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एतं ह्येव यव्हचा महस्युक्थे मीमासन्ते एत मग्रावयव एतं महानते छन्दोगाः (ऐत. भार० ३ | २ | ३ | १२)
इस (परमात्मा) को ही ऋग्वेदी बड़े उपथ में विचारते हैं. इसी को यजुर्वेदी 'अभिमें उपासते हैं. इसीको सामवेदी महानतम उपासने हैं।
तादिद माहुरमु यजामु यजेत्येक देवमतस्यैव सा विसृष्टि रेष उ ह्येव सर्वदेवा ( वृह उप० श६) ___सो जो यह कहते हैं कि अमुकफी पूजा करो अमुककी पूजा करो इस प्रकार अलग अलग एक एक देवताकी इसाका वह फैलाव है यही सारे देवता हैं।
माहाभाग्याद् देवताया एक प्रात्मा बहुधा स्तूयते । एकस्यात्मनोऽन्ये देवाः प्रत्यंगानि भवन्ति (निरुत ७४)
'बहुत बड़े ऐश्वर्य वाला होनेके कारण एक ही आत्माकी इस प्रकार स्तुति की गई है जैसे जैसे कि वे बहुतसे (देवता) हैं। स्वयं एक होते हुए के दूसरे सारे देयता प्रत्यङ्ग होते हैं।
देवताओंको संख्या वेदमें देवताओं की संख्या ३३ कही है (देखो ऋ० १४५२१७, शा२०१७ ८।३०अथर्व १०।७१३, २३)
इन तेनीसके ग्यारह ग्यारह के तीन वर्ग हैं, उनमेंसे एक वर्गका. स्थान पृथिवी लोक, दुसरका अन्तरिक्ष, और तीसरेका यो है ( देखो ऋ०२१ ३४ । ११, ८ । ३५ । ३, १ । १३६ । ११)। पर मस्त भादि जो देवगा है ये इनसे पृथक हैं। इस प्रकार