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________________ ३३२] भनेकान्त [किरण ११ वित है. पातिकर्मचयसे उत्पस केवलज्ञानके द्वारा प्रामाणिकताका ही बोध होता है, अपितु उसके कर्ता जिन्होंने षट द्रव्यों और नव पदाकि समस्त गुण और बट्टकेराचार्यके अगाध तपांडित्यका भी पता चलता है। पर्यायोंको जान लिया है, ऐसे जिनेन्द्रदेवसे उपदिष्ट है, उक्क उल्लेखके माधार पर कमसे कम इतना तो निर्विवाद बारह प्रकारके तपोंकि अनुष्ठानसे जिनके अनेक प्रकारकी मानना ही पड़ेगा कि उन्हें प्राचार्य-परम्परासे आचारांगअद्धियां उत्पन हुई है, ऐसे गणधरदेवसे जो रचित है, का पूर्ण ज्ञान था, वे उसके प्रत्येक अधिकारसे भली और जो साधुओंके मूलगुणों और उत्तरगुणोंके स्वरूप, भेद भांति परिचित थे और इसीलिए उन्होने उन्हीं बारह उपाय, साधन, सहाय और फलका निरूपण करने वाला अधिकारोंमें अट्ठारह हजार पदप्रमाण उस विस्तृत प्राचा. है, ऐसे प्राचार्य-परम्परासे पाये हुए आचाराङ्गको पप संगसूत्रका उपसंहार किया है। ठीक वैसे ही, जैसे कि बल बुद्धि और माथु बाजे शिष्यों के लिए द्वादश अधिकारों- सोलह हजार पदप्रमाण पेजदोसपाहुडका गुणधराचार्यने से उपसंहार करनेके इच्छुक श्रीवट्टकेराचार्य अपने और मात्र एक सौ अस्सी गाथाओंमें उपसंहार किया है। श्रोताजनांके प्रारब्ध कार्य में पाने वाले विघ्नोंके निराकरण- मूलाचार एक मौलिक प्रन्थ है, संग्रह ग्रन्थ नहीं, में समर्थ ऐसे शुभ परिणामको धारण करते हुए सर्व प्रथम इसका परिज्ञान प्रत्येक अधिकारके आद्य मंगलाचरण मूलगुणाधिकारके प्रतिपादन करनेके लिए मंगख-पूर्वक और अन्तिम उपसंहार-वचनोंसे भी होता है और जो प्रतिज्ञा करते हैं: पाठकके हृदयमें अपनी मौलिकताकी मुद्राको सहजमें ही इस उत्थानिकाके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि अंकित करता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि जब जिनेन्द्र-उपदिष्ट एवं गणधर-रचित, द्वादशांग वाणीका यह मौलिक ग्रन्थ है, तो फिर इसके भीतर अन्य ग्रंथोंकी भाष जो पाचारांग सूत्र है वह महान् गम्भीर और अति गाथाएं क्यों उपलब्ध होती है। इस प्रश्नके उत्तरमें दो विशाल है, उसे अप बल-बुद्धि वाले शिष्यों के लिए बातें कहीं जा सकती हैं। एक तो यह-कि जिन गाथाओंअन्धकार उन्हीं बारह अधिकारों में उपसंहार कर रहे है, को भम्य ग्रन्थोंकी कहा जाता है, बहुत सम्भव है कि वे जिन्हें कि गणधरदेवने रचा था। इस उल्लेखमे प्रस्तुत इन्हींके द्वारा रचित अन्य प्रन्योंकी हों? और दूसरे यह प्रन्थकी मौलिकता एवं प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है। कि अनेकों गाथाएँ प्राचार्य-परम्परासे चली आ रही थीं, यह उक्लेख डीक उसी प्रकारका है, जैसा कि कसाय- उन्हें मूलाचारकारने अपने अन्यमें यथास्थान निबद्ध कर पाहरके लिए वीरसेनाचार्यने किया है। यथा- दिया। अपने इस निबद्धीकरणका ये प्रस्तुत प्रन्थमें यथा 'दो अंगपुण्यायमेगदेसो चेव पाइरियपरपराए स्थान संसूचन भी कर रहे हैं। उदाहरणके तौर पर यहाँ मागंण गुणहराइरियं संपत्तो पुणो तेण गुणहरभडारण ऐसे कुछ उस्लेख दिये जाते हैं:यायपवादपंचमपुष्व-दसमवस्थु-तदियकसायपाहुडमहण्णव- (१)वंछ सामाचारं समासदो आरणुपुव्वीए (1) पारएक गंयवोच्छेदभएण पदयणवलपरवसोकयहियएण (२) वोच्छामि समवसारं सुण संखेवं जहावुत्तं (८,१) एवं पेज्जदोसपाहुडं सोलमपदसहस्सपमाणं होतं (३) पजत्ती-संगहणी वोच्छामि जहाणुपुव्वीए (१२,१) असीदिसदमेत्तगाहाहि उपसंहारिदं।" तीसरे उद्धरणमें भाया हुमा 'पज्जत्ती संगहणी' पद अर्थात्-उक्त अंग-पूर्वोका एक देश की प्राचार्य उपयुकशंकाका भली भांति समाधान कर रहा है। परम्परासे पाकर गुणधराचार्यका प्रास हुआ। पुनः ज्ञान बट्टकराचाय कौन हैं ? प्रवाद नामक पाँच पूर्वकी दशवीं वस्तुके तीसरे कसाय पाखरूप महार्यवके पारको प्राप्त उन गुणधर-महारकने मूलाचार कत्तकि रूपमें जिनका नाम लिया जाता जिनका कि हृदय प्रवचनके वारसत्यसे परिपूर्ण या, सोलह है, वे बहकेराचार्य कौन हैं, इस प्रश्नका अभी तक निर्णय हजार पदपमाण इस पेज्जदोसपाहुडका प्रन्थ-विच्छेदके पासवान नहीं हो सका विभिड विद्वानोंने इसके लिए विभिल सेवन अम्मी कदा पहा प्राचार्योकी कल्पनाएं की है. परन्तु इस नामके प्राचार्यकिया। का किसी शिलालेखादिमें कोई उस्लेखादि न होनेसे इस विवेचनसे भवन मूलाचारको मौलिकता और 'बकेराइरिय अभी तक विचारणीय ही बने हुए है।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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