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भनेकान्त
किरण
१४वी गाथाए भी वे ही जो वृ. द्रव्यसंग्रहमे नं० २२, २७ पर पाई जाती हैं। शेष सब गाथाएँ पू ग्य संग्रहमे भिन्न हैं और इसमें यह कलित होता है कि लघुग्यसंग्रहम कुछ गाथाओंकी वृद्धि करके उसे ही वृहद रूप नहीं दिया गया है कि दोनों को स्वतन्त्र रूपसे ही रचा गया है और इसोसे दोनों मंगल पच तण उपसंहारात्मक पचभा भित्र भित्र है यहां एक बात नाट किये जानेके योग्य है और वह यह कि लघु वन्यसंग्रहके मूल में ग्रंथका नाम 'दव्यसंग्रह' नहीं दिया, पक्कि 'पयायनकरणकराम्रो गाहामो पदांके द्वार उसे पदार्थोका लक्षण करने वाली गामाओंका एक समूह सूचित किया है। जबकि बृहद् द्रव्यसंग्रहमें 'दब्यसंगहामणं' वाक्यके द्वारा प्रयका नाम स्पष्ट रूपसे 'दब्यसंह' दिया है। और इससे ऐमा मालूम होना है कि 'दन्यसंग्रह' नामकी कल्पना ग्रन्थकारको अपनी पूर्वरचना के बाद उत्पन्न हुई है और उस अन्य संग्रह के बाद ही इस पूर्वरचनाको अन्धकार अथवा दूपरीक द्वारा लबुद्र व्यसंग्रह कहा गया है चनांचे इस प्रन्यकी अन्तिम पुष्पिकामें भी 'लघुद्रग्यसंग्रह' इस नामका उल्लेख पाया जाता है। सारा ग्रंथ अच्छा सरल और महजबोध-गम्य है। यदि कोई सज्जन चाहेंगे तो इसका सुन्दर अनुवाद प्रस्तुत कराकर वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित कर दिया जायगा।
_ -सम्पादक]
(मूल ग्रन्थ) बब्व पंच भत्थी सत्त वि तच्चाणि णव पयत्था य। सखादासंखादा मुत्ति पदेसाउ संति णो काले ॥१३॥ भंगप्पाय-धुवशाणिवा जेण सो जिणा जयउ॥१॥ जावादियं श्रायासं विभागी पुग्गलागुवट्टद्ध। जीयो पुग्गल धम्माऽयम्मागासो तहेव कालो य। तंबु पदस जाणे सव्वाणुहाणदाण रहं ।। ।। दवाणि कालरहिया पदेश-हुल्लदोश्र (tथकाया य. जीवा पाणी पुगाल-धम्माऽधम्मायासा तहेव कालो य । जीवाजीवासवबंध संवर्ग णिज्जगतहा माम्खो। अज्जीवा जिणगि ओण हुमण्णइ जो हुसो मिच्छा। तच्चाणि सच एदे पुण्ण-पावा पयत्त्था य ।।३।।
मिच्छ हिसाई कसाय-जोगा य आसवो बंधी। जीचो हाइ अमुत्तो मदहमित्तो सचेयणा कत्ता। सकसाई जं जीवी परिगिराहा पोग्गलं विविह ॥१६॥ भोत्ता मो पुण दुषिहो सिद्धो संसारिओ गाणा ॥४|| मिच्छचाईचाओ संवर जिण भणइ णिज्जरादसे। अरममरूवमगधं श्रवत्त चेयणागुणममदं।
कम्माण खो सो पुण अहिलसिओपहिलसिओ य॥ जाण अतिगग्गहणं जीव दिट्ठ-संहाणं ॥२॥
कम्म बधण-बद्धस्स सम्भूदस्संतरप्पणो। वरुण रस गध-फामा विज्जते जस्स जिवहिवा।
सम्वकम्म-विणिम्मुक्को मोक्खो होइ जिणेडिदो ॥१८॥ मुत्ता पुग्गलकाओढवी पहुंदा हु सो साढा॥६॥ सादाऽऽउ-णामगोदाणं पयहीओ सुहा हव। पढवी जल च छाया चरिदियविसय कम्म परमाणू।
पुण्ण तित्ययरादी एणं पाव तु भागमे ॥६॥ विभेयं भणिय पुग्गलदग्वं जिणिदक्षिणा
णासहर पकजाश्री उप्पज्जइ दवपज्जो तस्य । मह परिण]याण धम्मी पुग्गल जीवाणगमण-सहयारी
जावो स एव सव्वस्सभंगुष्पाय धुवा एवं ॥२०॥ तोयं जहमकहाणं अच्छता व सोणेई ।।।।
उप्पादपद्धंसा वत्थूणं हांति पज्जय-णागण । ठाणजुय ण ब्रहम्मो पुग्गलजावाण ठाण-सहयारो।
दहिएण णिच्चा बोधव्वा सजिवुत्ता ॥२१॥ छाया जह पहियाणं गच्छता व सो धरई ।।
एव अगियसुत्तो सट्ठाणजुदा मणो णिमित्ता। भवगासदाणजोग जीवादाणं वियाण बायासं।
छंडउ राय रोसं जइ इच्छह कम्मणो णास । २। जेण्डं लोगागासं मलो (लो) गागासामोद विहं १०|| विसएसु पवदतं चित्त धारेत्तु अप्पयो अप्पा । इश्वपारयट्टजादो जो सो कालो हवइ ववहारो। झायइ अप्पाणेण जा सो पावेइ खलु सेयं ॥३॥ कोगागसपएसो एक्केकाणू य परमठ्ठा ॥११॥ सम्म जीवादीयाणच्चा सम्म सुकित्तिदा जेहिं । मोयायासपदेसे एकके जेट्ठिया हु एक का।
मोहगयकेमरीण एमो णमोठण साहूणं ॥२॥ रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदम्पाणि ॥१॥ सोमच्छलेण रइया पयस्य-लक्खणकराउ गाहारो। संखातीदा जावे धम्माऽधम्मे प्रणत पायासे। भन्नुवयाणिमित्तं गाणणा सिरिणेमिचंदेण शा
इति नेमिचंद्रसरिकृत लघुद्रव्यसंग्रहमिदं पूर्णम् ।