। मनको भात्माके वध निर्मल हो तब तो पूचना ही क्या । ज्वानके वरीकोंका और स्वरूपके ध्यानमें जगानेसे साधना और ध्यानकी शुद्धताके अभ्यास बढ़ानेके दंगोंका विशद-वर्णन जैन शास्त्रोसे मात्र अनुसार धीरे धीरे ध्यान स्वयं अधिकाधिक गंभीर होगा । जैसा हम ध्यान करेंगे वैसा ही हम हो जायंगेऔर राख होता जाता है। शास्त्रोंके मननसे ज्ञानको यह बिलकुल सही बात है। तीर्थकर भगवानकी राध वृद्धि और शुद्धि होती है। इन दोनोंकी मदवसे स्वयं ध्यानस्थ-मूर्तिका वर्शन और ध्यान करनेसे हमारे अन्दर तर्क और बुद्धिका उपयोग करके पारमाके शरीरस्थिा भी वैसी ही भावनाएं उत्पन और पुष्ट होती हैं। भयंकर स्वरूपकी धारणा और उसके गुणोंका विशुद्ध ज्ञान मतियोंके या रूपोंके दर्शन और ध्यानसे हमारी भावनाएं प्राप्त होता है। यही ज्ञान और धारणा सुद्ध हो भी तदनुरूप ही हो जाती है । पद्ध, प्रकाशमब जाने पर ध्यानकी गहराई स्वयं प्रास्माको प्रारमा मामाका ध्यान हमें उत्तरोत्तर उपत्त और शुद्ध बनाता जीन करने बगती है और तब कभी न कभी स्वयं है। पात्माकी अर्चगति इसी प्रकार संभव है। मात्मप्रकाश उदय हो जाता है। यही वह अवस्था है जहाँ पूर्णज्ञानकी उपलब्धि होकर प्रात्मा निराबाध, निर्विकल्प संसारमें भी हम पाते है कि जो चास्मामें विश्वास निर्द्वन्द, निर्बन्ध हो जाता है और तब पुद्गलसे छूटकर करते हैं वे अधिक गंभीर और भाचरण पक्के होते है। अपनी परमशुद्ध पूर्णज्ञानमय अवस्थामें स्थिर हो जाता जो प्रामामें विश्वास नहीं करते वे नदी ही विभिन है। इसे ही मोष कहते हैं। व्यसनोंके शिकार होकर अम्स में अपना सब कुछ गंवाकर निराश और दुम्बी ही होते हैं। जबकि भारमा विश्वास मोक्ष ज्ञानको वृद्धि द्वारा ही संभव है। ज्ञान भी शुद्ध, करने वाला दुखमें भी धीर गंभीर रहता है और ठीक, सही ज्ञान हाना चाहिए । गलत ज्ञानकी वृद्धिसे उमका दुख भी सुबमें परिणत होजाता है। प्रात्मामें मोच नहीं हो सकता है उलटा जड़-पुद्गल (Matter) विश्वास करनेसे मनुष्यको अपने जीवनके स्थायित्व में का सम्बन्ध या बन्धन और अधिक कड़ा होगा। पारमा विश्वास होता है। वह इस जन्म में जो कुछ करता को पुद्गलसे सर्वथा भित्र सममना और ज्ञान चेतनामय उसका चच्छा फल उसे अगले जन्म में अच्छे वातावरण शुद्ध देखना ही सच्चा ज्ञान है । भारमाके गुण अलग हैं और परिस्थितियों में ले जाता और रखता है या पैदा और पुद्गलके गुण अलग । दोनोंका जब तक संयोग रहता है दोनोंके गुणोंके सम्मिलनके फलस्वरूप हम जीवधारियामे विभिन्न गुणोंको पाते हैं। शरीरका हलन चलन पाप्मामें तो अनंतगुण, शक्ति और मानन्द है। इनका विकाश करनेके लिए शुद्ध-ज्ञान-पूर्वक, ध्यान, पुद्गलका गुण है और चेतना प्रारमाके कारण है। चेतना अभ्याम, अध्यवसाय और चटाका सतत होना भावश्यक ही चेतनाके विकाशका कारण, आधार और जरिया है। हैं। ऐसे हट लगन युक्त बल द्वारा भी यदि सफलता जर तो चेतनाको कम ही करने वाला है। जितना जितना न मिले तो उसमें कहीं दोष या कभोका होना ही कारण चेतना (ज्ञान) का विकास होता जाता है उसे ही सांसारिक हो सकता है। दोष या कमीको ईद कर उसे दूर करना भाषामें प्रात्मविकाश कहते हैं। प्रारमविकाशके लिये चाहिए । बार बार लगातार कोशिश और अभ्यासमेअच्छा स्वस्थ शरीर उपयुक्त वातावरण में जम्म, समुचित से ही कुछ उचित फलकी उपलब्धि हो सकती हैं। परिस्थितियोंका होना और पावश्यक शिक्षा संस्कृति शरीरिक अवस्थामे या गाईमध्यमें मन ही ध्यानका जरूरी है। ध्यानके लिए भी इनकी जरूरत है। ज्ञान शुद्ध प्राधार है। मन बना ही चंचल है। इसका स्थिर होना होने से ही ध्येय भी राख हो सकता है। ध्येय जब तक - - राब न हो तो ध्यान भी बेकार ही है। देखो, मेरा लेख "शरीर का रूप और कर्म, जो साधारण गृहस्थ मानव भी शुद्ध मारमाका ध्यान अखिब विश्व जैन मिशनसे ट्रैक्टरूपमें अमूल्य प्राप्त करके अपने गुणो और पमतानों को बढ़ा सकता है । ध्यान हो सकता है।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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