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भारत देश योगियोंका देश है
(ले०-बा. जयभगवान जी एडवोकेट)
(गत किरणसे भागे ) भारतीय योगियोंके अनेक मंघ और सम्प्रदाय पहिन ली और किसीने दण्ड धारण कर लिया। ये लोग __इन इतिवृत्त से पता लगता है, कि यह श्रमणगण वनमें ही छोटे छोटे पत्तोंके मॉप बनाकर रहने लगे और प्राचीनतम समय से काल, यंत्रकी विभिन्न परिस्थितिसे
बनमें उत्पन हाने वाले फलफूल, कन्दमूल मादि लाकर उत्पन्न होने वाले तत्वज्ञानवाचार व्यवहार सम्बन्धी भेद
जीवनका निर्वाह करने लगे। इन विचलित माधुग्राम प्रभेदोके कारण-अनेक संघ और सम्प्रदायोंमें बटे हुए थे। मारीच ऋषि भी शामिल था जो जैनअनुश्रति धनसार इन्हीं में शैव, पाशुपत और जैन श्रमण भी शामिल थे। स्वयं भगवान ऋषभका पौत्र था। इस अनतिका परा यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि महावीरकालमें थोड़े थोडे विवग्य जैन पौराणिक साहित्यमें मौजूद है।। में नत्व और प्राचार सम्बन्धी मंदांके कारण श्रमसंघ
पीछेमे बढ़ते बढते यह सम्प्रदाय भगवान महावीर काल कई भेदोंमें बटा हुआ था-- पारसनाथ सन्तानीय माधुओंका में ३६३ की संख्या तक पहुंच गये इस गणनामें पाशपत. हकेश मम्प्रदाय वाला मचेलकमंघ, मम्फरी गोशालक शेष, शाक, नापस चावांक, बौद्ध, भाजीवक, वाला याजीवक संघ जामानि वाला बहातमंध, अपने
तथा कपिल पान-जन, वादरायण जैमिनी कणाद, का नीद्वार कहने वाले मजय, अजितकेश कम्बली,
गौतम श्रादि भारतीय षड् दर्शनकार भी शामिल है। जैन प्रकुद्ध कान्यायन पूर्ण कश्यप आदि प्राचार्योक श्रमण शास्त्रकाराने इन विभिन्न मताकी तात्विक मान्यताओंका सघ भगवान बुद्धका बौद्ध संघ । महागीर उपरान्त
उल्लेख करते हुए इन्हें चार मुग्थ्य श्रेणियों में विभक काल में स्वयं उन द्वारा स्थापित संघभी दिगम्बर श्वेताम्बर किया है-क्रियावादी, क्रियावादी, अज्ञानवादी और संघीम और उसके पीछे ये संघभी गोपिच्छक, काष्ठा, विनयवादी २ । बौद्धमतके पिटक प्रन्यों में भी इन विभिन द्राविड़ यापनीय, माथुर श्रादि पचासों उत्तर गण गच्छाम धर्मों की मान्यताओंका उल्लेख मिलता हैदिक साहित्यविभन हो गया था। मीशा भारतको विशालता में भी इन विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तोके अंकुर मौजूद हैं
और समयकी प्राचीननाका देखन हये महावीर पूर्व कालीन इन सभी दार्शनिकोका ज्ञातव्य विषय प्रारमा वह्म भारतम अनेक प्रकारक श्रमणमंघांका रहना स्वाभाविक था । इन सभीकी समस्या यह थी कि इस प्रारमाका ही है, परन्तु श्राज इन सब संघोंक इतिहास और दार्शनिक 1. (अ) आदि पुराण 15-1-६१. (ईमाको ८वीं मदी) सिद्वान्नांका पता लगाना बहुत कठिन है ।
(था हरिवंश पुगगा .. १०.-11४. , , ___ इस सम्बन्धमे जो जन अनुश्रु नि हम नक पहुंची है (इ) पदमचरित ३. २८६-३०५. (ईमाकी ७वीं सदी) उमर्म तो ऐसा ज्ञात होता है कि इस युगके आदि धर्म- २ (भ) पट खपढागम धवला टीका-पुस्तक-यमगवती, प्रवर्तक ऋषभ भगवानके जमानमे ही बहुतये श्रमण १७३१. १०७-19. 'इंसाकी ८वीं सदीके जिन्होंने उनके पास जाकर दीक्षा ली थी, इन्दिय संयम प्रारम्भमे धरला टीका लिया गया) वन उपवास नपस्या और परिषहजयके कठोर नियमांम. (आ) भावप्रामृत-१३५, (१४० ईमाकी पहिली सदी) घबराकर शिथिलाचारी हो गये । इन्होंने भगवान ऋषभ- (इ) गोम्मटमार-कर्मकाण्ड ८७६-८७१. के मार्गको छोडकर अपने स्वतन्त्र योग साधनाकै सम्प्रदाय
(ईसाको नवीं सदी) स्थापितकर लिये । इनमम्मे कितनाने दिगम्बरस्वको भी , (अ) सुत्त पिटक-दीर्घनिकाय ब्रह्मजाल सुत्त. पहला, छार दिया, किमीने अपनी नग्नताको छुपानेके लिए पेड़ोंकी दुसरा तीसरा, चौथा और ७६ वा सुत्त, छाल धारण करली. किमीने मृगछाल ढकजी, किसीने (आ) मज्झिम निकाय ३० at, .५ वां और ७६वां सुत्त । भस्मसे ही शरीरका विलेपन कर लिया किसीने कौपीन श्वे. उप. १-१-