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अनेकान्त
[किरण ६
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नगर' था, पीछे किसी समय पडवानी हुना होगा । वहा ३-संवत् १३८० वर्षे माघसुदि सनी श्रीनांदरंगाराकी बावडीके लेखसे ऐसाही मालूम होता है। परन्तु संधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे मूलसंधे कुन्दकुन्दा यह कल्पना ठीक नहीं है। बडवानी यह नाम कमसे कम चार्यान्वये भट्टारक श्रीशुभ कोर्तिदेवतशिष्य सनीति बह-सातसौ वर्षसे कम पुराना प्रतीत नहीं होता, क्योकि " "
एक मूर्ति पर वि० सं० १२१२ का भी लेख अंकित वक्रमकी ९वीं शताब्दीके भट्टारक उदयकीर्तिने अपनी
है उसमें शिल्पकारका नाम कुमारसिंह दिया हुआ है। निर्वाणभक्तिमें इसका उल्लेख किया है, और निर्वाण
सम्बत् १९१६ में काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगणके काण्डकी वह गाथा भी उक्त भक्सेि पुरानी जान पड़ती
महारक श्रीकमलकीर्तिके शिष्य मंडलाचार्य रस्नकीर्तिने है। भत्तिका का उल्लेख वाक्य इस प्रकार है:
मन्दिरका जीर्णोद्धार किया, और बड़े चैत्यालयक पाश्चमें 'वडवाणीरावणतण उपुत्त हउवदामि इन्दोज मुणि पवित्तु
दश जिनवतिकाओंकी भारोपणा की। तथा इन्द्रजीतकी
विनिमकी मे चूलगिरिके शिखरस्थित मन्दिरोंका जीर्णोद्धार विक्रम- प्रतिमाकी प्रतिष्ठा भी श्रीमंधके लिये की गई। इस तरह की १३ वी १४ वीं और १६ वीं शताब्दीमें किया गया यह चूलगिरिक्षेत्रका पुरातन इतिवृत्त १०वीं शताब्दीके है। जिनमें दो. शिलालेख वि० सं० १२२३ के हैं और आस पास तक जा सकता है। पर यदि वहाँकी पुरातन एक मूर्ति लेख संवत् १३८० का है। शेष लेख समयकी सामग्रीका संचय कर समस्त शिलालेख और मूर्तिलेखोंका कमीसे नोट करनेसे रह गए । दुसरे लेखसे मुनि रामचन्द्र- संकलन कर प्रकाशन कार्य किया जाय। तब उसके की गुरुपरम्पराका उल्लेख मिल जाता है जो बोकनन्दी- इतिहासका ठीक पता चल सकता है। मुनिके प्रशिष्य और देवनन्दीमुनिके शिष्य थे। मुनि बडवानीसे उसी दिन रात्रिको १० बजे चलकर हम रामचन्द्र के शिष्य शुभकीतिका भी उल्लेख अन्यत्र पाया लोग १२ बजेके करीब ऊन (पावागिरि) पहुँचे। जाता है। वे लेख पूर्व और दक्षिण दिशाके निम्न यह क्षेत्र कुछ समय पहले प्रकाशमें आया है। इसे ऊन प्रकार है:
अथवा 'पावागिरि' कहा जाता है। इस क्षेत्रके 'पावागिरि' 'यस्य स्वकुब्जतुषारकुन्द विशदाकीर्तिगणानां निधिः
होनेका कोई पुरातन उल्लेख मेरे देखने में नहीं पाया। श्रीमान भूपतिन्दवन्दितपदः पारामचन्द्रो मुनिः।
यहाँ एक पुराना जैन मन्दिर वी १२वीं शताब्दीका
बना हुमा है, जो इस समय खण्डित है, परन्तु उसमें विश्वमाद् खबशेखर शिखा सञ्चारिणी हारिणी,
एक दो पुरानी मूर्तियाँ भी पड़ी हुई हैं। जिनकी तरफ इस उव्यांशत्रु जितो जिनस्य भवनव्याजेन विस्फूति ।।
क्षेत्र कमेटीका कोई ध्यान नहीं है। यहाँ दो तीन नूतन रामचन्द्रमुनेः कीर्ति सङ्कीर्ण भुवनं किल ।
मन्दिरोंका निर्माण अवश्य हुआ है, जिनमें ३ भूतियां अनेकलोक सङ्घर्षाद् गता सवितुरन्तिकं ॥
परानी हैं। वे तीनों मूतियाँ एक ही तरहके पाषाणकी सम्बत् १२२३ वर्ष भाद्रपददि १४ शुक्रबार । बनी हुई है। उनमेंसे दोनों भोरकी मूर्तियोंके लेख मैंने भोंनमो वीतरागाय ॥
उतार लिये थे, परन्तु तीसरी मूर्तिका अभिलेख कुछ आसीद्यःकलिकालकल्मषकरिध्वंसैककंठीरवो, अंधेरा होनेसे स्पष्ट नहीं पढ़ा जाता था इस कारण तावनेमापतिमौलिचुम्बितपदः यो लोकनन्दो मुनिः।। रनेसे रह गया था। वे दोनों मूर्तियाँ संभवनाथ और शिष्यस्तस्य स सर्वसङ्घतिलक श्रीदेवनन्दो मुनिः।
कुधनाथकी है उनके मूर्ति लेख निम्नप्रकार है:धर्मज्ञानतपोनिधियतिगुणप्रामः सुवाचां निधिः ॥
"सम्पन् १२५८ श्रीवलाकारगणपण्डित श्रीदेश
नन्दी गुरुवर्यवरान्वये साधु धणपण्डित तरिशष्य साधुसवंशे तस्मिन् विपुलतपसां सम्मतः सत्वनिष्ठो।
लेण तस्य भार्या हर्षिणी तयोः सुत साधुगासून सांतेण वृत्तिपापां विमलमनसा त्यज्यविद्याविवेकः।
प्रणमति नित्यम्" रम्यां हये सुरपतिजित: कारितं येन विद्या।
२ श्री सम्बत् १२६३ वर्षे ज्येष्ठमासे १३ गुरी साधु शेषां कीर्तिभोति भुवने रामचन्द्रः स एषः॥२॥ पंडित स नित सुतसीखहारेण प्रणमति नित्यम्" संवत् १२५ वर्षे ।
तीसही मूर्ति अजितनाथकी है।