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व्याख्यान है, केवलज्ञान में तो सर्व लोकालोक ज्ञात हुआ है, परन्तु इसमें जीव को कार्यकारी, छद्मस्थ के ज्ञान में आ सके ऐसा निरूपण होता है। जैसे जीव के भावों की अपेक्षा गुणस्थान कहे हैं, सो भाव तो अनन्त हैं, उन्हें तो वाणी से कहा नहीं जा सकता। अत: बहुत भावों की एक जाति करके चौदह गुणस्थान कहे हैं।
करणानुयोग में भी कहीं उपदेश की मुख्यता सहित व्याख्यान होता है, उसे सर्वथा उसी प्रकार नहीं मानना। जैसे छुड़ाने के अभिप्राय से हिंसादिक के उपाय को कुमतिज्ञान कहा। वास्तव में तो मिथ्यादृष्टि के सभी ज्ञान कुज्ञान हैं और सम्यग्दृष्टि के सभी ज्ञान सुज्ञान हैं।
3. चरणानुयोग के व्याख्यान का विधान-चरणानुयोग में जिस प्रकार जीवों के अपनी बुद्धिगोचर धर्म का आचरण हो, वैसा उपदेश दिया जाता है। इसमें व्यवहारनय की मुख्यता से कथन किया जाता है। निश्चय धर्म में तो कुछ ग्रहण-त्याग का विकल्प ही नहीं। अत: इसमें दो प्रकार से उपदेश देते हैं। एक तो मात्र व्यवहार का और एक निश्चय-सहित व्यवहार का। व्यवहार उपदेश में तो बाह्य क्रिया की प्रधानता होती है, पर निश्चय सहित व्यवहार के उपदेश में परिणामों की ही प्रधानता है।
जिन जीवों को निश्चय का ज्ञान नहीं है तथा उपदेश देने पर भी होता दिखाई नहीं देता, उन्हें तो अकेले व्यवहार का उपदेश देते हैं, तथा जिन जीवों को निश्चय सहित व्यवहार का ज्ञान हो, अथवा उपदेश देने पर सम्भव हो, उन्हें निश्चय सहित व्यवहार का उपदेश देते हैं तथा चरणानुयोग में कहीं-कहीं कषायी जीवों को कषाय उत्पन्न करके भी पाप छुड़ाते हैं। जैसे पाप का फल नरकादि दुःख दिखाकर भय कषाय उत्पन्न करके तथा पुण्य का फल स्वर्गादिक में सुख दिखाकर लोभ कषाय उत्पन्न करके धर्मकार्यों में लगाते हैं। इसी प्रकार शरीरादिक को अशुचि दिखाकर जुगुप्सा कषाय कराते हैं और पुत्रादिक को धनादिक का ग्राहक बताकर द्वेष कराता-सा दिखाते हैं। पूजा, दान, नाम-स्मरणादिक का फल पुत्र-धनादि की प्राप्ति का लोभ बताकर धर्मकार्यों में लगाते हैं। इस प्रकार चरणानुयोग में व्याख्यान होता है। अतः उसका प्रयोजन जानकर यथार्थ श्रद्धान करना चाहिए।
4. द्रव्यानुयोग के व्याख्यान का विधान-द्रव्यानुयोग में जीवों को जीवादि तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान, श्रद्धान जिस प्रकार हो, उस प्रकार विशेष युक्ति, हेतु, दृष्टान्तादिक से वर्णन करते हैं, क्योंकि इसमें यथार्थ श्रद्धान कराने का प्रयोजन है। जैसे स्व-पर भेदविज्ञान हो, वैसे जीव-अजीव का; एवं जैसे वीतरागभाव हो, वैसे आस्रवादिक का वर्णन करते हैं, आत्मानुभव की महिमा गाते हैं एवं व्यवहार कार्य का निषेध करते हैं। जो जीव आत्मानुभव का उपाय नहीं करते, और बाह्य क्रियाकाण्ड में ही मग्न हैं, उनको वहाँ से उदास करके आत्मानुभव आदि में लगाने को व्रत, शील, संयमादि का हीनपना भी प्रकट करते हैं। शुभोपयोग का निषेध अशुभोपयोम में लगाने के लिए नहीं करते हैं, किन्तु
तीर्थंकर परम्परा, जिनागम और अनुयोग :: 67
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