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भनेकान्त
[किरण अमरसामरसाऽमर-निर्मिता जिननुतिर्ननु तिग्मरुचेयथा । रुचिरसौ चिरसौख्यपदप्रदा निहत-मोह-तमो रियुवीरते ॥ ६ ॥
इति वेणीकृपाण-अमरकवि-कृतं श्रीवीनरागस्तवनम् । नोट-गत वीर-शासन-जयन्तीके अवसर पर श्रीमहावीरजी अतिशय मंत्र (चांदनपुर ) के शास्त्रभण्डारका अवलोकन करते हुए कई नये स्तुति-स्तवन वीरसेवामंदिरको प्राप्त हुए है जिनम यह भी एक जो भावपर्व एवं अलंकारमय स्तोत्र है। इसके कर्ता प्रमर कवि, जिनके लिये पष्पिकामें 'वेणीकपाण' विशेष:
और उनकी हसरी रचनाएँ कौन कौन है यह अभी अज्ञात है। ग्रन्थ प्रति सं०१E२७ की लिखी हुई है। अतः या स्तवन इससे पूर्वकी रचमा है इतना तो स्पष्ट ही है, परन्तु कितने पूर्वकी है यह अन्वेषणीय है।
-सम्पादक
उत्तर कन्नडका मेरा प्रवास
(लेखक-विगाभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडविद्री) उत्तर काडकी चौहद्दी इस प्रकार है उत्तरमें बेल वर्माका ग्रामदान सम्बन्धी एक दूसरा दानपत्र भी मिलता। गामः पूर्वमें धारवाड एवं मैसूर, दक्षिणमें मद्रास प्रांतीय है। इसीके समान इसका पुत्र रविवर्मा भी पिता मोशदक्षिण कार, पश्चिममें अरब समुद्र और उत्तर पश्चिम- वर्माकी तरह जैनधर्मका भक्त रहा इसका एक महत्त्वपूर्ण में गोवा । यह प्रान्त दीर्घकालसे विश्रत है। ई० पू० दानपत्र पलासिका (बेलगाम ) में प्राप्त हुआ है। जो तीसरी शताब्दीमें मौर्य-सम्राट अशोकने इस प्रान्तान्तर्गत कि जैनधर्म में इपके दृढ़ सिद्धान्तको प्रकट करता है। वनवासिमें अपना दूत भेजा था। यहांके प्राप्त अन्यान्य रविवर्माका उत्तराधिकारी हरिवर्मा भी अपने प्रारम्भिक शिलालेखासे प्रकट है कि यहाँपर क्रमशः कदंबाने, रहाने, जीवनमें जैनधर्मका श्रद्धालु था। हां, वह अपने अन्तिम पश्चिम चालुक्योंने और यादवाने राज्य किया है। साथ ही जीवन में शैव हो गया था। इसने भी जैनमन्दिर आदिक साथ पुष्ट प्रमाणोंसे यह भी सिद्ध है कि यह प्रदेश सुदीर्घ लिये दान दिया है। सारांशतः कदंबवंशी राजायांके काल तक जैनधर्मका केन्द्र रहा है। एम. गणपतिरावके शासनकाल में जैनधर्म विशेष अभ्युदयको प्राप्त हश्रा मतसे कदंबाने ई०पू० २०० से ई. सन् ६.. तक राज्य था। श्री बी. एस. रावके शब्दोंमे कदंबांके राजकवि जैन किया था। हां, बाद में भी इस वंशके राजाघोंने शासन थे। उनके सचिव और अमात्य जैन थे, उनके दानपत्रांक किया है अवश्य । पर, चालुक्य, राष्ट्रकूट और विजयनगर लेखक जैन थे और उनके व्यक्तिगत नाम भी जैन थे। के शासकोंकी प्राधीनतामें । दक्षिणके प्राचीन चोल, चेर साथ-ही-साथ कदयोंके साहित्यकी रूप-रखा भी जैन काम्यपायख्य और पल्लव राजाओंकी तरह कब राजामोने भी शैलीकी थी । इस प्रांतके बादके राष्ट्रकूट और चालुक्य ग्वास कर मृगेशवर्मासे हरिवर्मा तकके शासकोंने जैनधर्म- अादि शासकोंका सम्बन्ध भी जैनधर्मसे कितना घनिष्ट को विशिष्ट प्राश्रय प्रदान किया था ४ ।
रहा, इस बातको इतिहासके अभ्यासी स्वयं भली प्रकार
यायी था। उसने अपने जानते हैं। इसलिए उस बातको फिर दुहराकर इस लेम्वराज्यके तीसरे वर्षमें जिनेन्द्र के अभिषेक, उपलेपन, पूजन, के कलेवरको बढ़ाना मुझे इष्ट नहीं है। भन्न संस्कार (मरम्मत) और महिमा (प्रभावना , वहांके उल्लेखनीय स्थानांमे ( बनवासि (२) मौदे कायोंके लिए भूमिदान किया था। उस भूमिमें एक विव- (३) गेरुसोप्पे (४) हालि भटकल और (६) तन भूमि न्यास कर पुष्पांके लिए निर्दिष्ट थी। मृगेश- - जैनीज्म इन माउथ इंडिया' * दक्षिण कार जिल्लेय प्राचीन इतिहास पृष्ठ १६ + 'जैन हितेषी' भा०१५, पृ० १२६. + 'नैन हितैषी x 'जर्नल भाव दी मीथिक सोसाइटी' भा० २२, पृ०६१ मा० १४, पृ. २२..