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हमारी जन तीथयात्राके संस्मरण
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हो. 'स्थत पुराव' के कथनसे इतना अवश्य ज्ञात की झांकीका भी दिग्दर्शन हो जाता है। विष्णुवर भने होता है कि विष्णुवईनके द्वारा जैनियों पर किये गए शक सं० १.३३ (वि.. १८से शक संवत् १०॥ अत्याचारोंको पृथ्वी भी सहन करने में समर्थ नहीं हो (वि. स.11 ) तक राज्य किया है। हलेविरमें सकी। फलस्वरूप हलेविरके दक्षिणमें अनेकवार भूकम्प इस समय जैनियोंके तीन मन्दिर मौजूद है पावनायवस्ति, हुए और उन भू-कम्पोंमें पृथ्वीका कुछ भू-भाग भी भू-गर्भ मादिनाथवस्ति और शान्तिनाथस्ति, जिनका संचित में विलीन हो गया, जिससे जनताको अपार जन-धनकी परिचय निम्न प्रकार है:हानि उठानी पड़ी। इन उपद्रवोंको शान्त करनेके लिये पार्श्वनाथवस्ति-हलेविरकी इस पारकाथवस्तियद्यपि रामाने अनेक प्रयत्न किये, अनेक शान्ति-यश को शक सं. १०१५वि.सं.१०)में बोप्याने अपने कराये और प्रचुर धन-स्यय करने पर भी राजा वहाँ जब
स्वर्गीय पिता गणराजकी पुण्य-स्मृति में बनवाया था। इस प्रकृतिके प्रकोपजन्य उपद्वांको शांत करनेमें समर्थ न हो
मन्दिरमें पार्श्वनाथ भगवानकी १४ फुट ऊँची काले सका। तब अन्तमें मजबूर होकर विष्णुवर्द्धनको श्रवण
पाषाणकी मनोश एवं चित्ताकर्षक तथा कलापूर्ण मूर्ति बेगोल तत्कालीन प्रसिद्ध प्राचार्य शुभचन्द्र के पास मा
विराजमान है । इस मूर्तिके दोनों ओर धरणेन्द्र और कर षमा याचना करनी पड़ी। प्राचार्य शुभचन्द्र राजाके
पद्मावती उत्कीर्पित है। मन्दिर ऊपरसे साधारणसा द्वारा किये गए अत्याचारोंको पहलेसे ही जानते थे। प्रथम
प्रतीत होता है। परन्तु अन्दर जाकर उसकी बनावटको तो उन्होंने राजाकी उस अभ्यर्थनाको स्वीकार नहीं किया;
या देखनेसे उसकी कलात्मक कारीगरीका सहजही बोध हो किन्तु बहुत प्रार्थना करने या गिड़गिड़ानेके पश्चात् राजा
जाता है इस मन्दिर में कसौटी पाषाणके सुन्दर चौदा को मा किया। राजामे जैनधर्मके विरोध न करनकी
खम्भे लगे हुए है उनमेंसे भागेके दो खम्भोंपर पानी प्रतिज्ञा की और राज्यकी ओरसे जैनमन्दिरों एवं मठोंको
सलनेसे उनका रंग कालेसे हरा हो जाता है। मुख्य पूजादि निमित्त जो दानादि पहले दिया जाता था उसे
धारके दाहिनी ओर एक यक्षकी मूर्ति और बाई मोर पूर्ववत् देनेका आश्वासन दिलाया तथा उक्त कार्यों के अन
कूष्मांटिनीदेवीकी मूर्ति है। स्तर शान्तिविधान भी किया गया।
इस मन्दिरके बाहरकी दीवालके एक पाषाण पर विष्णुवर्द्धनके मंत्री और सेनापति गंगराज तथा
संस्कृत और कनदी भाषाका एक विशाल शिलालेख अंकित हुल्लाने उस समय जैनधर्मका बहुत उद्योत किया, अनेक
है जिसमें इस मन्दिरके निर्माण कराने और प्रतिहादि जिन मन्दिर बनवाए और मन्दिरोंकी पूजादिके निमित्त ।
कार्य सम्पन किये जाने मादिका कितनाही इतिहास दिया भूमिके दान भी दिये । श्रवणबेलगोल भादिके अनेक
हुआ है। उसमें गंगवंशके पूर्वजोंका प्रादि स्रोत प्रकट शिलालेखोंसे गंगराज और हुलाकी धर्मनिष्ठा और कर्तव्य
करते हुए उनके 'पोरसख' नाम रूढ होनेका उल्लेख परायणताके उक्लेख प्राप्त हैं जिनसे उनके वैयक्तिक जीवन
भी किया गया है। उसी वंश विनयादिस्य रामाका पुष यह शुभचन्द्राचार्य सम्मतः वे ही जान पड़ते हैं जो एरेयंग था उसकी पत्नी एचबादेवीसे ब्रह्मा विष्णु और मूबसंघ कुन्दकुन्दन्वय देशीगण और पुस्तकगच्छके कुछ. शिवकी तरह बबाल, विष्णु और उदयादिस्य नामके तीन टासन मबधारिदेवके शिष्य थे और जिन्हें मंडलिनाके पुत्र हुए इनमें विष्णुका नाम बोकमें सबसे अधिक प्रसिद भुजबल गंग पेमार्दिदेवकी काकी एडविरेमियक्कने श्रत- हमा। उसकी दिग्विजयों और उपाधियोंका वर्णन करमेके पंचमीके उद्यापनके समय, जो बखिकरेके उत्तग चैत्यालयः पश्चात् तबकार, कोक, नलि, गावाति, नोखम्बवादि, में विराजमान थे । धवलाटीकाको प्रति समर्पित की गई मासवाडि, हुखिगेटे, सिगे वगवसे, हानुगल. मा, थी। इन शुभचन्द्राचार्यका स्वर्गारोहण शक सं० १.४५ कुन्तल, मध्यदेण, कान्धी, विनीत और मदुरापर भी (वि.सं0 1150) श्रावण शुक्ला .मी एक्रवारको उनके अधिकारको सूचित किया है। दुपा था।
विष्णुषईनका पादपदमोपजीवी महानायक गंगराज देखो, जैन शिलालेख संग्रह भा०ले.नं.१ था.जो भनेकपाधियोंसे प्रवकृत था, उसने अनेक ध्वस्त.
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