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किरण ३]
उत्तर कन्नडका मेरा प्रवास
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बिलेगि प्रमुख हैं पाठकों के समक्ष इन प्राचीन स्थानोंका सर्वत्र हिन्दू चिन्ह ही नजर आते हैं। पर इसमें सन्देह संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार दिया जाता है-1) वन- नहीं है कि ये सब चिन्ह वादके हैं। खेद इस बावका है वासि-सिरसीसे वनवासि १५ मील पर है। नोंके कि यह स्थान जैनोंका एक प्राचीन पवित्र क्षेत्र होने पर परम पुनीत ग्रन्थ षट् खण्डागमके प्रारम्भिक सूत्र, प्राचार्य भी इस समय यहाँ पर इनके कोई भी उल्लेखनीय चिन्ह पुष्पदन्तके द्वारा इसी पवित्र भूमिमें रचे गये थे। इस दृष्टिगोचर नहीं होते। भाजकल यहाँ पर जैनौके पर भी इप्टिसे यह क्षेत्र जैनोंके लिये एक पवित्र तीर्थ सा है। इस दो चार ही रह गये हैं। इनकी स्थिति भी संतोषप्रद नहीं प्रसगमें यह भी बतला देना आवश्यक है कि दिगम्बर है। सुना है कि बनवासिमें किलेके अन्दर और बाहर सम्प्रदायके उपलब्ध साहित्यमे षटखरडागम ही आदिम- मिला कर इस समय लगभग .. घर हैं और जनसंख्या ग्रन्थ है। इससे पूर्व जैनाके सभी पवित्र आगम ग्रंथ लगभग ६००० की है । यहाँके जैनमन्दिरमे दूसरीसे (अंग और पूर्व) पूज्य प्राचार्योंके द्वारा कण्ठस्थ ही सत्रहवीं शताब्दी तकके १२ शिलालेख प्राप्त हुए है। सुरक्षित रखे गये थे । जैन आगमको सर्वप्रथम लिपिबद्ध ई० पू० तीसरी शताब्दीके बौद्ध ग्रन्थों में भी बनवासिका करनेका परम श्रेय प्रातः स्मरणीय प्राचार्य पुष्पदन्तको उल्लेख मिलता है। टोलमीने भी इसका वर्णन किया है। ही प्राप्त है । साथ ही माथ, लिपिबद्ध करनेका पुनीत वस्तुत: प्राचीन काल में यह बड़े ही महत्वका स्थान रहा है स्थान वही वनवामि है । कन्नड भाषाका श्रादि कवि महा- इसका प्राचीन नाम सुधापुर है। सोदे भी सिरसी से ही कवि पंप भी हम स्थान पर विशेष मुग्ध था। इसने अपने जाना पड़ा है। सिरसीसे सोदे १२ मील पर है। यह भारत या "विक्रमार्जुन विजय' मे इस प्रदराकी बढ़ी पल्लापुर जाने वाली मोटरसं जाना होता है। हाँ, मोटरसे तारीफ की है। महाकवि कहता है कि 'प्रकृति प्रदत्त उतर कर २३ मील पैदल चलना होगा । सादे भी जैनोंका असीम सौंदर्य शोभायमान त्याग भांग एवं विद्याका एक प्राचीन स्थान है। यहां पर जैन मठ है। यह मूलमें केन्द्र इम वनवासिमें जन्म लेने वाला वस्तुतः महा अकलंकके द्वारा स्थापित कहा जाता है। यहाँ पर भी भाग्यशाली है।'
अठारह समाधियोंको छोड़ कर कोई उल्लेखनीय जैन बड़े खेदकी बात है कि वनवासि हम समय एक
स्मारक दृष्टिगत नहीं होता । समाधियोंमें भी दो-चारोंको सामान्य गांव है। उत्तर दिशाको छोड़ कर यह तीनों
छोर कर शेष नाममात्र के हैं। इन समाधियोंमें एक दिशायाम वरदा नदीसे घिरा हुआ है । साथ ही साथ का लेख पढ़ा जाता है । लेख सोलहवीं शताब्दीका है। भग्नावशिष्ट एक मृगमय किलेसे - गाँव तेरुबीदि, कंचु- मठक पास हा लकड़ाका बना हुआ एक जैन-मन्दिर गारबीदि और हाल मठबादि धादि कतिपय मार्गौम इसकी खद्गासन मूर्ति दर्शनीय है। मामने मुत्तिनकरेके विभक्त है । इस समय स्थित जैनोंका मन्दिर कंचुगार नाममे भग्नावशिष्ट एक तालाब है। उक्त मन्दिर और रास्ते में है। मन्दिर अधिक प्राचीन नहीं है। साथ ही यह तालाब एक रानीके द्वारा बनवाये गये कहे जाते है। साय लकड़ीकी बनी हुई एक सामान्य इमारत है । मन्दिरTeam
वह भी अपने नामिका भूषण (नथिया, को बेचकर । मे विगजमान मूर्तियाँ भी माधारण हैं। हाँ, तेरुबीदिमें
इमकी कथा बड़ी रोचक है। कथाका सारांश इस प्रकार विशाल शिलामय मधुकेश्वर देवालयके नाममे वैष्णवांका है-मोदेका जैन राजा अनजानमें गुन्धि (पतिविशेष) नो मन्दिर विद्यमान है. वह अवश्य दर्शनीया का माम ग्वा गया। मांस बाजीकरण सम्बन्धी औषधि मूल में जैन मन्दिर रहा होगा। इस समय इसके लिए
वैद्यके द्वारा विलाया गया था । यह बात राजाको बाद में सिर्फ दो प्रमाण दिये जाते हैं। एक तो मन्दिरके साम
मानम हुई। राजाने नम्कालीन मोदेके भट्टारकजीसे इसका दीप-स्तम्भके अतिरि क एक और स्तम्भ है जो कि जैन प्रायश्चित मांगा। प्रदरदर्शी भट्टारकजीने प्रायश्चित नहीं देवालयोंके सामने मानम्तम्भक नामसं अधिकांश पाये जाते दिया । फलस्वरूप राजा रुष्ट होकर लिंगायत अर्थात शैव हैं। दूसरा प्रमाण मन्दिरके मुख्य द्वार पर गजलक्ष्मी
हो गया । मतान्तरित होने पर राजाने जैनांपर बहा प्रत्याअंकित है। यह भी जैन देवालयाम प्रचुर परिमाणमें पाई
चार किया बक्किबहुत जनाको शव बनाया। बहनसे जाती है। यह बात ठीक ही है कि इस समय तो यहाँ पर 'बम्ब प्रान्तकं प्राचीन जैन स्मारक' ८४१३१