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अनेकान्त
[किरण ३ प्रात:काल होते ही उसके सिंदूर भाविको पण्डे बुहारियोंसे कभी प्रकाश डाला जावेगा। नागौरीजीकी कल्पनामोंका साफ करते हैं, यह मूतिंकी घोर अवज्ञा है साथही उससे खण्डन श्री लक्ष्मीसहाय माथुर विशाराने किया है। मूर्विके कितने ही प्रत्ययोंके घिस जानेका भी डर है। पाठक उसे अवश्य पढ़ें। राजस्थान इतिहासके प्रसिद्ध मन्दिरमें यह दिमूर्ति जब अपने स्वकीय दि०रूपमें आई विद्वान महामना स्वर्गीय गौरीशंकर हीराचंदजी भोमा तो उसी समय सब लोगोंके हृदय भक्तिभावसे भर गए, भी अपने राजपूतानेके इतिहासमें इस मन्दिरको दिगम्बरोंऔर मूर्तिको निर्निमेष दृष्टिसे देखने लगे। मन्दिर भगवान का बतलाते हैं और शिलालेखोंसे यह बात स्वतः सिन्द्व पादिनाथकी जय ध्वनिसे गूंज उठा, उस समय जो पान- है। फिरभी श्वेतांबर समाज इसे बलात् अपने अधिकार में दातिरेक हुमा वह कल्पनाका विषय नहीं है। मन्दिरके लेना चाहती है यह नैतिक पतनकी पराकाष्ठा है चारों तरफ दिगम्बर मूर्तियां विराजमान हैं। मन्दिर बड़ा श्वेताम्बर समाजने इसी तरह कितने ही दिगम्बर हीकखापूर्ण है। प्राजके समय में ऐसे मन्दिरका निर्माण तीर्थ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया, यह बात उसके लिये होना कठिन है।
शोभनीक नहीं कही जा सकती। ___मन्दिर का सभी मंडप और नौचौकी सं० १५७२ में
पिछले ध्वजादण्डके समय साम्प्रदायिकताके नंगे काष्ठा संधके अनुयायी काछलू गोत्रीय कड़िया पोइया
नाचने कितना अनर्थ ढाया, यह कल्पना की वस्तु नहीं, और उसकी पत्नी भरमीके पुत्र हासाने धुलेवमें ऋषवदेवको
यहाँ तक कि कई दिगम्बरियोंकी अपनी वली चढ़ानी पड़ा। प्रथामकर भव्यशः कीर्तिके समय बनवाया। इससे स्पष्ट है
और अब मूर्तियां व लंख तोड़े गए जिसके सम्बन्धमें कि मन्दिरका गर्भगृह निज मन्दिर उसके भागेका खेला
राजस्थान सरकारसे जांच करनेकी प्राथना की गई। मंडप तथा एक अन्य मंडप १४३१ और १५७२ में
प्रातु। बनें । अन्यदेव कुलकाएं पीछे बनी है। जैन होते हुए भी वहां सारे दिन हिन्दुत्वका ही प्रदर्शन रहता है।
__भगवान महावीरके अनुयायियोंमे यह कैसा दुर्भाव, यद्यपि मूर्तिकी पूजा करनेका हम विरोध नहीं करते,
जो दूसरेकी वस्तुको बलात् अपना बनाने का प्रयत्न किया उस प्रान्तक प्रायःसभी लोग पूजन करते हैं। और उन पर
जाता है। ऐसी विषमनाम एकना और प्रेमका अभि संचार श्रद्धा रखते हैं परन्तु उपके प्राकृतिक स्वरूपको छोड़कर
कैसे हो जा सकता है? दिगम्बर श्वेताम्बर समाजका अन्य अप्राकृतिक रूपोंको बनाकर उसकी पूजा करना कोई
कर्तव्य है कि वे दोनों समयकी निको पहचान, और श्रेयस्कर नहीं कहा जा सकता। यहां इस बातका उल्लेख
अपनी साम्पदायिक मनोवृत्तिका दूर रखते हुए परस्परम कर देना भी आवश्यक जान पड़ता है कि श्रीचन्दनलालजी
एकता और प्रेमकी अभिवृद्धि करनेका प्रयत्न करें । एक नागौरीने 'केसरियाजी का जो इतिहास लिखा है और
ही धर्मक अनुयायियोंकी यह विषमना अधिक खरकती जिसके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उममें साम्प्र- ह । आशा है
TIM है । आशा है उभय समाजके नेतागण इस पर दायिक व्यामोहवश कितनी ही काल्पनिक बातें, पट्टएवं विचार करग। शिलालेख दिये हैं जो जाली हैं और जिनकी भाषा उस इसमें कोई सन्देह नहीं है कि केशरियाजीका मन्दिर समयके पट्ट परवानांस जरा भी मेल नहीं खाती। उसमें दि. सम्प्रदायका है । इससे इंकार नहीं किया जा. कुछ ऐसी कल्पनाएं भी की गई हैं जो ग़लत फहमीका सकता। परन्तु वहां जैन संस्कृति के विरुद्ध जो कुछ हो फैलाने वाली हैं जैसे मरुदेवीके पास सिद्धिचन्द्र के चरण रहा है उसे देखते हुए दुःख और आश्चर्य जरूर होता चिन्होको, तथा सं० १६८८ के लेखका बतलाया जाना है। मन्दिरका समरत वातावरण हिन्दुधर्मकी क्रियाओंने जकि वहा हाथींके होदेपर वि० सं० का दिगम्बर श्रोत-प्रांत है। अशिक्षित पण्डे वहां पर पुजारी है, वे ही सम्पदायका लेग्य है और भी अनेक बात है जिन पर फिर वहाका चढ़ावा लेते हैं। आशा है उभय समाज अपने संवत् १७११ वर्षे वैशाख सुदि ३ सोमे श्री मूलसंधे प्रयत्न
प्रयत्न द्वारा अपन अधिकारोंका यथेष्ट संरक्षण करते हुए सरस्वती गच्छे बलात्कार मणे श्रीमहारक...."मललेख मन्दिरका असली रूप अव्यक न होने दंगे। क्रमश:(यह लेख मरुदेवीके हाथी पर वाई ओर है।
-परमानन्द जैन,