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विश्वकी सभी दिव्य शक्तियाँ जब देवता हैं और उनके पीछे नियन्त्री शक्ति एक ही है तो फिर ३३ का बचन किसी एक विशेष दृष्टि को लेकर हो सकता है, ३३ का नियम नहीं हो सकता । अत्रान्तर शक्तियोंकी दृष्टिसे सहस्रों भी कहे जा सकते हैं सामान्य शक्तियांकी दृष्टिसे ३३ से न्यून भी और समष्टि की दृष्टिसे एक भी कहा जा सकता है. अतएव अन्यत्र ऋग्वेद (३ || ६) में कहा है, "श्रीणि शता त्री सहस्रारयसि त्रिशभ देवा नवचास पर्यन्" तीन हजार, तीन सौ तीस और नौ देवता ने की सेवा की। विदग्धयाज्ञवल्क्य संवादमें आया है तब विदग्ध शाक्ल्यने याज्ञवल्क्यसे पूछा 'कितने देवता हैं याज्ञवल्क्य ?
उसने इसी निवसे बतलाया जितने वैश्व देव निविद् में कड़े हैं. ३०३ और ३००३। उसने कहा. हो. ( और फिर पूछा ) कितने देवता हैं है याज्ञवल्क्य ? ( उत्तर ) '३३' उसने कहा हां' ( फिर पूछा ) कितने देवता हैं याज्ञवल्क्य ? ( उत्तर ) 'छह' । उसने कहा 'हो' (फिर पल्ला ) कितने हैं देवता हे याज्ञवल्क्य ? ( उत्तर ) अध्यर्थ । उसने कहा 'हां' ( और फिर पूछा ) कितने हैं देवता हे याज्ञवल्क्य ? ( उत्तर ) एक उसने कहा 'हां' (वृह उप ३ | ६ | १ ) | इसके पीछे उनके अलग अलग नाम पूछते हुए अन्तमें पूछा है, कौन एक देवता है ? (उत्तर) 'प्राण' उसी को ( परोच) ब्रह्म कहते हैं ( वृ० उ० ३१६ | ६ ) रहस्य यह है कि तीन लोक हैं पृथिवी, अन्तरिक्ष और धौ, उनमें परमात्मा की तीन प्रधान विभूतियाँ (दिव्य शक्तियाँ) हैं अभि वायु और सूर्य । इनके साथ अप्रधान विभूतियोंका कोई अन्त नहीं यदि तीनको अपने सामान्य रूपों में लाकर इन तीनोंके साथ हजार हजार और विशेषरूप कहो तो तीन हजार तीन और यदि सामान्य रूपमें लाकर सौ सौ कहो तो ३०३ यदि इससे भी और सामान्य