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मूलाचारकी मौलिकता और उसके रचयिता
(श्री पं० हीरालाल जो सिद्धान्तशास्त्री) 'मूलाचार' जैन साधुमोके प्राचार-विचारका निरू- प्राचीन साहित्यमें उसका कोई उल्लेख अभी तक देखने व पण करने वाला एक बहुत ही महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक सुनने में नहीं आया । यह लेख मापने 5-1-३८ में लिखा था ग्रंथ है, जिसे दिगम्बर-सम्प्रदायका भाचारांगसूत्र माना इसलिए बहुत संभव है कि तब तकके आपके देखे हुए जाता है और प्रत्येक दिगम्बर जैन साधु इसके अनुपार अन्यों में इसका कोई उल्लेख भापको प्राप्त न हुआ हो । ही अपने मूलोत्तर गुणोंका पाचरण करता है। पर सन् ११३८ के बाद जो दि० सम्प्रदायके षट्खंडागम, ___ मूलाचारके का 'वकेराचार्य माने जाते हैं, पर तिलोयपण्णत्ती भादि प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशमें पाए है, उनकी स्थिति अनिर्णीत या संदिग्धसी रहने के कारण कुछ उन तकमें इस मूलाचारके उल्लेख मिलते हैं। पाठकोंकी विद्वान् इसे एक संग्रह ग्रन्थ समझते हैं और इसी लिये जानकारीके लिए यहाँ उक्त दोनों प्रन्थोंका एक-एक उल्लेख मूलाचारकी मौलिक गाथानोंको प्रन्यान्तरों में पाये जाने दिया जाता है :मात्रमे वे उन्हें वहाँसे लिया हुमा भी कह देते हैं। श्वेता (1) षटखण्डागम भाग के पृष्ठ ३१६ पर धवला म्बर विद्वान् प्रज्ञाच्नु पं० सुखलालजी सन्मति-प्रकरणके टीकाकार प्राचार्य वीरसेन अपने मतकी पुष्टि करते हुए द्वितीय संस्करणको अपनी गुजराती प्रस्तावनाम लिखते दिखते हैं :
'तह पायारंगे वि उत्तं- दिगम्बराचार्य वट्टकेरकी मानी जाने वाली कृति पंचस्थिकाया य छज्जीवणिकायकालदबमएणे य । 'मुलाचार' प्रयका बारीक अभ्यास करने के बाद हमें खातरी हो गई है कि वह कोई मौलिक ग्रन्थ नहीं है, परन्तु
आणागेज्मे भावे आणाविचएण विचिणादि ॥ एक संग्रह है। वहकरने सन्मतिकी चार गाय ए (२,४..
यह गाथा मूलाचार (१,२०२) में ज्योंकी त्यों पाई ३) मूलाचारके समयसारराधिकार 1 80) में की जाती है। इस उन्लेखसे केवल मुखाचारकी प्राचीनताका हैं. इससे आपन इतना कह सकते हैं कि यह ग्रंथ सिदमनके ही पता नहीं चलता, बस्कि वीरमनाचार्यके समय में वह बाद संकलित हुआ है।"
'चारांग' नामसे प्रसिद्ध था, इसका भी पता चलता है। इसी प्रकार कुछ दिगम्बर विद्वान भी ग्रन्थकादिकी प्रा० वारसनकी धवला टीका शक सं० ७३८ मे बन कर स्थिति स्पष्ट न होनसे इस संबह प्रन्थ मानते पा रहे हैं. समाप्त हुई है। जिनमें पं० परमानन्दजी शास्त्रीका नाम उस्लेखनीय है। (२) दूसरा उल्लेख धबलाटीकासे भी प्राचीन ग्रन्थ जिन्होंने अनेकाम्त वर्ष किरण ५ में 'मूनाचार संग्रह तिलोयपण्णत्तीमें मिलता है, जो कि यतिवृषभकीबनाई हई प्रन्थ है। इस शीर्षकसे एक लेख भी प्रगट किया है और है और जिनके समयको विद्वानांने पांचवीं शताब्दी माना , उसके अन्तम लेखका उपसंहार करते हुए लिखा है:- है। तिलोयपण्णसीके पाठवे अधिकारकी निम्न दो गाथा___ "इस सब तुखना और अन्य के प्रकरणों अथवा प्रधि- भामें देवियोंकी आयुके विषय में मतभेद दिखाते हुए यतिकारोंकी उक्त स्थिति परसे मुझे तो यही मालूम होता है वृषभाचार्य लिखते हैं:कि मूलाचार एक संग्रह अन्य है और उसका यह संभहस्व पलिदोवमाणि पंच य सत्तारस पंचवीस पणतीसं। अथवा सकलन अधिक प्राचीन नहीं है, क्योंकि टीकाकार
र चउसु जुगलेसु भाऊ णादव्या इंददेवीणं ॥५३१॥ वसुनन्दीसे पूर्व के प्राचीन साहित्यमें उसका कोई उल्लेख अभी तक देखने तथा सुनने में नहीं पाया।"
* पारणदुगपरियं वदंते पंचपल्लाई । ___ उपरि-लिखित दोनों उदारणोंसे यह स्पष्ट है कि ये मूलाधारे इरिया एवं पिउणं शिरूवेंति ॥५३२॥ विद्वान् इसे संकलित और अर्वाचीन ग्रंथ मानते हैं।
पति-चार युगों में इन्द्र-देवियोंकी मायु-कमसे पं. परमानन्दजीने 'मुजाचार'को अधिक प्राचीनन पांच, सत्तरह, पच्चीस और पैतीस पस्यप्रमाण जानना माननेमें युक्ति यह दी है कि टीकाकार बसुनन्दोसे पूर्व के चाहिए ॥१३॥इसके भागे भारवयुगल तक पांच पांच