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अनेकान्त
[किरण:
बतार कहते हैं। वह इसलिये कि ऋषभ प्रादिकानसे डा. वासुदेवशरणजी अप्रवालने पार्वती' का प्रतीक मानएक महान तपस्वी रहे और वैदिक षयोंको उनकी कर उपके रहस्यको स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा कि तपस्थाका बम्बान अलंकृतभाषामें करना अभीष्ट रहा। मानवशरीरमें मेरुदण्डकी रचना तैतीस पर्वो के संयोगसे किन्तु उनके इस रहस्यपूर्ण स्वरूपको जानने वाले लोगोंका हुई है। 'पर्व' जिसमें हो उम्मीको 'पर्वत' कहते हैं। 'पर्वाप्रभाव एक बहुत पहले जमानेसे हो गया । महा-कवि णि संति अस्मिमिति पर्वतः । इसीलिये मेरुदण्ड पर्वत कालीदासजी इस सत्यसे परिचित थे। इसलिये ही उन्होने हुना और इसके भीतर रहने वाली शक्तिको उपचारसे कहा कि 'शिवको यथार्थ रूपसं जानने वाले और अनुभव 'पर्वत राजपुत्री' या 'पार्वती' कहा जाता है। इस पार्वतीकरने वाले मनुष्य कम है। (न संति याथार्थविदः पिना- की स्वाभाविक गति शिवको और है। पार्वती शिवको किनः ) कुमारसम्भव ५/७७) प्रतीकवादको समझ लेना छोड़कर और किसीका वरण कर ही नहीं सकती। परन्तु हर एकका काम नहीं । प्रतीक अथवा अलंकारका सहारा पार्वतीको शिवकी सम्प्राप्ति तपके द्वारा ही हो सकती है, इसलिये लिया गया प्रतीत होता है कि अध्यात्मिक सस्य भोगके मार्गस नहीं । अर्थात् छद्मस्थावस्थामें जब की ओर हर किसीकी रुचि नहीं होती। वैदिक क्रियाकांड- शिवस्व' पानेके लिए उन्मुख थे उस समय काययोगकी में व्यस्त लोगोंमे जिनको पात्र पाया उन्हींको यह रहस्य साधनाके लिए उन्होंने तपका आश्रय लिया था । कायबताया गया।
गुप्तिका पालन करके कायाजनित कमजोरीको जीतकर जैन शास्त्रकारोंने स्पष्ट लिखा है कि ऋषभदेवने उन्होंने पर्वतीय (मेरुदण्ड में सुप्त) शक्ति को जागृत किया कैलाश पर्वत पर घोर तपस्या की थी। जिस समय वह था। इसीलिये अलंकृत भाषामें कहा जाता है कि शिवतपस्यारत हो मारमध्याममें मग्न थे उस समय सुरांग. पार्वतीका विवाह हुआ था! वस्तुतः वह उक्त प्रकारका नामोंने उनके शीलकी परीक्षा ली थी; परन्तु ऋषभ तो एक रहस्यपूर्ण प्रतीक हो है। वासनाको जीत चुके थे और समाधिमें लीन थे। कामदेवके शिवका मुख्य कर्म संहार माना है। निस्सन्देश सांसा. बेधक वाण उन्हें समाधिसे च्युत न कर सक-उल्टे उन्हें रिक प्रवृत्तिका संहार किये बिना निवृत्तिमार्गका पर्यटक शरीर मन्दिरमें स्थित परमात्मतस्वके दर्शन करानमे वह नहीं बनाया जा सकता । ऋषभदेवने प्रवृत्तिका मार्ग साधक बने। वैदिक परम्परामें स्पष्ट कहा गया है कि स्यागा था और योगचर्याको अपनाया था। कर्म-प्रकृतियोंशिवने कामदेवको भस्म कर दिया था । पावतीने जब रति का सम्पूर्ण संहार करके ही वह शिवस्वको प्राप्त हुए थे। वाल्लभको यों नष्ट होते देखा तो उन्होंने माना कि शिवका इसलिये उन्हें शिव कहन. ठीक है। पानेके लिये सुन्दरता पर्याप्त नहीं है। अतएव उन्होंने शिवलि M IRI सप द्वारा आत्मसमाधि लगाना निश्चित किया, क्य कि लेना.किन्तु आज कोई भी इस गूढार्थको नहीं समझता प्रमाधिकी पूर्णता ही शिवतरवको प्राप्त कराती १२ । विषयी जाग उसमें वापनाको छाया देखते हैं। वस्तुतः चित्रं किमत्र यदि ते विदशाङ्गनाभि
वह अमृत धानन्दका बोधक है। प्राचीन भारतीय मान्यतानीतं मनाईप मनो न विकारमार्गम् ।
में मस्तिष्कको कलश या कुम्भ कहा गया है। मस्तिष्कसे कल्पांतका जमरुता जिताचजेन,
निरन्तर अमृतका चरण होता रहता है, जिसे योगीजन कि मंदरादिशिखर चलितं कदाचित् ॥६॥ पीकर अध्यात्मिकतामें निमग्न हो जाते हैं और विष पी -भकामरस्तोत्र
अवाप्यते वा कथमन्यथाद्वयं २ तया सम वहता मनोभवं, पिनाकिना भग्नमनोरथा सति ।
तथाविध प्रेम पतिश्च तादृशः॥ निनिंद रूपं हत्येन पार्वती,
३रा.सा. ने कल्याणमें "शिवका स्वरूप' शीर्षक लेख प्रियेषु सौभाग्यफलादि चारुता ।
प्रकट करके शिव-प्रतीकका रहस्योद्घाटन किया है। इयेष सा कमवन्ध्यरूपता,
उनके इस लेख माधारसे ही यह विवेचन किया जा पोभिरास्थाय समाधिमात्मनः ।
रहा है, एतदर्थ हम उनके भाभारी हैं।