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________________ हिन्दी-जैन-साहित्यकी विशेषता [ श्रीकुमारी किरणबाला जैन ] साहित्य मानव जातिके स्थूल और सूक्ष्म विचारो प्रन्यों पर टीकाएँ लिखी और प्रमाण संग्रह-सिद्धिविनिश्चय, और अनुभवोंका सुरम्य शाब्दिक रूप है। वह जीवित न्यायविनिश्चर्यावरण और लघीयस्त्रय जैसे कर्कश तर्क और चिर उपयोगी है। वह मानव-जातिके प्रारम-विकास- प्रन्योको उनक स्वोपक्ष भाष्योंके साथ बनाया । जो भाज में सहायक है। भी उनकी प्रकाण्ड प्रतिभाके संघोतक हैं । मध्ययुगमें यद्यपि साहित्यमें कोई सासदायिक सीमायें नहीं हैं न्याय शास्त्र पर विशेष रूपसे कार्य किया गया है, जो तथापि विभिल जातियाँ और साम्प्रदायोंने साहित्यका जो 'मध्यकालीन न्यायदर्शनके नामसे प्रासद है। यह केवल रूप अपनाया है उसीके माधार पर साहित्योंको जैन, जैन और कौर नैयायिकों' का ही कर्तव्य था। बौद्ध अथवा वैष्णव साहित्यके नामसे पुकारा गया है। वेदियन और कर्नाटक भाषामें ही जैन साहित्य पर्याप्त प्रत्येक साहित्यकी कुछ अपनी विशेषतायें हैं और जैन- मात्रा में उपलब्ध होता है। कर्नाटक भाषाके 'चामुण्डराय' साहित्यकी भी अपनी विशेषता है। पुराण नामक गद्य प्रन्यके लेखक वीर चामुण्डराय जैन-साहित्य व्यक्तिको स्वयं उसके भाग्यका निर्णय जैन ही थे जो राचमल्ल तृतीयके मन्त्री और प्रधान करने में सहायक है। उसका सन्देश स्वतन्त्र रहनेका ई सेनापति थे । प्रादिपंप, कवि चक्रवर्ती रन्न, अभिनव पंप परमुखापेक्षी और परावलम्बी बननेका नहीं है। मैन- भादि उच्च कोटि के जैनाचार्य होगये है। कनादी भाषासाहित्यके अनुसार प्राणी कार्य करने और उसका फल का जैन साहित्य प्रायः सभी विषयों पर लिखा गया है। भोगने में भी स्वतन्त्र है। जैनधर्मका मुख्य सिद्धान्त है- इसी तरह तामिल और तेलगू भाषामें जैनाचार्योंने अनेक स्वयं जिनो और दूसरोंको जीने दो। महत्वपूर्ण प्रन्थ लिखे हैं। तामिल भाषाके जन्मदाता जैन प्रारम्भमें जैन-साहित्यमे धामिक प्रवृत्तिको प्रधानता ही कहे जाते हैं। थी। परन्तु समयके परिवर्तनसे उसने न केवल धार्मिक जेन-साहित्य में ऐतिहासिक पुरुषोंके चरित्र वर्णनकी विभागमें ही उन्नति की वरन प्रम्य विभागोंमें भी पाश्चर्य- भी विशेष पद्धति रही है। 'रिडणेमिचरिउ' 'पउमचरिय' जनक उमति की । न्याय और अध्यात्मविद्याके विभागमें आदि ग्रन्याके नाम उल्लेखनीय हैं। रिटमिचरित' में इस साहित्यने बड़े ही ऊँचे विकास-क्रमको धारण किया। कौरव पाडवोंका वर्णन है और पउमचरियमें श्रीरामचन्द्रविक्रमकी प्रथम शताब्दीके प्रकाण्ड विद्धन प्राचार्य कुन्द- जीका वर्णन है। इस प्रकार यह दोनों प्रन्थ क्रमशः 'जैन कुन्द जो अध्यात्मशास्त्रके महाविद्वान थे और द्वितीय महाभारत' और 'जैन रामायब' कहे जा सकते हैं। चरित्र. शताब्दीके दर्शनाचार्य भारतीय गगन मण्डलके यशस्वी ग्रन्थों में जटासिंहनन्दि वरचित 'परांग चरित्र' एक सुन्दर चन्द्र प्राचार्य समन्तभदने भनेक दार्शनिक स्तुति-प्रन्यांकी काम्य ग्रन्थ है। 'वसुदेवहिण्डी' भी प्राकृत भाषाका एक रचना की, जो रचनाएँ संस्कृत साहित्य में बेजोड़ और दार्श- सुन्दर पुराण है। वादीभसिंह प्रणीत 'पत्रचूड़ामणि' -निक साहित्यमें मुख्य रस्नके रूप में ख्यातिको प्राप्त हुई। नामका ग्रन्थ भी अपना विशेष महत्व रखता है। लेखकने इसके बाद अनुमसे अनेक प्राचार्य महान ग्रन्थकारके इसमें जिस पात्रका वर्णन किया है वह महावीर कालीन रूपमें प्रसिद्धिको प्राप्त होते गए अनेक सूत्रकार, वादी है। मनुष्टुप् छन्दोंमें अर्ध भागमें चरित्र और शेष अर्ध और अध्यात्म विद्याके मर्मज्ञ विद्वानोंने भारतमें जन्म भागमें विशद नीतिका वर्णन है। लिया, ईसाकी छठी और विक्रमकी वीं शताब्दी व्याकरण-साहित्य में देवनन्दि कृत 'जैनेन्द्र व्याकरण' अकलंकदेव जैसे मैयायिक इस भारत भूमि पर अधिक नहीं 'मिद्ध हेमशब्दानुशासन' अत्यन्त उच्च कोटिके प्रन्य है। हुये । अकलंकदेव बौद्ध विद्वान धर्मकीर्तिके समान ही पाखिनीयकी 'अष्टाध्यायी' में जिस प्रकार सास अध्याय प्रतिभा सम्पन ग्रन्थकार और रीकाकार थे। इन्होंने केवल संस्कृत भाषाके और एक अध्याय वैविक प्रक्रियाका है जैन साहित्य में ही नहीं, परन्तु भारतीय साहित्यमें न्याय उसी प्रकार हेमचन्द्राचार्यजी ने सात अध्याय संस्कृत
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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