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आत्मा, चेतना या जीवन
(ले. अनन्तप्रसादजी B. Sc. Eng. 'लोजपाल')
(गव करणसे मागे) कुछ पश्चिमीय विद्वान यह मानते है कि मानव या वहाँ होती है जहाँ वह पारमाकी कोई रूपरेखा विर्धारित जीवधारियोंकी चेतना और जीवनीका प्राधार 'भारमा' म करके मरूपी और पुद्गल-रहित (Matterlles) जैसी कोई वस्तु नहीं है, ये तो यों ही स्वाभाविक रूपसे बतलाता है। बौद्धोंने इमीलिये 'शून्य' कह दिया है। जन्म लेते और मर जाते हैं। मरने पर कुछ नहीं रहना ऐसी बातों या विचारोंकी धारणा बनाना मनुण्यके लिए सब कुछ खतम हो जाता है। जैसा प्राचीनकाल में चार्वाक कठिन हो जाता है और यहीं से शङ्का, विरोध, अमाम्यता ने भी कहा था। कुछ लोग कुछ खास तौरका Spirit वगैरह उत्पन्न होती और बढ़ती है। पर सचमुच तर्कमानते है। कुछ ईश्वरकी सृष्टिमें विश्वास करते हैं कि द्वारा प्रास्माका गुणके अनुरूप कोई पुद्गल रूपी शरीर ईश्वर ऐसा बनाता बिगावता है इत्यादि । इस विषय पर सम्भव ही नहीं होता। कुछ लोगोंने भास्माके रूप और बड़े प्राचीनकालसे वाद-विवाद और खण्डन-मण्डन होते प्राकारको निर्धारित करनेको चेष्टा को है पर तर्कसे उनका चले पा रहे हैं जो हर धर्मों के शास्त्रोंमें भरे पड़े हैं, मुझे पूर्णरूपेण खण्डन हो जाता है। माता-पिताके रज-वीर्यसे उनको यहाँ दुहराना नहीं है।
उत्पन्न 'बीज' तो बड़ा छोटा या सूक्ष्म होता है, वही बढ़ते चेतनामय वस्तुओं (जीवधारियो) का जन्म एक खास बढ़ते मानवाकृति हो जाता है। पारमा भारम्भसे ही प्रकारसे ही होता है। प्रायः नर-मादाके संयोगसे बीज बीजमें रहता।बीर्य और रजका संयोग होम जो होकर जन्म होता है और जिमका बीज होता है 'बीजाणु' (Spermetazoon) बनता है उनमें उसी रूपाकारमें उस बीजसे जन्म लेने वालेका रूपा- भान्मा या जीवका संचार होता है। जीवका संचार होने के कार होता है। कुछ समय तक जीवन रहने के बाद बाद ही उस 'बीजाणु' की वृद्धि होना प्रारम्भ होती है जीवन जब लुस हो जाता है तब केवल बाह्य शरीर अन्यथा जो 'बीजाणु' सजीव नहीं हो पाते वे नष्ट हो जाते मात्र ज्या का त्यो रह जाता है। यह बात सभी सजीव पीजाय भी माया प्राप्त होते हैं पा जीवधारियोंके साथ है चाहे वे मानव हो, पशु पक्षी दोनाम भेद है। जैन दर्शनने भारमाको भाकाशके समान हां, मगरमच्छ हो, कीट पतंगे हों या पेड़ पौधे हों।
मरूपी मानते हुए उसे उमी भाकारका होना स्वीकार ऐसी बात निर्जीव वस्तुग्रामे नही पाई जाती। इससे किया है जिस पाकारके शरीर में वह हो । शरीरकी वृद्धि के भी मिज होता किनिर्जीव वस्तुओंकी तुलनामें और मसाला भी गति :
साथ उस प्राकार या फैजावको भी वृद्धि स्वयं होती सजीवोंमें कोई खास विशेषता' है।
जाती है। केंचुर्वक मस्तिष्क नहीं होता पर यदि उसके कुछ पश्चिमीय विद्वानांने कहा है कि सजीवता या शरीरके किसी भागमें भी बेदन भेदन हो तो उसका सारा सचेतनता केवल मस्तिष्कके कारण है। पर ऐसे भी जीव है का सारा शरीर पीड़ामे मेंटने अगता है स्पर्श-समा जिनके मस्तिष्क होता ही नहीं । जैसे-मिट्टी के बर्माती उसके सारे शरीरमें है। मारमा यदि एक जगह रहता तो कीड़े (केंचुमा Earth Ho ms) फिर भी उनमें यह चेतना मारे शरीरमें नहीं होती। पारमा सारे शरीरमें जीवन होता है और थोदी चेतना भी होती है। चेतनाका व्यापक है और चेतना भी सारे शरोरमें है, किसी एक प्रधान बरण पीयाका अनुभव कहा जा सकता है। जब जगह सीमित नहीं इस विषयकी जैन शास्त्रों में विशव इन बाती रेंगने वाले खम्बे पतले कीड़ों केंचुभोंको किसी विवेचनात्मक समीक्षाएँ मिलंगी। चीबसे खोदा या बेधा जाता है तो उन्हें पीया होती है भारमा सांसारिक अवस्था में पुद्गव matter) जिसे हम प्रत्यक्ष देखते हैं।
वा जदवस्तु के साथ ही संयुक्त रूपसे पाया जाता सांसारिक रप्टिसे जैन दर्शनकी सबसे बड़ी कमजोरी और तब तक उसका माप.. हवाईजातक मारमा