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खणु जीवेप्पिणु मुउ सोमालहुं एयारहमइ कुलयरि जायइ जीउ ण वज्जइ कवयदिवसइं णंदइ पय पयाइ संजुत्ती विहियहं सरिसमुद्दजलजाणइं तक्कालइ जायइं णिम्मग्गइं
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दहमें केलि पयासिय बालहुँ । णंदणि माणववंदहु हूयइ । बारहमइ हुइ बहुयइं वरिसहूं। तेरहमेण वियप्पिय वित्ती/ गयणलग्गगिरिवरसोवाणइं। कुसरि कुसायर कुकुहर दुग्गइं।
घत्ता—जाएं मणुणा चोहहमइण णरसिसुणालइ खंडियइं॥ कसणन्भई थियइं णहंगणइ चलसोदामणिसंडियइं ॥ १२ ॥
लेकिन बालक एक क्षण जीवित रहकर मर गया। दसवें कुलकर अमिचन्द (अमृतचन्द्र) ने सुकुमार बालकों की क्रीड़ा दिखलायी। ग्यारहवें कुलकर चन्द्राभ के होने पर मानव समूह के पुत्र उत्पन्न होने लगे। लेकिन कुछ दिनों के बाद उनका जीव नहीं बचता, बारहवें कुलकर मरुदेव के होने पर वे जीवित रहने लगे और प्रजा पुत्रादि से संयुक्त होकर आनन्द से रहने लगी। तेरहवें कुलकर प्रसेनजित् ने उनकी आजीविका की चिन्ता की। उसने समुद्र-नदियों के लिए जलयान बनाये। आकाश को छूनेवाले पहाड़ों पर सोपान बनाये गये। उन्हीं के समय उत्पाती नदियों और समुद्रों में निश्चित मार्ग बनाये गये तथा पहाड़ों में दुर्ग रचे गये।
विसकालिंदिकालणवजलहरपिहियणहंतरालओ/ धुयगयगंड मंडलुड्डावियचलमत्तालिमे लओ ॥ अविरलमुसलसरिसथिरधारावरिसभरंतभूयलो । हयरवियरपयावपसरुग्गयतरुतणणीलसद्दलो ॥
घत्ता-चौदहवें कुलकर नाभिराज के उत्पन्न होने पर मानव शिशुओं के नाल काटे जाने लगे, और सुन्दर बिजलियों से अलंकृत काले बादल आकाशरूपी आँगन में स्थित हो गये ॥ १२ ॥
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जिसमें विष, यमुना और काल के समान (काले) नवमेघों ने आकाश के मध्यभाग को ढँक लिया था, जो गजों के हिलते हुए गण्डस्थलों से उड़ाये गये भ्रमरसमूह के समान था, जिसने अविरल मूसलाधार धारावाहिक वर्षा से भूतल को भर दिया था, जो सूर्य की किरणों के प्रताप को नष्ट करनेवाला, निकलते हुए वृक्षों और तृणों के समान नीले पत्रों से नीला और हरा-भरा था,
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