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संशोधन
मुख्तार श्री जुगजकिशोर जी को अनुपस्थिति में उनका ... प्रौप्यमें धौव्य ये "समयसारकी' १५वी गाथा श्रीकानजी स्वामी" नामक , १६ रहते हैं रहते हैं, अलग अलग रूपमें खेख गत किरणमें प्रेसादिको असावधानीके कारण कुछ
येण्य (सत्-'के कोई खपण मण्ड छप गया है 'जिपका भारी खेद है। अतः विराम
नहीं होते और इसखिये दोनों चिन्हों, हाइफनों तथा विन्दु विसर्गादिको ऐसी साधारण
मूलनय अशुद्धियोंको छोड़कर पिाठक महजमें अवगत कर , का० ३. बोधको बिरोधको सकते हैं। दूसरी कुल मर्यालय का संशोधन नीचे दिया ।, २५ महितीस है पवितीय हैजाता है। पाठकजन अपनी-अपनी अनेकान्त' प्रतियोंमे .., ३६,३७ अकल्पित एवं प्रतिष्ठित (अकस्पित एवं उन्हें ठीक कर लेनेकी कृपा करें । साथ ही, पृष्ठ १८४के
प्रतिष्ठित) अन्त में 'शेष पृष्ठ २०६ पर' और पृष्ठ २०६के प्रारम्भमें , ३ मांस (मंच'पृष्ठ १८४ से भागे' ऐसा किटके भीतर बना लेव:
वाली
वाला पृष्ठ, पंक्ति
... . शासन सह शासनारूढ अशुद्ध शुद्ध १७८, ३३ क्रभंग
,
अवस्था क्रमभंग
२४ अवस्थामें कमसे कमसे कम
२१०.का०२.१८ पांच जो पांच १८० २५ असत्य असह्य
इसी वरह श्रीकानजी स्वामी 'जिनशासन नामक १८१ ३३ कल्पना भी कल्पना थी)
प्रवचन लेखके छपनेमें भी कुछ अशुद्धियों हो गई है जिनमें १८५ २८ . १ १४१
से बिन्दु विसर्गादिकी बैसी साधारण अशुद्धियोंको भी
कब कर शेष प्रदियोंका संशोधन नीचे दिया जाता है। १८३ ३७ जिएवरेहिं जियवरेहिं ११८
उम अशुद्धियोंको भी पाठक अपनी अपनी प्रतियों में ठोक ,का.२, जीविद जीवदि
कर लेनकी कृपा करें:,,, २३ जिसके जिनक ,,२५.२५ सम्बन्ध
जिमझासन जनशासन १८५४ भवत्री भगवश्रो
" का. २, ४ जिनशासन हो जैनशासन हो
जैनधर्म! जैनधर्म है १३ साथ रहा साथ
विज्ञावधर्म विज्ञानधन १६ समयका संयमका
विकारको विकारकी २८ परिशिष्टमें परिशिष्ठों
प्रधावतामें प्रधानतामें , ३३ अन्तः अन्त
वीतरागता का.२,२ न्यायके न्यायको
२१२का०२,
निमित्त निमित्तसे " निश्चय निश्चयनय
उसीने उसीने जैन . अनुवयपण अनुप्पण
शासनको देखा ४ पडिक्क पाढिक्क
है और वही , । विशेष
(विशेष)
पंक्ति
,, १८
जकि