________________
किरण]
हिन्दी-जैन-साहित्यकी विशेषता
१६३
हिन्दी जैन-सा हत्यमें शुभाषित अन्योंका भी परिचय मिलता है कविवर भूधरदास विरचित जैनशतक, बुधजन कृत, बुधजन सतसई और छत्रपति विरचित, मदनमाहन- पंचशती आदि महत्वपूर्ण काम्य-प्रन्थ है।
जैन साहित्यकी महत्ता वणित करते हुए श्री पुरनचंद नाहर और श्रीकृष्णाचन्द्र घोष अपनी कृति 'On Epitone of Jainism' में इस प्रकार लिखते हैं।
ber of other works both in prakrit and Sanskrit, on plulosophy, Logic, Astronomy, Grammar, Rhetone, Lives o] Saints etc. Both in prose and poetry ....................................Inshort the Jain literature c mprising as it does all the branches of ancient Indin literature holds no Dsignificant a niche in the gallary of that literature, and as it truly said by Prof. Her to.
Vith respect to its narrature part, it holds it prominent position not only in the Indian literature but in the literature of mankind."
-Pp. 694-95.
"It is bevond doubt that the Jain writers hold a prominent position in the literary activity of the country. Besides the Jain Sudhanta and its commentaries there are a great num
हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण
(गत किरण तीनसे भागे) केशरियाजीसे सबेरे दश बजे चलकर हम लोग ४ वाम्बरे वाम्बरे देशे वाग्वरैर्विदिते तितौ । बजे के करीब डूंगरपुर आये। इस नगरका पुरातन नाम चन्दनाचरितं चक्रे शुभचन्द्रो गिरौपुरे ॥२०. 'गिरिपुर' ग्रन्थों में उल्लिखित मिलता है । उस समय गिरि- इन ममुख्लेखोंसे गिरिपुरकी महत्ताका स्पष्ट पाभास पुर दिगम्बर समाजके विद्वानोंको ध रचना स्थान मिलता है। परन्तु इम गिरिपुर नगरका 'हंगरपुर' नाम रहा है जिसके दो उदाहरण नीचे दिये जाते हैं। यर्याप कब पड़ा, यह कुछ ज्ञात नहीं होता, सभव है किसी इनके अतिरिक्त तलाश करने पर अनेक उदाहरण मिल 'इगर' नामके व्यक्तिके कारण इम नगरका नाम सकते हैं। माथुरसंघीय भट्टारक उदयचन्द्र के प्रशिष्य और इंगरपुर लोकमें विश्व तिको प्राप्त हुआ हो अथवा भ० बालचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्रने, जिनका समय विक्रम इंगर या इगर' शब्द पर्वतके अर्थमे प्रयुक्त होता की ११ वीं शताब्दी है, अपना अपभ्रंशभाषाका 'चून्दी' है। अत. सम्भव है कि पहाडी प्रदेश होनेके कारणा नामका प्रन्थ जो ३३ पद्योंकी संख्याके लिये हुए हैं, गिरि- उसका नाम डूंगरपुर पड़ा हो । डूगरपुर राज्यका पुरके अजय नरेशके राजविहार में बैठकर बनाया है। प्राचीन नाम बागड़' है, जो गुजराती भाषाके 'बगहा'
विक्रमकी 14वीं और 10वीं शताब्दीके पूर्वाधके शब्दसे बहुत कुछ साहश्य रखता है माज कल विद्वान भट्टारक शुभचन्द्र ने अपना 'चन्दनाचरित्र' वारवर लगभी इस 'वागढ़िया' कह देते हैं। वागद' शब्दका देशक 'गिरिपुर' नामके नगरमें बनाकर समाप्त किया है। संस्कृत रूपान्तर भी वाग्वर, वागर और वेयागढ़ अनेक जैसा कि 'चन्दना चरित्र' के निम्न पद्यसे स्पष्ट है:- जिखालेखा, प्रशस्तियों और मूर्तिलेखोंमें अंकित मिलता x तिहुयशि गिरिपुरु जगि विक्खायड
है। इससे स्पष्ट है किहूंगरपुरका सम्बन्ध वागडसे रहा सम्ग खण्ड रियनि प्रायड
है वागड देशमें दंगरपुर, बांसवाहा और उदयपुरके कुछ तहिं णिवसंतें मुशिवरेण
दक्षिणी भागका समावेश किया जाता था अर्थात् वागढ अजय परिवहां राय-विहारहिं ।
.देखो, रंगरपुरका इतिहास पृ०२