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अनेकान्त
[किरण
जैन मन्दिरोंका पुनः निर्माण कराया था और अपने दानों- इस पत्र में बनाया गया है कि इन्द्र के मस्तक पर से १६...) गंगवारिको कोपाके समान प्रसिद्ध किया बगे हुए मणियोंमे जरित मुकुर की माता पंकिसे पूजित था। उक्त गंगराजको रायमें सात नरक निम्न थे-मूठ भुवनत्रयके लिये धर्मनेत्र, कामदेवका अन्त करने वाले बोलना, युद्ध में भय दिखाना, परदारारत रहना, शरणा- जन्म जरा और मरणको जीतने वाले उन विजय पार्श्वनाथ थियोंको प्राशय न देना, अधीनस्थोंबो अपरितृप्त रखना, जिनेन्द्र के खिये नमस्कार हो। जिन्हें पासमे रखना आवश्यक है उन्हें छोष देना और यह मन्दिर जितना सुन्दर बना हुआ है खेद है कि अपने स्वामीसे विद्रोह करना।
माजकल इस मन्दिरमें बिल्कुल सफाई नहीं है, उसमें उक सेनापति गङ्गराज और नागनदेवीसे 'बोप्प' हजारों चमगाद लटकी हुई है जिनकी दुर्गान्धसे दर्शकनामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसके कुलगुरु गौतमगण का जी ऊब जाता है, और वह उममे बाहर निकलने धरकी परम्परामें प्रख्यात मलधारीदेवके शिष्य शुभचन्द- जल्दी प्रयत्न करता है। मैसूर सरकारका कर्तव्य है कि देव थे जो बोपदेवके गुरु थे, और बोपदेवके पूज्य गुरु वह उस मन्दिरको सफाई करानेका यत्न करे । जब सरकार गंगमहलाचार्य प्रभाचन्द्र सैद्धान्तिक थे । बोपदेवन दोर पुरातन धर्मस्थानोंकां अपना रक्षक माननी है, ऐमो हालतमें या द्वार समुद्र के मध्यमें अपने पिताकी पवित्र स्मृतिमें उसके संरचणादिका पूरा दायित्व सरकार पर ही निर्भर उक्त पाश्वनाथ वस्तिका निर्माण कराया था। उसमें भग- हो जाता है। प्राशा है मैसूर सरकार इस सम्बन्धम पूरा वान पार्श्वनाथकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा नयकीर्ति सिद्धान्त- विचार करेगी। चक्रवर्तक द्वारा शक सं० १.१५ (वि. सं. ११६४) २ आदिनाथवस्ति-दुसरा मन्दिर भगवान प्रादिमें सोमवारके दिन सम्पा कराई गई थी, जो मूलसंध नाथका है जिसे सन् ११३८ में हेगड़े मल्जिमायान कुन्दकुम्दान्वय देशीयगण पुस्तकगच्छके विद्वान थे। भागे बनवाया था। शिवालेखमें बतलाया गया है कि हनसोगे ग्रामके समीप- ३ शान्तिनाथवस्ति-तीसरा मन्दिर भगवान शाति. वर्ती इस द्रोह घरजिनालयकी प्रतिष्ठाके बाद जब पुरोहित नाथका है। इस मन्दिर में शान्तिनाथकी १४ फुट उची चढ़ाए हुए भोजनको बंकापुर विष्णुवर्द्धनके पास ले गए खगासनमूर्ति विराजमान है। यह मन्दिर सन् १२०४ तब विष्णुवईनने मसण नामक प्राक्रमण करने वाले का बना हुआ है। इस मन्दिरमें एक जैन मुनिका अपने राजाको परास्त कर मार दिया और उसकी राज्यनी जन्त शिष्यको धर्मोपदेश देनेका बड़ा ही सुन्दर दृश्य अकित कर ली। उसी समय उसकी रानी लक्ष्मीमहादेवीके एक है। मूर्तिके दोनों ओर मस्तकाभिषेक करनेके लिये सीढ़ी पुत्र उत्पन्न हुआ, जो गुणोंमें दशरथ और नहुष के समान बनी हुई हैं। और मन्दिरके सामने वाले मानस्तम्भमें था। राजाने पुरोहितोंका स्वागत कर प्रणाम किया और श्रीगोम्मटेश्वरकी मूर्ति विराजमान है। यह समझ कर कि भगवानकी पार्श्वनाथ प्रतिष्ठासे युद्ध- हलविडमें सबसे अच्छा दर्शनीय मन्दिर होयसलेश्वर विजय और पुत्रोत्पत्ति एवं सुख-समृद्धि के उपनक्षमें विडणु- का है। कहा जाता है कि इस कलात्मक मन्दिरके निर्माणबर्डनने देवताका नाम 'विजय पारवनाथ' और पुत्र का कार्य में ८६ वर्षका समय लगा है। फिर भी वह अधूरा नाम विजयनरसिहदेव' रक्खा, और अपने पुत्र की सुख- ही है-उसका शिखर अभी तक मी पूरा नहीं बन सका समृद्धि एवं शान्तिकी अभिवृद्धि के लिये 'मान्दिना के है पर यह मन्दिर जिस रूप में अभी विद्यमान है वह अपनी जावगरका मन्दिरके लिये दान दिया, इसके सिवाय, और ललित कलामें दूमा सानी नहीं रखता । इसकी शिक्ष्पभी बहुतसे दान दिये । उक्त शिलालेखके निम्न पचमें कला अपूर्व एवं बेजोब है। जिस चतुर शिल्पीने इसका विजयपाश्यनाथ की स्तुनिकी गई है वह पद्य इस प्रकार है:- निर्माण किया उमने केवल अपनी कलाकृतिका प्रदर्शन श्रीमझतेन्दर्माणमौलिमरीचिमाला.
ही नहीं किया; प्रत्युत इन कलात्मक चीजोंके निर्माण द्वारा मालार्चिताय भुवनयधम्मने ।
अपनी आन्तरिक प्रतिभाका सजीव चित्रय भी अभियंजित कामान्तकाय जित-जन्मजरान्तकाय,
किया है। इस मन्दिरकी बाह्य दीवालों पर हाथी, सिंह, भक्त्या नमो विजय-पाश्व-जिनेश्वराय॥
और विभिन प्रकारके पक्षी, देवी देवता और४०० फुटकी