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________________ ४४] अनेकान्त किरण - - - आर्य इसका कारण यही था कि यहाँ जैनधर्मका विशेष भारतवर्षके अन्यान्य देशों में जिस प्रकार मार्योंकी रीति प्रभाव था। नीति, भाषा और धर्म प्रचलित हुए थे उसी प्रकार मगध प्राचीनकालमें इविध जातिका राज्य बंगोपसागरसे और बंगदेशमें भी इनका प्रवर्तन भारम्भ हुमा था। लेकर भूमध्यसागर पर्यन्त विस्तृत था । वर्तमानमें किन्तु दाक्षिणात्य वासी द्वाविंडोंने सम्पूर्णरूपसे प्रार्यदविबजाति मध्यभारत और दक्षिणात्यमें वास करती है। भाषा ग्रहण नहीं की; परन्तु उनके अनेक आचार-व्यवदक्षिशके प्राचीन राज्य चेर, चोल और पायब्ध हैं हारोंका अनुकरण अवश्य किया। इन तीनों राज्योंका अस्तित्व अशोकके समयमें भी पाया खुष्ट पूर्व प्रथम सहस्राब्दीमें उत्तरापथके पूर्व सीमान्त जाता है। दक्षिण भारतके इतिहाससे यह भली प्रकार स्थित प्रदेश भार्यगणोंके आधीन हो गए थे पर इसके प्रगट हो चुका है कि पायव्य नृपतिगण जैनधर्मावलम्बी तीनचार शताब्दी बाद समग्र पर्यावर्त मगध राजगणोंकी थे। चेर नृपति (सन् १९७के लगभग) के लघु भ्राता प्राधीनतापाशमें बद्ध हो गया था। उन मगधके राज्यगणोंद्वारा लिखित 'शिलप्परिकारम्' नामक शामिल अन्धसे को हिन्दू-लेखकोंने शूद्र जातीय या अनार्यवंश संभूत प्रगट होता है कि प्राचीन चेर नृपतिगण भी जैन थे। जिस्खा है। चोल नृपतिगण भी बीच बीचमें जैनधर्मके प्रतिपोषक थे, पर पश्चात् कालमें वे शैव हो गए थे। खुष्टीय प्रार्योंका देशान्तगेंसे भारतवर्ष में प्रागमन हुआ, इस (ईसाकी) प्रथम शताब्दीमें पल्लववंशी राजा भी जैन सिद्धांतको स्वीकार कर या न करें पर यह बात निश्चित धर्मावलम्बी या जैनधर्मके पोषक थे। इन पल्लवोंकी है कि उन प्राचीन भारतीय पार्यों में भी जैनधर्मका प्रचार उत्पत्ति कुरुम्बादि प्रादिम निवासियोंसे बतायी जाती है। था । उपनिषदों से ज्ञात होता है कि एक बार नारद कुरुम्ब जातिके लोग भी जैनी थे, इसके प्रमाण भी मुनि राजा सनत्कुमारको राजसभामें श्रात्मविद्याके परिउपलब्ध हैं। ज्ञान में दीक्षित होने के लिये गये । वहाँ नारदमुनि कहते प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामी जो दक्षिण कियपि मैं वैदिक विद्याको भले प्रकार जानता हूँ देशमें प्रथम शताब्दीमें हुए हैं और जिन्होंने प्राचार्यपद तथापि (Eastern Arya) प्राच्य पार्योंकी पात्मविद्या सृष्टपूर्व = में ग्रहण किया था, वे द्राविड़ थे । या परविद्यासे अनभिज्ञ हूँ जो कुरु पंचाल पार्योंकी सन् ४७० में प्राचार्य वज्रनन्दीने 'द्राविसंघ' की अपरविद्या या वदिकज्ञानके प्रतिकूल है । भार अपरविद्या या वैदिकज्ञानके प्रतिकूल है । प्रात्मविद्यामें ही स्थापना की थी। वैदिक यज्ञों (बलिदान) को निरर्थक और प्रारमाके विकास इस प्रकार परवर्तीकालके द्रविड लोगों में भी क्रमा (Evolution of the soul) के लिए हानिकारक नुगत जैनधर्मका अस्तित्व पाया जाता है। बताकर उनकी घोर निन्दा की है। यहां यह भी विचार णीय है कि गांगेय उपत्यकाके अधिवासियों या प्राच्यार्यों इस समय द्राविड़ या गमिल भाषा तामिल, तेलगू, Eastern Aryans जो काशी, कोशल, विदेह और कनदी और मलयालम ऐसे चार प्रधान भागोंमें भिक मगध वास करने वाले थे उनको याज्ञवरुक्यने भ्रष्ट और हैं। हिन्दू ग्रन्थोंमें दाविद भाषाको भी अनार्य कह दिया मिन्नमतावलम्बी कहा है। इसका कारण यही था कि है। उपलब्ध तामिल और कनड़ी भाषाका प्राचीन और पूर्व देशीय प्रायवेदिक हिंसामय यज्ञोंकी केवल निन्दा उच्च साहित्य जैनों-द्वारा लिखा हुआ है। ही नहीं करते थे वरन् साथ साथ यह भी कहते थे कि इन ___ आर्य सभ्यता जब यहां विस्तृत हुई. तब भी शादिम यज्ञोंको करना पाप है और इनका परित्याग करना धर्म दाविद अधिवासीगणोंने बंगालका परित्याग नहीं किया। है। बाजस्नेहो संहिता भी यही सूचना है। अतः इसमें ॐ देवसेनकृत दर्शनसार (वि. सं. ११. का) रखोक २४, २८ x prof A. chakravurty-Jain gazette vol.XIX No.3p.91.
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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