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आचार्य पूज्यपाद विरचित
नील पर्वत
सर्वार्थसिद्धि
सीतोदा नदी
पादेश
शाल्मली तत्काल
चित्रकूट) यमक O
० यमक विक्ट)
सीलोदा नदी
निष्पथ पर्वत
सम्पादन-अनुवाद
सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री
UPTEvion international
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सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थसूत्र जैनविद्या का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है और संस्कृत में सूत्र-पद्धति से जैन सिद्धान्त का विधिवत् संक्षेप में परिचय कराने वाला सम्भवतः सर्वप्रथम ग्रन्थ है। अपने विषय की यह इतनी सुन्दर और प्रामाणिक रचना है कि आज तक दूसरा कोई ग्रन्थ इसकी तुलना नहीं कर पाया। इस ग्रन्थ का महत्त्व और महिमा इससे भी प्रकट है कि इसका प्रचार जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों-दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी आदि में समान रूप से पाया जाता है। लोकप्रियता में भी यह जैन साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है। तत्त्वार्थसूत्र पर समय-समय पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय में इसकी देवनन्दि पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्ति सर्वप्राचीन मानी जाती है। इसका प्रकाशन अनेक बार हुआ है, किन्तु प्राचीन प्रतियों का समालोचनात्मक ढंग से अध्ययन कर पाट निश्चित करके विस्तृत हिन्दी विवेचन के साथ यह इसका सर्वाधिक प्रामाणिक प्रकाशन है। जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान् सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री ने प्रस्तुत संस्करण के हिन्दी के विवेचन में सर्वार्थसिद्धि का मर्म खोलकर रख दिया है। साथ ही प्रस्तावना में तत्त्वार्थसूत्र और उससे सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं पर विस्तार के साथ विचार किया है।
जैन तत्त्वज्ञान के अध्येताओं और प्रत्येक जिज्ञास के लिए एक अनिवार्य कृति।
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श्रीपूज्यपादाचार्यविरचिता सर्वार्थसिद्धिः
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ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला : संस्कृत ग्रन्थांक 13
श्रीमदाचार्य पूज्यपादविरचिता
सर्वार्थसिद्धि:
(श्रीमदाचार्यगृद्धपिच्छप्रणीतस्य तत्त्वार्थसूत्रस्य वृत्तिः)
सम्पादन-अनुवाद
सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
सातवा सस्करण : 1997 0 मूल्य : 150/- रुपये
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भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ६, वीर नि. सं. २४७० : विक्रम सं. २००० : १८ फरवरी १६४४)
स्व. पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित
एवं उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीय श्रीमती रमा जैन द्वारा सम्पोषित
मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन-साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उसका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य, विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी
जैन साहित्य-ग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं।
ग्रन्थगाला-सम्पादक (प्रथम सस्करण)
डॉ. हीरालाल जैन, डों. आ० ने० उपाध्ये
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-११०००३
मुद्रक विकास ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
सर्वाधिकार सुरक्षित
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Jnanpith Moortidevi Granthamālā: Sanskrit Grantha No. 13
ACHARYA PUJYAPĀDA'S
SARVĀRTHASIDDHI
[The Commentary on Acharya Griddhapiccha's Tattvārtha-sūtra ]
Edited and Translated by
Siddhantacharya Pt. Phoolchandra Shastri
BHARATIYA JNANPITH PUBLICATION
Seventh Edition : 1997 Price: Rs. 150-00
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BHARATIYA JNANPITH (Founded on Phalguna Krishna 9: Vira Sam. 2470, Vikrama Sam. 2000 : 18th Feb., 1944)
MOORTIDEVI JAINA GRANTHAMALA
FOUNDED BY LATE SAHU SHANTI PRASAD JAIN
IN MEMORY OF HIS LATE MOTHER SHRIMATI MOORTIDEVI
AND PROMOTED BY HIS BENEVOLENT WIFE
LATE SHRIMATI RAMA JAIN
IN THIS GRATHMALA CRITICALLY EDITED JAINA AGAMIC, PHILOSOPHICAL, PAURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRMSHA, HINDI, KANNADA, TAMIL ETC., ARE BEING PUBLISHED IN THE RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLA TIONS IN MODERN LANGUAGES. ALSO BEING PUBLISHED ARE CATALOGUES OF JAINA-BHANDARAS, INSCRIPTIONS, STUDIES ON ART ARCHITECTURE BY
COMPETENT SCHOLARS AND ALSO POPULAR JAINA LITERATURE
Published by Bharatiya Jnanpith
18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110003
Printed at : Vikas Offset, Naveen Shahdara, Delhi-110032
All Rights Reserved
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प्राथमिक
तत्त्वार्थसूत्र जैनधर्म का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है और संस्कृत में सूत्ररूप रचना द्वारा जैन सिद्धान्त का विधिवत् संक्षेप में परिचय करानेवाला सम्भवतः सर्वप्रथम ग्रन्थ है। यह रचना अपने विषय की इतनी सुन्दर हुई है कि आज तक दूसरा कोई ग्रन्थ उसकी तुलना नहीं कर पाया। इस ग्रन्थ की महिमा इससे भी प्रकट है कि इसका प्रचार जैन समाज के समस्त सम्प्रदायों-दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी आदि में समान रूप से पाया जाता है। लोकप्रियता में भी यह जैन साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है।
इस ग्रन्थ की समय-समय पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय में इसकी देवनन्दी पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्ति सर्वप्राचीन मानी जाती है। इसका प्रकाशन इससे पूर्व अनेक बार हो चुका है। किन्तु प्राचीन प्रतियों का समालोचनात्मक ढंग से अध्ययन कर पाठ निश्चित करने का प्रयास इससे पूर्व नहीं हो सका था। इस दिशा में पं फूलचन्द्र शास्त्री ने जो यह प्रयत्न किया है उसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं।
ग्रन्थ सम्पादन व मुद्रण आदितः ज्ञानपीठ से प्रकाशन के लिए नहीं किया था, इसलिए इसकी सम्पादन-प्रणाली आदि में इस ग्रन्थमाला के सम्पादकों का कोई हाथ नहीं रहा । पण्डितजी की प्रस्तावना आदि भी उनकी अपनी स्वतन्त्रता से लिखी और छापी गयी है। उसमें मल्लि तीर्थंकर, श्वेताम्बर आगम की प्रामाणिकता आदि सम्बन्धी विचार पण्डितजी के अपने निजी हैं और पाठकों को उन्हें उसी रूप से देखना-समझना चाहिए। हमारी दष्टि से वे कथन यदि इस ग्रन्थ में न होते तो अच्छा था : क्योंकि जैसा हम ऊपर कह आये हैं, यह रचना जैन समाज भर में लोकप्रिय है, उसका एक सम्प्रदाय-विशेष सीमित क्षेत्र नहीं है। अत: उसी उदात्त पर इस ग्रन्थ को सदैव प्रस्तुत करना श्रेयस्कर है। हमें आशा और भरोसा है कि पाठक उसी उदार भावना से इस प्रकाशन का आदर और उपयोग करेंगे।
-हीरालाल जैन -आ० ने उपाध्ये ग्रन्थमाला-सम्पादक (प्रथम संस्करण)
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सम्पादकीय (तृतीय संस्करण)
1. मूल और अनुवाद समग्र जैन परम्परामें मूल तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध टीकाओं में लिखी गई 'सर्वार्थसिद्धिवृत्ति' यह प्रथम टीका है और सर्वांग अध्ययन करनेके बाद निश्चित होता है कि 'तत्त्वार्थाधिगमभाष्य' इसके बादकी रचना है जो सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिकके मध्यकाल में रची गयी है। यही कारण है कि तत्त्वार्थभाष्यमें स्वीकृत अनेक सूत्रोंकी उसमें आलोचना दृष्टिगोचर होती है, जबकि सर्वार्थसिद्धिवृत्तिके पहले तत्त्वार्थभाष्य लिखा गया था इस बात का आभास भी नहीं मिलता। यह ठीक है कि सर्वार्थसिद्धिकी रचना होनेके पूर्व श्वेताम्बर परम्परा मान्य तथाकथित आचारांगादि नामवाले अंगों की रचना हो गई थी। अन्यथा सर्वार्थसिद्धिमें केवलिकवलाहार आदि जैसे विषयोंकी आलोचा दृष्टिगोचर नहीं होती।
यह वस्तुस्थिति है। प्रज्ञाचक्षु स्व० श्री पं० सुखलालजी इस स्थितिसे अच्छी तरह परिचित थे। फिर भी उनके द्वारा अनूदित तत्त्वार्थसूत्र के तृतीय संस्करण की प्रस्तावना पर दृष्टिपात करने से ऐसा नहीं लगता है कि उन्होंने अपने पुराने विचारों में यत्किंचित् भी परिवर्तन किया है । अस्तु, हम तो अभी तक जैन दर्शनकी शिक्षा द्वारा यही जान पाये हैं कि मोक्ष का अर्थ है आत्मा का संयोग और संयोग-वृत्ति से छुटकारा पाकर अकेला होना । और यह तभी सम्भव है जब जीवनमें पूर्ण स्वावलम्बन को बाहर-भीतर दोनों प्रकार से अंगीकार किया जाय। दिगम्बर परम्परा पर हमारी श्रद्धा होनेका कारण भी यही है। इसलिए जहां हम जैनदर्शनके इस परमार्थभूत निष्कर्ष को स्वीकार करते हैं वहाँ हम तत्सम्बन्धी साहित्य की ऐतिहासिकता को भी उसी रूप में स्वीकार करते हैं जिस क्रम से वह लिपिबद्ध होकर प्रकाशमें आया है। श्वेताम्बर परम्परा का आगम साहित्य ईसा की पांचवीं शताब्दी में संकलित हुआ यह हमें मान्य है। अतः स्पष्ट है कि उसका समर्थक अन्य साहित्य भी उसके बाद ही लिखा गया है। यही कारण है कि उसी सम्प्रदाय के लेखकों ने 'तत्त्वार्थाधिगम भाष्य' के लेखनकाल को आठवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध निश्चित किया है।
ऐतिहासिक दृष्टि से किये गये इस प्रकार के सामान्य अवलोकनके बाद, अब यहां हम सर्वार्थसिद्धिके द्वितीय संस्करण के मूल और अनुवाद में जो आवश्यक संशोधन किये गये उन्हें क्रम से यहाँ दे रहे हैं
द्वितीय संस्करण जीवमें जीवत्व सदा पाया जाता है
पृ०-५० 13-30
प्रस्तुत संस्करण
पृ०-५० जीवन सामान्यकी अपेक्षा जीव सदा विद्यमान है।
13-30 शास्त्रों में प्रयोजनके अनुसार
14-18 स्वरूप दोनों प्रमाणों और विविध नयोंके 15-1
14-17 14-35
शास्त्र में अनेक स्वरूप प्रमाणों और नयोंके शान तो केवलज्ञानरूप तो माने ही गये हैं।
15-30
ज्ञान मात्र ज्ञानरूप माने गये हैं
15-31
1. पृथुतरा इति केषांचित् पाठः तम्वा० 3-1 । अथान्ये धर्माधर्मकालाकाशेषु अनादिः परिणामः आदिमान
जीवपुद्गलेषु इति वदन्ति । त.वा.5-41 वार्तिक । 2. स०सि० 6-131
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सर्वार्थसिद्धि
पृ०-५०
पृ०-५०
द्वितीय संस्करण क्षायोपशमिक पर्याप्त किन्तु अयोगी सम्यग्दृष्टि जीव
16-35 17-30 19-13
17-3 17-32
प्रस्तुत संस्करण क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्त किन्तु अपगतवेदी क्षायिक सम्यग्दृष्टि और कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव सन्ति । अवधिदर्शने असंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनि क्षीणकषायान्तानि सन्ति
19-15
सन्ति
13-10
23-13
सासादन सम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक पुरुषवेदवाले जीवों की वही संख्या है जो सामान्यसे कही है। प्रमत्त. संयतसे लेकर अनिवृत्तिअष्टौ भागा वा चतुर्दशभागा देशोना: तियंचोंका कम एकसौ बत्तीस केवल क्षयोपशम
26-28 33-2 35-12 46-33 66-25 72-27 77-11 88-16
27-2 33-2 35-21 47-27 68-13 74-19 78-23
देशको विषय देशघाती स्पर्धकोंका उदय
उदय का अभाव उनकी उदीरणा योगप्रवत्तिके उदयसे अनुरंजित
112-14 112-16
90-17 114-14 114-16
सासादन सम्यग्दृष्टि से लेकर बनिवृत्ति- अष्टौ द्वादश चतुर्दश भागा वा देशोना: पंचेन्द्रियों का कम दो ख्यासठ केवल बढ़ी हुई क्षयोपशम रहित होकर विषयको ग्रहण करता है देश में स्थित पदार्थको विषय देशघाती स्पर्धकोंका उदय रहते हुए सर्वधाती स्पर्धकोंका उदयास्वरूपसे उदय न होना उदयावलिसे ऊपरके उन निषेकोंकी योगप्रवृत्ति कषायोंके उदय से अनुरंजित होती रही। समाधान--यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के जानकी जाननेके सम्मुख हुई पर्यायका भाव है। ये सब मिलाकर नौ योनियां जानना चाहिए। मध्यमें नाभिके समान मेरु शब्द मध्यभागका समुच्चय करने के लिए लम्बा है तथा उत्तर और दक्षिण पचिसो आगेके क्षेत्र और पर्वतोंका विस्तार
115-15
समाधान--आत्माके
114-17
116-23
ज्ञानकी पर्यायका
126-12
128-16
भाव है। शंका
135-21
137-24 157-26
मध्य में मेरु शब्द समुच्चय वाची
154-19 157-21
160-25
लम्बा है और पाँचसो
157-32
161-16
आगे के पर्वत और क्षेत्रोंका विस्तार
162-15
कम से
165-24
रहने से है यह अनुमान किया
165-32
169-24
स्थिति है और
192-36
रहने से यह प्रासाद दुमंजिला है यह समझा स्थिति है, विजयादिकमें तेतीस सामरोपम उत्कृष्ट स्थिति है और स्पमिति
197-24 206-2
रूपमति
200-13
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सर्वार्थसिद्धि
द्वितीय संस्करण
पृ०-५० 214-24
पृ०-५० 219-32
पसातारूप कवायरहित । कषाय अर्थात् क्रोधादि कषायके रागवश प्रमादीका
246-18
240-20 241-26
247-26 258-34
252-25
पड़नेवाले काय तब भी योगवऋता स्वगत है और विसंवादन परगत है वे कर्मस्कन्ध
प्रस्तुत संस्करण असाताके उदयरूप कषाय रहित । क्रोधादि कषाय कहलाते हैं। कषाय के रागवश स्नेहसिक्त होने का कारण प्रमादीका पड़नेवाले अनुपाय काय तब भी स्वगत योगवता कही जाती है और परगत विसंवादन वे आठ प्रकार की कर्मप्रकृतियों के योग्य कर्मस्कन्ध मन्त्यम् । अन्त्यं शुक्लम् । तत्सामी. अप्रिय है। विष समाधान - परिणामोंकी विशुद्धि द्वारा वृद्धि -स्वभाव अवितयं विभूति विशेष रूप
259-30
253-22 307-20
-मन्त्यम् । तत्सामीविष समाधान-वृद्धिको
341-11 342-21 356-27
315-35 351-11 352-19
367-27 368-23
---स्वभावरूप केरल
357-25
2. परिशिष्ट-2
पृष्ठ 390 क्रमांक 17.1--- इसके अन्तर्गत 'तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति' इससे आगेका कथन भूल सर्वार्थसिद्धिका नहीं है यह इसीसे स्पष्ट है कि जो भी कृत्यकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दष्टि मरणकर चारों गतियों में उत्पन्न होता है वह प्रथम नरक को छोड़कर शेष तीन गेतियोंके पुरुषवेदियोंमें ही उत्पन्न होता है । वह न तो मरकर नपुंसकवेदियोंमें उत्पन्न होता है और न ही स्त्रीवेदियोंमें । यदि मूलमें 'ति:चीनां क्षायिकं नास्ति' यह वचन न होता तो भी कोई आपत्ति नहीं थी। परन्तु सभी हस्तलिखित प्रतियों में इस वचन के होनेसे हमने उसे मूल में यथावस्थित रखा है । इस वाक्यके रहने से भवान्तरकी अपेक्षा मनुष्यों में भी यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि कृत्यकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि मरणकर मनुष्यनियों में नहीं उत्पन्न होता है इसका निर्देश करनेवाला वचन भी मूल में होना चाहिए था। परन्तु कोई भी सभ्यग्दृष्टि मरणकर प्रथम नरकको छोड़कर निरपवाद रूपसे पुरुषवेदियोंमें ही उत्पन्न होता है, अन्यमें नहीं.--इस कथन से ही उक्त कथनकी पुष्टि हो जाती है ।
पृ. 395 पंक्ति 29 में निन्यानवें लाखके आगे निन्यानवें हजारकी छूट है तथा यहाँ जो सर्वसंयतोंकी संख्या दी है वह उपशम श्रेणीके चार गुणस्थानोंमें से प्रत्येक मुणस्थानमें 299 तथा दक्षिण प्रतिपत्ति के अनुसार क्षपकके प्रत्येक गुणस्थानकी और अयोगिकेवलीकी संख्या 598 स्वीकार कर सब संयतोंकी संख्या 89999997 दी है । अतः प्रमत्तसंयतसे लेकर पूरी संख्याका योग 89999997 होता है । यथा--
प्रमत्तसंयत 59398206 1 अप्रमत्त संयत 29699103+चारों उपशमक 1196+चारों क्षपक 2392+सयोगकेवली 898502+ अयोगकेवली 598---89999997 ।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि उक्त पृष्ठ 395 पंक्ति 19 में जो "यदि कदाचित् एकस्मिन् समये संभवन्ति" यह कहा है सो संयतों की उक्त संख्या कभी भी एक समय में न जानकर विवक्षा विशेषसे यह संख्या कही है। कारण कि न तो उपशमणिके चारों गुणस्थानोंमें से प्रत्येक में एक ही समयमें अपने-अपने गुणस्थान की संख्या का प्राप्त होना सम्भव है और न क्षपकश्रेणिके चारों गुणस्थानों में से प्रत्येक में एक ही समय में अपने-अपने गुणस्थानकी संख्याका प्राप्त होना सम्भव है। हाँ, उपशमणि और क्षपकणिके प्रत्येक गणस्थानमें, क्रमसे अपने-अपने गुणस्थानकी संख्या का कालभेदसे प्राप्त होना अवश्य सम्भव है । कारण कि जो जीव आठ समयोंमें इन श्रेणियोंके आठवें गुणस्थानमें चढ़ वे ही अन्तर्मुहुर्त बाद नौवें गुणस्थानमें पहुँचते
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सर्वार्थसिद्धि
हैं। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए और इस प्रकार समयभेदसे अन्तर्मुहर्त के भीतर सब संयतोंकी उक्त संख्या बन जाती है यहां ऐसा अभिप्राय समझना चाहिए।
__ पृष्ठ 395 पंक्ति 14 (25-11) में "सूक्ष्ममनुष्यं प्रति मनुष्या मिथ्यादृष्टयः" के आगे "श्रेण्यसंख्येयभागप्रमिता:" पाठ छूटा हुआ जान पड़ता है, क्योंकि उक्त वाक्यके आगेका कथन मनुष्य पर्याप्त और मनुयिनी इन दोनों की अपेक्षासे किया गया है।
पृष्ठ 396 पंक्ति 9 में 'तल्लक्षणसमचतुरस्ररज्जु' पाठसे घनरज्ज का बोध होने में कठिनाई जाती है। कारण कि रज्जुसे असंख्यात कोटि योजन प्रमाण एक आकाशप्रदेशपवित ली गई है और लोकको 343 धनरज्ज प्रमाण कहा गया है। इसी तथ्य को ध्यानमें रखकर उक्त पृष्ठ की पंक्ति 33 में "और तीनसौ तेतालीस राजु" के स्थानमें "और तीनसौ तेतालोस धनराजु" ठीक प्रतीत होता है।
आगे इसी पैरा की पंक्ति 23 में सासादन सम्यग्दृष्टि जीव अग्निकायिक, वायुकायिक, नारकी और सब सूक्ष्मजीवों को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह उत्पन्न होता है यह कहा है और इसके प्रमाणस्वरूप एक गाथा भी उद्धतकी गई है। किन्तु यहाँ इतना और विशेष जान लेना चाहिए कि यह जीव विकलत्रयों, अपर्याप्तकों और असंज्ञियोंमें भी नहीं उत्पन्न होता और गाथोक्त जिन एकेन्द्रियोंमें यह उत्पन्न होता है उनमें उत्पन्न होने के प्रथम समयमें मिथ्यात्व गुणस्थान हो जाता है।
पृष्ठ 399 (पं० 1 और 3) में "मारणान्तिकादि' पद के स्थानमें केवल मारणान्तिक पद होना चाहिए, क्योंकि संयतासंयत अवस्थामें उपपाद पद सम्भव नहीं है। इसी प्रकार इसी पृष्ठ की पं० 4 में संयतासंयतों के शुक्लले श्यामें केवल मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा ही कुछ कम छह वटे चौदह राजु स्पर्शन बनता है इतना विशेष जानना चाहिए । तथा पंक्ति 5 में 'द्यपेक्षया" के आगे 'षट्रज्जवः-स्पष्टाः" इतना पाठ और होना चाहिए।
___ इसी पृष्ठ की पं० 35-36 में 'सासादनस्य तत्र सा न सम्भवति" इस वाक्य में “सा" पदका अर्थ वह (मारणान्तिकादि अवस्था)-- सम्भव नहीं है--ऐसा होना चाहिए।
पृष्ठ 401 पं० 27 से लेकर-असंयतसम्यग्दष्टिका एकजीवकी अपेक्षा उत्कृष्टकाल घटित करने हए धवला पु० 4 पृष्ठ 347 में इस प्रकार घटित किया है-एक प्रमत्त आदि गुणस्थान वाला जीव एक समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति लेकर अनत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न हुआ। पुनः वहाँ से च्युत होकर पूर्वकोटि की आयु के साथ मनुष्य हुआ। वहाँ जब अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाय तब असंयम भाव को छोड़कर संयमी हो गया । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तप्रमाण इस संयमके कालसे कम एक पूर्वकोटि और एक समय कम तेतीस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है।
पृष्ठ 402 (42-1) में पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि के उत्कृष्ट काल के निरूपणमें जो पूर्वकोटि पृथकत्वका अर्थ 96 पूर्वकोटि किया है सो वहाँ 95 पूर्वकोटि पृथकल्बकाल अर्थ होना चाहिए, क्योंकि अन्तिम बार पुरुषवेदियोंमें सात पूर्वकोटि काल ही लिया गया है । तथा मध्य में जो पचेन्द्रिय अपर्याप्तमें आठ बार उत्पन्न कराया है सो उसका भी समर्थन आगममे नहीं होता। वहाँ मात्र बीच में एक बार पंचेन्द्रिय अपर्याप्त में उत्पन्न कराया गया है । देखो, धवला पु. 4, पृ० 3681
पृष्ठ 406 (46-12 पं० 33) में जो पहली बार छ्यासठ सागरोपम तक वेदकसम्यक्त्व के साथ रखा है सो पहली बार भी दूसरी बारके समान अन्तर्मुहूर्त कम छ्यासठ सागरोपमकाल तक वेदक-सम्यक्त्वके साथ रखना चाहिए, क्योंकि इससे आगे अन्तर्महूर्त में वह नियमसे क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त करते समय अन्तमें कृत्यकृत्य-वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है जो यहाँ लेना नहीं है।
पृष्ठ 411 (59-9, 14) से लेकर-सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में सम्यग्मिथ्यात्वका क्षायोपशमिकपना सिद्ध करते हए सम्यग्मिथ्यात्व के उदयको देशाघातीपना सिद्ध करने के लिए उपचारका सहारा लिया गया है। किन्तु धवला पु० 5 पृष्ठ 198 में जात्यन्तर स्वभाव सम्यग्मिथ्यात्वके उदयमें श्रद्धानाश्रद्धान रूप मिश्रभाव उत्पन्न होता है, मात्र इसलिए इस गुणस्थान में दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव घटित किया गया है।
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सर्वार्थसिद्धि
पष्ठ 416 (145.6, पं0 23) से लेकर—जो चरमशरीरी होते हैं वे अनपवयं आयुवाले होते हैं। इसका अर्थ है कि पूर्वभवमें वे जितनी आयु लेकर भवका छेद करने में समर्थ अन्तिम मनुष्यपर्याय में उत्पन्न होते हैं उस पर्याय में भुज्यमान आयुका तो उत्कर्षण होता नहीं । अपनी योग्यतानुसार अपवर्तन अर्थात् अपकर्षण होना अवश्य सम्भव है। पर चरमशरीरी जीवकी आयु अनपवर्त्य होती है, इसलिए अग्निदाह, विष आदिके प्रयोग द्वारा उसका छेद नहीं होता ऐसा नियम है। इसी नियम का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र अध्याय दोके अन्तिम सूत्र में किया गया है, ऐसा यहां समझना चाहिए । उक्त सूत्र में जो विशेषण के रूप में उत्तम पद आया है उससे सर्वार्थसिद्धि आदिमें केवल तीर्थंकरोंके शरीरका ही ग्रहण नहीं किया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। किन्तु सभीका यह शरीर अन्तिम होनेसे उत्तम होता है। इसी सूत्रकी व्याख्यामें सर्वार्थसिद्धिमें कहा भी हैचरमस्य बेहस्योत्कृष्टत्वप्रदर्शनार्यमुत्तमग्रहणं नार्थान्तरविशेषोऽस्ति।
पृष्ठ 427 (354-7, पं. 32)-अभिन्नाक्षर दशपूर्वधर और भिन्नाक्षर दशपूर्वधर में दशपूवियों के दो भेद हैं जो क्रमसे दशपूर्वोका अध्ययन करनेपर रोहिणी आदि महा और लघु विद्या-देवताओंके उपस्थित होनेपर मोहको नहीं प्राप्त होते हैं वे अभिन्नाक्षर दशपूर्वी कहलाते हैं और जो मोहको प्राप्त हो जाते हैं वे भिन्नाक्षर दशपूर्वी कहलाते हैं।
यह मूल सर्वार्थसिद्धि-वृत्ति, उसका अनुवाद और परिशिष्ट-2में जो विशेष संशोधन हमारे लक्ष्यमें आये उनका यह संक्षिप्त विवरण है । अनुवादमें यत्र-तत्र और भी संशोधन किये गये हैं वे सामान्य या स्पष्टीकरण मात्र होनेसे उनको हमने इस विवरणमें सम्मिलित नहीं किया है। फिरभी एक-दो बातोंका संकेत करदेना यहाँ हम प्रयोजनीय मानते हैं। कारण कि जिसके लिए आगममें जो संज्ञा प्रयुक्त हुई हो उसीका अनुवाद आदिमें प्रयोग होना चाहिए। उदाहरणार्थ
1. आगममें सर्वत्र संख्या विशेषका ज्ञान करानेके लिए पल्य शब्दका प्रयोग न होकर पल्योपम शब्दका प्रयोग हुआ है, इसलिए हमने अपने अनुवादमें मूलके अनुसार ही पल्योपम शब्दको स्वीकार करके सर्वत्र पल्यके स्थानमें पल्योपम कर दिया है। इसी प्रकार सागरके स्थानमें सागरोपम किया गया है।
2. मात्र हमने यह संशोधन अपने अनुवादमें ही कियाहै। परिशिष्ट-2के अनुवादमें यह संशोधन नहीं किया गया है सो वहां भी उक्त विधिसे पल्यके स्थानमें पल्योपम और सागरके स्थानमें सागरोपम समझ लेना चाहिए।
3. अन्य अनुवाद 1. सर्वार्थसिद्धि-वृत्तिके अन्य कितने अनुवाद हुए हैं इसकी हमें पूरी जानकारी नहीं है। इतना अवश्य है कि सर्वप्रथम इसपर पं. श्री जयचन्दजी छावड़ा कृत भाषा-वचनिका प्रसिद्ध है। इसके दो संस्करण हमारे सामने हैं। पहला संस्करण कहाँसे मुद्रित हुआ था इसका आभास मुद्रित प्रतिके देखनेसे नहीं मालूम होता, कारण कि उसके प्रारम्भिक कई पृष्ठ इस प्रतिमें नहीं हैं। दूसरी प्रति श्रुतभंडार व ग्रन्थप्रकाशन समिति फलटनसे मुद्रित हुई है। इसे देखनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भाषा-वचनिका रूपमें लिखी गई है, अतः यह सर्वार्थसिद्धि-वृत्तिका अनुवाद होते हुए भी पं. जी ने यत्र-तत्र अपनी ओरसे विशेष खुलासा भी किया है। उस समय तक छपने की पद्धति प्रचलित नहीं हुई थी, अतः पं० जी ने जिस हस्तलिखित प्रति के आधार से अपनी भाषा-वचनिका लिखी है उसमें भी वह पाठ नहीं था जिसे हमने पृष्ठ 17 टिप्पण 1 में मूलमें से अलग किया है । इतना अवश्य है कि स्पर्शन प्ररूपणाकी अपेक्षा लेश्या मार्गणाके स्पर्शन-कथनके प्रसंगसे कृष्णादि तीन लेश्यावाले सासादन सम्यग्दृष्टियोंके स्पर्शनका कथन करते हुए 'द्वादशभागाः कुतो न लभ्यन्ते'इत्यादि कथन द्वारा जो मतान्तरका विधान किया है वह पाठ जिस हस्तलिखित प्रतिसे पं० जी ने अनूदित किया है वह उसमें मौजूद है। परन्तु सत्, संख्या आदि प्ररूपणाओं पर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि यह पाठ मूल सर्वार्थसिद्धि-वृत्तिका नहीं है और इसीलिए दिल्लीकी द्वितीय हस्तलिखित प्रतिके आधारसे हमने उसे टिप्पणी सं० 1 में देकर मूल में से अलग कर दिया है।
2. मालूम पड़ता है, दूसरी भाषा-वचनिका पं० श्री सदासुखजीने भी लिखी थी जो हमारे सामने नहीं होनेसे उसपर हम विशेष प्रकाश नहीं डाल रहे हैं।
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8]
सर्वार्थसिद्धि
3. इसपर टीका लिखनेका उपक्रम जगरूपसहायजी वकील एटा निवासीने भी किया है। जब वकील सा० इस टीकाको तैयार कर रहे थे तभी मैं श्री स्याद्वाद दिग० जैन महाविद्यालयके धर्माध्यापक पदसे अलग हो गया था। अतः वकील सा० ने उसमें आवश्यक संशोधन व सुधार आदि करनेके लिए मुझे दिल्ली आमन्त्रित कर लिया था और एक माह रहकर मैंने उसमें आवश्यक संशोधन भी किया था। किन्तु काम हो जानेपर बिना सहारेके मुझे उससे अलग हो जाना पड़ा था। इस समय वह भी हमारे सामने नहीं है, अन्यथा उसमें क्या विशेषता आदि है इसपर भी मैं विशेष प्रकाश डालनेका उपक्रम करता।
इन तीनके अतिरिक्त अन्य किसीने सर्वार्थसिद्धिका हिन्दी अनुवाद या उसकी भाषा-वचनिका लिखी है, इसकी मुझे विशेष जानकारी नहीं है। विशेषु किमधिकम् ।
4. आभार
जैसाकि मैं प्रारम्भमे ही लिख आयाहूँ यह भूलानुगामी अनुवादसहित सर्वार्थसिद्धि-वृत्तिका जो संस्करण हमारे सामने उपस्थित है वह दूसरा संस्करण है । इसमें जो संशोधन हमने किये हैं उनके साथही थोड़ा-भी फेरबदल किये बिना प्रस्तुत संस्करण मुद्रित होना है। भारतीय ज्ञानपीठके आदरणीय भाई लक्ष्मीचन्द्रजी की सूचना पर हमने मुद्रणके लिए यह संस्करण तैयार किया है, अतः हम उनके विशेष आभारी हैं। साथही, हम डॉ. गुलाबचन्द्रजीके और भी विशेष आभारी हैं। यह उन्हींकी सत्प्रेरणाका फल है कि हम इस संस्करण का इतने अल्पकाल में संशोधन-सम्पादन कर सके हैं । इस संस्करणके तैयार करने में हमने मूल और अनुवाद का अक्षरशः मिलान किया है। और मल और अनुवाद में जो संशोधन आवश्यक थे वे किए गये हैं। इसकी प्रस्तावनाका भी हमने अक्षरशः पुन: निरीक्षण किया है। उसमें ऐसी कोई बात नहीं लिखी गई है जिसकी आगमसे पुष्टि नहीं होती। आगमकी कसौटी पर कभी भी उसे कसा जा सकता है। इसी प्रस्तावना पर ही दिल लोके विज्ञानभवनमें प्रशस्ति-पत्र के साथ भारतके उपराष्ट्रपति के द्वारा न केवल हमारा स्वागत सत्कार हुआ था, अपितु हम 'सिद्धान्त रत्न' जैसी मानद उपाधिसे भी अलंकृत किया गया था। यह सब पूज्य एलाचार्य विद्यानन्द महाराजकी सूझ-बूझका परिणाम है, अतः हम उनके प्रति विशेष आभारी हैं। हम चाहते हैं कि भारतवर्ष मे आगमानुसारी जितने भी विद्वान् हैं उन सबका भी इसी प्रकार स्वागत-सत्कार होना चाहिए। यह निकृष्ट काल है, किसी प्रकार शास्त्रीय विद्वानोंकी यह परम्परा अविच्छिन्न चलती रहे—यह हमारी हार्दिक इच्छा है। पूज्य एलाचार्यजी महाराजमें वे सब गुण विद्यमान हैं, समाज पर उनका अक्षुण्ण प्रभाव भी है। वे यदि इस कार्यको अपने हाथमें लें तो हमें ऐसा एक भी कारण नहीं दिखाई देता कि इसमें सफलता नहीं मिलेगी, अवश्य मिलेगी ऐसा हमारा विश्वास है।
5 जुलाई, 1983
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श्रीपूज्यपादाचार्यविरचिता
सर्वार्थसिद्धि:
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दो शब्द
1. सम्पादनका कारण
(प्रथम संस्करण से)
सर्वार्थसिद्धिको सम्पादित होकर प्रकाशमें आने में अत्यधिक समय लगा है। लगभग आठ नौ वर्ष पूर्व विशेष वाचनके समय मेरे ध्यानमें यह आया कि सर्वार्थसिद्धिमें ऐसे कई स्थल हैं जिनके कुछ अंशको उसका मल भाग मानने में सन्देह होता है। किन्तु जब कोई वाक्य, वाक्यांश, पद या पदांश लिपिकारकी असावधानी या अन्य कारणसे किसी अन्धका मूल भाग बन जाता है तब फिर उसे बिना आधारके पृथक करने में काफी अड़चनका सामना करना पड़ता है। सर्वार्थसिद्धिके वाचाके समय भी मेरे सामने यह समस्या थी और इसीके फलस्वरूप इसके सम्पादनकी ओर मेरा झुकाव हुआ था।
यह तो स्पष्ट ही है कि आचार्य पुज्यपादने तत्त्वार्थसूत्र प्रथम अध्यायके निर्देशस्वामित्व' और 'सत्संख्या' इन दो सूत्रोंकी व्याख्या षट्खण्डागमके आधारसे की है। इसका विचार आगे चलकर प्रस्तावनामें हम स्वतन्त्र प्रकरण लिखकर करनेवाले हैं। यहाँ केवल यह देखना है कि इन सूत्रोंकी व्याख्यामें कहीं कोई शिथिलता तो नहीं आने पायी और यदि शिथिलताके चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं तो उसका कारण क्या है ?
'निशस्वामित्व--' सूत्रकी व्याख्या करते समय आचार्य पूज्यपादने चारों गतियोंके आश्रयसै सभ्यग्दर्शनके स्वामीका निर्देश किया है। वहाँ तिर्यंचनियों में क्षायिक सम्यग्दर्शनके अभावके समर्थन में पूर्व मुद्रित प्रतियोंमें यह वाक्य उपलब्ध होता है
'कुत इत्युक्ते मनुष्यः कर्मभूमिज एव दर्शनमोहक्षपणप्रारम्भको भवति। अपणप्रारम्भकालापर्व तिर्यक्ष बद्धायुष्कोऽपि उत्तनभोगभमितिर्यक्पुरुषवेवोत्पद्यते न तिर्यस्त्रीषु : द्रव्यबेदस्त्रीणांतासां क्षायिकासंभवात् । एवं तिरश्चामप्यपर्याप्तकानां क्षायोपशमिकं ज्ञेयं न पर्याप्तकानाम् ।'
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंके आगममें इस प्रकारके नियमका निर्देश है कि सम्यग्दृष्टि मर कर किसी भी गतिके स्त्रीवेदियोंमें उत्पन्न नहीं होता।
किन्तु श्वेताम्बर आगम ज्ञाताधकथा नामके छठे अगमें मल्लिनाथ तीर्थकरकी कथा के प्रसंगसे बतलाया गया है कि मल्लिनाथ तीर्थकरने अपने पिछले महाबलके भवमें मायाचारके कारण स्त्रीनामकर्म गोत्र को निष्पन्न किया था जिससे वे तीर्थकरकी पर्यायमें स्त्री हुए। और इसी कारण पीछेके श्वेताम्बर टीकाकारोंने उक्त नियमका यह खुलासा किया है कि 'सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्री नहीं होता यह वाहुल्यकी अपेक्षा
यहां हमें इस कथाके सन्दर्भ पर विचार न कर केवल इतना ही देखना है कि यह स्त्री नामकर्म गोत्र क्या वस्तु है। क्या यह नो नोकषायोंमेंसे स्त्रीवेद नामक नोकषाय है या इस द्वारा अङ्गोपाङ्गका निर्देश किया गया है ? जब महाबलको पर्याय में इस कर्मका बन्ध होता है तब वे तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले सम्यग्दृष्टि साधु थे और सम्यग्दृष्टिके स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता ऐसा कर्मशास्त्रका नियम है क्योंकि स्त्रीवेदका बन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। इसलिए यह बँधनेवाला कर्म स्त्रीवेद नामक नोकषाय तो हो नही सकता। रही अङ्गोपाङ्गकी बात सो एक तो अङ्गोपाङ्गमें ऐसा भेद परिलक्षित नहीं होता। अवान्तर भेदोंकी
1. देखो अध्ययन 8। 2. तए णं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इविणामकम्मं गे यं विध्वंतिसु । ज्ञाता० पृ. 312।
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10]
सर्वार्थसिद्धि
अपेक्षा कदाचित् ऐसा भेद मान भी लिया जाय तो कर्मशास्त्र के नियमानुसार अशुभ अङ्गोपाङ्गका बन्ध प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें होता है यह इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि स्त्रीवेद सम्बन्धी अशुभ अङ्गोपाङ्गकी बन्धव्युच्छित्ति दूसरे गुणस्थान तक होना ही सम्भव है। इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में न तो शाताधर्मकथाकी इस कथाको आधार माना जा सकता है और न ही इस आधारसे श्वेताम्बर टीकाकारोंका यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि 'सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रीवेदियोंमें नहीं उत्पन्न होता यह बाहुल्य की अपेक्षा कहा है।'
इतने विचारके बाद जब हम सर्वार्थसिद्धिके उक्त कथन पर ध्यान देते हैं तो हमें उसमें सन्देह होता है। उसमें तिर्यचिनियोंमें क्षायिक सम्यग्दर्शन न होनेके हेतुका निर्देश किया गया है। यह तो स्पष्ट है कि जो मनुष्य तिर्यंचायुका बन्ध कर सम्यग्दृष्टि हो क्षायिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है वह उत्तम भोगभूमिके पुरुषवेदी तिर्यंचोंमें ही उत्पन्न होता है, स्त्रीवेदी तिर्यचों में नहीं। किन्तु इसके समर्थन में जो द्रव्यवेवस्त्रीणां तासां सायिकासंभवात्' यह युक्ति दी गयी है वह न केवल लचर है अपितु भ्रमोत्पादक भी है।
इस युक्तिके आधारसे पूरे वाक्यका यह अर्थ होता है कि तियंच द्रव्यवेदवाली स्त्रियोंमें चूंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन सम्भव नहीं है, इसलिए क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्तम भोगभूमिके तिर्यंच पुरुषोंमें ही उत्पन्न होते हैं । अब थोड़ा बारीकीसे पूरे सन्दर्भ पर विचार कीजिए। जो प्रश्न है, एक तरहसे वही समाधान है। तियंचनियोंमें क्षायिक सम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता इसका विचार करना है। किन्तु उसके उत्तर में इतना कहना पर्याप्त था कि बद्धतियंचाय मनुष्य यदि क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है तो वह मरकर उत्तम भोगभूमिके तियंच पुरुषोंमें ही उत्पन्न होता है ऐसा नियम है। वहाँ समर्थनमें 'द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात्' इस हेतु कथनकी क्या आवश्यकता थी। इसीको कहते हैं वही प्रश्न और वही उत्तर।
दूसरे यहाँ 'द्रव्यवेदस्त्रीणां यह वाक्यरचना आगम परिपाटीके अनुकूल नहीं है अतएव भ्रमोत्पादक भी है, क्योंकि आगममें तिर्यंच, तियंचनी और मनुष्य, मनुष्यिनी ऐसे भेद करके व्यवस्था की गयी है तथा इन संज्ञाओंका मूल आधार वेद नोकषायका उदय बतलाया गया है।
हमारे सामने यह प्रश्न था । हम बहुत कालसे इस विचारमें थे कि यह वाक्य ग्रन्थका मूलभाग है या कालान्तरमें उसका अंग बना है। तात्त्विक विचारणाके बाद भी इसके निर्णयका मुख्य आधार हस्तलिखित प्राचीन प्रतियां ही थीं। तदनुसार हमने उत्तर भारत और दक्षिण भारतकी प्रतियोंका संकलन कर शंकास्थलोंका मुद्रित प्रतियोंसे मिलान करना प्रारम्भ किया। परिणामस्वरूप हमारी धारणा सही निकली। यद्यपि सव प्रतियों में इस वाक्यका अभाव नहीं है पर उनमेंसे कुछ प्राचीन प्रतियाँ ऐसी भी थीं जिनमें यह वाक्य नहीं उपलब्ध होता है।
इसी सूत्रकी व्याख्या में दूसरा वाक्य 'क्षायिकं पुनर्भाववेदेनैव' मुद्रित हुआ है । यहाँ मनुष्यिनियोंके प्रकरणसे यह वाक्य आता है । बतलाया यह गया है कि पर्याप्त मनुष्यनियोंके ही तीनों सम्यग्दर्शनोंकी प्राप्ति - सम्भव है, अपर्याप्त मनुष्यिनियोंके नहीं। निश्चयतः मनुष्यिनीक क्षायिक सम्यग्दर्शन भाववेदकी मुख्यतासे ही कहा है यह द्योतित करनेके लिए इस वाक्यकी सृष्टि की गयी है।
किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि आगममें 'मनुष्यिनी' पद स्त्रीवेदके उदयवाले मनुष्य गतिके जीवके लिए ही आता है। जो लोकमें नारी, महिला या स्त्री आदि शब्दोंके द्वारा व्यवहृत होता है, आगमके अनुसार मनष्यिनी शब्दका अर्थ उससे भिन्न है। ऐसी अवस्था में उक्त वाक्यको मूलका मान लेने पर मनुष्यनी शब्दके दो अर्थ मानने पड़ते हैं। उसका एक अर्थ तो स्त्रीवेदकी उदयवाली मनुष्यनी होता ही है और दूसरा अर्थ महिला मानना पड़ता है चाहे उसके स्त्रीवेदका उदय हो या न हो।
ऐसी महिलाको भी जिसके स्त्रीवेदका उदय होता है मनुष्यनी कहा जा सकता है और उसके क्षायिक सम्यग्दर्शनका निषेध करनेके लिए यह वाक्य आया है, यदि यह कहा जाय तो इस कथनमें कुछ भी तथ्यांश नहीं प्रतीत होता, क्योंकि जैसा कि हम पहले कह आये हैं कि आगममें मनुष्यनी शब्द भाववेदकी मुख्यतासे ही प्रयुक्त हुआ है, अतएव वह केवल अपने अर्थमें ही चरितार्थ है। अन्य आपत्तियोंका विधि-निषेध करना उसका काम नहीं है, वह मुख्यरूपसे चरणानुयोगका विषय है।
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दो शब्द
[11 . हमने इस वाक्य पर भी पर्याप्त ऊहापोह कर सब प्रतियोंमें इसका अनुसन्धान किया है। प्रतियोंके मिलान करनेसे ज्ञात हुआ कि यह वाक्य भी सब प्रतियों में नहीं उपलब्ध होता।
इसी प्रकार एक वाक्य 'सत्संख्या'-इत्यादि सूत्रकी व्याख्याके प्रसंगसे लेश्या प्रकरणमें आता है। जो इस प्रकार है
द्वादशभागाः कुतो न लभ्यन्ते, इति चेत् तत्रावस्थितलेश्यापेक्षया पञ्चैव । अथवा येषां मते सासादनएकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया पञ्चैव।'
प्रकरण कृष्ण आदि लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके स्पर्शनका है । तिर्यंच और मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मर कर नरक में नहीं उत्पन्न होते। जो देवगतिमें जाते हैं या देवगतिसे आते हैं उनके कृष्ण आदि अशुभ लेश्याएँ नहीं होती। नरकसे आनेवालोंके कृष्ण आदि अशुभ लेश्याएं और सासादनसम्यग्दर्शन दोनों होते हैं। इसी अपेक्षा यहाँ कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन क्रमसे कुछ कम पाँच बटे चौदह राजु, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और कुछ कम दो बटे चौदह राजु कहा गया है। . यह षट्खण्डागमका अभिमत है । सर्वार्थसिद्धिमें सत्, संख्या और क्षेत्र आदि अनुयोगद्वारोंका निरूपण जीवट्ठाण छक्खंडागमके अनुसार ही किया गया है। कषायप्राभूतका अभिमत इससे भिन्न है। उसके मतसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मर कर एकेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। इसलिए इस अपेक्षासे कृष्ण लेश्यामें सासादनसम्यग्दृष्टिका कुछ कम बारह बटे चौदह राजु स्पर्शन भले ही बन जावे, परन्तु षट्खण्डागमके अभिप्रायसे इन लेश्याओं में यह स्पर्शन उपलब्ध नहीं होता।
__हमारे सामने यह प्रश्न था। सर्वार्थसिद्धि में जब भी हमारा ध्यान 'द्वादशभागाः कुतो न लम्यन्ते इत्यादि वाक्य पर जाता था, हम विचारमें पड़ जाते थे। प्रश्न होता था कि यदि सर्वार्थसिद्धिकारको मतभेदकी चर्चा करनी इष्ट थी तो सत्प्ररूपणा आदि दूसरे अनुयोगद्वारोंमें उन्होंने इस मतभेद का निर्देश क्यों नहीं किया? अनेक प्रकारसे इस वाक्य के समाधानकी ओर ध्यान दिया, पर समुचित समाधानके अभावमें चुप रहना पड़ा। यह विचार अवश्य होता था कि यदि सर्वार्थसिद्धिकी प्राचीन प्रतियोंका आश्रय लिया जाय तो सम्भव है उनमें यह वाक्य न हो । हमें यह संकेत करते हुए प्रसन्नता होती है कि हमारी धारणा ठीक निकली। मडबिद्रीसे हमें जो ताडपत्रीय प्रतियाँ उपलब्ध हुईं उनमें यह वाक्य नहीं है। इस आधारसे हम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि यह वाक्य भी सर्वार्थसिद्धिका नहीं है।
सर्व-प्रथम सर्वार्थसिद्धि मूलका मुद्रण कल्लप्पा भरमप्पा निटबेने कोल्हापुरसे किया था । दूसरा मुद्रण श्री मोतीचन्द्र गोतमचन्द्र कोठारी द्वारा सम्पादित होकर सोलापुरसे हुआ है। तथा तीसरी वार श्रीमान् पं० वंशीधरजी सोलापूरवालोंने सम्पादित कर इसे प्रकाशित किया है। पण्डितजी ने इसे सम्पादित करने में पर्याप्त श्रम किया है और अन्य संस्करणों की अपेक्षा यह संस्करण अधिक शुद्ध है । फिर भी जिन महत्त्वपूर्ण शंकास्थलोंकी ओर हमने पाठकोंका ध्यान आकर्षित किया है वे उस संस्करण में भी यथास्थान अवस्थित हैं।
सर्वार्थसिद्धिके नीचे जो टिप्पणियाँ उद्धत की गयी हैं वे भी कई स्थलों पर भ्रमोत्पादक हैं। उदाहरणार्थ कालप्ररूपणामें अनाहारकों में नाना जीवोंकी अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया गया है । इस पर टिप्पणी करते हुए टिप्पणकार लिखते हैं
आवलिकाया असंख्येयभाग इति--- स च आवलिकाया असंख्येयभागः समयमात्रलक्षणत्वात् एकसमय एव स्यात्, आवल्याः असंख्यातसमयलक्षणत्वात् ।'
इसका तात्पर्य यह है कि वह आवलिका असंख्यातवां भाग एक समय लक्षणवाला होनेसे 'एक समय प्रमाण ही होता है, क्योंकि एक आवलिमें असंख्यात समय होते हैं, अतः उसका असंख्यातवां भाग एक समय ही होगा।
स्पष्ट है कि यदि यहाँ आचार्योंको एक समय काल इष्ट होता तो वे इसका निर्देश 'एक समय' शब्द द्वारा ही करते । जीवस्थान कालानुयोगद्वारमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका जो स्पष्टीकरण किया है उसका भाव यह है कि कई सासादनसम्यग्दृष्टि दो विग्रह करके दो समय तक अनाहारक रहे और तीसरे
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सर्वार्थसिद्धि
. समयमें अन्य सासादनसम्यग्दृष्टि दो दिराह करके अनाहारक हुए । इस प्रकार निरन्तर आवलिके असंख्यातवें
भाग बार जीव दो-दो समय तक अनाहारक होते रहे । इसलिए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काण्डकोंको दो से गुणा करने पर अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका कुल काल उपलब्ध होता है (जीवस्थान पु० ४)।
अधितर हस्तलिखित प्रतियोंमें यह देखा जाता है कि पीछेसे अनेक स्यलों पर विषयको स्पष्ट करने के लिए अन्य ग्रन्थोंके श्लोक, गाथा, वाक्यांश या स्वतन्त्र टिप्पणियाँ जोड़ दी जाती हैं और कालान्तरमें वे ग्रन्थका अंग बन जाती हैं। सर्वार्थसिद्धिमें यह व्यत्यय बहुत ही बड़ी मात्रा में हुआ है। ऐसे तीन उदाहरण तो हम इस वक्तव्यके प्रारम्भ में ही उपस्थित कर आये हैं। कहना होगा कि यह किसी टिप्पणनकारकी सूझ है और उसने अपनी दष्टिसे विषय को स्पष्ट करने के लिए पहले वे वाक्य फुटनोटके रूप में हासियामें लिखे होंगे और आगे चलकर उसपर-से दूसरी प्रति तैयार करते समय वे ही मूल ग्रन्थके अंग बन गये होंगे। इसके सिवा आगे भी ऐसे कई वाक्यांश या गाथाएँ मिली हैं जो अधिकतर हस्तलिखित प्रतियोंमें उपलब्ध नहीं होती और जिन्हें दूर कर देनेसे प्रकरणकी कुछ भी हानि नहीं होती। यहाँ हम कुछ ऐसे उपयोगी वाक्यांशके दो-तीन उदाहरण उपस्थित कर रहे हैं जो प्राचीन संस्करणोंमें थे और इस संस्करणमें-से अलग करने पड़े हैं
1. कुछ प्रतियोंमें तृतीय अध्याय के प्रथम सूत्रकी वृत्तिमें 'धनं च घनो मन्दो महान आयत इत्यर्थः' आदि पाठ उपलब्ध होता है । अब तककी मुद्रित प्रतियोंमें भी यह पाठ प्रकाशित हुआ है। हमारे समाने जो प्रतियाँ थीं उनमें से अधिकतर प्रतियों में यह पाठ नहीं है और वृत्ति को देखते हुए वह वृत्तिकारका प्रतीत भी नहीं होता, इसलिए इस पाठ को ऊपर न देकर नीचे टिप्पणी में दिखा दिया है।
2. नौवें अध्याय नौवें सूत्रके मलपरीषहके व्याख्यानके अन्त में 'केशलञ्चसंस्काराभ्यामुत्पन्नखेवसहनं मलसामान्यसहनेऽन्तर्भवतीति न पृथगुक्तम् ।' यह वाक्य मुद्रित प्रतियों में उपलब्ध होता है। किन्तु हमारे सामने जो हस्तलिखित प्रतियां थीं उनमें यह वाक्य नहीं पाया जाता । वाक्य-रचनाको देखते हुए यह सर्वार्थसिद्धिका प्रतीत भी नहीं होता। तथा किसी परीषहका स्वरूपनिर्देश करने के बाद सर्वार्थसिद्धि में पुनः उस परीषहके सम्बन्धमें विशेष स्पष्टीकरण करनेकी परिपाटी भी नहीं दिखाई देती, इसलिए हमने इस वाक्यको मूलमें न देकर टिप्पणी में अलगसे दिखा दिया है।
2. प्रस्तुत संस्करणमें स्वीकृत पाठको विशेषता
यह हम पहले ही निर्देश कर आये हैं कि प्रस्तुत संस्करणके पहले सर्वार्थसिद्धिके अनेक संस्करण प्रकाशमें आ चुके थे। ऐसी अवस्थामें प्रस्तुत संस्करण के सम्पादनके किसी पाठको स्वीकार करने या अस्वीकार करने में हमारे सामने बड़ी कठिनाई रही है । साधारणत: हमने इस बात का ध्यान रखा है कि मुद्रित प्रतियोंमें जो पाठ उपलब्ध होते हैं, सर्वप्रथम उन्हें ही प्रमुखता दी जाय । किन्तु इस नियमका हम सर्वत्र पालन नहीं कर सके । यदि हमें उनसे उपयुक्त पाठ अन्य हस्तलिखित प्रतियोंमें उपलब्ध हुए तो उन्हें स्वीकार करने में हमने संकोच नहीं किया।
3. प्रति परिचय
और भी ऐसी अनेक कई बातें थीं जिनके कारण हमने कई प्राचीन प्रतियोंके आधारसे इसे पुन सम्पादित करनेका निश्चय किया इसके लिए हमने मूडबिद्रीकी दो ताडपत्रीय प्रतियाँ, दिल्ली भाण्डारसे दं, हस्तलिखित प्रतियाँ और जैन सिद्धान्तभवन आरासे एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त की। मुद्रित संस्करणोंमें से हमारे सामने श्री पं० कल्लप्पा भरमप्पा निटवे द्वारा सम्पादित और श्री पं० वंशीधरजी सोलापुर द्वारा सम्पादित प्रतियाँ थीं। इस काममें मूडबिद्रीकी एक ताडपत्रीय प्रति और दिल्ली भाण्डारकी एक हस्तलिखित प्रति विशेष उपयोगी सिद्ध हुई। अन्य प्रतियोंकी अपेक्षा ये अधिक शुद्ध थीं। फिर भी आदर्श प्रतिके रूपमें हम किसी एक को मुख्य मानकर न चल सके। हम यह तो नहीं कह सकते कि सर्वार्थसिद्धिका प्रस्तुत संस्करण सब दृष्टियोंसे अन्तिम है, फिर भी इसे सम्पादित करते समय इस बातका ध्यान अवश्य रखा गया
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दो शब्द
[13
है कि जहां तक बने इसे अधिक परिशुद्ध और परम्परागत आगमके अनुसार मूलग्राही बनाया गया है।
प्रतियोंका परिचय देने के पहले हम इस बातको स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि सर्वार्थसिद्धिको सम्मादित होकर प्रकाशमें आने में आवश्यकतासे अधिक समय लगा है। इतने लम्बे कालके भीतर हमें अनेक बार गहपरिवर्तन करना पड़ा है और भी कई अड़चनें आयी हैं। इस कारण हम अपने सब कागजात सुरक्षित न रख सके । ऐसे कई उपयोगी कागज पत्र हम गँवा बैठे जिनके न रहने से हमारी बड़ी हानि हुई है। उन कागजपत्रोंमें प्रतिपरिचय भी था, इसलिए प्रतियोंका जो पूरा परिचय हमने लिख रखा था वह तो इस समय हमारे सामने नहीं है। वे प्रतियाँ भी हमारे सामने नहीं हैं जिनके आधारसे हमने यह कार्य किया है। फिर भी हमारे मित्र श्रीयुत पं० के० भुजबलिजी शास्त्री मूडबिद्री और पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्य दिल्ली की सत्कृपासे उक्त स्थानोंकी प्रतियोंका जो परिचय हमें उपलब्ध हुआ है वह हम यहाँ दे रहे हैं
(1) ता०—यह मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रति है। लिपि कनाडी है । कुल पत्र 116 हैं। इसके प्रत्येक पृष्ठमें पंक्ति 10 और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर लगभग 71 हैं। प्रति शुद्ध और अच्छी हालत में है। सरस्वती गच्छ, बलात्कार गण कुन्दकुन्दान्वयके आ० वसुन्धरने भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा शालिक शक 1551 विलम्बि संवत्सरके दिन इसकी लिपि समाप्त की थी। हमारे सामने उपस्थित प्रतियों में यह सबसे अधिक प्राचीन थी। इसका संकेताक्षर ता है।
(2) ना०-यह भी मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रति हैं। लिपि कनाडी है। कुल पत्र 101 हैं। इसके प्रत्येक पृष्ठमें पंक्ति 9 और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर लगभग 107 हैं। प्रति शुद्ध और अच्छी अवस्थामें है। इसमें लिपिकर्ता तथा लिपिकालका निर्देश नहीं है। इसका संकेताक्षर ना० है।
(3) दि० 1--यह श्री लाला हरसुखराय सुगनचन्दजीके नये मन्दिरमें स्थित दि० जैन सरस्वती भाण्डार धर्मपुरा दिल्लीकी हस्तलिखित प्रति है। पत्र संख्या 201 है। प्रत्येक पत्र में 18 पंक्ति और प्रत्येक पंक्तिमें लगभग 33 अक्षर हैं। पत्रकी लम्बाई 11 इंच और चौड़ाई 5 इंच है। चारों ओर एक-एक इंच हासिया छोड़कर बीचमें प्रतिलिपि की गयी है। कागज पुष्ट है, अक्षर भी बड़े सुन्दर हैं जो बिना किसी कष्टके आसानीसे पढ़े जाते हैं। लेखनकार्य संवत् 1752 आषाढ़ सुदि ।। गुरुवारको समाप्त हुआ था। प्रतिके अन्तमें यह प्रशस्ति उपलब्ध होती है
'प्रणिपत्य जिनवरेन्द्रं वरविग्रहरूपरंजितसुरेन्द्र । सद्गुणसुधासमुद्रं वक्ष्ये सस्तां प्रशस्तिमहां ।। ।। जगत्सारे हि सारेऽस्मिन्नहिंसाजलसागरे। नगरे नागराकीर्ण विस्तीर्णापणपण्यके ।। 2॥ छ । संवत् 17521 वर्षे आषाढ़ सुदि 11 गुरौ लिषायिताध्यात्मरतपरसाशेषज्ञानावरणीयक्षयार्थ लिखितं ।'
इसका संकेताक्षर दि० 1 है।
(४) दि. 2--यह भी पूर्वोक्त स्थानकी हस्तलिखित प्रति है। पत्र संख्या 111 है। प्रत्येक पत्र में 12 पंक्ति और प्रत्येक पंक्तिमें लगभग 50 अक्षर हैं। मात्र प्रथम और अन्तिम पत्र में पंक्ति संख्या कम है। पत्रकी लम्बाई सवा ग्यारह इंच और चौड़ाई 5 इंच है। अगल-बगल में सवा इंच और ऊपर-नीचे पौन इंच हाँसिया छोड़कर प्रतिलिपि की गयी है। प्रतिके अन्त में आये हुए लेखसे विदित होता है कि यह प्रति सं0 1875 आश्विन वदि 14 मंगलवारको लिखकर समाप्त हुई थी। लेख इस प्रकार है
'संवत् 1875 मासोत्तममासे अश्विनीमासे कृष्णपक्षे तिथौ च शुभ चतुर्दशी भमिवासरेण लिखितं जैसिंहपुरामध्ये पिरागदास मोहाका जैनी भाई।'
__इस प्रतिके देखनेसे विदित होता है कि यह सम्भवतः दि० । के आधारसे ही लिखी गयी होगी। प्रतिकार श्री पिरागदास जी जैन हैं और नरसिंहपुरा (नयी दिल्ली) जिन मन्दिरमें बैठकर यह लिखकर तैयार हुई है। इसका संकेताक्षर दि० 2 है।
इन प्रतियोंके सिवा पांचवीं प्रति श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा की है। ये प्रति वाचनके समय उपयोग में ली गयीं है। तथा मुद्रणके समय मध्यप्रदेश सागर जिलाके अन्तर्गत खिमलासा गाँवकी प्रति भी सामने रही है। यह गांव पहले समृद्धिशाली नगर रहा है । यह बीना इटावासे मालथौनको जानेवाली सड़कपर स्थित है और बीना इटावासे लगभग 12 मील दूर है। प्राचीन उल्लेखोंसे विदित होता है कि इसका प्राचीन
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सर्वार्थसिद्धि
नाम क्षेमोल्लास है। खिमलासा उसीका अपभ्रंश नाम है। नगरके चारों ओर परकोटा और खण्डहर प्राचीनकालीन नगरकी समृद्धिके साक्षी हैं। यहाँका जिनमन्दिर दर्शनीय है। इसमें एक सरस्वतीभवन है जिसमें अनेक ग्रन्थोंकी हस्तलिखित प्राचीन प्रतियाँ अब भी मौजूद हैं।
4. प्रकाशनमें ढिलाईका कारण सर्वप्रथम इसका सम्पादन हमने स्वतन्त्र भावसे किया था। सम्पादन में लगनेवाली आवश्यक सामग्री हमें स्वयं जुटानी पड़ी थी। एक बार कार्यके चल निकलने पर हमें आशा थी कि हम इसे अतिशीघ्र प्रकाशमें ले आवेंगे। एक-दो साहित्यिक संस्थाएँ इसके प्रकाशनके लिए प्रस्तुत भी थीं, परन्तु कई प्रतियोंके आधारसे मलका मिलान कर टिप्पण लेना और अनुवाद करना जितने जल्दी हम सोचते थे उतने जल्दी कर नहीं पके । परिणाम स्वरूप वह काम आवश्यकतासे अधिक पिछड़ता गया। इसी बीच वि० सं० 2003 में श्री पूज्य श्री 105 क्षु० गणेशप्रसादजी वर्णीकी सेवाओंके प्रति सम्मान प्रकट करनेके लिए श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमालाको स्थापना की गयी और सोचा गया कि सर्वार्थसिद्धिका प्रकाशन इसी ग्रन्थमालाकी ओरसे किया जाय । तदनुसार श्री भार्गव भूषण प्रेस में यह मुद्रणके लिए दे दी गयी। किन्तु प्रेसकी ढिलाई और ग्रन्थमालाके सामने उनरोत्तर दूसरे कार्योंके आते रहनेके कारण इसके प्रकाशन में काफी समय लग गया।
5. भारतीय ज्ञानपीठ इस साल किसी तरह हम इसके मुद्रणका कार्य पूरा करनेकी स्थितिमें आये ही थे कि एक तो जैन साहित्यका इतिहास लिखाने का कार्य इस संस्थाने स्वीकार कर लिया, दूसरे और भी कई ऐसी आर्थिक व दूसरी अड़चनें ग्रन्थमालाके सामने उठ खड़ी हुई जिनको ध्यान में रखकर ग्रन्थमालाने मेरी सम्मतिसे इसका प्रकाशन रोक दिया और मुझे यह अधिकार दिया कि इस कार्यको पूरा करनेका उत्तरदायित्व यदि भारतीय ज्ञानपीठ ले सके तो उचित आधारों पर यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठको साभार सौंप दिया जाय। ग्रन्थमालाकी इस मनसाको ध्यान में रखकर मैंने भारतीय ज्ञानपीठके सुयोग्य मन्त्री श्रीमान् पं० अयोध्याप्रसादजी गोयलीयसे इस सम्बन्ध में बातचीत की। गोयलीयजीने एक ही उत्तर दिया कि अर्थाभाव या दूसरे किसी कारणसे सर्वार्थसिद्धिके प्रकाशनमें श्री ग० वर्णी जैन ग्रन्थमाला कठिनाई अनुभव करती है तो भारतीय ज्ञानपीठ उसे यों ही अप्रकाशित स्थितिमें नहीं पड़ा रहने देगा। वह मुद्रण होने के बाद शेष रहे कार्यको तो पूरा करायेगा ही, साथ ही वर्णी ग्रन्थमालाका इसपर जो व्यय हुआ है उसे भी वह सानन्द लौटा देगा। साधारणतः बातचीत के पहले भारतीय ज्ञानपीठसे यह कार्य करा लेना हम बहुत कठिन मानते थे, क्योंकि उसके प्रकाशनोंका जो क्रम और विशेषता है उसका सर्वार्थसिद्धिके मुद्रित फार्मों में हमें बहुत कुछ अंशोंमें अभाव सा दिखाई देता था। किन्तु हमें यहाँ यह संकेत करते हुए परम प्रसन्नता होती है कि ऐसी कोई बात इसके बीच में बाधक सिद्ध नहीं हई। इससे हमें न केवल श्री गोयलीयजी के उदार अन्तःकरणका परिचय मिला अपि 'तु भारतीय ज्ञानपीठ के संचालन में जिस विशाल दृष्टिकोणका आश्रय लिया जाता है उसका यह एक प्रांजल उदाहरण है।
6. अन्य हितैषियोंसे सर्वार्थसिद्धिका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठसे हुआ है यह देख कर हमारे कतिपय मित्रों और हितैषियोंको, जिन्होंने इसके प्रकाशन में ग्रन्थमालाको आर्थिक व दुसरे प्रकारको सहायता पहुँचायी है, अचरज होगा। परन्तु यह बहुत ही छोटा प्रश्न है कि इस ग्रन्थका प्रकाशन किस संस्थासे हो रहा है। उनके देखनेकी बात तो केवल इतनी-सी है कि उन्होंने साहित्यकी श्रीवृद्धिके लिए जो धन या दूसरे प्रकार की सहायता दी है उसका ठीक तरहसे उपयोग हो रहा है या नहीं। साधारणतः प्रबन्ध और कार्यकर्ताओं की सुविधाकी दृष्टिसे ही अलग-अलग संस्थाओंकी स्थापना की जाती है। परन्तु हैं वे सब एक ही महावृक्षकी शाखा-प्रशाखाएँ। अमुक फल अमुक शाखामें लगा और अमुक फल अमुक शाखामें यह महत्त्वकी बात नहीं है । महत्त्वकी बात
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दो शब्द
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तो यह है कि उस महावृक्ष की हर एक शाखा-प्रशाखा तथा दूसरे अवयव अपने-अपने स्थानमें उचित कार्य कर रहे हैं, या नहीं। नाम रूपका आग्रह जैन परम्पराको न कभी इष्ट रहा है और न रहना चाहिए। केवल व्यवहारके संचालन हेतु इसको स्थान दिया जाता है। इसलिए सर्वार्थसिद्धिका प्रकाशन क्या वर्णी ग्रन्थमालासे हुआ, क्या भारतीय ज्ञानपीठसे दोनों चीजें एक हैं।
7. प्राभार प्रदर्शन फिर भी यहाँ कई दृष्टियोंसे हमें अपने सहयोगियों, मित्रों व हितैषियोंके प्रति आभारस्वरूप दो शब्द अंकित कर देना अत्यावश्यक प्रतीत होता है। यह एक निश्चित सी बात है कि जैन समाजका ध्यान जैन साहित्यके प्रकाशनकी ओर अभी उतना नहीं गया है जितना कि जाना चाहिए था। प्राचीन कालमें मन्दिर प्रतिष्ठा और शास्त्रों को लिपिबद्ध कराकर यत्र तत्र प्रतिष्ठित करना ये दोनों कार्य समान माने जाते थे। अभी तक शास्त्रोंकी रक्षा इसी पद्धतिसे होती आयी है। हमारे पूर्वज चाहे उन शास्त्रोंके ज्ञाता हों चाहे न हों किन्तु वे शास्त्रों की प्रतिलिपि करा कर उनकी रक्षा करना अपना पुनीत कर्तव्य समझते थे और इस कार्यमें प्रयत्नशील भी रहते थे, किन्तु जबसे मुद्रण कार्य प्रारम्भ हुआ है तबसे एक तरहसे समाजने इस ओरसे अपनी आँख ही मुंद ली है। अब प्रतिलिपि कराना तो दूर रहा वे उनकी एक-एक मुद्रित प्रति निछावर देकर खरीदनेमें भी हिचकिचाने लगे हैं। इस मद में व्यक्तिगत खर्च करनेकी बातको तो छोड़ो, वे सार्वजनिक धनसे भी यह कार्य सम्पन्न नहीं करना चाहते हैं जब कि वे इस धनका उपयोग दुसरे दिखावटी और अस्थायी कार्यों में करते रहते हैं। उनका तर्क है कि इतने बड़े ग्रन्थोंको हमारे यहाँ समझनेवाला ही कौन है? हम उनको मन्दिरमें रखकर क्या करेंगे? यदि इसी तर्कसे प्राचीन पुरुषोंने काम लिया होता तो क्या साहित्यकी रक्षा होना सम्भव था? यह कहना तो कठिन है कि हमने अपना पूरा साहित्य बचा लिया है। तथापि जो कुछ भी बचा लिया गया है वह पर्याप्त है। भगवान महावीरकी चर्या और उनके उपदेशोंसे सीधा सम्बन्ध स्थापित करनेकी क्षमता रखनेवाला एकमात्र साधन यह साहित्य ही है। इसलिए प्रत्येक गृहस्थका यह कर्तव्य हो जाता है कि वह इसकी संरक्षाके लिए हर एक सम्भव उपाय काममें लावें।
प्रसन्नता है कि इस ओर भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक व दूसरे कार्यकर्ताओंका पर्याप्त ध्यान गया है और वे इस बातका विचार किये बिना कि इसके प्रकाशन आदि पर पड़नेवाला व्यय वापस होगा या नहीं, सब प्रकारके प्राचीन साहित्यके प्रकाशनमें दत्तावधान हैं। सर्वार्थसिद्धिका भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित होना उनकी इसी शुभ भावनाका सुफल है, इसलिए सर्वप्रथम हम नम्र शब्दोंमें उनके प्रति आभार प्रदर्शित करना अपना कर्तव्य मानते हैं। सर्वार्थसिद्धिके सम्पादक होने के नाते तो हमें यह कार्य करना ही है, साथ ही वर्णी ग्रन्थमालाके संचालक होने के नाते भी हमें इसका निर्वाह करना है।
श्री ग. वर्णी जैन ग्रन्थमाला एक ऐसी संस्था है जिसे समाजके लब्धप्रतिष्ठ विद्वानोंका पृष्ठबल प्राप्त है इसलिए सर्वार्थसिद्धिका उस द्वारा प्रकाशित हो जाना कठिन कार्य नहीं था फिर भी जो कठिन परिस्थिति उसके सामने थी उसे देखते हुए उसने जिस अनुकरणीय मार्गका श्रीगणेश किया है इसके लिए हम वर्णी ग्रन्थमालाकी प्रबन्ध समितिके प्रति भी आभार प्रदर्शित करना अपना कर्तव्य मानते हैं ।
___ यहाँ हम उन महानुभावोंके प्रति भी आभार प्रदर्शित करना अपना कर्तव्य समझते हैं जिन्होंने एक मात्र सर्वार्थसिद्धि के प्रकाशनके प्रति अभिरुचि होनेके कारण अपनी उदार सहायता वर्णी ग्रन्थमाला को दी थी। देनेवाले महानुभाव ये हैं--
1. पूज्य श्री 108 आचार्य सूर्यसागरजी महाराजके सदुपदेशसे श्रीमान् ब्र० लक्ष्मीचन्द्रजी वर्णी । वर्णीजी ने 1500) इस कामके लिए दिल्लीकी पहाड़ी धीरज व डिप्टीगंजकी समाजसे भिजवाये थे ।
2. वर्णी ग्रन्थमालाके कोषाध्यक्ष बाबू रामस्वरूपजी बरुआसागर । आपने इस कामके लिए 1601) प्रदान किये थे।
3. उदारचेता श्रीमान नेमचन्द बालचन्दजी सा. वकील उस्मानाबाद । आपकी पौत्री ब्र० गजराबाई हमारे पास लब्धिसार क्षपणासार पढ़ने बनारस आयी थीं और लगभग दो माह यहाँ रही थीं। इसीके परिणामस्वरूप बहिन गजराबाईकी प्रेरणासे वकील सा० ने 1000) ग्रन्थमालाको प्रदान किये थे।
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सर्वार्थसिद्धि
हस्तलिखित प्रतियोंके प्राप्त करनेमें हमें श्रीमान् पं० पन्नालालजी अग्रवाल दिल्ली, पं० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य जैन सिद्धान्त भवन आरा, पं० के० भुजबलिजी शास्त्री मूडबिद्री और पं० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्य दिल्ली से पूरी सहायता मिली है, अतएव हम इनके भी आभारी हैं।
भारतीय ज्ञानपीठके मैनेजर वि० श्री बाबूलालजी फागुल्ल उसके प्रकाशनोंको सुन्दर र आकर्षक बनाने में पर्याप्त श्रम करते रहते हैं। सर्वार्थसिद्धिको इस योग्य बनाने में व दूसरे प्रकारकी सहयता पहुंचाने में भी उन्होंने हमें सहयोग दिया है, अतएव हम उनके भी आभारी हैं।
सर्वार्थसिद्धिके परिशिष्ट और विषयसूची हमारे सहपाठी पं० हीरानानजी शास्त्रीने तैयार किये हैं और आवश्यक संशोधनके साथ वे इसमें दिये गये हैं, अतएव हम इनका जितना आभार मानें थोड़ा है ।
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तत्त्वार्थ सूत्र की उपलब्ध टीकाओं में सर्वार्थसिद्धि प्रथम टीका है। इसमें प्रमेयका विचार आगमिक, दार्शनिक आदि सभी पद्धतियोंसे किया गया है। हमें आशा है कि इस सम्पादनसे समाज में इसका मान और अधिक बढ़ेगा ।
- फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री
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प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से)
'मैं कौन हूँ, मेरा स्वभाव क्या है, मैं कहाँ से आया हूँ, मुझे उपादेय क्या है और उसकी प्राप्ति कैसे होती है ? जो मनुष्य इन बातोंका विचार नहीं करता वह अपने गन्तव्य स्थानको प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं होता।
आचार्य वादीसिंहने क्षत्रचड़ामणिमें तत्त्वज्ञानके प्रसंगसे यह वचन कहा है। यह मनुष्यके कर्तव्यका स्पष्ट बोध कराता है। कर्तव्यका विचार ही जीवनका सार है। जो तिर्यञ्च हैं वे भी अपने कर्तव्यका विचार कर प्रवृत्ति करते हैं फिर मनुष्यको तो कथा ही अलग है।
प्रत्येक प्राणीके जीवन में हम ऐसे-ऐसे विलक्षण परिणमन देखते हैं जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसा क्यों होता है ? क्या इसके लिए केवल बाह्य परिस्थिति ही एकमात्र कारण है ? एक पिताके दो बालक होते हैं। उनका एक प्रकारसे लालन-पालन होता है। एक पाठशालामें उन्हें शिक्षा मिलती है फिर भी उनके शील-स्वभाव में विलक्षण अन्तर होता है। क्यों? इसका शारीरिक रचनाके सिवा कोई अज्ञात कारण अवश्य होना चाहिए। साधकोंने इस प्रश्न का गहरा मन्थन किया है। उत्तरस्वरूप उन्होंने विश्वको यही अनुभव दिया है कि जीवगत योग्यताके अनुसार पुराकृत कर्मों के कारण प्राणियोंके जीवन में इस प्रकारकी विविधता दिखाई देती है।
विश्वकी विविधताका अवलोकन कर उन्होंने कहा है कि इस प्राणीकी प्रथम अवस्था निगोद है। अनादि कालसे यह प्राणी इस अवस्थाका पात्र बना हुआ है। विस्तृत बालुकाराशिमें गिरे हुए वज सिकताकण का मिलना जितना दुर्लभ है, इस पर्यायसे निकल कर अन्य पर्यायका प्राप्त होना उतना ही दुर्लभ है। अन्य पर्यायोंकी भी कोई गिनती नहीं। उनमें परिभ्रमण करते हुए इसका पञ्चेन्द्रिय होना इतना दुर्लभ है जितना कि अन्य सब गुणोंके प्राप्त हो जाने पर भी मनुष्यको कृतज्ञता गुणका प्राप्त होना दुर्लभ है । यदि यह पञ्चेन्द्रिय भी हो जाता है तो भी इससे इसका विशेष लाभ नहीं, क्योंकि एक मनुष्य पर्याय ही वह अवस्था है, जिसे प्राप्त कर यह अपनी उन्नतिके सब साधन जुटा सकता है। किन्तु इसका प्राप्त होना बहुत ही कठिन है। एक दृष्टान्त द्वारा साधकोंने इसे इन शब्दों में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार किसी चौपथ पर रखी हुई रत्नराशिका मिलना दुर्लभ है उसी प्रकार अन्य पर्यायों में परिभ्रमण करते हुए इसे मनुष्य पर्यायका मिलना दुर्लभ है। कदाचित् इसे मनुष्य पर्याय भी मिल जाती है तो भी उसे प्राप्त कर अपने कर्तव्याकर्तब्यके बोध द्वारा कर्तव्यके मार्गका अनुसरण करना और भी दुर्लभ है।
मनुष्य होने पर यह प्राणी नहीं मालूम कितनी ममताओंमें उलझा रहता है । कभी यह पुत्र, स्त्री और घर-द्वारकी चिन्ता करता है तो कभी अपनी मानप्रतिष्ठाको चिन्तामें काल-यापन करता है। स्वरूप सम्बोधन की ओर इसका मन यत्किञ्चित् भी आकर्षित नहीं होता । जो इसका नहीं उसकी तो चिन्ता करता है और जो इसका है उसकी ओर आँख उठाकर देखता भी नहीं। फल यह होता है कि यह न दुलभ इस मनुष्य पर्यायको गर्वा बैठता है अपितु सम्यक् कर्तव्यका बोध न होने से इसे पुनः अनन्त यातनाओंका पात्र बनना पड़ता है।
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सर्वार्थसिद्धि
इस स्थितिसे इस प्राणीका उद्धार कैसे हो, इस प्रश्नके समाधान स्वरूप साधकोंने अनेक मार्ग दरसाये हैं जिनमें सम्यक् श्रुतका अध्ययन मुख्य है। श्रुत दो प्रकारका है-एक वह जो ऐहिक इच्छाओंकी पूर्तिका मार्गदर्शन करता है और दूसरा वह जो विषय और कषायके मार्गको अनुपादेय बतला कर आत्महितके मार्गमें लगाता है । आत्माका हित क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यदि हमें संक्षेप में प्राप्त करना है तो यही कहा जा सकता है कि 'मोक्ष'। अतएव मोक्षप्राप्तिके साधनोंका जिसमें सम्यक प्रकारसे ऊहापोह किया गया है वही शास्त्र सम्यक् श्रुत कहलानेकी पात्रता रखता है।
इस दृष्टि से जब हम प्राचीन साहित्यको देखते हैं तो सर्वप्रथम हमारी दृष्टि द्वादशांग श्रुत पर जाती है। इसका सीधा सम्बन्ध भगवान् महावीरकी वाणीसे है। यह तथ्य है कि जितने भी तीर्थङ्कर होते हैं वे अर्थका उपदेश देते हैं और उनके प्रमुख शिष्य, जिन्हें कि गणधर कहते हैं, ग्रन्थ रूपमें अङ्गश्रुतकी रचना करते हैं। यह मुख्य रूपसे बारह आरों-विभागों में विभक्त होने के कारण इसे द्वादशार कहते हैं और संघके मुख्य अधिपति गणधरों-गणियोंके द्वारा इसकी रचना की जानेसे इसका दूसरा नाम गणिपिटक भी है।
भगवान् महावीरके मोक्ष जानेके बाद तीन अनुबद्ध केवली और पाँच श्रुतकेवली हुए हैं। इनमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । इन तक यह अङ्गश्रुत अपने मूलरूपमें आया है। इसके बाद उत्तरोत्तर बुद्धिबल और धारणाशक्तिके क्षीण होते जानेसे तथा पुस्तकारूढ़ किये जानेकी परिपाटी न होने से क्रमश: वह विच्छिन्न होता गया है। इस प्रकार एक ओर जहाँ अंगश्रुतका अभाव होता जा रहा था वहाँ दूसरी ओर श्रुतपरम्पराको अविच्छिन्न बनाये रखनेके लिए और उसका सीधा सम्बन्ध भगवान् महावीरकी वाणीसे बनाये रखनेके लिए प्रयत्न भी होते रहे हैं। अंगश्रुतके गद दूसरा स्थान अनंगश्रुतको मिलता है। इसको अंगबाह्य भी कहते हैं। इसके मूल भेद ये हैं-सामायिक, चतुविशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्विका। इनमें से सर्वार्थसिद्धि में उत्तराध्ययन और दशवकालिक केवल इन दो का ही उल्लेख किया है। श्री धवला टीकाके आधारसे विदित होता है कि इनकी रचना भी गणधरोंने ही की थी और अंगश्रुतके अस्तित्वकालमें ये उपस्थित थे। किन्तु धीरे-धीरे अंगश्रुतके समान इनको भी धारण करने की शक्तिवाले श्रमणोंके न रहनेसे इनका भी अभाव होता गया। फल यह हुआ कि एक प्रकारसे हम मूलश्रुतसे सर्वथा वंचित श्वेताम्बर परम्परामें जो आचारांग आदि अंगश्रुत और उत्तराध्ययन आदि अनंगश्रुत उपलब्ध होता है वह विक्रम की पांचवीं शताब्दिके बादका संकलन है, इसलिए वह मूलश्रुतकी दृष्टिसे विशेष प्रयोजनीय नहीं माना
जा सकता। इस प्रकार अंगश्रुत और अंगबाह्यश्रुतके विच्छिन्न होने में कुल 683 वर्ष लगे हैं। . किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उत्तरकालमें भगवान महावीर की वाणीका कहिए या द्वादशांग वाणीका कहिए वारसा हमें किसी रूप में मिला ही नहीं। भद्रबाहु श्रुतकेवलीके कालमें ही जैन परम्परा दो 'भागोंमें विभाजित हो गयी थी। पहली परम्परा जो भगवान् महावीर और उनके पूर्ववर्ती तीर्थङ्करोंके तत्त्वज्ञानमूलक आचारको बिना किसी संशोधनके ग्राह्य मानती रही वह उस समय दिगम्बर परम्परा या मूल मंचके नामसे प्रसिद्ध हुई और जिसने परिस्थितिवश संशोधन कर उसमें नये आचारका प्रवेश किया वह प्रवेताम्बर परम्पराके नामसे प्रसिद्ध हुई । इस कारण मूल अंगश्रुत और अनंगश्रुतको तो लिपिबद्ध नहीं किया जा सका, किन्तु कालान्तरमें ऐसे आचार्य हुए हैं जिन्होंने अङ्गश्रुतके आश्रयसे श्रुतकी रक्षा करनेका प्रयत्न किया है। षट्खण्डागम और कषायप्राभृतकी रचना उन प्रयत्नोंमेंसे सर्वप्रथम है । आचार्य कुन्दकुन्द लगभग उसी समय हुए हैं जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक शैली द्वारा जीवादि तत्त्वोंका और मोक्षमार्गके अनुरूप आचारका विचार करते हुए न केवल तीर्थङ्करोंके स्वावलम्बी मार्गकी रक्षा करनेका प्रयत्न किया है, अपितु उसमें बहुत कुछ अंशमें स्थिरता भी लायी है। इस तरह आरातीय आचार्यों द्वारा मूल श्रुतके अनुरूप श्रुतका निर्माण कर उसकी रक्षाके अनेक प्रयत्न हुए हैं। अखिल जैन परम्परामें रचनाकी दृष्टिसे जिस श्रुतकी सर्वप्रथम गणना की जा सकती है उसका संक्षेपमें विवरण इस प्रकार है
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प्रस्तावना
प्रन्थ नाम षट्खण्डागम
कर्ता आ० पुष्पदन्त भूतबलि
रचनाकाल विक्रमकी दूसरी शताब्दी या इसके
पूर्व
कषायप्राभृत आ० गुणधर
समकालीन कषायप्राभृत की चूणि आ० यतिवृषभः आचार्य गुणधरके कुछ काल बाद समयप्राभृत, प्रवचनसारप्राभृत आ० कुन्दकुन्द' विक्रमकी पहली-दूसरी शताब्दी पञ्चास्तिकायप्राभूत, नियमसार व अष्टप्राभृत मूलाचार (आचारांग) आ० वट्टकेर
आ० कुन्दकुन्दके समकालीन मूलाराधना (भगवतीआराधना) आ० शिवार्य तत्त्वार्थसूत्र
आ० गृद्धपिच्छि
आ० कुन्दकुन्दके समकालीन या
कुछ काल बाद रत्नकरण्डश्रावकाचार
आ० समन्तभद्र
आ० कुन्दकुन्दके कुछ काल बाद इसके बाद भी श्रुतरक्षाके अनेक प्रयत्न हुए हैं। श्वेताम्बर अंगश्रुतका संकलन उन प्रयत्नों में से एक है। यह विक्रम की 6वीं शताब्दी में संकलित होकर पुस्तकारूढ़ हुआ था।
1. तत्त्वार्थसूत्र इनमें से प्रकृतमें तत्त्वार्थसूत्रका विचार करना है। यह जैन दर्शनका प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें जैनाचार और जैन तत्त्वज्ञानके सभी पहलुओं पर सूत्र शैलीमें विचार किया गया है। यह सुनिश्चित है कि जैन
1. इनके समयके विषय में बड़ा विवाद है। वीरसेन स्वामीने इन्हें वाचक आर्यमंक्षु और नागहस्तिका शिष्य लिखा है। इन दोनोंका श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें उल्लेख आता है। सम्भवतः ये और श्वेताम्बर परम्परामें उल्लिखित आर्यमा और नागहस्ति अभिन्न व्यक्ति हैं और वे ही आ० यतिवृषभके गुरु प्रतीत होते हैं। जीवस्थान क्षेत्रप्रमाणानुगमकी धवला टीका में आचार्य वीरसेनने जिस तिलोयपण्णत्तिका उल्लेख किया है वह वर्तमान तिलोयपण्णत्तिसे भिन्न ग्रन्थ है। यह हो सकता है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें उसका कुछ भाग सम्मिलित कर लिया गया हो पर इससे दोनोंकी अभिन्नता सिद्ध नहीं होती। पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारने पुरातन जैन वाक्यसूचीकी प्रस्तावनामें जैनसिद्धान्त भास्करके एक अंकमें प्रकाशित मेरे लेखका खण्डन करते हुए जो वर्तमान तिलोयपण्णत्तिकी प्राचीन तिलोयपण्णत्तिसे अभिन्नता सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है वह उनका उचित प्रयत्न नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें लोकके जिस आकारकी चर्चा की गयी है उसका प्राचीन तिलोयपण्ण त्तिमें उल्लेख नहीं है और इस आधारसे यह मानना सर्वथा उचित प्रतीत होता है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिके आधारसे जो राजकाल गणनाके बाद आचार्य यतिवृषभकी स्थिति मानी जाती है वह भी उचित नहीं है। इसके लिए पहले यह सिद्ध करना होगा कि इस राजकाल गणनाका उल्लेख प्राचीन तिलोयपण्णत्तिमें भी पाया जाता है तभी यह मान्यता समीचीन ठहर सकेगी कि आचार्य यतिवृषभ महावीर संवत्से हजार वर्ष बाद हुए हैं। तत्काल धवलाके उल्लेखके अनुसार आचार्य यतिवृषभको महावाचक आर्यमंक्षु और नागहस्तिका शिष्य होने के नाते उन्हें उस समयका ही मानना चाहिए जिस समय उन दो महान् आचार्योंने इस भूमण्डलको अलंकृत किया था। 2. इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें षट्खण्डागम पर आ० कुन्दकुन्दकी टीका का भी उल्लेख किया है । इस आधारसे षट्खण्डागमका रचनाकाल प्रथम शताब्दीसे भी पूर्व ठहरता है। अधिकतर विचारक 683 वर्ष की परम्पराके बाद इन ग्रन्थोंको स्थान देते हैं, किन्तु मेरे विचारसे श्रतकी परम्परा किस क्रमसे आयी इतना मात्र दिखाना उसका प्रयोजन है। षट्खण्डागम आदिके रचयिता 683 वर्ष पूर्व हुए हों तो इसमें कोई प्रत्यवाय नहीं है ।
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सर्वार्थसिद्धि
कागमथुतकी मुख्य भाषा प्राकृत रही है तथा इसके आधारस बारातीय आचार्योंने जो बंगबाह्य श्रुत लिपिबद्ध किया है वह भी प्रायः प्राकृत भाषामें ही लिखा गया है। प्राकृत भाषाके जो विविष्ठ स्थित्यन्तर उपलब्ध होते हैं उनसे इस बातकी पुष्टि होती है कि यह भगवान् महावीर और उनके आगे-पीछे बहुत काल ०क बोलचालको भाषा रही है। पानि, जिसमें कि प्राचीन महत्वपूर्ण वौद्ध साहित्य उपलब्ध होता है, प्राकृतका ही एक भेद है। प्रारम्भसे जैनों और बौद्धोंकी प्रकृति जनताको उनकी भाषामें उपदेश देनेकी रही है। परिणाम स्वरूप इन्होंने अधिकतर साहित्य रचनाका कार्य जनताको भाषा प्राकृतमें ही किया है। किन्तु धीरे-धीरे भारतवर्ष में ब्राह्मण धर्मका प्राबल्य होनेसे और उनकी साहित्यिक भाषा संस्कृत होनेसे बौद्धों और जैनोंको संस्कृत भाषा में भी अपना उपयोगी साहित्य लिखने के लिए बाध्य होना पड़ा है । यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थकी रचना करते समय वह संस्कृत भाषा में लिखा गया है। जैन परम्परा उपलब्ध साहित्य में संस्कृत भाषामें रचा गया यह सर्वप्रथम ग्रन्थ है । इसके पहले केवल संस्कृत भाषा में जैन साहित्यकी रचना हुई हो इसका कोई निश्चित आधार उपलब्ध नहीं होता । तत्त्वार्थसूत्र लघुकाव सूत्रग्रन्थ होकर भी इसमें प्रमेयका उत्तमताके साथ संकलन हुआ है। इस कारण इसे जैन परम्परा के सभी सम्प्रदायोंने समान रूपसे अपनाया है । दार्शनिक जगत् में तो इसे रूपाति मिली हो, आध्यात्मिक जगत् में भी इसका कुछ कम आदर नहीं हुआ है । इस दृष्टिसे वैदिकों में गीताका, ईसाइयों में बाइबिलका और मुसलमानोंमें कुरानका जो महत्व है वही महत्व जैन परम्परामें तस्वार्थसूत्रका माना जाता है। अधिकतर जैन इसका प्रतिदिन पाठ करते हैं और कुछ अष्टमी- चतुर्दशी को दशलक्षण पर्व के दिनों में इसके एक-एक अध्याय पर प्रतिदिन प्रवचन होते हैं जिन्हें आम जनता बड़ी अद्धा के साथ श्रवण करती है। इसके सम्बन्धमें ख्याति
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है कि जो कोई गृहस्थ इसका एक बार पाठ करता है उसे एक उपवासका फल मिलता है ।
नाम प्रस्तुत सूत्रग्रन्यका मुख्य नाम तत्त्वार्थ' है। इस नामका उल्लेख करनेवाले इसके टीकाकार मुख्य है। इनकी प्रथम टीका सर्वार्थसिद्धिमें प्रत्येक अध्यायको समाप्ति-सूचक पुष्पिकामें यह वाक्य आता है-
--
इति तस्यार्थवृत्त, सर्वार्थसिद्धिशिकायां
अध्यायः समाप्तः ।
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इसके अन्त में प्रशंसासूचक तीन श्लोक आते हैं उनमें भी प्रस्तुत टीकाको तस्वार्थवृत्ति कहकर प्रस्तुत ग्रन्थ की 'तत्त्वार्थ' इस नामसे घोषणा की गयी है। तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिककी भी यही स्थिति है । इन दोनों टीका-ग्रन्थोंके प्रथम मंगल-श्लोकमें और प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिसूचक पुष्पिकामें मूल ग्रन्थके इसी नामका उल्लेख मिलता है ।
तत्वार्थ सात हैं-जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष सम्यग्दर्शन के विषयरूपसे इन सात तत्वार्थोंका प्रस्तुत सूत्र ग्रन्थ में विस्तार के साथ निरूपण किया गया है। मालूम पड़ता है कि इसी कारण से इसका तत्वार्थ यह नाम प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है।
लोकमें इसका एक नाम तत्त्वार्थसूत्र भी प्रचलित है। इस नामका उल्लेख वीरसेन स्वामीने अपनी धवला' नामकी प्रसिद्ध टीकामें किया है। सिद्धसेन गणि भी अपनी टीकामें कुछ अध्यायोंकी समाप्तिसूचक पुष्पिका में इस नामका उल्लेख करते हैं। इसमें जीवादि सात तत्त्वार्थोका सूत्र शैली में विवेचन किया गया है इससे इसका दूसरा नाम तत्त्वार्थसूत्र पड़ा जान पड़ता है। किन्तु पिछले नामसे इस नाममें सूत्र पद अधिक होनेसे सम्भव है कि ये दोनों नाम एक ही हों। केवल प्रयोगकी सुविधा की दृष्टिसे कहीं इसका
1. दमाध्यायपरिच्छन्ने तस्वायें पठिते सति फलं स्वादुपवासस्य भाषितं मुनिपुङ्गवं । 2. तह गिद्धपिछा - इरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य' इति दव्वकालो पकविदो । जीवस्थानकाल नुयोगद्वार पृ० 316 प्र० सं० 3 इति तस्य सूत्रं माध्यसंयुक्ते भाष्यानुसारिण्यां वाटीकायां आस्रवप्रतिपादनपर पष्ठोऽध्यायः समाप्तः ।
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केवल 'तत्त्वार्थ' इस नामसे और कहीं सत्त्वार्थसूत्र' इस नामसे उल्लेख किया जाता रहा हो। किसी वस्तुका जो नाम होता है उसके एकदेशका उल्लेख करके भी उस वस्तुका बोध कराने की परिपाटी पुरानी है। बहुत सम्भव है कि इसी कारण इसका तत्त्वार्य' यह नाम भी प्रसिद्धिमें आया हो। सिद्धसेन गणिने इसका तत्त्वार्थसूत्र और तस्वार्थ इन दोनों नामोंके द्वारा उल्लेख किया है। इससे भी ये दोनों नाम एक ही हैं इस अर्थकी पुष्टि होती है।
प्रस्तावना
इसका एक नाम मोक्षशास्त्र भी है। मोक्षशास्त्र इस नामका उल्लेख प्राचीन टीकाकारों या अन्य किसीने किया है ऐसा हमारे देखने नहीं आया। तथापि लोकमें इस नामकी अधिक प्रसिद्धि देखी जाती है । तत्वार्थसूत्रका प्रारम्भ मोक्षमार्गके उपदेशसे होकर इसका अन्त मोक्षके उपदेशके साथ होता है । जान पड़ता है कि यह नाम इसी कारणसे अधिक प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है ।
सर्वार्थ सिद्धि के बाद इसकी दूसरी महत्वपूर्ण टीका तत्त्वार्थभाध्य माना जाता है। इसकी उत्थानिकामें यह श्लोक आता है
'तत्त्वार्थाभिगमास्यं बर्ष संग्रहं लघुप्रम्यम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममद्र वनकदेशस्य ॥ 2 ॥ '
अर्थात् बहुत अर्थवाले और अपन के एक देशके संग्रहरूप तत्त्वार्थाधिगम नाम के इस लघु ग्रन्थका मैं शिष्य - हितबुद्धि से कथन करता हूँ ।
तत्वार्थभाष्य के अन्तमें जो प्रशस्ति उपलब्ध होती है। उसमें भी तत्त्वार्थाधिगम इस नामका उल्लेख किया है। इस आधारसे यह कहा जाता है कि इसका मुख्य नाम तत्त्वार्थाधिगम है ।
किन्तु इस आधार के होते हुए भी मूल सूत्र ग्रन्थका यह नाम है इसमें हमें सन्देह है, क्योंकि एक तो ये उस्थानिका के श्लोक और भाध्यके अन्त में पायी जानेवाली प्रशस्ति मूल सूष ग्रन्थ के अंग न होकर मायके जंग है और भाष्य सूत्ररचनाके बाद की कृति है। दूसरे तत्वार्यसूत्र के साथ जो भाष्य की स्वतन्त्र प्रति उपलब्ध होती है उसमें प्रत्येक अध्याय की समाप्ति सूचक पुष्पिकासे यह विदित नहीं होता कि याचक उमास्वाति तत्त्वार्थ भाष्यको तत्त्वार्थाधिगमसे भिन्न मानते हैं । प्रथम अध्यायके अन्त में पायी जानेवाली पुष्पिकाका स्वरूप इस प्रकार है
इति तस्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचन संग्रहे प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
साधारणत: यदि किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ के अध्यायकी समाप्ति-सूचक पुष्पिका लिखी जाती है तो उसमें केवल मूल ग्रन्थका नामोल्लेख कर अध्यायकी समाप्तिकी सूचना दी जाती है और यदि टीकाके साथ अध्यायकी समाप्ति की सूचक पुष्पिका लिखी जाती है तो उसमें मूल ग्रन्थका नामोल्लेख करने के बाद अथवा बिना किये ही टीकाका उल्लेख कर अध्याय की समाप्ति की सूचक पुष्पिका लिखी जाती है । उदाहरणार्थ केवल तत्त्वार्थ सूत्र के अध्यायकी समाप्तिकी सूचक पुष्पिका इस प्रकार उपलब्ध होती हैइति तस्यार्थसूत्रे प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
तथा टीकाके साथ तत्त्वायंसूत्रकी समाप्ति की सूचक पुष्पिका का स्वरूप इस प्रकार हैइति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धिसंज्ञकायां प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
यहाँ पूज्यपाद स्वामीने तत्त्वार्थसूत्रका स्वतन्त्र नामोल्लेख किये बिना केवल अपनी तत्त्वार्थं पर लिखी गयी वृत्तिका उसके नाम के साथ उल्लेख किया है। इससे इस बात का स्पष्ट ज्ञान होता है कि तत्त्वार्थ नामका एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है और उस पर लिखा गया यह वृत्तिग्रन्थ है । बहुत संभव है कि प्रत्येक अध्याय की समाप्ति सूचक पुष्पिका लिखते समय यही स्थिति वाचक उमास्वातिके सामने रही है । इस द्वारा
1. देखो, सिद्धसेन गणि टीका अध्याय एक और छहकी अन्तिम पुचिका 2. देखो, रतलामकी सेठ ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित तत्वार्थभाव्य प्रति
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सर्वार्थसिद्धि
वे तत्त्वार्थको स्वतन्त्र ग्रन्थ मानकर उसका अधिगम करानेवाले भाष्यको तत्त्वार्थाधिगम अर्हत्प्रवचनसंग्रह' कह रहे हैं। स्पष्ट है कि तत्त्वार्थाधिगम यह नाम तत्त्वार्थसूत्र का न हो कर वाचक उमास्वातिकृत उसके भाष्यका है।
दो सूत्र-पाठ-प्रस्तुत ग्रन्थ के दो सूत्र-पाठ उपलब्ध होते हैं-एक दिगम्बर परम्परा मान्य और दूसरा श्वेताम्बर परम्परा मान्य । सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यकी रचना होनेके पूर्व मूल सूत्रपाठका क्या स्वरूप था, इसका विचार यथास्थान हम आगे करेंगे। यहाँ इन दोनों सूत्रपाठोंका सामान्य परिचय कराना मुख्य प्रयोजन है।
दिगम्बर परम्पराके अनुसार दसों अध्यायोंकी सूत्र संख्या इस प्रकार है--- 33+53+ 39+42+ 42+27+39+26+47+9-357 ।। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार दसों अध्यायोंकी सूत्र संख्या इस प्रकार है35+52+18+53+44+26+34-+-26+49+7-3441
प्रथम अध्यायमें ऐसे पाँच स्थल मुख्य हैं जहाँ दोनों सूत्र पाठोंमें मौलिक अन्तर दिखाई देता है। प्रथम स्थल मतिज्ञानके चार भेदोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा अवाय' पाठको और श्वेताम्बर परम्परा अपाय' पाठको स्वीकार करती है। प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी श्वेताम्बर परम्परामान्य तत्त्वार्थसूत्रका विवेचन करते हुए भी मुख्यरूपसे 'अवाय' पाठको ही स्वीकार करते हैं। दूसरा स्थल मतिज्ञानके विषयभून 12 पदार्थाका प्रतिपादक सूत्र. है। इसमें दिगम्बर परम्परा क्षिपके बाद 'अनिसृतानुक्त---' पाठको और श्वेताम्बर परम्परा अनिश्रितासन्दिग्ध-' पाठको स्वीकार करती है। यहाँ पाठभेदके कारण अर्थभेद स्पष्ट है। तीसरा स्थल 'द्विविधोऽवधि:' सूत्र है। इसे श्वेताम्बर परम्परा सूत्र मानती है जब कि सर्वार्थ सिद्धि में यह भवप्रत्ययोऽवधिवनारकाणाम्' सूत्रकी उत्थानिकाका अंश है। चौथा स्थल अवधिज्ञानके द्वितीय भेदका प्रतिपादक सूत्र है । इसमें दिगम्बर परम्परा क्षयोपशम निमित्तः' पाठको और श्वेताम्बर परम्परा यथोक्तनिमित्तः' पाठको स्वीकार करती है। पाँचवाँ स्थल सात नयोंका प्रतिपादक सूत्र है। यहाँ दिगम्बर परम्परा सातों नयोंको मूल मानकर उनका समान रूपसे उल्लेख करती है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा मूल नय पांच मानती है और नैगम व शब्दनयके क्रमश: दो व तीन भेदोंका स्वतन्त्र सूत्र द्वारा उल्लेख करती है । साधारणतः दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामें मूल नय सात माने गये हैं और आगम साहित्यमें इनका मूल नयके रूप में उल्लेख भी किया है। पर जहाँ नामादि निक्षेपोंमेंसे कौन नय किस निक्षेपको स्वीकार करता है इसका विचार किया जाता है वहाँ बहुधा नैगमादि पाँच नयोंका भी उल्लेख किया जाता है। बहुत सम्भव है कि इस परिपाटीको देखकर वाचक उमास्वातिने पाँच नय मूल माने हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
दूसरे अध्यायमें ऐसे नी स्थल हैं। प्रथम स्थल पारिणामिक भावोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें पारिणामिक भावके तीन नाम गिनाने के बाद श्वेताम्बर परम्परा आदि पदको स्वीकार करती है जब कि दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती। यहां जीवका स्वतत्त्व क्या है यह बतलाते हुए पारिणामिक भावों का उल्लेख किया है। दिगम्बर परम्परा अन्य द्रव्य साधारण पारिणामिक भावोंकी यहाँ मुख्य रूपसे गणना नहीं करती और श्वेताम्बर परम्परा करती है यही यहाँ उसके आदि पद देनेका प्रयोजन है। दूसरा स्थल स्थावरकायिक जीवोंके भेदोंका प्रतिपादक सूत्र है। आगमिक परिपाटीके अनुसार स्थावरोंके पांच भेद दोनों परम्पराएँ स्वीकार करती हैं और दिगम्बर परम्पर। इसी परिपाटीके अनुसार यहाँ पाँच भेद स्वीकार करती है। किन्तु श्वेताम्बर परम्पराने अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंको गतित्रस मानकर इन का उल्लेख त्रसों के साथ किया है। इस कारण कई सूत्रोंकी रचनामें अन्तर आया है। तीसरा स्थल उपयोगः स्पर्शादिष' सूत्र है। श्वेताम्बर परम्पर। इसे स्वतन्त्र सूत्र मानती है जब कि दिगम्बर परम्परा इसे सूत्र रूपसे
1.देखो, धवला पुस्तक 12 वेदनाप्रत्ययविधान नामक अधिकार। देखो, कषायप्राभूत प्र. पुस्तक परिशिष्ट पृष्ठ 71
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प्रस्तावना
स्वीकार नहीं करती। उसके मतसे उपयोगके विषयका अलगसे प्रतिपादन करना वांछनीय नहीं, क्योंकि प्रत्येक ज्ञानका विषय प्रथम अध्यायमें दिखा आये हैं। चौथा स्थल 'एकसमयाऽविग्रहा' सूत्र है। गतिका प्रकरण होनेसे दिगम्बर परम्परा इस सूत्रको इसी रूप में स्वीकार करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा एक समयको विष्य मानकर यहाँ पुल्लिग एक वचनान्तका प्रयोग करती है। पांचवां स्थल जन्मका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा पोत' पदको और श्वेताम्बर परम्परा पोतज' पदको स्वीकार करती है। छठा स्थल 'तैजसमपि' सूत्र है। इसे दिगम्बर परम्परा सूत्र मानती है और श्वेताम्बर परम्परा नहीं मानती । यहाँ निमित्तज सभी शरीरों की उत्पत्तिके कारणोंका विचार सूत्रोंमें किया गया है फिर भी श्वेताम्बर परम्परा इसे सूत्र रूपमें स्वीकार नहीं करती और इसे तत्त्वार्थभाष्यका अङ्ग मान लेती है । सातवां स्थल आहारक शरीरका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्पराके 'प्रमत्तसंयतस्यैव' पाठके स्थान में श्वेताम्बर परम्परा 'चतुर्दशपूर्वधरस्यव' पाठ स्वीकार करती है । आठवाँ स्थल शेषास्त्रिवेदाः' सूत्र है। इसे दिगम्बर परम्परा स्वतन्त्र सूत्र मानती है जब कि श्वेताम्बर परम्परा इसे परिशेष न्यायका आश्रय लेकर सूत्र माननेसे अस्वीकार करती है । नौवाँ स्थल अनपवर्त्य आयुवालों का प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्पराके 'चरमोत्तमदेह' पाठके स्थान में श्वेताम्बर परम्परा 'चरमदेहोत्तमपुरुष' पाठको स्वीकार करती है।
तीसरे अध्यायमें ऐसे तीन स्थल हैं। प्रथम स्थल पहला सूत्र है। इसमें अधोऽध:' के अनन्तर श्वेताम्बर परम्परा 'पृथुतरा:' पाठको अधिक स्वीकार करती है । दूसरा स्थल दूसरा सूत्र है। इसमें आये हुए 'नारकाः' पदको श्वेताम्बर परम्परा स्वीकार न कर तासु नरकाः' स्वतंत्र सूत्र मानती है। यहाँ इन द्वितीयादि चार सूत्रों में नारकोंकी अवस्थाका चित्रण किया गया है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वह सब नरकों-आवासस्थानोंकी अवस्था का चित्रण हो जाता है। तीसरा स्थल ग्यारहवें सूत्रसे आगे 21 सूत्रोंकी स्वीकृति और अस्वीकृतिका है। इनको दिगम्बर परम्परा सूत्र रूप में स्वीकार करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इन्हें सूत्र नहीं मानती ।
चौथे अध्याय में ऐसे कई स्थल हैं। प्रथम मतभेदका स्थल दूसर। सूत्र है। इस सूत्र को दिगम्बर परम्परा आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या:' इस रूपमें और श्वेताम्बर परम्परा तृतीयः पीतलेश्यः' इस रूपमें स्वीकार करती है। श्वेताम्बर साहित्य में ज्योतिषियोंके एक पीतलेश्या कही है। इसीसे यह सूत्र विषयक मतभेद हुआ है और इसी कारण श्वेताम्बर परम्पराने सातवें नम्बरका पीलान्तलेश्याः' स्वतंत्र सूत्र माना है । दूसरा स्थल शेष कल्पों में प्रवीचारका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'द्वयोर्द्वयोः' पदको अधिक रूपमें स्वीकार करती है। इसके फलस्वरूप उसे आनतादि चार कल्पोंको दो मानकर चलना पड़ता है । तीसरा स्थल कल्पोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्पराने सोलह और श्वेताम्बर परम्परा ने बारह कल्पोंका नामोल्लेख किया है । चौथा स्थल लौकान्तिक देवोंकी संख्याका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्पराने आठ प्रकारके और श्वेताम्बर परम्पराने नौ प्रकारके लौकान्तिक देव गिनाये हैं। 'इतना होते हुए भी तत्त्वार्थभाष्य में वे आठ प्रकारके ही रह जाते हैं । औपपादिकमनुष्येभ्यः' इत्यादि सूत्रके आगे इस अध्यायमें दोनों परम्परा के सूत्रपाठमें पर्याप्त अन्तर है। ऐसे अनेक सूत्र श्वेताम्बर परम्परामान्य सूत्रपाठमें स्थान पाते हैं जिनका दिगम्बर परम्परामें सर्वथा अभाव है। कुछ ऐसे भी सूत्र हैं जिनके विषय में दिगम्बर परम्परा एक पाठ स्वीकार करती है और श्वेताम्बर परम्परा दूसरा पाठ। इस सब अन्तरके कई कारण हैं। एक तो कल्पोंकी संख्यामें अन्तरको स्वीकार करनेसे ऐसा हुआ है। दूसरे भवनवासी और ज्योतिषी देवोंकी स्थितिके प्रतिपादन में श्वेताम्बर परम्पराने भिन्न रुख स्वीकार किया है, इससे ऐसा हुआ है। लौकान्तिक देवोंकी स्थितिका प्रतिपादक सूत्र भी इस परम्पराने स्वीकार नहीं किया है।
पांचवें अध्यायमें ऐसे छह स्थल हैं। प्रथम स्थल 'द्रव्याणि' और 'जीवाश्च' ये दो सूत्र हैं। दिगम्बर परम्परा इन्हें दो सूत्र मानती है जब कि श्वेताम्बर परम्परा इनका एक सूत्ररूपसे उल्लेख करती है। दूसरा स्थल धर्मादि द्रव्योंके प्रदेशोंकी संख्याका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा धर्म, अधर्म और एक
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सर्वार्थसिद्धि जीवके प्रदेशोंकी एक साथ परिगणना करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा जीवके प्रतिपादक सूत्रको स्वतन्त्र मानकर चलती है। तीसरा स्थल 'सद्व्यलक्षणम्' सूत्र है । श्वेताम्बर परम्परा इसे सूत्ररूपमें स्वीकार नहीं करती। चौथा स्थल पुद्गलोंका बन्ध होने पर वे किस रूपमें परिणमन करते हैं इस बातका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'सम' पदको अधिक स्वीकार करती है। साधारणतः दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराएँ द्वियधिक गुणवाले का अपनेसे हीन गुणवाले के साथ बन्ध होता है' इस मतसे सहमत हैं किन्तु सूत्र रचनामें और उसके अर्थकी संगति बिठलाने में श्वेताम्बर परम्परा अपनी इस आगमिक परिपाटीका त्याग कर देती है। पांचवा स्थल काल द्रव्यका प्रतिपादक सूत्र है। श्वेताम्बर परम्परा इस सूत्र द्वारा काल द्रव्यके अस्तित्वमें मतभेद स्वीकार करती है। समस्त श्वेताम्बर आगम साहित्य में काल द्रव्यके स्थानमें 'अद्धासमय' का उल्लेख किया है और इसे प्रदेशात्मक द्रव्य न मान कर पर्याय द्रव्य स्वीकार किया है। छठा स्थल परिणामका प्रतिपादक सूत्र है। दिगम्बर परम्परा 'तद्भावः परिणाम:' केवल इस सूत्रको स्वीकार करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसके साथ तीन अन्य सूत्र स्वीकार करती है।
छठे अध्यायमें ऐसे दस स्थल हैं। प्रथम स्थल दूसरा सूत्र है। इसे दिगम्बर परम्परा एक और श्वेताम्बर परम्परा दो सूत्र मानती है। दूसरा स्थल 'इन्द्रियकपायाव्रतक्रियाः' इत्यादि सूत्र है। दिगम्बर परम्पराने इसे इसी रूप में स्वीकार किया है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसके स्थानमें 'अव्रतकषायेन्द्रियक्रिया:' यह पाठ स्वीकार करती है। तीसरा स्थल सातावेदनीयके आस्रवका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'भूतव्रतत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः' इस पाठको स्वीकार करती है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसके स्थानमें 'भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादि योगः' ऐसा पाठ स्वीकार करती है। चौथा स्थल चारित्रमोहके आस्रवका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा तीव्र' पदके बाद आत्म' पदको अधिक स्वीकार करती है । पाँचवाँ स्थल नरकायुके आस्रवका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा मध्यमें 'च' पदको अधिक स्वीकार करती है। छठा स्थल मनुष्यायुके आस्रवके प्रतिपादक दो सूत्र हैं। इन्हें दिगम्बर परम्परा दो सूत्र मानती है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा उन दोनोंको एक मानकर चलती है। इतना ही नहीं, किन्तु वह स्वभावमार्दवं' के स्थान में स्वभावमार्दवार्जवं' पाठ स्वीकार करती है। सातवां स्थल देवायुके आस्रवके प्रतिपादक सूत्र हैं। इन सूत्रोंमें दिगम्बर परम्पराने 'सम्यक्त्वं च' सूत्रका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसे सूत्र रूप में स्वीकार करने से हिचकिचाती है। आठवाँ स्थल शुभ नामके आस्रवका प्रतिपादक सत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'तत्' पद को अधिक स्वीकार करती है। नौवा स्थल तीर्थङ्कर प्रकृतिके आस्रवका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'साधुसमाधिः' के स्थानमें 'संघसाधुसमाधिः' पाठ स्वीकार करती है। दसवाँ स्थल उच्चगोत्रके आस्रवका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें तद्विपर्ययो' के स्थानमें श्वेताम्बर परम्परा तद्विपर्ययो' पाठ स्वीकार करती है।
सातवें अध्यायमें ऐसे छह स्थल हैं। प्रथम स्थल पाँच व्रतोंकी पांच-पांच भावनाओंके प्रतिपादक पांच सूत्र हैं। इन्हें दिगम्बर परम्परा सूत्ररूप में स्वीकार करती है और श्वेताम्बर परम्परा नहीं। दूसरा स्थल हिसादिष्विहामुत्र' सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'अमुत्र' पदके बाद 'च' पदको अधिक स्वीकार करती है। तीसरा स्थल मैत्री-' इत्यादि सूत्र है। इसके मध्य में दिगम्बर परम्परा 'च' पदको अधिक स्वीकार करती है। चौथा स्थल 'जगत्काय- इत्यादि सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'वा' पाठको और श्वेताम्बर परम्परा 'च' पाठको स्वीकार करती है। पांचवां स्थल सात शीलोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'प्रोषधोपवास' पाठको और श्वेताम्बर परम्परा प्रौषधोपवास' पाठको स्वीकार करती है। छठा स्थल अहिंसाणुव्रतके पाँच अतीचारोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें छेद के स्थानमें श्वेताम्बर पाठ सविच्छेद' है।
आठवें अध्याय में ऐसे छह स्थल हैं। प्रथम स्थल दूसरा सूत्र है। श्वेताम्बर परम्परा इसे दो सूत्र मानकर चलती है। दूसरा स्थल ज्ञानावरणके पांच भेदोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा
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प्रस्तावना
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ज्ञानके पांच भेदोंका नाम निर्देश करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा 'मत्यादीनाम्' इतना कहकर ही छोड़ देती है। तीसरा स्थल दर्शनावरणके नामोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा पाँच निद्राओंके नामोंके साथ वेदनीय' पद अधिक जोड़ती है। चौथा स्थल मोहनीयके नामोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें नामोंके क्रमके प्रतिपादन में दोनों परम्पराओंने अलग-अलग सरणी स्वीकार की है । पाँचवें अन्तरायके नामोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा पाँच नामोंका निर्देश करती है और श्वेताम्बर परम्परा 'दानादीनाम्' इतना कहकर छोड़ देती है। छठा स्थल पुण्य और पाप प्रकृतियों के प्रतिपादक दो सूत्र हैं। यहाँ श्वेताम्बर परम्पराने एक तो पुण्य प्रकृतियों में सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेद इनकी भी परिगणना की है। दूसरे पापप्रकृतियोंका प्रतिपादक सत्र नहीं कहा है।
नौवें अध्याय में ऐसे छह स्थल हैं । प्रथम स्थल दस धर्मोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'उत्तम' पदको क्षमा आदिका विशेषण मानकर चलती है और श्वेताम्बर परम्परा धर्मका विशेषण मानकर चलती है, फिर भी वह 'उत्तम' पदका पाठ 'धर्म' पदके साथ अन्तमें न करके सूत्रके प्रारम्भ में ही करती है। दूसरा स्थल पांच चारित्रोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'इति' पदको अधिक स्वीकार करती है। तीसरा स्थल ध्यानका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें 'अन्तर्मुहूर्तात्' के स्थान में श्वेताम्बर परम्परा 'आ मुहूर्तात्' पाठ स्वीकार कर उसे स्वतन्त्र सूत्र मानती है। चौथा स्थल आर्तध्यानके प्रतिपादक सूत्र हैं। इनमें श्वेताम्बर परम्पराने एक तो 'मनोज्ञस्य' और 'अमनोज्ञस्य' के स्थान में बहुवचनान्त पाठ स्वीकार किया है। दूसरे वेदनायाश्च' सूत्रको विपरीतं मनोज्ञस्य' के पहले रखा है। पांचवां स्थल धर्मध्यानका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'अप्रमत्तसंय तस्य' इतना पाठ अधिक स्वीकार कर
उपशान्तक्षीणकषाययोश्च' यह सूत्र स्वतंत्र मानती है। छठा स्थल एकाश्रये' इत्यादि सूत्र है। इसमें 'सवितर्कविचारे' के स्थान में श्वेताम्बर परम्परा 'सवितर्के' पाठ स्वीकार करती है।
दसवें अध्याय में ऐसे तीन स्थल हैं। प्रथम स्थल दूसरा सूत्र है। श्वेताम्बर परम्परा इसे दो सूत्र मानकर चलती है। दूसरा स्थल तीसरा और चौथा सूत्र है। श्वेताम्बर परम्परा एक तो इन दो सूत्रोंको एक मानती है। दूसरे भव्यत्वानाम्' के स्थान में 'भव्यत्वाभावात्' पाठ स्वीकार करती है। तीसरा स्थल 'पूर्वप्रयोगात्' इत्यादि सूत्र है। इस सूत्रके अन्त में श्वेताम्बर परम्परा 'तद्गतिः' इतना पाठ अधिक स्वीकार करती है । तथा इस सूत्र के आगे कहे गये दो सूत्रोंको वह स्वीकार नहीं करती।
इन पाठ-भेदोंके अतिरिक्त दसों अध्यायों में छोटे-मोटे और भी बहुतसे फ़र्क हुए हैं जिनका विशेष महत्व न होनेसे यहाँ हमने उनका उल्लेख नहीं किया है।
3. स-पाठों में मतभेव-यहाँ हमने दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामान्य जिस सूत्र-पाठोंके अन्तरका उल्लेख किया है वह सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्र-पाठोंको ध्यान में रखकर ही किया है। यदि हम इन सूत्र-पाठोंके भीतर जाते हैं तो हमें वह मतभेद और भी अधिक दिखाई देता है। फिर भी यह बात सर्वार्थ सिद्धिमान्य सूत्र-पाठ पर लागू नहीं होती । सर्वार्थसिद्धिकारके सामने जो पाठ रहा है और उन्होंने निर्णय करके जिसे सूत्रकारका माना है, उत्तरकालवी सभी दिगम्बर टीकाकार प्राय: उसीको आधार मानकर चले हैं। किन्तु तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठकी स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। हरिभद्रसूरि और सिद्धसेन गणिने तत्त्वार्थभाष्यके आधारसे अपनी टीकाएँ लिखी अवश्य हैं और इन दोनों आचार्योंने तत्त्वार्थभाष्यके साथ तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्र-पाठकी रक्षा करनेका भी प्रयत्न किया है। किन्तु उनके सामने ही सूत्र-पाठमें इतने अधिक पाठभेद और अर्थभेद हो गये थे जिनका उल्लेख करना उन्हें आवश्यक हो गया । उदाहरणके लिए यहाँ हम पांचवें अध्यायके 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्रको उपस्थित करते हैं। सिद्धसेन गणिने इस सूत्र की व्याख्या करते हुए अनेक मतभेदोंका उल्लेख किया है। उनके सामने इस सूत्रके जो प्रमुख मतभेद थे इस प्रकार हैं
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- सर्वार्थसिद्धि
1. एक पाठके अनुसार नित्यावस्थितान्यरूपाणि' एक सूत्र न होकर दो सूत्र हैं। प्रथम नित्यावस्थितानि' और दूसरा अरूपाणि'। धर्मादिक चार द्रव्य अरूपी हैं यह सिद्ध करनेके लिए 'अरूपाणि' स्वतंत्र सूत्र माना गया है।
2. दूसरे पाठके अनुसार नित्यावस्पितारूपाणि' सूत्र है। इसके अनुसार नित्यावस्थित-' पदके अन्तमें स्वतंत्र विभक्ति देने की कोई आवश्यकता नहीं। तीनों पद समसित होने चाहिए।
3. तीसरा मत है कि सूत्र तो नित्यावस्थितान्यरूपाणि' ही है। किन्तु इसमें नित्य' पद स्वतंत्र न होकर अवस्थित' पदका विशेषण है । इस मतके अनुसार प्रथम पदका नित्यं अवस्थितानि नित्यावस्थितानि' यह विग्रह होगा।
1. इनके सिवा वहाँ दो मतोंका और उल्लेख किया है। किन्तु वे केवल अर्थविषयक ही मतभेद हैं इसलिए उनकी यहाँ हमने अलगसे चर्चा नहीं की है।
___ आगे चलकर तो ये मतभेद और भी बढ़े हैं। प्रमाणस्वरूप यहाँ हम तत्त्वार्थसूत्रकी उस सटिप्पण प्रतिके कुछ पाठभेद उपस्थित करते हैं जिनका परिचय श्रीमान् पण्डित जुगुल किशोरजी मुख्तारने अनेकान्त वर्ष तीन किरण एक में दिया है । यह प्रति पण्डितजीके पास श्रीमान् पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने भेजी थी।
इस प्रतिके आलोडन करनेसे यह तो साफ जाहिर होता है कि यह किसी श्वेताम्बर आचार्यकी कृति है, क्योंकि इसमें दिगम्बर आचार्योंको जड़, दुरात्मा और सूत्रवचनचौर इत्यादि शब्दों द्वारा सम्बोधित किया गया है। इसलिए इस प्रतिमें जो पाठभेद या अधिक सूत्र उपलब्ध होते हैं वे काफी महत्त्व रखते हैं। प्रतिमें पाये जाने वाले अधिक सूत्र ये हैं
तैजसमपि 50, धर्मा वंशा शैल्लाञ्जनारिष्टा माधव्या माधवीति च 2, उछवासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च साध्या: 23, स द्विविधः 42, सम्यक्त्वं च 21, धर्मास्तिकायाभावात् ।।
तत्त्वार्थभाष्यकार इन्हें सूत्र रूप में स्वीकार नहीं करते। साथ ही तत्त्वार्थभाष्यके मुख्य टीकाकार हरिभद्रसूरि और सिद्धसेनगणि भी इन्हें सूत्र नहीं मानते, फिर भी टिप्पणकारने इन्हें सूत्र माना है। यदि हम इनके सूत्र होने और न होने के मतभेदकी बातको थोड़ी देरको भुला भी दें तो भी इनके मध्य में पाया जानेवाला 'सम्यक्त्वं च' सूत्र किसी भी अवस्थामें नहीं भुलाया जा सकता। तत्त्वार्थभाष्य में तो इसका उल्लेख है ही नहीं, अन्य श्वेताम्बर आचार्योने भी इसका उल्लेख नहीं किया है, फिर भी टिप्पणकार किसी पुराने आधारसे इसे सूत्र मानते हैं। इतना ही नहीं वे इसे मूल सूत्रकारकी ही कृति मानकर चलते हैं।
यह तो हुई सूत्रभेदकी चर्चा। अब इसके एक पाठभेदको देखिए । दिगम्बर परम्पराके अनुसार तीसरे अध्याय में सात क्षेत्रोंके प्रतिपादक सूत्रके आदिमें 'तत्र' पाठ उपलब्ध नहीं होता, किन्तु तत्त्वार्थभाष्यमान्य उक्त सूत्रके प्रारम्भ में 'तत्र' पद उपलब्ध होता है। फिर भी टिप्पणकार यहाँ तत्त्वार्थभाष्यमान्य पाठको स्वीकार न कर दिगम्बर परम्परामान्य पाठको स्वीकार करते हैं।
यहाँ देखना यह है कि जब तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य एक ही व्यक्तिकी कृति थी और श्वेताम्बर आचार्य इस तथ्यको भलीभाँति समझते थे तब सूत्रपाठके विषय में इतना मतभेद क्यों हुआ और खासकर उस अवस्थामें जब कि तत्वार्थभाष्य उस द्वारा स्वीकृत पाठको सुनिश्चित कर देता है। हम तो इस समस्त मतभेदको देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ स्वीकृत होनेके पहले श्वेताम्बर परम्परामान्य सूत्रपाठ निश्चित करने के लिए छोटे-बड़े अनेक प्रयत्न हुए हैं और वे प्रयत्न पीछे तक भी स्वीकृत . होते रहे हैं। यही कारण है कि वाचक उमास्वाति द्वारा तत्त्वार्थभाष्य लिखकर सूत्रपाठके सुनिश्चित कर देने पर भी उसे वह मान्यता नहीं मिल सकी जो दिगम्बर परम्परामें सर्वार्थ सिद्धि और उस द्वारा स्वीकृत सूत्र पाठको मिली है।
2. सर्वार्थसिद्धि 1. नाम की सार्थकता-उपलब्ध साहित्य में सर्वार्थसिद्धि प्रथम टीका है जो तत्वर्षिसत्र पर लिखी
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गयी है। प्रत्येक अध्यायके अन्तमें स्वयं आचार्य पूज्यपादने समाप्ति सूचक पुष्पिका दी है। उसमें इसका नाम सर्वार्थसिद्धि बतलाते हुए इसे वृत्तिग्रन्थ रूपसे स्वीकार किया है। इसकी प्रशंसा में टीकाके अन्त में वे लिखते हैं...
स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायः जैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता।
सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपात्तनामा तत्त्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ॥ जो आर्य स्वर्ग और मोक्षसुखके इच्छुक हैं वे जैनेन्द्र शासनरूपी उत्कृष्ट अमृतमें सारभूत और सज्जन पुरुषों द्वारा रखे गये सर्वार्थसिद्धि इस नामसे प्रख्यात इस तत्त्वार्थवृत्तिको निरंतर मनःपूर्वक धारण करें।
वे पुनः लिखते हैं
तस्वार्थत्तिमुदिता विदितार्थतत्वाः शृण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या ।
हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तेर्मामरेश्वरसुखेष किमस्ति वाच्यम् ।
सब पदार्थोके जानकार जो इस तत्त्वार्थवृत्तिको धर्मभक्तिसे सुनते हैं और पढ़ते हैं मानो उन्होंने परम सिद्धिसुखरूपी अमृतको अपने हाथ में ही कर लिया है। फिर उन्हें चक्रवर्ती और इन्द्रके सुखके विषय में तो कहना ही क्या है ?
'सर्वार्थसिद्धि' इस नामके रखनेका प्रयोजन यह है कि इसके मनन करनेसे सब प्रकारके अर्थोकी अथवा सब अर्थों में श्रेष्ठ मोक्षसुखकी सिद्धि प्राप्त होती है। यह कथन अत्युक्तिको लिये हुए भी नहीं है, क्योंकि इसमें तत्त्वार्थसूत्रके जिस प्रमेयका व्याख्यान किया गया है वह सब पुरुषार्थों में प्रधानभूत मोक्ष पुरुषार्थका साधक है।
भारतीय परम्पराने अनेक दर्शनोंको जन्म दिया है। किन्तु उन सबके मूलमें मोक्ष पुरुषार्थकी प्राप्ति प्रधान लक्ष्य रहा है। महर्षि जैमिनि पूर्वमीमांसादर्शनका प्रारम्भ इस सूत्रसे करते हैं
'ओं अथातो धर्मजिज्ञासा ॥1॥' और इसके बाद वे धर्मका स्वरूप निर्देश कर उसके साधनोंका विचार करते हैं। यही स्थिति व्यास महर्षिकी है। उन्होंने शारीरिक मीमांसादर्शनको इस सूत्रसे प्रारम्भ किया है
'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा॥1॥' . अब न्यायदर्शनके सूत्रोंको देखिए। उसके प्रणेता गौतम महर्षि लिखते हैं कि प्रमाण, प्रमेय, संशय, ' प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इनका तत्त्वज्ञान होनेसे निःश्रेयसकी प्राप्ति होती है ॥1॥' सूत्र इस प्रकार है
'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः ॥1॥' वैशेषिकदर्शनके प्रणेता महर्षि कणादने भी यह दृष्टि सामने रखी है। वे प्रारम्भ में लिखते हैं
'अथातो धर्म व्याख्यास्यामः॥1॥' कपिल ऋषिकी स्थिति इससे कुछ भिन्न नहीं है। उन्होंने भी अत्यन्त पुरुषार्थको ही मुख्य माना है। वे सांख्य दर्शनका प्रारम्भ इन शब्दों द्वारा करते हैं
'अथ त्रिविधःखात्यन्तनिवत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः।।1।' योगदर्शनका प्रारम्भ तो और भी मनोहारी शब्दों द्वारा हुआ है। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-'अब योगका अनुशासन करते हैं ।1।। योगका अर्थ है चित्तवृत्तिका निरोध ॥ 2 ॥ चित्तवृत्तिका निरोध होनेपर ही द्रष्टाका अपने स्वरूपमें अवस्थान होता है ।। 3॥' इस विषयके प्रतिपादक उनके सूत्र देखिए
'अब योगानुशासनम् ॥1॥ योगश्चित्तवृत्तिनिरोषः ॥2॥ तवा द्रष्टः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥3॥
इन सबके बाद जब हमारी दृष्टि जैन दर्शन के सूत्र ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र पर जाती है तो हमें वहाँ भी उसी तत्त्वके दर्शन होते हैं। इसका प्रारम्भ करते हुए आचार्य गद्धपिच्छ लिखते हैं
1. इति सर्वार्थसिद्धिसंज्ञकायां तत्त्वार्थवत्तौ प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
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सर्वार्थसिद्धि
'सम्यग्दर्शनमान चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥1॥'
यह है भारतीय दर्शनोंके प्रणयनका सार । इसलिए पूज्यपाद स्वामीका यह कहना सर्वथा उचित है कि जो मनुष्य धर्मभक्ति से इस तत्त्वार्यवृत्तिको पढ़ते और सुनते हैं मानो उन्होंने परम सिद्धिसुखरूपी अमृतको अपने हाथ में ही कर लिया है। फिर चक्रवर्ती और इन्द्रके सुखोंके विषय में तो कहना ही क्या है।' इससे इसका 'सर्वासिद्धि' यह नाम सार्थक है ।
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2. रचनाशैली - हम कह आये हैं कि सर्वार्थसिद्धि वृत्ति-ग्रन्थ है । वृत्तिकारने भी इसे 'वृत्ति' ही 'कहा है । जिसमें सूत्र के पदोंका आश्रय लेकर पद घटना के साथ प्रत्येक पदका विवेचन किया जाता है उसे वृत्ति कहते हैं। वृत्तिका यह अर्थ सर्वार्थ सिद्धि में अक्षरशः घटित होता है सूत्रका शायद ही कोई पद हो जिसका इसमें व्याख्यान नहीं किया गया है। उदाहरणार्थ -- तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय 1 सूत्र 2 में केवल 'तत्त्व' या 'अर्थ' पद न रखकर 'तत्त्वार्थ' पद क्यों रखा है इसका विवेचन दर्शनान्तरोंका निर्देश करते हुए उन्होंने जिस विशदता से किया है, इसीसे वृत्तिकारकी रचनाशैलीका स्पष्ट आभास मिल जाता है। वे सूत्रगत प्रत्येक पदका साङ्गोपाङ्ग विचार करते हुए आगे बढ़ते हैं । सूत्रपाठ में जहाँ जागमसे विरोध दिखाई देता है वहाँ वे सूत्रपाठकी यथावत् रक्षा करते हुए बड़े कौशलसे उसकी सङ्गति बिठलाते हैं। अध्याय 4 सूत्र 19 और सूत्र 22 में उनके इस कौशलके और भी स्पष्ट दर्शन होते हैं। सूत्र 19 में 'नवग्रैवेयकेषु' न कहकर 'नवसु ग्रं वेयकेषु' कहा है। प्रत्येक आगमामासीसे यह बात छिपी हुई नहीं है कि नौ ग्रैवेयक के सिवा अनुदिश संज्ञक नौ विमान और हैं। किन्तु मूल सूत्र में नौ अनुदिशोंका उल्लेख नहीं किया है। आचार्य पूज्यपाद यह रहस्य छिपा नहीं रहता। वे सूत्रकारकी मनसाको भांप लेते हैं और 'नव' पदको समसित न रखनेका कारण बतलाते हुए वे स्पष्ट घोषणा करते हैं कि यहाँ पर नौ अनुदिशोंका ग्रहण करने के लिए 'नव' पदका पृथक् रूप से निर्देश किया है। 22वें सूत्रकी व्याख्याके समय भी उनके सामने यही समस्या उपस्थित होती है। आगम के दूसरे कल्प तक पीतलेश्याका बारहवें कल्पतक पद्मलेश्याका और आगे शुक्ललेश्या का निर्देश किया है। आगमकी इस व्यवस्थाके अनुसार उक्त सूत्रकी संगति बिठाना बहुत कठिन है । किन्तु वे ऐसे प्रसंग पर जिस साहससे आगम और सूत्रपाठ दोनोंकी रक्षा करते हैं उसे देखते हुए हमारा मस्तक श्रद्धासे उनके चरणों में झुके बिना नहीं रहता ।
पाणिनीय व्याकरण पर पातञ्जल महाभाष्य प्रसिद्ध है । इसमें व्याकरण जैसे नीरस और कठिन विषयका ऐसी सरस और सरल पद्धति से विवेचन किया गया है कि उसे हाथ में लेनेके बाद छोड़नेको जी नहीं चाहता। यह तो हम आगे चलकर देखेंगे कि सर्वार्थसिद्धिकारने सर्वार्थसिद्धि लिखते समय उसका कितना उपयोग किया है। यहाँ केवल यही बतलाना है कि इसमें न केवल उसका भरपूर उपयोग हुआ है अपितु उसे अच्छी तरह पचाकर उसी शैली में इसका निर्माण भी हुआ है और आश्चर्य यह कि वह व्याकरणका ग्रन्थ और यह दर्शनका ग्रन्थ, फिर भी रचना में कहीं भी शिथिलता नहीं आने पायी है। सर्वार्थसिद्धिकी रचना शैलीको हम समतल नदीके गतिशील प्रवाहकी उपमा दे सकते हैं जो स्थिर और प्रशान्त भावसे आगे एक रूप में सदा बढ़ता ही रहता है, रुकना कहीं वह जानता ही नहीं ।
आचार्य पूज्यपादने इसमें केवल भाषा सौष्ठवका ही ध्यान नहीं रखा है, अपितु आगमिक परम्पराका भी पूरी तरह निर्वाह किया है। प्रथम अध्यायका सातवाँ और आठ सूत्र इसका प्राब्जल उदाहरण है। इन सूत्रों की व्याख्या का आलोडन करते समय उन्होंने सिद्धान्त ग्रन्थों का कितना गहरा अभ्यास किया था इस बातका सहज ही पता लग जाता है। इस परसे हम यह दृढ़तापूर्वक कहनेका साहस करते हैं कि उन्होंने सर्वार्थसिद्धि लिखकर जहाँ एक ओर संस्कृत साहित्यको श्रीवृद्धि की है वहाँ उन्होंने परम्परासे आये हुए आगमिक साहित्यकी रक्षाका श्रेय भी सम्पादित किया है।
निचोड़रूप में सर्वार्थ सिद्धि की रचनाशैलीके विषय में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि वह ऐसी प्रसन्न और विषयस्पर्शी शैली में लिखी गयी है जिससे उत्तरकालीन वाचक उपास्यातिप्रभृति सभी तत्वार्थसूत्रके भाष्यकारों, वार्तिककारों और टीकाकारोंको उसका अनुसरण करनेके लिए बाध्य होना पड़ा है ।
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3. पाठभेद और प्रर्थान्तरन्यास- सर्वार्थसिद्धि लिखते समय आचार्य पूज्यपादके सामने तत्त्वार्थसूत्रपर लिखा गया अन्य कोई टीका ग्रन्थ या भाष्यग्रन्य था इसका तो स्वयं उन्होंने उल्लेख नहीं किया है किन्तु सर्वार्थसिद्धि परसे इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह लिखते समय उनके सामने एक-दो छोटे-मोटे सूत्रपाठ या टीकाग्रन्थ अवश्य थे और उनमें एक-दो स्थलोंपर महत्वपूर्ण पाठभेद भी थे। ऐसे पाठभेदोंकी चर्चा आचार्य पूज्यपादने दो स्थलों पर की है। प्रथम स्थल है प्रथम अध्यायका 16वाँ सूत्र और दूसरा स्थल है दूसरे अध्यायका 53वाँ सूत्र ।
1. प्रथम अध्यायका 16वाँ सूत्र इस प्रकार है-
बहुबहुविविधानि तानुक्तान् वाणां
तराणाम् ।। 16 ।।
इसमें क्षिप्रके आद अनिःसूत पाठ है किन्तु इस पर आचार्य पूज्यपाद सूचित करते हैं कि 'अपरेषां क्षिनिःसृत इति पाठ: ।' अर्थात् अन्य आचार्यों के मतसे क्षिके बाद अनिःसृतके स्थानपर निःसृत पाठ है ।
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वर्तमान में हमारे सामने दिगम्बर और श्वेताम्बर जितने भी तत्त्वार्थ सूत्र के टीकाग्रन्थ और सूत्रपाठ उपस्थित हैं उनमें से किसीमें भी यह दूसरा पाठ उपलब्ध नहीं होता, इसलिए यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि इनमें से किसी एक टीकाग्रन्थ या सूत्रपाठ आधारसे आचार्य पूज्यपादने इस मतभेद का उल्लेख किया है । तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वातिने अवश्य ही सर्वार्थसिद्धिमान्य 'अनिःसृत' पदको स्वीकार न कर उसके स्थान में 'अनिश्रित' पाठ स्वीकार किया है। इसलिए यह भी शंका नहीं होती कि आचार्य पूज्यपादके सामने तत्त्वार्थभाष्य या तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ था और उन्होंने इस पाठान्तर द्वारा उसकी ओर इशारा किया है। सम्भव यही दिखाई देता है कि सर्वार्थसिद्धि टीका लिखते समय उनके सामने जो टीकाटिप्पणियाँ उपस्थित थीं उनमें से किन्हीं में यह दूसरा पाठ रहा होगा और उसी माघारसे आचार्य पूज्यपादने उस पाठभेदका यहाँ उल्लेख किया है । इतना ही नहीं, किन्तु किसी टीकाग्रन्थ में उसकी संगति भी बिठलायी गयी होगी। यही कारण है कि आचार्य पूज्यपाद केवल पाठभेद का उल्लेख करके ही नहीं रह गये। किन्तु इस पाठको स्वीकार कर लेनेपर उसकी व्याख्या दूसरे आचार्य किस प्रकार करते हैं इस बातका भी उन्होंने 'ते एवं वर्णयन्ति' इत्यादि वाक्य द्वारा उल्लेख किया है ।
2. दूसरे अध्याया 53वाँ सूत्र इस प्रकार है
'औपपादिकचरमोसमयेहासंख्येय वर्षायुषोऽनपत्युः ॥ 53 ||
इसमें 'चरमोलमदेह' पाठ है। इससे यह भ्रम होता है कि क्या चरमशरीरी सभी उत्तम देहवाले होते'
है या कोई-कोई यदि सभी उत्तम देहवाले होते हैं तो उत्तम पदके देनेकी क्या आवश्यकता है और यदि कोई कोई उत्तम देवाले होते हैं तो फिर क्या यह माना जाय कि जो चरमशरीरी उत्तम देहवाने होते हैं केवल वे ही अपवर्त्य आयुवाले होते हैं, अन्य चरमशरीरी नहीं ? बहुत सम्भव है कि इसी दोषका परिहार करने के लिए. किसीने 'चरमदेह' पाठ स्वीकार किया होगा जो कुछ भी हो पूज्यपाद आचार्य के सामने दोनों पाठ थे और उन्होंने 'चरमोतमदेह' पाठको सूत्रकारका मानकर स्वीकार कर लिया और 'चरमदेह' पाठका पाठान्तर के रूप में उल्लेख कर दिया ।
तत्वार्थभाष्यमान्य जो सूत्रपाठ इस समय उपलब्ध होता है उसमें चरमवेहोलमपुरुष' पाठ है। इस परसे कुछ विद्वान् यह शंका करते हैं कि बहुत सम्भव है कि आचार्य पूज्यपादके सामने तत्त्वार्थभाष्य रहा हो और उसके आधारसे उन्होंने सर्वार्थसिद्धि में इस पाठान्तरका उल्लेख किया हो; किन्तु हमें उनके इस कथन में
कुछ भी तथ्यांश नहीं दिखाई देता । कारण, एक तो तत्त्वार्थभाष्य में 'चरमदेह' पाठ ही नहीं है । उसमें 'चरमवेहोत्तमपुरुष' पाठ अवश्य ही उपलब्ध होता है किन्तु इस पाठके विषय में भी उसकी स्थिति धुंधली है। आचार्य सिद्धसेन ने अपनी तत्त्वार्थ भाष्यकी टीका में इस प्रसंगको उठाया है और अन्तमें यही कहा है कि हम नहीं कह सकते कि इस सम्बन्धमें वस्तुस्थिति क्या है।
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सर्वार्थसिद्धि
दूसरे यदि आचार्य पूज्यपादके सामने तत्त्वार्थभाष्यका पाठ उपस्थित होता तो वे 'चरमवेहा' इति वा पाठः' के स्थानमें 'चरमदेहोत्तमपुरुषा इति वा पाठः' ऐसा उल्लेख करते, क्योंकि उन्हें 'चरमोत्तमदेह' इस पाठके स्थान में दूसरा पाठ क्या उपलब्ध होता है इसका निर्णय करना था। ऐसी अवस्था में अधूरे पाठान्तरका भूल कर भी वे उल्लेख नहीं करते ।
स्पष्ट है कि 'क्षिप्रनिःसत' के समान यह पाठान्तर भी आचार्य पूज्यपादको दूसरे टीका-ग्रन्थों में उपलब्ध हुआ होगा और उसी आधारसे उन्होंने यहाँ उसका उल्लेख किया है।
3. अर्थान्तरन्यासका एक उदाहरण हम रचना शैलीके प्रसंगमें अध्याय 4 सूत्र 22 का उल्लेख करते समय दे आये हैं। वहाँ हमने यह संकेत किया ही है कि उक्त सूत्र में पूरे आगमिक अर्थकी संगति बैठती न देख आचार्य पूज्यपादने सूत्र और आगम दोनोंका सुन्दरतापूर्वक निर्वाह किया है। यह प्रथम अर्थान्तरन्यास का उदाहरण है।
4. द्वितीय उदाहरण स्वरूप हम 9वें अध्यायका 11वां सूत्र उपस्थित करते हैं। इसमें वेदनीय निमित्तक 11 परीषह जिन के कही गयी हैं। इस विषयको अधिक स्पष्ट करनेके लिए हम थोड़ा विस्तारके साथ चर्चा करना इष्ट मानेंगे।
परीषहों का विचार छठे गुणस्थानसे किया जाता है, क्योंकि श्रामण्य पदका प्रारम्भ यहींसे होता है, अत: इस गुणस्थानमें सब परीषह होते हैं यह तो ठीक ही है, क्योंकि इस गुणस्यानमें प्रमादाला सद्भाव रहता है और प्रमादके सद्भाव में क्षुधा दिजन्य विकल्प और उसके परिहारके लिए चित्रवृत्तिको उस ओरसे हटाकर धर्म्यध्यानमें लगाने के लिए प्रयत्नशील होना यह दोनों कार्य बन जाते हैं। तथा सातवें गुणस्थानकी स्थिति प्रमाद रहित होकर भी इससे भिन्न नहीं है, क्योंकि इन दोनों गुणस्थानों में प्रमाद और अप्रमादजन्य ही भेद है । यद्यपि विकल्प और तदनुकूल प्रवृत्तिका नाम छठा गुणस्थान है और उसके निरोधका नाम सातवाँ गुणस्थान है तथापि इन दोनों गुणस्थानोंकी धारा इतनी अधिक चढ़ा-उतारकी है जिससे उनमें परीषह और उनके जय आदि कार्योंका ठीक तरहसे विभाजन न होकर ये कार्य मिलकर दोनोंके मानने पड़ते हैं। छठे गुणस्थान तक वेदनीयकी उदीरणा होती है आगे नहीं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि वेदनीयके निमित्तसे जो क्षुधादिजन्य वेदनकार्य छठे गुणस्थान में होता है वह आगे कथमपि सम्भव नहीं। विचारकर देखने पर बात तो ऐसी ही प्रतीत होती है और है भी वह वैसी ही, क्योंकि अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानोंमें जब जीवकी न तो बाह्यप्रवृत्ति होती है और न बाह्यप्रवृत्तिके अनुकूल परिणाम ही होते हैं। साथ ही कषायोंका उदय अव्यक्तरूपसे अबुद्धिपूर्वक होता है, तब वहीं क्षुधादि परीषहोंका सद्भाव मानना कहाँतक उचित है यह विचारणीय हो जाता है। इसलिए यहाँ यह देखना है कि आगेके गुणस्थानों में इन परीषहोंका सद्भाव किस दष्टि से माना गया है।
किसी भी पदार्थका विचार दो दृष्टियोंसे किया जाता है-एक तो कार्य की दृष्टि से और दूसरे
1. यद्यपि वाचक उमास्वातिने 'औपपातिक' सूत्र के प्रत्येक पदका व्याख्यान करते हुए 'उत्तमपुरुष' पदका स्वतन्त्र व्याख्यान किया है और बादमें उपसंहार करते हुए उन्होंने ‘उत्तमपुरुष पदको छोड़कर शेषको 'ही अनपवर्त्य आयुवाले बतलाया है, इसलिए इस परसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 'चरमदेहोत्तमपुरुष' पदके समान केवल 'चरमदेह' पद भी उन्हें स्वयं इष्ट रहा है। किन्तु यहाँ देखना यह है कि वाचक उमास्वा तिने स्वयं सूत्रकार होते हुए भाष्यमें ये दो पाठ किस आधारसे स्वीकार किये हैं। जब उनका यह निश्चय था कि उत्तमपुरुष भी अनपवर्त्य आयुवाले होते हैं तब उपसंहार करते हुए अन्योंके साथ उनका भी ग्रहण करना था। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इससे स्पष्ट विदित होता है कि वाचक उमास्वातिको भी दो पाठ उपलब्ध हुए होंगे और उन्होंने क्रमसे दोनोंका व्याख्यान करना उचित समझा होगा । इस आधारसे वे सूत्रकार तो किसी हालत में हो ही नहीं सकते।
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कारणकी दृष्टिसे । परोषहोंका कार्य क्या है और उनके कारण क्या हैं इस विषयका साङ्गोपाङ्ग ऊहापोह शास्त्रों में किया है। परीवह तथा उनके जयका अर्थ है- बाधा के कारण उपस्थित होनेपर उनमें जाते हुए अपने चित्तको रोकना तथा स्वाध्याय ध्यान आदि आवश्यक कार्योंमें लगे रहना परीवह और उनके जयके इस स्वरूपको ध्यान में रखकर विचार करने पर ज्ञात होता है कि एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही ऐसा है जिसमें बाधा के कारण उपस्थित होनेपर उनमें चित्त जाता है और उनसे चित्तवृत्तिको रोकने के लिए यह जीव उद्यमशील होता है। किन्तु आगे के गुणस्थानों की स्थिति इससे भिन्न है वहाँ वाह्य कारणोंके रहनेपर भी उनमें चित्तवृत्तिका रंचमात्र भी प्रवेश नहीं होता। इतना ही नहीं, कुछ आगे चलकर तो यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि जहाँ न तो बाह्य कारण ही उपस्थित होते हैं और न चित्तवृत्ति ही शेष रहती है। इसलिए इन गुणस्थानों में केवल अन्तरंग कारणोंको ध्यान में रखकर ही परीषहोंका निर्देश किया गया है। कारण भी दो प्रकारके होते हैं एक बाह्य कारण और दूसरे अन्तरङ्ग कारण बाह्य कारणोंके उपस्थित होने का तो कोई नियम नहीं है । किन्हीं को उनकी प्राप्ति सम्भव भी है और किन्हीं को नहीं भी । परन्तु अन्तरङ्ग कारण सबके पाये जाते हैं। यही कारण है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंके ग्रन्थों परषहोंके कारणोंका विचार करते समय मुख्यरूपसे अन्तरङ्ग कारणोंका ही निर्देश किया है इसीसे तत्त्वार्थसूत्र में वे अन्तरंग कारण ज्ञानावरण, वेदनीय, दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय और अन्तरायके उदयरूप कहे हैं, अन्यरूप नहीं । कुल परीवह बाईस हैं। इनमेंसे प्रशा और अज्ञान परीषह ज्ञानावरणके उदय में होते हैं। ज्ञानावरणका उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है, इसलिए इनका सद्भाव क्षीणमोह गुणस्थान तक कहा है । किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि प्रज्ञा और अज्ञानके निमित्तसे जो विकल्प प्रमत्तसंगत जीवके हो सकता है वह अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में भी होता है । आगेके गुणस्थानों में इस प्रकार के विकल्पके न होनेपर भी वहाँ केवल ज्ञानावरणका उदय पाया जाता है, इसलिए वहाँ इन परषहोंका सद्भाव कहा है।
अदर्शनपरीयह दर्शन मोहनीयके उदयमें और अलाभ परीषह अन्तरायके उदय में होते हैं। यह बात किसी भी कर्मशास्त्र के अभ्यासीसे छिपी हुई नहीं है कि दर्शनमोहनीयका उदय अधिक से अधिक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही होता है, इसलिए अदर्शन परीषहका सद्भाव अधिक से अधिक इसी गुणस्थान तक कहा जा सकता है और अन्तररायका उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है, इसलिए अलाभ परीषहका सद्भाव वहाँ तक कहा है । किन्तु कार्यरूप में ये दोनों परीषह भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही जानने चाहिए । आगे इनका सद्भाव दर्शनमोहनीयके उदय और अन्तरायके उदयकी अपेक्षा ही कहा है ।
प्रस्तावना
प्रसङ्गसे यहाँ इस बातका विचार कर लेना भी इष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ बादरसाम्पराय जीवके सब परीषहोंका सद्भाव बतलाते हैं। उन्हें बादरसाम्पराय शब्दका अर्थ क्या अभिप्रेत रहा होगा। हम यह तो लिख ही चुके हैं कि दर्शनमोहनीयका उदय अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक ही होता है, इसलिए अदर्शनपरीषहका सद्भाव अप्रमत्तसंयत गुणस्थानसे आगे कथमपि नहीं माना जा सकता। ऐसी अवस्थामें बादरसाम्पराय का अर्थ स्थूल कषाय युक्त जीव ही हो सकता है। यही कारण है कि सर्वार्थसिद्धि में इस पद की व्याख्या करते हुए यह कहा है कि 'यह गुणस्थानविशेषका ग्रहण नहीं है। तो क्या है? सार्थक निर्देश है। इससे प्रमत्त आदि संयतोंका ग्रहण होता है' ।'
किन्तु तस्याभाष्य में 'मादरसाम्पराये सबै।' इस सूत्रको व्याख्या इन शब्दों में की है---'बावरसाम्यरायसंयते सर्वे द्वाविंशतिरपि परीषहाः सम्भवन्ति ।' अर्थात् बादरसाम्पराय संयतके सब अर्थात् बाईस परीषह ही सम्भव हैं। तस्वार्थभाष्य के मुख्य व्याख्याकार सिद्धसेनगणि हैं। वे तत्वार्थभाध्यके उक्त शब्दोंकी व्याख्या इन शब्दों में करते हैं
1. नेवं गुणस्थान विशेषग्रहणम्। किं तर्हि ? अर्थनिर्देशः तेन प्रमत्तादीनां संयतादीनां ग्रहणम् । स० [अ० 9, सू० 12
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सर्वार्थसिद्धि
'बादरः स्थूलः साम्परायः कषायस्तदुक्यो यस्यासो बादरसाम्परायः संयतः। स च मोहप्रकृतीः कश्चिदुपशमयतीत्युपशमकः । कश्चित् पयतीति अपकः । तत्र सर्वेषां द्वाविंशतेरपि भुवाबीनां परोषहाणामवर्शनान्तानां सम्भवः।'
जिसके कषाय स्थूल होता है वह बादरसाम्पराय संयत कहलाता है। उनमेंसे कोई मोहनीयका उपशम करता है, इसलिए उपशमक कहलाता है और कोई क्षय करता है, इसलिए क्षपक कहलाता है । इसके सभी बाईस क्षुधा आदि परीषहोंका सद्भाव सम्भव है ।
इस व्याख्यानसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणिके अभिप्रायसे तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वातिको यहाँ बादरसाम्पराय' पदसे नौवाँ गुणस्थान ही इष्ट है। प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीने तत्वार्थसूत्रकी व्याख्यामें यही अर्थ स्वीकार किया है। वे लिखते हैं जिसमें साम्पराय-कषायका बादर अर्थात् विशेषरूपमें सम्भव हो
वरसाम्पराय नामक नोवं गुणस्थानमें बाईस परीषह होते हैं। इसका कारण यह है कि परीषहोंके कारणभूत सभी कर्म वहाँ होते हैं।'
'वादरसाम्पराय' पदकी ये दो व्याख्याएँ हैं जो क्रमशः सर्वार्थ सिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यमें उपलब्ध होती हैं। सर्वार्थ सिद्धिकी व्याख्याके अनुसार बादरसाम्पराय पद गुणस्थान-विशेषका सूचक न होकर अर्थपरक निर्देश होनेसे दर्शनमोहनीयके उदय में अदर्शन परीषह होता है इस अर्थकी सङ्गति बैठ जाती है । किन्तु तत्त्वार्थभाष्यकी व्याख्याको स्वीकार करने पर एक नयी अड़चन उठ खड़ी होती है। दर्शनमोहनीयका सत्त्व उपशान्तमोह गुणस्थान तक रहता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि उन्होंने दर्शनमोहनीयके सत्त्वकी अपेक्षा बादरसाम्पराय नामक नौवें गुणस्थान तक अदर्शन परीषह कहा होगा। किन्तु इस मतको स्वीकार करने पर दो नयी आपत्तियां और सामने आती हैं। प्रथम तो यह कि यदि उन्होंने दर्शनमोहनीयके सत्त्वकी अपेक्षा अदर्शन परीषहका सद्भाव स्वीकार किया है तो उसका सद्भाव ग्यारहवें गणस्थान तक कहना चाहिए। दूसरी यह कि 'क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण--' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हुए वह कहते हैं कि 'पञ्चानामपि कर्मप्रकृतीनामुक्या ते परीषहाः प्रादुर्भवन्ति।' अर्थात् पाँच कर्मप्रकृतियोंके उदयसे ये परीषह उत्पन्न होते हैं। सो पूर्वोक्त अर्थ के स्वीकार करने पर इस कथनकी सङ्गति नहीं बैठती दिखलाई देती। क्योंकि एक ओर तो दर्शनमोहनीयके सत्त्वकी अपेक्षा अदर्शन परीषहको नौवें गुणस्थान तक स्वीकार करना और दूसरी ओर सब परीषहोंको पाँच कर्मोके उदयका कार्य कहना ये परस्पर विरोधी दोनों कथन कहाँ तक युक्तियुक्त हैं यह विचारणीय हो जाता है। स्पष्ट है कि सिद्धसेन गणिकी टीकाके अनुसार तत्त्वार्थभाष्यका कथन न केवल स्खलित है अपितु वह मूल सूत्रकारके अभिप्रायके प्रतिकूल भी है, क्योंकि मूल सूत्रकारने इन परीषहोंका सद्भाव कर्मों के उदयकी मुख्यतासे ही स्वीकार किया है। अन्यथा वे अदर्शन परीषहका सदभाव और चारित्रमोहके निमित्तसे होनेवाले नारन्य आदि परीषहोंका सद्भाव उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक अवश्य कहते ।
नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार ये सात परीषह चारित्रमोहनीयके उदयमें होते हैं। सामान्यत: चारित्रमोहनीयका उदय यद्यपि सूक्ष्म साम्परायिक नामक दसवें गुणस्थान तक होता है, इसलिए इन सात परीषहोंका सद्भाव दसवें गुणस्थान तक कहना चाहिए था ऐसी शंका की जा सकती है, परन्तु इनका दसवें गुणस्थान तक सद्भाव न बतलानेके दो कारण हैं। प्रथम तो यह कि चारित्रमोहनीयके अवान्तरभेद क्रोध, मान और मायाका तथा नी नोकषायोंका उदय नौवें गुणस्थानके अमुक भाग तक ही होता है, इसलिए इन परीषहोंका सद्भाव नौवें गुणस्थान तक कहा है। दूसरा यह कि दसवें गुणस्थानमें यद्यपि चारित्रमोहनीयका उदय होता है अवश्य, पर एक लोभ कषायका ही उदय होता है और वह भी अति. सूक्ष्म, इसलिए इनका सद्भाव दसवें गुणस्थान तक न कहकर मात्र नौवें गुणस्थान तक कहा है।
तथा क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तणस्पर्श और मल ये ग्यारह
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प्रस्तावना 33 परीषह वेदनीय कर्मके उदयमें होते हैं । वेदनीय कर्मका उदय जिनके भी होता है, इसलिए, इनका सद्भाव वहाँ तक कहा है ।
इस प्रकार अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में सूत्रकारने जो परीषहाँका सद्भाव कहा है उसमें उनकी दृष्टि कारणको ध्यान में रखकर विवेचन करनेकी ही रही है और इसीलिए सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपादने पहले सूत्रकारकी दृष्टिसे 'एकावर जिने' इस सूषका व्याख्यान किया है। अनन्तर जब उन्होंने देखा कि कुछ अन्य विद्वान् अन्य साधारण मनुष्योंके समान केवली के कारणपरक परीषहोंके उल्लेखका विपर्यास करके भूख-प्यास आदि बाधाओंका ही प्रतिपादन करने लगे हैं तो उन्होंने यह बतानेके लिए कि केवली के कार्यरूपमें ग्यारह परीषह नहीं होते 'न सम्सि' पदका अध्याहार कर उस सूत्र से दूसरा अर्थ फलित किया है। इसमें न तो उनकी साम्प्रदायिक दृष्टि रही है और न ही उन्होंने तोड़-मरोड़कर उसका अर्थ किया है। साम्प्र दायिक दृष्टि तो उनकी है जो उसे इस दृष्टिकोण से देखते हैं। आचार्यों में मतभेद हुए हैं और हैं पर सब मतभेदोंको साम्प्रदायिक दृष्टिका सेहरा बाँधना कहाँ तक उचित है यह समझने और अनुभव करनेकी बात है। आचार्य पूज्यपाद यदि साम्प्रदायिक दृष्टिकोणके होते तो वे ऐसा प्रयत्न न कर सूत्रका ही कायाकल्प कर सकते थे । किन्तु उन्होंने अपनी स्थितिको बिल्कुल स्पष्ट रखा है । तत्त्वतः देखा जाय तो एक मात्र यही उदाहरण उनकी साहित्यिक प्रामाणिकता की कसौटी बन सकता है यह अर्थान्तरन्यासका दूसरा उदाहरण है । इसके सिवा अर्थान्तरन्यासके एक-दो उदाहरण और भी उपस्थित किये जा सकते हैं पर विशेष प्रयोजन न होनेसे उनका यहाँ हमने निर्देश नहीं किया है।
इस प्रकार इन चार उदाहरणोंसे इस बातका सहज ही पता लग जाता है कि आचार्य पूज्यपादने मूल सूत्रपाठ और पाठान्तरोंकी रक्षाका कितना अधिक ख्याल रखा है ।
4. सर्वार्थसिद्धि और तस्वार्थ भाष्य - ऐसा होते हुए भी आचार्य पूज्यपादके ऊपर यह आक्षेप किया जाता है कि उन्होंने उपलब्ध हुए सूत्रपाठ में सुधार और वृद्धि कर सर्वार्थसिद्धिकी रचना की है । सर्वार्थसिद्धि किस कालकी रचना है और तत्वार्थभाध्य किस कालका है यह तो हम आगे चलकर देखेंगे। वहाँ केवल तुलनात्मक दृष्टि से इन दोनोंके अन्तःस्वरूपका पर्यालोचन करना है ।
1. सूत्रपाठ – सर्व प्रथम हम सूत्रपाठको लेते हैं। सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठसे तस्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ में शब्दों के हेरफेरसे या सूत्रों के घटाने-बढ़ानेसे छोटे-मोटे अन्तर तो पर्याप्त हुए हैं किन्तु उन सबका ऊहापोह यहाँ नहीं करना है। जिनमें मौलिक अन्तर हुआ है ऐसे सूत्र तीन हैं। प्रथम स्वर्गकी संख्याका प्रतिपादक सूत्र, दूसरा सानत्कुमार आदि में प्रवीचारका प्रतिपादक सूत्र और तीसरा कालको स्वतन्त्र द्रव्य नाननेवाला सूत्र ।
स्वर्गके प्रतिपादक सूत्र में मौलिक अन्तर यह हुआ है कि सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में 16 कल्योंकी परिगणना की गयी है और तत्वार्थमध्यमान्य सूत्रपाठ में 12 कल्पों की परिगणना की गयी है। इस पर आक्षेप यह किया जाता है कि जब सर्वार्थसिद्धिमग्य सूत्रपाठ में कल्पोपपन्न देवोंके भेद' बारह बतलाये हैं और नामोंकी परिगणना करते समय वे सोलह परिगणित किये गये हैं तब यह माननेके लिए पर्याप्त आधार हो जाता है कि या तो आचार्य पूज्यपादने या इनके पूर्ववर्ती अन्य किसी आचार्यने इस सूत्र को घटा-बढ़ाकर उसे वर्तमान रूप दिया है जब कि तत्त्वायंभाव्यमान्य सूत्रपाठकी स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। इसलिए बहुत सम्भव है कि तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ मूल हो और उसमें सुधार कर उत्तरकाल में सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ निर्मित हुमा हो" ।"
1. देखो पं० सुखलालजीके तत्त्वार्थसूत्रकी भूमिका पृ० 84, 85 2 देखो दो सूत्रपाठ प्रकरण, परिशिष्ट और उसके टिप्पण 3. देखो अ० 3 सू० 2 1 4. इन आक्षेपके लिए देखो पं० सुखलालजीका तत्त्वार्थसूत्र प्रस्तावना 73 से 89 1
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सर्वार्थसिद्धि
यहाँ सर्वप्रथम यह विचार करना है कि क्या उक्त सूत्रके आधारसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ मूल है और उसे सुधार कर या बढ़ाकर सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ निर्मित हुआ है। यह तो स्पष्ट है कि किसी एक पाठमें परिवर्तन किया गया है पर वह परिवर्तन किस पाठ में किया जाना सम्भव है यही विचारणीय है। जैसा कि हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्पराके अनुसार सर्वत्र कल्पोपपन्न देवोंके भेद बारह और कल्प सोलह गिनाये गये हैं। कल्प कल्पोपपन्न देवोंके आवासस्थानकी विशेष संज्ञा है। यदि कल्पोपपन्न देव बारह प्रकारके होकर भी उनके आवासस्थान सोलह प्रकारके माने गये हैं तो इसमें बाधाकी कौन-सी बात है । और इस आधारसे यह कैसे कहा जा सकता है कि सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठमें सुधार किया गया है। यदि सुधार करना ही इष्ट होता तो अध्याय 4 सूत्र तीन में भी बारह' के स्थान में 'सोलह किया जा सकता था। प्रत्युत इसपरसे तो यही कहा जा सकता है कि पूज्यपाद स्वामीको जैसा पाठ मिला एकमात्र उसीकी उन्होंने यथावत् रक्षा की है। दूसरी ओर जब हम तत्त्वार्थभाष्यमान्य पाठकी ओर ध्यान देते हैं तब भी इस सूत्रके आधारसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव प्रतीत नहीं होता। कारण कि वहाँ भी इस सूत्र में घटाबढ़ीका ऐसा प्रबल कारण नहीं मिलता जिससे यह कहा जा सके कि उक्त सूत्र में परिवर्तन किया गया है। दोनों ही परम्पराओंके आचार्य अपनी-अपनी परम्पराकी मान्यतापर दृढ़ हैं, इसलिए इस आधारसे यही कहा जा सकता है कि जिसने उत्तरकाल में रचना की होगी उसी के द्वारा सूत्रों में सुधार करना सम्भव है। दूसरे, सानत्कुमार आदिमें प्रविचारका प्रतिपादक सूत्र है। दोनों में इस सूत्रकी स्थिति इस प्रकार है--
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः। सर्वा० ।
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः द्वयोर्द्वयोः। त० भा० । हम देखते हैं कि तत्त्वार्थभाष्यके अनुसार इस सूत्र में 'द्वयोर्द्वयोः' इतना पद अधिक है जब कि सर्वार्थसिद्धि में इसका सर्वथा अभाव है। इसके पहले दोनों ही परम्पराओं में 'कायप्रवीचाराः आ ऐशानात' यह सूत्र आता है। इस द्वारा सौधर्म और ऐशान कल्प तक प्रवीचारका विधान किया गया है। आगे सर्वार्थसिद्धि के अनुसार चौदह और तत्त्वार्थभाष्यके अनुसार दस कल्प शेष रहते हैं जिनमें यह सूत्र प्रवीचारका विधान करता है। प्रकृत में देखना यह है कि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य इन दोनों में इसकी संगति किस प्रकार बिठलायी गयी है। यह तो स्पष्ट है कि सवार्थसिद्धि में 'द्वयोर्द्वयोः' पद न होनेसे आचार्य पूज्यपादको इसकी व्याख्या करने में कोई कठिनाई नहीं गयी। उन्होंने तो आर्षके अनुसार इसकी व्याख्या करके छुट्टी पा ली। किन्तु तत्त्वार्थभाष्यकारकी स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। उनके सामने 'द्वयोर्द्वयोः' पदके कारण इसकी व्याख्या करते समय यह समस्या रही है कि प्रवीचारके विषय चार और कल्प दस होनेसे इसकी संगति कैसे बिठलायी जाय। फलस्वरूप उन्हें अन्तके चार कल्पोंको दो मानकर इस सूत्रकी व्याख्या करने के लिए बाध्य होना पड़ा है। उन्होंने किसी प्रकार व्याख्या करनेका तो प्रयत्न किया पर इससे जो असंगति उत्पन्न होती है वह कथमपि दूर नहीं की जा सकी है। इससे मालूम पड़ता है कि स्वयं उन्होंने तत्त्वार्थभाष्यके आश्रयसे, इस सूत्रको स्पष्ट करनेकी मनसासे सूत्र में यह पद बढ़ाया है। यहाँ उत्तर विकल्पकी अधिक सम्भावना है।
हमें ऐसे एक दो स्थल और मिले हैं जिनमें तत्त्वार्थभाष्यके आश्रयसे सूत्रोंकी संगति बिठलायी गयी है। उदाहरण स्वरूप 'यथोक्तनिमित्तः' पद लीजिए। यह प्रथम अध्यायके 22वें सूत्र में आया है। इसके पहले एक सूत्रके अन्तरसे वे 'द्विविधोऽवधिः' सूत्र कह आये हैं और इन भेदोका स्पष्टीकरण इस सूत्रके माध्यमें किया है। प्रकृतमें 'ययोक्तनिमित्तः' पदमें आये हुए 'यथोक्त' पद द्वारा उनका संकेत इसी भाष्यकी ओर है। वे इस पद द्वारा कहना चाहते हैं कि दूसरे जिस निमित्तका संकेत हमने 'द्विविषोऽवधि:' सूत्रके भाष्यमें किया है उस निमित्तसे शेष जीवोंके छह प्रकारका अवधिज्ञान होता है। किन्तु उस अवस्था में जब कि सूत्र-रचना पहले हो चुकी थी और भाष्य बादमें लिखा गया है भाष्यकारकी स्थिति सन्देहजनक हो जाती है। और मानना पड़ता है कि तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वातिने प्राचीन सूत्रपाठ में सुधार करनेका प्रयत्न किया है।
तीसरा कालके अस्तित्वको स्वीकार करनेवाला सूत्र है। यह सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यमें इस
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प्रकार उल्लिखित है
प्रस्तावना
कालच । सर्वा० ।
काल इवेत्येके । त० भा० ।
इस द्वारा कालको द्रव्यरूप से स्वीकार किया गया है। किन्तु तस्वार्थ भाव्यकार ऐसा करते हुए भी अन्य आचार्यों के मतसे कालको द्रव्यरूपसे स्वीकार करते हैं, स्वयं नहीं । यही कारण है कि उन्होंने तत्त्वार्थमाध्यमे जहाँ जहाँ द्रव्योंका उल्लेख किया है वहाँ वहाँ पाँच अस्तिकायकार ही उल्लेख किया है और लोकको पाँच अस्तिकायात्क बतलाया है । श्वेताम्बर आगम साहित्य में छह द्रव्योंका निर्देश किया है अवश्य और एक स्थानपर तो तस्वार्थभाव्यकार भी छह द्रव्योंका उल्लेख करते हैं, परन्तु इससे वे कालको प्ररूप मानते ही हैं यह नहीं कहा जा सकता । कारण यह है कि श्वेताम्बर आगम साहित्यमें जहाँ भी छह द्रव्योंका नामनिर्देश किया है वहाँ कालद्रव्य के लिए अद्धासमय' शब्द प्रयुक्त हुआ है 'काल' शब्द नहीं और अद्धासमय शब्दका अर्थ यहाँ पर्याय ही लिया गया है, प्रदेशात्मक द्रव्य नहीं। तस्वत्यभाष्यकार ने भी इसी परिपाटीका निर्वाह किया है। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्रके जिन सूत्रों में 'काल' शब्द आया है वहाँ तो उनकी व्याख्या करते हुए 'काल' शब्दका ही उपयोग किया है किन्तु जिन सूत्रोंमें 'काल' शब्द नहीं आया है और वहाँ 'काल'का उल्लेख करना उन्होंने आवश्यक समझा तो 'काल' शब्दका प्रयोग न कर 'अद्धा समय' शब्दका ही प्रयोग किया है।
तत्त्वार्थभाष्य और उस मान्य सूत्रपाठकी ये दो स्थितियाँ है जो हमें इस निष्कर्षपर पहुँचाने में सहायता करती हैं कि प्रारम्भ में तो 'कालइच' इस प्रकार के सूत्रका ही निर्माण हुआ होगा, किन्तु बाद में वह बदल कर 'कामश्चेत्येके' यह रूप ले लेता है।
2. शैली – यहाँ प्रसंगसे सूत्र रचनाकी शैलीके विषय में भी दो शब्द कहने हैं। सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठको देखते हुए तो यह कहा जा सकता है कि परिशेषन्यायसे उसमें कोई भी बात नहीं कही गयी है। वह सीधी सूत्र और उनके पदोंकी व्याख्या करते हुए आगे बढ़ती है। इसके विपरीत दूसरी ओर जब हम तत्त्वार्थभाष्यको देखते हैं तो उसमें हमें कोई एक निश्चित शैलीके दर्शन नहीं होते हैं। कहीं वे परिशेषन्यायको स्वीकार करते हैं और कहीं नहीं । जैसे 'शेषाणां संमूर्छनम्' और 'अशुभः पापस्य' ये दो सूत्र सूत्र परिशेषन्यायसे नहीं कहे जाने चाहिए थे फिर भी उन्होंने इनको स्वतन्त्र सूत्र मान लिया है और 'शेषास्त्रिवेदा:' तथा 'अतोऽन्यत्पापम्' इनको छोड़ दिया। ऐसी अवस्था में यह कहना कि आचार्य पूज्यपादने तत्त्वार्थ भाष्यको देखकर इन्हें स्वतन्त्र सूत्रों का रूप दिया है युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । वस्तुतः तत्त्वार्थभाष्यकार अपनेको ऐसी स्थितिमें नहीं रख सके हैं जिससे उनके विषय में कोई निश्चित रेखा खींची जा सके। एक दूसरे अध्याय के शरीर प्रकरणको ही लीजिए। उसमें वैक्रियिक शरीर की उत्पत्तिके दोनों प्रकार तो सूत्रों में दिखा दिये, किन्तु जब तेजस शरीरका प्रसंग आया तो उसकी उत्पत्तिके प्रकारको सूत्र में दिखलाना उन्होंने आवश्यक नहीं समझा। क्या इस प्रकरणको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह असंगति मूलसूत्रकारको रुचिकर प्रतीत रही होगी । तत्त्वार्थ भाष्यके अन्य सूत्रों में भी ऐसी असंगतियाँ दीख पड़ती हैं। चौथे अध्याय में लौकान्तिक देवोंका प्रतिपादक सूत्र आता है उसमें लोकान्तिक देवोंके भेदका प्रतिपादन करते समय नौ भेद दरशाये हैं, किन्तु तस्वार्थभाष्य में 'एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा' इन शब्दों द्वारा वे आठ ही रह गये हैं।
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ये भी ऐसे उदाहरण हैं जो तस्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठकी स्थिति में सन्देह उत्पन्न करते हैं और यह मानने के लिए बाध्य करते हैं कि सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ पुराना है और उसमें ऐच्छिक परिवर्तन कर तत्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठकी रचना की गयी है।
3. पौर्वापर्य विचार - पिछले प्रकरणसे यद्यपि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यकी स्थिति बहुत कुछ
1. सर्व पञ्चत्वमस्तिकायावरोधात् । अ० 1, सू० 35। पञ्चास्तिकायो लोकः । अ० 3, सू0 6 1 पञ्चास्तिकायात्मकम् । अ० 9, सू० 7 1 2 षट्त्वं षट् द्रव्यावरोधात् । अ० 1, सू० 35। 3. अ० 5 सू० 11
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सर्वार्थसिद्धि
स्पष्ट हो जाती है। तथापि कुछ अत्युपयोगी विषयोंपर प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है; क्योंकि अन्तमें हमें यह देखना है कि इनकी रचनाकी आनुपूर्वी क्या है। इस प्रकरणको विशेष स्फूट करनेके लिए सर्वप्रथम हम समान स्थलोंका ऊहापोह करेंगे और उसके बाद उन स्थलोंको स्पर्श करेंगे जिससे इनके पौर्वापर्य के ऊपर प्रकाश पड़ता है; क्योंकि सर्वप्रथम हमें यह दिखलाना है कि इन दोनों ग्रन्थों की स्थिति ऐसी है कि किसी एकको सामने रखकर दूसरा लिखा गया है और अन्त में यह विचार करना है कि यह अनुसरणकी प्रवृत्ति किसमें स्वीकार की गयी है। सर्वप्रथम प्रथम अध्यायका प्रथम सूत्र ही लीजिए। इसमें सर्वार्थसिद्धि में यह वाक्य आता है
एतेषां स्वरूप लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद्विस्तरेण निर्वेक्ष्यामः । यही वाक्य तत्त्वार्थभाष्यमें कुछ शब्दोंके हेर-फेरके साथ इन शब्दों द्वारा स्फूट किया गया है.
तं पुरस्ताल्लक्षणतो विधानतश्व विस्तरेणोपदेक्ष्यामः । आगे भी यह सादृश्य अन्त तक देखनेको मिलता है । यथा--- सर्वार्थसिद्धि
तत्त्वार्थभाष्य तत्त्वार्थश्च वक्ष्यमाणो जीवादिः 1.2। तत्त्वानि जीवादीनि वक्ष्यन्ते । 121 प्रशमसंवेगानुकंपास्तिक्याघभिव्यक्तिलक्षणं
तदेवं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिप्रथमम् ।
12।व्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन मिति। 1.21 तत्त्वार्यश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमित्युक्तम् । तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमित्युक्तम् । अथ कि तत्त्वमित्यत इदमाह--उत्थानिका 1,41 | तत्र कि तत्त्वमिति । अत्रोच्यते-उत्थानिका। 1,41
तद्यथा-नामजीवः स्थापनाजीवो द्रव्यजीवो। तद्यथा-नामजीवः स्थापनाजीवो द्रव्यजीवो भावजीव इति चतुर्धा जीवशब्दार्थो न्यस्यते 15। | भावजीव इति ।
151 काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमिति यः काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यमाना स्थापना।
1,51 | स्थाप्यते जीव इति स स्थापनाजीवः। 151 किंकृतोऽयं विशेषः ? वक्तृविशेषकृतः । किंकृत: प्रतिविशेष इति ? अत्रोच्यतेत्रयो वक्तारः सर्वज्ञस्तीर्थकर इतरो वा श्रुतके वली | वक्तृविशेषावै विध्यम् । यद्भगवद्भिः सर्वज्ञैः सर्वआरातीयश्चेति । तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणा परमा- दशभिः परमर्षभिरहद्भिः तत्स्वाभाव्यात् परमशुभस्य चिन्यकेवलज्ञानविभूति विशेषेण अर्थत आगम च प्रवचनप्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थकरनामकर्मणोऽनु। उद्दिष्टः । तस्य प्रत्यक्षदर्शित्वात्प्रक्षीणदोषत्वाच्च | भावादुक्तं भगवच्छिष्यरतिशयद्भिरुत्तमातिशयवाग्बुप्रामाण्यम् । तस्य साक्षाच्छिष्यर्बुद्ध्यतिशयद्धियुक्तगण- |द्धिसंपन्नगणधरब्धं तदङ्गप्रविष्टम् । गणधरानन्तर्याधरैः श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्थरचनमङ्गपूर्वलक्षणम् । | दिभिस्त्वत्यंतविशुद्धोगमैः परमप्रकृष्टवाङ्मतिशक्ति तत्प्रमाणम्, तत्प्रामाण्यात् । आरातीयः पुनराचार्यैः | भिराचार्य: कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणा कालदोष.त्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थं दशवै- | मनुग्रहाय यत्प्रोक्तं तदङ्गबाह्यमिति । 120 । कालिकाद्युपनिबद्धम्।
1,20।। यहाँ हमने इस विषयको स्पष्ट करनेके लिए थोडेसे उदाहरण ही उद्धृत किए हैं । आगे उन स्थलोंको स्पर्श करना है जो सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यके पौर्वापर्यको स्पष्ट करनेमें सहायता करते हैं।
प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीने सर्वार्थ सिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य इन मेंसे पहले कौन और बादमें कौन लिखा गया इसका विचार करते हुए शैलीभेद, अर्थविकास और साम्प्रदायिकता इन तीन उपप्रकरणों द्वारा इस विषयपर प्रकाश डाला है और इन आधारोंसे तत्त्वार्थभाष्यको प्रथम ठहरानेका प्रयत्न किया है।
प्रज्ञाचक्ष पं० सुखलालजीके कथनानुसार हम मान लें कि सर्वार्थसिद्धिकी शैली तत्त्वार्थभाष्यकी शैलीकी अपेक्षा विशेष विकसित और विशेष परिशीलित है। साथ ही यह भी मान लें कि सर्वार्थ सिद्धि में व्याकरणकी दृष्टिसे अर्थविकासके स्पष्ट दर्शन होते हैं। तथापि इन आधारोंसे तत्त्वार्थभाष्यको पहलेकी और सर्वार्थसिद्धिको बादकी रचना घोषित करने का प्रयत्न करना संयुक्तिक प्रतीत नहीं होता। आचार्य पूज्य
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प्रस्तावना
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पादका व्याकरणके ऊपर लिखा गया जैनेन्द्र व्याकरण' प्रसिद्ध है। उन्होंने न्यायके ऊपर भी ग्रन्थरचना की थी यह भी धवला टीकाके उल्लेखसे विदित होता है। ऐसी अवस्थामें उनके द्वारा रची गपी सर्वार्थसिद्धि में इन विषयोंका विशद और स्पष्ट विवेचन होना स्वाभाविक है। किन्तु वाचक उमास्वातिकी स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । वे मुख्यतया आगमिक विद्वान् थे। उनकी अब तक जितनी रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं वे श्वेताम्बर आगम परिपाटीको लिए हुए ही हैं। रही कारण है कि उन्होंने तत्वार्थभाष्य में व्याकरण और दर्शन विषयका विशेष ऊहापोह नहीं किया है।
उनका तीसरा आक्षेप साम्प्रदायिकताका है। पण्डितजीने सर्वार्थसिद्धि में प्रतिपादित ऐसे चार विषय चुने हैं जिनमें उन्हें साम्प्रदायिकता की गन्ध आती है। वे लिखते हैं कि 'कालतत्त्व' केवलिकवलाहार, अचेलकत्व और स्त्रीमोक्ष जैसे विषयों के तीव्र मतभेदका रूप धारण करनेके बाद और इन बातोंपर साम्प्रदायिक आग्रह बंध जानेके बाद ही सर्वार्थ सिद्धि लिखी गयी है, जब कि भाष्यमें साम्प्रदायिक अभिनिवेशका यह तत्त्व दिखाई नहीं देता।
प्रकृतमें इस विषयपर विचार करनेके पहले पण्डितजी ऐसा लिखनेका साहस क्यों करते हैं इस बात का विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है।
भगवान् महावीर स्वामी के मुक्तिलाभ करने पर जो पाँच श्रुतकेवली हुए हैं उनमें अन्तिम भद्रबाहु थे। इनके समय में उत्तर भारत में बारह वर्षका दुभिक्ष पड़ा था। इससे संघसहित भद्रबाहु दक्षिणकी ओर विहार कर गये थे। इस दुभिक्षका उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा भी करती है और साधुसंघके समुद्र के समीप जाकर बिखर जानेकी बात स्वीकार करती है। उस समय भद्र बाहुके मुख्य शिष्य मौर्य चन्द्रगुप्त भी उनके साथ गये थे और वहाँ पहुँचते-पहुँचते आयु क्षीण हो जानेसे भद्रबाहुने वहीं समाधि ले ली थी। किन्तु कुछ साधु श्रावकोंके विशेष अनुरोधवश पटना ही रह गये थे और कालान्तर में परिस्थितिवश उन्होंने वस्त्र स्वीकार कर लिया था, जिससे जैन परम्परा में श्वेताम्बर संघकी उत्पत्ति मानी जाती है। जब बारह वर्षका दुर्भिक्ष समाप्त हुआ तब कुछ साधु पुन: पटना लौट आये। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार 'भद्रबाहु उस समय नेपालकी तराई में थे और बारह वर्षकी विशेष तपश्चर्या करने में लगे हुए थे । साधुसंघने भद्रबाहुको पटना बुलाया, किन्तु वे नहीं आये जिससे उन्हें संघबाह्य करनेकी धमकी दी गयी और किसी प्रकार उन्हें शिष्य समुदायको पढ़ानेके लिए राजी कर लिया गया। स्थूलभद्रने अंगज्ञान उन्हींसे प्राप्त किया है। यदि श्वेताम्बर सम्प्रदायके इस कथनको सत्य मानकर चलें तब भी श्वेताम्बर सम्प्रदायका अपनी परम्पराको स्थूलभद्रसे स्वीकार करना और पटना वाचनामें भद्रबाहुका सम्मिलित न होना ये दो वातें ऐसी हैं जो उस समय जैनसंघ में हुए किसी बड़े भारी विस्फोटका संकेत करती हैं। स्पष्ट है कि उस समयकी वाचनाको अखिल जैनसंघका प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं था और कालान्तर में जो अंगसाहित्य संकलित और लिपिबद्ध हुआ है वह सवस्त्रसाधुको जैन परम्परा में प्रतिष्ठित करनेकी दृष्टि से ही हुआ है। इस समय जो श्वेताम्बर अंग साहित्य उपलब्ध है वह लगभग भगवान महावीर के मोक्ष-गमनके एक हजार वर्षके बादका ही संकलन है । सोचनेकी बात है कि जब भद्रबाहु के काल में ही प्रथम वाचना हुई थी तब उसे उसी समय पुस्तकारूढ़ करके उसकी रक्षा क्यों नहीं की गयी? घटनाक्रमसे विदित होता है कि उस समय श्वेताम्बर संघके भीतर ही तीव्र मतभेद रहा होगा और एक दल यह कहता होगा कि संघभेदकी स्थिति में भी अंगसाहित्यमें परिवर्तन करना इष्ट नहीं है। बहत सम्भव है कि यदि उस समय श्वेताम्बर अंग-साहित्य संकलित होकर पुस्तकारूढ़ किया जाता तो उसका वर्तमान में रूप ही कुछ दूसरा होता।
यद्यपि श्वेताम्बर अंगसाहित्यमें ऐसे भी उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं जो नग्नताके समर्थक हैं। किन्तु
1. सचेल दलके भीतर तीव्र मतभेदकी बात प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी भी स्वीकार करते हैं । वे लिखते हैं... मथुराके बाद बलभीमें पुनः श्रुतसंस्कार हुआ जिसमें स्थविर या सचेल दलका रहा सहा मतभेद भी नाम शेष हो गया।' देखो तत्त्वार्थसूत्र प्रस्तावना पृ० 30 ।
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सर्वार्थसिद्धि
इन उल्लेखोंको उसकी प्रामाणिकताकी कसौटी नहीं माना जा सकता। वस्तुतः ये परिस्थितिवश स्वीकार किए गये हैं। प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी इस स्थितिसे अनभिज्ञ हों ऐसी बात नहीं है। वे जानते हुए भी किसी कारणवश इस स्थितिको दृष्टिओझल करनेके यत्न में हैं और यह घोषित करनेका प्रयत्न करते हैं कि श्वेताम्बर अंगश्रुतमें अचेलकत्व समर्थक वाक्य ही भगवान महावीरकी परम्पराके पूरे प्रतिनिधित्वके सूचक हैं ।।।
यह सत्य है कि श्रमण परम्परा में अचेलकत्व और सचेलकत्व दोनोंको स्थान रहा है और यह भी सत्य है कि अचेलकत्व उत्सर्ग धर्म और सचेलकत्व अपवाद धर्म माना गया है। हमें दिगम्बर परम्पराके साहित्यमें भी ऐसे उल्लेख उपलब्ध होते हैं जिससे इस तथ्यकी पुष्टि होती है । किन्तु वहाँ अचेलकत्वसे तात्पर्य मुनिधर्मसे है और सचेलकत्वसे तात्पर्य गृहस्थधर्म या श्रावकधर्म से है। श्रावकधर्म मुनिधर्मका अपवादमार्ग है । जहाँ गृहस्थ सब प्रकारकी हिंसा, असत्य, स्तेय और अब्रह्मका परिहार कर मुनि होता है वहाँ उसे सब प्रकारके परिग्रहका परिहार करना भी आवश्यक होता है। श्वेताम्बर अंगश्रुत और प्रकीर्णक साहित्यमें वस्त्र और पात्रके स्वीकार करनेको भी संयमका साधन माना गया है, किन्तु संयमका साधन वह हो सकता है जो शरीर की सुविधा के लिए आवश्यक न होकर मात्र प्राणिपीड़ा परिहारके लिए स्वीकार किया जाता है । किन्तु वस्त्र और पात्र प्राणिपीड़ा परिहारके लिए स्वीकार किए जाते हैं यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि इन साधनोंसे उक्त कार्य दृष्टिगोचर नहीं होता। दूसरे इन्हें उक्त कार्यका अनिवार्य अंग मानकर चलने पर नग्नता और पाणिपात्रत्वका विधान करना नहीं बन सकता है। किन्तु हम देखते हैं कि श्वेताम्बर आगम में अचेलत्व और पाणिपात्रत्वका भी विधान है, अत: वस्त्र और पात्र उन्हीं के मतसे संयमके उपकरण नहीं हो सकते। एक चर्चा उत्सर्ग और अपवादलिंगकी की जाती है। यह कहा जाता कि नग्नता और पाणिपात्रत्व उत्सर्ग लिंग है, किन्तु इसका अपवाद भी होना चाहिए और अपवादरूप में ही वस्त्र और पात्र स्वीकार किये जाते हैं। हम मानते हैं कि प्रत्येक उत्सर्गका अपवाद होता है और यह व्यवस्था श्रमण परम्पराने भी स्वीकार की है। तभी तो वह मुनिधर्म और गृहस्थधर्म इन इन दो भेदों का निर्देश करती है। मुनिधर्म उत्सर्ग लिंग है और गृहस्थधर्म उसका अपवाद है। इसलिए वस्त्र और पात्रका स्वीकार मुनि-आचारका अंग नहीं बन सकता है । भले ही दुर्भिक्षके समय ऐसी परिस्थिति रही है जिससे उस समय उत्तर भारत में जो साधु रह गये थे उन्हें वस्त्र और पात्र स्वीकार करने पड़े थे। इतना ही नहीं, उन्हें कारणवश दण्ड भी स्वीकार करना पड़ा था । किन्तु इन्हें साधुका चिह्न मान लेना मुनि-मार्गके विरुद्ध है। यह हम पहले ही बतला आये हैं कि जो कमजोरीवश वस्त्रादिकको स्वीकार करते हैं वे श्रावक होते हैं । उनके परिणाम मुनिधर्म के अनुकूल नहीं हो सकते।
इस स्थितिके होते हुए भी आग्रहवश श्वेताम्बर अंगश्रुतमें वस्त्र, पात्रादिको साधुके अंग मानकर उनके जिनकल्प और स्थविरकल्प ये दो भेद कर दिए गए हैं। इस कारण प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीको भी उसकी पुष्टि के लिए बाध्य होना पड़ा है । अन्यथा उन्हें जिन तथ्यों के निर्देश में साम्प्रदायिकताकी गन्ध आती है उन्हें वे न केवल तात्त्विक दृष्टिसे स्वीकार करते, अपितु वे परिस्थितिवश श्रमण परम्परामें हुई एक बहुत बड़ी गलतीका परिहारकर आगेका पथ प्रशस्त करने में सहायक होते ।
यह हम पहले संकेत कर आये हैं कि पण्डितजीने सर्वार्थ सिद्धि मेंसे ऐसी चार बातें चुनी हैं जिनका निर्देश वे साम्प्रदायिक कोटिका मानते हैं। सर्वार्थसिद्धि में निर्णायकरूपसे काल तत्त्वका विधान किया गया है जब कि तत्त्वार्थभाष्य में मतविशेषके रूप में उसका उल्लेख है। सर्वार्थसिद्धि केवलिकवलाहार और स्त्री-मुक्ति का निषेधकर नाग्न्यको स्वीकार करती है जब कि तत्त्वार्थभाष्य परीषहोंके प्रसंगसे नाग्न्यको स्वीकार कर वस्त्र, पात्र और स्त्री तीर्थंकरका भी विधान करता है। सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यकी यह स्थिति है जिस कारण पण्डितजीने सर्वार्थसिद्धि के विषय में अपना उक्त प्रकारका मत बनाया है और इस आधारसे तत्त्वार्थभाष्यको सर्वार्थसिद्धिसे प्राचीन सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। इस विषय में पण्डितजीका अभिमत है कि
1. प्रज्ञाचक्ष पं० सुखलालजीके लेखों का भाव । देखो, तत्त्वार्थसत्र प्रस्तावना पृ० 291
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प्रस्तावना
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'साम्प्रदायिक अभिनिवेश बढ़ जानेके बाद ही सर्वार्थसिद्धि लिखी गयी थी जब कि तत्त्वार्थभाष्य में ऐसे अभिनिवेशका सर्वथा अभाव है।'
__ यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि जैन परम्परा में साधुओंने वस्त्र और पात्र किस परिस्थिति में स्वीकार किये थे और यह भी उल्लेख कर आये हैं कि श्वेताम्बर अंगश्रुतकी रचना पाँचवीं शताब्दी के वाद हई है। अतएव यह भी सुनिश्चित है कि तत्त्वार्थभाष्य उसके बाद ही किसी समय लिखा गया होगा, क्योंकि पण्डितजीके ही शब्दोंमें उन्होंने (तत्त्वार्थभाष्यकारने) तत्त्वार्थकी रचनाके आधाररूप जिस अंग अनंगश्रुतका अवलम्बन किया था वह पूर्णतया स्थविरपक्षको मान्य था।' इस अभिप्रायसे उक्त कथनकी पुष्टि होती है ।
__ साधारणत: यह मतभेद श्वेताम्बरीय अंगश्रुतके पुस्तकारूढ़ हो जानेके बाद ही उग्ररूप में प्रकट होने लगा था; क्योंकि जैन परम्पराके कहे जानेवाले अंगश्रुत जैसे महत्त्वपूर्ण साहित्य में सवस्त्र मुक्ति और स्त्रीमुक्ति जैसे विषयका समावेश होना पुरानी परम्पराको ही नष्ट-भ्रष्ट करनेवाली घटना थी। इस काल में एक ओर जहाँ साम्प्रदायिक अभिनिवेश में आकर उक्त बातोंका विधान किया जाने लगा था वहाँ दूसरी ओर तात्त्विकदृष्टि से उसका निषेध करना और दर्शनमोहनीयके बन्धका कारण बतलाना अनिवार्य हो गया था। सर्वार्थसिद्धिकारने यह कार्य किया है और दृढ़ताके साथ किया है। वस्तुत: उस कालमें तात्त्विक पक्षकी रक्षाका भार उनपर था और उन्होंने उसका सुन्दरतापूर्वक निर्वाह भी किया है।
ऐसी अवस्था में हमें सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यके पौर्वापर्यका विचार अन्य प्रमाणोंके आधारसे करना चाहिए। शैलीभेद, अर्थविकास और साम्प्रदायिकताके आधारसे इसका निर्णय करना गौण है। अत: आइए, अन्य प्रमाणों के प्रकाश में इस तत्त्वका निर्णय किया जाय ।
___इस समय तत्त्वार्थभाष्यपर मुख्यतया प्रथम दो टीकाएँ उपलब्ध होती हैं...--प्रथम हरिभद्रकी टीका और दूसरी सिद्ध सेनगणिकी टीका। आचार्य हरिभद्र और सिद्धसेनगणि समकालीन या कुछ आगे पीछेके होते हुए भी भट्ट अकलंक देवके बादमें हुए हैं। इतना ही नहीं सिद्ध सेनगणिने तो भट्ट अकलंक देवकी कृतियोंका भरपूर उपयोग भी किया है यह उनकी टीकाके देखनेसे भी विदित होता है। किन्तु प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी इस मतसे सहमत होते हुए भी दूर चले जाते हैं । वे तत्त्वार्थसूत्रकी भूमिका पृ० 96 में लिखते हैं
किसी-किसी स्थलपर एक ही सूत्रके भाष्यका विवरण करते हुए वे पाँच-छह मतान्तर निर्दिष्ट करते हैं, इससे ऐसा अनुमान करनेका कारण मिलता है कि जब सिद्धसेनने वृत्ति रची तब उनके सामने कमसे कम तत्त्वार्थ सूत्रपर रची हुई पांच टीकाएं होनी चाहिए; जो सर्वार्थ सिद्धि आदि प्रसिद्ध दिगम्बरीय तीन व्याख्याओंसे पृथक् होंगी ऐसा मालूम पड़ता है; क्योंकि राजवार्तिक और श्लोकवातिककी रचनाके पहले ही सिद्धसेनीय वृत्तिका रचा जाना बहुत सम्भव है; कदाचित् उनसे पहले यह रची गयी हो तो भी इसकी रचनाके बीच में इतना तो कमसे कम अन्तर है ही कि सिद्धसेनको राजवातिक और श्लोकवातिकका परिचय मिलनेका प्रसंग ही न आया।'
___ यहाँ हमें सर्वप्रथम पण्डितजीके इस वक्तव्यको आलोचना करनी है और इसके बाद देखना है कि क्या सिद्धसेनगणिकी टीका राजवातिकका आलोडन किये बिना लिखी गयी थी।
पण्डितजीने सर्वप्रथम सिद्धसेनगणिकी अध्याय पाँच सूत्र तीनकी टीकाके आधारसे तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गयी पाँच-छह स्वतन्त्र टीकाओंका अनुमान किया है इस आधारसे हम इसे ठीक मान लेते हैं । तथापि इससे यह निष्कर्ष कैसे निकाला जा सकता है कि सिद्ध सेनगणिने तत्त्वार्थवातिकका आलोडन किये बिना ही अपनी टीका लिखी थी। इससे तो केवल इतना ही पता लगता है कि उनके सामने और भी कई टीकाएँ थीं जो नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्रके कई पाठ प्रस्तुत करती थीं। यह स्वतन्त्र विषय है और इसपर स्वतन्त्र
1. हरिभद्रकी टीका तीन लेखकोंने पूरी की है ऐसा प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी तत्त्वार्थसूत्रकी भूमिका पृ० 95 में सूचित करते हैं और टीकाके देखनेसे यह मत समीचीन प्रतीत होता है।
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सर्वार्थसिद्धि
रूपसे ही विचार होना चाहिए कि सिद्ध सेनगणिके सामने तत्त्वार्थभाध्यपर अपनी टीका लिखते समय तत्त्वार्थवार्तिक था या नहीं और तत्काल हमें प्रसंगोचित इसी बातका विचार करना है ।
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इसमें सन्देह नहीं कि सिद्धसेन्गणि बहुत विद्वान् थे। उन्होंने अपनी टीका में तत्वार्थ सूत्र के अनेक पाठान्तरों, मत-मतान्तरों, ग्रन्थों, आचायों और प्रमाणोंका उल्लेख किया है, जिनसे अनेक ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है । इस प्रसंगसे वे भट्ट अकलंक देवके सिद्धिविनिश्चय और तत्त्वार्थ वार्तिकको भी नहीं भूले हैं। अध्याय 1 सूत्र 3 की टीका में सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं
' एवं कार्यकारण संबन्धः समजाय परिणामनिमित्तनियतका विरूपः सिद्धिविनिश्चयसृष्टिपरीक्षातो योजनीयो विशेषार्थिना दूषणद्वारेणेति ।'
भट्ट अकलंक देवके उपलब्ध साहित्य में सिद्धिविनिश्चय अन्यतम दर्शनप्रभावक ग्रन्थ है और उसमें सृष्टिपरीक्षा प्रकरण भी उपलब्ध होता है। इससे निश्चित होता है कि यह उल्लेख इसी सिद्धिविनिश्चयका है। हमने तत्त्वार्थवार्तिक के साथ भी सिद्धिसेनगणिकी उक्त टीकाका तुलनात्मक अध्ययन किया है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सिद्धिसेनगणिके सामने तस्वार्थभाष्यपर अपनी प्रसिद्ध टीका लिखते समय तत्त्वार्थपातिक अवश्य था। तुलनाके लिए देखिए-
'अर्थवशाद् विभक्तिपरिणामो भवति । तद्यथा— उच्चानि देवदत्तस्य गृहाण्यामन्त्रयस्वनम् । देववत्तमिति गम्यते ।' -तस्वार्थातिक अ० 1 सू० 7
'अर्थवशाश्च विभक्तिपरिणामः उच्चगृहाणि देवदत्तस्यामन्त्रयत्वनमिति ।' - सि० डी० उत्पानिका इलोक 6 को टीका
इसी प्रकार समानता सूचक और भी वाक्य उपलब्ध होते हैं जिनका निर्देश पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अनेकान्त वर्ष 3 किरण 11 में सिद्धसेन के सामने सर्वार्थसिद्धि और राजनातिक लेख में किया है । इन समानता सूचक वाक्योंके अतिरिक्त सिद्धसेनगणकी टीका में कुछ ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जिनके आधारसे उसकी स्थिति तस्यार्थवातिकके बाद स्थिर होने में विशेष सहायता मिलती है यथा-तत्त्वार्थवार्तिक में नरक के कारणोंकी व्याख्या करते हुए यह वाक्य आता है
'बारम्भाः परिग्रहा यस्य स बह्वारम्भपरिग्रहः
इसी बातको सिद्ध सेनगणि मतभेदके साथ इन शब्दों में व्यक्त करते हैं
'अपरे ब्रुवते --- बह्वारम्भाः परिग्रहा यस्यासौ बह्वारम्भपरिग्रहः ।
इस पदकी व्याख्या सर्वार्थसिद्धि में भी उपलब्ध होती है। इसलिए इसपर से यह कहा जा सकता है। कि सिद्धसेन गणिने यह मतभेद सर्वार्थसिद्धिको लक्ष्य में रखकर व्यक्त किया होगा । किन्तु सर्वार्थसिद्धि में उक्त पदके किये गये विग्रहसे पूर्वोक्त विग्रहमें मौलिक अन्तर है। सर्वार्थसिद्धि में यह विग्रह इस प्रकार उपलब्ध होता है-
'बहव आरम्भपरिग्रहा यस्य स बद्धारम्भपरिग्रहः ।
किन्तु सिद्धसेनमणिकी टीका इस विषय में तत्त्वार्थवातिकका अनुसरण करती है, सर्वार्थसिद्धिका नहीं। अतएव इसपरसे यह माननेके लिए वाध्य होना पड़ता है कि सिद्धसेनगणिको यहाँपर 'अपरे पदसे तत्त्वार्थवार्तिककार अभिप्रेत रहे हैं।
सिद्धसेन गणिको टीका में ऐसे और भी पाठ' या मतभेदके उल्लेख उपलब्ध होते हैं जो तस्वार्थवार्तिककी ओर संकेत करते हैं ।
इससे इस बातके स्पष्ट होते हुए भी कि सिद्ध गणिके सामने तत्त्वार्थमयपर अपनी टीका लिखते
1. इसके लिए प्रथम सूत्रकी उत्थानिका व अध्याय 6 सूत्र 16, 17, 18 आदि देखिए ।
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प्रस्तावना
समय तत्त्वार्थवातिक उपस्थित था, यहाँ तत्त्वार्थभाष्यकी उत्तरावधि निश्चित करनी है और इसके लिए हमें तत्त्वार्थभाष्य के साथ तत्वार्थवातिकका तुलनात्मक विचार करना है।
प्रायः यह तो सभी मनीषियोंने स्वीकार किया है कि तत्त्वार्थवार्तिक सर्वार्थसिद्धिको पचा कर लिखा गया है और इस बातके भी स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि तत्त्वार्थभाष्य तत्त्वार्थवातिकके पहलेकी रचना होनी चाहिए। इसके लिए हमें अन्यत्र प्रमाण खोजनेकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु स्वयं तत्त्वार्थवातिक इसका साक्षी है। सर्वप्रथम तत्त्वार्थवातिककी उत्थानिकाको ही लीजिए। तत्त्व.र्थसूत्रकी रचना किस निमित्तसे हुई है इस विषय में सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य में व्याख्याभेद है। सर्वार्थसिद्धि में स्वीकार किया गया है कि कोई भव्य मुनियोंकी सभा में बैठे हुए आचार्यवर्यसे प्रश्न करता है कि भगवन् ! आत्माका हित क्या है ? आचार्यवर्य उत्तर देते हैं कि 'मोक्ष' । वह पुनः प्रश्न करता है कि इसकी प्राप्तिका उपाय क्या है और इसीके उत्तर स्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी रचना हुई है। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य में यह उत्थानिका दूसरे प्रकारसे निर्दिष्ट की गयी है। वहाँ बतलाया है कि इस लोक में मोक्षमार्गके बिना हितका उपदेश होना दुर्लभ है, इसलिए मोक्षमार्गका उपदेश करते हैं । अब इन दोनों उत्थानिकाओंके प्रकाश में तत्त्वार्थवार्तिक की उत्थानिकाको पढ़िए । देखनेसे विदित होगा कि इसमें क्रमसे सवार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य इन दोनोंकी उत्थानिकाओंका स्पष्टत: निर्देश किया है। यही नहीं इस में तत्त्वार्थभाष्यको उत्थानिकाका निर्देश 'अपरे' पदसे प्रारम्भ किया है। स्पष्ट है कि तत्त्वार्थ वार्तिककार सर्वार्थसिद्धिकी उत्थानिकाको दिगम्बर परम्परासम्मत मानते रहे और तत्त्वार्थभाध्यकी उत्थानिका. को अन्यकी । यह उत्थानिकाकी बात हुई।
आगे सूत्रपाठको देखिए-.-तत्त्वार्थभाष्यकारने तीसरे अध्यायके प्रथम सूत्र में पृथुतराः' पाठ अधिक स्वीकार किया है। श्वेताम्बर आगम साहित्य में इस अर्थको व्यक्त करनेके लिए 'छत्ताइछत्ता' पाठ उपलब्ध होता है। तत्त्वार्थभाष्यकारने भी इस पदकी व्याख्या करते हुए 'छत्रातिच्छत्रसंस्थिताः' पद द्वारा उसका स्पष्टीकरण किया है। यह पाठ सवार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में नहीं है । तत्त्वार्थवार्तिककारकी न केवल इसपर दृष्टि पड़ती है अपितु इसे वे आड़े हाथों लेते हैं और यह बतलानेका प्रयत्न करते हैं कि सूत्र में 'पथतरा:' पाठ असंगत है।
साधारणतः सर्वार्थ सिद्धि मान्य सूत्रपाठसे तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठमें काफी परिवर्तन हुआ है पर तत्त्वार्थवातिककार उन सब सूत्रपाठोंकी चर्चा नहीं करते। वे प्रायः तत्त्वार्थभाष्यके ऐसे ही सूत्रपाठका विरोध व्यक्त करते हैं जिसे स्वीकार करने पर स्पष्टत: आगम विरोध दिखाई देता है। चौथे अध्याय में शेषाः स्पर्श-' इत्यादि सूत्र आता है। तत्त्वार्थभाष्यके अनुसार इस सूत्रके अन्त में 'द्वयोर्द्वयोः' इतना पाठ अधिक उपलब्ध होता है। भट्ट अकलंकदेवकी सूक्ष्मदृष्टि इस पाठ पर जाती है और वे आर्षसे विरोध बतला कर इस अधिक पाठको स्वीकार करना मान्य नहीं करते । इसी प्रकार पांचवें अध्याय में 'बन्धेऽधिको पारिणामिको च' सूत्र आता है। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य में इसका परिवर्तित रूप इस प्रकार उपलब्ध होता है -बन्धे समाधिको पारिणामिको।'
यह स्पष्ट है कि आगममें बन्धकी जो व्यवस्था निर्दिष्ट की गयी है उसके साथ इस सूत्र में आये हुए 'सम' शब्दका मेल नहीं बैठता। तत्त्वार्थवातिककारकी दृष्टि से यह बात भी छिपी नहीं रहती, इसलिए आगमसे विरोध होनेके कारण वे स्पष्ट शब्दों में इसकी अप्रामाणिकता घोषित करते हैं। यही दशा तत्त्वार्थभाष्यमें आये हए पांचवें अध्यायके अन्तिम तीन सूत्रोंकी होती है। वे सूत्र हैं
'अनाविराविमांश्च ।। 42॥ रूपिच्वाविमान् ॥ 43 ।। योगोपयोगी जीवेषु ।। 44 ।' इन सूत्रोंमें परिणामके अनादि और सादि ये दो भेद करके पुदगल और जीवके परिणामको सादि कहा
1. देखो तत्त्वार्यभाष्य उत्थानिका श्लोक 31। 2. तत्त्वार्थवार्तिक उत्थानिका पृ०1। 3. तत्त्वार्थवार्तिक उत्थानिका पृ. 3।
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सर्वार्थसिद्धि
है। साथ ही 42 वें सूत्रके भाष्यमें धर्म, अधर्म, आकाश और जीवके परिणामको अनादि कहा है। इस पर तत्त्वार्थवार्तिक में आपत्ति करते हुए कहा है ...-'अत्रान्ये धर्माधर्मकालाकाशेषु अनाविः परिणामः माविमान् जीवपुद्गलेषु वदन्ति तवयुक्तम् ।'
अर्थात् अन्य लोग धर्म, अधर्म, काल और आकाश में परिणामको अनादि कहते हैं तथा जीव और पुद्गलों में उसे सादि कहते हैं किन्तु उनका ऐसा कहना अयुक्त है।
इसी प्रकार अध्याय 1 सूत्र 15 व 21; अध्याय 2 सूत्र 7, 20 व 333; अध्याय 4 सूत्र 8; अध्याय 5 सूत्र 2-3, अध्याय 6 सूत्र 18 और अध्याय 8 सू० 6 के तत्त्वार्थवातिकके देखनेसे भी विदित होता है कि अकलंकदेवके सामने तत्त्वार्थभाष्य अवश्य था।
यद्यपि इस विषय में कुछ मतभेद है। डॉ० जगदीशचन्द्रजीने अनेकान्त वर्ष 3 किरण 4 में इस आशयका एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने बतलाया है कि अकलंकदेवके सामने उमास्वातिका तत्त्वार्थभाष्य उपस्थित था। किन्तु उनके इस मतको पं० जुगुलकिशोरजी मुख्तार स्वीकार नहीं करते। पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीका भी यही मत है।
हमारा विचार है कि वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थभाष्य में जो सूत्रपाठ स्वीकार किया है वह तत्त्वार्थभाष्य लिखनेके पूर्व अवस्थित था इस विषयका पोषक कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता । आचार्य पूज्यपादने और सिद्धसेनगणिने अपनी टीकाओंमें जगह-जगह सूत्रपाठ सम्बन्धी जिस मतभेदकी चर्चा की है उसका सम्बन्ध भी तत्त्वार्थभाष्य मान्य सूत्रपाठसे नहीं है। ऐसी अवस्थामें यह मानना कि भट्ट अकलंकदेवके सामने वाचक उमास्वातिका तत्त्वार्थभाष्य नहीं था, हमें शिथिल प्रतीत होता है। तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गयीं दिगम्बर और श्वेताम्बर समस्त टीकाओंके अवलोकनसे केवल हम इतना निश्चय कर सकते हैं कि जिस महान् आचार्यने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की है उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र पर कोई भाष्य या वृत्ति ग्रन्थ नहीं लिखा था। तत्त्वार्थसूत्र में उत्तरकालमें सूत्रविषयक जो विविध मतभेद दिखाई देते हैं वे इसके प्रमाण हैं । यह स्पष्ट है कि आचार्य पूज्यपादके काल तक वे मतभेद बहुत ही स्वल्पमात्रामें रहे हैं। किन्तु मूल सूत्रपाठ सर्वार्थसिद्धि द्वारा दिगम्बर परम्परा मान्य हो जाने से दूसरी ओर इसकी बलवती प्रतिक्रिया हुई और मूल सूत्रपाठको तिलांजलि दे दी गयी। परिणाम स्वरूप सूत्रपाठके स्वरूपके विषय में न केवल मतभेद बढ़ने लगा अपितु स्वतन्त्र सूत्रपाठके स्थिर करनेका भी भाव जागृत हुआ। इन सारे घटनाक्रम व तथ्यों के आधारसे हमारा तो यही विचार पुष्ट होता है कि स्वयं वाचक उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठको अन्तिम रूप दिया होगा और आगे यह पाठभेद सम्बन्धी मतभेद उग्र रूप धारण न करे, इसलिए उन्होंने ही उसपर अपना प्रसिद्ध तत्वार्थाधिगमभाष्य लिखा होगा। यह ठीक है कि वाचक उमास्वातिके पहले अन्य श्वेताम्बर आचार्योंने मूल तत्त्वार्थसूत्र में काट-छांट चाल कर दी थी और वाचक उमास्वातिको उसका वारसा मिला है। यदि पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर इस मतका प्रस्थापन करते हैं कि तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ वाचक उमास्वातिके भी पर्व उपस्थित था तो यह कथन कुछ अंशमें सम्भव हो सकता है पर इससे तत्त्वार्थवातिककारके सामने तत्त्वार्थभाष्य उपस्थित था इस मतपर रंचमात्र भी आँच नहीं आती, क्योंकि तत्त्वार्थवातिकमें केवल तत्त्वार्थभाष्य मान्य सूत्रविषयक मतभेदोंका ही उल्लेख नहीं है, अपितु कुछ ऐसे मतोंका भी उल्लेख है जिनका सीधा सम्बन्ध तत्त्वार्थभाष्यसे है।
इस प्रकार इन प्रमाणोंके प्रकाशमें यह मान लेनेपर भी कि तत्त्वार्थभाष्य तत्त्वार्थवातिकके पहले कभी लिखा गया है, फिर भी वह कब लिखा गया है यह विचारणीय हो जाता है। इसका हमें कई दृष्टियोंसे
1. देखो अनेकान्त वर्ष 3 किरण 4, 11 व 121 2. देखो पं० कैलाशचन्द्रजीका तत्त्वार्थसूत्र प्रस्तावना पृ०9 आदि। 3. देखी सर्वार्थ सिद्धि अ० 1 सू० 16 व अ. 2 सू० 53 तथा सिद्धसेनकी टीका अ० 1 सू० व अ० 5सू० 3 आदि। 4. देखो चालू प्रस्तावनाका सूत्रपाठोंमें मतभेद' प्रकरण ।
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प्रस्तावना
पर्यालोचन करना है। पर्यालोचन के विषय ये हैं-1. अन्य टीकाओंके उल्लेख, 2. सूत्रोल्लेख, और 3. अर्थ विकास।
1. अन्य टीकाओंके उल्लेख-अभी तक प्रचलित परम्पराके अनुसार साधारणतः यह माना जाता है कि दिगम्बर परम्परामान्य सूत्रपाठकी प्रथम टीका सर्वार्थसिद्धि है और श्वेताम्बर परम्परामान्य तत्त्वार्थसूत्रकी प्रथम टीका तत्त्वार्थभाष्य है। तत्त्वार्थभाष्यके विषय में तो कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि वह तत्त्वार्थसूत्रकारकी ही मूल कृति है। और इस आधारसे वे यह निष्कर्ष फलित करते हैं कि आचार्य पूज्यपादने मूल सूत्रपाठमें सुधार करके सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठकी रचना की है जो आज दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है। किन्तु इन टीकाग्रन्थों और अन्य प्रमाणोंसे जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनसे यह विषय बहुत कुछ विचारणीय हो जाता है। पहले हम सर्वार्थसिद्धि में दो पाठभेदोंका उल्लेख कर आये हैं। उनमें से दूसरा पाठभेद यदि सूत्रपोथीके आधारसे ही मान लिया जाये तो भी प्रथम पाठभेदको देखते हुए यह अनुमान करना सहजं हो जाता है कि सर्वार्थसिद्धिकारके सामने कोई छोटा-मोटा टीका ग्रन्थ अवश्य था। अन्यथा वे पाठविषयक मतभेदको स्पष्ट करते हुए यह न कहते-'त एवं वर्णयन्ति' इत्यादि ।
___ तत्त्वार्थवार्तिक में अध्याय पांच सूत्र चारका विवरण लिखते समय यह प्रश्न उठाया गया है कि 'वृत्तिमें पांच ही द्रव्य कहे हैं, इसलिए छह द्रव्योंका उपदेश घटित नहीं होता।' आगे इसका समाधान करते हुए तत्त्वार्थवातिककार कहते हैं कि 'वृत्तिकारका आप अभिप्राय नहीं समझे। आगे काल द्रव्यका निर्देश किया जानेवाला है उसकी अपेक्षा न कर यहाँ वृत्तिकारने पांच द्रव्य कहे हैं।'
इसी प्रकार एक प्रश्न इस अध्यायके 37वें सूत्रका विवरण लिखते समय भी उठाया गया है। वहाँ कहा गया है कि 'गृण यह संज्ञा अन्य सम्प्रदायके ग्रन्थों में उल्लिखित है, आहत मत में तो केवल द्रव्य और पर्यायका ही निर्देश किया है। अत: तत्त्व दो ही सिद्ध होते हैं और इनके आश्रयसे द्रव्यार्थिक और पर्याय ।यिक ये गय भी दो ही बनते हैं। यदि गुण नामका कोई पदार्थ है तो उसको विषय करनेवाला एक तीसरा नय अवश्य होना चाहिए। यतः तीसरा नय नहीं है, अतः गुण नामका कोई तीसरा पदार्थ सिद्ध नहीं होत- है और इसीलिए 'गणपर्ययववृद्व्यम्' यह सूत्र भी घटित नहीं होता।' आगे इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि यह बात नहीं है, क्योंकि अर्हत्प्रवचन हृदय आदि ग्रन्थों में गुणका उपदेश दिया गया है। और इसके आगे 'उपतं हि अर्हत्प्रवचने द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' यह वाक्य आया है।
तत्त्वार्थवातिकके ये दो उल्लेख हैं जिनसे अन्य वृत्ति तथा ग्रन्यान्त रकी सूचना मिलती है। प्रथम उल्लेखसे हम जानते हैं कि तत्त्वार्थवातिककारके सामने तत्वार्थसूत्रपर लिखी गयी कोई एक वृत्ति थी जिसमें 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्रका विवरण लिखते समय पांच द्रव्योंका विधान किया गया था और जिसका सामंजस्य तत्त्वार्थवातिककारने यहाँ बिठलाया है। तथा दुसरे उल्लेखसे इस बातका अनुमान किया जा सकता है कि तत्त्वार्थवातिककारके सामने एक दूसरा अर्हत्प्रवचनहृदय या अर्हत्प्रवचन नामका स्वतन्त्र ग्रन्थ अवश्य था जो न केवल सूत्रशैली में लिखा गया था अपितु उसमें 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' यह सूत्र भी मौजूद था और सम्भवतः उसे तत्त्वार्थवातिककार अति प्राचीन भी मानते रहे तभी तो प्रकृत में गुणके समर्थन में उन्होंने उसका उल्लेख किया है।
यह अर्हत्प्रवचनहृदय या अर्हत्प्रवचन क्या है यह प्रश्न बहुत गम्भीर है। इसका उल्लेख तत्त्वार्थः । भाष्यकार वाचक उमास्वातिने भी किया है। वे लिखते हैं कि मैं अहंद्वचनके एकदेशके संग्रहरूप और बहुत अर्थवाले तत्त्वार्थाधिगम नामके लघुप्रन्थका शिष्योंकी हितबुद्धिसे कथन करता हूँ। इसी प्रकार अमृतचन्द्र
1. देखो पं० सुखलालजी की तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना। 2. वृत्तौ पञ्चत्ववचनात् षड्द्रव्योपदेशध्याषात इति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् । 3. 'तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थ संग्रहं लघुग्रन्थम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममहद्वचनकदेशस्य ॥22॥'
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सर्वार्थसिद्धि
आचार्यने भी समयप्राभूतकी टीका में। समयप्राभृतको अर्हत्प्रवचनका अवयव कहा है। इन दोनों स्थलों पर साधारणत: अहंद्वचन या अर्हत्प्रवचनसे द्वादशांगका बोध होता है। किन्तु जब भट्ट अकलंक देव अर्हत्प्रवचनहृदय या अर्हत्प्रवचन नामके स्वतन्त्र ग्रन्थका उल्लेख करते हैं, इतना ही नहीं वे उसके एक वचनको उद्धृत भी करते हैं जो तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रसे बिलकुल मिलता जुलता है तब यह प्रश्न अवश्य होता है कि क्या ऐसा कोई महान् ग्रन्थ रहा है जिसमें समग्र जैनसिद्धान्तका रहस्य अन्तनिहित था और जिसका उल्लेख करना सबके लिए अनिवार्य था। जो कुछ भी हो एक बात स्पष्ट है कि तत्त्वार्थवातिककारके सामने तत्त्वार्थकी उपलब्ध टीकाओंके अतिरिक्त कोई अन्य वृत्ति अवश्य रही है जो सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थभाष्यसे भिन्न थी और बहुत सम्भव है कि उसी वृत्तिका उल्लेख उन्होंने तत्त्वार्थवार्तिक में किया है।
इसी प्रसंगो हमने सिद्धसेनगणिकी टीकाका भी आलोडन किया है। इस सम्बन्ध में हम पहले ही कह आये हैं कि सिद्धसेन गणिकी टीका अनेक सूत्र विषयक मत-मतान्तरों और उल्लेखोंको लिये हुए है। उसका बारीकीसे पर्यालोचन करनेपर यह भी विदित होता है कि उसके सामने न केवल सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थभाष्य और तत्त्वार्थवार्तिक थे, अपितु तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गयी नयी पुरानी और भी अनेक टीकाएं उनके सामने रही हैं। यह अनुमान प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीका भी है जिसका निर्देश हम पहले कर आये हैं।
सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवातिक और सिद्धसेनगणिकी टीकाके ये वे उल्लेख हैं जिनसे हमें तत्त्वार्थसूत्र विषयक अन्य अनेक छोटी-बड़ी टीकाओं के अस्तित्वका आभास मिलता है। तत्काल विचारणीय यह है कि ये.सब टीका ग्रन्थ किस आधारसे लिखे गये होंगे। सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में जिनका उल्लेख है वे तो स्वतन्त्र होंगे यह स्पष्ट ही है। मात्र विचार उनका करना है जिनका उल्लेख सिद्धसेनगणिने किया है । यह तो हम स्पष्ट देखते हैं कि तत्त्वार्थभाष्यके कारण भाष्यानुसारी सूत्रपाठका स्वरूप और अर्थ एक तरहसे सुनिश्चित है। जो लिपिकारोंकी असावधानीसे थोड़े बहुत दोष उत्पन्न होते हैं वे तत्त्वार्थभाष्य में भी देखे जाते हैं। किन्तु इन दोषोंके कारण तत्त्वार्थभाष्य समस्त सूत्रपाठ में तत्त्वार्थभाष्यकी उपस्थिति में पाठान्तर या अन्तिरकी कल्पना करना सम्भव नहीं है। ऐसी अवस्था में इन टीका ग्रन्थोंको भी सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिकमें उल्लिखित टीका ग्रन्थों के समान स्वतन्त्र ही मानना पड़ता है। सिद्धसेनगणिने मतभेदोंको दरसाते हुए अन्य मतोंका जिस रूप में उल्लेख किया है उससे भी तथ्यकी पुष्टि होती है। ये सब टीकाग्रन्थ कब और किन आचार्योंकी कृति हैं यह तो हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते हैं। बहुत सम्भव है कि वे सब या उन मेंसे कुछ तत्त्वार्थभाष्यके भी पहले लिखे गये हों और उनके लेखक श्वेताम्बर आचार्य रहे हों। यदि यह अनुमान
है, जिसके कि सही होनेकी अधिक सम्भावना है, तो यही कहना पड़ता है कि तत्त्वार्थभाष्य उस कालकी रना है जबकि मूल तत्त्वार्थसूत्रपर अनेक टीका टिप्पणियाँ प्रचलित हो चुकी थीं और जिन मेंसे एक सर्वार्थसिड भी है।
2. सूत्रोल्लेख-साधारणतः किसी विषयको स्पष्ट करने, उसकी सूचना देने या अगले सूत्रकी उरगनिका बांधनेके लिए टीकाकार आगेके या पीछेके सूत्रका उल्लेख करते हैं। यह परिपाटी सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यमें भी विस्तारपूर्वक अपनायी गयी है। किन्तु आगेके या पीछेके सूत्र का उल्लेख करते समय इन टीका ग्रन्थों में उन्हीं सूत्रपाठोंका उल्लेख किया जाता है जो उन्हें सम्मत होते हैं । उदाहरणार्थसर्वार्थसिद्धिकारने अध्याय एकके इक्कीस नम्बरका सूत्र ‘भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्' इस रूपमें स्वीकार किया है, अतएव वे चौथे अध्यायके प्रथम सूत्रकी उत्थानिका लिखते समय इस सूत्र का इसी रूप में उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार तत्त्वार्थभाष्यकारने इस सूत्रको 'भवप्रत्ययोऽवधिनारकवेवानाम्' इस रूप में स्वीकार
1. 'प्राभृताह्वयस्याहत्प्रवचनावयवस्य' गा. 1. टीका। 2. देखो अध्याय 6 सूत्र 3 व 4 का तत्त्वार्थभाष्य ।
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किया है इसलिए वे चौथे अध्यायके प्रथम सूत्रकी उत्थानिकामें इसे इसी रूप में उद्धत करते हैं। साधारणत: ये टीकाकार कहीं पूरे सूत्रको उद्धृत करते हैं और कहीं उसके एक अंशको। पर जितने अंशको उद्धृत करते हैं वह अपने में पूरा होता है। ऐसा व्यत्यय कहीं भी नहीं दिखाई देता कि किसी एक अंश को उद्धृत करते हुए भी वे उस मेंसे समसित प्रारम्भके किसी पदको छोड़ देते हों।
ऐसी अवस्था में हम तो यही अनुमान करते थे कि इन दोनों टीका ग्रन्थों में ऐसा उद्धरण शायद ही मिलेगा जिससे इनकी स्थितिमें सन्देह उत्पन्न किया जा सके। इस दृष्टि से हमने सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यका बारीकीसे पर्यालोचन किया है। किन्तु हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि सर्वार्थ सिद्धि में तो नहीं, किन्तु तत्त्वार्थभाष्य में एक स्थलपर ऐसा स्खलन अवश्य हुआ है जो इसकी स्थितिमें सन्देह उत्पन्न करता है। यह स्खलन अध्याय 1 सूत्र 20 का भाष्य लिखते समय हुआ है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषय का प्रतिपादन करनेवाला सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्र इस प्रकार है
मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ।' यही सूत्र तत्त्वार्थभाष्य में इस रूप में उपलब्ध होता है--
मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायष ।' तत्त्वार्थभाष्य में सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ की अपेक्षा 'द्रव्य' पदके विशेषणरूपसे 'सर्व' पद अधिक स्वीकार किया गया है। किन्तु जब वे ही तत्त्वार्थभाष्यकार इस सूत्रके उत्तरार्धको अध्याय 1 सूत्र 20 के भाष्य में उद्धृत करते हैं तब उसका रूप सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ ले लेता है। यथा
'अत्राह-मतिश्रुतयोस्तुल्यविषयत्वं वक्ष्यति-'द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' इति' कदाचित् कहा जाय कि इस उल्लेख मेंसे लिपिकारकी असावधानीवश 'सर्व' पद छुट गया होगा, किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अपनी टीकामें सिद्धसेनगणि और हरिभद्रने भी तत्त्वार्थभाष्यके इस अंशको इसी रूप में स्वीकार किया है। प्रश्न यह है कि जब तत्त्वार्थभाष्यकारने उक्त सूत्र का उत्तरार्ध 'सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेष' स्वीकार किया तब अन्यत्र उसे उद्धत करते समय वे उसके 'सर्व' पदको क्यों छोड़ गये। पदका विस्मरण हो जानेसे ऐसा हुआ होगा यह बात बिना कारणके कुछ नपी-तुली प्रतीत नहीं होती। यह तो हम मान लेते हैं कि प्रमादवश या जान-बूझकर उन्होंने ऐसा नहीं किया होगा, फिर भी यदि विस्मरण होनेसे ही यह व्यत्यय माना जाये तो इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। हमारा तो खयाल है कि तत्त्वार्थ भाष्य लिखते समय उनके सामने सर्वार्थसिद्धि या सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ अवश्य रहा है और हमने क्या पाठ स्वीकार दिया है इसका विशेष विचार किए बिना उन्होंने अनायास उसके सामने होनेसे सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठका अंश यहाँ उद्धृत कर दिया है। यह भी हो सकता है कि अध्याय 1 सूत्र 20 का भाष्य लिखते समय तक वे यह निश्चय न कर सके हों कि क्या इसमें 'सर्व' पदको 'T' पदका विशेषण बनाना आवश्यक होगा या जो पुराना सूत्रपाठ है उसे अपने मूलरूप में ही रहने दिया जाय और सम्भव है कि ऐसा कुछ निश्चय न कर सकनेके कारण यहाँ उन्होंने पुराने पाठको ही उद्धृत कर दिया हो। हम यह तो मानते हैं कि तत्त्वार्थभाष्य प्रारम्भ करनेके पहले ही वे तत्त्वार्थसूत्रका स्वरूप निश्चित कर चुके थे, फिर भी किसी खास सूत्रके विषय में शंकास्पद बने रहना और तत्त्वार्थभाष्य लिखते समय उसमें परिवर्तन करना सम्भव है। जो कुछ भी हो इस उल्लेखसे इतना निश्चय करने के लिए तो बल मिलता ही है कि तत्त्वार्थभाष्य लिखते समय वाचक उमास्वातिके सामने सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ अवश्य रहा है।
3. अर्थ विकास- इसी प्रकार इन दोनोंके बिम्बप्रतिबिम्बभाव और कहीं-कहीं वस्तुके विवेचनमें तत्त्वार्थभाष्य में अर्थ विकास के स्पष्ट दर्शन होनेसे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है। उदाहरणार्थ-दसवें अध्याय में 'धर्मास्तिकायाभावात' सूत्र आता है। इसके पहले यह बतला आये हैं कि मुक्त जीव अमुक-अमुक कारणसे ऊपर लोकके अन्त तक जाता है। प्रश्न होता है कि वह इसके आगे क्यों नहीं जाता है और इसीके उत्तरस्वरूप बाह्य निमित्तकी मुख्यतासे इस सूत्रकी रचना हुई है। किन्तु यदि टीकाको छोड़ कर केवल
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सूत्रों का पाठ किया जाय तो यहाँ जाकर रुकना पड़ता है और मन में यह शंका बनी ही रहती है कि धर्मास्तिकाय न होनेसे आचार्य क्या बतलाना चाहते हैं सूत्रपाठी यह स्थिति वाचक उमास्वाति के ध्यान में आयी और उन्होंने इस स्थितिको साफ करने की दृष्टिसे ही उसे सूत्र न मानकर भाष्यका अंग बनाया है। यह क्रिया स्पष्टतः बादमें की गयी जान पड़ती है। इसी प्रकार इसी अध्याय के सर्वार्थसिद्धिमान्य दूसरे सूत्रको सीजिए। इसके पहले मोहनीय आदि कर्मोंके अभाव से केवलज्ञानकी उत्पत्तिका विधान किया गया है। किन्तु इनका अभाव क्यों होता है इसका समुचित उत्तर उस सूत्रसे नहीं मिलता और न ही सर्वार्थसिद्धिकार इस प्रश्नको स्पर्श करते हैं। किन्तु वाचक उमास्वातिको यह त्रुटि खटकती है। फलस्वरूप वे सर्वार्थसिद्धिमान्य पत् हेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः इस सूत्र के पूर्वार्धको स्वतन्त्र और उत्तरार्ध को स्वतन्त्र सूत्र मानकर इस कमी को पूर्ति करते हैं। सवार्थसिद्धि में जबकि इसका सम्बन्ध केवल हस्तकर्मविप्रमोक्षः' पदके साथ जोड़ा गया है वहाँ वाचक उमास्वाति इसे पूर्वसूत्र और उत्तरसूष दोनों के लिए बतलाते हैं।
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ऐसी ही एक बात जो विशेष ध्यान देने योग्य है, पाँचवें अध्याय कालके उपकारके प्रतिपादक सूत्र के प्रसंगसे आती है । प्रकरण परत्व और अपरत्वका है। ये दोनों कितने प्रकार के होते हैं इसका निर्देश सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य दोनों में किया है । सर्वार्थसिद्धि में इनके प्रकार बतलाते हुए कहा है- परस्वापरत्वे क्षेत्रकृते कालकृते च स्तः किन्तु तत्वार्थ माध्य में ये दो भेद तो बतलाये ही गये हैं। साथ ही वहाँ प्रशंसाकृत परत्वापरत्वका स्वतन्त्र रूप से और ग्रहण किया है । वाचक उमास्वाति कहते हैं- परस्वापरत्वे त्रिविधे प्रशंसाकृते क्षेत्रकृते कामकृते इति ।
इतना ही नहीं हम देखते हैं कि इस सम्बन्ध में तस्वार्थवातिककार उत्स्वार्थ भाष्यका ही अनुसरण करते हैं। उन्होंने कालके उपकार के प्रतिपादक सूत्रका व्याख्यान करते हुए परस्य और अपरस्वके इन तीन भेदोंका उल्लेख इन शब्दों में किया है
'क्षेत्रप्रशंसाकालनिमितास्वरत्वापरत्वानवचारणमिति चेत् न कालोपकारप्रकरणात्' ।'
अतएव क्या इससे यह अनुमान करने में सहायता नहीं मिलती कि जिस प्रकार इस उदाहरण से तत्वार्थभाध्य तस्यार्थवार्तिककार के सामने या इस कथन की पुष्टि होती है उसी प्रकार तस्वार्थाय सर्वार्थसिद्धि के बादकी रचना है इस कथन की भी पुष्टि होती है।
स्पष्ट है कि पौर्वापर्य की दृष्टि से विचार करनेपर तत्वार्थ भाष्यका रचनाकाल सर्वार्थसिद्धि के रचे जाने के बाद स्थिर होता है और सब स्थितियोंका विचार करनेपर यह ठीक भी प्रतीत होता है।
सर्वार्थसिद्धिमें अन्य साहित्य के उद्धरण -- सर्वार्थसिद्धि लिखते समय आचार्य पूज्यपादके सामने जो विपुल साहित्य उपस्थित था उसका अवलम्बन लेकर उन्होंने इस महान् टीका ग्रन्थको श्रीवृद्धि की है। उसमें प्रमुख स्थान जिसे दिया जा सकता है वह है षट्खण्डागम ।
पट्खण्डागम - यह वह महान् निधि है जिसे द्वादशांग वाणीका सीधा वारसा मिला है। आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलीने आचार्य धरसेनके चरणों में बैठकर तथा उस काल में शेष रहे द्वादशांग वाणी के एकदेशका अभ्यास कर इस महान् ग्रन्थ की रचना की थी। इसके जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध इन छह खण्डों में द्वादशांग पाणी का संकलन किया गया है, इसलिए इसे मण्डा गम कहते हैं । सर्वार्थसिद्धिकारके सामने यह महान् ग्रन्थ उपस्थित था और उन्होंने इसका भरपूर उपयोग भी किया है यह बात तत्त्वार्थसूत्र अध्याय एक सूत्र सात और आठकी सर्वार्थसिद्धि टीकाके देखने से स्पष्ट ज्ञात होती है। इसमें निर्देश, स्वामित्व आदि के द्वारा और सत् संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, कान, अन्तर, भाव और पबहुत्व इन आठ अनुयोगोंके द्वारा चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणाओंके आश्रयसे जीव तत्वका जिस
1. अ० सू० 22 तत्वावार्तिक।
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प्रकार विचार किया गया है वह अनायास ही पाठकोंका ध्यान षट्खण्डागम के जीवस्थान खण्डकी ओर आकृष्ट करता है। जीवस्थान खण्डका दूसरा सूत्र है
'एत्तो इमेसि चोहसण्हं जीवसमासाणं मग्गणठ्ठदाए तत्थ इमाणि चोद्दस चेव द्वाणाणि णायवाणि भवंति।
इसमें चौदह गुणस्थानोंके लिए 'जीवसमास' शब्दका प्रयोग हुआ है। सर्वार्थसिद्धिकारके सामने यह सूत्र था। उन्होंने भी गुणस्थान के लिए 'जीवसमास' शब्दका उपयोग किया है । यथा---
'एतेषामेव जीवसमासानां निरूपणार्थ चतुर्दश मार्गणास्थानानि ज्ञेयानि ।' आगे सर्वार्थसिद्धि में जीवस्थानका किस प्रकार अनुसरण किया गया है इसका आगेकी तालिका द्वारा स्पष्ट ज्ञान कीजिएजीवस्थान सत्प्ररूपणा
सर्वार्थसिद्धि सत्प्ररूपणा संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण
तत्र सत्प्ररूपणा द्विविधा-सामान्येन आदेसेण य॥8॥
विशेषेण च । ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी ॥9॥ सासण
सामान्येन अस्ति मिथ्यादृष्टिः सासादन. सम्माइट्ठी। 10।।......
सम्यग्दृष्टिरित्येवमादिः। आदेसेण गदियाणुवादेण अत्थि णिरयगदी
विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगती सर्वासु तिरिक्खगदी मणुमगदी देवगदी सिद्धगदी चेदि | पृथिवीषु आद्यानि चत्वारि गुणस्थानानि सन्ति । तिर्य124 । णेरइया चउट्टाणेसु अस्थि मिच्छाइट्ठी सासण- | ग्गतौ तान्येव संयतासंयतस्थानाधिकानि सन्ति । मनुष्यसम्माइट्री सम्मामिच्छाइट्टी असं जदसम्माइट्ठी त्ति | गती चतुर्दशापि सन्ति । देवगतो नारकवत् । ॥25॥ तिरिक्खा पंचसु ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्री ......संजदा-संजदा त्ति ॥ 26 ।। मणुस्सा चोद्दससु गुणदाणेसु अत्थि मिच्छाइट्टी......अजोगिकेवलि त्ति ॥27॥ देवा चदुसु हाणेसु अत्थि मिच्छाइद्री... . असंजदसम्माइट्ठिति ।। 28॥ इंदियाणुवादेण अस्थि एइंदिया बीइंदिया
इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियादिषु चतुरिन्द्रियतीइंदिया चदुरिदिया पंचिदिया अणिदिया चेदि पर्यन्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम्। पंचेन्द्रियेषु चतु॥33॥ एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चरिदिया | र्दशापि सन्ति । 'असणिपंचिदिया एक्कमि चेव मिच्छाइट्रिद्राणे ।। 36॥ पंचिदिया असण्णिपंचिदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ॥ 37॥ कायाणुवादेण अस्थि पुढविकाइया आउका
कायानुवादेन पृथिवीकायादिवनस्पतिकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणप्फइकाइया तसका-यान्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । त्रसकायेषु चतुइया अकाइया चेदि ।। 39 ।। पुढविकाइया...वणप्फ- दशापि सन्ति । इकाइया एक्कमि चेव मिच्छाइट्रिट्राणे ।। 43॥ तसकाइया बीइंदियप्पडि जाव अजोगिकेवलि त्ति 144॥
आगम परम्परामें इस विषय में दो सम्प्रदाय हैं कि सासादनसम्यग्दृष्टि मर कर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं। कषायप्राभृत इसी संप्रदाय का समर्थन करता है। किन्तु षट्खण्डागमके अभिप्रायानुसार जो सासादनसम्यग्दृष्टि मर कर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनका एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें नियमसे मिथ्यादष्टि गुणस्थान हो जाता है। यही कारण है कि जीवस्थान सत्प्ररूपणाके सूत्रोंमें एकेन्द्रियोंके एक
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मिथ्यादृष्टि गुण-स्थान का निर्देश किया गया है। उक्त तुलनासे स्पष्ट है कि सर्वार्थसिद्धिकारने भी एकमात्र इसी सम्प्रदायका अनुसरण किया है। जीवस्थान संख्या-प्ररूपणा
सर्वार्थसिद्धि संख्या-प्ररूपणा ओघेण मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया।
सामान्येन तावत् जीवा मिथ्यादृष्टयोऽअणंता।। 2 ।। सासणसम्माइट्रिप्पहुडि जाव संजदा- नन्तानन्ताः । सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यमिथ्यादृष्टसंजदा त्ति दव्वपमाणेण केवडिया। पलिदोवमस्स | योऽसंयतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयताश्चपल्योपमासंख्येयअसंखेज्जदिभागो।......॥6॥ पमत्तसंजदा दव्व- | भागप्रमिताः। प्रमत्तसंयताः कोटीपृथक्त्वसंख्या:।... पमाणेण केवडिया। कोडिपुधत्तं ॥7॥ अप्पमत्त- | अप्रमत्तसंयताः संख्येया: । चत्वार उपशमका: प्रवेशेन संजदा दव्वपमाणेण केवडिया । संखेज्जा ।।8।एको वा द्वौ वा त्रयो वा । उत्कर्षेण चतुःपञ्चाशत् । चदुण्हमुवस.मगा दव्वपमाणेण केवडिया। पवेमेण | स्वकालेन समुदिता: संख्येयाः । चत्वारःक्षपका अयोगिएक्को वा दो तिण्णि वा, उक्कसेण चउवण्णं ॥9॥ केवलिनश्च प्रवेशेन एको वा दो वा. त्रयो वा । उत्कर्षेअखं पडुच्च संखेज्जा॥10॥ चउण्डं खवा अजोगि- णाष्टोत्तरशतसंख्याः। स्वकालेन समुदिता: संख्येयाः । केवली दव्वपमाणेण केवडिया। पवेसेण एक्को वा दो |
पण देवरिया। पवेमेण एकको वा दो | सयोगकेवलिनः प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा। वा तिण्णि वा, उक्कस्सेण अट्टोत्तरसदं ।11।। अद्धं | उत्कर्षणाष्टोत्तरशतसंख्या: । स्वकालेन समुदिताः पडच्च संखेज्जा ।। 12॥ सजोगिकेवली दव्वपमाणेण | शतसहस्रपृथक्त्वसंख्या: । केवडिया। पवेसेण एकको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कस्सेण अठुत्तरसयं ॥ 13 ।। अद्धं पडुच्च सदसहस्सपुधत्तं ।। 14॥
यहाँ हमने जीवस्थानके सत् और संख्या प्ररूपणाके कुछ सूत्रोंकी तुलना दी है । सब प्ररूपणाओंकी यह तुनना बिम्बप्रतिबिम्बभावको लिये हुए है। स्पष्ट है कि सर्वार्थ सिद्धिकारने 'सरसंख्या-' इत्यादि सूत्रकी प्ररूपणा जीवस्थानके आठ अनुयोगद्वारोंको सामने रख कर की है। सर्वार्थसिद्धि लिखते समय पूज्यपाद स्वामीके सामने केवल जीवस्थान ही उपस्थित नहीं था किन्तु जीवस्थानकी चूलिका व दूसरे खण्ड भी उनके सामने रहे हैं। इसके लिए तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायके 'निर्वेशस्वामित्व-' इत्यादि सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि टीका देखिए। इसमें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कारणोंका निर्देश जीवस्थान चूलिका अनुयोगद्वारके आधारसे किया है । तथा उपशम आदि सम्यक्त्वोंके कालका निर्देश क्षुल्लकबन्धके आधारसे किया है।
आ० कुन्दकुन्दका साहित्य-जैनपरम्परामें श्रुतधर आचार्यों में समयप्रभावक जितने आचार्य हुए हैं उनमें आचार्य कून्दकुन्दका नाम प्रमुखरूपसे लिया जाता है। कुछ तथ्योंके आधारपर कहा जाता है कि इन्हें विदेह क्षेत्र में स्थित सीमन्धर तीर्थकरके साक्षात् दर्शन और उपदेश श्रवणका लाभ मिला था और इन्हें चारणऋद्धि प्राप्त थी। इन्होंने परम्परानुसार मोक्षमार्गके अनुरूप जैनतत्त्वज्ञानकी स्पष्ट दिशाका प्रतिपादन कर समग्र जैनपरम्पराको प्रभावित किया है। जैनतत्त्वज्ञान व्यक्तिस्वातन्त्र्यका समर्थक है और उसकी प्राप्तिका एकमात्र मार्ग स्वावलम्बन है। इस तथ्य को संस। रके सामने जितने सुन्दर शब्दों में इन्होंने रखा है उसकी तुलना अन्य किसीसे नहीं की जा सकती है। वे जैनपरम्परा में ऐसे प्रकाशमान् सूर्य थे जिनसे दसों दिशाएँ आलोकित हुई हैं । बोधप्राभूतमें एक माथा आयी है। जिस में इन्होंने अपनेको श्रुतकेवली भद्रबाहुका गमक शिष्य घोषित किया है । सायप्राभृतका प्रारम्भ करते हुए वे कहते हैं कि 'मैं श्रुतकेवलीके द्वारा कहे गए समयप्राभूतका कथन करता हूँ।' उनके ये वचन आकस्मिक नहीं हो सकते । बहुत सम्भव है कि उन्हें भद्रबाहु श्रुतकेवलीके तत्त्वज्ञान का सीधा या परम्परा लाभ मिला हो; क्योंकि इनके द्वारा निर्मित साहित्य में जो विशेषता है वह आकस्मिक नहीं हो सकती। वस्त्र-पात्रके स्वीकार की चर्चाने जैनपरम्पराके तत्त्वज्ञानको बहुत अधिक धूमिल किया है।
1. 'बारहअंगवियाणी चउदसपुग्वंगविउलवक्छरणं । सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयउ॥'
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एकमात्र इनके द्वारा रचित साहित्यकी पूर्वपरम्परा ही ऐसी प्रकाशकिरण है जो इस अन्धकारका विच्छेद कर सन्मार्गका प्रकाश करती है । एक ओर आत्मा और परनिरपेक्ष आत्मीय भावोंको छोड़कर अन्य सबको यहाँतक कि आत्मामें जायमान नमित्तिक भावोंको भी पर कहना और दूसरी ओर वस्त्र-पात्र के स्वीकारको व्यक्तिस्वातन्त्र्य का मार्ग बतलाना इसे तस्वज्ञानकी कोरी विडम्बनाके सिवा और क्या कहा जा सकता है। हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि प्रत्येक व्यक्तिको स्वतन्त्र सत्ताको उद्घोषणा करनेवाला और ईश्वरवादके निषेध द्वारा बाह्य निमकी प्रधानताको अस्वीकार करनेवाला धर्म मोक्षमार्ग में निमित्तरूपसे वस्त्र पात्रके स्वीकारका कभी भी प्रतिपादन नहीं कर सकता । आचार्य कुन्दकुन्दने यदि किसी तथ्यको स्पष्ट किया है तो वह एकमात्र यही हो सकता है। कुछ विद्वान् समझते हैं कि उन्हें नाग्न्यका एकान्त आग्रह था और उनके बाद ही जैनपरम्परा में इसपर विशेष जोर दिया जाने लगा था । किन्तु मालूम होता है कि वे इस उपालम्भ द्वारा जैनदर्शनकी दिशा ही बदल देना चाहते हैं । जैनदर्शन में वस्तुका विचार एकमात्र व्यक्तिस्वातन्त्र्य के आधारपर ही किया गया है, अतएव उसकी प्राप्तिका मार्ग स्वावलम्बन के सिवा और क्या हो सकता है। एक व्यक्ति द्वारा अन्य पदार्थों का स्वीकार उसकी चंचलता और कषायके कारण ही होता है । यह नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति वस्त्र और पात्रको भी स्वीकार करे और वह बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारसे परिग्रहहीन भी माना जाये । स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्दने नाग्न्यकी घोषणा कर उसी मार्गका प्रतिपादन किया है जिसे अनन्त तीर्थंकर अनादि काल से दिखलाते आये हैं। ऐसे महान् आचार्यकी कृतिरूपसे इस समय समयप्राभूत, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, द्वादश अनुप्रेक्षा और अष्टाभूत आदि उपलब्ध होते हैं। आचार्य पूज्यपादने इस साहित्यका भरपूर उपयोग किया है यह बात सर्वार्थसिद्धिके जालोउनसे भलीभाँति विदित होती है। आचार्य पूज्यपादने ऐसी दस गाथाएँ उद्धृत की हैं जिनमें से एक गाथा पंचास्तिकाय में, एक गाथा नियमसारमें तीन गाथाएँ प्रवचनसार में और पाँच गाथाएँ द्वादश अनुप्रेक्षा में उपलब्ध होती हैं। ये गाथाएँ उन ग्रन्थोंके किस प्रकरणकी है यह हमने उन उन स्थलोंपर टिप्पण में दिखलाया ही है।
मूलाचार – दिगम्बर परम्परा में स्वीकृत मूलाचार मुनि आचारका प्रतिपादक सर्वप्रथम ग्रन्थ है । इसके कर्ता आचार्य वट्टकेर हैं । हमारे सहाध्यायी पं० हीरालालजी शास्त्रीने 'वट्टकेर आचार्य' का अर्थ 'वर्तक एलाचार्य' करके इसके कर्तारूपसे आचार्य कुन्दकुन्दको अनुमानित किया है। उनके इस विषय के 2-3 लेख इसी वर्ष के अनेकान्त में प्रकाशित हुए हैं जो विचारकी नयी दिशा प्रस्तुत करते हैं । किन्तु उन लेखोंसे इस निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव नहीं दिखाई देता कि आचार्य कुन्दकुन्दने ही इसे मूर्तरूप दिया है। मूलाधार में एक प्रकरणका नाम द्वादशानुप्रेक्षा है। आचार्य कुन्दकुन्दने स्वतन्त्र रूपसे 'बारह अणुपेक्खा' ग्रन्थ की रचना की है। कमसे-कम इससे तो यही मानना पड़ता है कि मूलाचार कृतिके रचयिता आचार्य वट्टकेर ही होने चाहिए, आचार्य कुन्दकुन्द नहीं वीरसेन स्वामीने धरला टीका में इसका आचारांग नामसे उल्लेख कर इसकी एक गाथा उद्धृत की है। यहाँ आचार्य पूज्यपादने भी इसकी दो गाथाएँ सर्वार्थसिद्धिमें दी हैं ।
पंचसंग्रह - दिगम्बर परम्परा में पंचसंग्रहका बहुत बड़ा स्थान है। इसके सम्बन्ध में हमने श्वेताम्बर ग्रन्थसप्ततिकाकी भूमिका में प्रकाश डालते हुए यह सम्भावना प्रकट की थी कि इसका संकलन श्वेताम्बर पंचसंग्रहकर्ता चन्द्रषिमहत्तर के पहले हो चुका था । इसकी दो गाथाएँ आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि में भी उद्धृत की हैं। इससे विदित होता है कि बहुत सम्भव है कि दिगम्बर परम्परामान्य प्राकृत पंचसंग्रहका संकलन आचार्य पूज्यपादके पूर्व हुआ हो । अब यह ग्रन्थ उपलब्ध होकर प्रकाश में आ सका है। आचार्य अमितगतिने इसी के आधार से संस्कृत पंचसंग्रहका संकलन किया है।
पाणिनीय व्याकरण – आचार्य पूज्यपादने स्वयं 'जैनेन्द्र व्याकरण' लिखा है और उसपर न्यासके
1. देखो आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल आगरासे प्रकाशित सप्ततिकाकी भूमिका, पृष्ठ 23 से 26 तक ।
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सर्वार्थसिद्धि
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लेखक वे स्वयं हैं यह भी प्रसिद्धि है। इसलिए यह शंका होती है कि सर्वार्थसिद्धि में उन्होंने स्वनिर्मित जैनेन्द्र के सूत्रोंका ही उल्लेख किया होगा । सर्वार्थसिद्धि के सम्पादक के समय यह प्रश्न हमारे सामने था और इस दृष्टि से हमने सर्वार्थसिद्धिको देखा भी किन्तु इसमें व्याकरणके जो सूत्रोल्लेख उपलब्ध होते हैं उनको देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस विषय में उनका ऐसा कोई आग्रह नहीं था कि केवल स्वनिर्मित जैनेन्द्रके ही सूत्र उद्धृत किये जायें। यों तो सर्वार्थसिद्धि में सूत्रोल्लेखोंका बहुत ही कम प्रसंग आया है, पर दो तीन स्थलोंपर जिस रूप में वे उल्लिखित किये गये हैं उनके स्वरूपको देखनेसे विदित होता है कि इस काम में पाणिनीय और जैनेन्द्र दोनों व्याकरणोंका उपयोग हुआ है। यथा
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सर्वप्रथम हम अध्याय 4 सूत्र 19 की सर्वार्थसिद्धि टीका में दो सूत्रोंका उल्लेख देखते हैं । उनमें से प्रथम है 'तदस्मिन्नस्तीति ।' और दूसरा है 'तस्य निवासः । ' इनमें से प्रथम सूत्र पाणिनीय व्याकरण में 'तस्मिन्नस्तीति देश तम्नामि 4 267। इस रूप में और जैनेन्द्रव्याकरणमें 'तवस्मिन्नस्तीति देश: खी । 4, 1, 14 ।' इस रूप में उपलब्ध होता है, इसलिए इस परसे यह कहना कठिन है कि यहाँपर आचार्य पूज्यपादने पाणिनीय के सूत्रका आश्रय लिया है या जैनेन्द्र के सूत्रका । दूसरा सूत्र पाणिनीय व्याकरण में 'तस्य निवासः । 4, 2,69 ।' इसी रूपमें और जैनेन्द्रव्याकरण में 'तस्य निवासादूर भयो । 3, 2, 19 ।' इस रूप में उपलब्ध होता है । स्पष्ट है कि यहाँ आचार्य पूज्यपादने पाणिनीय व्याकरणके सूत्रका उल्लेख किया है ।
अध्याय 5 सूत्र 1 की सर्वार्थसिद्धि टीका में 'विशेषणं विशेष्येणेति' सूत्र उल्लिखित है । जैनेन्द्रव्याकरण ने यह इसी रूप में क्रमांक 1, 3, 52 पर अंकित है और इसके स्थानपर पाणिनीय व्याकरणका सूत्र है विशेषणं विशेष्येण बहुलम् स्पष्ट है कि यहाँपर आचार्य पूज्यपादने स्वनिर्मित व्याकरणके सूत्रका ही उल्लेख किया है।
यह तो सूत्र चर्चा हुई। अब एक अन्य प्रमाणको देखिए- अध्याय 5 सूत्र 4 की टीका में आचार्य पूज्यपादने 'मेवेत्यः' यह पद उल्लिखित किया है किन्तु जैनेन्द्रव्याकरण में नित्य शब्दको सिद्ध करनेवाला न तो कोई सूत्र है और न ही 'त्य' प्रत्ययका निर्देश है। वहाँ 'त्य' प्रत्ययके स्थान में 'य' प्रत्यय है । इससे विदित होता है कि यह वाक्य आचार्य पूज्यपादने कात्यायन वार्तिक 'त्यबनेध्रुव इति वक्तव्यम् । 4, 2, 104' को ध्यान में रखकर लिखा है। आचार्य अभयनन्दिने अपनी वृत्तिमें अवश्य ही वम् इति वक्तव्यम् ।' यह वार्तिक बनाया है। किन्तु वह बादकी रचना है। फिरभी उक्त पद विवादास्पद अवश्य है ।
इन तथ्योंके प्रकाशमें यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्यं पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में जैनेन्द्रव्याकरण के समान पाणिनीय व्याकरणका भी उपयोग किया है और यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्रव्याकरणकी रचना होने के अनन्तर ही उन्होंने सर्वार्थसिद्धि टीका लिखी थी । अध्याय 10 सूत्र 4 की सर्वार्थfafa टीका में आचार्य पूज्यपादने पंचमी विभक्ति के लिए 'का' संज्ञाका प्रयोग किया है। आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्रव्याकरण में विभक्ति' शब्द के व्यंजन अक्षरोंमें 'मा' और स्वरमें 'व्' जोड़कर कमसे विभक्तियोंकी बा, इपू, भा, अप्, का, ता, ईपू ये सात संज्ञाएँ निश्चित की हैं। इस हिसाबले का यह पंचमी विभक्तिका संकेत है। यह भी एक ऐसा प्रमाण है जो इस बातको सूचित करता है कि सर्वार्थसिद्धि लिखे जानेके पहले जैनेन्द्रव्याकरणकी रचना हो गयी थी ।
कात्यायनबालिक पाणिनीयके व्याकरण सूत्रोंपर कात्यायन महर्षिने वार्तिक लिखे हैं। अध्याय 7 सूत्र 16 की सर्वार्थसिद्धि टीका में आचार्य पूज्यपादने शास्त्र कहकर उनके 'अश्ववृषभयो मैथुनेच्छायाम् । इस वार्तिकको उद्धृत किया किया है । यह पाणिनि के 7, 1, 51 पर कात्यायनका पहला वार्तिक है ।
पातंजल महाभाष्य - वैदिक परम्परा में पतंजलि ऋषि एक महान् विद्वान् हो गये हैं। इस समय पाणिनीय व्याकरणपर जो पातंजल महाभाष्य उपलब्ध होता है वह इन्हीं की अमर कृति है योगदर्शन के लेखक भी यही हैं । यह इससे स्पष्ट है
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प्रस्तावना
'योगेन चित्तस्य पवेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन ।
योऽपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां पतंजलि प्रांजलिरानतोऽस्मि।' जिन्होंने योगके द्वारा चित्तके मलको, व्याकरणके द्वारा वचनोंके मलको और वैद्यकद्वारा शरीरके मलको दूर किया है उन मुनियों में श्रेष्ठ पतंजलि ऋषिके समक्ष मैं नतमस्तक होता है।
पतंजलि ऋषिके अवस्थितिकालके विषयमें मतभेद है। तथापि ये विक्रमपूर्व द्वितीय शताब्दीसे पहले नहीं हुए हैं इतना निश्चित है। इस समय हमारे सामने पातंजल महाभाष्य और सर्वार्थ सिद्धि उपस्थित हैं। इन दोनोंका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे विदित होता है कि आचार्य पूज्यपादके साहित्यपर और खासकर सर्वार्थसिद्धिपर पातंजल महाभाष्यकी गहरी छाप पड़ी है। दोनोंका अवलोकन करने से विदित होता है कि सर्वार्थसिद्धिके ऐसे अनेक स्थल हैं जो पातंजल महाभाष्यके आश्रयसे सजाये गये हैं। इस बातको स्पष्ट करने के लिए आगे की तुलनापर दृष्टि डालिएपातंजल महाभाष्य
सर्वार्थसिद्धि अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वेति ।
अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा । बहवो हि शब्दा: एकार्था भवन्ति । तद्यथा
सत्यपि प्रकृतिभेदे रूढि बललाभात् पर्यायइन्द्रः, शक्रः, पुरुहूतः, पुरन्दरः ।।
शब्दत्वम् । यथा-इन्द्रः, शक्रः, पुरन्दर इति । अनुदरा कन्येति ।
यथा, अनुदरा कन्या इति। अस्त्येव संख्यावाची। तद्यथा, एको द्वी
संख्यावाची यथा-एको द्वौ बहव इति । बहव इति। बहुरोदनो बहुः सूप इति ।
बहुरोदनो बहुः सूप इति । सिद्धे विधिरारभ्यमाणो ज्ञापकार्थो भवति ।
सिद्धे विधिरारभ्यमाणो नियमार्थः । हि मन्ये रथेन यास्यसीति ।
एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यति
यातस्ते पितेति। भाविकृत्यमासीत् । पुत्रो जनिष्यमाण
विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो जनिता। भाविकृत्यआसीत् ।
मासीदिति। अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः । अर्थ संप्रत्याय
____ अथवा अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः तत्रैकस्यार्थयिष्यामीति शब्दः प्रयुज्यते तत्रैकेनोक्तत्वात्तस्यार्थस्य | स्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थकः । द्वितीयस्य च तृतीयस्य च प्रयोगेण न भवितव्यं उक्तार्थानामप्रयोगः । एकश्च तन्तुस्त्वक्त्राणेऽसमर्थस्तत्समुदा
भवति हि कश्चित्प्रत्येकं तन्तुस्त्वक्त्राणे यश्च कम्बल: समर्थः। एकश्च बल्वजो बन्धनेऽसमर्थ- | समर्थः । स्तत्समुदायश्च रज्जुः समर्था भवति । इमानीन्द्रियाणि कदाचित्स्वातन्त्र्येण विव
स्वातन्त्र्यविवक्षा च दश्यते । इदं मे अक्षि क्षितानि भवन्ति। तद्यथा इदं मे अक्षि सुष्ठ पश्यति, | सुष्ठ पश्यति । अयं मे कर्णः सुष्ठ शृणोति। अयं मे कर्णः सुष्ठ शृणोतीति ।। कदाचित पारतन्त्र्ये विवक्षितानि भवन्ति
लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा अनेनाक्ष्णा सुष्ठ पश्यामि । अनेन कर्णेन सुष्ठु | दृश्यते। अनेनाक्षणा सुष्ठ पश्यामि । अनेन कर्णेन सुष्ठ शृणोमि ।
शृणोमीति। द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुप- द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानं कालभेदात् ।
संख्यानम् । अवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः ।
अवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः ।
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सर्वार्थसिद्धि
हि।
पातंजल महाभाष्य
सर्वार्थसिद्धि हेतुनिर्देशश्च निमित्तमात्रे भिक्षादिषु
निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृव्यपदेशो दृष्ट: । दर्शनात् । हेतुनिर्देशश्च निमित्तमात्रे द्रष्टव्यः। यावद् | यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति । ब्रूयान्निमित्तं कारणमिति तावद्धतुरिति । किं प्रयोजनम् । भिक्षादिषु दर्शनात । भिक्षादिष्वपि णिज दृश्यते भिक्षा वासयन्ति कारीषोऽग्निरध्यापयति इति । - स बुद्धया निवर्तते । य एष मनुष्यः प्रेक्षा
..'स बुद्धया सम्प्राप्य निवर्तते । एवमिपूर्वकारी भवति स पश्यति ।
हापि य एष मनुष्यः प्रेक्षापूर्वकारी स पश्यति। । तद्यथा संगतं घृतं संगतं तेलमित्युच्यते । । तद्यथा संगतं घृतं संगतं तैलमित्युच्यते । एकोभूतमिति गम्यते।
एकीभूतमिति गम्यते । कल्प्यो हि वाक्यशेषो वाक्यं च वक्तर्यधीनं ___ कल्प्यो हि वाक्यशेषो वाक्यं च वक्तर्य
धीनम् । रत्नकरणक-यह दिगम्बर परम्पराका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस में धर्म के स्वरूपका व्याख्यान कर व धर्मको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रस्वरूप बतला कर पाँच अध्यायोंमें इन तीनों रत्नोंका क्रमसे विवेचन किया गया है, इसलिए इसको रत्नकरण्डक कहते हैं। किन्तु सम्यक् चारित्रका प्रतिपादन करते समय सकल चारित्रका उल्लेखमात्र करके इसमें मुख्यतया विकलचारित्र (श्रावकाचार) का ही विस्तारके साथ निरूपण किया गया है, इसलिए इसे रत्नकरण्डकश्रावकाचार भी कहते हैं। साधारणतः इसके कर्ताके सम्बन्ध में प्रसिद्धि है कि यह दिगम्बर परम्पराके प्रसिद्ध आचार्य समन्तभद्र स्वामीकी अमर कृति है । अभी तक जितने प्राचीन उल्लेख मिलते हैं उनसे इसी तथ्यकी पुष्टि होती है। स्वयं प्रभाचन्द्र आचार्य जिन्होंने कि इस पर विस्तृत संस्कृत टीका लिखी है वे भी इसे स्वामी समन्तभद्रकी ही कृति मानते हैं। जैसा कि इसके प्रत्येक अध्यायके अन्त में पायी जानेवाली पुष्पिकासे विदित होता है। ऐसी अवस्था में आचार्य पूज्यपादके सामने सर्वार्थ सिद्धि लिखते समय रत्नकरण्डक अवश्य होना चाहिए। आगे हम इन दोनों ग्रन्थोंके कुछ ऐसे उल्लेख उपस्थित करते हैं जिससे इस विषयके अनुमान करने में सहायता मिलती है। उल्लेख इस प्रकार हैं1. रत्नकरण्डक में व्रतका स्वरूप इन शब्दों में व्यक्त किया है--
'अभिमन्षिकृता विरतिविषयायोगान् व्रतं भवति ॥3, 30 ।। इसी बात को सर्वार्थसिद्धि में इन शब्दों में व्यक्त किया है
व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः। 7--11 रत्नकरण्डकमें अनर्थदण्डके ये पांच नाम दिए हैं—पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या । सर्वार्थसिद्धि में भी ये ही पांच नाम परिलक्षित होते हैं। इतना ही नहीं इनके कुछ लक्षणों के विषय में भी अपूर्व शब्दसाम्य दृष्टिगोचर होता है। यथा -
'तिर्यक्लेशवाणिज्यहिसारम्भप्रलम्भनादीनाम् ।
कथाप्रसंगप्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेशः॥' रत्न 3॥ 'तिर्यकरलेशवाणिज्यप्राणिवधकारम्भादिषु पापसंयुक्तं वचनं पापोपवेशः।' स०7,211
'क्षितिसलिलबहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेबम्।
मरणं सारणमपि च प्रमावचर्या प्रभाषन्ते ॥' रन 3,341 'प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेवनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाघवद्यकर्म प्रमावाचरितम् ।' सर्वा० 211
देखो 40 जुगलकिशोरजी द्वारा सम्पादित और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रस्तावना, पृ० 5 से पृ० 15 तक। 2. इति प्रभाचन्द्रविरचितायां समन्तभद्रस्वामिविरचितोपासकाध्यवनटीकायां प्रथमः परिच्छेदः ।
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प्रस्तावना
इन दोनों प्रत्योंमें भोगोपभोगवत या उपभोगपरिभोगवतके निरूपण में जो अर्थ और शब्दसाम्य दृष्टिगोचर होता है वह तो और भी विलक्षण है। दोनोंमें भोग और उपभोगके प्रकार दिखलाकर जसघात बहुत और अनिष्ट के त्यागका उपदेश दिया गया है। मात्र रत्नकरण्डक में इनके सिवा अनुपसेव्य के त्यागका निर्देश विशेषरूपसे किया गया है। रत्नकरण्डक मे उल्लेख इस प्रकार है-
च
'सतिपरिहरणार्थ क्षीरं पिशितं प्रमादपरिहृतये । म वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातं ॥ 3,38 ॥ 'अल्पफल बहुविधतामूलकमाचि शृङ्गवेराणि । नवनीत निम्बकुसुमं तकमित्येवमवयम् ॥ 3,39 ।। पदनिष्टं तद्वतयेद्यच्चानुपसेश्यमेतदपि जह्यात् ॥ 3,401 इसी विषयको सर्वार्थसिद्धि में देखिए
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'ममम च सदा परिहर्तभ्यं त्रसघातान्निवृतचेतसा। केतक्यर्जुनपुष्पादीनि भृङ्गवेरमूलकादीनि बहुजन्यस्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुपातात्यफलश्वात् । यानवाहनाभरणाविष्येताववे वेष्ट मतोऽन्यदनिष्टमित्य निष्टान्निवर्तनं कर्तव्यम् 17, 22
इतने विलक्षण साम्यके होते हुए भी इन दोनों ग्रन्थों में कुछ विशेषता है। प्रथम विशेषता तो यह है कि रत्नकरण्डकमै प्रोषध' शब्दका अर्थ 'सत्कृद्मुक्ति' किया है और सर्वार्थसिद्धि में 'पर्व' तथा दूसरी विशेषता यह है कि रत्नकरण्डकमें आठ मूलगुणोंका स्वतन्त्र रूप से उल्लेख किया है जब कि सर्वसिद्धि में इनकी यत्किचित् भी चर्चा नहीं की है। इसलिए शंका होती है कि यदि सर्वार्थसिद्धि रत्नकरण्डक के बादकी रचना मानी जाय तो उसमें वह अन्तर नहीं दिखाई देना चाहिए। 'प्रोषध' शब्द के अर्थ को हम छोड़ सकते है, क्योंकि उसे पर्व पर्यायके अर्थ में स्वीकार करनेमें आपत्ति नहीं है तब भी आठ मूलगुणोंके निर्देश और अनिर्वेशका प्रश्न बहुत ही महत्व रखता है। पाठक जिसने भी प्राचीनकालकी ओर जाकर देखेंगे कि पूर्व काल में आठ मूलगुणों का उल्लेख श्रावकके कर्तव्यों में अलगसे नहीं किया जाता था । किन्तु उनके स्थान पर सामायिक आदि षट्कर्म ही प्रचलित थे। सर्वप्रथम यह उल्लेख रत्नकरण्डक में ही दिखलाई देता है।
(स्व०) डॉ० हीरालालजी रत्नकरण्डकको श्री स्वामी समन्तभद्रकी कृति मानने में सन्देह करते हैं। उनका यह विचार बननेका मुख्य कारण यह है कि वादिराजसूरिते अपने पार्श्वनाथचरितमें देवागम के कर्ता स्वामी समन्तभद्रका उल्लेख करनेके बाद पहले 'देव' पद द्वारा जैनेन्द्र व्याकरणके कर्ता आचार्य पूज्य - पादका उल्लेख किया है और इसके बाद रत्नकरण्डक के कर्ताका स्मरण करते हुए उन्हें 'योगीन्द्र' नाम से सम्बो धित किया है। डॉ० साहब का खयाल है कि ये 'योगीन्द्र' स्वामी समन्तभद्र से भिन्न होने चाहिए जो कि आचार्य पूज्यपाद के बाद के प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथचरितमें आचार्य पूज्यपाद के बाद आचार्य योगीन्द्रका स्मरण किया है और उन्हें रत्नकरण्डकका निर्माता कहा है। इसकी पुष्टि में उन्होंने और भी कई प्रमाण दिये हैं, पर उनमें मुख्य प्रमाण यही है ।
स्व० श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित होनेवाले सटीक रत्नकरण्यावकाचारकी प्रस्तावना में रत्नकरण्डककी अन्तःपरीक्षा करके यह सम्भावना प्रकट की है कि जिस रूप में इस समय वह उपलब्ध होता है वह उसका मूलरूप नहीं है । लिपिकारों और टिप्पणकारोंकी असावधानी यश कई प्रक्षिप्त श्लोक मूलके अंग बन गये हैं । हमारा अनुमान है कि अष्ट मूलगुणोंका प्रतिपादक यह श्लोक भी इसी प्रकार मूलका अंग बना है। यद्यपि मुक्तार साहब आठ मूलगुणोंके प्रतिपादक श्लोकको प्रक्षिप्त नहीं मानते। उन्होंने इसका कोई खास कारण तो नहीं दिया। केवल उपसंहार करते हुए इतना ही
1. देखो माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित पार्श्वनाथ चरित, सर्ग 1, श्लोक 17, 18 और 191 2. देखो, प्रस्तावना पृष्ठ 15 से पृष्ठ 53 तक ।
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सर्वार्थसिद्धि
कहा है कि 'इसके न रहनेसे अथवा यों कहिए कि श्रावकाचार विषयक ग्रन्थमें श्रावकोंके मूलगुणोंका उल्लेखन न होनेसे, ग्रन्थ में एक प्रकारकी भारी त्रुटि रह जाती जिसकी स्वामी समन्तभद्र जैसे अनुभवी ग्रन्थकारोंसे कभी आशा नहीं की जा सकती थी।
. हम यह तो मानते हैं कि केवल वादिराजसूरिके उल्लेखके आधारसे यह तो नहीं माना जा सकता कि रत्नकरण्डक स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है, क्योंकि उन्होंने आचार्योंका उल्लेख सर्वथा कालक्रमके आधारसे नहीं किया है। यथा-दे अध्याय 1 श्लोक 20 में अकलंकका उल्लेख करने के बाद 22वें श्लोकमें सन्मतितके कर्ताका स्मरण करते हैं। यह भी सम्भव है कि किसी लिपिकारकी असावधानीवश रत्नकरण्डक का उल्लेख करनेवाला पार्श्वनाथचरितका त्यागी स एव योगीन्द्रः' श्लोक 'अचिन्त्यमहिमा देवः' इस श्लोकके बाद लिपिबद्ध हो गया हो। मुद्रित प्रतिमें ये श्लोक इस रूपमें पाये जाते हैं।
स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वतो येनाद्यापि प्रबर्यते ॥ 1, 17॥ अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा। शब्दाश्च येन सियन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः।। 1, 18॥ त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षय्यसुखावहः ।
अथिने भव्यसाय विष्टो रत्नकरण्डकः ॥ 1, 19॥ किन्तु इनमें से 19 संख्यांकवाले श्लोकको 17 संख्यांकवाले श्लोकके बाद पढ़ने पर 'त्यागी स एव योगीन्द्रों इस पद द्वारा स्वामी समन्तभद्रका ही बोध होता है और सम्भव है कि वादिराजसूरिने रत्नकरण्डक का कर्तृत्व प्रकट करनेके अभिप्रायसे पुनः यह श्लोक कहा हो। किन्तु दूसरे प्रमाणोंके प्रकाशमें इस सम्भावना द्वारा रत्नकरण्डक को स्वामी समन्तभद्रकर्तृक मान लेनेपर भी उसमें आठ मूलगुणोंका उल्लेख अवश्य ही विचारणीय हो जाता है। इस विषय में हमारा तो खयाल है कि जिस काल में श्रावकके पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ये तीन भेद किए गये और इस आधारसे श्रावकाचार के प्रतिपादन करनेका प्रारम्भ हुआ उसी कालसे आठ मूलगुणोंका वर्गीकरण हो कर उन्हें श्रावकाचारों में स्थान मिला है। रत्नकरण्डकमें कुछ ऐसे बीज हैं जिनसे उसका संकलन दूसरे श्रावकाचारों में हुए विकास क्रमके बहुत पहलेका माना जा सकता है। अतएव सम्भव है कि रत्नकरण्डक में अठ मूलगुणोंका उल्लेख प्रक्षिप्त हो। रत्नकरण्डकमें जिस स्थानपर यह आठ मूलगुणोंका प्रतिपादक श्लोक संकलित है उसे देखते हुए तो यह सम्भावना और भी अधिक बढ़ जाती है ! इसके पहले स्वामी समन्तभद्र अतीचारोंके साथ पांच अणुव्रतोंका कथन पर आये हैं और आगे वे सात शीलव्रतोंका अतीचारोंके साथ कथन करने वाले हैं। इनके बीच में यह श्लोक आया है जो अप्रासंगिक है।
युक्त्यनुशासन-स्वामी समन्तभद्रकी रत्नकरण्डकके समान अन्यतम अमर कृति उनका युक्त्यनुशासन है। इसमें वीर जिनकी स्तुति करते हुए युक्तिपूर्वक उनके शासनकी स्थापना की गयी है । इसके एक स्थलपर वे कहते हैं कि जो शीर्षोपहार आदिके द्वारा देवकी आराधना कर सुख चाहते हैं और सिद्धि मानते हैं उनके आप गुरु नहीं हो। श्लोक इस प्रकार है
'शीर्षोपहारादिभिरात्मदुःखदेवान् किलाराध्य सुखाभिगद्धाः।
सियन्ति बोषापचयानपेक्षा युक्तं च तेषां त्वमषिनं येषाम् ॥' अब इसके प्रकाश में सर्वार्थ सिद्धि के इस स्थलको पढ़िएतेन तीर्थाभिषेकदीक्षाशीर्षापहारदेवताराधनादयो निवतिता भवन्ति । अ० 9, सू० 2 की टीका।
इस तुलनासे विदित होता है कि आचार्य पूज्यपादके समक्ष युक्त्यनुशासनका उक्त वचन उपस्थित था।
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1. देखो प्रस्तावना पृ० 32 ।
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प्रस्तावना
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द्वात्रिंशत्का-आचार्य पूज्यपादके पूर्व और स्वामी समन्तभद्र के बाद विक्रमकी पांचवीं छठवीं शताब्दी के मध्य में सिद्धसेन दिवाकर एक बहुत बड़े आचार्य हो गये हैं जिनका उल्लेख दिगम्बर आचार्योंने बड़े आदरके साथ किया है। इनके द्वारा रचित सन्म तितर्क ग्रन्थ प्रसिद्ध है । अनेक द्वात्रिंशत्काओंके रचयिता भी यही माने जाते हैं। आचार्य पूज्यपादने अध्याय 7 सूत्र 13 की सर्वार्थसिद्धि टीका में 'वियोजयति चासुभिः' यह पद उदधत किया है जो इनकी सिद्धद्वात्रिंशत्कासे लिया गया जान पड़ता है।
इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में कुछ ऐसी गाथाएं, पद्य और वाक्य उद्धृत हैं जिनमें से कुछके स्रोतका हम अभी तक ठीक तरहसे निर्णय नहीं कर सके हैं और कुछ ऐसे हैं जो सर्वार्थसिद्धिके बादमें संकलित हुए या रचे गये ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। यहाँ हमने उन्हीं ग्रन्थोंका परिचय दिया है जो निश्चयत: आचार्य पूज्यपाद के सामने रहे हैं। मंगलाचरण- सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में यह मंगल श्लोक आता है
'मोक्षमार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥' यहाँ विचार इस बातका करना है कि यह मंगल श्लोक तत्त्वार्थसूत्रका अंग है या सर्वार्थसिद्धिता । प्रायः सब विद्वानोंका मत इसे तत्त्वार्थसूत्रका अंग माननेके पक्ष में है। वे इसके समर्थन में इन हेतुओंको उपस्थित करते हैं
एक तो तत्त्वार्थसूत्रकी हस्तलिखित अधिकतर जो प्राचीन प्रतियां उपलब्ध होती हैं उनके प्रारम्भ में यह मंगल श्लोक उपलब्ध होता है और दूसरे आचार्य विद्यानन्दने अपनी आप्तपरीक्षामें इसे सूत्रकारका कहकर इसका उल्लेख किया है। यथा
कि पुनस्तत्परमेष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्राची सूत्रकाराःप्राइरिति निगद्यते।' आचार्य विद्यानन्द इतना ही कहकर नहीं रह गये। वे आप्तपरीक्षा का उपसंहार करते हुए पुनः कहते हैं
'श्रीमत्तस्वार्थशास्त्रातसलिलनिषेरितरत्नोद्भवस्य, प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिवे शास्त्रकारः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितएथपथं स्वामिमीमांसितं तत,
विद्यानन्वैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धये ॥ 123॥ प्रकृष्ट रत्नोंके उद्भवके स्थानभूत श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रकी रचनाके आरम्भ काल में महान मोक्षपथको प्रसिद्ध करनेवाले और तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्रको शास्त्रकारोंने समस्त कर्म मलके भेदन करनेके अभिप्रायसे रचा है और जिसकी स्वामीने मीमांसा की है उसी स्तोत्रका सत्य वाक्यार्थकी सिद्धिके लिए विद्यानन्दने अपनी शक्ति के अनुसार किसी प्रकार निरूपण किया है। इसी बातको उन्होंने इन शब्दों में पुनः दुहराया है
'इति तत्वार्थशास्त्रावो मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा ।
प्रणीताप्तपरीक्षयं विवादविनिवृत्तये ॥ 124॥ इस प्रकार तत्त्वार्थशास्त्र के प्रारम्भमें मुनीन्द्र के स्तोत्रकी विषयभूत यह आप्तपरीक्षा विवादको दूर करने के लिए रची गयी है।
__ आप्तपरीक्षाके ये उल्लेख असंदिग्ध हैं। इनसे विदित होता है कि आचार्य विद्यानन्द उक्त मंगल श्लोक को तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका मानते हैं ।
1. देखो भारतीय विद्या भाग 3, पृष्ठ 11। 2. देखो जिनसेन का महापुराण । 3. देखो पुरातन जैन वाक्यसूची, प्रस्तावना पृ० 132 ।
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सर्वार्थसिद्धि
किन्तु इस मंगल श्लोकके रचयिता तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य गद्धपिच्छ नहीं हैं इसके समर्थन में ये युक्तियाँ उपस्थित की जाती हैं
1. यदि इस मंगल श्लोकके रचयिता तत्त्वार्थसूत्रके निर्माता स्वयं गद्धपृच्छ आचार्य होते और तत्त्वार्थसूत्रके साथ यह मंगल श्लोक आचार्य पूज्यपादको उपलब्ध हुआ होता तो वे इसपर अपनी व्याख्या अवश्य लिखते । उसे बिना व्याख्याके वे सर्वार्थसिद्धिका अंग न बनाते ।
2. आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थ सिद्धिकी प्रारम्भिक उत्थानि का द्वारा यह स्पष्टतः सूचित करते हैं कि किसी भव्यके अनुरोधपर आचार्य गृद्धपिच्छ के मुख से सर्वप्रथम 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यह सूत्र प्रकट हुआ। इससे विदित होता है कि उन्हें मंगलाचरण करनेका प्रसंग ही उपस्थित नहीं हुआ।
3. तत्त्वार्थवातिककार भट्ट अकलंकदेव भी इस मंगल श्लोकको तत्त्वार्थसूत्रका अंग नहीं मानते। अन्यथा वे इसकी व्याख्या अवश्य करते और उस उत्थानिकाको स्वीकार न करते जिसका निर्देश आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में किया है। तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याकारकी दृष्टि से आचार्य विद्यानन्दकी स्थिति भट्ट अकलंकदेवसे भिन्न नहीं है। उन्होंने भी तत्त्वार्थश्लोकवातिक में इस मंगल श्लोककी व्याख्या नहीं की है। इतना ही नहीं इन दोनों आचार्योंने अपने भाष्यग्रन्थों के प्रारम्भमें उसका संकलन भी नहीं किया है।
ये दो मत हैं जो किसी एक निर्णयपर पहुंचने में सहायता नहीं करते। फिर भी हम प्रथम मतके आधारोंको अधिक तथ्यपूर्ण मानते हैं क्योंकि आजसे लगभग एक हजार वर्षके पूर्व भी जब मंगल-श्लोक तत्त्वार्थसूत्रकारका माना जाता रहा है तो उस पर सन्देह करना अप्रासंगिक प्रतीत होता है ।
3. तत्त्वार्थसूत्रकार पुरानी परम्परा-शास्त्रकी प्रमाणता और अप्रमाणताका प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय है। प्राचीनकालमें सभी शास्त्रकार शास्त्रके प्रारम्भमें या अन्त में अपने नाम, कुल, जाति, वास्तव्यस्थान आदिका उल्लेख नहीं करते थे, क्योंकि वे उस शास्त्रका अपने को प्रणेता नहीं मानते थे। उनका मुख्य कार्य परम्परासे प्राप्त भगवान्की द्वादशांग वाणीको संक्षिप्त, विस्तृत या भाषान्तरित कर संकलित कर देना मात्र होता था । वे यह अच्छी तरहसे जानते थे कि किसी शास्त्रके साथ अपना नाम आदि देनेसे उसकी सर्वग्राह्यता या प्रामाणिकता नहीं बढ़ती। अधिकतर शास्त्रों में स्थल-स्थलपर जिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा है।, यह जिनदेवका उपदेश है, सर्वज्ञदेवने जिस प्रकार कहा है उस प्रकार हम कहते हैं, इन वचनोंके उल्लेखके साथ उनका प्रतिपाद्य विषय चचित होता है। यह क्यों ? इसलिए कि जिससे यह बोध हो कि यह किसी व्यक्तिविशेषका अभिप्राय न होकर सर्वज्ञदेवकी वाणी या उसका सार है । वस्तुतः किसी शास्त्र के अर्थोपदेष्टा छद्मस्थ न होकर वीतराग सर्वज्ञ होते हैं। छद्मस्थ गणधर तो उनके अर्थोपदेशको सुनकर उनकी वाणीका ग्रन्थरूप में संकलनमात्र करते हैं । यही संकलन परम्परासे आकर नाना आचार्यों के ज्ञानका विषय होकर अनेक प्रकीर्णक शास्त्रोंको जन्म देता है। पूर्वकालीन आचार्य इस तथ्यको उत्तम रीतिसे समझते थे और इसलिए वे नाम रूपके व्यामोहसे मुक्त रहकर द्वादशांगवाणी के संकलन में लगे रहते थे। आचार्य पुष्पदन्त, आचार्य भूतबलि, आचार्य गुणधर, आचार्य यतिवृषभ, आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी समन्तभद्र, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य पूज्यपाद प्रभृति ऐसे अनेक आचार्य हुए हैं जिन्होंने इस मार्गका अनुसरण किया है और भगवान् तीर्थकरकी वाणीका संकलन कर उसे लोककल्याणके हेतु अर्पित किया है। इतना ही क्यों, आचार्य गृद्धपृच्छ भी उन्हीं में एक हैं जिन्होंने तत्त्वार्थसूत्र जैसे ग्रन्थरत्नको अवशिष्ट समग्र श्रुतके आधारसे संकलन कर नाम प्रख्यापन के
1. 'भणियो खलु सम्वदरसीहि समयप्राभत, गाथा 701 2. 'एसो जिणोवदेसो' समयप्राभूत, गाथा 1501 3. 'सद्दविकारो हूओ भासासूत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायंसीसेण य भद्दबाहुस्स ॥' बोधपाहुड़, गाथा 611 4. 'तित्थयरभासियत्थं गणहरदेवेहि गुंथियं सम्मं ।' भावपाहुड, गाथा 92। 5. देखो सर्वा०, अ01, सू० 201
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प्रस्तावना
व्यामोहसे अपने को मुक्त रखा है। प्राचीन कालमें यह परिपाटी जितनी अधिक व्यापक थी, श्रुतधर आचार्योका उसके प्रति उतना ही अधिक आदर था ।
आज श्रुतधर आदि अनेक आचार्योंके जीवन परिचय और उनके कार्योंके तथ्यपूर्ण इतिहासको संकलित करने में जो कठिनाई आती है उसका कारण यही है। इसे हम कठिनाई शब्दसे इस अर्थ में पुकारते हैं, क्योंकि यह काल ऐतिहासिक तथ्योंके संकलनका होनेसे इस वातपर अधिक बल दिया जाता है कि कौन आचार्य किस कालमें हुए हैं, उनका गाहं स्थिक जीवन क्या था और उनके उल्लेखनीय कार्य कौन-कौनसे हैं आदि ।
प्रकृतमें हमें तस्वार्थसूत्र के रचयिता के सम्बन्ध में विचार करना है। तस्वार्थसूत्रका संकलन आगमिक दृष्टिसे जितना अधिक सुन्दर और आकर्षक हुआ है उसके रचयिता के विषय में उतना ही अधिक विवाद है। जैनसंघ की कालान्तर में हुई दोनों परम्पराओंके कारण इस विवादको और भी अधिक प्रोत्साहन मिला है। पहला विवाद तो रचयिता के नामादिके विषय में है और दूसरा विवाद उनके अस्तित्व कालके विषय में है। यहाँ हम सर्वप्रथम उन अभ्रान्त प्रमाणको उपस्थित करेंगे जिनसे तस्यार्थसूत्र के रचयिता के निर्णय करने में सहायता मिलती है और इसके बाद विवादके कारणभूत तथ्योंपर प्रकाश डालेंगे।
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तस्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिन्छ - यह तो हम आगे चल कर देखेंगे कि आचार्य पूज्यपादने विविध विषयोंपर विशाल साहित्य लिखा है। फिर भी उन्होंने कहीं भी अपने नामका उल्लेख नहीं किया है। इतना ही नहीं, वे तस्वार्थसूत्रपर अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका लिखते समय भी इसी मार्गका अनुसरण करते हैं। ये इसकी उत्थानिकामें यहाँ तक तो निर्देश करते हैं कि कोई भव्य किसी आश्रम में मुनियों की सभा में बैठे हुए आचार्यवर्धके समीप जाकर विनय सहित प्रश्न करता है और उसीके फलस्वरूप तस्वार्थ सूत्रकी रचना होती है। फिर भी वे उन आचार्य आदिके नामादिन के विषय में मौन रहते हैं। क्यों ? हमें तो इस उपाध्यान से यही विदित होता है कि आचार्य पूज्यपादनो परम्परा से तस्यार्थसूत्र के कर्ता आदि विषयक इत्थम्भूत जानकारी होते हुए भी स्वकर्तृत्व की भावनाका परिहार करनेके अभिप्रायसे वे नामादिक के उल्लेखके पचड़े में नहीं पड़े । भट्ट अकलंकदेवने भी इसी मार्गका अनुसरण किया है। वे भी तत्त्वार्थवार्तिकके प्रारम्भ में उसी उत्थानिकाको स्वीकार करते हैं जिसका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में आचार्य पूज्यपादने किया है। इसलिए इन उल्लेखोंसे इस तथ्य पर पहुंचने पर भी कि इन आचार्योंको तस्वार्थसूत्र के कर्ता के नामादिककी कुछ-कुछ जानकारी अवश्य रही है, इससे इस बातका पता नहीं लगता कि आखिर वे जाचार्य कौन थे जिन्होंने भव्य जीवों के कल्याणार्थ यह महान् प्रयास किया है।
हम समझते हैं कि भारतीय परम्परा में मुख्यतः जैन परम्परा में नामादिकके उल्लेख न करनेकी यह परिपाटी विक्रम चौथी, पांचवीं शती तक बराबर चलती रही है। और कुछ आचार्योंने इसे इसके बाद भी अपनाया है। इसके बाद कई कारणोंसे इस नीति परिवर्तन होने लगता है और शास्त्रकार शास्त्र के प्रारम्भ में या अन्त में अपने नामादिका उल्लेख करने लगते हैं। इतना ही नहीं वे अन्य प्रकार से अपने पूर्ववर्ती शास्त्र कारोंका भी उल्लेख करने लगते हैं। अतएव हमें तत्त्वार्थसूत्र के रचयिताका ठीक तरहसे निर्णय करनेके लिए उत्तरकालवर्ती साहित्यका ही आलोडन करना होगा। अतः आइए पहले उत्तरकालवर्ती उन अभ्रान्त प्रमाणोंको देखें जो इस विषयपर प्रकाश डालते हैं
1. भुतघर आचायोंकी परम्परामें आचार्य वीरसेन महान् टीकाकार हो गये हैं। इन्होंने पण्डागमपर प्रसिद्ध धबला टीका शक संवत् 738 में पूरी की थी। उनकी यह टीका अनेक उल्लेखों और ऐतिहासिक तथ्योंको लिये हुए है। तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्रोंको उन्होंने इस टीकामें उद्धृत किया है। इतना ही नहीं जीवस्थान काल अनुयोगद्वार में तो तस्वार्थसूत्रकारके नामोल्लेखके साथ भी तत्वार्थसूत्रके एक सूत्रको वे उत करते हैं। वे कहते हैं
'हरियासियतचत्यमुले वि वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य छवि बच कालो पकविदो मुद्रित पृष्ठ 316
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सर्वार्थसिद्धि
इस उल्लेख में तत्त्वार्थसूत्रको स्पष्टतः गद्धपिच्छाचार्य के द्वारा प्रकाशित कहा गया है।
2. आचार्य विद्यानन्द भी महान् श्रुतधर आचार्य थे । इन्होंने अष्टसहस्री, विद्यानन्द महोदय, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा और तत्त्वार्थश्लोकवातिक आदि अनेक शास्त्रोंका प्रणयन कर जैन श्रुतकी श्रीवृद्धि की है। इनका वास्तव्य काल ई० सन् 775 (शक सं0 697) से ई० सन् 840 (शक सं0762) तक माना जाता है। ये तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक मुद्रित पृष्ठ 6 में लिखते हैं
'एतेन गतपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता।' इस द्वारा आचार्य विद्यानन्द यह सूचित करते हैं कि भगवान महावीरके शासन में जो सूत्रकार हुए हैं उनमें अन्तिम सूत्रकार गृद्धपिच्छ आचार्य थे।
स्पष्टतः यह उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ तकके सभी सूत्रकारोंको सूचित करता है, फिर भी पं० सुखलालजी इस विषय में सन्देह करते हैं। उन्होंने यह सन्देह स्वलिखित तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना पृष्ठ 106-107 में प्रकट किया है। उनका यह सन्देह विशेषतः तर्काश्रित है, इसलिए यहाँ हमें प्रथमत: इसपर इसी दृष्टिसे विचार करना है।
पण्डितजीका तर्क है कि पूर्वोक्त दूसरा कथन तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रका मोक्षमार्गविषयक सूत्र सर्वज्ञ वीतरागप्रणीत है इस वस्तुको सिद्ध करनेवाली अनुमान चर्चा में आया है। इस अनुमान चर्चा में मोक्षमार्गविषयक सूत्र पक्ष है, सर्वज्ञ वीतराग प्रणीतत्व यह साध्य है और सूत्रत्व यह हेतु है। इस हेतु में व्यभिचार दोषका निरसन करते हुए विद्यानन्दने 'एतेन' इत्यादि कथन किया है। व्यभिचार दोष पक्ष से भिन्न स्थल में सम्भवित होता है। पक्ष तो मोक्षमार्गविषयक प्रस्तुत तत्त्वार्थसूत्र ही है इससे व्यभिचार का विषयभूत माना जानेवाला गद्धपिच्छाचार्यपर्यन्त मुनियोंका सूत्र यह विद्यानन्दकी दृष्टि में उमास्वातिके पक्षभूत मोक्षमार्गविषयक प्रथम सूत्रसे भिन्न ही होना चाहिए, यह बात न्यायविद्याके अभ्यासीको शायद ही समझानी पड़े ऐसी है।
पण्डितजी के इस तर्काश्रित वक्तव्यका सार इतना ही है कि आचार्य विद्यानन्दने यहाँपर जिस गुद्धपिच्छाचार्यपर्यन्त मुनिसूत्रका उल्लेख किया है । वह उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रसे भिन्न ही है।
जहाँ तक पण्डितजीका यह वक्तव्य है उसमें हमें अप्रामाणिकताका दोषारोप नहीं करना है, किन्तु पण्डितजी यदि उक्त अनुमान प्रसंगसे आचार्य विद्यानन्दके द्वारा उठाये गये अवान्तर प्रसंग पर दृष्टिपात करते तो हमारा विश्वास है कि वे गद्धपिच्छ आचार्यके सूत्रसे तथाकथित उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्रको भिन्न सिद्ध करनेका प्रयत्न नहीं करते।
आचार्य विद्यानन्द द्वारा उठाया गया वह अवान्तर प्रसंग है गणाधिप, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्नदशपूर्वी के सूत्र वचनको स्वरचित मानकर व्यभिचारदोषका उद्धावन । स्पष्ट है कि इसमें इस अभिप्रायसे गृद्धपिच्छाचार्यका तत्त्वार्थसूत्र भी गभित है, क्योंकि यहाँपर वह स्वकर्तृकरूपसे सर्वज्ञ वीतरागप्रणीत सूत्रसे कथञ्चित् (कर्ता गृद्धपिच्छाचार्य हैं इस दृष्टिसे) भिन्न मान लिया गया है। प्रकृतमें इस विषयको इन शब्दों द्वारा स्पष्ट करना विशेष उपयुक्त होगा। प्रस्तुत अनुमान में प्रकृत सूत्र पक्ष है, सर्वज्ञ वीतराग प्रणीतत्व साध्य है, सूत्रत्व हेतु है, सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत शेष सूत्र सपक्ष है और बृहस्पति आदिका सूत्र विपक्ष है। इस अनुमान द्वारा तत्त्वार्थसूत्रको सूत्रत्व हेतु द्वारा सर्वज्ञ वीतरागकर्तृक सिद्ध किया गया है। इससे सिद्ध है कि यहाँ आचार्य विद्यानन्द तत्त्वार्यसूत्रको गृद्धपिच्छाचार्यकर्तृक मानकर सूत्र सिद्ध नहीं कर रहे हैं । सूत्रत्वकी दृष्टिसे, यह गृद्धपिच्छाचार्य रचित है इस बातको, वे भूल जाते हैं। वे कहते हैं कि यह सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत है, इसलिए सूत्र है।
फिर भी यदि कोई यह कहे कि यह तत्त्वार्थसूत्र सर्वज्ञ वीतरागप्रणीत न होकर गृपिच्छाचार्य रचित
1. देखो न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी द्वारा सम्पादित और वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित आप्तपरीक्षाकी प्रस्तावना पृष्ठ 50 ।
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प्रस्तावना
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है तो ऐसी अवस्था में सर्वज्ञ वीतरागप्रणीत तत्त्वार्थसुत्रसे कथञ्चित् भिन्न गृद्धपिच्छाचार्य प्रणीत तत्त्वार्थसूत्र पूर्वके अनुमानमें सपक्षभूत गणधरादि रचित सूत्रोंके समान विपक्ष कोटि में चला जायेगा और इसमें सूत्रत्व हेतुके स्वीकार करनेसे हेतु व्यभिचरित हो जायेगा। आचार्य विद्यानन्दने इसी व्यभिचार दोषका उपस्थापन कर उसका वारण करते हुए फलितांशके साथ यह समग्र वचन कहा है
गणाधिपप्रत्येकबुद्धश्रुतकेवल्यभिन्नवशपूर्वघरसूत्रेण स्वयंसंमतेन व्यभिचार इति चेत् ? न, तस्याप्यर्षतः सर्वनवीतरागप्रणेतकत्वसिरहंदभाषितार्थ गणपरवेथितमिति वचनात् । एतेन गडपिच्छाचार्यपर्यन्तमनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता।'
यहाँ स्वनिर्मित मानकर गणाधिप प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्नदशपूर्वीके सूत्रके साथ व्यभिपार दिखाया गया है। तत्त्वार्थसूत्रको गृद्धपिच्छाचार्य प्रणीत माननेपर भी यह व्यभिचार दोष आता है, क्योंकि पूर्वोक्त अनुमान में साध्य गृद्धपिच्छाचार्यका तत्त्वार्थसूत्र न होकर सर्वज्ञ वीतरागप्रणीत तत्त्वार्थसूत्र साध्य है। इसलिए गद्धपिच्छाचार्यका तत्त्वार्थसूत्र साध्यविरुद्ध होनेसे विपक्ष ठहरता है। हम यह तो मानते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र एक है, दो नहीं पर कर्ताके भेदसे वे दो उपचरित कर लिये गये हैं। एक वह जो सर्वज्ञ वीतरागप्रणीत है और दूसरा वह जो गद्धपिच्छाचार्यप्रणीत है। इसलिए जिस प्रकार गणाधिप आदिके सूत्रके साथ आनेवाले व्यभिचार दोषका वारण करना इष्ट था उसी प्रकार केवल गृद्धपिच्छाचार्य प्रणीत माननेसे जो व्यभिचार दोष आता था उसका वारण करना भी आवश्यक था और इसीलिए 'एतेन' इत्यादि वाक्य द्वारा उस दोषका वारण किया गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य विद्यानन्द भी वीरसेनस्वामी के समान इसी मतके अनुसा प्रतीत होते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता आचार्य गुद्धपिच्छाचार्य ही हैं। थोड़ी देरको यदि इस तर्काश्रित पद्धतिको छोड़ भी दिया जाये और पण्डितजीके मतको ही मुख्यता दी जाये तब भी आचार्य विद्यानन्द एतेन' इत्यादि वाक्य द्वारा तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता गुद्धपिच्छको ही सूचित कर रहे हैं इस मतके मानने में कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि आचार्य विद्यानन्दने पूर्वोक्त अनुमान द्वारा गृद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थसूत्रको तो सूत्र सिद्ध कर ही दिया थी, किन्तु इससे पूर्ववर्ती अन्य आचार्योंकी रचनाको सूत्र सिद्ध करना फिर भी शेष था जिसे उन्होंने गुसपिच्छाचार्यपर्यन्त अर्थात् गद्धपिच्छाचार्य हैं अन्तमें जिनके ऐसे अन्य गणाधिप आदि मुनिसूत्रके साथ आनेवाले व्यभिचारका वारण कर सूत्र सिद्ध कर दिया है। यहाँ अतद्गुणसंविज्ञान बहुव्रीहि समास है, अतः यह अभिप्राय फलित हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि गृद्धपिच्छाचार्यका कोई सूत्रग्रन्थ है इसे तो पं० सुखलालजी भी स्वीकार करते हैं। उन्हें केवल प्रस्तुत तत्त्वार्थसूत्रको उनका मानने में विवाद है। किन्तु अन्य ऐतिहासिक तथ्योंसे जब वे तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता सिद्ध होते हैं ऐसी अवस्था में आचार्य विद्यानन्दके उक्त वाक्यका वही अर्थ संगत प्रतीत होता है जो हमने किया है।
3. आचार्य गद्धपिच्छका बहुमानके साथ उल्लेख वादिराजसरिने भी अपने पार्श्वनाथचरित में किया है। सम्भवतः ये वही वादिराजसूरि हैं जिन्होंने पार्श्वनाथचरित के साथ प्रमाणनिर्णय, एकीभावस्तोत्र, यशोधरचरित, काकूस्थवरित और न्यायविनिश्चयविवरण लिखा है। इनके विषय में कहा जाता है
'वाविराजमन शाम्बिकलोको वादिराजमनु ताकिकसिंहः ।
वाविराजमनु काव्यकृतस्ते वाविराजमनु भन्यसहायः।" वे पार्श्वनाथचरितमें आचार्य गृद्धपिच्छका इन शब्दों द्वारा उल्लेख करते हैं
"अतुग्छगुणसंपातं गतपिच्छं नतोऽस्मि तम्। पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः।"
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सर्वार्थसिद्धि
उन महान् गुणोंके आकर गृद्धपिच्छको मैं नमस्कार करता हूँ जो निर्वाणको उड़कर पहुंचनेकी इच्छा रखनेवाले भव्योंके लिए पंखोंका काम देते हैं।
यद्यपि वादिराजसूरिने यहाँपर आचार्य गुद्धपिच्छके किसी अन्यका नामोल्लेख नहीं किया है तथापि यहाँ वे उन्हीं शास्त्रकारोंका स्मरण कर रहे हैं जिन्होंने मोक्षमार्गोपयोगी साहित्यकी सृष्टि कर संसारका हित किया है। वादिराजसूरिकी दृष्टि में तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता आचार्य गद्धपिच्छ उनमें सर्वप्रथम हैं।
इनमें से प्रथम दो उल्लेख विक्रमकी नौवीं शताब्दी के और अन्तिम उल्लेख ग्यारहवीं शताब्दीका है। इससे मालम पड़ता है कि इस काल तक जैन परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता आचार्य गृद्धपिच्छ हैं एकमात्र यही मान्यता प्रचलित थी।
अन्य मत-किन्तु इस मतके विरुद्ध तीन चार मत और मिलते हैं जिनकी यहाँ चर्चा कर लेना प्रासंगिक है।
1. श्वेताम्बर तत्त्वार्थभाष्यके अन्त में एक प्रशस्ति उपलब्ध होती है। उसमें कहा गया है कि जिनके दीक्ष गुरु ग्यारह अंगके धारक घोषनन्दि क्षमण थे और प्रगुरु वाचकमुख्य शिवश्री थे, वाचनाकी अपेक्षा जिनके गुरु मूल नामक वाचकाचार्य और प्रगुरु महावाचक मुण्डपाद थे, जो गोत्रसे कोभीषणि थे और जो स्वाति पिता और वात्सी माताके पुत्र थे, जिनका जन्म न्यग्रोधिकामें हुआ था और जो उच्चानागर शाखाके थे, उन उमास्वाति वचकने गुरुपरम्परासे प्राप्त हुए श्रेष्ठ अहंद्वचनको भली प्रकार धारण करके तथा दुरागम द्वारा हतबुद्धि दःखित लोकको देखकर प्राणियोंकी अनुकम्पावश यह तत्त्वार्थाधिगम नामका शास्त्र विहार करते हुए कुसुमपुर नामके महानगर में रचा है। जो इस तत्त्वार्थाधिगमको जानेगा और उसमें कथित मार्गका अनुसरण करेगा वह अव्याबाध सुख नामके परमार्थको शीघ्र ही प्राप्त करेगा।'
इसी प्रकार तत्त्वार्थभाष्यके प्रारम्भमें जो 31 उत्थानिका कारिकाएँ उपलब्ध होती हैं उनमेंसे 22वीं कारिकामें कहा गया है कि 'अहंद्वचन के एकदेशके संग्रहरूप और बहुत अर्थवाले इस तत्त्वार्थाधिगम नामवाले लघु प्रत्यको मैं शिष्योंके हितार्थ कहता हूँ।'
प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी उत्थानिकाकी इस कारिका और अन्तिम प्रशस्तिको विशेष महत्त्व देते है। वे इन्हें मूल सूत्रकारकी मानकर चलते हैं ।
इसके सिवा उन्होंने तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार इनको अभिन्न सिद्ध करनेके लिए दो युक्तियाँ और दी हैं
(क) प्रारम्भिक कारिकाओं में और कुछ स्थानोंपर भाष्य में भी 'वक्ष्यामि', 'वक्ष्यामः' आदि प्रथम पुरुषका निर्देश है और इस निर्देशमें की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार ही बादमें सूत्र में कथन किया गया है। इससे सूत्र और भाष्य दोनोंको एककी कृति मानने में सन्देह नहीं रहता।
(ख) शुरुसे अन्ततक भाष्यको देख जानेपर एक बात मनमें बैठती है और वह यह है कि किसी भी स्थलपर सूत्र का अर्थ करने में शब्दोंकी खींचातानी नहीं हुई, कहीं भी सूत्रका अर्थ करने में सन्देह या विकल्प करने में नहीं आया, इसी प्रकार सूत्रकी किसी दूसरी व्याख्याको मनमें रखकर सूत्रका अर्थ नहीं किया गया और न कहीं सूत्रके पाठभेदका ही अवलम्बन लिया गया है।
2. पं० नाथूरामजी प्रेमीका लगभग यही मत है। इस विषयका उनका अन्तिम लेख भारतीय विद्याके तृतीय भाग में प्रकाशित हुआ है। इन्होंने तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्यको अभिन्नकर्तृक सिद्ध करते समय पं० सुखलालजीकी उक्त तीनों युक्तियोंको ही कुछ शब्दोंके हेरफेरके साथ उपस्थित किया है। मात्र इन दोनों
1. देखो तत्त्वार्थभाष्यके अनमें पायी जानेवाली प्रशस्ति । 2. देखो उनके द्वारा लिखित तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना। 3. पं० सुखलालजीके तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना, पृष्ठ 21।
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प्रस्तावना
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विद्वानोंके मतों में यदि कुछ अन्तर प्रतीत होता है तो इतना ही कि पं० सुखलालजी वाचक उमास्वातिको सवस्त्र श्वेताम्बरपरम्पराका और प्रेमीजी यापनीय परम्पराका मानते हैं।
3. श्रवणवेलगोलाके चन्द्रगिरि पर्वतपर कुछ ऐसे शिलालेख पाये जाते हैं जिनमें गृद्धपिच्छ उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता कहा गया है। इन शिलालेखों में से 40, 42, 43,47 और 50वें शिलालेखों में गद्धपिच्छ विशेषणके साथ मात्र उमास्वातिका उल्लेख है और 105 व 108वें शिलालेखों में उन्हें तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता कहा गया है। ये दोनों शिलालेख डॉ. हीरालालजीके मतानुसार। क्रमश: शक सं0 1320 और शक सं0 1355 के माने जाते हैं । शिलालेख 155 का उद्धरण इस प्रकार है
'श्रीमानमास्वातिरयं यतीशस्तस्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गाचरणोधतानां पाथेयमध्यं भवति प्रजानाम् ॥15॥ तस्यैव शिष्य उजनि गपिच्छद्वितीयसंज्ञस्य बलाकपिच्छः ।
यत्सूषितरत्नानि भवन्ति लोके मुक्त्यंगनामोहनमणानानि ॥16॥' यतियोंके अधिपति श्रीमान् उमास्वा तिने तत्त्वार्थसूत्रको प्रकट किया जो मोक्षमार्गके आचरणमें उद्यत हुए प्रजा जनों के लिए उत्कृष्ट पाथेयका काम देता है। गृद्धपिच्छ है दूसरा नाम जिनका ऐसे उन्हीं उमास्वातिके एक शिष्य बलाक पिच्छ थे। जिनके सूक्तिरत्न मुक्त्यंगनाके मोहन करने के लिए आभूषणोंका काम देते है। शिलालेख 108 में इसी बातको इस प्रकार लिपिबद्ध किया गया है
'अभूवुमास्वातिमुनिः पवित्र वंशे तबीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मनिपुङ्गवेन ॥11॥' 'स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गढपक्षान् ।
तदा प्रभृत्येव बुषा यमाहुराचार्यशम्दोत्तरगयपिच्छम् ॥22॥' तस्वयंसूत्रपर विभिन्न समयों में छोटी-बड़ी टीकाएँ तो अनेक लिखी गयी हैं, पर उनमेंसे विक्रमकी 13वीं शतीके विद्वान् बालचन्द: मुनिकी बनायी हुई एक ही कनडी टीका है जिसमें उमास्वाति नामके साथ गद्धपिच्छाचार्य नाम भी दिया है।
4. पं० जुगुल किशोरजी मुख्तार कर्ता विषयक इसी मतको प्रमाण मानकर चलते हैं। उन्होंने गडपिच्छको उमास्वातिका ही नामान्तर कहा है।'
5. दिगम्बर परम्परा में मूल तत्त्वार्थसूत्रकी जो प्रतियां उपलब्ध होती हैं, उनके अन्त में एक श्लोक आया है
'तस्वार्थसूत्रकरिं गडपिच्छोपलक्षितम् ।
वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ॥ इस में गद्धपिच्छसे उपलक्षित उमास्वामी मुनीश्वरको तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता बतलाकर उन्हें गान्द्र कहा गया है। 6 नगर ताल्लुकेके एक शिलालेख में यह उल्लेख उपलब्ध होता है
'तत्त्वार्थसूत्रकारममास्वातिमुनीश्वरम् ।
श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ॥' इसमें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम उमास्वाति बतलाया है और उन्हें श्रुतकेवलिदेशीय तथा गुणमन्दिर कहा गया है।
7. आचार्य कुन्दकुन्दने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की है ऐसा भी उल्लेख देखने में आता है जो तत्त्वार्थ
1. देखो माणिक चन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित शिला-लेख संग्रह, भाग।। 2. देखो पं० कैलाशचन्द्रजीका तत्त्वार्थसूत्र, प्रस्तावना पृ० 161 3. देखो मा० ग्र० से प्रकाशित रत्नकरण्डक की प्रस्तावना, पृष्ठ 1451
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सर्वार्थ सिद्धि
पत्रकी अन्यतम टीका अर्हत्सूत्रवृत्तिका है। तत्त्वार्थसूत्रके एक श्वेताम्बर टिप्पणकार भी इस मतसे परिचित थे, उन्होंने अपने टिप्पण में इस मतका उल्लेख कर अपने सम्प्रदायको सावधान करनेका प्रयत्न किया है।
समीक्षा-इस प्रकार ये सात अन्य मत हैं जिनमें तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता कौन हैं इस बात का विचार किया गया है। इनमें से प्रारम्भ के श्वेताम्बर तत्त्वार्थभाष्यके उल्लेखको छोड़कर शेष सब उल्लेख लगभग 13वीं शताब्दीसे पूर्वके नहीं हैं और मुख्यतया वे गृद्धपिच्छ और उमास्वाति इन दो नामोंकी ओर ही किसी रूप में संकेत करते हैं। एक अन्तिम मत कि 'आचार्य कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता हैं' अवश्य ही विलक्षण लगता है, किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दकी गृद्धपिच्छ इस नामसे ख्याति होने के कारण ही यह मत प्रसिद्धि में आया है ऐसा प्रतीत होता है। मुख्य मत दो ही है जो यहाँ विचारणीय हैं। प्रथम यह कि आचार्य गद्धपिच्छ तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता हैं और दूसरा यह कि वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की है।
___साधारणतः हम पहले 'तत्त्वार्थसूत्र' इस नामके विषय में विचार करते हुए 'सूत्रपाठोंमें मतभेद' प्रकरणको लिखते हुए और पौर्वापर्यविचार' प्रकरण द्वारा सर्वार्थसिद्धि व तत्त्वार्थभाष्य की तुलना करते हुए कई महत्त्वपूर्ण बातोंपर प्रकाश डाल आये हैं जिनका सारांश इस प्रकार है...
1. वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रकी रचना की थी। किन्तु यह नाम तत्त्वार्थसूत्रका न हो कर सत्त्वार्थभाष्यका है।
2. सूत्रपाठों में मतभेदका उल्लेख करते समय यह सिद्ध करके बतलाया गया है कि यदि तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य के कर्ता एक ही व्यक्ति होते और श्वेताम्बर आचार्य इस तथ्यको समझते होते तो श्वेताम्बर सूत्रपाठमें जितना अधिक मतभेद उपलब्ध होता है वह नहीं होना चाहिए था।
3. सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यके पौर्वापर्यका विचार करते समय हम बतला आये हैं कि वाचक उमास्वातिके तत्वार्थभाष्य लिखे जाने के पहले ही तत्त्वार्थसूत्रपर अनेक टीका-टिप्पणियां प्रचलित हो गयी थीं। वहाँ हमने एक ऐसे सूत्र का भी उल्लेख किया है जो सर्वार्थ सिद्धिमान्य सूत्रपाटसे सम्बन्ध रखता है और जिसे वाचक उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थभाष्यमें उद्धृत किया है। अर्थविकासकी दृष्टि से विचार करते हुए इसी प्रकरणमें यह भी बतलाया गया है कि सर्वार्थ सिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य को सामने रख कर विचार करनेपर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ऐसे कई प्रसंग हैं जो तत्त्वार्थभाष्यको सर्वार्थ सिद्धिके बादकी रचना ठहराते हैं। और यह सिद्ध करते समय हमने एक उदाहरण यह भी दिया है कि कालके उपकार प्रकरण में परत्वापरत्वके सर्वार्थसिद्धि में केवल दो भेद किये गये हैं जब कि तत्त्वार्थभाष्यमें वे तीन उपलब्ध होते हैं।
इसलिए इन व दूसरे तथ्योंसे यह स्पष्ट हो जानेपर भी कि वाचक उमास्वाति आद्य तत्त्वार्थसूत्रकार नहीं होने चाहिए, इस विषयके अन्तिम निर्णय के लिए कुछ अन्य बातों पर भी दृष्टिपात करना है।
किसी भी रचयिताके सम्प्रदाय आदिका निर्णय करने के लिए उस द्वारा रचित शास्त्र ही मुख्य प्रमाण होता है। किसी भी शास्त्र में कुछ ऐसे बीज होते हैं जो उस शास्त्रके रचनाकाल व शास्त्रकारके सम्प्रदाय आदिपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। तत्त्वार्थसूत्रकारके समयादिका विचार करते समय प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीने भी इस सरणिको अपनाया है। किन्तु वहां उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य इन दोनोंको एकातक मानकर इस बात का विचार करनेका प्रयत्न किया है। इससे बहुत बड़ा धुटाला हुआ है। वस्तुतः इस बातका विचार केवल तत्त्वार्थसूत्रको और उसमें भी तत्त्वार्थसूत्रके उन सूत्रों को सामने रखकर ही होना चाहिए जो तत्त्वार्थसूत्र में दोनों सम्प्रदायोंको मान्य हों। इससे निष्पक्ष समीक्षा द्वारा किसी एक निर्णयपर पहुंचने में बहुत बड़ी सहायता मिलती है।
1. पं. कैलाशचन्द्रजीका तत्त्वार्थसुत्र, प्रस्तावना ५० 171 2. इसके लिए देखो हमारे द्वारा लिखे गये तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना। 3. देखो प्रवचनसारकी डॉ० ए० एन० उपाध्येकी भूमिका। 4. देखो पं० सुखलालजी द्वारा लिखित तत्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना, पृ०8 आदि ।
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प्रस्तावना
चार सूत्र-- यह तो स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ हो जानेपर भी अधिकतर सूत्र ऐसे हैं जो दोनों सम्प्रदायोंको मान्य हैं और उनमें भी कुछ ऐसे सूत्र अपने मुलरूपमें रहे आये हैं जिनसे रचयिताकी स्थिति आदिपर प्रकाश पड़ता है। यहाँ हम इस विचारणा में ऐसे सूत्रोंमेंसे मुख्य चार सूत्रोंको उपस्थित करते हैंप्रथम तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धके कारणों का प्रतिपादक सूत्र, दूसरा बाईस परीषहोंका प्रतिपादक सूत्र, तीसरा केवली जिनके ग्यारह परीषहोंके सद्भावका प्रतिपादक सूत्र और चौथा एक जीवके एक साथ कितने परीषह होते हैं इसका प्रतिपादक सूत्र ।
1. तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके कितने कारण हैं इसका उल्लेख दोनों परम्पराओंके मूल आगम करते हैं। दिगम्बर परम्पराके बंधसामित्तविचयमें वे ही सोलह कारण उल्लिखित हैं जो लगभग तत्त्वार्थसूत्र में उसी रूपमें स्वीकार किये गये हैं। तुलनाके लिए देखिए --
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीषणज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाषियावृस्यकरणमहवाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।
तस्वार्थसूत्र 6,241 बंसणविसुज्झवाए विणयसंपण्णवाए सोलम्वदेसु णिर विचारदाए आवासएसु अपरिहोणवाए सणलवशिषझणवाए लतिसंवेगसंपण्णदाए जषा थामे तथा तवे साहूण पासुअपरिचागदाए साहूण समाहिसंधारणाए साहणं वेज्जावच्चजोगजसदाए अरहंतमत्तीए बहुसुबभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलवाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणीवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोवं कम्म बंधति ।
-बंधसामित्सविच 75041। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा 16 के स्थानों में 20 कारण स्वीकार करती है। वहाँ ज्ञातृधर्मकथा नामक अंगके आठवें अध्याय में इन कारणोंका निर्देश इन शब्दों में किया है ---
'अरहंत-सिद्धि-पवयण गुरु-थेर बहुस्सुए तवस्सीसुं। बच्छलया य तेसि अभिक्खं जाणोवओगे य॥1॥ बसविणए आवस्सए य सोलम्सए निरइयारं। खणलव तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य॥2॥ अपुग्वणाणगहणं सुयभत्ती पवयणे पभावणया ।
ए एहि कारणेहि तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥3॥' यहाँ तत्त्वार्थसूत्रकी दो बातें ध्यान देने योग्य हैं -प्रथम बात तो 16 संख्याका निर्देश और दूसरी बात शब्दसाम्य । इस विषय में तत्त्वार्थसूत्रका उक्त सूत्र दिगम्बर परम्पराके जितने अधिक नजदीक है उतना श्वेताम्बर परम्पराके नजदीक नहीं है।
2. दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ 22 परीषहोंको स्वीकार करती हैं। तत्त्वार्थसूत्र में इनका प्रतिपादन करनेवाला जो सूत्र है। उसमें एक परीषहका नाम 'नाग्न्य' है । देखना यह है कि यहाँ तत्त्वार्थसूत्रकारने नाग्य शब्दको ही क्यों स्वीकार किया है। क्या इस शब्दका स्वीकार श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार आगम सम्मत हो सकता है। श्वेताम्बर परम्पराके आगम में 'नाग्न्य' परीपहके स्थान में सर्वत्र 'अचेल' परीषहका उल्लेख मिलता है। जो उस सम्प्रदायके अनुरूप है; क्योंकि अचेल शब्दमें 'नन्' समास होनेसे उस सम्प्रदाय में इस शब्दके वस्त्रका अभाव और अल्प वस्त्र' ये दोनों ही अर्थ फलित हो जाते हैं। परन्तु इस प्रकार 'नाग्म्य' शब्दसे इन दोनों अर्थोंको फलित नहीं किया जा सकता है। नग्न यह स्वतन्त्र शब्द है और इस शब्दका 'वस्त्रके आवरणसे रहित' एकमात्र यही अर्थ होता है। स्पष्ट है कि यह 22 परीषहोंका प्रति
1. देखो, अ09 सू०9। 2. समवायांग समवाय 22 व भगवती सूत्र 8, 8 ।
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सर्वार्थसिद्धि
पादन करनेवाला सूत्र भी जितना अधिक दिगम्बर परम्पराके नजदीक है उतना श्वेताम्बर परम्पराके नजदीक नहीं है।
3. बाईस परीषहों मेंसे एक साथ एक जीवके कितने परीषह हो सकते हैं इसका विचार करते हुए श्वेताम्बर आगम साहित्य (व्याख्याप्रज्ञप्ति श.8) में बतलाया है कि सात और आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाले जीवके 22 परीषह होते हैं। परन्तु ऐसा जीव एक साथ बीस परीषहोंका ही वेदन करता है। दो कौनसे परीषह कम हो जाते हैं इस बातका उल्लेख करते हुए वहाँ बतलाया है कि जिस समय वह जीव शीत परीषहका वेदन करता है उस समय वह उष्ण परीषहका वेदन नहीं करता और जिस समय उष्ण परीषहका वेदन करता है उस समय वह शीत परीषहका वेदन नहीं करता। इस प्रकार एक परीषह तो यह कम हो जाता है। तथा जिस समय चर्या परीषहया वेदन करता है उस समय निषद्यापरीषहका वेदन नहीं करता और जिस समय निषद्यापरीषहका वेदन करता है उस समय चर्या परीषहवा वेदन नहीं करता। इस प्रकार एक परीषह यह कम हो जाता है। कुल बीस परीषह रहते हैं जिनका वेदन यह जीव एक साथ करता है।
किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में परीषहों के एक साथ वेदन करनेकी अधिक-से-अधिक संख्या 19 निश्चित की गयी है। यहां हमें युक्तिसंगत क्या है इसका विचार नहीं करना है। बतलाना केवल इतना ही है कि तत्त्वार्थसूत्रकारका इस प्रकारका निर्देश भी श्वेताम्बर आगम परम्पराका अनुसरण नहीं करता।
4. "जिन के ग्यारह परीषह होते हैं। इस सूत्रका विस्तारके साथ विचार हम 'पाठभेद और अर्थान्तरप्यास' प्रकरण में कर आये हैं । वहाँ हमने तत्त्वार्थसूत्रकारकी दृष्टि को स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि परीषहों के प्रसंगसे सूत्रकारकी दृष्टि मुख्यतया अन्तरंग कारणों के विवेचन करनेकी रही है। वे किस कर्मके उदय में कितने परीषह होते हैं इतना कहकर अधिकारी भेदसे अलग-अलग परीषहों की संख्याका निर्देश करते हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्तरंग कारणों के अनुसार जहाँ जितने परीषहोंका उल्लेख उन्होंने किया है वहीं उतने परीषहोंका सद्भाव वे नियम से मानते ही हैं। उन्होंने परीषह प्रकरणके अन्तिम सूत्र में परीषहोंका कार्यके अनुसार भी अलगसे विधान किया है। वे कहते हैं कि यद्यपि कुल परीषह बाईस हैं तथापि एक जीवके एक साथ एकसे लेकर उन्नीस तक परीषह हो सकते हैं । स्पष्ट है कि इस अन्तिम सूत्रके प्रकाश में यह अर्थ नहीं फलित किया जा सकता है कि जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकारने कर्मनिमितको अपेक्षा कहाँ कितने परीषह होते हैं इस बातका विधान किया है उसी प्रकार उन्हें सर्वत्र उनका कार्य भी इष्ट है। इसका तो केवल इतना ही अर्थ है कि अन्तरंग कारणोंके अनुसार सर्वत्र परीषहोंकी सम्भावना स्वीकार कर लेने पर भी यदि उन परीषहोंके जो अन्य बाह्य निमित्त हैं वे नहीं मिलते तो एक भी परीषह नहीं होता । तभी तो सूत्रकार 1 परीषहसे लेकर 19 परीषह तक होने रूप विकल्पका कथन करते हैं । यथा किसी प्रमत्तसंयत साधुके सब कर्मोका उदय । होनेसे सब परीषह सम्भव हैं पर उनके परीषहों के बाह्य निमित्त एक भी नहीं हैं तब उन्हें एक भी परीषहका वेदन न होगा, यदि एक परीषहका बाह्य निमित्त है तो एक परीषहका वेदन होगा और अधिक परीषहोंके बाह्य निमित्त उपस्थित हैं तो अधिक परीषहोंका वेदन होगा। तात्पर्य यह है कि केवल अन्तरंग कारणोंके सद्भावसे परीषहोंका वेदन कार्य नहीं माना जा सकता । स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रकारकी दृष्टि केवल अन्तरंग कारणोंके सदभाव में उनके कार्यको स्वीकार करने की नहीं है। उन्होंने तो मात्र अन्तरंग कारणोंकी दृष्टिसे जहां जिन परीषहों के कारण मौजूद हैं वहाँ उनका उल्लेखमात्र किया है।
__ इस दृष्टिसे हमने श्वेताम्बर आगम साहित्यका आलोडन किया है। किन्तु वहाँ तत्त्वार्थसूत्रकारकी दृष्टिसे सर्वथा भिन्न दृष्टि अपनायी गयी प्रतीत होती है। वहाँ जहाँ जितने परीषह सम्भव हैं उनमें से विरोधी परीषहोंको छोड़कर सबके वेदन की बात स्वीकार की गयी है। वहाँ यह स्वीकार ही नहीं किया गया है कि
1. तत्त्वार्थसूत्र 409, सू० 171 2. देखो, पृ० 25 आदि ।
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प्रस्तावना
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कोई एकका वेदन करता है, कोई दो का और कोई अधिक-से-अधिक इतने का वेदन करता है। वहाँ तो एक मात्र यही बतलाया गया है कि जो सात या आठ कर्मोका बन्ध करते हैं उनके सब परीषह सम्भव हैं, परन्तु वे एक साथ वेदन मात्र बीसका करते हैं। जो छह कर्मका बन्ध करते हैं उनके चौदह परीषह सम्भव हैं परन्तु वे एक साथ वेदन मात्र बारहका करते हैं। जो वीतराग छमस्थ एक कर्मका बन्ध करते हैं उनके भी चौदह परीषह सम्भव हैं परन्तु वे एक साथ वेदन मात्र बारहका ही करते हैं। जो एक कर्मका बन्ध करनेवाले सयोगी जिन हैं उनके परीषह तो ग्यारह सम्भव हैं, परन्तु वे एक साथ वेदन मात्र नौ का करते हैं। तथा जो अबन्धक अयोगी जिन हैं उनके भी परीषह तो सयोगी जिनके समान ग्यारह ही सम्भव हैं परन्तु वे एक साथ वेदन मात्र नौ का करते हैं।
__इसलिए यहाँ भी तत्त्वार्थसूत्र और श्वेताम्बर आगम साहित्यके तुलनात्मक अध्ययनसे हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि 'एकादश जिने' सूत्रका विधान करते हुए भी तत्त्वार्थसूत्रकार जितने अधिक दिगम्बर परम्पराके नजदीक हैं उतने श्वेताम्बर परम्पराके नजदीक नहीं हैं।
यह है तत्त्वार्थसूत्रके कुछ सूत्रोंका परीक्षण जिससे भी हमें इस बातके निर्णय करने में सहायता मिलती है कि तत्त्वार्थसूत्रकार वाचक उमास्वातिसे भिन्न होने चाहिए।
किन्तु दिगम्बर परम्परामें उमास्वाति या उमास्वामी नामके कोई आचार्य हुए हैं इस बातका सूचक कोई प्राचीन उल्लेख नहीं मिलता। श्रवणबेलगोलाके शिलालेख या दूसरे जितने भी प्रमाण मिलते हैं वे सब उन उल्लेखोंसे जो तत्त्वार्थसूत्रको आचार्य गृद्धपिच्छकी कृति प्रकट करते हैं, बादके हैं, अतएव एक तो इस मामले में उनका उतना विश्वास नहीं किया जा सकता। दूसरे उन में उपपदके रूप में या नामके रूपमें गदपिच्छ इस नामको भी स्वीकार कर लिया गया है।
सिरसेनीय टीका-पं० सुखलालजीने अपने तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावनामें सिद्धसेन गणि और हरिभद्रसूरिकी टीकासे एक-दो उल्लेख उपस्थित कर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि तत्त्वार्थसूत्रकार और उनके भाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं, किन्तु वे उल्लेख सन्देहास्पद हैं । उदाहरणार्थ सिद्धसेन गणिकी टीकामें सातवें अध्यायके अन्त में जो पुष्पिका उपलब्ध होती है उसमें आये हुए 'उमास्वातिवाचकोपासत्रभाध्ये पदको पण्डितजी भाष्यकार और सूत्रकार एक व्यक्ति हैं इस पक्षमें लगाने का प्रयत्न करते हैं किन्तु इस पदका सीधा अर्थ है-उमास्वाति वाचक द्वारा बनाया हुआ सूत्रभाष्य । यहाँ उमास्वातिवाचकोपज्ञ पदका सम्बन्ध सूत्रसे न होकर उसके भाष्यसे है। दूसरा प्रमाण पण्डितजीने 9वें अध्यायके 22वें सूत्रकी सिद्धसेनीय टीकाको उपस्थित किया है। किन्तु यह प्रमाण भी सन्देहास्पद है, क्योंकि सिद्धसेन गणिकी टीकाकी जो प्राचीन प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं उनमें 'स्वकृतसूत्रसन्निवेशमाश्रित्योक्तम्' पाठके स्थान में 'कृतस्तत्र सूत्रसन्निवेशमाभित्योक्तम' पाठ भी उपलब्ध होता है। बहुत सम्भव है कि किसी लिपिकारने तत्त्वार्थसूत्रका वाचक उमास्वाति कतत्व दिखलाने के अभिप्रायसे 'कृतस्तत्र'का संशोधन कर 'स्वकृत' पाठ बनाया हो और बाद में यह पाठ पल पड़ा हो।
साधारणतः हमने स्वतन्त्र भावसे सिद्धसेन गणिकी टीकाका आलोडन किया है, इसलिए इस आधारसे हम यह तो मान लेते हैं कि उसमें कुछ ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जो सिद्धसेन गणिकी दृष्टि में तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य इनको एककर्तृक सिद्ध करते हैं। उन मेंसे प्रथम उल्लेख प्रथम अध्यायके 'आचे परोक्षम' सूत्रकी सिद्धसेनीय टीका है। यहाँ पर सिद्धसेन गणि तत्त्वार्थभाष्य के सूत्रक्रमप्रामाण्यात् पयमद्वितीये शास्ति' अंशकी व्याख्या करते हुए कहते हैं
1. व्याख्याप्रज्ञप्ति श० 8। 2. देखो उनके तत्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना पृष्ठ 17 की टिप्पणी 1 । 3. देखो सिद्धसेनीय टीका अ०9, सू० 22, पृ० 253 की टिप्पणी ।
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सर्वार्थसिद्धि
'प्रन्थकार एव द्विषा आत्मनं विभज्य सूत्रकारभाष्यकारेणेवमाह-शास्तीति सूत्रकार इति शेषः । अश्या पर्यायवात् पर्यायिणो भेद इत्यन्यः सूत्रकारपर्यायोऽन्यच भाष्यकारपर्याय इत्यतः सूत्रकारपर्यायः शास्तीति।'
इसमें बतलाया गया कि 'ग्रन्थकारने अपनेको सूत्रकार और भाष्यकार इस तरह दो भागों में विभक्त करशास्ति' ऐसा कहा है। इसलिए यहाँपर 'शास्ति' क्रियाके साथ उसके कर्ताका बोध कराने के लिए 'सत्रकार' पद जोड़ लेना चाहिए। अथवा पर्यायीके भेदसे पर्यायीको भिन्न मान लेना चाहिए। अतः एक ही ग्रन्थकारको सूत्रकार पर्याय भिन्न है और भाष्यकार पर्याय भिन्न है, अत: सूत्रकार पर्यायसे युक्त ग्रन्थकार कहते हैं ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिए।
ऐसा ही एक दूसरा उल्लेख अध्याय दोके निरुपभोगमन्त्यम्' सूत्रकी सिद्धसेनीय टीका में मिलता है। इसमें सूत्रकारसे भाष्यकारको अभिन्न बतलाया गया है। उल्लेख इस प्रकार है
'सूत्रकारावविभक्तोऽपि हि भाष्यकारी विभागमावशंयति व्युच्छित्ति-(पर्याय) नयसमाश्रयणात।'
इस प्रकार यद्यपि इन उल्लेखोंसे यह विदित होता है कि सिद्धसेन गणि तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार इन दोनों व्यक्तियोंको एक मानते रहे हैं, पर इतने मात्रसे यह नहीं माना जा सकता कि यह उनका निश्चित मत था। उन्होंने अपनी टीकामें कुछ ऐसा भी अभिप्राय व्यक्त किया है जिसके आधारसे विचार करने पर सूत्रकारसे भाष्यकार भिन्न सिद्ध होते हैं। इसके लिए अध्याय आठके 'मत्यादीमाम्' सूत्रकी टीका देखनी चाहिए।
यहां पर सिद्धसेन गणिके सामने यह प्रश्न है कि जब अन्य आचार्य 'मतिभुतावषिमन:पर्ययकेवलामाम' सूत्र मानते हैं तब सूत्रका वास्तविक रूप 'मत्यादीनाम्' भाना जाय या अन्य आचार्य जिस प्रकार उसका पाठ पढ़ते हैं वैसा माना जाय। इस शंकाका समाधान करते हुए पहले तो उन्होंने हेतुओंका आश्रय लिया है किन्तु इतने मात्रसे स्वयं सन्तोष होता न देख वे कहते हैं कि यतः भाष्यकारने भी इस सत्रका इसी प्रकार मर्च किया है अत: 'मत्यावीनाम्' ही सूत्र होना चाहिए। उनका समस्त प्रसंगको व्यक्त करनेवाला टीकावचन इस प्रकार है
'अपरेस प्रतिप पच्चापि पठन्ति-मतितावषिमनःपर्ययकेवलानामिति। एवं चापाकापाठो लक्ष्यते। ततोऽनन्तरसू पञ्चाविभेवा ज्ञानावरणादय इत्यवतमेव । निर्माताश्च स्वस्पतः प्रथमाध्याये व्याख्यातत्वात् । अतः आदिशब्द एव च युक्तः। भाष्यकारोऽप्येवमेव सूत्रार्थमावेवयते।'
___ यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य भाष्यकारो-' इत्यादि वचन है। इस वचन में भाष्यकारका सम्बन्ध सीधा मत्याचीलाम' सूत्रकी रचनाके साथ स्थापित न कर उसके अर्थके साथ स्थापित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि यहाँपर सिद्धसेन गणि सूत्रकारको भाष्यकारसे भिन्न मान रहे हैं, अन्यथा वे किसी अपेक्षासे सूत्रकार और भाष्यकार में अभिन्नता स्थापित कर अपनी भाषाद्वारा इस प्रकार समर्थन करते जिससे भाष्यकारसे अभिन्न सूत्रकारने ही 'मत्यादीनाम्' सूत्र रचा है इस बातका दृढ़ताके साथ समर्थन होता।
जहाँ तक हमारा मत है इन पूर्वोक्त उल्लेखोंके आधारसे हम एक मात्र इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मूल तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार अभिन्न व्यक्ति हैं इस विषयमें सिद्धसेन गणिकी स्थिति संशयापन्न रही है, क्योंकि कहीं वे तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार इनको एक व्यक्ति मान लेते हैं और कहीं दो। इस स्थिति को देखते हुए मालूम ऐसा देता है कि सिद्धसेन गणिके काल तक तस्वार्थभाष्यकार ही मूल तत्त्वार्थसूत्रकार हैं यह मान्यता दृढमूल नहीं हो पायी थी। यही कारण है कि सिद्धसेन गणि किसी एक मतका निश्चयपूर्वक प्रतिपादन करने में असमर्थ रहे।
पण्डितजी-इस प्रकार सिद्धसेन गणिकी टीकाके आधारसे वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता हैं इस बातके अनिर्णीत हो जाने पर भी यहाँ हमें प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीके एतद्विषयक प्रमाणोंका असगसे
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प्रस्तावना
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परामर्श कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। इस विषय में उन्होंने जिन तीन प्रमाणोंको उपस्थित किया । उनका हम पहले पृष्ठ 62 में निर्देश कर आये हैं। उनमेंसे पहला प्रमाण उत्था निकाकी 22वीं कारिका अं: तत्त्वार्थभाष्यके अन्त में पायी जानेवाली प्रशस्ति है। इन दोनों स्थलोंमेंसे उत्थानिका कारिकामें तत्त्वार्थाधिगम नामक लघुग्रन्थके कहनेकी प्रतिज्ञा की गयी है और अन्तिम प्रशस्तिमें वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थाधिगम शास्त्र रचा यह कहा गया है। पण्डितजी इस आधारसे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता वाचक उमास्वाति ही हैं। किन्तु हम यह पहले (पृष्ठ 17 में) ही सिद्ध करके बतला आये हैं कि तत्त्वार्थाधिगम यह नाम तत्त्वार्थसूत्रका न होकर तत्त्वार्थभाष्यका है। स्वयं वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थाधिगमको सूत्र न कहकर उसे ग्रन्थ या शास्त्र शब्द द्वारा सम्बोधित करते हैं और आगे तत्त्वार्थाधिगमके रचने का प्रयोजन बतलाते हए 22वीं उत्थानिका कारिकामें कहते हैं कि जिन वचन महोदधि दुर्गम ग्रन्थभाष्यपार होनेसे उसका समझना कठिन है। ऐतिहासिकोंसे यह छिपी हुई बात नहीं है कि यहाँ वाचक उमास्वातिने आगम ग्रन्थों के जिन भाष्योंका उल्लेख किया है वे विक्रम की 7वीं शताब्दीकी रचना हैं। जब कि इनके भी पूर्व तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थ सिद्धि प्रभृति अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी थीं। ऐसी अवस्था में 21वीं उत्थानिका कारिका और अन्तिम प्रशस्तिके आधारसे वाचक उमास्वातिको मूल तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता सिद्ध करना तो कोई अर्थ नहीं रखता।
पण्डितजी की दूसरी युक्ति में कहा गया है कि तत्त्वार्थभाष्यके आलोडनसे ऐसा लगता है कि तत्त्वार्थभाष्य में सूत्रका अर्थ करने में कहीं भी खीचातानी नहीं की गयी है आदि । यहाँ विचार इस बातका करना है कि क्या तत्त्वार्थभाष्यकी वैसी स्थिति है जैसी कि पण्डितजी उसके विषयमें उद्घोषणा करते हैं या वैसी स्थिति नहीं है। इस दृष्टि से हमने भी तत्त्वार्थभाष्यका आलोडन किया है, किन्तु हमें उसमें ऐसे अनेक स्थल दिखाई देते हैं जिनके कारण इस दृष्टि से तत्त्वार्थभाष्यकी स्थिति सन्देहास्पद प्रतीत होती है । यथा
1. तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शनीसे सम्यग्दृष्टिको भिन्न नहीं माना गया है। वहां अध्याय 7 सूत्र 23 में ऐसे सम्यग्दर्शनवालेको भी सम्यग्दष्टि कहा गया है जिसके शंका आदि दोष सम्भव होते हैं। किन्तु इसके विपरीत तत्त्वार्थभाष्य में सम्यग्दर्शनी और सम्यग्दृष्टि इन दोनों पदोंकी स्वतन्त्र व्याख्या करके सम्यग्दर्शनीसे सम्यग्दृष्टिको भिन्न बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है कि जिसके आभिनिबोधिक ज्ञान होता है वह सम्यग्दर्शनी कहलाता है और जिसके केवलज्ञान होता है वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है। स्पष्ट है कि यहाँ पर तत्त्वार्थभाष्यकार तत्त्वार्थसूत्रका अनुसरण नहीं करते और सम्यग्दृष्टि पदकी तत्त्वार्थसूत्र के विरुद्ध अपनी दो व्याख्याएं प्रस्तुत करते हैं। एक स्थल (अ० 1 सू०8) में वे जिस बात को स्वीकार करते हैं दूसरे (अ07 सू० 23) में वे उसे छोड़ देते हैं।
2. तत्त्वार्थसूत्र में मति, स्मृति और संज्ञा आदि मतिज्ञानके पर्यायवाची नाम हैं। किन्तु तत्त्वार्थभाष्यकार इन्हें पर्यायवाची नाम न मानकर 'मतिः स्मृतिः' इत्यादि सूत्र के आधारसे मतिज्ञान, स्मृतिज्ञान आदिको स्वतन्त्र ज्ञान मानते हैं। सिद्धसेन गणिने भी तत्त्वार्थभाष्य के आधारसे इनको स्वतन्त्र ज्ञान मानकर उनकी व्याख्या की है। यह कहना कि सामान्य मतिज्ञान व्यापक है और विशेष मतिज्ञान, स्मतिज्ञान आदि उसके भ्याप्य हैं कुछ सयुक्तिक नहीं प्रतीत होता, क्योंकि मतिज्ञान वर्तमान अर्थको विषय करता है। इस तथ्यको जब स्वयं तत्त्वार्थभाष्यकार स्वीकार करते हैं ऐसी अवस्थामें मति, स्मृति आदि नाम मतिज्ञानके पर्यायवाची ही हो सकते हैं भिन्न-भिन्न ज्ञान नहीं। तथा दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराके आगमोंमें इन्हें मतिज्ञानके
1. देखो उत्थानिका कारिका 21 व अन्तिम प्रशस्ति तत्त्वार्थभाष्य। 2. महतोऽतिमहाविषयस्य दुर्गमग्रन्थभाष्यपारस्य। कः शक्तो प्रत्यासं जिनवचनमहोदधेः कर्तुम् ।। 3. देखो पं० कैलाशचन्द्रजीके तत्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना पृ० 121 4. देखो तत्त्वार्थसूत्र अ. 1 सू० 8 का तत्त्वार्थभाष्य। 5. देखो अध्याय ! सूत्र 13 का तत्त्वार्थभाष्य।
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सर्वार्थसिद्धि
पर्यायवाची ही कहा है। स्पष्ट है कि यहां पर भी तत्त्वार्थभाष्यकारकी व्याख्या मूल सूत्रका अनुसरण नहीं करती।
3. तत्त्वार्थभाष्यकारने अध्याय 10 सूत्र क्षेत्रकालगति' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हुए शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इन तीनको मूल नय मान लिया है जब कि वे ही प्रथम अध्याय में उस सूत्र पाठको स्वीकार करते हैं जिसमें मूल नयों में केवल एक शब्दनय स्वीकार किया गया है। स्पष्टतः उनका 10वें अध्यायमें शब्दादिक तीन नयोंको मूलरूपसे स्वीकार करना और प्रथम अध्याय में एक शब्दनयको मूल मानना परस्पर विरुद्ध है।
4. श्वेताम्बर तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2 सूत्र 52 में 'चरमवेहोत्तमपुरुष' पाठको स्वीकार करता है। तत्त्वार्थभाष्यकार ने प्रारम्भ में इस पदको मानकर ही उसकी व्याख्या की है। किन्तु बादमें वे 'उसमपुरुष पदका त्याग कर देते हैं और मात्र 'परमवेह' पदको स्वीकार कर उसका उपसंहार करते हैं। इससे विदित होता है कि तत्त्वार्थभाष्यकारको इस सूत्र के कुछ हेरफेरके साथ दो पाठ मिले होंगे। जिनमें से एक पाठको उन्होंने मुख्य मानकर उसका प्रथम व्याख्यान किया। किन्तु उसको स्वीकार करनेपर जो आपत्ति आती है उसे देखकर उपसंहारके समय उन्होंने दूसरे पाठको स्वीकार कर लिया। स्पष्ट है कि इससे तत्त्वार्थभाष्यकार ही तत्त्वार्थसूत्रकार हैं इस मान्यताको बड़ा धक्का लगता है ।
5. तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 4 सूत्र 4 में प्रत्येक देवनिकायके इन्द्रादिक 10 भेद गिनाये हैं। किन्तु तत्वार्थभाष्यकार इन दस भेदोंके उल्लेखके साथ अनीकाधिपति नामका ग्यारहवाँ भेद और स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार इसी अध्यायके 26वें सूत्र में लौकान्तिक देवोंके सारस्वत आदिक नौ भेद गिनाये हैं, किन्तु तत्त्वार्थभाष्यकार अपने भाष्य में यहां नौके स्थान में आठ भेद ही स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं-'एते सारस्वताबयोऽष्टविषा देवा ब्रह्मलोकस्य पूर्वोत्तरादिषु विक्ष प्रदक्षिणं भवन्ति यथासंख्यम्।'
ये ऐसे प्रमाण हैं जो पण्डितजी की पूर्वोक्त मान्यताके विरुद्ध जाते हैं। स्पष्ट है कि पण्डितजीकी उक्त मान्यताके आधारसे भी तत्त्वार्थभाष्यकारको तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता नहीं माना जा सकता।
पं० सुखलालजीकी तीसरी मान्यता है कि प्रारम्भिक कारिकाओं में और कुछ स्थानोंपर भाष्य में 'वक्ष्यामि, वक्ष्यामः' आदि प्रथम पुरुषकी क्रियाओंका निर्देश है आदि, इसलिए तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं। किन्तु पण्डितजी की यह कोई पुष्ट दलील नहीं है । अकसर टीकाकार मूलकारसे तादात्म्य स्थापित कर इस प्रकारकी क्रियाओंका प्रयोग करते हैं। उदाहरणके लिए देखो अध्याय 1 सूत्र 1 की सर्वार्थसिद्धि टीका, अध्याय 8 सूत्र 1 की उत्थानिका तत्त्वार्थवातिक', अध्याय 8 सत्र। की उत्थानिका हरिभद्रकी टीका व अध्याय 10 सूत्र 1 की उत्थानिका सिद्धसेन गणिकी टीका। यहाँ सिद्धसेन गणि कहते हैं 'सम्प्रति तत्फलं मोक्षः, तं वक्ष्यामः।' सच केवलज्ञानोत्पत्तिमन्तरेण न जातुचिबभूव भवति भविष्यति अतः केबलोत्पत्तिमेव तावद् वक्ष्यामः। इसलिए इस आधारसे भी तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता नहीं सिद्ध होते।
श्वेताम्बर पट्टावलियां-श्वेताम्बर पट्टावलियोंके देखनेसे भी इस स्थितिकी पुष्टि होती है। इनमें सबसे पुरानी कल्पसूत्र स्थविरावली और नन्दिसूत्रकी पट्टावलि है। किन्तु इन में समय नहीं दिया है। समय गणना बहुत पीछेकी पट्टावलियों में है। कहा जाता है कि नन्दिसूत्र पट्टावली वि० सं० 510 में संकलित हुई थी। इनमें उमास्वाति व उनके गुरुओंके नाम नहीं हैं।
1. शब्दादयश्च त्रयः। 2. पं० लालबहादुरजी शास्त्रीने जैन सिद्धान्तभास्कर भाग 13 किरण 1 में क्या भाष्य स्वोपज्ञ और उसके कर्ता यापनीय हैं' इस शीर्षकसे एक लेख मुद्रित कराया है। उससे भी इस विषयपर सुन्दर प्रकाश पड़ता है। 3. एतेषां स्वरूपं लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद्विस्तरेण निर्देष्यामः। 4. अवसरप्राप्तं बन्धं व्याचक्ष्महे। 5. बन्ध इति वर्तते । एतच्चोपरिष्टाहर्शयिष्यामः ।
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प्रस्तावना
पिछले कालकी रची गयी पट्टावलियों मेंसे धर्मघोषसूरिकृत दु:षमाकाल श्रमणसंघ स्तव एक है। इसकी रचना विक्रमकी तेरहवीं सदी में हुई अनुमानित की जाती है। इसमें उमास्वातिका नाम हरिभद्र और जिनभद्रके बाद आता है पर हरिभद्र ने उमास्वातिके तत्त्वार्थभाष्य पर टीका लिखी है। ये विक्रमकी 8वीं-9वी सदीके विद्वान् हैं, अतएव आचार्योंकी क्रम-परम्पराकी दृष्टि से इस पट्टावलीको विशेष प्रमाण नहीं माना जा सकता। इसमें वि० सं० 720 में वाचक उमास्वातिकी अवस्थिति स्वीकार की गयी है।
धर्मसागर गणिकृत तपागच्छ पट्टावली वि० सं० 1646 में लिखी गयी थी। इसमें जिनभद्र के बाद विबुधप्रभ, जयानन्द और रविप्रभका उल्लेख करने के बाद उमास्वातिका नाम निर्देश किया है और इनका समय वि० सं 720 बतलाया है। यद्यपि इन्होंने आर्यमहागिरिके बहुल और बलिस्सह नामक दो शिष्यों मेंसे बलिस्सहके शिष्य उमास्वातिका उल्लेख कर इन प्रथम उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता होनेकी सम्भावना की है। किन्तु उनकी यह सम्भावना भ्रमजन्य है । कारण कि नन्दिसूत्र पट्टावलीकी 26वीं गाथामें 'हारियगतं सावं। पद आता है। जिसमें हारितगोत्रीय स्वाति का उल्लेख है। मालूम पड़ता है धर्मसागर गणिने नामकी आंशिक समता देखकर द्वितीयके स्थान में भ्रमसे इन्हें ही तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता होनेकी आशंका की है। पं० सुखलालजीने भी इस आशंकाको भ्रममूलक बतलाया है ।।
विनयविजय गणिने अपना लोकप्रकाश वि० सं० 1708 में पूरा किया था। वे उमास्वातिको युगप्रधान आचार्य बतलाते हैं और जिनभद्र तथा पुष्पमित्र के बीच उनकी अवस्थिति स्वीकार करते हैं। इन्होंने अपनी पट्टावलिमें उमास्वातिके समय का निर्देश नहीं किया है।
रविवर्धन गणि (वि० सं० 1739) ने भी पट्टावलीसारोद्धारमें उमास्वातिका उल्लेख किया है। इसमें समयका निर्देश करते हुए वास्तव्यकाल वीर नि० सं० 1190 (वि० सं०720) स्वीकार किया है।
श्वेताम्बर परम्पराकी ये पट्टावलियां हैं जिनमें उमास्वातिका निर्देश किया है । यद्यपि ये पट्टावलियां अपेक्षाकत अर्वाचीन हैं और इनमें कुछ मतभेद हैं तथापि इनको सर्वथा निराधार मानना उचित नहीं है। इनमें निर्दिष्ट वस्तुके आधारसे निम्नलिखित तथ्य फलित होते हैं
1. वाचक उमास्वाति युगप्रधान आचार्य थे। वे वि० सं० 720 के आसपास हुए हैं। बहुत सम्भव है कि इसी कारणसे नन्दिसूत्र पट्टावली और कल्पसूत्र स्थविरावलिमें इनकी परम्पराका किसी भी प्रकारका उल्लेख नहीं किया है।
2. यद्यपि रविवर्धन गणिने जिनभद्र गणिके पूर्व वाचक उमास्वातिका उल्लेख किया है परन्त समयकी दष्टिसे रविवधन गणिने उन्हें जिनभद्रगणिके बादका ही बतलाया है, अत: उक्त सब पट्रावलियों में एकमत होकर स्वीकार किये गये वास्तव्य कालका विचार करते हुए अन्य प्रमाणों के प्रकाश में अधिक सम्भव यही दिखाई देता है कि ये जिनभद्र गणिके बाद ही हुए हैं ।
3. एक प्रशस्ति तत्त्वार्थभाष्यके अन्त में भी उपलब्ध होती है जिसमें वाचक उमास्वातिने स्वयंको तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रका रचयिता कहा है। किन्तु इसमें समयादिकका कुछ निर्देश न होनेसे यह प्रशस्ति समय सम्बन्धी पूर्वोक्त तथ्यकी पूरक ही प्रतीत होती है।
यह तो हम अनेक प्रमाणोंके आधारसे पहले ही स्वीकार कर आये हैं कि वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थभाष्यकी रचना की और तत्त्वार्थभाष्यमें स्वीकृत तत्त्वार्थसूत्रके पाठको संस्कारित कर अन्तिम रूप दिया, इसलिए इस रूपमें इन तथ्योंको स्वीकार कर लेने पर भी वाचक उमास्वाति मूल तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता
__ 1. देखो उनका तत्त्वार्थसूत्र प्रस्तावना पृष्ठ 2। 2. ये चारों पट्टावलियां मुनिदर्शनविजय द्वारा सम्पादित श्री पट्टावलीसमुच्चय प्रथम भागमें मुद्रित हुई हैं।
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सर्वार्थसिद्धि
नहीं ठहरते, और हमारा ऐसा मानना अनुचित भी नहीं है, क्योंकि विक्रमकी आठवीं शताब्दीके पूर्व 6वीं शताब्दीके प्रारम्भ में या इसके कुछ काल पूर्व तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि टीका लिखी जा चुकी थी तथा अनेक टीका-टिप्पणियां प्रचलित हो चुकी थीं।
यद्यपि धर्मसागर गणी, बलिस्सहके शिष्य स्वातिने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की, ऐसी शंका करते हैं, किन्तु यह उनका निश्चित मत नहीं है। केवल सम्भावना मात्र है। जैसा कि उनके इन शब्दोंसे 5 यथा-'तस्य बलिसहस्य शिष्यः स्वातिः तत्त्वार्थादयो प्रन्यास्तु तत्कृता एव संभाव्यन्ते । अतएव इसे विशेष महत्त्व नहीं दिया जा सकता।
यही तक हमने पांच मतोंकी समीक्षा की। मात्र एक प्रमुख मत शेष रहता है जिस पर यहाँ तीन दृष्टियोंसे विचार करना है-नाम, परम्परा और समय ।
माम यह हम प्रारम्भ में ही उद्धरणों के साथ लिख आये हैं कि आचार्य वीरसेन, आचार्य विद्यानन्द । और आचार्य वादिराज तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम आचार्य गृद्ध पिच्छ ही घोषित करते हैं और ये उल्लेख अपेक्षाकृत प्राचीन हैं। किन्तु इन उल्लेखों को छोड़कर दिगम्बर परम्परामें अन्य जितने भी उल्लेख मिलते हैं उनमें गद्धपिच्छको उपपद या दूसरा नाम मान कर नानारूपता दिखाई देती है। इन में से कुछ प्रमुख उल्लेखोंका निर्देश हम 'अन्य मत' शीर्षकके अन्तर्गत कर आये हैं। इसी तरहका एक प्रमुख मत नन्दिसंघकी पट्टावलीका है। नन्दिसंघकी दो पट्टावलियाँ उपलब्ध होती हैं—एक संस्कृत पट्टावली और दूसरी प्राकृत पट्टावली । इनमेंसे संस्कृत पट्टावलिमें आचार्य उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता कहा गया है ।
__ यहाँ देखना यह है कि तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताके नामके विषय में इतना मतभेद होनेका कारण क्या है और उनका ठीक नाम क्या है ?
पहले हम श्रवणबेल्गोलमें पाये जानेवाले शिलालेख 105 और 108 के उद्धरण उपस्थित कर आये है। वे शिलालेख क्रमश: शक सं0 1320 और 1355 के अनुमानित किये गये हैं। शक सं0 1037 और 1085 के भी दो शिलालेख वहाँ उपलब्ध होते हैं जो जैन शिलालेख संग्रह भाग 1 में क्रमशः 47 और 40 नम्बर पर दर्ज हैं। 47 नं० के शिलालेख में कहा गया है
श्री गौतम गणधरके अन्वयमें नन्दिसंघके प्रमुख आचार्य पद्मनन्दी हुए जिनका दूसरा नाम कोण्डकुन्द था। फिर उनके अन्वय में गद्धपिच्छ अपर नामवाले उमास्वाति आचार्य हुए। इनके शिष्य बलाकपिच्छ थे और बलाकपिच्छके शिष्य गुणनन्दि थे।' . नं0 40 के शिलालेखमें कहा गया है कि 'गौतम गणधरके बाद पांचवें श्रुतकेवली भद्रबाह और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त हुए। इसके बाद उनके अन्वयमें पद्मनन्दी हुए। इनका दूसरा नाम कोण्डकुन्द था। फिर इनके अवन्यमें गद्धपिच्छ उमास्वाति आचार्य हुए। इनके शिष्य बलाकपिच्छ थे। इस प्रकार महान आचार्योंकी परम्परामें क्रमश: आचार्य समन्तभद्र हुए।'
नं. 105 और 108 के शिलालेखों में, जिनका उल्लेख हम पहले कर आये हैं, लगभग यही बात कही गयी है। अन्तर केवल इतना ही है कि इन दोनों शिलालेखों में गद्धपिच्छ उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका रचयिता कहा गया है और शिलालेख नं0 47 व 40 में रचयिता के रूप में उनका उल्लेख नहीं किया है।
यहाँ पर हम सर्वप्रथम दिगम्बर परम्पराके उक्त उल्लेखोंके आधारसे, तत्त्वार्थभाष्यके अन्त में पायी जानेवाली प्रशस्तिके आधारसे और धर्म सागरगणि कृत तपागच्छ पट्टावलीके आधारसे परम्परा दे देना चाहते हैं। यथा
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प्रस्तावना
शिलालेख (चन्द्रगिरि)
गौतम गणधर
तत्वार्थभाष्य प्र० वाचकमुख्य शिवश्री
तपागच्छ पट्टावली जिनभद्रगणि
भद्रबाहु (अन्वयमें)
घोषनन्दि क्षमण
विबुधप्रभ
चन्द्रगुप्त (शिष्य)
वाचक उमास्वाति
जयानन्द
पद्मनन्दि (अन्वयमें)
रविप्रभ
गृपिच्छ उमास्वाति (अन्यय में)
उमास्वाति
बलाकपिच्छ शिष्य
इस प्रकार ये तीन परम्पराएं हमारे सामने हैं। इनमें से तपागच्छ पट्टावलिके विषय में तो इतना ही कहना है कि धर्मसागर गणिके सामने तत्त्वार्थभाष्यको प्रशस्ति के रहते हुए जो उन्होने तपागच्छ के आचार्योंकी परम्पराके साथ उमास्वातिका उल्लेख किया है सो इसका कारण केवल युगप्रधान आचार्यके रूप में उमास्वाति. को उनके वास्तव्य कालके साथ स्वीकार करना मात्र है। जिनभद्र गणिके विषय में भी यही बात है। ये दोनों तपागच्छ परम्परके आचार्य नहीं हैं और न ऐसा धर्मसागर गणि ही मानते हैं। यही कारण है कि उन्होंने तपागच्छ परम्पराका स्वतन्त्र निर्देश करते हुए बीच में इनका युगप्रधान आचार्य के रूप में उल्लेखमात्र किया है, इसलिए इसे और इसके साथ पायी जानेवाली थोड़ेसे मतभेदको लिये हुए अन्य प्रशस्तियों को छोड़ कर हमारे सामने मुख्य दो परम्पराएँ रहती हैं-एक श्रवणबेल्गोल में पाये जानेवाले शिलालेखोंकी परम्परा और दूसरी तस्वार्थभाष्यके अन्त में पायी जानेवाली प्रशस्तिकी परम्परा ।
देखनेसे विदित होता है कि इन दोनों उल्लेखोंमें दोनोंकी न केवल गुरुपरम्परा भिन्न-भिन्न है अपितु दोनोंके उपपद या नामान्तर भी भिन्न-भिन्न हैं। श्रवणबेल्गोलके शिलालेखोंकी परम्परा जब कि तत्त्वार्थसूत्रकारको गुपिच्छ उमास्वाति घोषित करती है ऐसी अवस्था में तत्त्वार्थभाष्यकी प्रशस्ति उन्हें वाचक उमास्वाति इस नामसे सम्बोधित करती है, इसलिए इन आधारोंसे हमारा तो यही विचार दढ होता है कि गढपिच्छ उमास्वातिसे वाचक उमास्वाति भिन्न आचार्य होने चाहिए।
___ इस प्रकार इतने विवेचनसे इन दोनों आचार्योंके अलग-अलग सिद्ध हो जानेपर यहाँ यह देखना है कि गवपिच्छ उमास्वाति इस नाममें कहाँ तक तथ्य है, क्योंकि इस नामके विषय में हमें कई तरहके उल्लेख मिलते हैं। कहीं इनको केवल गृपिच्छ कहा गया है और कहीं गृद्धपिच्छ उपपदयुक्त उमास्वामी या उमास्वाति कहा गया है। कहीं गद्धपिच्छको उमास्वातिका दूसरा नाम बतलाया गया है तो कहीं केवल उमास्वाति नाम आता है । यद्यपि देखने में ये सब नाम अलग-अलग प्रतीत होते हैं । जैसे उमास्वातिसे उमास्वामी नाम भिम्म है। यहां यह कहा जा सकता है कि पहले इनमेंसे कोई एक नाम रहा होगा और बाद में 'म' के स्थान में
1. जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदयमें अन्वयावलिके वर्णनके प्रसंगसे एक श्लोक आता है जिसमें कुन्दकन्द जाचार्य और उमास्वाति दोनोंको वाचक कहा गया है और धवला टीकाके अन्तिम भागके देखनेसे यह भी विदित होता है कि दिगम्बर परम्परामें भी वाचक' उपपद व्यवहृत होता था। किन्तु जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदयका प्रमाण अपेक्षाकृत बहुत अर्वाचीन है और केवल इस आधारसे तत्त्वार्थभाष्य के वाचक उमास्वातिको और श्रवणबेल्गोलके शिलालेखोंके गृखपिच्छ उमास्वातिको एक नहीं माना जा सकता। देखो पं० सुखलालजीकृत तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावनाके परिशिष्टमें उद्धृत पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका पत्र ।
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सर्वार्थसिद्धि
'त' या 'त' के स्थान में 'म' लिखा जानेसे ये दोनों नाम चल पड़े होंगे। इसी प्रकार उमास्वाति या उमास्वाभी नामका कहीं गृद्धपिच्छ इस अपर नागके साथ उल्लेख मिलने से और कहीं इनमेंसे किसी एकका उल्लेख मिलनेसे इस सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि इस तरह पूरे या अधूरे नामके लिखने की भी परम्परा रही है और हो सकता है कि उसी परम्पराके अनुसार विविध प्रकारसे इन नामोंका उल्लेख किया जाने लगा होगा।
यहाँ हम इन तर्कोको सत्यता स्वीकार करते हैं। फिर भी देखना यह है कि एक आचार्य नन्दिसंघ तथा कुन्दकुन्द की परम्परामें हुए और दूसरे अन्य परम्परमें हुए और इनके समयमें काफी अन्तर है फिर भी दोनोंका एक ही शास्त्रकी रचनासे सम्बन्ध और एक ही नाम यह स्थिति उत्पन्न हुई कैसे? यह कहना तो बनता नहीं कि श्वेताम्बर पम्परामें हए वाचक उमास्वाति इस नामको देखकर गद्धपिच्छने अपना उमास्वाति यह नाम भी रखा होगा, क्योंकि पट्टावलियों व दूसरे प्रमाणोंको देखनेसे विदित होता है कि गद्धपिच्छ आचार्य कुन्दकुन्दके बाद हुए हैं। जब कि वाचक उमास्वातिका अस्तित्वकाल इसके बहुत बाद आता है। साथ ही यह कहना भी नहीं बनता है कि गूद्धपिच्छ उमास्वाति इस नामको देखकर वाचक उमास्वातिने अपना 'उमास्वाति' यह नाम रखा होगा, क्योंकि तत्त्वार्थभाष्य के अन्त में जो प्रशस्ति उपलब्ध होती है उसमें वाचक उमास्वातिका 'उमास्वाति' नाम क्यों रखा गया इसका कारण दिया है। उसमें बतलाया गया है कि इनके पिताका नाम स्वाति' था और सिद्धसेन गणिने इस प्रशस्तिकी व्याख्या करते हुए यह भी लिखा है कि इनकी माताका नाम 'उमा' था। इसलिए इनका उमास्वाति यह नाम पड़ा है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह प्रशस्ति बाद में गढ़ी गयी होगी, क्योंकि तत्त्वार्थभाष्यके टीकाकार सिद्धसेन गणिने इसका उल्लेख ही नहीं किया व्याख्यान भी किया है और ऐसा करके उन्होंने उसे तत्त्वार्थभाष्यका अंग प्रसिद्ध किया है। इस विषयमें हम पं० सुखलालजीके इस मतसे सहमत हैं कि यह स्वयं तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वातिकी ही कृति है।
प्रसंगसे यहाँ पर हम एक बात यह कह देना चाहते हैं कि अधिकतर विद्वान् जहाँ किसी प्रशस्ति, पट्रावली या शिलालेख आदिसे अपना मत नहीं मिलता वहाँ उसे सर्वथा अप्रामाणिक या जाली घोषित करते हैं। किन्तु उनकी यह प्रवृत्ति विचारपूर्ण नहीं कही जा सकती। कारण कि प्राचीन कालमें इतिहासके संकलनके साधन प्रायः सीमित थे। अधिकतर इतिहासके संकलन करनेवालोंका कथकों पर अवलम्बित रहना पड़ता था और जिसे प्रामाणिक आधारोंसे जो ज्ञात होता था वह उसका अंकन करता था। इसलिए यह तो सम्भव है कि किसी शिलालेख आदिमें कोई नाम, समय या घटना सही रूप में निबद्ध हो गयी हो और किसी शिलालेख आदि में वह कुछ भ्रष्टरूप में निबद्ध हुई हो। पर साम्प्रदायिक अभिनिवेशवश किये गये उल्लेखोंको छोड़कर निबद्ध करनेवालेका उद्देश्य जानबूझकर उसे भ्रष्टरूपसे निबद्ध करनेका नहीं रहता था इतना सुनिश्चित है। प्रसिद्ध धवला टीकाके रचयिता आचार्य वीरसेनने इस सम्बन्ध में एक बहुत अच्छी विचारसरणि उपस्थित की है। उन्हें भगवान् महावीर की आयु 72 वर्ष की थी एक यह मत प्राप्त हुआ और भगवान् महावीरकी आयु 71 वर्ष 3 माह 25 दिनकी थी एक यह मत प्राप्त हुआ, इसलिए उनके सामने प्रश्न था कि इनमेंसे किसे प्रमाण माना जाय ? इसी प्रश्नके उत्तरस्वरूप वे जो कुछ लिखते हैं वह न केवल हृदयग्राही है अपितु अनुकरणीय भी है। वे कहते हैं कि 'इन दोनोंमें से कौन ठीक है और कौन ठीक नहीं है इस विषय में एलाचार्यका शिष्य मैं वीरसेन अपना मुख नहीं खोलता, क्योंकि इन दोनोंमेंसे किसी एकको मानने पर कोई बाधा नहीं उत्पन्न होती। किन्तु इन दोनों में से कोई एकमत ठीक होना चाहिए सो प्राप्त कर उसका कथन करना चाहिए।'
1. 'कौभीषणिना स्वातितनयेन-'। 2. वात्सीसुतेनेति गोत्रेण नाम्ना उमेति मातुराख्यानम् । 3. देखो पं० सुखलालजीकी तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना पृ०4। 4. जयधवला पुस्तक 1 पृ० 81 ।
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प्रस्तावना
वे यहाँ यह तो कहते हैं कि उचित आधारोंपर जो ठीक प्रतीत हो उसे प्रमुखता दी जाय पर एकको सर्वथा जाली और दूसरेको सर्वथा सत्य घोषित करनेका प्रयत्न करना ठीक नहीं है।
इस प्रासंगिक कथनसे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रके विषय में दिगम्बर परम्परामें जो शिलालेख व उद्धरण आदि मिलते हैं वे भी साधार हैं और श्वेताम्बर परम्परामें जो उल्लेख मिलते हैं वे भी साधार हैं। इसलिए किसी एकको प्रामाणिक और अन्यको अप्रामाणिक घोषित करना हमारा कार्य नहीं है, किन्तु अन्य प्रमाणोंके प्रकाश में उनकी स्थिति स्पष्ट करना इतना ही हमारा कार्य है। और इस कार्यका निर्वाह करते हुए प्रस्तावना में विविध स्थलों पर व्यक्त किये गये तथ्यों के आधारसे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रके रचयिताका नाम तो वाचक उमास्वाति ही है, किन्तु जिन्होंने प्रारम्भमें तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की और जो आचार्य कुन्दकुन्दकी परम्परामें हुए हैं उनका नाम गृद्धपिच्छ उमास्वाति, गृपिच्छ उमास्वामी, उमास्वाति या उमास्वामी यह कुछ भी न होकर मात्र गृद्धपिच्छाचार्य होना चाहिए। . तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता गद्धपिच्छ आचार्य हैं इस तथ्यको व्यक्त करनेवाले उल्लेख 9वीं शताब्दीके हैं। तथा लगभग इसी कालमें श्वेताम्बर परम्परामें भी यह मान्यता प्रचलित हुई जान पड़ती है जैसा कि सिद्धसेन गणिके शंकास्पद कुछ उल्लेखोंसे प्रतीत होता है, कि तत्त्वार्थभाष्यके रचयिता वाचक उमास्वाति ही तत्त्वार्यसूत्रके रचयिता हैं। अतः मालूम पड़ता है कि इन दोनों मान्यताओंने मिलकर एक नयी मान्यताको जन्म दिया और उत्तरकालमें गृद्धपिच्छ और उमास्वाति ये स्वतन्त्र दो आचार्यों के दो नाम मिलकर एक नाम बने और आगे चलकर गृद्धपिच्छ उमास्वाति इस नामसे तत्त्वार्थ सूत्रके रचयिताका उल्लेख किया जाने लगा। हमें श्रवणबेल्गोलके शिलालेखोंमें या अन्यत्र जो एक आचार्य के लिए इन नामोंका या गृपिच्छको उपपद मानकर उमास्वाति नामका व्यवहार होता हुआ दिखाई देता है उसका कारण यही है।
तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताका नाम गुद्धपिच्छ आचार्य होना चाहिए और वाचक उमास्वाति इनसे भिन्न हैं इस मतको संक्षेप में इन तथ्यों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है
1. तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाके साथ आचार्य गृद्धपिच्छका नाम जुड़ना अकारण नहीं हो सकता।
2. आचार्य वीरसेन, विद्यानन्द और वादिराजने तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताका नाम गद्धपिच्छाचार्य ही व्यक्त किया है और ये उल्लेख अन्य प्रमाणोंसे प्राचीन हैं।
3. श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थभाष्यके रचयिता जो आचार्य हए हैं उनका नाम वाचक उमास्वाति है, गृद्धपिच्छ उमास्वाति नहीं। अत: गृद्धपिच्छ उमास्वाति यह नाम गद्धपिच्छ और उमास्वाति इन दोनों नामोंके मेलसे बना है ऐसा प्रतीत होता है ।
___4. गृद्धपिच्छाचार्य कुन्दकुन्द आचार्यके अन्वयमें हुए हैं और .. उभास्वातिकी परम्परा दूसरी है, इसलिए ये स्वतन्त्र दो आचार्य होने चाहिए, एक नहीं।
5. गृद्धपिच्छाचार्य और वाचक उमास्वाति इन दोनोंके वास्तव्य कालमें भी बड़ा अन्तर है, इसलिए भी ये एक नहीं हो सकते।
परम्परा-तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता किस परम्पराके थे इस विषयमें नामविषयक उक्त निर्णयके आधारसे ही बहुत कुछ विवाद समाप्त हो जाता है, क्योंकि जिन तथ्योंके प्रकाश में उनका आचार्य गद्धपिच्छ यह नाम निश्चित होता है उन्हीं के आधारसे वे एक मात्र दिगम्बर परम्पराके सिद्ध होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्दके वे साक्षात् शिष्य हों या न भी हों पर वे हुए हैं उन्हींकी वंशपरम्परामें यह बात पूर्व में दी गयी वंशपरम्परा और अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्दके पञ्चास्तिकाय में यह गाथा आती है
1. जयधवला पुस्तक 1पृ०811
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सर्वार्थसिद्धि
"वयं सल्लवखणियं उप्पादव्वयधुवससंजुत्तं । गुणपपासयं वा जंतं भवंति सम्यन् ॥"
अब इस गाथा के प्रकाशमें तत्त्वार्थसूत्र के इन सूत्रोंको देखिए-
सद् द्रव्यलक्षणम् ॥ 5, 29 11 उत्पादव्यय श्रीव्ययुक्तं सत् ॥ 5, 30 ॥ गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ॥ 5, 30 बहुत से ऐसे वचन हैं जिनका आचार्य कुन्दकुन्द के वचनों के साथ तथा तत्त्वार्थसूत्र में नाथय' जैसे शब्दों का व्यवहार हुआ है।
इसके सिवाय तत्त्वमें और भी शाब्दिक और वस्तुगत साम्य दिखाई देता है इससे उसके कर्ता दिगम्बर परम्पराके हैं यही सिद्ध होता है ।
समय - नामके समान आचार्य गूढपिच्छके समयका प्रश्न भी बहुत अधिक विचारणीय है। साधारणतः दिन उल्लेखोंका इनके समयपर सीधा प्रकाश पड़ता है ऐसे दो उल्लेख हमारे सामने हैं। प्रथम नन्दिसंपकी पट्टावलीका उल्लेख और दूसरा वजन बोधक में उद्धृत इनके समय की सूचना देनेवाला उल्लेख 1. नन्दिसंघकी पट्टावली विक्रमके राज्याभिषेकसे प्रारम्भ होती है और यह इंडियन एंटीक्वेरीके आधारसे जैन सिद्धान्तभास्कर किरण, 4. पृ० 78 में जिस रूपमें उद्धृत हुई है उसका प्रारम्भिक अंश इस प्रकार है-
हुए।
'भद्रबाहु द्वितीय (4) 2 गुप्तिगुप्त ( 26 ) 3 मामनन्दि ( 36 ) 4 जिनचन्द ( 40 ) 5 कुन्दकुन्दा चार्य (49) 6 उमास्वामी (101) 7 लोहाच र्य ( 142 ) 8 यश: कीर्ति (153) 9 यशोनन्दी (211) 10 देवनन्दी (258) 11 जयनन्दी (308) 12 गुणनन्दी (358) 13 वज्रनन्दी (364) 14 कुमारनन्दी (386) 15 लोकचन्द (427) 16 प्रभाचन्द्र (453) 17 नेमिचन्द्र (478) 18 भानुनन्दी (487) 19 हिनदी (508) 20 श्री वसुनन्दी (525) 21 वीरनन्दी (531) 22 रत्ननन्दी (561) 23 माणिक्यनन्दी (585) 24 मेघचन्द्र (601) 25 शान्तिकीर्ति (627) 26 मेरुकीति (642) ।'
गुप्तिगुप्त यह अहं बलिका दूसरा नाम है । इन्होंने अन्य संघों के साथ जिस नन्दिसंघकी स्थापना की थी उसके पहले पट्टधर आचार्य माघनन्दि थे । इस हिसाब से उमास्वामी (गृद्धपिच्छ ) नन्दिसंघ के पट्टपर बैठनेवाले पौधे आभार्य ठहरते हैं। यद्यपि पट्टावली में ये क्रमांक 6 पर सूचित किये गये हैं पर भद्रबाहु द्वितीय और अद्बलिको छोड़कर ही नन्दिसंघ के आचार्योंकी गणना करनी चाहिए। इसलिए यहाँ हमने उमास्वामी (पिच्छ) का क्रमांक 4 सूचित किया है इस पट्टावलिके अनुसार ये वीर नि० सं० 571 में हुए
थे ।
2. विद्वज्जन बोधक में यह श्लोक उद्धृत मिलता है
"वर्षसप्तशते चैव सप्तत्या च विस्मृतौ । उमास्वामिमुनिर्मातः कुन्दकुन्वस्तथेव च ॥"
इसका भाव है कि वीर नि० सं० 770 में उमास्वामी मुनि हुए तथा उसी समय कुन्दकुन्द आचार्य
अब हम अन्य प्रमाणको देखें
1. इन्द्रनन्दिके श्रुतावतार में पहले 683 वर्षकी श्रुतधर आचार्योंकी परम्परा दी है। और इसके बाद अंगपूर्व के एकदेशधारी विनमधर श्रीदत्त और अर्हतका नामोल्लेख कर नन्दिसंघ आदि संपकी स्थापना
1. देखो तत्त्वार्थसूत्र, अ० 9, सू० 9 1 2. पाण्डवपुराणके कर्ता शुभचन्द्र ने अपनी परम्परा दी है। उसमें भी 10 आचार्यों तक यही क्रम स्वीकार किया गया है। और आगे भी एकाध नामको छोड़कर आचार्योंके नामोंमें समानता देखी जाती है। वे अपनेको नन्दिसंधका ही घोषित करते हैं। देखो जनसिद्धान्त भास्कर, भाग 1, किरण 4. पृष्ठ 51 ।
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प्रस्तावना
करनेवाले अहेलिका नाम आता है और इसके बाद माघनन्दि, एरसेन पुष्पदन्त और भूतबलिका उल्लेख करने के बाद आचार्य परम्परा में कुन्दकुन्दका नाम आता है। यह तो निश्चित है कि आचार्यद्धपिछ आचार्य कुन्दकुन्दके बाद हुए हैं। इसलिए यदि इस हिसाब से विचार दिया जाय और श्रुतधर आचार्यों के 683 वर्षमें आयेके आचार्योंका लगभग 100 वर्ष मानकर जोड़ा जाय तो वीर नि० सं० से 783 वर्ष के आसपास पिच्छ हुए यह कहा जा सकता है।
आचार्य
2. श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० 105 में भो घर आनायकी परम्परका निर्देश कर और उसके बाद कुम्भ, विनीत, हलधर वसुदेव, अचल, मेरुधीर, सर्वश, सर्वगुप्त, महिधर, धनपाल, महावीर और वीर इन नामका उल्लेख कर कुन्दकुन्द और तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता दिन्छ उमास्वातिका नाम आता है। किन्तु इसमें एक तो भूतधर आचार्योंकी परम्पराका काल निर्देश नहीं किया है। दूसरे श्रुतधर व दूसरे आचार्यकि कमिक नामनिर्देशका भी ख्याल नहीं रखा है। अतः इस आधार मे आचार्य पिच्छके समय सम्बन्ध में कुछ भी अनुमान नहीं किया जा सकता।
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3. श्रुतधर आचार्योंकी परम्पराका निर्देश धरना, आदिपुराण, नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावली और त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि में भी किया है। किन्तु वे 683 वर्ष की परम्पराका निर्देश करने तक ही सीमित हैं । अतः इनके आधारसे किसी एक निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन है। इन आधारोंके बल पर यह भी तो नहीं कहा जा सकता कि आचार्य गृच्छिके समय सम्बन्ध में इन आचायोका क्या अभिमत है और हम इस सम्बन्ध में इनके अभिनतको जाने बिना केवल इन्द्रनन्दि श्रुतावतारके आधारसे श्रुतधारियोंकी 683 वर्षकी परम्परा के बाद आचार्यद्धपिच्छकी अवस्थितिको दन आचार्योंके मतसे मानने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं।
इस प्रकार पूर्वोक्त विवेचनसे हमारे सामने मुख्य तीन मत आते हैं जिनसे हमें आचार्य सच्छिके समवकी सूचना मिलती है। प्रथम नन्दिसंघकी पट्टावलिके अनुसार उनका समय विक्रम ( 571-470 ) 101 ठहरता है। दूसरे विद्वज्जन बोधक उद्धृत श्लोकके अनुसार वह विक्रम ( 770-470 ) 300 ठहरता है और तीसरे दन्द्रनन्दिके थुतावतारके अनुसार वि० सं०] (783-470 ) 313 अनुमानित किया जा सकता है।
श्रवणबेलगोलके शिलालेखों में आचार्य वृद्धपिच्छके विश्वका नाम आचार्य बलाकपिच्छ आता है और तो यह समाधान हो आसीन हुए और जिला
सिंधी पट्टावली में बलाक पिच्छ के स्थान में लोहाचार्यका नाम जाता है किन्तु सकता है कि पट्टी में उन आचार्य के नामोंका उल्लेख है जो उनके बाद पट्ट पर लेखों में इसका विचार न कर उनका नामोल्लेख किया है जो उनके प्रमुख शिष्य थे और इस आधार से यहाँ तककी पट्टावलीको ठीक भी मान लिया जाय तब भी इनके समय के सम्बन्ध में पट्टावलीके कालका दूसरे उल्लेखों में निर्दिष्ट कालके साथ जो इतना अन्तर दिखाई देता है उसका हल कैसे किया जाय यह विचारणीय विषय हो जाता है ।
यहाँ हम अन्य पौर्वात्य व पाश्चात्य विद्वानोंके मतोंका विशेष ऊहापोह नहीं करेंगे, क्योंकि उन विद्वानोंने अधिकतर तस्वार्थसूत्र और तस्वार्थभाष्य इनको एकक मान कर अपने-अपने मतका निर्देश किया है। किन्तु सुविचारित मटके रूपमें डॉ० ए० एन० उपाध्येके मतको अवश्य ही उपस्थित करना चाहेंगे। खपि उहापोहके बाद उन्होंने अपना यह मत आचार्य कुन्दकुन्दके समय के सम्बन्धमें निर्दिष्ट किया है किन्तु नन्दिसं पट्टावली व दूसरे प्रमाणोंक अनुसार आचार्य गुढपिन्छ आचार्य कुन्दकुन्द के शिष्य होने के कारण उससे इनके
1. देखो माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित जैन शिलालेखसंग्रह भाग 1, पृ० 195 आदि । 2. देखो धवला पु० 9, पृ० 130 3. देखो आदिपुराण, पर्व 2, श्ला० 137 से। 4. देखो जैन सिद्धान्तभास्कर किरण 4, पृ० 71 5. देखो त्रिलोकप्रज्ञप्ति महाधिकार 4 गाथा 1490, 1491 | 6. देखी भा० प्र०म० प्रकाशित जैन शिलालेख संग्रह भाग 1, शिलालेख नं० 40, 42 और 50 आदि ।
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सर्वार्थसिद्धि
समय पर भी सर्वांगीण प्रकाश पड़ता है। वे सब मन्तव्यों और विद्वानोंके मतोंका ऊहापोह करने के बाद जिस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं वह यह है
'इतनी लम्बी चर्चा करने के बाद हम इस तथ्य पर पहुँचते हैं कि परम्पराके अनुसार इनका (आचार्य कुन्दकुन्दका) अवस्थिति काल ईसवी पूर्व प्रथम शताब्दीके मध्यसे लेकर ईसवी प्रथम शताब्दीके मध्यके भीतर आता है । षट्खण्डागम ईसवी द्वितीय शताब्दी के मध्यकालके पूर्व लिखा जा चुका था, इसलिए इस दृष्टि से उनका अवस्थिति काल ईसवी द्वितीय शताब्दीके मध्यके आसपास आता है। मर्कराके ताम्रपत्रके अनुसार आचार्य कुन्दकुन्दकी अन्तिम सीमा ईसवी तृतीय शताब्दीके मध्यके पूर्व मानी जा सकती है। इसके साथ ही साथ वे शायद शिवस्कन्द राजाके समकालीन तथा कुरलके लेखक थे। इससे यह प्रतीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ऊपर बतलायी गयी प्रथम दो शताब्दियों में थे। मैं इन सबका विचारकर इस तथ्यपर पहुँचा हूँ कि कुन्दकुन्द ईसवी प्रथम शताब्दी में हुए हैं।।'
यह तथ्य है जो आचार्य कुन्दकुन्दके समय के सम्बन्ध में डॉ. ए. एन. उपाध्येने सूचित किया है। नन्दिसंघकी पट्टावली में उल्लिखित समयकी सीमा लगभग यही है, इसलिए इन सब आधारोंको ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि आचार्य गृद्धपिच्छका समय ईसवी प्रथम शताब्दीमें हुए आचार्य कुन्दकुन्दके बाद होना चाहिए, क्योंकि पट्टावलियों व दूसरे शिलालेखों में आचार्य कुन्दकुन्द के बाद ही इनका नाम आता है और सम्भव है इन दोनोंके मध्य गुरु-शिष्यका सम्बन्ध रहा है। नन्दिसंघकी पट्टावलिके अनुसार ये आचार्य कुन्दकुन्दके उत्तराधिकारी हैं यह तो स्पष्ट ही है।
5. तत्वार्यसूत्रके निर्माणका हेतु-लोक में यह कथा प्रसिद्ध है कि किसी एक भव्यने मोक्षमार्गोपयोगी शास्त्रके निर्माणका विचार कर तदनुसार 'दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः' सूत्र रचकर दीवाल पर लिख दिया । इसके बाद रोजगार के निमित्त उसके बाहर चले जाने पर चर्या के निमित्त गृदपिच्छ आचार्य वहाँ आये और उन्होंने दीवाल पर लिखे हुए सूत्रको अधूरा देखकर उसके प्रारम्भ में 'सम्यक' पद जोड़ दिया। जब वह भव्य बाहरसे लौटा और उसने सूत्रके प्रारम्भमें 'सम्यक' पद जुड़ा हुआ देखा तो वह आश्चर्य करने लगा। उसने घरके सदस्योंसे इसका कारण पूछा और ठीक कारण जानकर वह खोजता हुआ गृद्धपिच्छ आचार्यके पास पहुँचा और उन पर अपने अभिप्रायको व्यक्त कर उनसे शास्त्रके रचनेकी प्रार्थना करने लगा। तदनुसार आचार्य महाराजने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की।
यहाँ देखना यह है कि यह कथा लोक में प्रचलित कैसे हुई ? क्या इसकी प्रामाणिकताका कोई विश्वस्त आधार है या यह कोरा भावुकतासे प्रेरित श्रद्धालुओंका उच्छवासमात्र है ? आगे इसी तथ्यका सांगोपांग विचार किया जाता है
1. श्रुतसागर सूरिने तस्वार्थवृत्तिके प्रारम्भमें लिखा है कि किसी समय आचार्य उमास्वामी (गडपिच्छ) आश्रम में बैठे हुए थे। उस समय द्वैयाक नामक भव्यने वहाँ आकर उनसे प्रश्न किया-भगवन् ! आस्माके लिए हितकारी क्या है ? भव्यके ऐसा प्रश्न करनेपर आचार्यवर्यने मंगलपूर्वक उत्तर दिया-मोक्ष । यह सुनकर द्वैयाकने पुनः पूछा-उसका स्वरूप क्या है और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? उत्तरस्वरूप
येने मोक्षका स्वरूप बसला कर कहा कि यद्यपि मोक्षका स्वरूप इस प्रकार है तथापि प्रवादीजन इसे अभ्यथा प्रकारसे मानते हैं। इतना ही नहीं किन्तु इसके मार्गके विषय में भी वे विवाद करते हैं। कोई चारित्र. शन्य ज्ञानको मोक्षमार्ग मानते हैं, कोई श्रद्धानमात्रको मोक्षमार्ग मानते हैं और कोई ज्ञाननिरपेक्ष चारित्रको
1. प्रवचनसारकी प्रस्तावना पृ० 22 के आधारसे। 2. इस कथाका आधार 13वीं शतीमें हए बालचन्द्र मुनि रचित तत्वार्थसूत्रकी कनड़ी टीका ज्ञात होती है। इसमें श्रावकका नाम सिद्धय्य दिया है। देखो पं. कैलाशचन्द्रजीके तत्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना पृ० 16 ।
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प्रस्तावना
मोक्षमार्ग मानते हैं। किन्तु जिस प्रकार ओषधिके केवल ज्ञान, दर्शन या प्रयोगसे रोगकी निवृत्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार केवल दर्शन, केवल ज्ञान या केवल चारित्रसे मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती। भव्यने पूछा तो फिर किस प्रकार उसकी प्राप्ति होती है ? इसीके उत्तरस्वरूप आचार्यवर्याने 'सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' यह सूत्र रचा और परिणामस्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की रचना हुई है।
2. सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में भी यही उत्थानिका दी है। श्रुतसागर सूरिने यह उत्थानिका सर्वार्थसिद्धसे ही ली है। अन्तर केवल इतना है कि जिस भव्यने जाकर आचार्य गद्धपिच्छसे प्रश्न किया है उसे सर्वार्थसिद्धि में 'कश्चिद् भव्यः' कहा गया है और श्रुतसागर सूरि उसके नामका उल्लेख करते हैं। कह नहीं सकते उन्होंने उस भव्यका यह नाम किन स्रोतोंसे प्राप्त किया। - तत्त्वार्थसूत्रकी इन प्रसिद्ध टीकाओंके उल्लेखोंसे लोककथाके इस भागका तो समर्थन होता है कि तस्वार्थसूत्रकी रचना किसी भव्यके निमित्तसे हुई। किन्तु यह ज्ञात नहीं होता कि पहले उस भव्यने 'दर्शनज्ञानचारित्राणि' सूत्र रचा और बाद में उसमें सुधारकर भव्यकी प्रार्थना पर सूत्रकारने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की। इसलिए इन उल्लेखोंसे कथाके सर्वांशका समर्थन न होने पर भी किसी अंशतक वह साधार है यह मानने में कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती।
4. आचार्य पूज्यपाद 1. महता-भारतीय परम्परामें जो लब्धप्रतिष्ठ तत्त्वद्रष्टा शास्त्रकार हए हैं उनमें आचार्य पूज्यपाद का नाम प्रमुख रूपसे लिया जाता है। इन्हें प्रतिभा और विद्वत्ता दोनोंका समान रूपसे वरदान प्राप्त था। जैन परम्परामें आचार्य समन्तभद्र और सन्मतिके कर्ता आचार्य सिद्धसेन के बाद साहित्यिक जगत में यदि किसी को उच्चपद पर बिठलाया जा सकता है तो वे आचार्य पूज्यपाद ही हो सकते हैं। इन्होंने अपने पीछे जो साहित्य छोड़ा है उसका प्रभाव दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में समानरूपसे दिखाई देता है। यही कारण है कि उत्तरकालवर्ती प्रायः अधिकतर साहित्यकारों व इतिहास मर्मज्ञोंने इनकी महत्ता, विद्वत्ता और बहुजता स्वीकार करते हुए इनके चरणोंमें श्रद्धाके सुमन अर्पित किये हैं। आदिपुराणके कर्ता आचार्य जिनसेन इन्हें कवियों में तीर्थकर मानते हुए इनकी स्तुति में कहते हैं---
कवीनां तीर्थकदेवः किंतरां तत्र वर्ण्यते ।
विदुषां वाङ्मलध्वंसि ती यस्य वचोमयम् ॥1,52॥ जो कवियों में तीर्थंकरके समान थे और जिनका वचनरूपी तीर्थ विद्वानोंके वचनमलको धोनेवाला है उन देव अर्थात देवनन्दि आचार्यकी स्तुति करने में भला कौन समर्थ है।
यह तो हम आगे चलकर बतलानेवाले हैं कि जिस प्रकार इन्होंने अपनी अनुपम कृतियों द्वारा मोक्षमार्गका प्रकाश किया है उसी प्रकार इन्होंने शब्दशास्त्र पर भी विश्वको अपनी रचनाएँ भेंट की हैं। कहा तो यहाँ तक जाता है कि शरीरशास्त्र जैसे लोकोपयोगी विषयको भी इन्होंने अपनी प्रतिभाका विषय बनाया था। तभी तो ज्ञानार्णवके कर्ता आचार्य शुभचन्द्र इनके उक्त गुणोंका ख्यापन करते हुए कहते हैं
अपाकुर्वन्ति यहाचः कायवाञ्चित्तसम्भवम् ।।
कलमणिनां सोऽयं देवनन्दी ममस्यते ॥1,15॥ जिनकी शास्त्रपद्धति प्राणियों के शरीर, वचन और चित्तके सभी प्रकारके मलको दूर करने में समर्थ है उन देवनन्दी आचार्यको मैं प्रणाम करता है।
आचार्य गुणनन्दिने इनके व्याकरण सूत्रोंका आश्रय लेकर जैनेन्द्र प्रक्रियाकी रचना की है। वे इसका मंगलाचरण करते हुए कहते हैं
ममः भीपूज्यपादाय लक्षणं यापकमम् । यदेवात्र तबन्यत्र पम्नानास्ति न तत्त्वचित् ॥
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सर्वार्थ सिद्धि
जिन्होंने लक्षणशास्त्रकी रचना की, मैं उन आचार्य पूज्यपादको प्रणाम करता है। उनके इस लक्षणशास्त्रकी महत्ता इसीसे स्पष्ट है कि जो इसमें है वही अन्यत्र है और जो इसमें नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं है।
उनकी और उनके साहित्यकी यह स्तुति परम्परा यहीं समान नहीं होती। धनंजय, वादिराण, भट्टारक शुभचन्द्र और पद्मप्रभ आदि अनेक ऐसे आचार्य हुए हैं जो इस मुणग थाकी परम्पराको बोषित रखने के लिए अपने पूर्ववर्ती आचार्योंके पदचिह्नों पर चले हैं। अभिप्राय यह है कि आचार्य पूज्यवाद साहित्य-जगत् में कभी न अस्त होनेवाले वे प्रकाशमान सूर्य थे जिसके आसोकसे दशों दिशाएँ सदा आलोकित होती रहेंगी।
ये हैं वे तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तुत वृत्ति सर्वार्थसिद्धिके रचयिता आचार्य पूज्यपाद जिनका सर्वांग परिचय हमें यहाँ प्राप्त करना है। उसमें भी उनका पूरा नाम क्या है, वे किस संघ के अधिपति थे। उनका जीवन परिचय क्या है, उनकी रचनाएँ कौन-कौन हैं और उनका वास्तव्य काम व गुरु-शिष्य परम्परा क्या है आदि विषय विचारणीय हैं जिनका यहाँ हम क्रमश: परिचय प्राप्त करनेका उपक्रम करेंगे। सर्वप्रथम नामको ही लीजिए
2.माम-शिलालेखों तथा दूसरे प्रमाणोंसे विदित होता है कि इनका गुरुके द्वारा दिया हुआ दीक्षानाम देवनन्दि था, बुद्धिकी प्रखरताके कारण इन्हें जिनेन्द्रबुद्धि कहते थे और देवोंके द्वारा इनके चरण युगल पूजे गये थे इसलिए वे पूज्यपाद इस नामसे भी लोक में प्रख्यात थे। इस अर्थको व्यक्त करनेवाले उद्धरण ये हैं
प्रागभ्यधायि गुरुणा किल वनन्दी बुद्धया पुनविपुलया स मिनेन्द्रबुद्धिः । श्रीपूज्यपाद इति चष बुषैः प्रचल्ये सत्यमिता पवयुगे वनदेवताभिः ।
श्रवणबेलगोला शि० नं0 105, वि० सं० 13201 टनके पूज्यपाद और जिनेन्द्रबुद्धि इन नामोंकी सार्थकताको व्यक्त करनेवाले वहीं के नं0 108 के एक दुसरे शिलालेखको देखिए
श्रीपादोदक्षतधर्मराज्यस्ततः सुराबीश्वरपूज्यपादः । यदीयदृष्यगुणानिवानी बदन्ति शास्त्राणि तदषतानि ॥ पुतविश्वबुद्धिरयमत्र योगिभिः कृतकृत्यभावमनविभ्रयुच्चकैः ।
जिनयद बभूव यवनङ्गचापहृत्स जिनेन्द्रबुसिरिति सावर्णितः ॥ ये दोनों श्लोक वि० सं० 1355 के शिलालेख के हैं। इनमें कहा गया है कि आचार्य पूज्यपादने धर्मराज्यका उद्धार किया था, इससे आपके चरण इन्द्रों द्वारा पूजे गये थे। इनके पूज्यपाद इस नाम से सम्बोधित किये जानेका यही कारण है। इनमें वैदुष्य आदि अनेक गुण थे जिनका स्थापन आज भी इनके द्वारा रचे गए प्रास्त्र कर रहे हैं। ये जिन देव के समान विश्वबुद्धि के धारक थे, कृतकृत्य थे और कामदेवको जीतने वाले थे, इसलिए योगी जन इन्हें जिनेन्द्रबुद्धि इस नामसे सम्बोधित करते थे।
शिलालेखों में त अन्यत्र और भी ऐसे अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं जिनसे इनके तीन नामोंकी सार्थकतार ।
आदिपुर . नद्धरण हम पहले दे आये हैं। उनके तथा वादि। सूरिके एक उल्लेखसे विदित
1. श्रवणवेल्गोलके एक • 1085 के शिलालेख (जो इससे पूर्ववर्ती है) से भी इस तथ्यका समर्थन होता है। 2. देखो श्रवणबेलगोल शिलालेख नं0 50 और नन्दिसंघ की पट्टावली। 3. पार्श्वनाथचरित सर्ग 1, श्लोक 181
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होता है कि इनका एक नाम 'देव' भी था। मालूम पड़ता है कि इनका दीक्षानाम 'देवनन्दि' होनेसे उसके संक्षिप्त रूप 'देव' इस पद द्वारा उक्त आचार्योंने इनका नामोल्लेख किया है। अतएव यह कोई स्वतन्त्र नाम न होकर 'देवनन्दि' इस नामका ही संक्षिप्त रूप प्रतीत होता है।
3 संघ-संघोंकी उत्पत्तिका इतिहास इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में दिया है। वे लिखते हैं कि जब सौ योजनके मुनि मिलकर अष्टांगनिमित्तज्ञ और धारण-प्रसारण आदि विशुद्ध क्रियाके पालनेवाले आचार्य अहंबलि की देखरेख में युगप्रतिक्रमण कर रहे थे उस समय युगके अन्तिम दिन युगप्रतिक्रमण करते हुए आचार्य अर्हद्बलिने आये हुए मुनिसमाजसे पूछा कि क्या सभी यतिजन आ गये हैं ? इसपर यति जनोंने उत्तर दिया कि अपने-अपने सकल संघके साथ हम आ गये हैं। तब यतिजनोंके इस उत्तरको सुनकर उन्होंने जान लिया कि यह कलिकाल है। इसमें आगे यतिजन गणपक्षपातके भेदसे रहेंगे, उदास भावसे नहीं रहेंगे और ऐसा विचार कर उन्होंने जो गुफासे आये थे उनमेंसे विन्हींको 'नन्दि' संज्ञा दी और विन्हीं को 'वीर' संज्ञा दी। जो अशोकवाटिकासे आये थे उनमें से किन्हींको 'अपराजित' संज्ञा दी और किन्हीं को 'देव' संज्ञा दी। जो पंचस्तूपके निवासी वहाँ आये थे उन मेंसे किन्हीं को 'सेन' संज्ञा दी और विन्हीं को 'भद्र' संज्ञा दी। जो शाल्मली महाद्रुमसे आये थे उन मेंसे किन्हींको गणधर' संज्ञा दी और किन्हीं को 'गुप्त' संज्ञा दी और जो खण्डकेसर दुमके मूलसे आये थे उनमेंसे किन्हींको सिंह' संज्ञा दी और किन्हींको चन्द्र' संज्ञा दी।
इससे विदित होता है कि जो मुलसंघ पहले संघभेद व गण-गच्छके भेदसे रहित होकर एक रूपमें चला आ रहा था वह यहाँ आकर अनेक भागों में विभक्त हो गया। यह तो नाना संघोंकी उत्पत्तिकी कथा है। अब जिसे यहाँ पर नन्दिसंघ कहा गया है उसकी परम्पराको देखिएशुभचन्द्राचार्य अपने पाण्डवपुराणमें अपनी गुर्वावलीका उल्लेख करते हुए लिखते हैं
श्रीमलसंधेऽजनि नन्विसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः ।
तत्राभवत्पूर्वपदांशवेदी श्रीमाधनन्दी नरदेववन्धः ॥2॥ इसमें कहा गया है कि नन्दिसंघ बलात्कार गण मूलसंघके अन्तर्गत है। उसमें पूर्वोके एकदेश ज्ञाता और मनुष्यों व देवोंसे पूजनीय माघनन्दी आचार्य हुए।
इतना कहने के बाद इस गुर्वावली में माघनन्दीके बाद 4 जिनचन्द्र, 5 पद्मनन्दी (इनके मतसे पद्मनन्दीके चार अन्य नाम थे-कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य और गद्धपृच्छ), 6 तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता उमास्वाति, 7 लोहाचार्य, 8 यश:कीति, 9 यशोनन्दी और 10 देवनन्दी के नाम दिए हैं। ये सब नाम इसी क्रमसे नन्दिसंघकी पट्टावलीमें भी मिलते हैं। आगे इस गुर्वावली में 11 गुणनन्दीके बाद 12 वचनन्दीका नाम आता है। जब कि नन्दिसंघकी पट्टावलीमें 11 जयनन्दी और 12 गुणनन्दी इन दो नामोंके बाद 13 वजनन्दीका नाम आता है।
___ यद्यपि इससे आगेकी दोनोंकी आचार्य परम्परा करीब-करीब मिलती हुई हैं । परन्तु विशेष प्रयोजन न होनेसे उसे हम यहाँ नहीं दे रहे हैं। प्रकृतमें इन आधारोंसे हमें इतना ही सूचित करना है कि आचार्य पूज्यपाद मूलसंघके अन्तर्गत नन्दिसंघ बलात्कार गणके पट्टाधीश थे। तथा अन्य प्रणाणोंसे यह भी विदित होता है कि इनका गच्छ 'सरस्वती' इस नामसे प्रख्यात था। हमारे प्रसिद्ध आचार्य कुन्दकुन्द और गृद्धपिच्छ (उमास्वाति) इसी परम्पराके पूर्ववर्ती आचार्य थे यह भी इससे विदित होता है।
4. जीवन-परिचय-आचार्य पूज्यपाद कौन थे, उनके माता-पिताका नाम क्या था, वे किस कुलमें
।. देखो जैन सिद्धान्तभास्कर भाग 1, किरण 4, पृ० 51। 2. देखो जैनसिद्धान्तभास्कर, भाग 1, किरण 4, पृ. 43 में उद्धृत शुभन्द्राचार्यकी पट्टावली।
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सर्वार्थसिद्धि
जन्मे थे इन सब बातोंका परिचय श्रीमान् पं० नाथूरामजी प्रेमीने देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण' लेख में दिया है। उन्होंने यह परिचय कनटी भाषामें लिखे गये पूज्यपादचरिते' के आधार से लिखा है। इसके लेखक 'चन्द्रस्य' कवि थे। श्रीमान पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके लेखसे यह भी विदित होता है कि उनका यह जीवनचरित 'राजावलिकये' में भी दिया हुआ है। किन्तु इन दोनोंमें कहाँ तक सत्य और वैषम्य है यह इससे विदित नहीं होता । प्रेमीजीके शब्दों में कथा संक्षेप में इस प्रकार है
1
'कर्नाटक देशके 'कोले' नामक ग्राम के माधवभट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मणीसे पूज्यपादका जन्म हुआ । ज्योतिषियोंने बालकको त्रिलोक पूज्य बतलाया। इस कारण उसका नाम पूज्यपाद रखा गया । माधव भट्टने अपनी स्त्रीके कहने से जैनधर्म स्वीकार कर लिया। भट्टनीके सालेका नाम पणिनि' था उसे भी उन्होंने जैन बनने को कहा । परन्तु प्रतिष्ठा के ख्यालसे वह जैन न होकर मुडीकुंड ग्राम में वैष्णव संन्यासी हो गया । पूज्यपादकी कमलिनी नामक छोटी बहन हुई, वह गुणभट्टको व्याही गयी और गुणभट्टको उससे नागार्जुन नामक पुत्र हुआ।
पूज्यपादने एक बगीचे में एक सपिके मुंहमें फँसे हुए मेंढकको देखा । इससे उन्हें वैराग्य हो गया और वे जैन साधु बन गये ।
पाणिनि अपना व्याकरण रच रहे थे। वह पूरा न हो पाया था कि उन्होंने अपना मरणकाल निकट आया, जानकर पूज्यपादसे कहा कि इसे तुम पूरा कर दो। उन्होंने पूरा करना स्वीकार कर लिया ।
पाणिनि दुर्ध्यानवश मरकर सर्प हुए। एक बार उसने पूज्यपादको देखकर फूत्कार किया । इस पर पूज्यपादने कहा - विश्वास रखो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूंगा। इसके बाद उन्होंने पाणिनि व्याकरणको पूरा कर दिया।
इसके पहले वे जैनेन्द्र व्याकरण, अर्हस्प्रतिष्ठालक्षण और वैदक ज्योतिष के कई ग्रन्थ रच चुके थे। गुणके मर जाने नागार्जुन अतिशय दरिद्री हो गया। पूज्यपादने उसे पद्मावतीका एक मन्त्र दिया और सिद्ध करने की विधि भी बतला दी। उसके प्रभावसे पद्मावतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे सिद्धरसकी वनस्पति बतला दी ।
इस सिद्धिरसे नागार्जुन सोना बनाने लगा। उसके गर्वका परिहार करने के लिए पूज्यपादने एक मामूली वनस्पतिमे कई घड़ सिद्धरम बना दिया। नागार्जुन जय पर्वतोंको सुवर्णमय बनाने लगा तब धरणेन्द्र पद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनाने को कहा। तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित की।
पूज्यपाद पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेहक्षेत्रको जाया करते थे। उस समय उनके शिष्य वचनन्वीने अपने साबियोंसे झगड़ा करके बि संघकी स्थापना की।
नागार्जुन अनेक मन्त्र तन्त्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत ही प्रसिद्ध हो गया । एक बार दो सुन्दरी स्त्रियाँ आयी जो नाचने कुशल थीं। नागार्जुन उन पर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगीं और कुछ समय बाद ही उसकी रसगुटिका लेकर चलनी बनीं।
गाने में
पूज्यवाद मुनि बहुत समय तक योगाभ्य स करते रहे। फिर एक देवविमान में बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा की । मार्ग में एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गयी थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्टक बनाकर ज्यों की त्यों कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने ग्राम में आकर समधिपूर्वक मरण किया ।'
श्री मोतीचन्द्र गौतमचन्द्र कोठारी फलटनवालोंने मदर्थसिद्धिके एक अन्यतम संस्करणका सम्पादन किया है जो सोलापुरसे प्रशित हुआ है। उसमें उन्होंने कुछ युक्तियाँ देकर इस कथाके व्याकरण सम्बन्धी
1. देखो जैन साहित्य और इतिहास, पृ० 123 2 देखो रत्नकरण्डककी भूमिका ।
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प्रस्तावना
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अंशको यथावत् सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। किन्तु जैसा कि अन्य तथ्योंसे सिद्ध है कि पाणिनि-व्याकरणके कर्ता पाणिनि ऋषि पूज्यपादसे बहुत पहले हो गये हैं। इतना ही नहीं पाणिनि व्याकरण पर जो कात्यायनका वार्तिक और पतंजलिका महाभाष्य प्रसिद्ध है वह भी पूज्यपादके कई शताब्दियों पहले लिखा जा चुका था। अतएव केवल इस कथाके आधार पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि आचार्य पूज्यपाद पाणिनिके समय में हुए हैं और उन्होंने उनके अधूरे व्याकरणको पूरा किया था। कथा में और भी ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख है जिन्हें अतिशयोक्तिपूर्ण कहा जा सकता है। किन्तु एक बात स्पष्ट है कि आचार्य पूज्यपाद पाणिनि व्याकरण, उसके वार्तिक और महाभाष्यके मर्मज्ञ थे । इससे ऐसा मालूम पड़ता है कि ये ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए होंगे और अपने जीवनकालके प्रारम्भ में वे अन्य धर्मके माननेवाले रहे होंगे। अतः इस कथा में जो उनके पिता, माता व कुल आदिका परिचय दिया है वह कदाचित् ठीक भी हो। जो कुछ भी हो, तत्काल इस कथाके आधारसे हम इतना कह सकते हैं कि पूज्यपाद ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। उनके पिताका नाम माधवभट्ट और माताका नाम श्रीदेवी था। वे कोले' नामक ग्रामके रहनेवाले थे और उनका जन्म नाम पूज्यपाद था। उन्होंने विवाह न कर बचपन में ही जैनधर्म स्वीकार कर लिया था और आगे चलकर उन्होंने साँपके मुंहमें मेंढक तड़पता हुआ देख मुनिदीक्षा ले ली थी। उन्होंने अपने जीवन काल में गगनगामी लेपके प्रभावसे कई बार विदेहक्षेत्रकी यात्रा की थी। श्रवणबेल्गोलके एक शिलालेखके आधारसे यह भी कहा जा सकता है कि जिस जलसे उनके चरण धोये जाते थे उसके स्पर्शसे लोहा भी सोना बन जाता था। उनके चरणस्पर्शसे पवित्र हुई धूलिमें पत्थरको सोना बनानेकी क्षमता थी इस बातका उल्लेख तो कथा लेखकने भी किया है। एक बार तीर्थयात्रा करते समय उनकी दृष्टि तिमिराच्छन्नहो गयी थी। जिसे उन्होंने शान्त्यष्टकका निर्माण कर दूर किया था। किन्तु इस घटनाका उनके ऊपर ऐसा प्रभाव पड़ा जिससे उन्होंने तीर्थयात्रासे लौटकर समाधि ले ली थी।
स्वरचित साहित्य -आचार्य पूज्यपादने अपने जीवन-काल में सर्वार्थसिद्धि सहित जिस साहित्यका निर्माण किया था उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
1. सर्वार्थसिदि-इसका विस्तृत परिचय हम पहले दे आये हैं।'
2. समाषितन्त्र- इसमें कुल मिलाकर 105 श्लोक हैं । विषय अध्यात्म है। ग्रन्थका नाम समाधितन्त्र है। इसकी सूचना स्वयं आचार्य पूज्यपादने इसके अन्तिम श्लोक में दी है। एक तो श्रवणबेल्गोलके शक सं० 1085 के शिलालेख 40 में इसका नाम समाधिशतक दिया है। दूसरे बनारससे मुद्रित होनेवाले प्रथम गुच्छकमें भी टिप्पण सहित यह छपा है और उसके अन्तमें एक प्रशस्ति श्लोक उद्धृत है जिसमें श्लेष रूपसे इसका नाम समाधिशतक सूचित किया गया है। मालूम पड़ता है कि इन्हीं कारणोंसे इसका दूसरा नाम समाधिशतक प्रसिद्ध हुआ है।
यद्यपि यह ग्रन्थ आचार्य पूज्यपादकी स्वतन्त्र कृति है पर अन्तःपरीक्षणसे विदित होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा निर्मित आगमको आत्मसात् कर उन्होंने इसकी रचना की है। उदाहरणस्वरूप नियमसारमें यह गाथा आती है
णियभावंण विमुंच परभावं व गिण्हए केई।
जाणवि पस्सदि सव्वं सोहं इदि चितए जाणी।।97॥ अब इसकी तुलना समाधितन्त्रके इस श्लोकसे कीजिए
यवपाह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥30॥
1. 'श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिभौषद्धिजीयाद्विदेहजिनदर्शनपूतगात्रः। यत्पादधौतजलसंस्पर्शप्रभावाकालायसं किल तदा कनकीचकार ॥' शिलालेख 108 (शक सं0 1355)। 2. देखो प्रस्तावना पृ० 23 ।
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सर्वार्थसिद्धि
यदि सूक्ष्मता से अवलोकन कर देखा जाय तो मालूम पड़ता है कि प्रारम्भ ही इसका मोक्षप्राभूतको सामने रख कर हुआ है और लगभग मोक्षप्राभृतके समग्र विषयको स्वीकार कर इसकी रचना की गयी है। प्राभृती प्रथम गाथा यह है
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गाणमयं अप्पाणं उवलयं जेण झडियकम्मेण । चऊण व परवव्यं णमो नमो तस्स देवस्स ।। 1 ।। अब इसके प्रकाश में समाधितन्त्रका प्रथम मंगलश्लोक देखिएयेनात्मयतात्मेव परत्वेनंव चापरम् । अक्षयानन्तयोषाय तस्मे सिद्धात्मने नमः ॥ 1 ॥
अब मोक्षप्राभृतकी एक दूसरी गाथा लीजिए
जं मया दिसवे रूपं तं न जाणदि सम्बहा जागो विस्सदे ण सं सम्हा जंपेमि केण हं ॥
इसी विषयको समाधितन्त्र में ठीक इन्हीं शब्दों में व्यक्त किया गया है
यन्मया दृश्यते रूपं
तन्न जानाति सर्वथा । जानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ॥ 18 ॥
इतना ही नहीं समाधितन्त्र लिखते समय आचार्य पूज्यपादके सामने आचार्य कुन्दकुन्दका समयप्राभूत अन्य भी उपस्थित था यह इसके अवलोकनसे स्पष्टतः विदित होता है। आचार्य कुन्दकुन्दने अभ्यन्तर परिणामोंके बिना केवल बाह्यलिंग मोक्षमार्ग में उपयोगी नहीं है यह बतलाते हुए समयप्राभूतमें कहा हैपाडीलिंगानि व मिलिगानि व बहुप्यवाराणि । वितुं वदंति मूढा सिगमिणं मोक्यमग्गो ति ॥ 408 ॥ म उ होदि मोमो लिगं जं देहनिम्ममा अरिहा । लिंगं मुद्दतु दंसणणाणचरिताणि सेयंति ॥ 409 1
इसी तथ्यको आचार्य पूज्यपादने समाधितन्त्र में इन शब्दों में व्यक्त किया है
लिङ्ग वेहाश्रितं दृष्टं वह एवं आत्मनो भवः । न मुच्यते भवातस्माले ये लिङ्गकृताग्रहाः ॥ जातिर्वेहाथिता दृष्टा देह एवात्मनो भवः । न मुच्यन्ते भवातस्मासे ये जातिकृताग्रहाः ॥
इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि जो साधक अपने आत्मकार्य में उद्यत होना चाहते हैं उनके लिए यह मोक्षमार्ग अनुसन्धान में प्रदीपस्तम्भ के समान है। इसमें आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद करके किस प्रकार यह जीव बहिरात्मपदके त्याग द्वारा अन्तरात्मा बनकर परमात्मपदको प्राप्त करता है इसका सरल और हृदयग्राही कविता में विवेचन किया गया है।
3 इष्टोपदेश इसमें कुल मिलाकर 51 श्लोक हैं। विषय स्वरूप सम्बोधन है ग्रन्थका नाम इष्टीपदेश है यह स्वयं आचार्य पूज्यपादने इसके अन्तिम श्लोक में व्यक्त किया है ।
इसका निर्माण करते हुए आचार्य पूज्यपादके सामने एकमात्र यही दृष्टि रही है कि किसी प्रकार यह संसारी आत्मा अपने स्वरूपको पहचाने और देह, इन्द्रिय तथा उनके कार्योंको अपना कार्य न मानकर आत्मकार्य में सावधान होनेका प्रयत्न करे । समयप्राभृतका स्वाध्याय करते समय हमें इस भावके पद-पद पर दर्शन होते हैं और इसलिए हम कह सकते हैं कि समयप्राभृत आदिके विषयको आत्मसात् करके ही इसका निर्माण किया गया है। तुलना के लिए देखिए
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प्रस्तावना
एषो मे सासदो आवा णाणसणलपवणो । सेसा मे बाहिरा भावा सम्वे संजोगलक्षणा ॥
-समयप्राभूत एकोऽहं निर्भगः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः । बाह्याः संयोगजाः भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥27॥ ---इष्टोपदेश रतो बंधति कम्मं मुंचदि कम्मं विरागसंपत्तो । एसो जिणोवएसो तम्हा कम्मेप्तु मा रज्ज ॥ -समयप्राभूत बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्मप्र: क्रमात् ।
तस्मात सर्वप्रयत्लेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् ॥26॥ -इष्टोपदेश रत्नकरण्डक एक श्लोक आता है जिसमें कहा गया है कि धर्म के प्रभावसे कूकर भी देव हो जाता है और अधर्मके प्रभावसे देवको भी कूकर होते देर नहीं लगती । यथा--
इवापि देवोऽपि वेवः वा जायते घसंकिल्विषात् ।
कापि नाम भवेवग्या संपद् धर्माच्छरीरिणाम् ॥ 1, 29॥ इष्टोपदेश में यही शब्द तो नहीं हैं पर इनका अनुसरण करते हुए आचार्यवर्य कहते हैं.
वरं व्रतः पदं वं वाव्रतवंत नारकम् ।
छायातपस्थयो नः प्रतिपालयतोमहान् ।। 3॥ साधकके लिए आत्मसाधनामें इससे बड़ी सहायता मिलती है।
4. दशभक्ति-भक्तियाँ दशसे अधिक हैं। फिर भी वे भुख्यरूपसे दस मानी जाती हैं। श्रीमान् पं० पन्नालालजी सोनीने सम्पादित कर क्रियाकलाप' नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया है। यह संग्रह ग्रन्थ है। इसके प्रथम अध्यायके कुछ प्रकरणोंका संग्रह स्वयं पण्डितजीने किया है। शेप संग्रह मालूम होता है प्राचीन है। सम्भव है इसके संग्रहकार पण्डित प्रभाचन्द्र हों। इन्होंने ही इसके अनेक उपयोगी विषयों पर टीका लिखी है। ये पण्डित थे और इनका नाम प्रभाचन्द्र था-इसकी सूचना नन्दीश्वर-भक्तिके अन्त मे प्रकरण समाप्तिकी पुष्पिका लिखते समय स्वयं इन्होंने दी है !- इसमें सब भक्तियों व दूसरे प्रकरणोंका संग्रह स्वयं इनका किया दुआ है या क्रियाकलापको जो वर्तमान स्वरूप मिला है वह बादका काम है यह हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते, क्योंकि एक तो न स्वयं सोनीजीने इसकी व्यवस्थित सूचना दी। सोनीजी यदि इसकी प्रस्तावनामें यह बतलानेकी कृपा करते कि उन्होंने जितनी प्रतियोंके आधारसे इसका सम्पादन किया है, वे कहाँकी हैं और उनका लेखन-काल क्या है तो इस बातके निर्णय करने में बड़ी सहायता मिलती कि यह संग्रह कितना पुराना है। दूसरे इस में ऐसे कई उपयोगी विषयोंका संग्रह है किन्तु उन पर पण्डित प्रभाचन्द्रकी टीका न होनेते वे उनके सामने थे इस बातको स्वीकार करने में संकोच होता है। उदाहरणार्थ प्राकृतनिर्वाणभक्ति जो लोकमें निर्वाणकाण्डके नाम से प्रसिद्ध है, इसमें संग्रहीत है पर इस पर उनकी टीका नहीं है। जब कि वह दूसरी भक्तियोंके मध्य में स्थित है। सोनीजीने मुद्रित क्रियाकलापके सम्बन्ध में अपनी भूमिका में स्थिति स्पष्ट तो की है पर उससे पूरा प्रकाश नहीं पड़ता।
इसमें जितनी भक्तियां संग्रहीत हैं उनमेंसे प्रथम परिच्छेदमें सिद्धिभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति, निर्वाणभक्ति और नन्दीश्वरभक्ति ये सात भक्तियां संग्रहीत हैं। इनमें से नन्दीश्वर
1. देखो क्रियाकलाप प्रस्तावना पु० 21 2. 'इति पण्डितप्रभाचन्द्रविरचितायां क्रियाकलापटीकायां भक्तिविवरण: प्रथमः परिच्छेदः समाप्तः।' 3. इतना अवश्य है कि इसके 'दैवसिकरात्रिकप्रतिक्रमण' नामक प्रकरणके अन्त में एक लेख उपलब्ध होता है जिसमें 1724 सं० अंकित है। अतएव इससे पूर्वका यह संग्रह है यह कहा जा सकता है। देखो क्रियाकलाप, प्रस्तावना पृ० 69 ।
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सर्वार्थसिद्धि
भक्ति केवल संस्कृत में है, शेष सब भक्तियाँ संस्कृत और प्राकृत दोनोंमें हैं। मात्र प्राकृत निर्वाणभक्तिकी संस्कृत टीका नहीं है। इसके आगे दूसरे प्रकरणमें और भी अनेक भक्तियाँ संगृहीत हैं और इन पर भी पण्डित प्रभाचन्द्रकी संस्कृत टीका है। इतना अवश्य है कि उनमें जो लघु भक्तियाँ हैं उनपर टोका नहीं है।
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इन भक्तियोंके सम्बन्ध में पण्डित प्रभाचन्द्र प्राकृत सिद्धिभक्ति के अन्त में सूचना करते हैं कि सब संस्कृत भक्तियां पूज्यपाद स्वामीकी बनायी हुई हैं और प्राकृत भक्तियां आचार्य कुन्दकुन्दी बनायी हुई हैं। यथा
'संस्कृताः सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः। क्रियाकलाप पृष्ठ 167
ये सब भक्तियाँ एक आचार्यकी कृति हैं या अनेककी यह तो निश्चयपूर्वक कहना कठिन है जिन पण्डित प्रभाचन्द्र इनकी टीका लिखी है वे सम्भवतः पण्डितप्रवर आशाधर के बाद और वि० सं० 1724 के पहले भ कभी हुए हैं, अतएव इस आधारसे इतना ही कहा जा सकता है कि ये वि० सं० 14वीं शताब्दी के पूर्व कभी लिखी गयी हैं। किन्तु इस कथन से यह निश्चय नहीं होता कि पण्डित प्रभाव इनमें किन संस्कृत और प्राकृत भक्त्रियोंको कमसे पादपूज्य स्वामी और कुन्दकुन्द आचार्यकी मानते रहे। उनके स्वामी कौन थे वह भी ज्ञात नहीं होता ।
तसे ये पादपूज्य
पं० पन्नालालजी सोनीने क्रियाकलापकी प्रस्तावना में लिखा है कि 'सिद्धभक्ति, श्रुतिभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति, निर्वाणभक्ति और नन्दीश्वरभक्ति मे सात संस्कृत भक्तियाँ पादपूज्य स्वामी कृत हैं और प्राकृत सिद्धभक्ति, प्राकृत श्रुतभक्ति, प्राकृत नारिषभक्ति, प्राकृत योगभक्ति और प्राकृत आचार्यभक्ति ये पाँच भक्ति कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत हैं। किन्तु उन्होंने ऐसा मानने का जो कारण उपस्थित किया है यह समुचित नहीं कहा जा सकता। पण्डित प्रभाचन्द्रने तो केवल इतना ही कहा है कि सब संस्कृत भक्तियाँ पादपूज्य स्वामी कृत हैं और सब प्राकृत भक्तियाँ कुन्दकुन्द आचार्य कृत हैं और यह भी उन्होंने प्राकृत सिद्धभक्तिकी व्याख्या करते हुए उसके अन्त में कहा है। परन्तु क्रियाकलाप में जिस क्रमसे इन भक्तियोंका संग्रह है उसे देखते हुए प्राकृत सिद्धभक्तिका क्रमांक दूसरा है । सम्भव है कि सोनीजी ने नन्दीश्वरभक्ति पर परिच्छेदकी समाप्ति देखकर यह अनुमान दिया हो जो कुछ भी हो, पण्डित प्रभाचन्द्र के काल में ये भक्तियाँ पादपूज्य स्वामीकृत और कुन्दकुन्दाचार्यकृत मानी जाती थीं इतना स्पष्ट है। विद्वानोंका अनुमान है कि ये पादपूज्य स्वामी आचार्य पूज्यपाद ही होने चाहिए, क्योंकि एक तो इस नामके अन्य कोई आचार्य नहीं हुए हैं। दूसरे इन क्योंका अप्रतिहत प्रवाह और गम्भीर शैली इस बातको सूचित करती है।
इन सब भक्तियों में उनके नामानुसार विषयका विवेचन किया गया है। मुनिजन तथा व्रती गृहस्थ देवसिक आदि प्रतिक्रमण के समय निश्चित क्रमसे इनका प्रयोग करते आ रहे हैं जो आंशिकरूपसे वर्तमान काल में भी चालू है ।
5. जैनेन्द्र व्याकरण-आचार्य पूज्यपादकी अन्यतम मौलिक कृति उनका जैनेन्द्र व्याकरण है। इसका जैनेन्द्र यह नाम क्यों पड़ा ? क्या स्वयं आचार्य पूज्यपाद को यह नाम इष्ट था इसका निर्णय करना तो कठिन है । परन्तु प्राचीन कालसे यह इसी नाम से सम्बोधित होता आ रहा है यह मुग्धबोधके कर्ता पं० बोपदेव के इस उल्लेखसे स्पष्ट है
'इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशलीशाकटायनाः । पाणिग्यमरने जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥
चातुपाठ
यह पाँच अध्यायों में विभक्त है और सूत्र संख्या लगभग 3000 है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता संज्ञा
1. पण्डित प्रभाचन्द्र अनगारधर्मामृत के दो श्लोक अपनी टीका में उद्धृत किये हैं। देखो क्रियाकलाप प्रस्तावना पृ० 10 2 देखो टिप्पणी 3 पृ० 88 । 3. देखो जैन साहित्य और इतिहास पृ०
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प्रस्तावना
लाधव है। पाणिनीय व्याकरणमें जिन संज्ञाओंके लिए कई अक्षरोंके संकेत कल्पित किये गये हैं उनके लिए इसमें लाघवसे काम लिया गया है। तुलनाके लिए देखिएपाणिनीय व्याकरण
जैनेन्द्र व्याकरण ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत
प्र, दी, प सवर्ण अनुनासिक
गुण वृद्धि
निष्ठा प्रातिपदिक
लोप संज्ञालाघव और रचना विशेष के कारण इसमें सूत्रलाघवके भी दर्शन पद-पद पर होते हैं। यथापाणिनीय व्याकरण
जैनेन्द्र व्याकरण झरो झरि सवर्णे
झरो झरि स्वे हलो यमा यमि लोप:
हलो यमा यमि खम् तुल्यास्यप्रयत्न सवर्णम्
सस्थान क्रियं स्वम् ऊकालोऽज्झस्वदीर्घप्लुतः
आकालोऽच् प्रदीपः इसका प्रथम सूत्र है 'सिद्धिरनेकान्तात।' इसकी व्याख्या करते हुए सोमदेवसूरिने शब्दार्णवचन्द्रिका में जो कुछ कहा है उसका भाव यह है- शब्दोंकी सिद्धि और ज्ञप्ति अनेकान्तका आश्रय लेनेसे होती है, क्योंकि शब्द अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व और विशेषण-विशेष्यधर्म को लिये हुए होते हैं। इस सूत्रका अधिकार इस शास्त्रकी परिसमाप्ति तक जानना चाहिए। यदि अनेकान्तका अधिकार अन्ततक न माना जाय तो कौन आदि है और कौन अन्त है, किस अपेक्षासे साधर्म्य है और किस अपेक्षासे वैधर्म्य है यह सब कुछ न बने।
वैयाकरणोंका स्फोट वाद प्रसिद्ध है। वे शब्द को नित्य मानकर तालु आदिके संयोगसे मात्र उसका स्फोट मानते हैं, उसकी उत्पत्ति नहीं, जब कि स्थिति ऐसी नहीं है, क्योंकि अकार आदि वर्ण और घट, पट आदि शब्द कुछ आकाश में भरे हुए नहीं हैं और न वे आकाशके गुण ही हैं। वे तो तालु आदिके निमित्तसे शब्द वर्गणाओंके विविध संयोगरूप उत्पन्न होते हैं और कालान्तरमें विघटित हो जाते हैं। अतः वैयाकरणों के मन्तव्यानुसार वे सर्वथा नित्य नहीं माने जा सकते। पुद्गल द्रव्यकी अपेक्षा जहाँ वे नित्य सिद्ध होते हैं वहाँ वे पर्यायकी अपेक्षा अनित्य भी सिद्ध होते हैं । स्पष्ट है कि इस भावको व्यक्त करने के लिए आचार्य पूज्यपादने 'सिद्धिरनेकान्तात्' यह प्रथम सूत्र लिखा है। व्याकरणमें शब्दोंकी जिस प्रकार सिद्धि की गयी है या जो संज्ञाएँ व प्रत्यय आदि कल्पित किये गये हैं वे सर्वथा वैसे ही नहीं हैं किन्तु भाषाकी स्थितिको स्पष्ट करने के लिए माना गया वह एक प्रकार है और यही कारण है कि अनेक वैयाकरणोंने रूपसिद्धिके लिए अलग-अलग संज्ञाएँ व प्रक्रिया स्वीकार की है। ऐसी स्थितिके होते हुए भी अनेक विद्वानों में अमुक प्रत्यय और अमुक प्रकारसे रूपसिद्धिके प्रति आग्रह देखा जाता है। सम्भव है इस ऐकान्तिक आग्रहका निषेध करनेके लिए भी आचार्य पूज्यपादने 'सिबिरनेकान्तात्' सूत्रकी रचना की हो।
आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणमें भूतबलि, श्रीदत्त, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र, समन्तभद्र और सिद्धसेन इन छह आचार्योंके मतोंका उल्लेख किया है। अभी तककी जानकारीके आधार पर यह तो नि:संकोच कहा जा सकता है कि इनका कोई व्याकरण नहीं है। साथ ही इन आचार्यों के जिन वैकल्पित मतोंका उल्लेख
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सर्वार्थसिद्धि
करके रूपसिद्धि की गयी है वे मत भी कोई नये नहीं हैं। क्योंकि, जैसा कि हम आगे चलकर बतलानेवाले हैं पाणिनि-व्याकरण में भी विकल्पसे उनकी सिद्धि दृष्टिगोचर होती है। इसलिए प्रश्न होता है कि जब कि आचार्य पूज्यपादके सामने पाणिनि व्याकरण था और उस में वे प्रयोग उपलब्ध होते थे ऐसी अवस्थामें उन्होंने अलगसे इन आचार्योंके मतके रूप में इनका उल्लेख क्यों किया। प्रश्न गम्भीर है और सम्भव है कि कालान्तर में इससे कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश पड़े। तत्काल हमारी समझमें इसका यह कारण प्रतीत होता है कि जिस प्रकार पाणिनि ऋषिने अपने व्याकरणमें उनके काल तक रचे गये साहित्य में उपलब्ध होनेवाले मतों का उनके रचयिताके नाम के साथ या 'अन्यतर' आदि पद द्वारा उल्लेख किया है उसी प्रकार आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणमें उनके काल तक रचे गये जैन साहित्य में उपलब्ध होनेवाले मतोंका उनके रचयिताके नाम के साथ उल्लेख किया है। मतोंका विवरण इस प्रकार है
भतबलि.....आचार्य भूतवलिके मतका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है-'रावभतबलेः'। 3,4,831 भूतबलिके मतानुसार समा शब्दान्त द्विगु समाससे 'ख' प्रत्यय होता है यह इस सूत्रका आशय है। इससे 'समिकः' प्रयोगके स्थान में "वैसमीन:' प्रयोग विकल्पसे सिद्ध किया गया है। इसी प्रकार 'रात्र्यहः संबरसरात'। 3,4,841 और 'वर्षादुपच'। 3, 4,85। ये दो अन्य सूत्र हैं जो भूतबलि आचार्य के वैकल्पिक मतका प्रतिपादन करते हैं। इनमें से प्रथम सूत्र द्वारा 'द्विरात्रीणः, वयहीनः और द्विसंवत्सरीणः' आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं तथा दूसरे सूत्र द्वारा 'द्विवर्षः' आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं। जैनेन्द्रव्याकरण में ये वैकल्पिक कार्य भूतबलि आचार्यके मतसे माने गये हैं।
इन वैकल्पिक कार्योका निर्देश पाणिनिने भी किया है किन्तु वहाँ किस आचार्यके मतसे ये कार्य होते हैं यह नहीं नतलाया है। इन तीन सूत्रों के स्थान में क्रमसे पाणिनि के 'द्विगोर्वा 5, 1,86,' रात्र्यहः संवत्सरान्स 5, 1,87,' और 'वर्षाल्लुक च 5, 1, 881 ये तीन सूत्र आते हैं।
जीन-आचार्य श्रीदत्तके मतका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है 'गणे श्रीवत्तस्यास्त्रियाम। 1.4, 341' श्रीदत्त आचार्यके मतसे गुणहेतुक पञ्चमी विभक्ति होती है । परन्तु यह कार्य स्त्रीलिंगगें नहीं होता। यह इस सूत्रका भाव है। इसके अनुसार 'ज्ञानेन मुक्तः' के स्थान में श्रीदत्त आचार्य के मतसे 'मानामतः' प्रयोग सिद्ध किया गया है। इसके स्थान में पाणिनि व्याकरण में विभाषा गुणेऽस्त्रियाम् । 2, 3, 25 ।' सूत्र उपलब्ध होता है।
यशोभद्र-आचार्य यशोभद्रके मतका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है 'कृषिमूजां यशोभद्रस्थ । 2, 1,991' कृ, वृष और मृज्' धातुसे यशोभद्र आचार्यके मतानुसार 'क्यप्' प्रत्यय होता है। तदनुसार 'कुत्यम्, वृध्यम् और मुख्यम्' ये वैकल्पिक प्रयोग सिद्ध होते हैं। इसके स्थान में पाणिनि व्याकरण में मजेविभाषा। 3, 1, 113।' तथा 'विभाषा कृवृक्षोः 3,1, 120 ।' ये दो सूत्र उपलब्ध होते हैं ।
प्रभावख-आचार्य प्रभाचन्द्र के मतका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है 'रावः कृति प्रभावस्था 4,3, 1801 रात्रि पद उपपद रहते हुए कृदन्त पर रहते प्रभाचन्द्र के पतसे 'मुम्' का आगम होता है। तदनुसार रात्रिचरः' वैकल्पिक प्रयोग सिद्ध होता है। इसके स्थान में पाणिनि व्याकरणका सत्र हैराकति विभाषा। 6,3,721
समन्तभद्र--आचार्य समन्तभद्रके चार मतोंका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है-चतुष्टयं समस्तभास्य। 5,4,1401 पिछले चार सूत्र आचार्य समन्तभद्र के मतसे कहे गये हैं यह इस सूत्र में बतलाया गया है। वे चार हैं--- भयो हः। 5,4,1361 शछोऽटि। 5,4,1371 हलो यमा यमि खम् । 5,4,1381 तथा 'भरो झरि स्वे। 5,4, 1391' इनके स्थान में क्रमश: पाणिनिके सूत्र हैं-'झयो होऽन्यतरस्याम् । 8, 4, 621 सरोऽटि 184,631 हलो यमा यमि लोपः। 8,4,64। तथा 'झरो झरि सवर्ण। 8.4,651
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प्रस्तावना
प्रथम सूत्रके अनुसार पदान्त झय से पर रहते हुए 'ह' को पूर्वसवर्ण होता है। यथा-'सुवाग्दसति।' द्वितीय सत्रके अनुसार पदान्त झय से पर रहते हुए 'श' के स्थान में 'छ' होता है। यथा-'षट्छयामाः।' तृतीय सूत्र के अनुसार हल से पर यम्का यम् पर रहते लोप होता है। यथा-'जय्या' इस शब्दमें दो यकार हैं और इनके संयोगसे एक तीसरा यकार और प्राप्त हुआ। किन्तु इस सूत्रके नियमानुसार बीचके एक यकारका लोप होकर शय्या' यह प्रयोग ही शेष रहता है। चतुर्थ सूत्र के अनुसार हलसे पर झरका सवर्ण झर पर रहते हए लोप होता है। यथा-'भित्ताम' यहाँ एक तीसरे तकारका लोप हो गया है। इस प्रकार ये चार वैकल्पिक कार्य आचार्य समन्तभद्र के मतसे होते हैं । जब कि पाणिनि व्याकरण में ये कार्य अन्यतरके मतसे माने गये हैं।
सिद्धसेन-आचार्य सिद्धसेनके मतका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है-वेत्तेः सिद्धसेनस्य । 5, 1, 71 विद् धातुसे पर झ् प्रत्ययके स्थान में आदेशभूत 'अत्' को सिद्धसेन के मतानुसार 'रुट' का आगम होता है यह इस सूत्रका भाव है। यथा-'संविद्रते।' संविदते प्रयोगमें दकारके बाद और अकारके पूर्व रुट' का आगम होकर यह वैकल्पिक प्रयोग बना है। इस सूत्रके स्थानमें पाणिनि व्याकरणका वेत्तेविभाषा।7,1,7।' सत्र उपलब्ध होता है।
इस व्याकरणका सोमदेवसूरिकृत गाब्दार्णवचन्द्रिका में एक परिवर्तित रूप उपलब्ध होता है। किन्त वह उसका बादका परिष्कृत रूप है ऐसा अनेक प्रमाणोंके आधारसे प्रेमीजीने सिद्ध किया है। इसका असली पाठ
वही है जो आचार्य अभयदेव कृत महावृत्तिमें उपलब्ध होता है। इस व्याकरणकी कुछ विशेषताओंका हमने उल्लेख किया ही है। और भी कई विशेषताएँ हैं जिनके कारण इसका अपना स्वतन्त्र स्थान है।।
उल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि आचार्य पूज्यपादने उक्त पाँच ग्रन्थोंके सिवा कई विषयों पर अन्य अनेक ग्रन्थ लिखे थे। विवरण इस प्रकार है
6.-7. जैनेन्द्र और शब्दावतार न्यास–शिमोगा जिले के नगर तहसीलके 46वें शिलालेख में इस बातका उल्लेख है कि आचार्य पूज्यपादने एक तो अपने व्याकरण पर जैनेन्द्र' नामक न्यास लिखा था और दूसरा पाणिनि व्याकरण पर 'शब्दावतार' नामक न्यास लिखा था । यथा
'न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो। न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टीका व्यरचदिह तां भात्यसो पूज्यपाद
स्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचःपूर्णवृग्बोधवृत्तः ॥' ये दोनों अभी तक उपलब्ध नहीं हुए हैं। इसके लिए प्राचीन शास्त्रभाण्डारोंमें विशेष अनुसन्धानकी आवश्यकता है।
8. शान्त्यष्टक-हम पहले आचार्य पूज्यपादकी कथा दे आये हैं। उसके लेखकने इनके बनाये हुए एक शान्त्यष्टक' का उल्लेख किया है। एक शान्त्यष्टक क्रियाकलापमें भी संगृहीत है। इस पर पं० प्रभाचन्टकी संस्कृत टीका है। शान्त्यष्टकके प्रारम्भमें पं० प्रभाचन्द्रजीने जो उत्थानिका दी है उस में कथालेखक चन्द्रय्य कविके मतका समर्थन करते हुए कहते हैं कि श्री पादपूज्य स्वामीको चक्षुति मिरव्याधि हो गयी थी जिसे दर करने के लिए वे स्तुति करते हुए कहते हैं, 'न स्नेहात्'। इसके अन्त में जो श्लोक आता है उसमें विष्टि प्रसन्नां कुरु' इत्यादि पदद्वारा भी यही भाव व्यक्त होता है। इससे विदित होता है कि सम्भव है जीवन के अन्त में पूज्यपाद आचार्यकी दृष्टि तिमिराच्छन्न हो गयी हो और उसे दूर करने के लिए उन्होंने ही शान्त्यष्टक
इस ग्रन्थकी टीका-टिप्पणी व परिवर्धन आदिका विशेष ज्ञान प्राप्त करनेके लिए प्रेमीजी द्वारा लिखित 'जैनसाहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थ देखिए।
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सर्वार्थसिद्धि
लिखा हो। यदि यह अनुमान ठीक हो तो शान्त्यष्टक उनकी वह कृति मानी जा सकती है जो सम्भवतः सब कृतियों के अन्त में लिखी गयी होगी।
9. सारसंग्रह- आचार्य पूज्यपादने एक 'सारसंग्रह' नामक ग्रन्थका भी निर्माण किया था ऐसा धवलाके एक उल्लेखसे ज्ञात होता है । यथा
सारसंग्रहेऽप्यक्तं पूज्यपा-अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्य हेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय इति ।'
सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपादने जो नयका लक्षण दिया है इससे इस लक्षणमें बहुत कुछ साम्य है, इसलिए यह माननेका पर्याप्त कारण है कि यह ग्रन्थ आचार्य पूज्यपादकी ही कृति होनी चाहिए।
10. चिकित्साशास्त्र- इस बातको सिद्ध करनेवाले. भी कई प्रमाण मिलते हैं कि आचार्य पूज्यपादने वैद्यक विषय पर भी कोई अनुपम ग्रन्थ लिखा था। यथा---
1. आचार्य शुभचन्द्र द्वारा रचित ज्ञानार्णवके एक श्लोकका उल्लेख हम पहले कर आये हैं। उसमें उनके वचनों को वचनमल और चित्तमलके समान कायमलको दूर करनेवाला कहा गया है।
2. आचार्य उग्रादित्यने अपने कल्याणकारक नामक ग्रन्थ में आचार्य पूज्यपादके वैद्यक विषयक ग्रन्थका उल्लेख 'पूज्यपादेन भाषितः, शालाक्यं पूज्यपादप्रकटितमधिकम्' इत्यादि शब्दसन्दर्भ द्वारा किया है।
3. हम पहले शिमोगा जिले के नगर ताल्लुकेके 46 नं० के एक शिलालेखका उल्लेख कर आये हैं उसमें भी उन्हें मनुष्य समाजका हित करनेवाला वैद्यक शास्त्रका रचयिता कहा गया है ।
4. विक्रमकी पन्द्रहवीं शताब्दीके विद्वान् मंगराजने अपने कनडी भाषा में लिखे गये खगेन्द्रमणिदर्पण में भी आचार्यपूज्यपादके एक चिकित्साग्रन्यका उल्लेख किया है।
___इन सब प्रमाणोंसे विदित होता है कि सम्भवतः आचार्यपूज्यपादने चिकित्सा सम्बन्धी कोई ग्रन्थ लिखा था।
11. नाभिषेक-श्रवणबेल्गोलके शक सं0 1085 के शिलालेख नं0 40 से यह भी विदित होता है कि इन्होंने एक जैन अभिषेक पाठ की भी रचना की थी। उद्धरण इस प्रकार है
'जैनेन्द्र निजशब्दभोगमतलं सर्वार्थसिद्धिः परा सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्घकविता जैनाभिषेकः स्वकः । छन्दस्सूक्ष्मधियं समाषिशतकस्वास्थ्यं यदीयं विदाम्
आख्यातीह स पूज्यपावमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणैः ॥' इसमें कहा गया है कि विद्वानोंके समक्ष जिनका जैनेन्द्र व्याकरण अतुल निज शब्द सम्पत्तिको, सर्वार्थसिद्धि सिद्धान्त में निपुणताको, जैन अभिषेक कविताकी श्रेष्ठताको और आत्मस्वास्थ्यकर समाधिशतक छन्दःशास्त्रकी सूक्ष्मताको सूचित करता है वे आचार्य पूज्यपाद मुनिगणोंसे सतत पूजनीय हैं।
पहले हम चन्द्रय्य कविके पूज्यपादचरिते' के आधारसे आचार्य पूज्यपादकी संक्षिप्त जीवनी दे आये हैं। उसमें आचार्य पूज्यपादको जैनेन्द्र व्याकरण और वैद्यकके समान अर्हत्प्रतिष्ठालक्षण और ज्योतिषका भी लेखक बतलाया गया है। कह नहीं सकते कि यह उल्लेख कहाँ तक ठीक है। यदि यह साधार हो तो कहना होगा कि आचार्य पूज्यपादने अर्हत्प्रतिष्ठा और ज्योतिष विषय पर भी रचना की थी।
6. समय-विचार-आचार्य पूज्यपाद कब हुए यह प्रश्न विशेष विवादास्पद नहीं है। पांचवीं शताब्दी के मध्यकाल से लेकर प्रायः जितने साहित्यकार हैं उन्होंने किसी न किसी रूप में या तो उनका या उनके साहित्यका उल्लेख किया है या उनके साहित्यका अनुवर्तन किया है । इस दृष्टिसे हमारे सामने मुख्य रूपसे जिनभद्र गणि क्षमाश्रमणका विशेषावश्यकभाष्य और अकलंकदेवका तत्त्वार्थवातिक उपस्थित हैं । भट्ट अकलंकदेवके सामने तत्त्वार्थवातिक लिखते समय सर्वार्थ सिद्धि और जैनेन्द्रव्याकरण उपस्थित था यह उसके
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प्रस्तावना
89
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देखनेसे स्पष्टत: परिलक्षित होता है। भट्ट अकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिक में सर्वार्थसिद्धिके अधिकतर वाक्योंको वातिकोंका रूप देते हुए दिखाई देते हैं। । तथा जहां उन्हें व्याकरण के नियमोंके उल्लेखकी आवश्यकता प्रतीत हई वहाँ वे प्रायः जनेन्द्र के सूत्रोंका ही उल्लेख करते हैं । इसलिए आचार्य पूज्यपाद भट्ट अकलंकदेवके पहले हए. यह तो सुनिश्चित है। किन्तु सर्वार्थसिद्धि और विशेषावश्यकभाष्यके तुलनात्मक अध्ययनसे यह भी
होता है कि विशेषावश्यकभाष्य लिखते समय जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके सामने सर्वार्थसिद्धि अवश्य ही उपस्थित होनी चाहिए। तुलनाके लिए देखिएसर्वार्थसिद्धि अ० 1 सू० 15 में धारणा मतिज्ञान का लक्षण इन शब्दोंमें दिया है
'अवेस्तय कालान्तरेऽविस्मरणकारणम्।' विशेषावश्यकभाष्य में इन्हीं शब्दोंको दुहराते हुए कहा गया है
'कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ ॥ गा० 291॥ चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है यह बतलाते हुए सर्वार्थसिद्धि अ० 1 सू० 19 में कहा गया है
'मनोववप्राप्यकारीति ।' यही बात विशेषावश्यकभाष्य में इन शब्दों में व्यक्त की गयी है
लोयणमपत्तविसयं मणोष्य ॥ गा0 209॥' सर्वार्थसिद्धि अ० 1 सू० 20 में यह शंका की गयी है कि प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय दोनों ज्ञानोंकी उत्पत्ति एक साथ होती है, इसलिए श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है यह नहीं कहा जा सकता। यथा
'आह, प्रथमसम्यक्त्वोत्पत्ती युगपज्ज्ञानपरिणामान्मतिपूर्वकत्वं श्रुतस्य नोत्पद्यत इति ।' अब इसके प्रकाश में विशेषावश्यकभाष्यकी इस गाथाको देखिए
'णाणाण्णाणाणि य समकालाई जो महसुयाई।
___ तो न सुयं मइपुग्वं महणाणे वा सुयन्नाणं ॥ गा० 107॥' इस प्रकार यद्यपि इस तुलनासे यह तो ज्ञात होता है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (वि० सं० 666) के सामने आचार्य पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि उपस्थित रही होगी पर इससे इनके वास्तव्य काल पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। इसके लिए आगेके प्रमाण देखिए
1. शक संवत् 388 (वि० सं० 523) में लिखे गये मर्करा (कुर्ग) के ताम्रपत्र में गंगवंशीय राजा अविनीतके उल्लेखके साथ कुन्दकुन्दान्वय और देशीय गणके मुनियोंकी परम्परा दी गयी है । दूसरे प्रमाणोंसे यह भी विदित होता है कि राजा अविनीतके पुत्रका नाम दुविनीत था और ये आचार्य पूज्यपादके शिष्य थे। राजा दुविनीतका राज्यकाल वि० सं० 538 के लगभग माना जाता है, अत: इस आधारसे यह कहा जा सकता है कि आचार्य पूज्यपाद 5वीं शताब्दीके उत्तरार्ध और विक्रमकी 6वीं शताब्दीके पूर्वार्धके मध्य कालवर्ती होने चाहिए।
2. वि० सं०990 में बने देवसेनके दर्शनसारके एक उल्लेखसे भी इस तथ्यकी पुष्टि होती है। देवसेनने यह कहा है कि श्री पूज्यपादके एक शिष्य वज्रनन्दी थे, जिन्होंने विक्रम सं0 526 में द्रविड़ संघकी स्थापना की थी। दर्शनसारका उल्लेख इस प्रकार है
सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो हो । णामेण वज्जणवी पाहुब्वेदी महासत्तो।।
।. देखो तत्वार्थवातिक 401, सू० 1, वा० 3 आदि । 2. देखो तत्त्वार्थवालिक अ. 4, सू० 21।। 3. रत्नकरण्डकी प्रस्तावना पृ० 142 ।
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पंचसए छब्बीसे
सर्वार्थसिद्धि
विक्कमरायस्स
मरणपत्तस्स |
महरा जादो दाविडयो
महामोहो ॥
हम पहले नविसंघकी पट्टावलीका उल्लेख कर आये हैं। उसमें देवनन्दी ( पूज्यपाद) का समय विक्रम सं० 258 से 308 तक दिया है और इनके बाद जयनन्दी तथा गुणनन्दीका नामनिर्देश करनेके बाद वज्रनन्दीका नामोल्लेख किया है। साथ ही हम पहले पाण्डवपुराणके रचयिता शुभचन्द्राचार्यकी गुर्वावलीका भी उल्लेख कर आये हैं । इसमें भी नन्दिसंघके सब आचार्यका नन्दिसंघकी पट्टावलीके अनुसार नाम निर्देश किया है। किन्तु इसमें देवनन्दीके बाद गुणनन्दीके नामका उल्लेख करके वचनन्दीका नाम दिया है। यहाँ यद्यपि हम यह मान लें कि इन दोनों में यह मतभेद बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि पूर्व परम्पराके अनुसार जिन्हे जिस क्रमसे आचार्योंकी परम्परा मिली उन्होंने उस क्रमसे उनका नाम निर्देश किया है और ऐसी दशा में एकादि नाम छूट जाना या हेरफेर हो जाना स्वाभाविक है। पर सबसे बड़ा प्रश्न आचार्य पूज्यपाद समयका है। मर्क के ताम्रपत्र में जिन आचार्योंका नाम निर्देश है उनमें पूज्यपादका नाम नहीं आता तथा अविनीतके पुत्र दुर्विनीतये विद्यगुरु थे, इसलिए ऐसा मालूम देता है कि नन्दिसंघकी पट्टावलिमें आचार्य पूज्यपादसे पूर्ववर्ती आच योंके नाम छूट गये हैं । मर्कराके ताम्रपत्र में जिन मुनियोंका नामोल्लेख है वे ये हैं - गुणचन्द्र, अभयनन्दि, शीलभद्र, जननन्दि, गुणनन्दि और चन्द्रनन्दि तथा नन्दिसंघकी पट्टावलिमें आचार्य देवनन्दि और वनन्दिके मध्य में जयनन्दि और गुणनन्दि ये दो नाम जाते हैं। गुणनन्दि यह नाम तो मर्कराके ताम्रपत्र में भी है और सम्भव है मिर्क के ताम्रपत्र में जिनका नाम जनानन्दि दिया है वे नन्दिसंघकी पट्टावल जयनन्दि इस नामसे उल्लिखित किये गये हों। यदि यह अनुमान ठीक हो तो इससे दो समस्याएं सुलझ जाती हैं। एक तो इससे इस अनुमानकी पुष्टि हो जाती है कि नन्दिसंपकी पट्टवल में माचार्य पूज्यपाद के पूर्ववर्ती कुछ आचार्योंके नाम छूट गये हैं। दूसरे नन्दिसंघकी पट्टावलिमें आचार्य पूज्यपादके बाद जिन दो आचार्यका नामोल्लेख किया है उन्हें मर्क के ताम्रपत्र में उल्लिखित नामोंके अनुसार आचार्य पूज्यमर्कराके पादके पूर्ववर्ती पन लेनेसे दर्शनसार के उल्लेखानुसार वजनन्दि आचार्य पूज्यपादके अनन्तर उत्तरकालवर्ती ठहर जाते हैं। और इस तरह उनके समयके निर्णय करनेमें जो कठिनाई प्रतीत होती है वह हल हो जाती है। इस प्रकार इन सब तथ्योंको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि आचार्य पूज्यपाद विक्रम 5वीं शताब्दी के उत्तरार्धसे लेकर 6वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के मध्यकालवर्ती होने चाहिए । श्रीमान् पण्डित नाथूरामजी प्रेमी प्रभूति दूसरे विद्वानोंका भी लगभग यही मत है ।"
1- देखो जैन साहित्य और इतिहास पृ० 115 आदि प्रेमीजीने आचार्य पूज्यपादके समयका विचार करते समय स्व० डॉ० काशीनाथ बापूजी पाठक मतका विचारकर जो सहमत है।
निकाला है उससे हम
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विषयानुक्रमणिका
प्रथम अध्याय
विशेषार्थ द्वारा प्रकृत विषय का स्पष्टीकरण
सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके दो प्रकार मंगलाचरण
1 निसर्ग और अधिगम शब्दको अर्थ तत्त्वार्थसूत्रकी उत्थानिका
1 निसर्गज सम्यग्दर्शन में अर्थाधिगम होता है आत्माका हित मोक्ष है यह बतलाते हुए
या नहीं, इस शंकाका समाधान मोक्षका स्वरूप निर्देश
'तन्निसर्गादधिगमाद्वा' इस सूत्र में आये हुए विभिन्न प्रवादियोंके द्वारा माने गये मोक्षके 'तत्' पदकी सार्थकता स्वरूपका उद्भावन ओर निराकरण
सात तत्त्वों का नाम निर्देश मोक्षप्राप्तिके उपायमें विभिन्न प्रवादियोंका सातों तत्त्वोंके स्वरूपका प्रतिपादन कर उनके विसंवाद और विशेषार्थ द्वारा इन सबका ऋमिक पाठकी सार्थकताका निरूपण कर पुण्य स्पष्टीकरण
2 और पापको ग्रहणकर नव पदार्थ क्यों नहीं मोक्षमार्गका स्वरूपनिर्देश
4 बतलाये इस शंकाका समाधान सम्यक् शब्दकी निरुक्ति, सम्यग्ज्ञान और भाववाची तत्त्व शब्दका द्रव्यवाचक जीवादि सम्यकचारित्रका स्वरूप और 'सम्यक' पदोंके साथ समानाधिकरणका विचार, विशेषणकी सार्थकता
4 विशेष्यके लिंग और संख्याके अनुसार दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी निरुक्ति
4 प्रकृतमें विशेषणका भी वही लिंग और कर्ता और करणके एक होने की आपत्तिका संख्या होनी चाहिए, इस आक्षेपका परिहार 12 परिहार
5 नामादि चार निक्षेपोंका प्रतिपादन सूत्र में सर्वप्रथम दर्शन, अनन्तर ज्ञान और नामादि चारों निक्षेपोंका स्वरूप - 13 सबके अन्त में चारित्र शब्द रखने का समर्थन 5 चारों निक्षेपोंके द्वारा जीवतत्त्वका निरूपण 13 'मार्गः' इस प्रकार एकवचन निर्देशकी सार्थकता 5 नामादि निक्षेपविधिकी उपयोगिता सम्यग्दर्शनका लक्षण-निर्देश
6 'नामस्थापना' सूत्रमें प्रयुक्त हुए 'तत्' तत्त्व शब्द की निरुक्ति
6 पदकी सार्थकता अर्थ शब्दकी निरुक्ति
6 विशेषार्थ-द्वारा निक्षेप-विषयक स्पष्टीकरण 14 तत्त्वार्थकी निरुक्ति पूर्वक सम्यग्दर्शनका स्वरूप 6 प्रमाण और नयका निर्देश 'दश' धातुका अर्थ आलोक है फिर श्रद्धान प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ ये दो भेद तथा अर्थ कैसे संभव है, इस शंका का समाधान 7 उनका स्वरूप अर्थ-श्रदान या तत्त्व-श्रद्धानको सम्यग्दर्शनका सूत्रमें नयपदके पूर्व प्रमाण पद रखनेका लक्षण मानने पर प्राप्त होने वाली आपत्तियों- कारण के परिहारार्थ तत्त्व और अर्थ दोनों पदोंकी नयका स्वरूप, सकलादेश और विकलाउपयोगिता
7 देशका निर्देश सम्यग्दर्शनके सराग और वीतराग इन दो नयके मूल भेदोंका स्वरूपनिरूपण व उनका भेदोंका स्वरूप
7 विषय
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92]
सर्वार्थसिद्धि
"
29
20
सास
29
जीवादि तत्त्वोंके अधिगमके उपायभूत छह गतिमार्गणाकी अपेक्षा चारों गतियों में अनुयोद्वारोंका निरूपण
__ 16 संख्याका निरूपण
इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा जीवसंख्याका निरूपण 26 स्वरूप
16 कायमार्गणाकी अपेक्षा निर्देश अनुयोगद्वारसे सम्यग्दर्शनका निरूपण 16 योगमार्गणाकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनके स्वामित्वका सामान्यसे निरूपण 16 वेदमार्गणाकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनके स्वामित्वका विशेषकी अपेक्षा कषायमार्गणाकी अपेक्षा निरूपण करते हुए गतिमार्गणाके अनुवादसे ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा प्रतिपादन
16 संयम मार्गणाकी अपेक्षा इन्द्रियमार्गणाके द्वारा सम्यग्दर्शनके
दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा स्वामित्वका वर्णन
17 लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा जीवसंख्याका निरूपण कायादि शेष मार्गणाओंके द्वारा सम्यग्दर्शनके भव्यमार्गणाकी अपेक्षा स्वामित्वका निरूपण
18 सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनके अभ्यन्तर और बाह्य साधनोंका संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा प्रतिपादन
19 आहारमार्गणाकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनके अभ्यन्तर और बाह्म अधिकरणका निरूपण
3. क्षेत्रप्ररूपणा 29-32 सम्यग्दर्शनके औपशमिकादि भेदोंकी स्थिति सामान्यसे जीवोंके क्षेत्रका निरूपण का प्ररूपण
20 गतिमार्गणाकी अपेक्षा जीवोंके क्षेत्रका निरूपण 30 विधान-अनुयोगकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनके इन्द्रिय मार्गणाकी ,
, 30 भेदोंका प्रतिपादन
21 कायमार्गणाकी , तत्त्वाधिगमके उपायभूत सत् संख्यादि आठ योगमार्गणाकी अनुयोगद्वारोंका निरूपण
21 वेदमार्गणाकी सत्. संख्यादि आठों अनुयोगों का स्वरूप 21 निर्देश व स्वामित्वादिसे सत् संख्यादिको ज्ञानमार्गणाकी पृथक् कहनेका कारण
22 संयममार्गणाकी 1. सत्प्ररूपणा 22-24 दर्शनमार्गणाकी सत् अनुयोगद्वारकी अपेक्षा जीव तत्त्वका लेश्यामार्गणाकी , मिरूपण
22 भव्यमार्गणाकी , जीव तत्त्वके विशेष-परिज्ञानके लिए चौदह सम्यक्त्वमार्गणाकी,
" 32 मार्गणाओं का प्रतिपादन 22 संज्ञिमार्गणाकी ,
" 32 सत्प्ररूपणाके सामान्य और विशेष भेदोंके आहारमार्गणाकी ,
32 द्वारा जीव तत्त्वका निरूपण
22 विशेषार्थके द्वारा क्षेत्रप्ररूपणका स्पष्टीकरण 32 चौदह मार्गणाओंमें संभव गुणस्थानोंका
4. स्पर्शन-प्ररूपणा 33-39 प्ररूपण
23 गुणस्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके स्पर्शनका निरूपण 33 2. संख्या-प्ररूपण 24-29 गतिमार्गणाकी , चौदह गुणस्थानोंकी अपेक्षा जीव संख्याका इन्द्रियमार्गणाकी , निरूपण
24 कायमार्गणाकी
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विषयानुक्रमणिका योगमार्गणाकी अपेक्षा जीवोंके स्पर्शनका निरूपण 35 लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा जीवोंका अन्तरप्ररूपण 56 वेदमार्गणाकी
36 भव्यमार्गणाकी , कषायमार्गणाकी ,
37 सम्यक्त्वमार्गणाकी, ज्ञानमार्गणाकी
37 संज्ञिमार्गणाकी , संयममार्गणाकी
37 आहारमार्गणाकी , दर्शनमार्गणाकी
37
7. भाव-प्ररूपणा 60-63 लेश्यामागंणाकी ,
37 चौदह गुणस्थानोंमें जीवोंका भावप्ररूपण भव्यमार्गणाको
39 गतिमार्गणाकी , सम्यक्त्वमार्गणाकी ,,
39 इन्द्रियमार्गणाकी , संज्ञिमार्गणाकी ,
39 कायमार्गणाकी आहारमार्गणाकी ,
39 योगमार्गणाकी 5. काल-प्ररूपणा 39-47 वेदमार्गणाकी गुणस्थानोंकी अपेक्षा जीवोंके कालका वर्णन 39 कषायमार्गणाकी , गतिमार्गणाकी ,
40 ज्ञानमार्गणाकी , इन्द्रियमार्गणाकी ,
42 संयममार्गणाकी कायमार्गणाकी
42 दर्शनमार्गणाकी योगमार्गणाकी
42 लेश्यामार्गणाकी । वेदमार्गणाकी
43 भव्यमार्गणाकी , कषायमार्गणाकी
44 सम्यक्त्वमार्गणाकी , ज्ञानमार्गणाकी
44 संज्ञिमार्गणाकी , संयममार्गणाकी
44 आहारमार्गणाकी , दर्शनमार्गणाकी
8. अल्पबहुत्व-प्ररूपणा लेश्यामार्गणाकी
45 चौदह गुणस्थानों में जीवोंका अल्पबहुत्व-प्ररूपण 63 भव्यमार्गणाको
46 गतिमार्गणाकी अपेक्षा सम्यक्त्वमार्गणाकी ,
46 इन्द्रियमार्गणाकी , संज्ञिमार्गणाकी ,
46 कायमार्गणाकी , आहारमार्गणाकी ,
47 योगमार्गणाकी 6. अन्तर-प्ररूपणा 47-60 वेदमार्गणाकी चौदह गुणस्थानों में जीवोंका अन्तर कथन 47 कषायमार्गणाकी गतिमार्गणाकी अपेक्षा
48 ज्ञानमार्गणाकी इन्द्रियमार्गणाको ,
50 संगममार्गणाकी कायमार्गणाकी ,
51 दर्शनमार्गणाकी , योगमार्गणाकी
52 लेश्यामार्गणाकी , वेदमार्गणाकी
52 भव्यमार्गणाकी , कषायमार्गणाकी
सम्यक्त्वमार्गणाकी , ज्ञानमार्गणाकी ,
54 संज्ञिमार्गणाकी , संयममार्गणाकी ,
55 आहारमार्गणाकी , दर्शनमार्गणाकी का ॥
56 सम्यग्ज्ञानके पाँच भेद
44
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94]
सर्वार्थसिद्धि
सम्यग्ज्ञानके पांच भेदोंका स्वरूप भतिज्ञानादिक्रमसे पाठ रखनेका कारण वे पाँचों ज्ञान दो प्रमाणरूप हैं इस बातका निर्देश
कर्ष और इन्द्रियकी प्रमाणताका निराकरण ज्ञानके फलका निरूपण विशेषार्थ द्वारा सन्निकर्ष और इन्द्रियको प्रमाण मानने पर उठनेवाले दोषोंका स्पष्टीकरण और उनका परिहार परोक्षज्ञानका प्रतिपादन परोक्षका स्वरूप प्रत्यक्षज्ञानका प्रतिपादन प्रत्यक्षका स्वरूप विभंगशानकी प्रमाणताका निराकरण इन्द्रिय-व्यापारजनित ज्ञानको प्रत्यक्ष मानने में दोष मतिज्ञानके पर्यायवाची नामोंका प्रतिपादन मति, स्मति और चिन्तादि नामोंकी निरुक्ति व तात्पर्य मतिज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्त इन्द्रिय और अनिन्द्रियका स्वरूप तत् पदकी सार्थकता मतिज्ञानके भेद अवग्रह आदिका स्वरूप अवग्रहादिके विषयभूत पदार्थोके भेद बहुआदिका स्वरूप बहु और बहुविध अन्तर उक्त और निःसृतमें अन्तर 'क्षिप्रनिःसृत' पाठान्तरकी सूचना और उसका अर्थ घ्र वावग्रह और धारणामें भेद बहु आदि अर्थके अवग्रह आदि होते हैं अर्थ पद देने की सार्थकता व्यञ्जन का अवग्रह ही होता है व्यञ्जन शब्दका अर्थ व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रहमें भेद व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मनसे नहीं होता आगम और युक्तिसे चक्षु और मनकी अप्राप्यकारिताको सिद्धि
67 श्रुतज्ञानका स्वरूप और उसके भेद 68 मतिपूर्वक श्रतज्ञानके मानने में आनेवाली
आपत्तियोंका परिहार 69 श्रुत नयभेदसे कथंचित् अनादिनिधन और
कथंचित् सादि है श्रुतपूर्वक भी श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है इस आशंकाका समाधान श्रुतके भेद व उनका कारण
विशेषार्थ द्वारा श्रुतज्ञानका स्पष्टीकरण 70 भवप्रत्यय अवधिज्ञान के स्वामी
भवप्रत्यय कहनेका कारण 72 क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञानके स्वामी 73 अवधिज्ञानके छह भेद व उनका स्वरूप 73 मनःपर्ययज्ञानके भेद और स्वरूप 73 ऋजुमति और विपुलमतिका अर्थ
इन दोनों ज्ञानोंका क्षेत्र और कालकी 74 अपेक्षा विषय 76 ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्यय
ज्ञानमें अन्तर 76 विशुद्धि और अप्रतिपातका अर्थ 77 विशुद्धि और अप्रतिपातके द्वारा दोनों ज्ञानोंमें 77 अन्तरका विशेष कथन 78 अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें विशेषता 79 विशुद्धि आदिके द्वारा दोनों ज्ञानों में अन्तरका 79 विशेष स्पष्टीकरण 80 मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषय 80 मतिज्ञानकी अरूपी द्रव्यों में मनसे प्रवृत्ति 80
होती है 81 अवधिज्ञानका विषय
मनःपर्ययज्ञानका विषय 81 केवलज्ञानका विषय 81 एक जीवमें एक साथ संभव ज्ञानोंका निरूपण 82 मिथ्याज्ञानोंका निरूपण 82 मिथ्याज्ञानके कारणोंका निरूपण 82 कारण विपर्यास भेदाभेदविपर्यास और 83 स्वरूपविपर्यासका वर्णन 83 नयोंके भेद 83 नयका स्वरूप
100 नंगमनयका स्वरूप
100 84 संग्रहनयका स्वरूप
101
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विषयानुक्रमणिका
[95
123
124
व्यवहारनयका स्वरूप
101 उपयोग के भेदोंका स्वरूप व प्रवृत्तिक्रमका ऋजुसूबनयका स्वरूप 102 निर्देश
117 शब्दनयका स्वरूप 102 जीवों के भेद
118 समभिरूढनयका स्वरूप 103 संसार शब्द का अर्थ
119 एवम्भूतनयका स्वरूप 103 द्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप
119 नयोंका पारस्परिक सम्बन्ध और उत्तरोत्तर
क्षेत्र परिवर्तनका ,,
119 विषय की सूक्ष्मता 104 काल परिवर्तनका ,
120 विशेषार्थ द्वारा नयोंका स्पष्टीकरण 104 भव परिवर्तनका ,
120 भाव परिवर्तनका,
121 दूसरा अध्याय
संसारी जीवोंके भेद जीवके असाधारण भावोंका निरूपण 107 मन के दो भेद तथा समनस्क और अमनस्क उपशम आदि का अर्थ 107 शब्दका अर्थ
123 औपशमिकादि भावोंके क्रमकी सार्थकता 107 संसारी जीवोंके प्रकारान्तरसे भेद 123 भावोंके भेदोंकी संख्या
108 सूत्र में संसारी पद देनेकी सार्थकता 123 द्विनवाष्टादिपदका भेद शब्दके साथ दो
प्रस और स्थावर शब्दका आगमिक अर्थ 124 प्रकारका समास 108 स्थावर जीवोंके भेद
124 औपशमिक भाव के दो भेद 109 स्थावर शब्द का अर्थ
124 औपशमिक सम्यक्त्व किस प्रकार उत्पन्न
पथिवी, पथिवीकाय, पृथिवीकायिक और होता है
109 पृथिवीजीवका स्वरूप काललब्धिका वर्णन 109 स्थावर जीवोंके प्राण
124 औपशमिकचारित्र किस प्रकार उत्पन्न
त्रस जीवोंके भेद
125 होता है
110 द्वीन्द्रिय आदि शब्दों का अर्थ नायिकभावके नौ भेद
110 द्वीन्द्रिय आदि जीवोंके प्राण नौ क्षायिक भावोंका स्वरूप व उनका कार्य 110 इन्द्रियोंकी संख्या
126 क्षायिक दानादि कृत अभयदानादि सिद्धोंके
इन्द्रियोंमें कर्मेन्द्रियोंका ग्रहण नहीं होता 127 क्यों नहीं होते इसका कारण 111 इन्द्रियोंके दो भेद
127 क्षायोपशमिक भावके अठारह भेद 112 द्रव्येन्द्रियके दो भेद
127 क्षायोपशमिक भावके अठारह भेदों का स्वरूप 112 निर्वति और उपकरणका अर्थ व इनके भेद 127 औदयिक भावके इक्कीस भेद 114 भावेन्द्रियके दो भेद
127 औदयिक भावके भेदों का स्वरूप 114 लब्धि और उपयोगका अर्थ
127 उपशान्तकषाय आदिमें शुक्ललेश्या किस
उपयोगको इन्द्रिय कहनेका कारण प्रकार मानी गयी है इसका निर्देश
115 पांच इन्द्रियोंके विषय पारिणामिक भावके तीन भेद
115 कर्मसाधन और भावसाधन द्वारा अस्तित्वादि अन्य भी पारिणामिक भाव हैं फिर स्पर्शादिकी सिद्धि
129 उनका ग्रहण क्यों नहीं किया इस शंका
मनका विषय
130 का समाधान 115 श्रुत शब्द के दो अर्थ
130 विशेषार्थ द्वारा पारिणामिक भावों का खुलासा 116 वनस्पति पर्यन्त जीवोंके एक इन्द्रिय होती है 130 जीवका लक्षण
116 स्पर्शन इन्द्रियकी उत्पत्तिका कारण 131 उपयोगका स्वरूप
117 कृमि आदिजीवों के दो आदि इन्द्रियाँ होती हैं 131 उपयोग के भेद-प्रभेद
117 किस क्रमसे इन्द्रियाँ बढ़ी हैं उनका नामनिर्देश 131
125
125
128 129
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96]
सर्वार्थसिद्धि
146
संज्ञी जीवोंका स्वरूप
132 वैक्रियिक और आहारक शरीरको अप्रतीधात समनस्क पद देने की सार्थकता 132 क्यों नहीं कहा
1411 विग्रहगतिमें जीव की गति का कारण 132 तैजस और कार्मणका अनादिसम्बन्ध 141 विग्रह कर्म व योग शब्दका अर्थ 133 'च' पदकी सार्थकता
141 गतिका नियम 133 तैजस और कार्मणके स्वामी
142 श्रेणि शब्दका अर्थ
133 एक जीवके एक साथ लभ्य शरीरोंकी संख्या 142 गतिपदकी सार्थकता
134 कार्मण शरीरकी निरुपभोगता "143 काल और देशनियम का विधान 134 उपभोग पदका अर्थ
143 विग्रह शब्दका अर्थ
134 तैजस शरीर भी निरुपभोग है फिर उसका 'अविग्रहा जीवस्य' सूत्रकी सार्थकता 134 ग्रहण क्यों नहीं किया
143 संसारी जीवकी गति का नियम और समय 134 औदारिक शरीर किस-किस जन्मसे होता है 144 निष्कुटक्षेत्रसे मरकर निष्कुटक्षेत्र में उत्पन्न
वैक्रियिक शरीर किस जन्मसे होता है 144 होनेवाले जीवकी त्रिविग्रह गति
135 वैक्रियिक शरीर लब्धिप्रत्यय भी होता है 144 अविग्रहवाली गति का समय-निर्देश 135 तेजसशरीर लब्धिप्रत्यय होता है
144 अनाहारक जीवोंका समय-निर्देश
135 आहारक शरीरकी विशेषता और स्वामी 145 आहार शब्दका अर्थ 136 शुभ आदि पदोंका अर्थ
145 जन्मके भेद
136 आहारक शरीरकी उत्पत्तिका प्रयोजन 145 सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद पदका अर्थ 136 नारक और सम्मूच्छिनोंके वेद का वर्णन 146 चौरासी लाख योनियां किसके कितनी होती हैं 136 नारक शब्दका अर्थ योनियोंके भेद 136 देवोंके वेदका वर्णन
146 सचित्त आदि पदों का अर्थ 136 शेष जीवोंके वेद का वर्णन
147 'तत्' पदकी सार्थकता 137 लिंग के दो भेद व उनका अर्थ
147 योनि और जन्ममें अन्तर 137 स्त्री आदि शब्दोंको व्युत्पत्ति
147 किस जीवके कौन योनि होती है इसका खुलासा 137 अनपवायुष्क जीवोंका निरूपण 147 गर्भ जन्म के स्वामी 138 औपपादिक आदि पदोंका अर्थ
148 जरायु आदि पदों का अर्थ 138 पाठान्तरका निर्देश
148 उपपाद जन्मके स्वामी
138
तीसरा अध्याय सम्मूर्छन जन्मके स्वामी
139 नरककी सात भूमियाँ व उनका आधार 150 जन्मके भूस्वामियों के प्रतिपादक तीनों सूत्र
रत्नप्रभा आदि नामोंकी सार्थकता 150 नियमार्थक हैं 139 'भूमि' पदकी सार्थकता
151 शरीरके पाँच भेद
139 भूमि, तीन वातवलय और आकाश इनमें औदारिक आदि पदोंका अर्थ
139 आधार-आधेयभाव शरीरों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता 140 सप्त पदकी सार्थकता
151 तेजससे पूर्व तीन शरीर उत्तरोत्तर प्रदेशोंकी 140 विशेषार्थ द्वारा अधोलोकका स्पष्टीकरण
151 अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं
140 भूमियोंमें नरकों (विलों) की संख्या 152 गुणकारका प्रमाण
140 भूमियोंमें नरक प्रस्तारों का विचार अन्तके दो शरीर अनन्तगुणे हैं
141 नारक निरन्तर अशुभतरलेश्या आदिवाले तैजस और कार्मण शरीरकी अप्रतीघातता 141 होते हैं इसका विचार
153 प्रतीघात पद का अर्थ
141 नित्य शब्द का अर्थ
151
153
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159
ह
विषयानुक्रमणिका
[97 किस भूमिमें कौन लेश्या है इसका विचार 153 हिमदान आदि नाम अनिमित्तक और द्रव्यलेश्या और भावलेश्याका काल 153 अनादि हैं
.159 नारकियोंके देहका विचार व देह की ऊँचाई 153 हिमवान आदिको वर्षधर पर्वत कहने का नारकियों के तीव्र वेदनाका कारण
153 कारण नारकोंमें उष्णता व शीतताका विचार 153 कौन पर्वत कहाँसे कहाँ तक अवस्थित है व उनकी नारकी स्वभावसे अशुभ विक्रिया करते हैं
ऊँचाई और अवगाह क्या है इसका विचार 159 और अशुभ निमित्त जोड़ते हैं 153 पर्वतोंका रंग
160 नारको आपस में दुःखके कारण होते हैं 154 पर्वतोंकी विशेषता व विस्तार
160 परस्पर दुःख उत्पन्न करने के कारणों का निर्देश 154 'च' पद की सार्थकता
160 नारकियोंकी विक्रियासे ही तलवार,बरछी पर्वतोंपर तालाब
160 आदि बनते हैं
154 प्रथम तालाबका आयाम व विस्तार 161 तीसरी भूमि तक असुरोंके निमित्तसे दुःख
प्रथम तालाबका अवगाह
161. की उत्पत्ति 154 प्रथम तालाबके कमलका प्रमाण
161 असुर शब्दका अर्थ
. 155 प्रथम तालाब में कमल के अवयवोंका प्रमाण असुरोंके संक्लिष्ट विशेषणकी सार्थकता 155 व जलतलसे कमलकी ऊँचाईका प्रमाण 161 कुछ अम्बावरीष आदि देव ही दुःख में
अन्य तालाब व कमलोंका प्रमाण
161 निमित्त होते हैं इसका निर्देश
155 कमलोंमें निवास करनेवाली छह देवियों व सूत्रमें आये हुए 'च' पदकी सार्थकता ___ 155 उनका परिवार और आयु
162 नारकियोंके अकालमरण न होने का कारण 155 कमलोंकी कणिकाके बीच में बने हुए प्रासादों नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु . 155 का प्रमाण व रंग
162 'सत्त्वानाम' पदकी सार्थकता
156 मुख्य कमलोंके परिवार, कमलोंमें रहनेवाले तिर्यग्लोक पदका अर्थ 156 अन्य देव
162 द्वीपों और समुद्रोंके मुख्य-मुख्य नामोंका निर्देश 16 पूवोंक्त क्षेत्रों में बहनेवाली चौदह नदियाँ
162 द्वीपों और समुद्रों के अनेक नामों का निर्देश 156 पूर्व समुद्रको जानेवाली नदियाँ
163 द्वीपों और समुद्रोंका विष्कम्भ और आकृति 157 पश्चिम समुद्रको जानेवाली नदियाँ 163 सूत्रमें आये हुए प्रत्येक पदकी सार्थकता 157 कौन नदी किस तालाबके किस ओरके द्वारसे जम्बूद्वीपका सन्निवेश और व्यास
157 निकली है इसका विचार जम्बूद्वीप नाम पड़नेका कारण
157 गंगा और सिन्धु आदि नदियों की परिवार जम्बवृक्षकी अवस्थिति कहाँ है और वह
नदियाँ किस रूप है इसका विचार
157 सूत्र में गंगा और सिन्धु दोनों पदोंके रखने विशेषार्थ द्वारा मध्यलोक और सुमेरु पर्वत
की सार्थकता का वर्णन 157 भरतक्षेत्रका विस्तार
164 सात क्षेत्रोंकी संज्ञा
158 विदेह पर्यन्त आगेके पर्वतों व क्षेत्रोंका भरत आदि संज्ञाएँ अनिमित्तक और
विस्तार
165 अनादि हैं
158 उत्तरके क्षेत्र व पर्वतोंके विस्तारका प्रमाण 165 कौन क्षेत्र कहाँ पर है इसका विचार 158 भरत और ऐरावत क्षेत्रमें कालकृत परिवर्तन 165
यह परिवर्तन क्षेत्रका न होकर वहाँके जीवोंसात क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले छह
का होता है
165 कूलाचल पर्वत
159 यह परिवर्तन अनुभव, आयु और प्रमाणादि ये पर्वत कहाँ से कहाँ तक फैले हुए हैं . 159 कृत होता है
166
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98]
सर्वार्थसिद्धि
अनुभव आदि शब्दोंका अर्थ कालके दो भेद और इनमेंसे प्रत्येकके छह
171 171
171
167
166 मनुष्योंके भेद
आर्यशब्दका अर्थ और आर्योके भेद 166 म्लेच्छोंके भेद व उनके विशेष वर्णनके 166 प्रसंगसे अन्तर्वीपों का वर्णन 166 शक, यवन आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ है इस
बातका निर्देश 167 कर्मभूमि कहाँ कहाँ है
भोगभूमियाँ कहाँ कहाँ हैं
कर्म शब्दका अर्थ 167 कर्मभूमि और भोगभूमि बननेका कारण
मनुष्योंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति 168 पल्यके तीन भेद और उनका प्रमाण लाने 168 की विधि
उद्धारसागरका प्रमाण 168 द्वीप-समुद्रोंकी गणना 168 अद्धासागरका प्रमाण 168. अद्धासागरसे किन किनकी गिनती होती है
इसका विचार 169 तिर्यञ्चोंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति 169 तिर्यग्योनिज शब्दका अर्थ
172 172 172 172 173 174
174 174 174
175
175 175 175
कालके दोनों भेदोंकी कल्प संज्ञा सुषमामुषमा आदि कालोंका प्रमाण आदि शेष भूमियाँ अवस्थित हैं हैमवतक आदि मनुष्योकी आयु हैमवत आदि क्षेत्रों में कौनसा काल प्रवर्तता है व वहाँके मनुष्योंका रंग व आहार आदि किस प्रकारका है दक्षिणके क्षेत्रोंके समान उत्तरके क्षेत्रोंका वर्णन है विदेहमें कालका प्रमाण विदेहमें काल, मनुष्योंकी ऊँचाई, आहार
और आयुका विचार पूर्वका प्रमाण भरतक्षेत्रके विष्कम्भका सोपपत्ति विचार जम्बूद्वीपके बाद कौन-सा समुद्र है और तदनन्तर कौन-सा द्वीप है इसका निर्देश घातकीखण्ड द्वीपके क्षेत्रादिका विचार पातकीखण्डको दक्षिण और उत्तर इन दो भागोमें विभाजित करनेवाले दो इष्वाकार पर्वत घातकीखण्ड-दीपमें दो मेर घातकीखण्ड द्वीपमें दो-दो भरतादि क्षेत्र और दो-दो हिमवान् आदि धातकीखण्ड द्वीपमें क्षेत्रों व पर्वतोंका संस्थान व विष्कम्भ घासकीखण्ड द्वीपमें सपरिवार पातकीवृक्ष घातकीखण्ड द्वीपके बाद कालोद समुद्रव उसका विस्तार पुष्करार्धमें क्षेत्रादिका विचार पुष्करार्धमें इष्वाकार पर्वत व पुष्कर वृक्ष आदिका निर्देश पुष्करा; संज्ञाका करण मानुषोत्तर पर्वतके पहले मनुष्य हैं मानुषोत्तर पर्वतका विशेष वर्णन मानुषोत्तर पर्वतको लाँधकर ऋद्धिधारी मनुष्य भी नहीं जा सकते
177
चौथा अध्याय 169 देवोंके चार भेद
177 169 देव शब्दका अर्थ निकाय शब्दका अर्थ
177 169 आदिके तीन निकायोंमें लेश्या विचार 177 देवनिकायों में अन्तभेदोंका निर्देश
178 169 कल्पोपपन्न पद देनेकी सार्थकता
178 169 देवनिकायोंमें अन्तर्भेदोंका नामनिर्देश 178 इन्द्र आदि शब्दोंका अर्थ
179 169 व्यन्तर और ज्योतिषियों में कितने अन्तर्भेद 170 हैं इसका विचार
179 प्रथम दो निकायों में इन्द्रोंका विचार
180 170 प्रत्येक निकायके अवान्तर भेदोंके इन्द्रोंके नाम 180 170 ऐशान कल्पोंमें प्रवीचारका विचार 170 शेष करूपोंमें प्रवीचारका विचार
181 170 प्रवीचार पद देनेकी सार्थकता
182 कल्पातीत देवोंमें प्रकीचार नहीं है इस 170 बातका निर्देश
182
180
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विषयानुक्रमणिका
[99
183
हैं इसक
194
185
भवनवासियों के दस भेद 182 प्रैवेयकके पूर्व तक कल्प संज्ञा
192 भवनवासी शब्दका अर्थ 182 लौकान्तिक देवोंका निवासस्थान
192 असुरकुमार आदि नामोंमे कुमार पदकी
लौकान्तिक शब्दकी सार्थकता
192 सार्थकता
182 लौकान्तिकोंके आठ भेदोंके नाम
192 भवनवासियोंका निवासस्थान
182 किस दिशामें किस नामवाले लौकान्तिक रहते व्यन्तरोंके आठ भेद
हैं इसका विचार
193 व्यन्तर शब्दका अर्थ
183 'च' शब्दसें समुच्चित अन्य लौकान्तिकोंका व्यन्तरोंका निवासस्थान 183 निर्देश
193 ज्योतिषियोंके पाँच भेद 183 विजयादिकमें द्विचरम देव होते हैं
193 ज्योतिष्क पदकी सार्थकता
183 आदि पदसे सर्वार्थसिद्धिके ग्रहण न होनेका कारण 193 'सूर्याचन्द्रमसौ' पदके पृथक् देनेका कारण 183 द्विचरम शब्दका अर्थ ज्योतिषियोंका पूरे विवरणके साथ निवासस्थान 183 तिर्यग्योनिसे किनका ग्रहण होता है इसका मनुष्य लोकमें ज्योतिषियोंकी निरन्तर मेरु
वित्रार
194 प्रदक्षिणा
184 तिर्थञ्च सब लोकमें रहते हैं अत: उनका क्षेत्र । ज्योतिष्क विमानोंके गमन करनेका कारण 184 नहीं कहा
194 ज्योतिष्कदेव मेरु पर्वतसे कितनी दूर रहकर भवनयासियोंके अवान्तर भेदोंकी उत्कृष्ट आयु 195 प्रदक्षिणा करते हैं
- 184 सौधर्म और ऐशान कल्पमें उत्कृष्ट आयु 195 गतिमान ज्योतिष्कोंके निमित्तसे कालका विभाग 'अधिके' यह अधिकार वचन है इस बातका होता है
निर्देश
195 कालके दो भेद व व्यवहार कालका स्वरूप 185 सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पमें उत्कृष्ट आयु 196 मनुष्य लोकके बाहर ज्योतिष्क विमान
शेष बारह कल्पोंमें उत्कृष्ट आयु
196 अवस्थित हैं
186 'तु' पदकी सार्थकता
196 वैमानिकोंके वर्णनके प्रसंगसे अधिकार सूत्र 186
कल्पातीत विमानोंमें उत्कृष्ट आयु
196 विमान शब्दका अर्थ व उसके भेदोंका विचार 186
'सर्वार्थसिद्धी' पदको पृथक् ग्रहण करनेका वैमानिकोंके दो भेद
187 कारण
197 वैमानिक देव ऊपर ऊपर निवास करते हैं 187
सौधर्म और ऐशान कल्पमें जघन्य आयु 197
शेष सबमें जधन्य आयुका विचार कितने कल्प विमानों में वे देव रहते हैं इसका
द्वितीयादि नरकोंमें जघन्य आयु विचार 187
198
प्रथम नरक में जघन्य आयु सौधर्म आदि शब्दके व्यवहारका कारण 158
198 मेरु पर्वतकी ऊँचाई व अवगाहका परिमाण 188
भवनवासियोंमें जघन्य आयु
199
व्यन्तरोंमें जघन्य आयु । अधोलोक आदि शब्दोंकी सार्थकता 188
199
व्यन्तरोंमें उत्कृष्ट आयु सौधर्म कल्पका ऋजु विमान कहाँ पर है
ज्योतिषियोंमें उत्कृष्ट आयु इसका निर्देश
199
ज्योतिषियोंमें जघन्य आयु 'नवसु' पदके पृथक् देनेका कारण 189
200 लौकान्तिक देवोंमें आयुका विचार
200 देवोंमें उत्तरोत्तर स्थिति प्रभावादिकृत विशेषता 189 गति आदि शब्दों का अर्थ कहाँके देवके शरीरकी कितनी ऊँचाई है आदि
पाँचवाँ अध्याय का विचार ___190 अजीवकाय द्रव्योंका निर्देश
201 वैमानिक देवों में लेश्याका विचार 190 काय शब्द देनेकी सार्थकता
201 सूत्रार्थकी आगमसे संगति बिठानेका उपक्रम 191 अजीव यह धर्मादिक द्रव्योंकी सामान्य संज्ञा है 201
197
199
189
190
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________________
100]]
सर्वार्थसिद्धि
20
...
214
ये धर्मादिक द्रव्य हैं इस बातका निर्देश 202 लोक शब्दका अर्थ
211 द्रव्य पदकी व्युत्पत्ति
202 आकाशके दो भेद और उनका अर्थ 211 ये धर्मादिक द्रव्यत्व नामक सामान्यके योगसे लोकालोक विभागका कारण
211 द्रव्य नहीं हैं इस बातका सयुक्तिक विचार 202
धर्म और अधर्म द्रव्य लोकव्यापी हैं 211 'गुणसमुदायो द्रव्यम्' ऐसा माननेमें भी आपत्ति 202 पुद्गल द्रव्य लोकके एक प्रदेश आदिमें रहते हैं 212 द्रव्य पदको व्युत्पत्ति ओर उसकी सिद्धि 202
मूर्त पुद्गल एकत्र कैसे रहते हैं इनका विचार 212 'द्रव्याणि' बहुवचन देनेका कारण व अन्य
जीव लोकके असंख्येयभाग आदिमें रहते हैं 212 विशेषताओंका निर्देश
203 सशरीरी अनन्तानन्त जीव असंख्येयभाग जीव भी द्रव्य हैं इस बातका निर्देश 203 आदिमें कैसे रहते हैं इसका विचार 213 नैयायिकोंके द्वारा माने गये द्रव्योंके अन्तर्भाव
जीवके असंख्येयभाग आदिमें रहनेका कारण 213 की सिद्धि 203 धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार
214 द्रव्योंकी विशेषता
205 गति, स्थिति और उपग्रह पदका अर्थ 114 नित्य आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या
205
उपग्रह पदकी सार्थकता पुद्गल द्रव्य रूपी है इसका विचार
205
गति और स्थितिको धर्म और अधर्म द्रव्यका रूप पदका अर्थ
206 उपकार माननेका कारण
215 आकाश पर्यन्त एक एक द्रव्य हैं इसका विचार 206
गति और स्थितिके प्रतिबन्ध न होनेका कारण 215 सूत्रमें द्रव्य पदके ग्रहण करनेकी सार्थकता 206
धर्म और अधर्म द्रव्यकी सिद्धि धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय हैं
215 207 अवकाशका उपकार
216 निष्क्रिय शब्दका अर्थ
207
निष्क्रिय धर्मादि द्रव्योंको आकाश कैसे धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय होने पर भी उनमें
अवगाह देता है इसका विचार
216 उत्पादादिकी सिद्धि
208
दो स्कन्धों के परस्पर टकरानेसे आकाशके उत्पादके दो भेद
208 अवकाश दानकी हानि नहीं होती
216 निष्क्रिय धर्मादिक द्रव्य गति आदिके हेतु
सूक्ष्म पुद्गल परस्पर अवकाश देते हैं तो भी कैसे हैं इसका विचार
208 आकाशके अवकाशदानकी हानि नहीं धर्म, अधर्म और एक जीवके प्रदेश 208 होती इस बातका समर्थन असंख्येयके तीन भेद
208 पुद्गलोंका उपकार प्रदेश शब्दका अर्थ
208 कार्मण शरीरके पुद्गलपनेकी सिद्धि 217 धर्म और अधर्म द्रव्य लोकाकाशव्यापी हैं 208 वचनके दो भेद और उनका स्वरूप व पूदगलजीव शरीरपरिमाण होकर भी लोकपूरण समुद्घात पनेकी सिद्धि के समय लोकाकाशव्यापी होता है
208 मनके दो भेद और उनका स्वरूप व पुद्गलआकाशके प्रदेशोंका विचार
209 पनेकी सिद्धि अनन्त शब्दका अर्थ
209 मन द्रव्यान्तर नहीं है इसकी सयुक्तिक सिदि 218 पुद्गलोंके प्रदेशोंका विचार
209 प्राण और अपान शब्दका अर्थ 'ब' पदकी सार्थकता
209 मन, प्राण और अपानके पुद्गलपनेकी सिद्धि 219 अनन्तके तीन भेद
209 आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि असंख्यातप्रदेशी लोकमें अनन्तानन्त प्रदेशी
पुद्गलोंके अन्य उपकार
219 स्कन्ध कैसे समाता है इसका विचार 209 सुख, दुःख आदि शब्दोंका अर्थ
219 अणुके दो आदि प्रदेश नहीं होते
उपग्रह पदकी सार्थकता
220 सब द्रव्योंका लोकाकाशमें अवगाह है 210 जीवोंका उपकार
220 आधाराधेयविचार
210 कालका उपकार
216
217
218
210
219
219
222
.
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________________
विषयानुक्रमणिका
[101
222
234
226
वर्तना शब्द का अर्थ
222 गुणवैषम्यमें सदृशोंका भी बन्ध होता है यह . काल द्रव्य क्रियावान नहीं है इसका समर्थन 222 बतलानेके लिए सूत्रमें सदृश पदका कालके अस्तित्वकी सिद्धि
ग्रहण किया
234 परिणाम पदका अर्थ
दो अधिक गुणवालोंका बन्ध होता है क्रिया पदका अर्थ 223 बन्धके प्रकारोंका विशेष विवेचन
234 परत्व और अपरत्वका विचार
223 बन्ध होने पर अधिक गुणवाले पारिणामिक वर्तनासे पृथक् परिणामादिके ग्रहण करनेका
होते हैं
235 प्रयोजन
223 द्रव्य का लक्षण
237 पुद्गलका लक्षण
273 एक द्रव्यके दूसरे द्रव्यसे भिन्न होनेके कारणकी स्पर्श आदि पदोंका अर्थ व उनके भेद 223 सयुक्तिक सिद्धि
237 'रूपिणः पुद्गलाः' सूत्रके रहते हुए भी इस
काल भी द्रव्य है
238 कालमें द्रव्यपने की सिद्धि
224 सूत्रके कहनेका कारण
239 कालद्रव्यको अलग कहनेका कारण
224 पुद्गलकी व्यञ्जन पर्यायोंका निर्देश
239 विशेषार्थ द्वारा कालका विचार 224
240 शब्दके दो भेद व उनका विशेष विचार
कालकी पर्याय अनन्त समय रूप हैं इसकी बन्धके दो भेद व उनका विशेष विचार 225
सिद्धि
241 सौक्ष्म्यके दो भेद व उनका विचार
225
गुण का लक्षण
225 स्थौल्य के दो भेद व उनका विचार
242
गणका लक्षण पर्यायों में न जाय इसकी संस्थानका अपने भेदोंके साथ विचार 225
व्यवस्था
242 भेदके छह भेद व उनका विचार
225 परिणामका स्वरूप
243 तम आदि शेषका स्वरूप निर्देश
परिणामके दो भेद और उनकी सिद्धि पुद्गलके भेद
226 अणु शब्दका अर्थ
226
छठा अध्याय स्कन्ध शब्दका अर्थ
226 स्कन्धोंकी उत्पत्तिका हेतु 227 योगका स्वरूप
244 भेद और संघात पदका अर्थ
227 कर्म शब्दका अर्थ
244 बहुवचन निर्देशकी सार्थकता
227 योगके भेद
244 अणुकी उत्पत्तिका हेतु
228
काय, वचन और मनोयोगका स्वरूप 244 'भेदसंघातेभ्यः' इस सूत्रमें भेद पदके ग्रहण
आस्रवका स्वरूप
245 करनेका प्रयोजन
पुण्यास्रव और पापास्रव
245 अचाक्षष चाक्षष कैसे होता है इसका विचार 228 ये कायादि तीनों योग शुभ और अशुभ इन द्रव्यका लक्षण 229 दो भागों में विभक्त हैं
245 सत्की व्याख्या 229 शुभयोगका स्वरूप
245 उत्पाद आदि पदोंका अर्थ 229 अशुभ योगका स्वरूप
245 युक्त पद किस अर्थ में ग्रहण किया है
पुण्य और पाप पदकी व्याख्या
245 इसका विचार
229 साम्परायिक और ईर्यापथ.आस्रव कितने नित्य पदकी ब्याख्या 230 होते हैं
246 मख्यता और गौणतासे अनेकान्तकी सिद्धि 231 आस्रवके स्वामीके दो भेद
246 पुद्गलों के बन्धका कारण 232 कषाय शब्दका अर्थ
246 जघन्य गुणवालोंका बन्ध नहीं होता 233 सपराय शब्द का
246 गुणसाम्यमें सदृशों का बन्ध नहीं होता 233 ईर्या शब्दका अर्थ
246
243
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________________
102]
साम्परायिक आसवके भेद
पचीस क्रियाओंका विशेष विवेचन
किन कारणोंसे आस्रव में विशेषता होती है। इसका निर्देश
तीव्र, मन्द आदि पदोंकी व्याख्या अधिकरणके दो भेद
जीवाधिकरणके 108 भेदोंका नामोल्लेख
'ब' पदकी सार्थकता
अजीवाधिकरण के भेद
निसर्ग आदि पदों का अर्थ
'पर' पदकी सार्थकता
निर्वर्तना आदिके उत्तर भेदोंकी व्याख्या ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव
'जीवाजीवाः' ऐसा बहुवचन रखनेका कारण 249 जीवाधिकरणके भेद
249
संरम्भ आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या
249
प्रदोष आदि प्रत्येक पदका अर्थ आसादन और उपघात में अन्तर
'तत्' पदसे ज्ञान और दर्शनका ग्रहण कैसे होता है इसका विचार
सूत्रगत प्रत्येक पदकी व्याख्या
इति' पदकी सार्थकता
सर्वार्थसिद्धि
246
247
तिचा के आश्रव
तिर्यंचायुके आस्रवोंका विस्तारसे निरूपण मनुष्यापके आलव
248
मनुष्य के आस्रवोंका विस्तारसे निरूपण 248 मनुष्यायुके अन्य आसव चारों आयुओंके आलव
249
'च' पदकी सार्थकता
दर्शनमोहके आस्रव केवली आदि पदोंकी व्याख्या सोदाहरण अवर्णवादका निरूपण रिमोह आव
प्रदोषादि ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनोंके आस्रव हेतु कैसे हैं इसका विचार आसातावेदनीय के आसव
दुःख आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या
गोकादिक दुःखके प्रकार होकर भी उनके अलग
250
250
250
251
251
251
251
251
252
252
253
ग्रहण करनेका कारण यदि दुःखादिक असातावेदनीयके आसव हैं तो केशोत्पाटन आदि क्यों करते हैं इसका युक्तिक विचार
सातावेदनीय के आस्रव
252
253
253
255
255
255
कषाय आदि पदोंकी व्याख्या चारित्रमोहके आलवोंका विस्तार से निरूपण 256 कामुके आलव 256
काके आलवोंका विस्तारसे निरूपण
256
देवा के आव
सूत्रगत प्रत्येक पदकी व्याख्या
देवायुका अन्य आस्रव
'सम्यक्त्वं च पृथक् सूत्र बनानेका प्रयोजन
अंशुम नामकर्मके आसव
सूत्रगत प्रत्येक पदकी व्याख्या
अशुभनामकर्मके आलयोंका विस्तारसे कथन शुभनामकर्मके आस्रव
'च' पदकी सार्थकता
शुभनामकर्मके आस्रवोंका विस्तारसे कथन
तीर्थंकर प्रकृतिके आस्रव
सूत्रगत प्रत्येक पदकी व्याख्या नीचगोत्रके आस्रव
सूत्रगत प्रत्येक पदकी व्याख्या उच्चगोत्र के आस्रव
सूत्रगत प्रत्येक पदकी व्याख्या
अन्तराय कर्मके आस्रव
तत्प्रदोष आदि प्रतिनियत कर्मोंके आसयोंका कथन करने से आनेवाले दोषका परिहार
व्रतकी व्याख्या
253 254
हिंसादि परिणाम विशेष अधव हैं उनसे दूर 254 होना कैसे सम्भव है इस शंकाका परिहार हिंसा आदि पदोंको क्रमसे रखनेका प्रयोजन रात्रिभोजन विरमण व्रत अलगसे नहीं कहने
254
255
255
सातवाँ अध्याय
का कारण
व्रतके दो भेद
प्रत्येक पदकी व्याख्या
व्रतकी स्थिरता के लिए पांच-पांच भावनाओंका अधिकार सूत्र
अहिंसा व्रतकी पाँच भावनाएँ सत्यव्रतकी पाँच भावनाएँ
257
257
257
257
257
258
258
258
258
258
259
259
259
259
200
260
260
260
261
261
262
262
262
262
263
264
264
265
265
265
2 5
266
266
266
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विषयानुक्रमणिका
[103 अनुवीचीभाषण पदका अर्थ
266 मूर्छाको परिग्रह मानने पर बाह्य पदार्थ परिग्रह अचौर्यव्रतकी पांच भावनाएँ 266 कैसे हैं इस बातका विचार
274 प्रत्येक पदकी व्याख्या 267 व्रतीका स्वरूप
275 ब्रह्मचर्य व्रतकी पाँच भावनाएँ 267 शल्य पदकी व्याख्या व उसके भेद
275 परिग्रहत्याग व्रतकी पाँच भावनाएँ 267 शल्य के तीनों भेदों की व्याख्या
275 हिसादिकमें अपाय और अवद्यदर्शनका उपदेश 268 निःशल्यको व्रती कहने का प्रयोजन 275 हिंसादिक कैसे अपाय और अवद्य हैं इसका व्रतीके दो भेद
276 विस्तारसे विवेचन 268 अगार पदका अर्थ
276 हिंसादिक दुःख ही हैं इस भावनाका उपदेश 268 मुनिके शून्य अगार आदिमें रहने पर अगारीहिंसादिक दुःख कैसे हैं इसका विस्तारसे विवेचन 269 पन प्राप्त होता है और गृहस्थके घर छोड़' लोककल्याणकारी मैत्री आदि चार भावनाएँ 269 देने पर अनगारीपन प्राप्त होता है इस शंकाका मैत्री आदि पदकी व्याख्या 270 परिहार
276 संवेग और वैराग्यके लिए जगत और कायके अगारीके पूरे व्रत नहीं होने से वह व्रती कैसे है स्वभावका चिन्तन 270 इस बातका विचार
276 लोकका आकार 270 अगारीकी व्याख्या
277 जगत् और कायके स्वभावका किस प्रकार अगारीके व्रतोंको अणु कहने का प्रयोजन 277 विचार करे
270 अगारी किस प्रकारकी हिंसाका त्यागी होता है 277 हिसाकी व्याख्या
271 अहिंसा आदि पाँचों अणुव्रतों की व्याख्या 277 प्रमत्तयोगपदकी सार्थकता
271 अगारी अन्य किन गुणोंसे सम्पन्न होता है । प्राणोंका वियोग न होने पर हिंसा होती है
इसका विचार
278 इस बातका उल्लेख 271 दिग्विरतिव्रतकी व्याख्या
278 अनृतकी व्याख्या
272 देशाविरति व्रतकी व्याख्या असत् और अनृत पदकी व्याख्या
272 अनर्थदण्डका अर्थ हिंसाकर वचन ही अनृत है इस बातका
अनर्थदण्डके पाँच भेद और उनकी व्याख्या 278 खुलासा 272 सामायिक की व्याख्या
279 स्तेयकी व्याख्या 272 प्रोषध व उपवास शब्दका अर्थ
279 आदान पदका अर्थ 272 प्रोषधोपवासकी व्याख्या
279 कर्म और नोकर्मका ग्रहण स्तेय क्यों नहीं है उपभोगपरिभोगकी व्याख्या
280 इसका विचार
273 मधु आदिके सप्रयोजन त्यागका उपदेश 280 भिक्षुके भ्रमण करते समय रथ्याद्वार में प्रवेश केतकी आदिके फूल व साधारण वनस्पति के । करनेसे चोरी क्यों नहीं होती इसका विचार 273 सप्रयोजन त्यागका उपदेश -
280 अब्रह्मकी व्याख्या
273 यान वाहन आदिके परिमाण करनेका उपदेश 280 मिथुन पदका अर्थ
273 अतिथि पदकी व्याख्या सब कर्म मैथुन क्यों नहीं है इसका खुलासा 273 अतिथिसं विभागके चार भेद
280 ब्रह्म पदकी व्याख्या 274 गृहस्थका सल्लेखना धर्म
280 परिग्रहकी व्याख्या
274 मरण पदकी व्याख्या मूर्छा पदका अर्थ 274 सल्लेखना पदका अर्थ
280 मूळ पदसे वातादि प्रकोपजन्य मूच्छीका ग्रहण सूत्र में 'जोषिता' पद रखनेका कारण . .. 281 क्यों नहीं किया इस बातका खुलासा 274 सल्लेखना आत्मवध नहीं है इस बातका समर्थन 281
278
278
280
280
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104]
सम्पदृष्टिके पांच अतिचार प्रशंसा और संस्तवमें अन्तर
सम्यग्दर्शनके आठ अंग होने पर पाँच अतिचार ही क्यों कहे इसका कारण
यतों और शीलों में पाँच-पाँच अतिचारोंको चलानेवाला अधिकार सूत्र
अहिंसाणुव्रत के पांच अतिचार बन्ध आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या सत्याव्रत के पांच अतिचार
मिथ्योपदेश आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या अचौर्याणुव्रत के पांच अतिचार
स्तेनप्रयोग आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या स्वदारसन्तोष व्रतके पाँच अतिचार
परविवाहकरण आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या परिग्रहपरिमाण व्रतकें पाँच अतिचार दिविरमणव्रतके पांच अतिचार
ऊर्ध्वव्यतिक्रम आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या देशविरमण व्रतके पाँच अतिचार
खुलाखा
'स्व' शब्दका अर्थ
दानमें विशेषता लानेके कारण
विधिविशेष शब्दका अर्थ
विधिविशेष आदिका खुलांसा
सर्वार्थसिद्धि
282
282
282
आनयन आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या अनर्थदण्डविरतिव्रत के पाँच अतीचार कन्दर्प आदि प्रत्येक पदकीं व्याख्या सामायिकके पांच अतीचार
287
287 287
योगदृष्य विधान आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या 287 प्रोषधोपवासके पांच अतिचार अप्रत्यवेक्षित आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या भोगोपभोगपरिसंख्यानव्रतके पाँच अतिचार सचित्त आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या अतिथिसंविभाग शीलके पाँच अतिचार अतिनिक्षेप आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या सल्लेखनाके पाँच अतिचार
जीविताशंसा आदि प्रत्येक पदकी व्याख्या
284
285
285
285
286
मिथ्यादर्शनके दो भेद और उनकी व्याख्या
282 परोपदेशनिमित्त मिथ्यादर्शनके चार या पाँच 283 भेद व उनका खुलासा
283
क्रियावादी आदिके अवान्तर भेद
283
अविरतिके 12 भेद
283
कषायके 25 भेद
284 मनोयोग आदिके अवान्तर भेद
प्रमादके अनेक भेद
किस गुणस्थान में कितने बन्धके हेतु हैं इसका
विचार
बन्धकी व्याख्या
दान पदकी व्याख्या
अनुग्रह पदका अर्थ
स्वोपकार क्या है और परोपकार क्या है इसका
'सफपायत्वात्' पद देनेका प्रयोजन
286
'जीव' पद देनेका प्रयोजन
286
286 'कर्मणों योग्यान्' इस प्रकार निर्देश करनेका प्रयोजन 286 दृष्टान्तपूर्वक कर्मरूप परिणमन का समर्थन 'स' पदकी सार्थकता
286
बन्धके चार भेद
288
288
288
288
288 288 प्रकृतिबन्धके आठ भेद
289
289
आठवाँ अध्याय
बन्धके हेतु
प्रमाद पदकी व्याख्या
289
289
289
289
289
आवरण पदकी व्याख्या
वेदनीय आदि प्रत्येक पदकी व्युत्पत्ति' प्रकृतिबन्धके आठ भेदों के अवान्तर भेद ज्ञानावरण के पांच भेद
293
293
294
294
प्रकृति आदि प्रत्येक पदकी दृष्टान्तपूर्वक व्याख्या 294 प्रकृति और प्रदेशबन्धका कारण योग है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण कषाय है इस बातका निर्देश
अभव्यते मनः पर्यय और केवलज्ञान शक्ति किस
अपेक्षा है
भव्य और अभव्य विकल्पका कारण
दर्शनावरणके नौ भेद
निद्रा आदि पाँचोंकी व्याख्या
वेदनीयके दो भेद
सद्बद्य और असद्वेद्य की व्याख्या
मोहनीय के 28 भेद
291
291
291
291
292
292
292
292
292
292
293
293
293
295
296
296
296
297
297
297
298
298
299
299
299
300
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312
316
317
विषयानुक्रमणिका
[105 दर्शनमोहनीय के तीन भेदोंका कारण व उनकी मूल प्रकृतियों का स्वमुख से अनुभव 311 व्याख्या
300 कुछ कर्मोको छोड़कर उत्तर प्रकृतियोंका चारित्रमोहनीय के सब भेदों की व्याख्या 301 परमुख से भी अनुभव होता है
312 आयुकर्मके चार भेद
303 अपने कर्म के नामानुसार अनुभव होता है 312 आयुव्यपदेशवा कारण व चारों आयुओंकी
कर्मफल के बाद निर्जरा होती है
312 व्याख्या
303 निर्जरा व उसके भेदों की व्याख्या नामकर्मके अवान्तर भेद 303 'च' पद की सार्थकता
312 गति व उसके भेदोंकी व्याख्या
303 विशेषार्थ द्वारा अनुभागबन्धका विशेष विवरण 313 जाति व उसके भेदोंकी व्याख्या 304 प्रदेशबन्ध की व्याख्या
315 शरीर नामकर्म व उसके भेदों की व्याख्या 304 पुण्य प्रकृतियाँ
316 अंगोपांग व उसके भेदों की व्याख्या 304 पुण्य प्रकृतियों के नाम निर्माण व उसके भेदों की व्याख्या 304 पाप प्रकृतियाँ
317 बन्धन की व्याख्या
304 पाप प्रकृतियों के नाम संघातकी व्याख्या
304 संस्थान व उसके छह भेदों की व्याख्या 304
नौवाँ अध्याय संहनन व उसके छह भेदोंकी व्याख्या 304 स्पर्शादिक बीस की व्याख्या 305 संवर का स्वरूप
318 आनुपूर्व्य व उसके चार भेदोंकी व्याख्या 305 संवर के दो भेद व उनके लक्षण
318 पूर्वोक्त भदोंके सिवा अन्य भेदोंकी व्याख्या 306 किस गुणस्थान में किस निमित्त से कितनी गोत्र कर्मके दो भेद 307 प्रकृतियों का संवर होता है
318 उच्च व नीच गोत्रकी व्याख्या
संवर के हेतु
320 अन्तराय कर्मके पाँच भेद
गुप्ति, समिति, धर्म, अनूप्रेक्षा और परीषहदानान्तराय आदिके कार्य
जयका स्वरूप
321
सूत्रमें आए हुए 'सः' पदकी सार्थकता आदि के तीन कर्म व अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट
321
संवर और निर्जराके हेतुभूत तपका निर्देश स्थितिबन्ध 309
321
तपका धर्ममें अन्तर्भाव होता है फिर भी इन कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का स्वामी 309
उसके अलग से कहने का कारण मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध 309
321
तप अभ्युदय स्वर्गादिका कारण होकर भी मोहनीयके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी
309
निर्जराका कारण कैसे है इस शंका का नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध 309
समाधान इन कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का स्वामी 309
321 गुप्तिका स्वरूप
322 आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध
310
निग्रह पद की व्याख्या आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी
322 310
सम्यक् पदकी सार्थकता वेदनीय कर्म का जघन्य स्थितिबन्ध
322 310
गुप्ति संवरका कारण कैसे है इस बातका निर्देश 322 नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध
310 समिति के पाँच भेद
322 शेष कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध 311 समिति संक्रका हेतु कैसे है इस बात का निर्देश 323 अनुभागबन्धकी व्याख्या 311 धर्म के दस भेद
323 विपाकपदकी व्याख्या
311 गुप्ति, समिति और धर्मको संवरका हेत अनुभवके दो भेद 311 कहने का प्रयोजन
323 अनुभवकी दो प्रकार से प्रवृत्ति 311 क्षमादि दस धर्मोका स्वरूप
323
307 308 308
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106]
323
सत्य और भाषा समितिमें अन्तर का कथन ये दस धर्म संवरके कारण कैसे हैं इसको विचार 324 अनुप्रेक्षा बारह भेद
324
अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षाओंके चिन्तन करने की प्रक्रिया
निर्जरा के दो भेद व उनकी व्याख्या ये अनुप्रेक्षाएँ संवर का कारण कैसे हैं इसका विचार
अनुप्रेक्षा को संवरके हेतुओंके मध्यमें रखनेका प्रयोजन
परीषह की निरुक्ति व प्रयोजन
परीषहजय संवर और निर्जराका कारण कैसे है. इसका विचार
परीषहोंके नाम
जिनके ग्यारह परीषह होते हैं इस बात का निर्देश
जिनके ग्यारह परीषह किनिमित्तक होते हैं इस बातका निर्देश
जिनके मोहनीयका उदय न होनेपर भी ग्यारह परीषह क्यों कहे हैं इस बातका निर्देश
सर्वार्थसिद्धि
'न सन्ति' पद के अध्याहारकी सूचना बादरसाम्पराय के सब परीषह होते हैं इस बात का निर्देश
क्षुधादि बाईस परीयों को किस प्रकार जीतना चाहिए इसका पृथक्-पृथक् विचार
330
पूर्वोक्त विधि से परीषहों को सहन करने से संवर होता है इसका निर्देश
336
बादरसाम्परायशब्द का अर्थ
किन चारित्रों में सब परीषह सम्भव हैं इस बात का निर्देश
ज्ञानावरणके उदय में जो दो परीग्रह होते हैं उनका निर्देश
324
327
337
सूक्ष्मसाम्पराय और छद्मस्थ वीतराग के चौदह परीषह होते हैं इस बात का निर्देश सूक्ष्मसाम्पराय जीवके मोहोदयनिमित्तक परीषह क्यों नहीं होते इस शंका का परिहार पूर्वोक्त जीवोंके ये चौदह परीषह किस अपेक्षासे होते हैं इस बात का विचार
337
337
328
329
329
329
330
337
337
338
338
339
339
339
340
ज्ञानावरण के उदयमें प्रज्ञा परीवह कैसे होता है इसका विचार
दर्शनमोह और अन्तरायके उदय में जो परिषह होते हैं उनका निर्देश
चारित्रमोह के उदय में जो परीवह होते हैं उनका निर्देश
निषद्यापरीपह चरित्रमोहके उदय में कैसे होता है इसका विचार
वेदनीयके उदय में जो परीषह होते हैं इसका विचार
एक जीवके एक साथ कितने परीषह होते हैं इसका विचार
एक जीव के एक साथ उन्नीस परीयह क्यों होते हैं इसका विचार
प्रज्ञा और अज्ञान परीपह एक साथ कैसे होते हैं इसका विचार
चारित्रके पाँच भेद
चारित्रको अलग ग्रहण करने का प्रयोजन सामायिकचारित्रके दो भेद और उनकी
व्याख्या
छेदोपस्थापनाचारित्रका स्वरूप
परिहारविशुद्धिचारित्र का स्वरूप सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र का स्वरूप अथाख्यातचारित्रका स्वरूप व अथ शब्दकी सार्थकता
अथाख्यातका दूसरा नाम यथाख्यात है इस बातका सयुक्तिक निर्देश 'इति' शब्द की सार्थकता
सामायिक आदिके आनुपूर्वी कचनकी सार्थकता
बाह्य तपके छह भेद
अनशन आदि की व्याख्या व उसके कथन का
प्रयोजन
परीषह और कायक्लेश में क्या अन्तर है
इस बातका निर्देश
बाह्य तप कहनेका प्रयोजन
अन्तरंग तपके छह भेद
प्रायश्वित आदि की व्याख्या
ध्यान को छोड़कर शेष पाँच अन्तरंग तपों के अवान्तर भेद
340
340
341
341
342
342
342
342
343
343
343
343
343
343
343
344
344
344
345
345
345
345
346
346
346
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353
353 353
39
विषयानुक्रमणिका
1107 प्रायश्चित्तके नौ भेद 346 रौद्रध्यानके चार भेद व स्वामी
353 आलोचना आदि नौ भेदों की व्याख्या 346 देशसंयतके रौद्रध्यान कैसे होता है इस विनय तपके चार भेद 348 बात का विचार
353 ज्ञान विनय आदि चार भेदों की व्याख्या 348 संयतके रौद्रध्यान न होने का कारण वैयावृत्य तपके दस भेद 348 धर्म्यध्यानके चार भेद
353 दयावृत्य तप के दस भेदों का कारण 348 विषय पदकी निरुक्ति आचार्य आदि पदों की व्याख्या
348 आज्ञाविचय आदि चारोंकी व्याख्या स्वाध्याय तप के पांच भेद 349 धबध्यानके चारों भेदोंके स्वामी
354 वाचना आदि पदों की व्याख्या व प्रयोजन 349 विशेषार्थ द्वारा कमौके उदय व उदीरणाका व्युत्सर्ग तपके दो भेद 349 विशेष विनेचन
355 व्युत्सर्ग पद की निरुक्ति व भेद निर्देश 349 आदिके दो शुक्लध्यान पूर्वविद्के होते हैं .. 357 बाह्य उपधिके प्रकार .. 349 पूर्वविद् पदका अर्थ
357 अन्तरंग उपधि के प्रकार
3.9 श्रेणी आरोहणके पूर्व धर्म्यध्यान होता है व्युत्सर्ग तपका प्रयोजन
349 और बाद में शुक्लध्यान होता है इस ध्यान का प्रयोक्ता, स्वरूप व काल परिमाण 350 बातका निर्देश
357 आदिके तीन संहनन उत्तम है इसबातका निर्देश 350 अन्तके दो शुक्लध्यान केवलीके होते हैं 357 ध्यानके साधन ये तीनों हैं पर मोक्षका साधन शुक्लध्यानके चार भेदोंके नाम
3:8 प्रथम संहनन ही है इस बात का निर्देश 350 शुक्लध्यानके चारों भेदोंके स्वामी
358. एकाग्रचिन्तानिरोध पदकी व्याख्या 350 आदिके दो शुक्लध्यानोंमें विशेषताका कथन 358 चिन्तानिरोधको ध्यान कहनेसे आनेवाले
एकाश्रय पदका तात्पर्य
358 दोषका परिहार
350 दूसरा शुक्लध्यान अविचार है इस बातका ध्यान के चार भेद 351 निर्देश
359 आर्त आदि पदोंकी व्याख्या 351 वितर्क शब्दका अर्थ
359 चारों प्रकार के ध्यानों मेंसे प्रत्येकके दो दो वीचार पदकी व्याख्या भेद क्यों हैं इस बातका निर्देश
351 अर्थ, व्यंजन, योग और संक्रान्ति पदकी अन्तके दो ध्यान मोक्षके हेतु हैं 351 व्याख्या
359 पर शब्दसे अन्तके दो ध्यानोंका ग्रहण कैसे अर्थसंक्रान्तिका उदाहरण
359 होता है इस बात का निर्देश 351 व्यंजनसंक्रान्तिका प्रकार
359 आर्तध्यान के प्रथम भेदका लक्षण 352 योगसंक्रान्तिका प्रकार
359 अमनोज्ञ पदकी व्याख्या
352 मुनि पृथक्त्ववितर्क दीचारका ध्यान किस सिए आतध्यान द्वितीय भेदका लक्षण
352 और कब करता है इस बातका निर्देश 360 वेदना नामक आर्तध्यानका लक्षण 352 मुनि एकत्ववितर्कका ध्यान किस लिए और . वेदना पद की व्याख्या
352 कब करता है इस बातका निर्देश . 360 निवाम नामक आर्तध्यान का लक्षण 352 मुनि सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान किस लिए और चारों प्रकारके आर्तध्यानके स्वामी *353 कब करता है इस बातका निर्देश
360 अविरत आदि पदों की व्याख्या
353 मुनि व्युच्छिन्नक्रियानिवति ध्यान किस लिए अविरत आदि तीनोंके आदिके तीन ध्यान
और कब करता है इस बातका निर्देश 361 होते हैं किन्तु निदान प्रमत्तसंयतके नहीं
साक्षात् मोक्षका कारण क्या है इस बातका होता इस बातका निर्देश 353 निर्देश
361
359
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108]
सर्वार्थ सिद्धि
साक्षात् मोक्षका कारण मिलने पर मुनि मुक्त यत्नसाध्य अभाव किस क्रमसे होता है इस होता है इस बात का निर्देश 361 इस बातका निर्देश
368 दोनों प्रकारका तप संवरके साथ निर्जराका भी अन्य किन भावोंके अभावसे मोक्ष होता है कारण है इस बातका समर्थन . 361
370 किसके कितनी निर्जरा होती है
361 भव्यत्व पदको ग्रहण करनेका कारण 370 अधिकारी भेदसे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी
मोक्ष में किन भावोंका अभाव नहीं होता इस निर्जराका विशेष खुलासा 361 बातका निर्देश
370 निम्रन्थोंके पांच भेद
363 मोक्षमें अनन्त वीर्य आदि का सद्भावख्यापन 370 पुलाक आदि पदोंकी व्याख्या
363 मुक्त जीवों के आकार का शंका-समाधानपूर्वक ये पुलाकादि पाँचों किस अपेक्षासे निर्ग्रन्थ
प्रतिपादन
371 कहलाते हैं इसका कारण
363 मुक्त जीव लोकाकाश प्रमाण क्यों नहीं होता निर्ग्रन्थों में संयम आदिको अपेक्षा भेद कथन 364 इस बात का निर्देश
371 संयमकी अपेक्षा भेद कथन
364 मुक्त जीव के ऊपर लोकान्त गमनका निर्देश 371 श्रुतकी अपेक्षा भेद कथन
364 ऊपर लोकान्तगमनमें हेतुओं का निर्देश 371 प्रतिसेवनाकी अपेक्षा भेद कथन
364 दृष्टान्तों द्वारा हेतुओं का समर्थन 372 तीर्थकी अपेक्षा भेद कथन
365 हेतुपूर्वक दृष्टान्तों का विशेष स्पष्टीकरण 372 लिंगकी अपेक्षा भेद कथन
365 ऊपर लोकान्तसे आगे गमनन करने का कारण 373 लेश्याकी अपेक्षा भेद कथन
365 मुक्त जीवोंमें क्षेत्र आदिकी अपेक्षा भेद कथन 373 उपपादकी अपेक्षा भेद कथन
365 भेदकथन में दो नयोंका अवलम्बन स्थानकी अपेक्षा भेद कथन 365. क्षेत्र की अपेक्षा भेद कथन
373 कालकी अपेक्षा भेद कथन
373 दसवां अध्याय गतिकी अपेक्षा भेद कयन
373 केवलज्ञानकी उत्पत्तिके हेतु और कर्मक्षयका लिंग की अपेक्षा भेद कथन
373 क्रमनिर्देश 367 तीर्थकी अपेक्षा भेद कथन
374 मोहक्षयात पदको अलग रखनेका कारण 367 चारित्र की अपेक्षा भेद कथन
374 मोहका क्षय पहले क्यों और किस क्रमसे होता प्रत्येक बुद्धिबोधित की अपेक्षा भेद कथन है इस बात का निर्देश 367 ज्ञान की अपेक्षा भेदकथन
374 क्षीणकषाय जीवके शेष ज्ञानावरणादि कर्मोंका अवगाहन की अपेक्षा भेद कथन क्षय कब और किस क्रमसे होता है इस
अन्तर की अपेक्षा भेद कथन
374 बातका निर्देश 367 संख्या की अपेक्षा नेद कथन
374 कारणपूर्वक मोक्षका स्वरूप 368 क्षेत्रादिकी अपेक्षा अल्पबहुत्व
374 कर्मके अभावके दो भेद
368. सर्वार्थसिद्धि इस नाम की सार्थकता और किन कोका अयत्नसाध्य अभाव होता है इस महत्त्वप्रख्यापन
375 बातका निर्देश
368 वीरजिनकी स्तुति
373
374
374
375
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टिप्पणियों में उल्लिखित ग्रन्योंको संकेत-सूची
प्रत्यनाम
संकेत
ग्रन्थनाम
संकेत अने० ना० अ० आ. नि. आ० गो० क. गो० जी०
प्रवातिकाल प्रवचन० क्षे० प्रश० व्यो० बा० अणु बा० भा०
जी० चू जैनेन्द्र
त०
अनेकान्त नाममाला अन्य प्रति आचारांग नियुक्ति आरा प्रति गोम्मटसार कर्मकाण्ड गोम्मटसार जीवकाण्ट जीवाण चूलिका जैनेन्द्र व्याकरण ताडपत्रीय प्रति १ तत्त्वार्थवातिक दिल्ली प्रति १ दिल्ली प्रति २ धवला प्रति अभरारती ताडपत्रीय प्रति २ न्यायभाष्य न्यायबिन्दु टीका न्यायसूत्र परिभाषेन्दुशेखर परीक्षामुख
मूला मुलाचा० युक्त्य नु. यो०भा०
प्रमाणवातिकालंकार प्रवचनसार क्षेत्र प्रशस्तपादभाष्य व्योमवती टीका बारह अणुपेक्खा बार्हस्पत्य भाष्य मुद्रित प्रति (सर्वार्थसिद्धि) मूलाचार युक्त्यनुशासन योगभाष्य योगमूत्र रत्नकरण्डक विशेषावश्यक भाष्य विशद्धिमग्ग सन्मतितर्क समयप्राभूत सर्वार्थसिद्धि
तत्त्वा० दि०१ दि० २ धव०प्र० अ० ता. न्या० भा० न्यायबिन्दुटी०
योगसू
रत्न वि० भा० वि० म० सन्मति स०प्रा०
न्या०सू०
परिशेल प. मु. पा० पा०म०भा० पा० यो सू० पंच०
सर्वा० सिद्धद्वा० सौन्दर० सां०को०
सिद्धद्वात्रिंशत्का सौन्दरानन्द सांख्यकौमुदी
पातजल महाभाष्य पातञ्जल योगसूत्र पंचसंग्रह (श्वे.)
अध्याय
०००
पत्र पृष्ठ श्लोक
इलो
सू०
Page #120
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Page #121
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श्रीपूज्यपादाचार्यविरचिता सर्वार्थसिद्धिः
प्रथमोऽध्यायः मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
मातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥1॥ 1. कश्चिद् भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठः प्रज्ञावान् स्वहितगपलिप्सुविविक्ते परमरम्ये भव्यसत्त्वविश्रामास्पदे क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिषन्मध्ये संनिषण्णं मूर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुशलं परहितप्रतिपादनककार्यमार्यनिषेव्यं निन्थाचार्यवर्यमुपसच सविनयं परिपृच्छति स्म । भगवन्, किं नु ख
SMATERIAणादिति ? स आह मोक्ष इति ।स एव पुनः प्रत्याह-किस्वरूपोऽसौ मोक्षः कश्चास्य प्राप्त्युपाय इति ? आचार्य आह-निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्यावाषसुसमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति।
82. तस्यात्यन्तपरोक्षत्वाच्छन्मस्थाः प्रवादिनस्तीर्थकरंमन्यास्तस्य स्वरूपमस्पृशन्तीभिर्वाग्भिर्युक्त्याभासनिबन्धनाभिरन्यव परिकल्पयन्ति "चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्, तच्च श्रेया
जो मोक्षमार्गके नेता हैं, कर्मरूपी पर्वतोंके भेदनेवाले हैं और विश्वतत्त्वोंके ज्ञाता है, उनकी मैं उन समान गुणोंकी प्राप्तिके लिए द्रव्य और भाव उभयरूपसे वन्दना करता है ।
1. अपने हितको चाहनेवाला कोई एक बुद्धिमान् निकट भव्य था। वह अत्यन्त रमणीय भव्य जीवोंके विश्रामके योग्य किसी एकान्त आश्रममें गया। वहां उसने मुनियोंकी सभामें बैठे हुए वचन बोले बिना ही, मात्र अपने शरीरकी आकृतिसे मानो मूर्तिमान् मोक्षमार्गका निरूपण करनेवाले, युक्ति तथा आगममें कुशल, दूसरे जीवोंके हितका मुख्यरूपसे प्रतिपादन करनेवाले और आर्य पुरुषोंके द्वारा सेवनीय प्रधान निर्ग्रन्थ आचार्यके पास जाकर विनयके साथ पूछा-'भगवन् ! आत्माका हित क्या है ?' आचार्यने उत्तर दिया-'आत्माका हित मोक्ष है।' भव्यने फिर पूछा-'मोक्षका क्या स्वरूप है और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ?' आचार्यने कहा कि-~-'जब आत्मा भावकर्म द्रव्यकर्ममल कलंक और शरीरको अपनेसे सर्वथा जुदा कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं।'
82. वह (मोक्ष) अत्यन्त परोक्ष है, अत: अपनेको तीर्थंकर माननेवाले अल्पज्ञानी प्रवादी लोग मोक्षके स्वरूपको स्पर्श नहीं करनेवाले और असत्य युक्तिरूप वचनोंके द्वारा उसका स्वरूप सर्वथा अन्य प्रकारसे बतलाते हैं । यथा-(1. सांख्य) पुरुषका स्वरूप चैतन्य है जो ज्ञेयके 1. किं खलु आत्मने- आ., अ.। चि खलु आत्मनो- दि. 1, दि. 21 2. मोक्षः त- बा., अ., दि. 1 दि. 21 3. 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति'-योगमा. 1191 'तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्'-योगसू. 1131 4. स्वरूपमिति त- आ., त.।
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सर्वार्थसिद्धौ
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कारपरिच्छेदपराङ्मुखम्” इति । तत्सदप्यसदेव निराकारत्वादिति । "बुद्ध्यादिवैशेषिकगुणोच्छेदः पुरुषस्य मोक्षः" इति । तदपि परिकल्पनमसदेव, विशेषलक्षणशून्यस्यावस्तुत्वात् । "प्रदीपनिर्वाण' कल्पमात्मनिर्वाणम्" इति च । तस्य 'खरविषाणकल्पना तैरेवाहत्य निरूपिता । इत्येवमादि । तस्य स्वरूपमनवद्यमुत्तरत्र वक्ष्यामः ।
83. तत्प्राप्त्युपायं प्रत्यपि ते विसंवदन्ते - "ज्ञानादेव चारित्रनिरपेक्षा तत्प्राप्तिः, श्रद्धानमात्रादेव वा, ज्ञाननिरपेक्षाच्चारित्रमात्रादेव" इति च । व्याध्यभिभूतस्य तद्विनिवृत्त्यु पायभूतभेषजविषयव्यस्तज्ञानादिसाधनत्वाभाववद्' व्यस्तं ज्ञानादिर्मोक्षप्रात्युपायो न भवति ।
ज्ञानसे रहित है । किन्तु ऐसा चैतन्य सत्स्वरूप होकर भी असत् ही है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसका स्वपरव्यवसायलक्षण कोई आकार अर्थात् स्वरूप नहीं प्राप्त होता । ( 2. वैशेषिक) बुद्धि आदि विशेष गुणों का नाश हो जाना ही आत्माका मोक्ष है । किन्तु यह कल्पना भी असमीचीन है, क्योंकि विशेष लक्षणसे रहित वस्तु नहीं होती। (3. बौद्ध) जिस प्रकार दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार आत्माकी सन्तानका विच्छेद होना ही मोक्ष है । किन्तु जैसे गदहे सींग केवल कल्पनाके विषय होते हैं स्वरूपसत् नहीं होते वैसे ही इस प्रकारका मोक्ष भी केवल कल्पनाका विषय है स्वरूपसत् नहीं । यह बात स्वयं उन्हींके कथनसे सिद्ध हो जाती है । इत्यादि । इस मोक्षका निर्दोष स्वरूप आगे (दसवें अध्याय के सूत्र 2 में) कहेंगे ।
83. इसी प्रकार वे प्रवादी लोग उसकी प्राप्तिके विषय में भी विवाद करते हैं । कोई मानते हैं कि (1) चारित्रनिरपेक्ष ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। दूसरे मानते हैं कि (2) केवल श्रद्धानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है । तथा अन्य मानते हैं कि (3) ज्ञाननिरपेक्ष चारित्रसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है । परन्तु जिस प्रकार रोगके दूर करनेकी उपायभूत दवाईका मात्र ज्ञान, श्रद्धान या आचरण रोगीके रोगके दूर करनेका उपाय नहीं है उसी प्रकार अलग-अलग ज्ञान आदि मोक्षकी प्राप्तिके उपाय नहीं हैं ।
विशेषार्थ - अब तक जो कुछ बतलाया है यह तत्त्वार्थसूत्र और उसके प्रथम सूत्रकी उत्थानिका है । इसमें सर्व प्रथम जिस भव्यके निमित्तसे इसकी रचना हुई उसका निर्देश किया है। आशय यह है कि कोई एक भव्य आत्माके हितकी खोज में किसी एकान्त रम्य आश्रममें गया और वहाँ मुनियोंकी सभा में बैठे हुए निर्ग्रन्थाचार्यसे प्रश्न किया । इसपरसे इस तत्त्वार्थ सूत्र की रचना हुई है । तत्त्वार्थवार्तिक के प्रारम्भमें जो उत्थानिका दी है उससे भी इस बात की पुष्टि होती है । किन्तु वहाँ प्रथम सूत्रका निर्देश करनेके बाद एक दूसरे अभिप्रायका भी उल्लेख किया है । वहाँ बतलाया है कि तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाके सम्बन्धमें अन्य लोग इस प्रकारसे व्याख्यान करते हैं कि 'इधर पुरुषोंकी शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती जा रही है, अतः सिद्धान्तकी प्रक्रियाको प्रकट करनेके लिए मोक्षमार्ग के निर्देशके सम्बन्धसे आनुपूर्वी क्रमसे शास्त्रकी रचनाका प्रारम्भ करते हुए "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " यह सूत्र कहा है । यहाँ शिष्य और आचार्य1. मुखम् । तत्-- अ । 2. --- त्वात् खरविषाणवत् । वृद्धया मु. 3. 'नवानामात्म विशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः - प्रश. व्यो. पृ. 638 1 4. इति च । तदपि दि. 1 अ. 1 5. यस्मिन् न जातिनं जरा न मृत्युर्न व्याधयो नाप्रियसंप्रयोगः । नेच्छाविपन्नप्रियविप्रयोगः क्षेमं पदं नैष्ठिकमच्युतं तत् ॥ दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् । सौन्दर 16 27-29 । 'प्रदीपस्येव निर्वाणं विमोक्षस्तस्य चेतसः । ' - वार्तिकालं. 11451 6. -षाणवत्कल्पना-- आ., दि. 1 अ.मु. 7. -- वत् । एवं व्यस्तज्ञानादि
दि. 1, दि. 2 मु. 1
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प्रथमोऽध्यायः
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का सम्बन्ध विवक्षित नहीं है, किन्तु आचार्य की इच्छा संसारसागरमें निमग्न प्राणियों के उद्धार करने की हुई। परन्तु मोक्षमार्गके उपदेशके बिना उनके हितका उपदेश नहीं दिया जा सकता अतः मोक्षमार्गके व्याख्यानकी इच्छा से यह शास्त्र रचा गया। मालूम होता है कि इस उल्लेख द्वारा तत्त्वार्थवार्तिककारने तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकी उत्थानिका का निर्देश किया है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्यमें इसी आशयकी उत्थानिका पायी जाती है। श्रुतसागरसूरि ने भी अपनी श्रुतसागरी में यही बतलाया है कि किसी शिष्यके प्रश्नके अनुरोधसे आचार्यवर्यने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की। उसमें शिष्यका नाम द्वयाक दिया है। इससे मालूम होता है कि सर्वार्थसिद्धिका यह अभिप्राय मुख्य है कि शिष्य के प्रश्नके निमित्तसे तत्त्वार्थसूत्रकी रचना हुई है। आगे उत्थानिका में मोक्षकी चर्चा आ जाने से थोडेमें मोक्षतत्त्वकी मीमांसा की गयी है। नियम यह है कि कर्म के निमित्तसे होनेवाले कार्यों में आत्मा की एकत्व तथा इष्टानिष्ट बुद्धि होनेसे संसार होता है। अतः कर्म, भावकर्म और नोकर्मके आत्मासे अलग हो जाने पर जो आत्माकी अपने ज्ञानादि गुण और आत्मोत्थ अव्याबाध सुखरूप स्वाभाविक अवस्था प्राप्त होती है उसे मोक्ष कहते हैं यह सिद्ध होता है। किन्तु अन्य प्रवादी लोग इस प्रकारसे मोक्षतत्त्व का विश्लेषण करनेमें असमर्थ हैं। पूज्यपाद स्वामीने तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छ आचार्यके मुखसे ऐसे तीन उदाहरण उपस्थित कराये हैं जिनके द्वारा मोक्षतत्त्वका गलत तरीकेसे स्वरूप उपस्थित किया गया है। इस प्रसंगसे सर्व प्रथम सांख्यमतकी मीमांसा की गयी है। यद्यपि सांख्योंने आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीन प्रकारके दुःखोंका सदा के लिए दूर हो जाना मोक्ष माना है, तथापि वे आत्माको चैतन्य स्वरूप मानते हुए भी उसे ज्ञानरहित मानते हैं। उनकी मान्यता है कि ज्ञानधर्म प्रकृतिका है तो भी संसर्गसे पुरुष अपनेको ज्ञानवान् अनुभव करता है और प्रकृति अपनेको चेतन अनुभव करती है। इसी से यहाँ सांख्यों के मोक्षतत्त्व की आलोचना न करके पुरुषतत्त्व की आलोचना की गयी है और उसे असत् बतलाया गया है। दूसरा मत वैशेषिकों का है। वैशेषिकोंने ज्ञानादि विशेष गुणोंको समवायसम्बन्धसे यद्यपि आत्मा में स्वीकार किया है तथापि वे आत्मासे उनके उच्छेद हो जानेको उसकी मुक्ति मानते हैं। उनके यहाँ बतलाया है कि बुद्धि आदि विशेष गुणोंकी उत्पत्ति आत्मा और मनके संयोगरूप असमवायी कारणसे होती है। मोक्ष अवस्थामें चूँकि आत्मा और मनका संयोग नहीं रहता अतः वहाँ विशेष गुणोंका सर्वथा अभाव हो जाता है। उनके यहाँ सभी व्यापक द्रव्योंके विशेष गुण क्षणिक माने गये हैं, इसलिए वे मोक्षमें ज्ञानादि विशेष गुणोंका अभाव होने में आपत्ति नहीं समझते। अब यदि राग-द्वेष आदिकी तरह मुक्तावस्थामें आत्मा को ज्ञानादि गुणोंसे भी रहित मान लिया जाय तो आत्मा स्वतन्त्र पदार्थ नहीं ठहरता, क्योंकि जिसका किसी भी प्रकार का विशेष लक्षण नहीं पाया जाता वह वस्तु ही नहीं हो सकती। यही कारण है कि इनकी मान्यताको भी असत् बतलाया गया है। तीसरा मत बौद्धोंका है। बौद्धोंके यहाँ सोपधिशेष और निरुपधिशेष ये दो प्रकार के निर्वाण माने गये हैं। सोपधिशेष निर्वाणमें केवल अविद्या, तृष्णा आदि रूप आत्रवोंका ही नाश होता है, शुद्ध चित्सन्तति शेष रह जाती है। किन्तु निरुपधिशेष निर्वाणमें चित्सन्तति भी नष्ट हो जाती है। यहाँ मोक्षके इस दूसरे भेद को ध्यान में रखकर उसकी मीमांसा की गयी है। इस सम्बन्धमें बौद्धों का कहना है कि दीपकके बुझा देने पर जिस प्रकार वह ऊपर-नीचे दायें-बायें आगे-पीछे कहीं नहीं जाता किन्त वहीं शान्त हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा की सन्तानका अन्त हो जाना ही उसका मोक्ष है। इसके बाद आत्माकी सन्तान नहीं चलती, वह वहीं शान्त हो जाती है। बोद्धोंके इस तत्त्वकी मीमांसा करते हुए आचार्यने बतलाया है कि उनकी यह कल्पना असत् ही है।
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सर्वार्थसिद्धौ
[1118484. कि तहि ? तत् त्रितयं समुदितमित्याह
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥1॥ $5. सम्यगित्यव्युत्पन्नः शब्दो व्युत्पन्नो वा । अञ्चतेः क्वौ समञ्चतीति सम्यगिति। अस्यार्थः प्रशंसा । स प्रत्येक परिसमाप्यते । सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमिति। एतेषां स्वरूपं लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद्विस्तरेण निर्देक्ष्यामः । उद्देशमात्रं त्विदमुच्यते-पदार्थानां पाथात्म्यप्रतिपत्तिविषयश्रद्धानसंग्रहार्थ दर्शनस्य सम्यग्विशेषणम् । येन येन प्रकारेण जीवातयः पदार्था व्यवस्थिनास्तेन तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् । विमोहसंशयविपर्ययनिवृत्त्यर्थं सम्यविशेषणम् । संसारकारणनिवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः 'कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमः सम्यक्चारित्रम् । अज्ञानपूर्वकाचरणनिवृत्त्यर्थं सम्यग्विशेषणम् ।
6. पश्यति वृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम् । जानाति 'ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्रं वा
इस प्रकार थोडेमें मोक्ष तत्त्वकी मीमांसा करके आचार्यने अन्तमें उसके कारण तत्त्वकी मीमांसा की है। इस सिलसिलेमें केवल इतना ही लिखना है कि अधिकतर विविध मत वाले लोग ज्ञान, दर्शन और चारित्र इनमें से एक-एकके द्वारा ही मोक्षकी सिद्धि मानते हैं। क्या सांख्य, क्या बौद्ध और क्या वैशेषिक इन सबने तत्त्वज्ञान या विद्याको ही मुक्तिका मुख्य साधन माना है। भक्तिमार्ग या नामस्मरण यह श्रद्धाका प्रकारान्तर है । एक ऐसा भी प्रबल दल है जो केवल नामस्मरणको ही संसारसे तरनेका प्रधान साधन मानता है। यह दल इधर बहत अधिक जोर पकडता जा रहा है । अपने इष्ट का कीर्तन करना इसका प्रकारान्तर है। किन्तु जिस प्रकार रोगका निवारण केवल दवाईके दर्शन आदि एक-एक कारणसे नहीं हो सकता, उसी प्रकार मोक्षकी प्राप्ति भी एक-एकके द्वारा नहीं हो सकती। तो फिर मोक्षकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? यह प्रश्न शेष रहता है। इसी प्रश्नका उत्तर देनेके लिए आचार्यने प्रथम सूत्र रचा है। वे कहते हैं
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षका मार्ग है॥1॥
85. 'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढिक और व्युत्पन्न अर्थात् व्याकरणसिद्ध है। जब यह व्याकरणसे सिद्ध किया जाता है तब सम् उपसर्ग पूर्वक अञ्च् धातुसे क्विप् प्रत्यय करने पर 'सम्यक्' शब्द बनता है । संस्कृतमें इसकी व्युत्पत्ति 'समञ्चति इति सम्यक्' इस प्रकार होती है। प्रकृत में इसका अर्थ प्रशंसा है। इसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें से प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए । यथा-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । लक्षण और भेदके साथ इनका स्वरूप विस्तारसे आगे कहेंगे। नाममात्र यहाँ कहते हैं—पदार्थोंके यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धानका संग्रह करनेके लिए दर्शनके पहले सम्यक् विशेषण दिया है। जिस जिस प्रकारसे जीवादिक पदार्थ अवस्थित हैं उस उस प्रकारसे उनका जानना सम्यग्ज्ञान है । ज्ञानके पहले सम्यक् विशेषण विमोह (अनध्यवसाय), संशय और विपर्यय ज्ञानोंका निराकरण करनेके लिए दिया है। जो ज्ञानी पुरुष संसारके कारणोंको दूर करनेके लिए उद्यत है उसके कर्मोंके ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रियाके उपरम होनेको सम्यक्चारित्र कहते हैं । चारित्रके पहले 'सम्यक्' विशेषण अज्ञानपूर्वक आचरणके निराकरण करने के लिए दिया है। 1. -गिति। कोऽस्या- दि. 1। 2. -च्यते । पदार्थानां याथा. मु. 3. ज्ञानम्। अनध्यवसाय सं.मु.। 4. -दानमिति तत्कियो- दि, 2। 5. -षणम् । स्वयं पश्य- मु.। -षणम् । यस्मादिति पश्यदि, 1. दि.2। 6. -श्यतेऽनेनेति दृष्टि- मु.। 7. ज्ञाप्तिमात्र मु.। ज्ञानमात्र दि. 21
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प्रथमोऽध्यायः ज्ञानम् । चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् । नन्देवं स एव कर्ता स एव करणमित्यायातम् । तच्च विरुद्धम् । सत्यं, स्वपरिणामपरिणामिनो दविवक्षायां तथाभिधानात् । यथाग्निदहतीन्धनं दाहपरिणामेन । उक्तः कादिसाधनभावः पर्यायपर्याथिणोरेकत्वानेकत्वं प्रत्यनेकान्तोपपत्ती स्वातन्त्र्यपारतन्त्र्यविवक्षोपपत्तेरेकस्मिन्नप्यर्थे न विरुध्यते । अग्नौ दहनादिक्रियायाः कादिसाधनभाववत् ।
87. ज्ञानग्रहणमादौ न्याय्यं, दर्शनस्य तत्पूर्वकत्वात् अल्पाच्तरत्वाच्च । नेतद्युक्तं, युगपदुत्पत्तेः । यदास्य दर्शनमोहस्योपशमारक्षयात्क्षयोपशमाद्वा आत्मा सम्यग्दर्शनपर्यायेणाविर्भवति तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रुताज्ञाननिवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं चाविर्भवति घनपटलविंगगे सवितुः प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् । अल्पान्तरादहितं पूर्व निपतति । कथमभ्यहितत्वम् ? ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतृत्वात् । चारित्रात्पूर्व ज्ञानं प्रयुक्तं, तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रस्य ।
$6. दर्शन, ज्ञान और चारित्रका व्युत्पत्यर्थ- दर्शन शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है'पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्'-जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखनामात्र । ज्ञान शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है--जानाति ज्ञायते अनेन ज्ञप्तिमात्र वा ज्ञानम--जो जाता है, जिसके द्वारा जाना जाता है या जानना मात्र । चारित्र शब्दका व्युत्पत्तिलक्ष्य अर्थ है.--चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम्--जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आच'ए किया जाता है या आचरण करना मात्र । शंका-दर्शन आदि शब्दोंकी इस प्रकार व्युत्पत्ति कर पर कर्ता और करण एक हो जाता है किन्तु यह बात विरुद्ध है ? समाधान --- यद्यपि यह कहन सही है तथापि स्वपरिणाम और परिणामीमें भेदकी विवक्षा होनेपर उक्त प्रकारसे कथन किया गया हैं । जैसे 'अग्नि दाह परिणामके द्वारा ईंधनको जलाती है यह कथन भेदविवक्षाके होनेपर ही बनता है। यहाँ च कि पर्याय और पर्यायीमें एकत्व और अनेकत्वके प्रति अनेकान्त है, अत: स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य विवक्षाके होनेसे एक ही पदार्थमें पूर्वोक्त कर्ता आदि साधनभाव विरोधको प्राप्त नहीं होता। जैसे कि अग्निसे दहन आदि क्रियाकी अपेक्षा कर्ता आदि साधनभाव बन जाता है, वैसे ही प्रकृतमें जानना चाहिए।
7. शंका--सूत्रमें पहले ज्ञानका ग्रहण करना उचित है, क्योंकि एक तो दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है और दूसरे ज्ञानमें दर्शन शब्दकी अपेक्षा कम अक्षर हैं ? समाधान-यह कहना युक्त नहीं कि दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है इसलिए सूत्रमें ज्ञानको पहले ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं । जैसे मेघ-पटलके दूर हो जाने पर सूर्यके प्रताप और प्रकाश एक साथ व्यक्त होते हैं, उसी प्रकार जिस समय दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेसे आत्मा सम्यग्दर्शन पर्यायसे आविर्भूत होता है उसी समय उसके मत्यज्ञान और श्रताज्ञान का निराकरण होकर मतिज्ञान और श्रतज्ञान प्रकट होते हैं। दसरे. ऐसा नियम है कि सुत्रमें अस्प अक्षरवाले शब्दसे पूज्य शब्द पहले रखा जाता है, अतः पहले ज्ञान शब्दको न रखकर दर्शन शब्दको रखा है। शंका-सम्यग्दर्शन पुज्य क्यों है ? समाधान--क्योंकि सम्यग्दर्शन. ज्ञानके सम्यक् व्यपदेशका हेतु है। चारित्र के पहले ज्ञान का प्रयोग किया है, क्योंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है। 1. -रित्रम्। उक्त: कर्ना- आ., ता. न.! 2. कादिभिः सा- मु.। 3. 'अल्पान्तरम् ।'---पा. 212134। 4. -टलविरामे स- आ., अ., दि. 1, दि. 21 5. 'अभ्यहितं च पूर्व निपततीति । .-पा. म. भा. 21212134।।
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सर्वार्थसिद्धौ
[112 88$8. सर्वकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः। तत्प्राप्त्युपायो मार्गः । मार्ग इति चैकवचननिर्देशः समस्तस्य मार्गभावज्ञापनार्थः । तेन व्यस्तस्य मार्गत्वनिवृत्तिः कृता भवति । अतः सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमित्येतत् त्रितयं समुवितं मोक्षस्य साक्षान्मार्गो वेदितव्यः । - 8 9. तत्रादावुद्दिष्टस्य सम्यग्दर्शनस्य लक्षणनिर्देशार्थमिदमुच्यते
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥2॥ $10. तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची। कथम् ? तदिति सर्वनामपदम्। सर्वनाम च सामान्ये वर्तते । तस्य भावस्तत्वम् । तस्य कस्य ? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः । अर्यत
8. सब कर्मोका जुदा होना मोक्ष है और उसकी प्राप्तिका उपाय मार्ग है। सूत्रमें 'मार्गः' इस प्रकार जो एकवचन रूपसे निर्देश किया है वह, सब मिलकर मोक्षमार्ग है, इस बातके जतानेके लिए किया है। इससे प्रत्येकमें मार्गपन है इस बातका निराकरण हो जाता है। अत: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तोनों मिलकर मोक्षका साक्षात् मार्ग है ऐसा जानना चाहिए।
विशेषार्थ-पूर्व प्रतिज्ञानुसार इस सूत्रमें मोक्षमार्गका निर्देश किया गया है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षका साक्षात् मार्ग हैं यह इस सूत्र का तात्पर्य है। सूत्रकी व्याख्या करते हुए सर्वार्थसिद्धि में मुख्यतया पाँच विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है जो इस प्रकार हैं-1. दर्शन आदिके पहले 'सम्यक्' विशेषण देनेका कारण । 2. दर्शन आदि शब्दों का व्युत्पत्त्यर्थ । 3. एक ही पदार्थ अपेक्षाभेदसे कर्ता और करण कैसे होता है इसका निर्देश । 4 सूत्रमें सर्व प्रथम दर्शन, तदनन्तर ज्ञान और अन्तमें चारित्र शब्द क्यों रखा है इसका कारण । 5. सूत्र में 'मोक्षमार्गः' यह एकवचन रखने का कारण । तीसरी विशेषताको स्पष्ट करते हुए जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि जैन शासनमें पर्याय-पर्यायीमें सर्वथा भेद न मानकर कचित् भेद और कथंचित् अभेद माना गया है इसलिए अभेद विवक्षाके होनेपर कर्ता साधन बन जाता है और भेद विवक्षाके होनेपर करण साधन बन जाता है। आशय यह है कि जब अभेद विवक्षित होता है तब आत्मा स्वयं ज्ञानादि रूप प्राप्त होता है और जब भेद विवक्षित होता है तब आत्मासे ज्ञान आदि भिन्न प्राप्त होते हैं। चौथी विशेषताको स्पष्ट करते हुए जो यह लिखा है कि जिस समय दर्शनमोहका उपशम, क्षय और क्षयोपशम होकर आत्माकी सम्यग्दर्शन पर्याय व्यक्त होती है उसी समय उसके मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानका निराकरण होकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रकट होते हैं। सो यह आपेक्षिक वचन है। वैसे तो दर्शनमोहनीयका क्षय सम्यग्दृष्टि ही करता है मिथ्यादृष्टि नहीं, अतः दर्शनमोहनीयके क्षपणाके समय मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानके सद्भाव का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय इस जीवके मतिज्ञान और श्रतज्ञान ही पाये जाते हैं। इसी प्रकार जो सम्यग्दष्टि जीव वेदकसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है उसके भी यही क्रम जान लेना चाहिए। शेष व्याख्यान सुगम है।
9. अब आदिमें कहे गये सम्यग्दर्शनके लक्षणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अपने अपने स्वरूपके अनुसार पदार्थोका जो श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन है ॥2॥
$10. तत्त्व शब्द भाव सामान्यका वाचक है, क्योंकि 'तत्' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थमें रहता है अतः उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहाँ 'तत्' पदसे कोई भी 1. समस्तमार्ग- आ., दि. 1, दि. 2। 2. किं पुनस्तत्त्वम् । तद्भावस्तत्त्वम् । पा. म. भा. पृ. 59 । 3. अर्थ्यते-आ. दि. 21 .
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प्रथमोऽध्यायः इत्पर्यो निश्चीयत इति यावत् । तत्वेनार्थस्तत्त्वार्थः । अथवा भावेन भाववतोऽभिधानम्, तदव्यतिरेकात् । तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः । तत्त्वार्थस्य श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं प्रत्येतव्यम् । तस्वार्षश्च वक्षमाणो जीवादिः ।।
$11. वृशेरालोकार्थत्वात् श्रद्धानार्थगतिर्नोपपद्यते ? घातूनामनेकार्थत्वाददोषः । प्रसिद्धार्थत्यागः कुत इति चेत् ? मोक्षमार्गप्रकरणात् । तत्त्वार्थश्रद्धानं ह्यात्मपरिणामो मोक्षसाधनं बुज्यते, भव्यजीवविषयत्वात् । आलोकस्तु चक्षुरादिनिमित्तः सर्वसंसारिजीवसाधारणत्वान्न मोक्षमार्गों युक्तः।
12. अर्थश्रद्धानमिति चेत् ? सर्वार्थप्रसंगः । तत्त्वश्रद्धानमिति चेत् ? भावमात्रप्रसंगः । 'सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादि तत्त्वम्' इति कैश्चित्कल्प्यत इति । तत्वमेकत्वमिति वा सर्वैक्यप्रणप्रसंगः । 'पुरुष एवेदं सर्वम्' इत्यादि कश्चित्कल्प्यत इति । एवं सति दृष्टेष्टविरोधः । तस्मादव्यभिचारार्थमुभयोरुपादानम् । तद् द्विविध, सरागवीतरागविषयभेदात् प्रशमसंवेगानु. कम्पास्तिक्याघभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् । आत्मविशुद्धिमात्रमितरत् । पदार्थ लिया गया है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूपसे अवस्थित है उसका उस रूप होना यही तत्त्व शब्दका अर्थ है। अर्थ शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है...अर्यते निश्चीयते इत्यर्थ:-जो निश्चय किया जाता है। यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्दोंके संयोगसे तत्त्वार्थ शब्द बना है जो 'तत्त्वेन अर्थस्तत्वार्थः' ऐसा समास करने पर प्राप्त होता है। अथवा भाव-द्वारा भाववाले पदार्थ का कथन किया जाता है, क्योंकि भाव भाववाले से अलग नहीं पाया जाता। ऐसी हालतमें इसका समास होगा 'तत्त्वमेव अर्थः तत्त्वार्थः । तत्त्वार्थका श्रद्धान तत्त्वार्थश्रद्धान कहलाता है। उसे ही सम्यग्दर्शन जानना चाहिए।
11. शंका-दर्शन शब्द 'दृशि' धातुसे बना है जिसका अर्थ आलोक है, अतः इससे धद्वानरूप अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है ? समाधान-धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं, अत: 'दृशि' धातुका श्रद्धानरूप अर्थ करने में कोई दोष नहीं है। शंका-यहां 'दशि' धातुका प्रसिद्ध अर्थ क्यों छोड़ दिया है ? समाधान-मोक्षमार्गका प्रकरण होने से । तत्त्वार्थोका श्रद्धान आत्माका परिणाम है वह मोक्षका साधन बन जाता है, क्योंकि वह भव्योंके ही पाया जाता है, किन्तु आलोक चक्ष आदिके निमित्तसे होता है जो साधारण रूपसे सब संसारी जीवोंके पाया जाता है, अत: उसे मोक्षमार्ग मानना युक्त नहीं है।
12. शंका-सूत्रमें 'तत्त्वार्थश्रद्धानम्' के स्थान में 'अर्थश्रद्धानम' इतना कहना पर्याप्त है? समाधान-इससे अर्थ शब्दके धन, प्रयोजन और अभिधेय आदि जितने भी अर्थ हैं उन सबके ग्रहणका प्रसंग आता है जो युक्त गहीं है, अत: 'अर्थश्रद्धानम्' केवल इतना नहीं कहा है । शंकातब 'तस्वश्रद्धानम्' इतना ही ग्रहण करना चाहिए ? समाधान—इससे केवल भाव मात्र के ग्रहणका प्रसंग प्राप्त होता है । कितने ही लोग (वैशेषिक) तत्त्व पदसे सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व इत्यादि का ग्रहण करते हैं। अब यदि सूत्रमें 'तत्त्वश्रद्धानम्' इतना ही रहने दिया जाता है तो इससे इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है जो युक्त नहीं है । अथवा तस्व शब्द एकत्ववाची है, इसलिए सूत्रमें केवल तत्त्व पदके रखने से 'सब सर्वथा एक हैं' इस प्रकार स्वीकार करनेका प्रसंग प्राप्त होता है । यह सब दृश्य व अदृश्य जग पुरुषस्वरूप ही है' ऐसा किव्हींने माना भी है। किन्तु ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष और अनुमानसे विरोध आता है, अतः इन सब दोषोंके दूर करने के लिए सूत्रमें 'तत्त्व' और 'अर्थ' इन दोनों पदोंका ग्रहण किया है। सम्मादर्शन दो प्रकार का है-सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन। प्रशम, संवेग,
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अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति लक्षणवाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्माकी विशुद्धिमात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है !
विशेषार्थ -- इस सूत्र में सम्यग्दर्शनके लक्षणका निर्देश करते हुए बतलाया है कि जीवादि पदार्थोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए टीका में मुख्यतया चार बातोंको स्पष्ट किया गया है। वे चार बातें ये हैं- ( 1 ) तत्त्व और अर्थ शब्दके निरुक्त्यर्थ का निर्देश करके तत्त्वार्थ शब्द कैसे निष्पन्न हुआ है ? (2) 'दृशि' धातुका अर्थ श्रद्धान करना क्यों लिया गया है ? ( 3 ) तत्त्व और अर्थ इन दोनों पदोंको स्वीकार करनेसे क्या लाभ है ? (4). सम्यग्दर्शनके कितने भेद हैं और उनका क्या स्वरूप है ? प्रकृतमें यद्यपि 'तत्' सर्वनाम पद है और 'त्व' प्रत्यय भाव अर्थ में आया है, अतः 'तत्त्व' शब्द भाव सामान्यका वाचक है और अर्थपद द्रव्यवाची है । तथापि अर्थ शब्द के धन, प्रयोजन, अभिधेय, निवृत्ति, विषय, प्रकार और वस्तु आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं, अतः इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन न कहलावे, इसलिए तो सूत्रकारने सूत्र में केवल अर्थपद नहीं रखा है। इसी प्रकार विभिन्न मतोंमें तत्त्व शब्दके भी अनेक अर्थ प्रसिद्ध हैं । वैशेषिक लोग 'तत्त्व' पदसे सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्वका ग्रहण करते हैं । उनके यहाँ सामान्य और विशेष ये दोनों स्वतन्त्र पदार्थ माने गये हैं । अब यदि सूत्र में केवल 'तत्त्व' पद रखा जाता है तो सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व इनका श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन समझा जा सकता है जो युक्त नहीं है, इसलिए सूत्रकारने सूत्रमें केवल तत्त्वपद नहीं रखा है। इसी प्रकार परमब्रह्मवादियोंने नाना तत्त्वोंको न मानकर ब्रह्मनामका एक ही तत्त्व माना है । उनके मतसे यह जग एक पुरुषरूप ही है, इसलिए इस हिसाब से विचार करनेपर 'तत्व' पद एक ब्रह्मका वाची प्राप्त होता है जो युक्त नहीं है, इसलिए भी सूत्रकारने सूत्र में केवल तत्त्वपद नहीं रखा है । यहाँ तत्त्वार्थसे जीवादिक वे सब पदार्थ लिये गये हैं जिनका आगे चौथे सूत्र में वर्णन किया है। परमार्थरूप का श्रद्धात करना सम्यग्दर्शन है यह इस सूत्रका तात्पर्य है । सम्यग्दर्शनमें दर्शन शब्द आया है। उसका एक अर्थ आलोक होता है तथापि यहाँ इसका श्रद्धान अर्थ लिया गया है, क्योंकि दर्शनका जालोक अर्थ लेनेपर चक्षु आदि निि
नेके कारण वह चक्षुरिन्द्रिय आदि सब संसारी जीवोंके प्राप्त होता है, अतः प्रकृतमें वह उपयो नही ठहरता । किन्तु स्वार्थ विषयक श्रद्धान भव्यों में भी किसी-किसी आसन्नभव्यके ही प जाता है जो प्रकृतमें उपयोगी है, अतः यहाँ दर्शनका अर्थ आलोक न करके श्रद्धान किया है आशय यह है कि जीवादि नौ पदार्थोमं भूतार्थरूपसे एक त्रिकालोअखण्डआत्मा ही प्रयोतित हो रहा है, अतः ऐसे निजात्माकी अनुभूति ही सम्यग्दर्शन हैं । प्रत्येक आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है, अतः ज्ञानानुभूति ही आत्मानुभूति है और वही सम्यग्दर्शन है यह इसका भाव है। प्रत सम्यग्दर्शनके जो दो भेद किये गये हैं-एक सराय सम्यग्दर्शन और दूसरा वीतराग सम्यग्दर्शन सो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये बात ऐसे विल हैं जो आत्मविशुद्धिरूप परमार्थ सम्यग्दर्शन के ज्ञापक हैं। इसलिए इस अपेक्षा व्यवहार से इन्हें भी सम्यग्दर्शन है । किन्तु इसे जो परमार्थस्वरूप जानते हैं यह उनकी भूल है। नियम यह है कि जिलनी सम्यग्दर्शनादि स्वभावपर्याय होती हैं, वे मात्र स्वत. सिद्ध, अनादि-अनन्त, कर्म से होने के कारण नित्य उद्योतस्वरूप और विशद ज्योतिज्ञापक आत्माका अपने उपयोगक अवलम्बन लेनेसे ही उत्पन्न होती हैं । इसीलिए भूलमें सम्यग्दर्शनरूप स्वभावपर्यायको आत्मविशुद्धिमात्र कहा है, क्योंकि यह मिथ्यात्व आदि कर्मोके उदयमें न होकर उनके उपशम, क्षय और क्षयोपशमके होने पर ही होता है। इतना अवश्य है कि यह सम्यग्दर्शन चौथे आदि गुणस्थानों में भी पाया जाता है, अतः इसके सद्भावमें जो पराश्रित प्रशमादि भाव होते हैं
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प्रथमोऽध्यायः 13. अपतत्सम्यग्दर्शनं जीवाविपदार्थविषयं कथमुत्पद्यत इत्यत आह
तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥3॥ 814. निसर्गः स्वभाव इत्यर्थः । अधिगमोऽर्थावबोधः। तयोर्हेतुत्वेन निर्देशः। कस्याः ? क्रियायाः।का च क्रिया ? उत्पद्यत इत्यध्याह्रियते, सोपस्कारत्वात् सूत्राणाम् । तदेतत्सम्यग्दर्शनं निसर्गादधिगमाद्वोत्पद्यत इति ।
15. अत्राह-निसर्गजे सम्यग्दर्शनेाधिगमः स्याद्वा न वा । यद्यस्ति, तदपि.अधिगमजमेव नार्थान्तरम् । अथ नास्ति, कथमनवबुद्धतत्त्वस्यार्थश्रद्धानमिति ? नैष दोषः, उभयत्र सम्यग्दर्शने अन्तरङ्गो हेतुस्तुल्यो दर्शनमोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा। तस्मिन्सति यद्बाह्योपदेशावृत्त प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् । यत्परोपदेशपूर्वकं जीवाद्यधिगमनिमित्तं तदुत्तरम् । इत्यनयोरयं भेदः।
616. तद्ग्रहणं किमर्थम् ? अनन्तरनिर्देशार्थम् । अनन्तरं सम्यग्दर्शनं तदित्यनेन वे इसके ज्ञापक या सूचक होने से निमित्तपनेकी अपेक्षा कारणमें कार्य का उपचार करके इन्हें. व्यवहारसे सराग सम्यग्दर्शन कहा गया है। रागादिकी तीव्रताका न होना प्रशमभाव है। संसारसे भीतरूप परिणाम का होना संवेगभाव है । सब जीवों में दयाभाव रख कर प्रवृत्ति करना अनुकम्पा है और जीवादिपदार्थ सत्स्वरूप हैं, लोक अनादि अनिधन है, इसका कर्ता कोई नहीं है तथा निमित्त-नैमित्तिक भावके रहते हुए भी अपने परिणामस्वभाव के कारण सबका परिणमन स्वयं होता है, आगम और सद्गुरुके उपदेशानुसार ऐसी प्रांजल बुद्धिका होना आस्तिक्यभाव है।
13. अब जोवादि पदार्थोंको विषय करनेवाला यह सम्यग्दर्शन किस प्रकार उत्पन्न होता है इस बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वह (सम्यग्दर्शन) निसर्गसे और अधिगमसे उत्पन्न होता है ॥3॥
14. निसर्गका अर्थ स्वभाव है और अधिगमका अर्थ पदार्थका ज्ञान है। सूत्रमें इन दोनोंका हेतरूपसे निर्देश किया है। शंका-इन दोनोंका किसके हेतरूपसे निर्देश किया है? समाधान-क्रियाके । शंका-वह कौन-सी क्रिया है ? समाधान–'उत्पन्न होता है' यह क्रिया है । यद्यपि इसका उल्लेख सूत्रमें नहीं किया है तथापि इसका अध्याहार कर लेना चाहिए, क्योंकि सूत्र उपस्कार सहित होते हैं । यह सम्यग्दर्शन निसर्गसे और अधिगमसे उत्पन्न होता है यह इस सूत्रका तात्पर्य है।
15. शंका-निसर्गज सम्यग्दर्शनमें पदार्थोंका ज्ञान होता है या नहीं। यदि होता है तो वह भी अधिगमज ही हुआ,उससे भिन्न नहीं । यदि नहीं होता है तो जिसने पदार्थोंको नहीं जाना है उसे उनका श्रद्धान कैसे हो सकता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि दोनों सम्यग्दर्शनोंमें दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशमरूप अन्तरंग कारण समान है। इसके रहते हुए जो बाह्य उपदेशके बिना होता है वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है और जो बाह्य उपदेशपूर्वक जीवादि पदार्थों के ज्ञानके निमित्तसे होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है । यही इन दोनों में भेद है।
16. शंका-सूत्रमें 'तत्' पदका ग्रहण किसलिए किया है ? समाधान-इस सूत्रसे पूर्वके सूत्र में सम्यग्दर्शन का ग्रहण किया है उसीका निर्देश करनेके लिए यहाँ 'तत्' पदका ग्रहण 1.-षयं तत् कथं- आ., दि. 1, दि. 21 2. तदेव सम्य-आ., दि. 1, दि. 2, अ.। 3.-मित्तं स्यात
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सर्वार्थसिद्धौ
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निर्दिश्यते । इतरथा मोक्षमार्गोऽपि प्रकृतस्तस्याभिसंबन्धः स्यात् । ननु च 'अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा' इत्यनन्तरस्य सम्यग्दर्शनस्य ग्रहणं सिद्धमिति' चेत् ? न, 'प्रत्यासत्तेः प्रधानं बलीय:' इति मोक्षमार्ग एव संबध्येत । तस्मात्तद्वचनं क्रियते ।
17. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमित्युक्तम् । अथ कि तत्त्वमित्यत इदमाह जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ||4||
किया है | अन्तरवर्ती सूत्र में सम्यग्दर्शनका ही उल्लेख किया है उसे ही यहाँ 'तत्' इस पद द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। यदि 'तत्' पद न देते तो मोक्षमार्गका प्रकरण होनेसे उसका यहाँ ग्रहण हो जाता । शंका 'अगले सूत्रमें जो विधि-निषेध किया जाता है वह अव्यवहित पूर्वका ही समझा जाता है' इस नियम के अनुसार अनन्तरवर्ती सूत्रमें कहे गये सम्यग्दर्शनका ग्रहण स्वतःसिद्ध है, अतः सूत्रमें 'तत्' पद देनेकी आवश्यकता नहीं है ? समाधान नहीं, क्योंकि 'समीपवर्तीसे प्रधान बलवान् होता है' इस नियमके अनुसार यहाँ मोक्षमार्गका ही ग्रहण होता । किन्तु यह बात इष्ट नहीं है अतः सूत्रमें 'तत्' पद दिया है ।
विशेषार्थ - इस सूत्र में सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके निमित्तोंपर विचार किया गया है। आगममें पाँच लब्धियोंमें एक देशना लब्धि बतलायी है। जिस जीवने वर्तमान पर्याय में या पूर्व पर्याय में कभी भी जीवादि पदार्थविषयक उपदेश बुद्धिपूर्वक नहीं स्वीकार किया है उसे सम्यदर्शनकी प्राप्ति नहीं हो सकती । किन्तु जिस जीवको इस प्रकारके उपदेशका योग बन गया है उसे तत्काल या कालान्तर में सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है । यहाँ इसी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनके दो भेद किये गये हैं । जो सम्यग्दर्शन वर्तमान में उपदेशके निमित्तसे होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है और जो वर्तमान में बिना उपदेशके होता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है यह इस सूत्रका भाव है । यद्यपि अधिगम शब्दका अर्थ ज्ञान है तथापि प्रकृतमें इसका अर्थ परोपदेशपूर्वक होनेवाला ज्ञान लेना चाहिए । इसीसे निसर्ग शब्दका अर्थ 'परोपदेश के बिना' फलित हो जाता है । यद्यपि इन दोनों सम्यग्दर्शनोंमें दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षमोपशमरूप अन्तरंग कारण समान है, तथापि बाह्य उपदेश और अनुपदेशकी अपेक्षा इन दोनोंमें भेद है । यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन जब कि केवली और श्रुतकेवलीके पादमूलमें ही होता है तब उसमें सम्यग्दर्शनका निसर्गज भेद न घटकर केवल अधिगमज यही भेद घट सकता है, फिर क्या कारण है कि टीकामें अन्तरंग कारणोंका निर्देश करते समय उपशम और क्षयोपशमके साथ क्षयका भी निर्देश किया है। सो इस शंकाका समाधान यह हैं कि दूसरे और तीसरे नरकसे आकर जो जीव तीर्थंकर होते हैं उनके लिए क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति में परोपदेशकी आवश्यकता नहीं होती, किन्तु परोपदेश के बिना ही उनके क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती हुई देखी जाती है, अतः क्षायिक सम्यग्दर्शनमें भी निसर्गज और अधिगमज ये दो भेद घट जाते हैं । यही कारण है कि प्रकृतमें तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंको निसर्गज और अधिगमजके भेदसे दो-दो प्रकारका बतलाया है ।
817 जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान करना सम्यग्दशन है यह पहले कह आये हैं । अब तत्व कौन-कौन हैं इस बातके बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व हैं ॥4॥
1. 'अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वेति । पा. म. भा. पृ. 335। परि. शे. पृ. 380 2. सिद्ध प्रत्या-- दि. 1, दि. 2, आ, अ. ।
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-114 § 19]
प्रथमोऽध्यायः
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8 18. तत्र चेतनालक्षणो जीवः । सा च ज्ञानादिभेदादनेकधा भिद्यते । तद्विपर्ययलक्षणोsourceः । शुभाशुभकर्मागमद्वाररूप आस्रवः । आत्मकर्मणोरन्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मक बन्धः । आखनिरोधलक्षणः संवरः । एकदेशकर्म संक्षयलक्षणा निर्जरा । कृत्स्नकर्म वियोगलक्षणो मोक्षः । एषां प्रपञ्च उत्तरत्र वक्ष्यते । सर्वस्य फलस्यात्माधीनत्वादादी जीवग्रहणम् । तदुपकारार्थत्वात्तवनन्तरमजीवाभिधानम् । तदुभयविषयत्वात्तदनन्तरमात्रवग्रहणम् । तत्पूर्वकत्वा तदनन्तरं बन्धाभिषानम् । संवृतस्य बन्धाभावात्तत्प्रत्यनीकप्रतिपत्यये तदनन्तरं संवरवचनम् । संवरे सति निर्जरोपपतेस्तदन्तिके निर्जरावचनम् । अन्ते प्राप्यत्वान्मोक्षस्यान्ते वचनम् ।
$ 19. इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम् । 'नव पदार्थाः' ' इत्यन्यैरप्युक्तत्वात् । न 'कर्त्तव्यम्, वे बन्धे चान्तर्भावात् । यद्येवमात्रवादिग्रहणमनर्थक, जीवाजीवयोरन्तर्भावात् । नानर्थकम् । इह मोक्षः प्रकृतः । सोऽवश्यं निर्देष्टव्यः । स च संसारपूर्वकः । संसारस्य प्रधान हेतुरात्रवो arave | मोक्षस्य प्रधानहेतुः संवरो निर्जरा च । अतः प्रधानहेतुहेतुमत्फलनिदर्शनार्थत्वात्पृथगुपदेशः कृतः । दृश्यते हि सामान्येऽन्तर्भूतस्यापि विशेषस्य पृथगुपादानं प्रयोजनार्थम् । 'क्षत्रिया आयाताः सूरजमst' इति ।
$ 18. इनमें से जीवका लक्षण चेतना है जो ज्ञानादिकके भेदसे अनेक प्रकारकी है। जीवसे विपरीत लक्षणवाला अजीव है। शुभ और अशुभ कर्मोके आनेके द्वार रूप आस्रव है । आत्मा और कर्मके प्रदेशोंका परस्पर मिल जाना बन्ध है । आस्रवका रोकना संबर है। कर्मोंका एकदेश अलग होना निर्जरा है और सब कर्मोंका आत्मासे अलग हो जाना मोक्ष है । इनका विस्तार से वर्णन आगे करेंगे। सब फल जीवको मिलता है, अतः सूत्रके प्रारम्भ में जीवका ग्रहण किया है। अजीव जीवका उपकारी है यह दिखलाने के लिए जीवके बाद अजीवका कथन किया है । आस्रव जीव और अजीव दोनोंको विषय करता है अतः इन दोनोंके बाद आस्रवका ग्रहण किया है । बन्ध आस्रव पूर्वक होता है, इसलिए आवके बाद बन्धका कथन किया है। संवत shah बन्ध नहीं होता, अतः संवर बन्धका उलटा हुआ इस बातका ज्ञान करानेके लिए के बाद संवरका कथन किया है। संवरके होनेपर निर्जरा होती है, इसलिए संवरके पास निजरा कही है। मोक्ष अन्त में प्राप्त होता है, इसलिए उसका अन्तमें कथन किया है।
819. शंका-सूत्र में पुण्य और पापका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पदार्थ नौ हैं ऐसा दूसरे आचार्योंने भी कथन किया !! समाधान-पुण्य और पापका ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका आस्रव और बन्धमें अन्तर्भाव हो जाता है। शंका-यदि ऐसा है तो सूत्रमें अलग से आस्रव आदिका ग्रहण करना निरर्थक है, क्योंकि उनका जीव और अजीव में अन्तर्भाव हो जाता है । समाधान —आस्रव आदिका ग्रहण करना निरर्थक नहीं है, क्योंकि यहाँ मोक्षका प्रकरण है इसलिए उसका कथन करना आवश्यक है । वह संसारपूर्वक होता है और संसारके प्रधान कारण आसव और बन्ध तथा मोक्षके प्रधान कारण संबर और निर्जरा हैं, अतः प्रधान हेतु, हेतुवाले और उनके फलके दिखलानेके लिए अलग-अलग उपदेश किया है। देखा भी जाता है कि किसी विशेषका सामान्य में अन्तर्भाव हो जाता है तो भी प्रयोजनके अनुसार उसका अलगसे ग्रहण किया जाता है । जैसे क्षत्रिय आये हैं और सूरवर्मा भी । यहाँ यद्यपि सूरवर्माका क्षत्रियोंमें अन्तर्भाव हो जाता है तो भी प्रयोजनके अनुसार उसका अलगसे ग्रहण किया है। इसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए।
1. जीनः । स च आ. दि. 2 । 2. विप्रयोग-- मु. । मंच कत- मु.1 5. कुन्दकुन्दाद्ये 16
3. -- त्यर्थं संवर-- आ., दि. 1, दि. 2 अ. । 4. व्यं योरास - मु. 17. -- षस्य यथोपयोगं पृथ - मु. ।
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सर्वार्थसिद्धौ
[114 § 20
8 20. तत्त्वशब्दो भाववाचीत्युक्तः । स कथं जीवादिभिर्द्रव्यवचनैः सामानाधिकरण्यं प्रतिपद्यते ? अव्यतिरेकात्तद्भावाध्यारोपाच्च सामानाधिकरण्यं भवति । यथा 'उपयोग एवात्मा' इति । यद्येवं तत्तल्लिङ्गसंख्यानुवृत्तिः प्राप्नोति ? "विशेषणविशेष्यसंबन्धे सत्यपि शब्दशक्ति-व्यपेक्षया उपात्तलिङ्ग-संख्याव्यतिक्रमो न भवति । अयं क्रम आदिसूत्रेऽपि योज्यः ।
$ 21. एवमेषामुद्दिष्टानां सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनां च संव्यवहार बिशेषव्यभिचारनिवृत्त्यर्थमाह
S 20. शंका-तत्त्व शब्द भाववाची है यह पहले कह आये हैं, इसलिए उसका द्रव्यवाची जीवादि शब्दों के साथ समानाधिकरण कैसे हो सकता है ? समाधान - एक तो भाव द्रव्यसे अलग नहीं पाया जाता, दूसरे भावमें द्रव्यका अध्यारोप कर लिया जाता है, इसलिए समानाधिकरण बन जाता है । जैसे, 'उपयोग ही आत्मा है' इस वचनमें गुणवाची उपयोग शब्दके साथ द्रव्यवाची आत्मा शब्दका समानाधिकरण है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए। शंका-यदि ऐसा है तो विशेष्यका जो लिंग . और संख्या है वही विशेषणको भी प्राप्त होते हैं ? समाधान –व्याकरणका ऐसा नियम है कि 'विशेषण - विशेष्य सम्बन्धके रहते हुए भी शब्द शक्तिकी अपेक्षा जिसने जो लिंग और संख्या प्राप्त कर ली है उसका उल्लंघन नहीं होता ।' अतः यहाँ विशेष्य और विशेषणसेलिंग और संख्या अलग-अलग रहने पर भी कोई दोष नहीं है । यह क्रम प्रथम सूत्रमें भी लगा लेना चाहिए ।
विशेषार्थ - इस सूत्र में सात तत्त्वोंका निर्देश किया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए मुख्यतया पाँच बातोंपर प्रकाश डाला गया है, जो इस प्रकार हैं- ( 1 ) जीवादि सात तत्त्वोंका स्वरूप-निर्देश । (2) सूत्रमें जीव अजीव इस क्रमसे सात तत्त्वों के निर्देश करनेकी सार्थकता । (3) पुण्य और पापको पृथक् तत्त्व नहीं सूचित करनेका कारण । (4) भाववाची शब्दोंका द्रव्यवाची शब्दोंके साथ कैसे समानाधिकरण बनता है इसकी सिद्धि | ( 5 ) विशेषण और विशेष्य में समान लिंग और समान संख्या क्यों आवश्यक नहीं इसका निर्देश । तीसरी बातको स्पष्ट करते हुए जो लिखा है उसका आशय यह है कि जीवकी शुभाशुभ प्रवृत्तिके आधारसे बँधनेवाले कर्मों में अनुभाग के अनुसार पुण्य-पापका विभाग होता है, इसलिए आस्रव और बन्धमें इनका अन्तर्भाव किया गया है। पाँचवीं बातको स्पष्ट करते हुए जो यह लिखा है कि विशेषणविशेष्य सम्बन्धके रहते हुए भी शब्द शक्तिकी अपेक्षा जिसने जो लिंग और संख्या प्राप्त कर ली है उसका उल्लंघन नहीं होता, सो इसका यह आशय है कि एक तो जिस शब्दका जो 'लिंग है वह नहीं बदलता । उदाहरणार्थ 'ज्ञानं आत्मा' इस प्रयोगसे ज्ञान शब्द नपुंसक लिंग और आत्मा शब्द पुलिंग रहते हुए भी इनमें बदल नहीं होता । इन दोनों शब्दोंका विशेषण विशेष्य रूपसे जब भी प्रयोग किया जायेगा तब वह इसी प्रकार ही किया जायेगा। दूसरे, प्रयोगके समय जिस शब्द ने जो संख्या प्राप्त कर ली है उसमें भी बदल नहीं होता। जैसे 'साधोः कार्यं तपः श्रुते' इस प्रयोग में विशेषण- विशेष्य सम्बन्धके रहते हुए भी 'कार्यम्' एकवचन है और 'तपःश्रुते' द्विवचन है । इसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। शेष कथन सुगम है ।
821. इस प्रकार पहले जो सम्यग्दर्शन आदि और जीवादि पदार्थ कहे हैं उनका शब्द प्रयोग करते समय विवक्षाभेदसे जो गड़बड़ी होना सम्भव है उसको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
1. 'आविष्टलिंगा जातिर्यल्लिगमुपादाय प्रवत्त ते उत्पत्तिप्रभृत्या विनाशान्न सल्लिंगं जहाति ।' पा. 11212531 अन्येऽपि वै गुणवचना नावश्यं द्रव्यस्य लिंगसंख्ये अनुवर्तन्ते । -- पा. म. भा. 511111591
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-115522]
प्रथमोऽध्यायः
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ।।5।। 822. अतद्गुणे वस्तुनि संव्यवहारार्थ 'पुरुषकारान्तियुज्यमानं संज्ञाकर्म नाम । काष्ठपुस्तचित्रकर्माशनिक्षेपादिष सोऽयमिति स्थाप्यमाना स्थापना । गुणैर्गुणान्वा तु तं गतं गुणोष्यते गणान्तोष्यतीति वा द्रव्यम् । वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः। तद्यथा, नामजीवः स्थापनाजीवो
ध्यजीवो भायजीव इति चतुर्धा जीवशम्दार्थो न्यस्यते। जीवनगुणमनपेक्ष्य यस्य कस्यचिन्नाम नियमाणं नाम जीवः । अक्षनिक्षेपादिषु जीव इति वा मनुष्यजीव इति वा व्यवस्थाप्यमानः स्थापनाजीवः । द्रव्यजीवोः द्विविधः आगमद्रव्यजीवो नोआगमद्रव्यजीवश्चेति । तत्र जीवप्राभूतज्ञायो मनुष्यजीवप्राभुतज्ञायो वा अनुपयुक्त आत्मा आगमद्रव्यजीवः । नोआगमद्रव्यजीवस्त्रेधा व्यवतिष्ठते ज्ञायकशरीरभावि-तद्व्यतिरिक्तभेदात् । तत्र ज्ञातुर्यच्छरीरं त्रिकालगोचरं तज् ज्ञायकशरीरम् । सामान्यापेक्षया नोआगमभाविजीवो नास्ति, जीवनसामान्यस्य सदापि विद्यमानत्वात् । विशेषापेक्षया त्वस्ति । गत्यन्तरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभव प्राप्ति प्रत्यभिमुखो मनुष्यभाविमोवः । तद्व्यतिरिक्तः कर्मनोकर्मविकल्पः । भावजीवो द्विविधः आगमभावजीवो नोआगमभावबीवश्चेति । तत्र जीवप्राभृतविषयोपयोगाविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो वा आत्मा आमभावजीवः । जीवनपर्यायेण मनुष्यजीवत्वपर्यायेण वा समाविष्ट आत्मा नोआरामभावजीवः। एवमितरेषामपि पदार्थानां नामादिनिक्षेपविधिनियोज्यः। स किमर्थः ? अप्रकृतनिराकरणाय
नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूपसे उनका अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदिका न्यास अर्थात् निक्षेप होता है ।।5।।
5 22. संज्ञाके अनुसार गुणरहित वस्तुमें व्यवहारके लिए अपनी इच्छासे की गयी संज्ञाको नाम कहते हैं । काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप आदिमें वह यह है' इस प्रकार स्थापित करनेको स्थापना कहते हैं । जो गुणोंके द्वारा प्राप्त हुआ था था गुणोंको प्राप्त हुआ था अथवा जो गुणोंके द्वारा प्राप्त किया जायेगा या गुणोंको प्राप्त होगा उसे द्रव्य कहते हैं । वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको भाव कहते हैं। विशेष इस प्रकार है--नामजीव, स्थापना-जीव, द्रस्यजीव और भावजीव, इस प्रकार जीव पदार्थका न्यास चार प्रकारसे किया जाता है। जीवन गुणकी अपेक्षा न करके जिस किसीका 'जीव' ऐसा नाम रखना नामजीव है। अक्षनिक्षेप आदिमें यह 'जीव है या 'मनुष्य जीव है' ऐसा स्थापित करना स्थापना-जीव है। द्रव्यजीवके दो भेद है-आगम द्रव्यजीव और नोआगम द्रव्यजीव। इनमें से जो जीवविषयक या मनुष्य जीवविषयक शास्त्रको जानता है किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित है वह आगम द्रव्यजीव है। नोबागम द्रव्यजीवके तोन भेद हैं--ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त। ज्ञाताके शरीरको ज्ञायक शरीर कहते हैं। जीवन सामान्यकी अपेक्षा 'नोआगम भाविजीव' यह भेद नहीं बनता, क्योंकि जीवनसामान्यकी अपेक्षा जीव सदा विद्यमान है । हाँ, पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा 'नोआगम भाविजीव' यह भेद बन जाता है, क्योंकि जो जीव दूसरी गतिमें विद्यमान है वह जब मनुष्य भवको प्राप्त करनेके लिए सम्मुख होता है तब वह मनुष्य भाविजीव कहलाता है। तदव्यतिरिक्तके दो भेद हैं-कर्म और नोकर्म। भावजीवके दो भेद हैं-आगम भावजीव और नोआगम भावजीव। इनमें से जो आत्मा जीवविषयक शास्त्रको जानता है और उसके उपयोगसे युक्त है अथवा मनुष्य जीवविषयक शास्त्रको जानता है और उसके उपयोगसे युक्त है वह आगम भाव जीव है। तथा जीवन पर्याय या मनुष्य जीवन पर्यायसे युक्त आत्मा नोआगम भाव 1. पुस्खाका- मु. । 2. --ध्यभाव- आ., दि. 2 । 3. नामजीवानां नामा-- मु. ।
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14]
सर्वार्थसिद्धौ
[115 § 23
प्रकृतनिरूपणाय च । निक्षेपविधिना' शब्दार्थः प्रस्तीर्यते । तच्छब्दग्रहणं किमर्थम् ? सर्वसंग्रहार्थम् । असति हि तच्छब्दे सम्यग्दर्शनादीनां प्रधानानामेव न्यासेनाभिसंबन्धः स्यात्, तद्विषभावेनोपगृहीतानां जीवादीनां अप्रधानानां न स्यात् । तच्छब्बग्रहणे पुनः क्रियमाणे सति सामर्थ्यात्प्रधानानामप्रधानानां च ग्रहणं सिद्धं भवति ।
8 23. एवं नामादिभिः प्रस्तीर्णानामधिकृतानां तत्त्वाधिगमः कुतः इत्यत इदमुच्यतेप्रमाणनयैरधिगमः 11611
24. नामादिनिक्षेप विधिनोपक्षिप्तानां जीवादीनां 'तत्त्वं प्रमाणाभ्यां नयश्चाषि 'गम्यते ।
जीव कहलाता है । इसी प्रकार अजीवादि अन्य पदार्थोंकी भी नामादि निक्षेप विधि लगा लेना चाहिए। शंका - निक्षेप विधिका कथन किस लिए किया जाता है ? समाधान - अप्रकृतका निराकरण करने के लिए और प्रकृतका निरूपण करनेके लिए इसका कथन किया जाता है । तात्पर्य यह है कि प्रकृतमें किस शब्दका क्या अर्थ है यह निक्षेप विधिके द्वारा विस्तारसे बतलाया जाता है। शंका- सूत्रमें 'तत्' शब्दका ग्रहण किस लिए किया है ? समाधान - सबका संग्रह करनेके लिए सूत्रमें 'तत्' शब्दका ग्रहण किया है। यदि सूत्र में 'तत्' शब्द न रखा जाय तो प्रधानभूत सम्यग्दर्शनादिका ही न्यासके साथ सम्बन्ध होता । सम्यग्दर्शनादिकके विषयरूपसे ग्रहण किये गये अप्रधानभूत जीवादिकका न्यासके साथ सम्बन्ध न होता । परन्तु सूत्रमें 'तत्' शब्दके ग्रहण कर लेनेपर सामर्थ्य से प्रधान और अप्रधान सबका ग्रहण बन जाता है ।
ॐ विशेषार्थ - नि उपसर्ग पूर्वक क्षिप् धातुसे निक्षेप शब्द बना । निक्षेपका अर्थ रखना' है । न्यास शब्दका भी यही अर्थ है । आशय यह है कि एक-एक शब्दका लोकमें और शास्त्रमें प्रयोजन के अनुसार अनेक अर्थोंमें प्रयोग किया जाता है । यह प्रयोग कहाँ किस अर्थ में किया गया है इस बात को बतलाना ही निक्षेप विधिका काम है । यों तो आवश्यकतानुसार निक्षेपके अनेक भेद किये जा सकते हैं। शास्त्रोंमें भी ऐसे विविध भेदों का उल्लेख देखनेमें आता है । किन्तु मुख्यतया यहाँ इसके चार भेद किये गये हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इनका लक्षण और दृष्टान्त द्वारा कथन टीकामें किया ही है । आशय यह है कि जैसे टीकामें एक जीव शब्दका नाम निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, स्थापना निक्षेपको अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, द्रव्य निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है और भाव निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्दका नामादि निक्षेप विधिके अनुसार पृथक्-पृथक् अर्थ होता है। इससे अप्रकृत अर्थका निराकरण होकर प्रकृत अर्थका ग्रहण हो जाता है, जिससे व्यवहार करनेमें किसी प्रकारकी गड़बड़ी नहीं होती। इससे वक्ता और श्रोता दोनों ही एक दूसरेके आशयको भली प्रकार समझ जाते हैं । ग्रन्थका हार्द समझनेके लिए भी इस विधिका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है जैन परम्परामें इसका बड़ा भारी महत्व माना गया है। इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ भेदोंसहित निक्षेपके स्वरूपको स्पष्ट किया गया है ।
23. इस प्रकार नामादिकके द्वारा विस्तारको प्राप्त हुए और अधिकृत जीवादिक व सम्यग्दर्शनादिकके स्वरूपका ज्ञान किसके द्वारा होता है इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
प्रमाण और नयोंसे पदार्थोंका ज्ञान होता है ॥6॥
24. जिन जीवादि पदार्थोंका नाम आदि निक्षेपं विधिके द्वारा विस्तारसे कथन किया 1. - विना नामशब्दा मु. अ. । 2. तत्त्वं प्रमाणेभ्यो नये - मु. । . श्चाभिग- आ, दि. 1, दि. 21
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--1168 24] प्रथमोऽध्यायः
[15 प्रमाणनया वक्ष्यमाणलक्षणविकल्पाः। तत्र प्रमाणं द्विविष स्वार्थ परार्थ च। तत्र स्वार्थ प्रमाणे श्रुतवजम् । श्रुतं पुनः स्वायं भवति परार्थ च । ज्ञानात्मकं स्वार्थ वचनात्मकं परार्थम् । तबिकल्पा नयाः । अत्राह-नयशब्दस्य अल्पाच्तरत्वात्पूर्वनिपातःप्राप्नोति । नैष दोषः । अयहितत्वालमाणस्य पूर्वनिपातः। अहितत्वं च सर्वतो बलीयः । कुतोऽहितत्वम् ? नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् । एवं ह्य क्तं "प्रगृह्य प्रमाणतः परिणतिविशेषादर्थावधारणं नयः" इति । सकलविषयत्वाच्च प्रमाणस्य तथा चोक्तं "सकलादेश: प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः" इति। मयो द्विविध: द्रव्यायिकः पर्यायाथिकश्च । पर्यायाथिकनयेन भावतत्वमधिगन्तव्यम् । इतरेषां त्रयाणा द्रव्याथिकनयेन, सामान्यात्मकत्वात् । द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्याथिकः । पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायाथिकः । तत्सर्व समुदितं प्रमाणेनाधिगन्तव्यम् । हैं उनका स्वरूप दोनों प्रमाणों और विविध नयोंके द्वारा जाना जाता है। प्रमाण और नयोंके लक्षण और भेद आगे कहेंगे। प्रमाणके दो भेद हैं-स्वार्थ और परार्थ। श्रुतज्ञानको छोड़कर शेष सब ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं। परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार का है। ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थ प्रमाण कहते हैं और वचनात्मक प्रमाण परार्थ प्रमाण कहलाता है । इनके भेद नय हैं । शंका-नय शब्दमें थोड़े अक्षर हैं, इसलिए सूत्रमें उसे पहले रखना चाहिए ? समाधानयह कोई दोष नहीं, क्योंकि प्रमाण श्रेष्ठ है, अतः उसे पहले रखा है। 'श्रेष्ठता सबसे बलवती होती है ऐसा नियम है । शंका-प्रमाण श्रेष्ठ क्यों है ? समाधान-क्योंकि प्रमाण से ही नयप्ररूपणा की उत्पत्ति हई है, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। आगममें ऐसा कहा है कि वस्तुको प्रमाणसे जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थका निश्चय करना नय है। दूसरे, प्रमाण समग्रको विषय करता है। आगममें कहा है कि 'सकलादेश प्रमाणका विषय है और विकलादेश नय. का विषय है।' इसलिए भी प्रमाण श्रेष्ठ है।
नयके दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । पर्यायार्थिक नयका विषय भावनिक्षेप है और शेष तीनको द्रव्याथिक नय ग्रहण करता है, क्योंकि नय द्रव्याथिक सामान्यरूप है। द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्याथिकनय है और पर्याय जिसका प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक नय है। तथा द्रव्य और पर्याय ये सब मिल कर प्रमाणके विषय हैं।
विशेषार्थ-इस सूत्रमें ज्ञानके प्रमाण और नय ऐसे भेद करके उनके द्वारा जीवादि पदार्थोंका ज्ञान होता है यह बतलाया गया है । इसकी व्याख्या करते हुए टीकामें मुख्यतया चार बातों पर प्रकाश डाला गया है—(1) ज्ञानके पाँच भेदोंमें से किस ज्ञानका प्रमाण और नय इनमें से किसमें अन्तर्भाव होता है। (2) नय शब्दमें अल्प अक्षर होनेपर भी सूत्र में प्रमाण शब्द पहले रखने का कारण । (3) नयके भेद करके चार निक्षेपोंमें से कौन निक्षेप किस नयका विषय है इसका विचार । (4) प्रमाणके विषयकी चर्चा । प्रथम बातको स्पष्ट करते
कुछ लिखा है उसका आशय यह है कि ज्ञानके पाँच भेदोंमें-से श्रुतज्ञानके सिवा चार ज्ञान मात्र ज्ञानरूप माने गये हैं। साथ ही वे वितर्क रहित हैं, इसलिए उनका अन्तर्भाव प्रमाण ज्ञानमें ही होता है । किन्तु श्रुतज्ञान ज्ञान और वचन उभय रूप माना गया है। साथ ही वह सवितर्क है, इसलिए इसके प्रमाणज्ञान और नयज्ञान ऐसे दो भेद हो जाते हैं । यहाँ यह शंका की जा सकती है कि श्रुतज्ञान जबकि शेष ज्ञानोंके समान ज्ञानका ही एक भेद है तो फिर इसे ज्ञान और वचन उभयरूप क्यों बतलाया है ? समाधान है कि आगमरूप द्रव्य श्रुतका अन्तर्भाव श्रुतमें किया जाता है, इसलिए 1. वय॑म् । श्रु-मु.। 2. 'जावइया वयणवहा तावइया चेव होति जयवाया।' -सन्मति. 31471 3. --णस्य तत्पूर्व-- मु.। 4. --येन पर्यायत- मु.। 5. -रेषां नामस्थापनाद्रव्याणां द्रव्या-मु. ।
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सर्वार्थसिद्धौ
[117 $ 25$ 25. एवं प्रमाणनयरधिगतानां जीवादीनां पुनरप्यधिगमोपायान्तरप्रदर्शनार्थमाह___ निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥7॥
826. निर्देशः स्वरूपाभिधानम्। स्वामित्वमाधिपत्यम् । साधनमुत्पत्तनिमित्तम् । अधिकरणमधिष्ठानम । स्थितिः कालपरिच्छेदः । विधानं प्रकारः । तत्र सम्यग्दर्शन किमिति प्रश्ने सस्वार्थश्रद्धानमिति निर्देशो नामादिर्वा । कस्येत्युक्ते सामान्येन जीवस्य । विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतो सर्वास पृथिवीषु नारकाणां पर्याप्तकानामौपशमिकं क्षायोपशमिकं चास्ति । प्रथमायां पथिव्यां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिक क्षायोपशमिकं चास्ति । तिर्यग्गतो तिरश्चां पर्याप्तकाना
द्रव्य श्रुतको नी उपचारसे श्रुतज्ञान कहा गया है। दूसरी बातको स्पष्ट करते हुए प्रमाणकी श्रेष्ठतामें दो हेतु दिये हैं। प्रथम हेतु तो यह दिया है कि नय प्ररूपणाकी उत्पत्ति प्रमाणज्ञानसे होती है, अतः प्रमाण श्रेष्ठ है । इसका आशय यह है कि जो पदार्थ प्रमाणके विषय हैं उन्हीं में विवक्षाभेदसे नयको प्रवृत्ति होता है अन्यम नहीं, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। दूसरा हेतू यह दिया है कि सकलादेश प्रमाणके अधीन है और विकलादेश नयके अधीन है, अतः प्रमाण श्रेष्ठ है। आशय यह है कि प्रमाण समग्रको विषय करता है और नय एकदेश को विषय करता है, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। जो बचन कालादिककी अपेक्षा अभेदवत्तिकी प्रधानतासे या अभेदोपपारसे प्रमाणके द्वारा स्वीकृत अनन्त धर्मात्मक वस्तुका एक साथ कथन करता है उसे सकलादेश कहते हैं। और जो वचन कालादिककी अपेक्षा भेदवृत्तिकी प्रधानतासे या भेदोपचारसे नयके द्वारा स्वीकृत वस्तु धर्मका क्रमसे कथन करता है उसे विकलादेश कहते हैं । इनमें से प्रमाण सकलादेशी होता है और नय विकलादेशी, अत: प्रमाण श्रेष्ठ माना गया है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। तीसरी बातको स्पष्ट करते हुए नयके द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ऐसे दो भेद करके जो नामादि तीन निक्षेपों को द्रव्यार्थिक नयका और भाव निक्षेप को पर्यायाथिक नयका विषय बतलाया है सो इसका यह अभिप्राय है कि नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीनों निक्षेप सामान्यरूप हैं, अत: इन्हें द्रव्यार्थिक नयका विषय बतलाया है और भावनिक्षेप पर्यायरूप है, अत: इसे पर्यायाथिक नयका विषय बतलाया है। यहाँ इतना विशेष जानना कि नामको सादश्य सामान्यात्मक माने बिना शब्दव्यवहारकी प्रवत्ति नहीं हो सकती है, इसलिए नाम निक्षेप द्रव्याथिक नयका विषय है और
की जिसमें स्थापना की जाती है उनमें एकत्वका अध्यवसाय किये बिना स्थापना नहीं बन सकती है, इसलिए स्थापना द्रव्यार्थिक नयका विषय है। शेष कथन सुगम है।
825. इस प्रकार प्रमाण और नयके द्वारा जाने गये जीवादि पदार्थोंके जाननेके दूसरे उपाय बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
निवेश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानसे सम्यग्दर्शन आदि विषयोंका मान होता है ॥7॥
8 26. किसी वस्तुके स्वरूपका कथन करना निर्देश है । स्वामित्वका अर्थ आधिपत्य है। जिस निमित्तसे वस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है । अधिष्ठान या आधार अधिकरण है। जितने काल तक वस्तु रहती है वह स्थिति है और विधानका अर्थ प्रकार या भेद है । 'सम्यग्दर्शन क्या है' यह प्रश्न हआ, इस पर 'जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है' ऐसा कथन करना निर्देश है या नामादिकके दारा सम्यग्दर्शनका कथन करना निर्देश है। सम्यग्दर्शन किसके होता है ? सामान्यसे जीवके होता है और विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब 1. -दिर्वा । सम्यग्दर्शनं. क-- मु.।
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-117827]
प्रथमोऽध्यायः मौपशमिकमस्ति । क्षायिक क्षायोपशमिकं च पर्याप्तापर्याप्तकानामस्ति। तिरश्चीनां क्षायिकनास्ति। औपशमिकं क्षायोपशमिकं च पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । मनुष्यगतौ मनुष्याणां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिकं क्षायोपशमिकं चास्ति । औपशमिकं पर्याप्तकानामेव नापर्याप्तकानाम् । मानुषीणां त्रितयमप्यस्ति पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । देवगतौ देवानां पर्याप्तापर्याप्तकानां त्रितयमप्यस्ति । औपशमिकमपर्याप्तकानां कथमिति चेच्चारित्रमोहोपशमेन सह मृतान्प्रति । भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्काणां देवानां देवीनां च सौधर्मशानकल्पवासिनीनां च क्षायिकं नास्ति । तेषां पर्याप्तकानामौपशमिकं क्षायोपशमिकं चास्ति।
27. इन्द्रियानुवादेन पञ्चेन्द्रियाणां संजिनां त्रितयमप्यस्ति नेतरेषाम् । कायानुवादेन प्रसकायिकानां त्रितयमप्यस्ति नेतरेषाम् । योगानुवादेन त्रयाणां योगानां त्रितयमप्यस्ति । अयोगिनां क्षायिकमेव । वेदानुवादेन त्रिवेदानां त्रितयमप्यस्ति । अपगतवेदानामौपशमिकं क्षायिकं चास्ति । कषायानुवादेन चतुष्कषायाणां त्रितयमप्यस्ति । अकषायाणामोपशमिकं क्षायिकं चास्ति । ज्ञानापृथिवियोंमें पर्याप्तक नारकियोंके औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। पहली पथिवीमें पर्याप्तक और अपर्याप्तक नारकियोंके क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता
। तिर्यंचगतिमें पर्याप्तक तिर्यंचोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके तिर्यंचोंके होता है। तिर्यंचनीके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता । औपशमिक और क्षायोपशमिक पर्याप्तक तिर्यंचनीके ही होता है, अपर्याप्तक तिर्यचनीके नहीं। मनुष्य गतिमें क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके मनुष्योंके होता है । औपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक मनुष्य के ही होता है, अपर्याप्तक मनुष्यके नहीं। मनुष्य नियोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं किन्तु ये पर्याप्तक मनुष्यनीके ही होते हैं, अपर्याप्तक मनुष्यनीके नहीं । देवगतिमें पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके देवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं । शंका--अपर्याप्तक देवोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन कैसे होता है ?समाधान-जो मनुष्य चारित्रमोहनीयका उपशम करके या करते हुए उपशमश्रेणी में मरकर देव होते है उन देवोंके अपर्याप्तक अवस्थामें औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके, इन तीनोंकी देवांगनाओंके, तथा सौधर्म और ऐशान कल्पमें उत्पन्न हई देवांगनाओंके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, औपशामिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं सो वे भी पर्याप्तक अवस्थामें ही होते हैं।
8 27. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अन्य जीवोंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता । कायमार्गणाके अनुवादसे त्रसकायिक जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अन्य कायवाले जीवोंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। योगमार्गणाके अनुवादसे तीनों योगवाले जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु अयोगी जीवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। वेदमार्गणाके अनुवादसे तीनों वेदवाले जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु अपगतवेदी जीवोंके औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं । कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायवाले जीवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु कषायरहित जीवोंके 1. नास्ति । कुत इत्युक्ते मनुष्यः कर्मभूमिज एव दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भको भवति । क्षपणाप्रारम्भकालात्पूर्व तिर्यक्ष बद्धायुष्कोऽपि उत्कृष्ट भोगभूमितिर्यकपुरुषेष्वेवोत्पद्यते न तिर्यस्त्रीष द्रव्यदेवस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात । एवं तिरश्चामप्यपर्याप्तकानां क्षायोपशमिकं ज्ञेयं न पर्याप्तकानाम । औप-म.। 2.कानाम् । क्षायिकं पुनर्भाववेदेनैव । देव-मु.। ३.-गतो सामान्येन देवा-मु.। 4. प्रति। विशेषेण भवन-म.।
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सर्वार्थ सिद्धौ
[1178 27नुवादेन आभिनिबोधिकश्रुतावधिकमनःपर्ययज्ञानिनां त्रितयमप्यस्ति । केवलज्ञानिनां क्षायिकमेव । संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनासंयतानां त्रितयमप्यस्ति। परिहारविशुद्धिरायतानामोपशमिकं नारित, इत:द द्वितयमस्ति . मुझमसांपराययथास्यातसंबतानामौपशामकं क्षायिकं चास्ति, संयतासंयतानां असंवतानां च त्रितवमप्यस्ति । दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शतावधिदर्शनिना त्रितयमप्यस्ति, केव प्रदर्शनिक क्षायिक मेव । लेक्ष्य नुवादेन षड्लेश्यानां त्रितयमप्यस्ति, अलेश्यानां क्षाधिकमेव । भव्यानवादेन भन्यानां त्रितयमप्यस्ति, नाभव्यानाम । सम्यक्त्वानुवादेन यत्र यत्सम्यग्दर्शनं तत्र तव जयम ! संज्ञानवदेन संजिनां त्रिनयमप्यस्ति, नासंज्ञिनाम, तदुभयध्यप देशहितानां क्षायिकमेव । आहारानुवादेन आहारकाणां त्रितयमप्यस्ति, अनाहारकाणां छद्मस्थानां त्रितयमप्यस्ति, केवलिनां समुद्घातगतानां क्षायिकमेव । औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं। ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे आभिनिबोधिक ज्ञानी, धतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु केवलज्ञानी जीवों के एक क्षायिक सम्यन्दन ही होता है। संयममार्गणाके अनुवादसे सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, परिहारविशद्धिसंयतोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, शेष दो होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायिकसयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन होते हैं, संयतासंयत और असंयत जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं। दर्शनमार्गगाके अनुवादसे चक्षदर्शनवाले, अचक्षदर्शन और अवधिदर्शनवाले जीवोंके तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु कवलदर्शनवाले जीवोके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे छहों लेश्यावाले जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु लेश्यारहित जीवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्य जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अभव्योंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। सम्यक्त्व मार्गणाके अनवादसे जहाँ जो सम्यग्दर्शन है वहाँ वही जानना । संज्ञामार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अमंडियोंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता तथा संज्ञी और असंज्ञी इस संज्ञासे रहित जोवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकों के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अनाहारक छद्मस्थोंके भी तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु समुद्घातनत केवली अनाहारकोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है।
विशेषार्थ-पदार्थोके विवेचन करनेकी प्राचीन दो परम्पराएं रही हैं—निर्देश आदि छह अधिकारों द्वारा विवेचन करनेकी एक परम्परा और सदादि आठ अधिकारों द्वारा विवेचन करनेकी दूसरी परम्परा । यहाँ तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छ आचार्यने 7वें और 6व सूत्रों द्वारा इन्हीं दो परम्पराओंका निर्देश किया है। यहाँ टोकामें निर्देश आदिके स्वरूपका कथन करके उन द्वारा सम्यग्दर्शनका विचार किया गया है। उसमें भी स्वामित्वकी अपेक्षा जो कथन किया हे उसका भाव समझनके लिए यहाँ मुख्य वाताका उल्लेख कर दना आवश्यक प्रतीत होता है। इन बातोंको ध्यान में रखनेसे चारों गतियोंमें किस अवस्थामें कहाँ कौन सम्यग्दर्शन होता है इसका निर्णय करनेमें सहायता मिलती है। वे बातें ये हैं-1. क्षायिक सम्यग्दर्शनका प्रस्थापक कर्मभूमिका मनुष्य ही होता है। किन्तु ऐमा जीव कृतकृत्यवेदक सम्यग्दष्टि या क्षायिक सम्यग्दष्टि हो जाने के बाद मरकर चारों गतियोंमें जन्म ले सकता है। 2. नरकमें उक्त जीव प्रथम नरक में ही जाता है। दूमरे आदि नरकोंमें कोई भी सम्यग्दृष्टि मरकर नहीं उत्पन्न होता । 3. तिर्यचोम व मनुष्योंमें उक्त जीव उत्तम भोगभूमिके पुरुषवेदी तिर्यंचोंमें व मनुष्योंमें ही उत्पन्न 1. संयतासंयवानां च म । 2. -तयमस्ति ता. ।
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-1178281 प्रथमोऽध्यायः
[19 8 28. साधनं विविध अभ्यन्तरं बाह्यं च । अभ्यन्तरं दर्शनमोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा । बाह्यं नारकाणां प्राक्चतुर्थ्याः सम्यग्दर्शनस्य साधनं केषांचिज्जातिस्मरणं केषांचिद्धर्मश्रवणं केषांचिदनाभिभवः। चतुर्थीमारभ्य आ सप्तम्या नारकाणां जातिस्मरणं वेदनाभिभवश्च । तिरश्चां केषांचिज्जातिस्मरणं केषांचिद्धर्मश्रवणं केषांचिज्जिनबिम्बदर्शनम् । मनुष्याणामपि तथैव । देवानां केषांचिज्जातिस्मरणं केषांचिद्धर्मश्रवणं केषांचिन्जिनमहिमदर्शनं केषांचिद्देवद्धिदर्शनम् । एवं प्रागानतात् । आनतप्राणतारणाच्युतदेवानां देवद्धिदर्शनं मुक्त्वान्यत्रितयमप्यस्ति। नवप्रैवेयकवासिनां केषांचिज्जातिस्मरणं केषांचिद्धमंधवणम् । अनुदिशानुत्तरविमानवासिनामियं कल्पना हो सकता है। 4. तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिके स्त्रीवेदियोंमें कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता। 5. भवनत्रिकमें भी कोई भी सम्यग्दष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता । 6. उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मरकर देवोंमें ही उत्पन्न होता है। उसमें भी उपशमश्रेणिमें स्थित उपशम सम्यग्दृष्टिका ही मरण सम्भव है, अन्यका नहीं। 7. कृत्यकृत्यवेदक सम्यग्दर्शन क्षयोपशम सम्यग्दर्शनका एक भेद है। इसके सिवा दूसरे प्रकारके क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव मरकर देव और मनुष्यगतिमें ही जन्म लेते हैं, नरक और तिर्यंचगतिमें नहीं। ऐसे जीव यदि तिर्यंचगति और मनुष्यगतिके होते हैं तो देवोंमें उत्पन्न होते हैं। यदि नरकगति और देवगतिके होते हैं तो वे मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं। 8. क्षायिकसम्यग्दृष्टि और कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर नपूसकवेदियोंमें उत्पन्न होता हआ भी प्रथम नरकके नसकवेदियों में ही उत्पन्न होता है। मनुष्यगति और तिर्यंचगतिके नपुंसकवेदियोंमें नहीं उत्पन्न होता । ये ऐसी बातें हैं जिनको ध्यानमें रखनेसे किस गति के जीवके किस अवस्थामें कौन सम्यग्दर्शन होता है इसका पता लग जाता है। उसका स्पष्ट उल्लेख मूल टीकामें किया ही है। एक बातका उल्लेख कर देना और आवश्यक प्रतीत होता है वह यह कि गति मार्गणाके अवान्तर भेद करणानुयोगमें यद्यपि भाववेदकी प्रधानतासे किये गये हैं, द्रव्य वेदकी प्रधानतासे नहीं, इसलिए यहाँ सर्वत्र भाववेदी स्त्रियोंका ही ग्रहण किया गया है । तथापि द्रव्यस्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि मरकर नहीं उत्पन्न होता यह बात अन्य प्रमाणोंसे जानी जाती है। इस प्रकार किस गतिकी किस अवस्था में कौन सम्यग्दर्शन होता है इसका विचार किया। शेष मार्गणाओंमें कहाँ कितने सम्यग्दर्शन हैं और कहाँ नहीं इसका विचार सुगम है, इसलिए यहाँ हमने स्पष्ट नहीं किया। मात्र मनःपर्ययज्ञान में उपशम सम्यग्दर्शनका अस्तित्व द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा जानना चाहिए।
28. साधन दो प्रकारका है- अभ्यन्तर और बाह्य। दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्यन्तर साधन है। बाह्य साधन इस प्रकार है-नारकियोंके चौथे नरकसे पहले तक अर्थात् तीसरे नरक तक किन्हींके जातिस्मरण, किन्हीके धर्मश्रवण और किन्हींक वेदनाभिभवसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है । चौथेसे लेकर सातवें नरक तक किन्हींके जातिस्मरण
और किन्हींके वेदनाभिभवसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। तिर्यंचोंमें किन्हींके जातिस्मरण, किन्हींके धर्मश्रवण और किन्हींके जिन बिम्बदर्शनसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है । मनुष्योंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए । देवोंमें किन्हींके जातिस्मरण, किन्हींके धर्मश्रवण, किन्हींके जिनमहिमादर्शन और किन्हींके देवऋद्धिदर्शनसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। यह व्यवस्था आनत कल्पसे पूर्वतक जानना चाहिए। आनत, प्राणत, आरण और अच्यूत कल्पके देवों के देवऋद्धिदर्शनको छोड़कर शेष तीन साधन पाये जाते हैं । नौग्र वेयकके निवासी देवोंके सम्यग्दर्शनका 1. इस नियम के अनुसार जीवकाण्डकी 'हेट्ठिमछप्पुढवीणं' इत्यादि गाथामें 'सव्वइत्थीणं' पाठ के साथ 'संढइत्थीणं' पाठ भी समझ लेना चाहिए।
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20] सर्वार्थसिद्धी
[1178 29 -- न संभवति; प्रागेव गृहीतसम्यक्त्वानां तत्रोत्पत्तः।
8 29. अधिकरणं द्विविधम् -अभ्यन्तरं बाह्य च । अभ्यन्तरं स्वस्वामिसंम्बन्वाह एवं आत्मा, विवक्षातः कारकप्रवृत्तः। बाह्रलोकनाडी। सा कियती?एकरज्जुविष्कम्मा सतुर्वशरज्ज्वायामा।
6 30. स्थितिरौपशमिकस्य जघन्योत्कृष्टा चान्तमौ हूतिको। मायिकस्य संसारिणो जघन्यान्तमौहतिकी। उत्कृष्टा स्त्रिशत्सागरोपमाणि सान्तमुहर्ताष्टवर्ष हीनपूर्वकोटिद्वयाधिकानि। मुक्तस्पसादिरपर्यवसाना। क्षायोपशमिकस्य जघन्यान्तमा हुत्तिको उत्कृष्टाषष्टिसागरोपमाणि। साधन किन्हींके जातिस्मरण और किन्हींके धर्मश्रवण है । अनुदिश और अनुत्तरविमानों में रहनेवाले देवोंके यह कल्पना नहीं है, क्योंकि वहाँ सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं।
$29. अधिकरण दो प्रकारका है—अभ्यन्तर और बाह्य । अभ्यन्तर अधिकरण—जिस सम्यग्दर्शनका जो स्वामी है वही उसका अभ्यन्तर अधिकरण है। यद्यपि सम्बन्धमें षष्ठी और अधिकरणमें सप्तमी विभक्ति होती है, फिर भी विवक्षाके अनुसार कारककी प्रवृत्ति होती है, अतः षष्ठी विभक्ति द्वारा पहले जो स्वामित्वका कथन किया है उसके स्थानमें सप्तमी विभक्ति करनेसे अधिकरणका कथन हो जाता है । बाह्य अधिकरण लोकनाड़ी है । शंका-वह कितनी बड़ी है ? समाधान-एक राजु चौड़ी और चौदह राजु लम्बी है।
30. औपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहुर्त है। क्षायिक सम्यग्दर्शनकी संसारी जीवके जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है व उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष और अन्तमुहूर्त कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम है । मुक्त जीवके सादि-अनन्त है । क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनको जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है व उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागरोपम है। 1. क्षायिक सम्यग्दृष्टि उसी भवमें, तीसरे भवमें या चौथे भवमें मोक्ष जाता है। जो चौथे मवमें मोक्ष जाता है वह पहले मौगभूमिमें उसके बाद देव पर्यायमें जन्म लेकर और अन्त में मनुष्य होकर मोक्ष जाता है । जो तीसरे मवमें मोक्ष जाता है वह पहले नरक या देवपर्यायमें जन्म लेकर और अन्तमें मनुष्य होकर मोक्ष जाता है। यहां तीन और चार भवों में क्षायिक सम्बग्दर्शनके उत्पन्न होनेके भवका भी ग्रहण कर लिया है। संसारी जीवके क्षायिक सम्यग्दर्शनकी यह उत्कृष्ट स्थिति तीन भवकी अपेक्षा बतलायी है। प्रथम और अन्तके दो मव मनुष्य पर्याय के लिये गये हैं और दूसरा भव देव पर्यायका लिया गया है। इन तीनों भवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो पूर्व कोटि अधिक तेतीस सागरोपम होती है। किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके पहले नहीं हो सकती, इसलिए उक्त कालमें से इतना काल कम करके क्षायिक सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्ट स्थिति पाठ वर्ष अन्तर्मुहुर्त कम दो पूर्व कोटि वर्ष अधिक तेतीस सागरोपण बतलायी है। 2. खुद्दाबन्धमें क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनका उत्कृष्ट काल छयासठ सागरोपम इस प्रकार घटित करके बतलाया है-एक जीव उपशम सम्यक्त्वसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होकर शेष मुज्यमान प्रायुसे कम बीस सागरोपमकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुमा। फिर मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुन: मनुष्यायुसे कम बाईस सागरोपमकी आयुवाले देवों में उत्पन्न हुमा। फिर मनुष्यगतिमें जाकर मुज्यमान मनुष्यायुसे तथा दर्शनमोहकी क्षपणा पर्यन्त प्रागे भोगी जानेवाली मनुष्यायुसे कम चौबीस सागरोपमकी प्रायुवाले देवोंमें उत्पन्न हुमा। वहाँसे फिर मनुष्य गतिमें माकर वहाँ वेदक सम्यक्त्वके काल में अन्तमुहूतं रह जाने पर दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करके कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हो गया। यह जीव जब कृतकृत्यवेदकके अन्तिम समय में स्थित होता है तब क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनका उत्कृष्ट काल छयासठ सागरोपम प्राप्त होता है।
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-118833] प्रथमोऽध्यायः
[217 631. विधानं सामान्यादेकं सम्यग्दर्शनम्। द्वितयं निसर्गजाधिगमनभेदात् । त्रितयं प्रौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकभेदात् । एवौं संख्येया विकल्पाः शब्दतः। असंख्येया अनन्ताश्च भवन्ति श्रद्धातृश्रद्धातव्यभेदात् । एवमयं निर्देशादिविधि नचारित्रयोर्जीवाजीवादिषु चागमानुसारेण योजयितव्यः ।
832. किमेतैरेव जीवादीनामधिगमो भवति उत अन्योऽप्यधिगमोपायोऽस्तीति परिदृष्टोऽस्तीत्याह
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालानन्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥8॥ 8 33. सदित्यस्तित्वनिर्देशः । स प्रशंसादिषु वर्तमानो नेह गृह्यते। संख्या भेदगणना। क्षेत्र निवासो वर्तमानकालविषयः । तदेव स्पर्शनं त्रिकालगोचरम् । कालो द्विविधः-मुख्यो व्यावहारिकश्च । तयोरुत्तरत्र निर्णयो वक्ष्यते । अन्तरं विरहकालः । भावः औपशमिकादिलक्षणः । अल्पबहत्वमन्योऽन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्तिः । एतैश्च सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनां चाधिगमो वेदितव्यः । ननु च निर्देशादेव सद्ग्रहणं सिद्धम् । विधानग्रहणात्संख्यागतिः । अधिकरणग्रहणात्क्षेत्रस्पर्शनावबोधः । स्थितिग्रहणात्कालसंग्रहः । भावो नामादिषु संगृहीत एव । पुनरेषां किमर्थ ग्रहणमिति। सत्य सिद्धम् । विनेयाशयवशात्तत्त्वदेशनाविकल्पः । केचित्संक्षेपरुचयः केचित् विस्तररुचयः । अपरे
831. भेदकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन सामान्यसे एक है। निसर्गज और अधिगमजके भेदसे दो प्रकारका है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकके भेदसे तीन प्रकारका है। शब्दोंकी अपेक्षा संख्यात प्रकारका है तथा श्रद्धान करनेवालोंकी अपेक्षा असंख्यात प्रकारका और श्रद्धान करने योग्य पदार्थोकी अपेक्षा अनन्त प्रकारका है। इसी प्रकार यह निर्देश आदि विधि ज्ञान और चारित्रमें तथा जीव और अजीव आदि पदार्थों में आगमके अनुसार लगा लेना चाहिए।
6 32. क्या इन उपर्युक्त कारणोंसे ही जीवादि पदार्थो का ज्ञान होता है या और दूसरे भी ज्ञानके उपाय हैं इस प्रकार ऐसा प्रश्न करनेपर दूसरे उपाय हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वसे भी सम्यग्दर्शन आदि विषयोंका ज्ञान होता है ॥8॥
$ 33. 'सत्' अस्तित्वका सूचक निर्देश है । वह प्रशंसा आदि अनेक अर्थों में रहता है, पर उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया है। संख्यासे भेदोंकी गणना ली है। वर्तमानकालविषयक निवासको क्षेत्र कहते हैं । त्रिकालविषयक उसी निवासको स्पर्शन कहते हैं। काल दो प्रकारका है-मूख्य और व्यावहारिक । इनका निर्णय आगे करेंगे। विरहकालको अन्तर कहते हैं। भावसे औपशमिक आदि भावोंका ग्रहण किया गया है और एक दूसरेकी अपेक्षा न्यूनाधिकका ज्ञान करनेको अल्पबहुत्व कहते हैं । इन सत् आदिकेद्वारा सम्यग्दर्शनादिक और जीवादि पदार्थोंका ज्ञान होता है ऐसा यहाँ जानना चाहिए। शंका-निर्देशसे ही 'सत्' का ग्रहण हो जाता है। विधानके ग्रहणसे संख्याका ज्ञान हो जाता है। अधिकरणके ग्रहण करनेसे क्षेत्र और स्पर्शनका ज्ञान हो जाता है। स्थितिके ग्रहण करनेसे कालका संग्रह हो जाता है। भावका नामादिकमें संग्रह हो ही गया है फिर इनका अलगसे किसलिए ग्रहण किया है ? समाधान यह बात सही है कि निर्देश आदिके द्वारा 'सत्' आदिको सिद्धि हो जाती है तो भी शिष्योंके अभिप्रायानुसार तत्त्वदेशनामें भेद पाया जाता है । कितने ही शिष्य संक्षेपरुचिवाले होते हैं। कितने ही शिष्य 1.-रामजभेदात् । एवं मु.। 2. -देशः । प्रशंसा-मु. ता. न. । 3. ग्रहणमुच्यते ? सत्यं ता. न. । 4. संक्षेपरुचय: अपरे नाति-मु.।
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22] सर्वार्थसिद्धौ
[118834 - नातिसंक्षेपेण नातिविस्तरेण प्रतिपाद्याः । सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयास इति अधिगमाभ्युपायभेदोद्देशः कृतः । इतरथा हि "प्रमाणनयैरधिगमः" इत्यनेनैव सिद्धत्वादितरेषां ग्रहणमनर्थकं स्यात् ।
834. तत्र जीवद्रव्यमधिकृत्य सदाद्यनुयोगद्वारनिरूपणं क्रियते। जीवाश्चतुर्दशसु गुणस्थानेषु व्यवस्थिताः । मिथ्यादृष्टिः सासादनसम्यग्दृष्टिः सम्यमिथ्यादृष्टिः असंयतसम्यग्दृष्टिः संयतासंयतः प्रमत्तसंयतः अप्रमत्तसंयतः अपूर्वकरणस्थाने उपशमकः क्षपकः अनिवृत्तिबादरसांपरायस्थाने उपशमकः क्षपकः सुक्ष्मसांपरायस्थाने उपशमकः क्षपकः उपशान्तकषायवीतरागछदमस्थः क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थः सयोगकेवली अयोगकेवली चेति । एतेषामेव जीवसमासानां निरूपणार्थ चतुर्दश मार्गणास्थानानि ज्ञेयानि। गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभन्यसम्यक्त्वसंज्ञाहारका इति।
35. तत्र सत्प्ररूपणा द्विविधा सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन अस्ति मिथ्यादृष्टिः सासादनसम्यग्दृष्टिरित्येवमादि । विशेषण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु आद्यानि चत्वारि गुणस्थानानि सन्ति । तिर्यग्गतौ तान्येव संयतासंयतस्थानाधिकानि सन्ति। मनुष्यगतो चतुर्दशापि सन्ति । देवगतौ नारकवत् । इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियादिषु चतुरिन्द्रियपर्यन्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । पञ्चेन्द्रियेषु चतुर्दशापि सन्ति । कायानुवादेन पृथिवीकायादि वनस्पतिकायान्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । त्रसकायेषु चतुर्दशापि सन्ति । योगानुवादेन त्रिषु योगेषु त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति । ततः परं अयोगकेवली । वेदानुवादेन त्रिषु वेदेषु मिथ्यादृष्टयाद्यनिवृत्तिविस्ताररुचिवाले होते हैं और दूसरे शिष्य न तो अतिसंक्षेप कथन करनेसे समझते हैं और न अति विस्तृत कथन करनेसे समझते हैं। किन्तु सज्जनोंका प्रयास सब जीवों का उपकार करना है, इसलिए यहाँ अलगसे ज्ञानके उपायके भेदोंका निर्देश किया है। अन्यथा 'प्रमाणनयैरधिगमः' इतनेसे ही काम चल जाता, अन्य उपायोंका ग्रहण करना निष्फल होता।
$ 34. अब जीव द्रव्यकी अपेक्षा 'सत्' आदि अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं यथाजीव चौदह गुणस्थानोंमें स्थित हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, अनिवृत्तिबादरसाम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोगकेवली और अयोगकेवली। इन चौदह जीवसमासोंके निरूपण करनेके लिए चौदह मार्गणास्थान जानने चाहिए। यथा-गति, इन्द्रिय, काय, योग, बेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भल्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहारक।
35. इनमें से सामान्य और विशेषकी अपेक्षा सत्प्ररूपणा दो प्रकारको है। मिथ्यादृष्टि है, सासादन सम्यग्दृष्टि है इत्यादिरूपसे कथन करना सामान्यकी अपेक्षा सत्प्ररूपणा है। विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब पृथिवियोंमें प्रारम्भके चार गुणस्थान हैं। तिर्यंचगतिमें वे ही चार गुणस्थान हैं किन्तु संयतासंयत एक गुणस्थान और है। मनुष्यगतिमें चौदह ही गुणस्थान हैं और देवगतिमें नारकियोंके समान चार गुणस्थान हैं । इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंसे लेकर चौइन्द्रिय तकके जीवोंमें एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। पंचेन्द्रियोंमें चौदह ही गुणस्थान हैं। कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायसे लेकर वनस्पति तकके जीवोंमें एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। त्रसकायिकोंमें चौदह ही गुणस्थान हैं। योग मार्गणाके अनुवादसे तीनों योगोंमें तेरह गुणस्थान हैं और इसके बाद अयोगकेवली गुणस्थान है। 1. कायादिषु वनस्प-मु. न. ।
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+ 118840] प्रथमोऽध्यायः
[23 बादरान्तानि सन्ति । अपगतवेदेषु अनिवृत्तिबादराद्ययोगकेवल्यन्तानि ।।
$36. कषायानुवादेन क्रोधमानमायासु मिथ्यादृष्टयादीनि अनिवृत्तिबादरस्थानान्तानि सन्ति । लोभकषाये तान्येव सूक्ष्मसांपरायस्थानाधिकानि । अकषायः उपशान्तकषायः क्षीणकषायः सयोगकेवली अयोगकेवली' चेति।
8 37. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानेषु मिथ्यादृष्टिः सासादनसम्यग्दृष्टिश्चास्ति' । आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानेषु असंयतसम्यग्दृष्टयादीनि क्षीणकषायान्तानि सन्ति । मनःपर्ययज्ञाने प्रमत्तसंयतादयः क्षीणकषायान्ताः सन्ति । केवलज्ञाने सयोगोऽयोगश्च ।
38. संयमानुवादेन संयताः प्रमतादयोऽयोगकेवल्यन्ताः । सामायिकच्छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयताः प्रमत्तादयोऽनिवृत्तिस्थानान्ताः। परिहारविशुद्धिसंयताः प्रमत्ताश्चप्रमत्ताश्च । सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयता एकस्मिन्नेव सूक्ष्मसापरायस्थाने। यथाख्यातविहारशुद्धिसंयता उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ताः । संयतासंयता एकस्मिन्नेव संयतासंयतस्थाने। असंयता आद्येषु चतुर्षगुणस्थानेष ।
39. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनयोमिथ्यादृष्टयादीनि क्षीणकषायान्तानि सन्ति । अवधिदर्शने असंयतसम्यग्दृष्टयादीनि क्षीणकषायान्तानि सन्ति । केवलदर्शने सयोगकेवली अयोगकेवली च।
$ 40. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकपोतलेक्ष्यासु मिथ्यादृष्टयादीनि असंयतसम्यादृष्टयन्तानि वेदमार्गणाके अनुवादसे तीनों वेदोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक नौ गुणस्थान हैं । अपगतवेदियों में अनिवृत्तिबादरसे लेकर अयोगकेवली तक छह गुणस्थान हैं।
36. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोध, मान और माया कषायमें मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर तक नौ गुणस्थान हैं, लोभकषायमें वे ही नौ गुणस्थान हैं किन्तु सूक्ष्मसाम्पराय एक गुणस्थान और है । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगी और अयोगी ये चार गुणस्थान कषायरहित हैं।
37. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञान, श्रु ताज्ञान और विभगज्ञानमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान हैं। आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रु तज्ञान और अवधिज्ञानमें असयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक नौ गुणस्थान हैं । मनःपर्ययज्ञानमें प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय तक सात गुणस्थान हैं । केवलज्ञानमें सयोग और अयोग ये दो गुणस्थान हैं।
$ 38. संयम मार्गणाके अनुवादसे प्रमत्तसंयतसे कर अयोगकेवली गुणस्थान तक संयत जीव होते हैं । सामायिक संयत और छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत जीव प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्ति गुणस्थान तक होते हैं। परिहारविशुद्धिसंयत जीव प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायशद्धिसंयत जीव एक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होते हैं। यथाख्यात विहार शद्धिसंयत जीव उपशान्तकषाय गणस्थानसे लेकर अयोगकेवली गूणस्थान तक होते हैं। संयतासंयत जीव एक सयतासयत गुणस्थानमें होते हैं। असंयत जीव प्रारम्भके चार गुणस्थानोंमें होते हैं।
39. दर्शन मार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन में मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान हैं । अवधिदर्शनमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक नौ गुणस्थान हैं । केवलदर्शनमें सयोगकेवली और अयोगकेवली ये दो गुणस्थान हैं।
8 40. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कपोत लेखामें मिथ्यादृ ष्टिसे 1.-वली च । ज्ञाना-ता. न.। 2. दष्टिश्चास्ति । सम्यग्मिथ्यादष्टे: टिप्पणकारकाभिप्रायेण ज्ञातव्यम । आमिनि-न.।
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24]
सर्वार्थसिद्धौ
[188 41सन्ति। तेजःपद्मलेश्ययोमिथ्यादृष्टयादीनि अप्रमत्तस्थानान्तानि। शुक्ललेश्यायां मिश्यादृष्टयादीनि सयोगकेवल्यन्तानि । अलेश्या अयोगकेवलिनः।।
8 41. भव्यानुवादेन भव्येषु चतुर्दशापि सन्ति । अभव्या आद्य एव स्थाने ।
842. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यादृष्टयादीनि अयोगकेवल्यन्तानि मन्ति। क्षायोपशमिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दष्टयादीनि अप्रमत्तान्तानि । औपशमिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यादृष्टयादीनि उपशान्तकषायान्तानि । सासादनसम्यग्दृष्टिः सम्यमिथ्यादृष्टिमिथ्यादृष्टिश्च स्वे स्वे स्थाने।
43. संज्ञानुवादेन संशिसु द्वादश गुणस्थानानि क्षीणकषायान्तानि। असं शिषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । तदुभयव्यपदेशरहितः सयोगकेवली अयोगकेवली च ।
844. आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टयादीनि केवल्यन्तानि । अनाहारकेषु विग्रहगत्यापन्नेषु त्रीणि गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टिः सासादनसम्यदृष्टिरसंयतसम्यग्दृष्टिश्च । समुद्घातगतः सयोगकेवली अयोगकेवली च । सिद्धाः परमेष्ठिनः अतीतगुणस्थानाः । उक्ता सत्प्ररूपणा।
845. संख्याप्ररूपणोच्यते । सा द्विविधा'सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावद् जीवा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यमिथ्यादृष्टयोऽसंयतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयताश्च पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः । प्रमत्तसंयताः कोटीपृथक्त्वसंख्याः । पृथक्त्वमित्यागमसंज्ञा लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक चार गुणस्थान हैं । पीत और पद्मलेश्यामें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक सात गुणस्थान हैं । शुक्ललेश्यामें मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक तेरह गुणस्थान हैं । किन्तु अयोगकेवली जीव लेश्या रहित हैं।
41. भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्योंमें चौदह ही गुणस्थान हैं । किन्तु अभव्य पहले ही गुणस्थान में पाये जाते हैं।
$ 42. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिकसम्यक्त्वमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक ग्यारह गुणस्थान हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमें असंयतसम्यग्दष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थान हैं। औपशमिक सम्यक्त्वमें असंयतसम्यग्दष्टिसे लेकर उपशान्तकषाय तक आठ गुणस्थान हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि अपने-अपने गुणस्थान में होते हैं।
8 43. संज्ञामार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान हैं। असंज्ञियोंमें एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है । संज्ञी और असंज्ञी इस संज्ञासे रहित जीव सयोगकेवली और अयोगकेवली इन दो गुणस्थानवाले होते हैं।
844. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगकेवली तक तेरह गुणस्थान होते हैं। विग्रहगतिको प्राप्त अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं। तथा समुद्घातगत सयोगकेवली और अयोगकेवली जीव भी अनाहारक होते हैं । सिद्ध परमेष्ठी गुणस्थानातीत हैं। इस प्रकार सत्प्ररूपणाका कथन समाप्त हुआ।
845. अब संख्या प्ररूपणाका कथन करते हैं । सामान्य और विशेषकी अपेक्षा वह दो प्रकारकी है। सामान्यकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इनमें से प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव गल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। प्रमत्त संयतोंकी संख्या कोटिपृथक्त्व है। पृथक्त्व आगमिक संज्ञा 1. द्विविधा । सामान्येन तावत्-मु.।
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- 118846] - प्रथमोऽध्यायः
[25 तिसृणां कोटीनाममुपरि नवानामयः । अप्रमत्तसंयताः संख्येयाः । चत्वार उपशमकाः प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा । उत्कर्वेण चतुःपञ्चाशत् । स्वकालेन समुदिताः संख्येयाः । चत्वारः क्षपका अयोगकेदलिनश्च प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा । उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्याः। स्वकालेन समुदिताः संख्येयाः । सयोगकेवलिनः प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा। उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्याः। स्वकालेन समुदिताः शतसहस्रपयवत्वसंख्याः। .
846. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतो प्रथमायां पृथिव्यां नारका मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येय भागप्रमिताः । द्वितीयादिष्वा सप्तम्या मिथ्यादृष्टयः श्रेण्यसंख्येयभागप्रमिताः । स चांसंस्पेयभागः असंख्येगा योजन कोटीकोट्यः । सर्वासु पृथिवीषु सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यहमियादृष्टयोऽसयससम्यग्दृयश्व पल्यापनासंस्थेवभागप्रमिताः।तिर्यग्गतौ तिरश्चांमध्ये मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः। सासादनसम्यादृष्ट्यादयः संयतासंयतान्ताः पल्योपमा संख्येयभागप्रमिताः। मनुष्यगतो मनुष्या मिथ्यादृष्टयः श्रेग्यसंख्य भागममिताः । स चासंखोयभागः असंख्येया योजनहै । इससे तीन से ऊपर और नौके नीचे मध्यकी किसी संख्याका बोध होता है। अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं। चारों उपशमक गुणस्थानवाले जीव प्रवेशकी अपेक्षा एक, दो या तीन हैं, उत्कृष्टरूपसे चौवन हैं और अपने कालके द्वारा संचित हुए उक्त जीव संख्यात हैं। चारोंक्षपक और अयोगकेवली प्रवेशकी अपेक्षा एक, दो या तीन हैं, उत्कृष्टरूपसे एकसौ आठ हैं और अपने कालके द्वारा संचित हुए उक्त जीव संख्यात हैं। सयोगकेवली जीव प्रवेशकी अपेक्षा एक, दो या तीन हैं, उत्कृष्टरूपसे एकसौ आठ हैं और अपने कालके द्वारा संचित हुए उक्त जीव लाखपृथक्त्व हैं।
846. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें पहली पृथिवीमें मिथ्यादष्टि नारकी असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि नारकी जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, जो जगश्रेणीका असंख्यातवाँ भाग असंख्यात कोडाकोड़ी योजनप्रमाण है। सब पृथिवियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । तिर्यंचगतिमें मिथ्यादृष्टि तिर्यंच अनन्तानन्त हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले तिर्यच पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । मनुष्यगतिमें मिथ्यादृष्टि मनुष्यजग श्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, जो जगश्रेणीका असंख्यातवाँ भाग असंख्यातकोड़ाकोड़ी योजन प्रमाण है। सासादनसम्यग्दृष्टिसे. लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनुष्य संख्यात हैं। प्रमत्तसंयत आदि मनुष्योंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कह आये हैं । देवगतिमें मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण' 1. तिरश्चां मिथ्या—मु । 2. सात राजु लम्बी और एक प्रदेशप्रमाण चौड़ी आकाश प्रदेश-पंक्तिको जगश्रेणि कहते हैं । ऐसी जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण जगश्रेणियोंमें जितने प्रदेश होते हैं उतने प्रथम नरकके मिथ्यादृष्टि नारकी हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 3. जगश्रेणिके वर्गको जगप्रतर कहते हैं। 4. जगश्रेणि में ऐसे असंख्यातका भाग दो जिससे असंख्यात योजन कोटाकोटि प्रमाण आकाश प्रदेश प्राप्त हों, इतनी दूसरे आदि प्रत्येक नरकके नारकियोंकी संख्या है । यह संख्या उत्तरोत्तर हीन है। 5. इसमें संमूच्छिम मनुष्यों की संख्या सम्मिलित है। 6. सासादनसम्यग्दष्टि आदि गुणस्थानवाले मनुष्योंकी संख्या जीवस्थान द्रव्य प्रमाणानुगमकी धवला टीकामें विस्तारसे बतायी है। 7. मिथ्यादष्टि देवोंकी संख्या का खुलासा प्रथम नरक के मियादृष्टि नारकियों के खुलासाके समान जानना चाहिए । आगे भी इसी प्रकार यथायोग सुस्पष्ट कर लेना चाहिए।
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26] सर्वार्थसिद्धौ
[118847 - कोटीकोट्यः । सासादनसम्यग्दृष्ट्यादयः संयतासंयतान्ताः संख्येयाः। प्रमत्तादीनां सामान्योक्ता संख्यः । देवगतौ देवा मिथ्यादष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः। सासादनसम्रग्दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्ट्य संयतसम्यग्दृष्टयः पल्मोपमासंख्येयभागप्रमिताः ।
847. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रिया मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिप्रिया असंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागमिताः । पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः । सासादनसम्यग्दृष्ट्यादयोऽयोगकेवल्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः ।
848. कायानुवादेन पृथिवीकायिका अकायिकास्तेजःकायिका वायुकायिका असंख्येया लोकाः । वनस्पशियिका: अनन्तानन्ताः। त्रसकाधिकसंख्या पञ्चेन्द्रियवत ।
49. यो वादेन मनोयोगिनो वायोगिनश्च मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः तरासंख्येयभागप्रमिताः । काययोगिनो मिथ्यादृण्टयोऽनन्तानन्ताः । त्रयाणामपि योगिनां सासादनमायादयः संयतासंयतान्ताः पल्योपमालंख्येयभागप्रमिताः । प्रमत्तसंयतादयः सपोगकेवत्यन्ताः संख्येयाः । अयोगकेवलिनः सामान्योक्तसंख्याः।।
850. वेदानुवादेन स्त्रीवेदाः बेदाश्च मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येय भागप्रमिताः । नपुंसकवेदा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । स्त्रीवेदा नपुंसकवेदाश्च सासादनसम्यग्दृष्टयादयः संयतासंयतान्ताः सामान्योक्तसंख्याः। प्रमतसंयतादयोऽनिवृत्तिबादरान्ताः संख्येयाः। हैं जो जगश्रेणियां जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि और असंयतसम्यग्दप्टि इनमें से प्रत्येक गुणस्थानवाले देव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
8 47. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं । दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय और चार इन्द्रिय जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। पंचेन्द्रियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगश्रेणियां जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सासादनसम्यग्दष्टिसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवाले पंचेन्द्रियोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कह आये हैं।
648. काय मार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक नीवोंकी संख्या असंख्यात लोकप्रमाण है। वनस्पति कायिक जीव अनन्तानन्त हैं और त्रसकायिक जीवोंकी संख्या पंचेन्द्रियोंके समान है।
849. योग मार्गणाके अनुवादसे मनोयोगी और वचनयोगी मिथ्यादष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं। तीनों योगवालोंमें सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। प्रमत्तसंयत से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तकके तीनों योगवाले जीव प्रत्येक गुणस्थानमें संख्यात हैं। अयोगकेवलियोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कह आये हैं।
850. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदवाले और पूरुषवेदवाले मिथ्यादष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगश्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । नपुंसकवेदवाले मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक स्त्रीवेदवाले
1 योगिषु मिथ्या-मु । -योगेषु मिथ्या-दि. 2। 2. - नन्ता:। त्रियोगिनां सासा-मु.। 3. वैसे तो त्रसकायिकोंकी संख्या पचेन्द्रियोंकी संख्यासे अधिक है। पर असंख्यात सामान्य की अपेक्षा यहाँ त्रसकायिकों की संख्याको पंचेन्द्रियोंकी संख्याके समान बतलाया है।
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--118852 प्रथमोऽध्यायः
| 27 देदाः सासाचनसम्यग्दृष्ट्यादयो निवृत्तिबादरान्ताः सामान्योक्तसंख्याः। अपगतवेदा अनिवृत्तिबादरादयोऽयोगकेवल्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः।
51. कषायानुवादेन क्रोधमानमायासु मिथ्यादृष्ट्यादयः संयतासंयतान्ताः सामान्योक्तसंख्याः । प्रमत्तसंयतादयोऽनिवृत्तिबादरान्ताः संख्येयाः । लोभकषायाणामुक्त एव क्रमः । अयं तु विशेषः सूक्ष्मसांपरायसंयताः सामान्योक्तसंख्याः । अकषाया उपशान्त कषायादयोऽयोगफेवस्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः।
852. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्च मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टयः सामान्योक्तसंख्याः । विभङ्गज्ञानिनो भिध्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः। सासावनसम्यग्दृष्टयः पल्योएमासंख्येयभागप्रमिताः । मतिश्रुतज्ञानिनोऽसंयतसम्यग्दृष्ट्यादयः क्षीणकषायान्ताः सामान्योक्तसंख्याः। अवधिज्ञानिनोऽसंयतसम्यग्दष्टिसंयतासंयताः सामान्योक्तसंस्याः। प्रमत्तसंयतादयः क्षीणकषायान्ताः संख्येयाः। मनःपर्ययज्ञानिनः प्रमत्तसंयतादयः क्षीणकषायान्ताः संख्येयाः । केवलज्ञानिन: सयोगा अयोगाश्च सामान्योक्तसंख्याः। और नएसकवेदवाले जीवोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कही है। प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक स्त्रीवेदवाले और नपुंसक वेदवाले जीव संख्यात हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक पुरुषवेदवालोंकी वही संख्या है जो सामान्य से कही है । अनिवृत्तिबादरसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक अपगतवेदवाले जीवोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कही है।
51. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोध, मान और माया कपायमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले जीवोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कही है। प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक उक्त कषायवाले जीव संख्यात हैं । यही क्रम लोभकषायवाले जीवोंका जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंकी वही संख्या है जो सामान्यसे कही गयी है । उपशान्त कषायसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक कषाय रहित जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है ।
852. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दष्टि जीवोंकी संख्या सामान्यवत्" है । विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो जगणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। सासादनसम्यग्दष्टि विभंगज्ञानी जीव पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक मतिज्ञानी और श्र तज्ञानी जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है। असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत अवधिज्ञानी जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है। प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय गणस्थान तक प्रत्येक गणस्थान में अवधिज्ञानी जीव संख्यात हैं। प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक
1. -दयो संयतासंयतान्ता: सामान्योक्तसंख्या:। प्रमत्तसंयतादयोऽनिवृत्ति-मु, पा, दि. 1 दि. 2। 2. -दृष्टय: सासा--ता.। 3.-यतान्ता: सामा-मु., दि. 1, दि 2, आ. । 4. यों तो जिस गुणस्थानवालोंकी संख्या बतलायी है वह क्रोध आदि चार भागों में बँट जाती है फिर भी सामान्यसे उस संख्याका अतिक्रम नहीं होता इसलिए क्रोध, मान, माया और लोग कषायमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवालोंकी संख्या ओघके समान बतलायी है। आगे भी जहाँ इस प्रकार संख्या बतलायी हो वहाँ यही क्रम जान लेना चाहिए। 5. संख्यात। 6. अनन्तानन्त । 7. जिस गुणस्थानवालोंकी जितनी संख्या है सामान्यसे उतनी संख्या है। 8. पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण।
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28]
सर्वार्थसिद्धौ
[118853853. संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयताः प्रमत्तादयोऽनिवृत्तिबादरास्ताः सामान्योक्तसंख्याः। परिहारविशुद्धिसंयताः प्रमत्ताश्चाप्रमत्तादच संख्येयाः। सूक्ष्मसापरायशुद्धिसंयता यथाख्यातविहारशुद्धिसंयताः संयतासंयता असंयताश्च सामान्योक्तसंख्याः ।
854. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दनिनो मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः।अचक्षुर्दर्शनिनो मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः। उभये च सासादनसम्यग्दृष्ट्यादयः क्षीणकषायान्ताः सामान्योक्तसंख्याः । अवधिदर्शनिनोऽवधिज्ञानिवत् के लदर्श निन. केवलज्ञानिवत् ।
$55. लेश्यानुवादेन कृष्णनोलकापोतलेश्या मिथ्यादृष्ट्यादयोऽसंयतसम्यन्दृष्ट्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः । तेजःपद्मलेल्या मिथ्यादृष्ट्यादयः संयतासंपतान्ताः स्त्रीवेदवत् । प्रमत्ताप्रमत्तसंयताः संख्येयाः । शुक्ललेश्या मिथ्यादृष्ट्यादयः संयतासंयतान्ताः पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः । प्रमत्ताप्रमत्तसंयताः संख्येयाः। अपूर्वकरणादयः सयोगकवल्यन्ता अलेश्याश्च सामान्योक्तसंख्याः ।
856. भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्ट्यादयोऽयोगकेवल्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः । अभव्या अनन्ताः। गणस्थानमें मनःपर्ययज्ञानी जीव संख्यात हैं। सयोगी और अयोगी केवलज्ञानियोंकी संख्या सामान्यवत् है।
8 53. संयम मार्गणाके अनुवादसे प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है। प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें परिहार-विशुद्धिसंयत जीव संख्यात हैं । सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, संयतासंयत और असंयत जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है।
54. दर्शन मार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणी प्रमाण हैं जो श्रेणियाँ जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अचक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके उक्त दोनों दर्शनवाले जीवोंकी संख्या सामान्यवत है। अवधिदर्शनवाले जीवोंकी संख्या अवधिज्ञानियों के समान है। केवलदर्शवाले जीवोंकी संख्या केवलज्ञानियों के समान है।
855. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंकी संख्या सामान्यवत है। मिथ्यादष्टिसे लेकर संयतासंयत तक पीत और पद्मलेश्यावाले जीवों की संख्या स्त्रीवेदके समान है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवाले पीत और पद्मलेश्यावाले जीव संख्यात हैं। मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक शुक्ल लेश्यावाले जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं । अपूर्वकरणसे लेकर संयोगकेवली तक जीव सामान्यवत्' हैं। लेश्यारहित जीव सामान्यवत् हैं।
56. भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्योंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक जीव सामान्यवत् हैं । अभव्य अनन्त हैं।
1. संख्यात । 2. संख्यात । 3. सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत और यथाख्यात विहारशुद्धिसंयत जीव संख्यात हैं। तथा संयतासंयत जीव पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और असंयत जीव अनन्तानन्त हैं। 4. जिस गुणस्थानवालोंकी जितनी संख्या है सामान्यसे उतनी संख्या उस गुणस्थानमें चक्षु और अचक्षु दर्शनवालोंकी है। 5. मिथ्यात्वमें अनन्तानन्त और शेष गुणस्थानोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण । 6. असंख्यात जगणिप्रमाण। 7. जिस गुणस्थानवालों की जितनी संख्या है उतनी है। 8. जिस गुणस्थानवालोंकी जितनी संख्या है उतनी है। केवल मिथ्यात्वमें अभव्योंकी संख्या कम हो जाती है।
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-- 118860] प्रथमोऽध्यायः
[29 857. सम्यक्रमानुबादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टयः पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः । संयतासंबतादय उपशान्तकायान्ताः संख्येयाः । चत्वारः क्षपकाः सयोगकेवलिनोयोगकेवलिनश्च सामान्योक्तसख्याः । क्षायोपशमिकसम्बदष्टिषु असंयतसभ्यग्वष्ट्यादयोऽप्रमत्तान्ता सामान्योक्तसंख्याः । औपशमिकसम्यग्दृष्टिबु असंयतराम्यग्दृष्टि संयतासंयताः पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः । प्रमत्ताप्रमत्तसंयताः संख्येयाः। चत्वार औपशमिकाः सामान्योक्तसंख्याः । सासादनसम्यादृष्टयः सम्यमिथ्यादृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च सामान्योक्त संख्याः ।
58. संशानुवादेन सजिषु मिथ्यादृष्ट्यादयः क्षीणकषायान्ताश्नार्दर्शनिवत् । असंजिनो मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । तदुभयव्यपदेशरहिताः सामान्योक्त संख्याः ।
$59. आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्ट्यादयः सयोगकेवल्याता: सामान्योस्त संख्याः । अनाहारकेष मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्ट्यसंपतसम्यादृष्टयः सामान्योक्तसंख्याः। सयोगकेवलिन संख्येयाः । अयोगकेवलिनः सामान्योक्तसंख्याः । संल्या निर्णीता।
60. क्षेत्रमुच्यते । तद् द्विविध सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावद् --मिश्यादृष्टीनां सर्वलोकः । सासादनसम्यग्दृष्ट्यादीनामयोगकेवल्यन्तानां लोकस्यासंख्यभागः । सबोगफेयलिना लोकस्यासंख्येयभागो'sसंख्यया भागाः सर्वलोको वा ।
857. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिक सम्वन्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीव पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं। संतासंयतसे लेकर उपशान्तकषाय तक जीव संख्यात हैं। चारों क्षपक, सपोगकेवली और अयोगकेवली सामान्यवत हैं। क्षायोपशामिक सम्यग्दष्टियों में असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक सामान्यवत् हैं । औपशामिक सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यादष्टि और संयतासंयत जीव पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं। प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं। चारों उपशमक सामान्यवत् हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है।
858. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियों में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक जीवोंकी संख्या चक्षुदर्शनवाले जीवोंके समान है। असंज्ञी मिथ्यादृष्टि अनन्तानन्त हैं। संज्ञी और असंजी संज्ञासे रहित जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है।
859. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगफेवली तक जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है । अनाहारकोंमें भिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंकी संख्या सामान्यवत् है । सयोगकेवली संख्यात हैं और अयोगकेवली जोवोंकी संख्या सामान्यवत् है । इस प्रकार संख्याका निर्णय किया।
860. अब क्षेत्रका कथन करते हैं। सामान्य और विशेषकी अपेक्षा वह दो प्रकार का है। सामान्यसे मिथ्यादष्टियोंका सब लोक क्षेत्र है। सासादनसम्यग्दष्टियोंसे लेकर अयोगकेवली तक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। सयोगकेवलियोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सब लोक क्षेत्र है।
1. ---भाग: । समुद्घातेसंख्येया वा मागा: सर्व-मु. न.। 2. मिथ्यादृष्टि संजी असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण हैं। सासादन आदि संजियोंकी संख्या जिस गुणस्थानवालोंकी जितनी संख्या है उतनी है। ३. संख्यात। 4. मिध्यादृष्टि आहारक अनन्तानन्त हैं। सासादनसे लेकर संयतासंयत तकके बाहारक पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । शेष संख्यात हैं। 5. मिथ्यादष्टि अनाहारक अनन्तानन्त हैं। तथा सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि अनाहारक पल्यके असंख्यातवें भाग हैं। 6. संख्यात।
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301 सर्वार्थसिद्धौ
[118861861. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु नारकाणां चतुर्ष गुणस्थानेषु लोकस्यासंख्येयभागः। तिर्यग्गतो तिरश्चां मिथ्यादृष्ट्या विसंयतासंयतान्तानां सामान्योक्त क्षेत्रम्। मनुष्यगतो मनुष्याणां मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । सयोगकेवलिनां सामान्योक्तं क्षेत्रम् देवगतौ देवानां सर्वेषां चतुर्ष गुणस्थानेषु लोकस्यासंख्येयभागः।
62. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां क्षेत्रं सर्वलोकः । विकलेन्द्रियाणां लोकस्यासंख्येयभागः । पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्यवत् ।
863. कायानुवादेन पृषिवीकायादिवनस्पतिकायान्तानां सर्वलोकः। सकायिकानां पञ्चेन्द्रियवत् ।
864. योगानुवादेन वाङ्मनसयोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादिसयोगकेवल्यन्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । काययोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादिसयोगकेवल्यन्तानामयोगकेवलिनां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् ।
865. वेदानुवादेन 'स्त्रीवेदानां मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । नपुंसकवेवानां मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानामपगतवेदानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् ।
866. कषायानुवादेन क्रोधमानमायाकषायाणां श्लोभकषायाणां च मिथ्यादृष्ट्यायनिवृत्तिबावरान्तानां सूक्ष्मतापरायाणामकषायाणां च सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
861. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब पृथिवियों में नारकियोंका चार गुणस्थानोंमें लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र है। तिर्यंचगतिमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले तिर्यंचोंका क्षेत्र सामान्यवत् है । अर्थात् मिथ्यादृष्टि तियंचोंका सब लोक क्षेत्र है और शेष तिर्यंचोंका लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र है। मनुष्यगतिमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनुष्योंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है । सयोगकेवलियोंका सामान्यवत् क्षेत्र है। देवगतिमें सब देवोंका चार गुणस्थानों में लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है।
62. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंका सब लोक क्षेत्र है। विकलेन्द्रियोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है और पंचेन्द्रियोंका मनुष्योंके समान क्षेत्र है।
863. काय मार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायसे लेकर वनस्पतिकाय तकके जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। त्रसकायिकोंका पंचेन्द्रियोंके समान क्षेत्र है।
864. योग मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक प्रत्येक गणस्थानवाले वचन योगी और मनोयोगी जीवोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है । मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले काययोगी जीवोंका और अयोगकेवली जीवोंका सामान्यवत् क्षेत्र है।
865. वेदमार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्ति बादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। तथा मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले नपुंसकवेदी जीवों का और अपगतवेदियों का सामान्यवत् क्षेत्र है।
66. कषायमार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्रोध, मान, माया व लोभ कषायवाले, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें लोभ कषायवाले और कषाय रहित जीवोंका सामान्यवत् क्षेत्र है। 1. स्त्रीपुंसवेदा-ता.। 2.-मायालोम-मा., दि. 2। मायानां लोम-दि. 11 .
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–118 § 71]
प्रथमोऽध्यायः
[31.
867. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिनां मिथ्यादृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तं, क्षेत्रम् । विभङ्गज्ञानिनां मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां लोकस्य संख्येयभागः । आभिनिबोधिकः वधिज्ञानिनामसंयत सम्यग्दृष्ट्यादीनां क्षीणकषायान्तानां मन:पर्ययज्ञानिनां च प्रमत्तादीनां क्षीणकषायान्तानां केवलज्ञानिनां सयोगानामयोगानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् ।
868. संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतानां चतुर्णां परिहारविशुद्धिसंयतानां प्रमत्ताप्रमत्तानां सूक्ष्मसांप रायशुद्धिसंयतानां यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतानां चतुर्णां संयतासंयतानामसंयतानां च चतुर्णां सामान्योक्तं क्षेत्रम् ।
$ 69. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिनां मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । अचक्षुर्दर्शनिनां मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । अवधिदर्शनिनामवधिज्ञानिवत् । केवलदर्श निनां केवलज्ञानिवत् ।
870. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यानां मिथ्यादृष्टबाद्यसंयतसम्यग्दृष्टयन्तानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । तेजःपद्मलेश्यानां मिथ्यादृष्ट याद्यप्रमत्तान्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । शुक्ललेश्यानां मिथ्यादृष्टचादिक्षीणकषायान्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । सयोगकेवलिनामलेश्यानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् ।
8 71. भव्यानुवादेन भव्यानां चतुर्दशानां सामान्योक्त क्षेत्रम् | अभव्यानां सर्वलोकः ।
867 ज्ञानमार्गणा अनुवादसे मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवाले त्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है । मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि विभंगज्ञानियों का लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है । असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकत क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंका, प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मन:पर्ययज्ञानी जीवोंका तथा सयोग और अयोग गुणस्थानवाले केवलज्ञानी जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है ।
868 संयम मार्गणा अनुवादसे प्रमत्तादि चार गुणस्थानवाले सामायिक और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंका, प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानवाले परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंका, सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंका, उपशान्त मोह आदि चार गुणस्थानवाले यथाख्यात विहारविशुद्धिसंयत जीवोंका और संयतासंयत तथा चार गुणरथानवाले असंयत जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है ।
869 दर्शन मार्गणा अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थान में चक्षुदर्शनवाले जीवोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है । मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले अचक्षुदर्शनवाले जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है । तथा अवधिदर्शनवालोंका अवधिज्ञानियों के समान और केवलदर्शनवालोंका केवलज्ञानियों के समान क्षेत्र है ।
870. लेश्या मार्गणा के अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक प्रत्येक गुणस्थानवाले कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है । मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है । मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले शुक्ललेश्यावाले जीवोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है तथा शुक्ललेश्यावाले सयोगकेवलियों का और लेश्या रहित जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है ।
71. भव्य मार्गणा अनुवादसे चौदह गुणस्थानवाले भव्य जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र हैं | अभव्योंका सब लोक क्षेत्र है ।
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32] सर्वार्थसिद्धी
[118872672. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यादष्टीनामसंयतसम्यग्दष्टयाद्ययोगकेवल्यन्तानां सायोपशमिकसम्यग्दृष्टीनामनरलसम्य दृष्ट याद्यप्रमनान्तानासौपशमिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दष्टयाधुपशान्तकपायाला पापादनसम्मन्दष्टीनां सावमिथ्यादृष्टीनां मिथ्यादष्टीनां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् ।
$73. सज्ञानुवादेन सजिना चक्षुर्दर्शनिवत् । असजिनां सर्वलोकः । तदुभयव्यपदेशरहितानां सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
74. आहारानुवादेन आहारकाणां मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तं क्षेत्रम । सयोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः : अनाहारकाणां मिथ्यादष्टिसासादनसम्रा दृष्टयसयतसम्यग्दष्ट योगकेवलिना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येया' भागाः सर्वलोको वा। क्षेत्रनिर्णयः कृतः ।
872. सम्यक्त्व मागणाके अनवादसे असंयत सम्यग्दप्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्षायिकसम्यग्दष्टियोंका, असंयतसम्यग्दष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्षायोपशमिक सम्यग्दष्टियोंका, असंयतसम्यग्दष्टि से लेकर उपशान्तकषाय गणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवाले औपशमिक सम्यग्दृष्टियोंका तथा सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टियों का सामान्योक्त क्षेत्र है।
873. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संशियोंका चक्षदर्शनवाले जीवोंके समान, असंज्ञियोंका सब लोक और संनी असंज्ञी इस संज्ञासे रहित जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है।
. आहार मार्ग गाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले आहारका सामान्योक्त क्षेत्र है। सयोगकेवलियों का लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। मिथ्यादृष्टि, सामानसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अयोगकेवली अनाहारक जीवोंका सामान्योक्त क्षेत्र है। तथा सयोगकेवली अनाहारकोंका लोकका असंख्यात बहुभाग और सब लोक क्षेत्र है।
विशेषार्थ -क्षेत्रप्ररूपणामें केवल वर्तमान कालीन आवासका विचार किया जाता है। मिथ्यादष्टि जीव सब लोक में पाये जाते हैं इसलिए उसका सब लोक क्षेत्र पर लाया है। अन्य गणस्थानवाले जीव केवल लोकके अगत्यातव भागप्रमाण क्षेत्र में ही पाये जाते हैं इसलिए इनका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र बतलाया है। केवल सयोगिकेवली इसके अपवाद हैं। यों तो स्वस्थानगत सयोगिकेवलियोंका क्षेत्र भी लोकके असंख्यातवे भाग प्रमाण ही है फिर भी जो सयोगिकेवली समुद्घात करते हैं उनका क्षेत्र तीन प्रकारका प्राप्त होता है। दण्ड और कपाटरूप समुदघातके समय लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, प्रतररूप समुदघातके समय लोकका असंख्यात बहभाग और लोकपूरक समुद्घातके समय सब लोक क्षेत्र प्राप्त होता है इसलिए इनके , क्षेत्रका निर्देश तीन प्रकारसे किया गया है। गति आदि मार्गणाओंके क्षेत्रका विचार करते समय इसी दष्टिको सामने रखकर विचार करना चाहिए। साधारणतया कहाँ दितना क्षेत्र है इसका विवेक इन बातोंसे किया जा सकता है-1. मिथ्यादष्टियोंमें एकेन्द्रियोंका ही सब लोक क्षेत्र प्राप्त होता है। शेषका नहीं। इनके कुछ ऐसे अवान्तर भेद हैं जिनका सब लोक क्षेत्र नहीं प्राप्त होता पर वे यहाँ विवक्षित नहीं। इस हिसाबसे जो-जो मार्गणा एकेन्द्रियोंके सम्भव हो उन सबके सब लोक क्षेत्र जानना चाहिए। उदाहरणार्थ-गति मार्गणामें तिर्यंचगति 'मार्गपा, इन्द्रिय मार्गणा में एकेन्द्रिय मार्गणा, काय-पागणामें पृथिवी आदि पाँच स्थावर काय मागणा, योग 1. -स्यासंख्येयमाग: मु., दि. 1, दि. 21
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[33
-118875]
प्रथमोऽध्यायः 8.75. स्पर्शनमुच्यते। तद् द्विविध सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावन्मिथ्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । सासादनसम्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ द्वादश चतुर्दशभागा वा देशोनाः । सम्यमिथ्याग्दृष्टयसंयतसम्य दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा, मार्गणामें काययोग मार्गणा, वेदमार्गणामें नपुंसक वेदमार्गणा, कषाय मार्गणामें क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय मार्गणा, ज्ञान मार्गणामें मत्यज्ञान और ताज्ञान मार्गणा, संयम मार्गणामें असंयत संयम मार्गणा, दर्शनमार्गणा में अचक्षुदर्शन मार्गणा, लेश्या मार्गणामें कृष्ण, नील और कापोत लेश्या मार्गणा, भव्य मार्गणामें भव्य और अभव्य मार्गणा, सम्यक्त्व मार्गणामें मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व मार्गणा, संज्ञा मार्गणामें संज्ञी असंज्ञी मार्गणा तथा आहार मार्गणामें आहार और अनाहार मार्गणा इनका सब लोक क्षेत्र बन जाता है। 2. सासादन सम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके जीवोंका और अयोगकेवलियोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है। 3. दोइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रियोंमें असंज्ञियों का क्षेत्र भी लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। 4. संज्ञियोंमें समुद्घातगत सयोगिकेवलियोंके सिवा शेष सबका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इन नियमोंके अनुसार जो मार्गणाएँ सयोगिकेवलीके समुद्घातके समय सम्भव हैं उनमें भी सब लोक क्षेत्र बन जाता है । शेषके लोकका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण ही क्षेत्र जानना चाहिए। सयोगिकेक्लीके लोकपूरण समुद्घातके समय मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस काय, काययोग, अपंगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्यात संयम, केवल दर्शन, शुक्ल लेश्या, भव्यत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, न संज्ञी न असंज्ञी और अनाहार ये मार्गणाएँ पायी जाती हैं इसलिए लोकपूरण समुद्घातके समय इन मार्गणाओंका क्षेत्र भी सब लोक जानना चाहिए। केवलीके प्रतर समुद्घातके समय लोकका असंख्यात बहुभाग प्रमाण क्षेत्र पाया जाता है। इसलिए इस समय -जो मार्गणाएँ सम्भव हों उनका क्षेत्र भी लोकका असंख्यात बहुभाग प्रमाण बन जाता है। उदाहरण के लिए लोक पूरण समुद्घातके समय जो मार्गणाएं गिनायी हैं वे सब यहाँ भी जानना चाहिए । इनके अतिरिक्त शेष सब मार्गणाएँ ऐसी हैं जिनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्त होता है। लोक पूरण और प्रतर समदघातके समय प्राप्त होनेवाली जो मार्गणाएं गिनायी हैं उनमें-से काययोग, भव्यत्व और अनाह
र इन तीनको छोड़कर शेष सब मार्गणाएँ भी ऐसी हैं जिनका भी क्षेत्र उक्त अवस्थाके सिवा अन्यत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्राप्त होता है । इस प्रकार क्षेत्रका निर्णय किया।
875. अब स्पर्शनका कथन करते हैं—यह दो प्रकारका है—सामान्य और विशेष । सामान्यकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टियोंने सब लोकका स्पर्श किया है । सासादन सम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम बारह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों व असंयतसम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भागका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम आठ भागका स्पर्श किया है। संयतासंयतोंने लोकके असंख्यातवें भागका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह 1. मेरुपर्वतके मूलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु । यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है। 2. मेरु पर्वतके मूलसे नीचे कुछ कम पाँच राजु और ऊपर सात राजु । यह स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है। 3. मेरु पर्वतके मूलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु । यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है । असंयत सम्यग्दृष्टियोंके मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा भी यह स्पर्शन बन जाता है।
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34]
सर्वार्थसिद्धौ
[118 § 76
देशोनाः । संयतासंयतर्लोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । प्रमत्त संयतादीनामयोग केवल्यन्तानां क्षेत्रवत्स्पर्शनम् ।
$ 76 विशेषेण गत्यवादेन नरकगतौ प्रथमायां पृथिव्यां नारकंश्चतुर्गुणस्थानैर्लोकस्यासंख्येयभागः स्पृष्टः । द्वितीयादिषु प्राक्सप्तम्या मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयare: एको द्वौ त्रयः चत्वारः पञ्च चतुर्दशभागा वा देशोनाः । सम्यङ् मिथ्य । दृष्टय संयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः । सप्तम्यां पृथिव्यां मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । शेबेस्त्रिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः । तिर्यग्गतौ तिरश्चां मिथ्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः सप्त चतुर्दशभागा वा देशोनाः । सम्यङ्मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः । असंयतसम्यदृष्टि' संयतासंयतैर्लोकस्य संख्येयभागः षट् चतुर्दशभाग वा देशोनाः । मनुष्यगतौ मनुष्य॑मिथ्या दृष्टिभिर्लोकस्य संख्येयभागः सर्वलोको वा स्पृष्टः । सासादनसम्यग्दृभिर्लोकस्यासंख्येयभागः सप्त चतुर्दशभागा वा देशोनाः । सम्यङ् मिथ्यावष्टचादीनामयोग केवल्यन्तानां क्षेत्रवत्स्पर्शनम् । देवगतौ देवैर्मिथ्यादृष्टि सासादन सम्य दृष्टिभि -
भागका स्पर्श किया है । तथा प्रमत्तसंयतोंसे लेकर अयोग केवली गुणस्थान तकके जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है ।
876. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरक गतिमें पहली पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानवाले नारकियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । दूसरीसे लेकर छठी पृथिवी तकके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और क्रमसे लोक नाड़ीके चौदह भागों में से कुछ कम एक राजु, कुछ कम दो राजु, कुछ कम तीन राजु, कुछ कम चार राजु और कुछ कम पाँच राजु क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकियोंने लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श किया है। सातवीं पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि नारकियोंने लोकके असंयातवें भाग क्षेत्रका और नालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह राजु क्षेत्रका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष तीन गुणस्थानवाले उक्त नारकियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंने सब लोकका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाड़ीके चौदह भागों में से कुछ कम सात भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यंत्रोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यंचोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोक नाडीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। मनुष्यगतिमें
1. - दृष्टिभिः संयता - मु. ता. न. । 2. दृष्टिभिः सासा -- ता. । 3. ऊपर अच्युत कल्पतक छह राजु । इसमें से चित्रा पृथिवीका एक हजार योजन व आरण अच्युत कल्पके उपरिम विमानोंके ऊपरका भाग छोड़ देना चाहिए। यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है। 4. मेरुपर्वतके मूलसे ऊपर सात राजु | यह स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है । यद्यपि तिर्यच सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मेरुपर्वतके मूलसे नीचे भवनवासियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं तथापि इतने मात्रसे
र्शन क्षेत्र सात राजुसे अधिक न होकर कम ही रहता है। ऐसे जीव मेरुपर्वतके मूलसे नीचे एकेन्द्रियोंमें व नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 5. ऊपर अच्युत कला तक छह राजु | इसमे से चित्रा पृथिवीका एक हजार योजन व आरण अच्युत कल्पके उपरिम विमानोंके ऊपरका भाग छोड़ देना चाहिए। यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है ।
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-118 § 79]
प्रथमोऽध्यायः
[ 35
र्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ नव चतुर्दशभागा वा देशोनाः । सम्यङ् मिथ्यादृष्टच संयतसम्यग्दृष्टिभिलोकस्य संख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः ।
877. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियैः सर्वलोकः स्पृष्टः । विकलेन्द्रियैर्लोकस्यासंख्येयभागः सर्वलोको वा । पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः सर्वलोको वा । शेषाणां सामान्योक्तं स्पर्शनम् ।
$ 78. कायानुवादेन स्थावरकायिकैः सर्वलोकः स्पृष्टः । त्रसकायिनां पञ्चेन्द्रियवत् स्पर्शनम्। मिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ 879. योगानुवादेन वाङ्मनसयोगिनां चतुर्दशभागा वा देशोनाः सर्वलोको वा । सासादनसम्य दृष्टचादीनां क्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभागः । काययोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादीनां सयोगकेवल्यमिथ्यादृष्टि मनुष्योंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्श किया है । सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोक नाडीके चौदह भागों मेंसे कुछ कम सात भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक मनुष्यों का स्पर्श क्षेत्रके समान है । देवगति में मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंने लोकके असंख्यावें भाग क्षेत्रका तथा लोकनाडीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
877. इन्द्रिय मार्गणा के अनुवादसे एकेन्द्रियोंने सब लोकका स्पर्श किया है। विकलेन्द्रियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्श किया है। पंचेन्द्रियों में मिथ्यादृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकना डीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्श किया है । शेष गुणस्थानवाले पञ्चेन्द्रियोंका स्पर्श ओघ के समान है ।
878. काय मार्गणा अनुवादसे स्थावरकायिक जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है । कायिकों का स्पर्श पञ्चेन्द्रियोंके समान है ।
$ 79. योग मार्गणा अनुवादसे मिथ्यादृष्टि वचनयोगी और मनोयोगी जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्श किया है । सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे लेकर क्षीणकषाय तकके गुणस्थानवालों1. मरणान्तिक समुद्घात और उपपादपदकी अपेक्षा यह स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण कहा है। 2. भवनवासी लोकसे लेकर ऊपर लोकाग्र तक । इसमें से अगम्यप्रदेश छूट जानेसे कुछ कम सात राजु स्पर्श रह जाता है । यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है । 3. मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु । यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। 4 मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर सात राजु । यह स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है । 5. मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु । यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। 6. विकलेन्द्रियों का सब लोक स्पर्श मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। 7. मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु । यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वै क्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। 8 सब लोक स्पर्श मारणान्तिक और उपपादकी अपेक्षा प्राप्त होता है । 9. मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु । यह स्पर्शन विहारवत्स्वत्स्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है ।
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36j
सर्वार्थसिद्धौ
[118880न्तानामयोगकेवलिनां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् ।
80. वेदानुवादेन 'स्त्रीपुंवेदैमिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः स्पृष्टः अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः सर्वलोको वा । सासादनसम्यग्दृष्टिभिः लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ नव चतुदशभागा वा देशोनाः । सम्यमिय्यादृष्टयाद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टीनां सासादनसम्यग्दृष्टीनां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । 'सम्पमिथ्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः। असंयतसम्यादृष्टिसंयतासंयतर्लोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । प्रमत्ताद्यनिवृत्तिबादरान्तानामपगतवेदानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । का स्पर्श ओघके समान है। सयोगकेवली जीवोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग है। तथा मिथ्यादष्टिसे लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तक काययोगवालोंका और अयोगकेवली जीवोंका स्पर्श ओघके समान है।
6 80. वेद मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा लोक नाडीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । सासादन सम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा लोकनाडीके चौदह भागोंमें से कुछ कम 'आठ भाग और कुछ कम नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादष्टियोंसे लेकर
दर गुणस्थान तकके जीवोंका स्पर्श ओघके समान है । नपुसकवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टियोंका स्पर्श ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्श किया है। असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें से कुछ कम 10छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा प्रमत्तसंयतोंसे लेकर अनिवृत्ति बादर गुणस्थान तकके जीवोंका स्पर्श ओघके समान है।
1. स्त्रीपुंसवे-ता । 2. अष्टौ नव चतु-मु.। 3. लोको वा । नपुंसकवेदेषु मु.। 4. सम्यमिथ्यादृष्टिभिलॊकस्यासंख्येभागः स्पृष्टः। सासादनसम्यग्दृष्टिभिः लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ नव चतुर्दश भागा वा देशोनाः । सम्यग्मिथ्यादृष्टयाद्य निवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । असंयतसम्य-मु.। 5. समुद्घातके कालमें मनोयोग और वचनयोग नहीं होता, इससे वचनयोगी और मनोयोगी सयोगी केवलियों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है। 6. मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु । यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। सब लोक स्पर्श मारणान्तिक और उपपादकी पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। 7. मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु । यह स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। 8. मेरुतलसे नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर सात राजु । यह स्पर्शन मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त । होता है । यहाँ उपपाद पदकी अपेक्षा ग्यारह घनराजु स्पर्शन प्राप्त होता है। किन्तु उपपादपदकी विवक्षा नहीं होनेसे उसका उल्लेख नहीं किया है। यह स्पर्शन मेरुतलसे नीचे कुछ कम पाँच राजु और उपर छह राजु इस प्रकार प्राप्त होता है। 9..यहाँ नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन ओषके समान बतलाया है । सो यह सामान्य निर्देश है। विशेषकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि नसकवेदियोंने वैक्रियिक पदकी अपेक्षा पाँच धनराजु क्षेत्रका स्पर्श किया है, क्योंकि वायुकायिक जीव इतने क्षेत्रमें विक्रिया करते हुए पाये जाते हैं। नपुंसकवेदी सासादन सम्यग्दृष्टियोंने स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैऋियिकपदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शनकिया है। उपपादपदकी अपेक्षा । कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भाग त्रसनालीका स्पर्श किया है। मारणान्तिक पदकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग त्रसनालीका स्पर्श किया है। शेष कथन ओघके समान है। 10. यह स्पर्श मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
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-118 § 85]
$ 81. कषायानुवादेन चतुष्कषायाणामकत्रायाणां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् ।
$ 82. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिनां मिध्यादृष्टिसासावनसम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । विभङ्गज्ञानिनां मिथ्यादृष्टीनां लोकस्थासंख्येयभागः अष्टौ चतुवंशभागा झ देशोनाः सर्वलोकी वा । सासादनसम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । आभिनिबोधिकाधि मन:पर्यय केवलज्ञानिनां सामान्योक्तं स्पर्शनम् ।
प्रथमोऽध्यायः
[37
$ 83. संयमानुवादेन संयतानां सर्वेषां संयतासंयतानामसंयतानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । 684 दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिनां मिध्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां पञ्चेन्द्रियवत् । अचक्षुर्दर्शनिनां मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानामघिकेवल दर्शनिनां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् ।
8 85. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतले श्यैमिथ्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । सासावनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः पञ्च चत्वारो द्वौ चतुर्दशभागा वा' देशोनाः । सम्यमिय्यादृष्टय संवतराम्य दृष्टिभिर्लोकस्थासंख्येयभागः । तेजोलेश्य मय्यादृष्टिसासादन सम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ नथ चतुर्दशभागा वा देशोनाः । सम्यङ् मिथ्यादृष्टय संयत सम्यग्दृष्टिभिला
$ 81. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधादि चारों कषायवाले और कषायरहित जीवोंका स्पर्श ओधके समान है ।
$ 82 ज्ञान मार्गणा अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि और सासा - दनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्श ओघ के समान है । विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टियों का स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग, लोकनाडीके समान चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोक" है ! सासादनसम्यदृष्टियोंका स्पर्श ओघके समान है । आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीवोंका स्पर्श ओघके समान है ।
883. संयम मार्गणाके अनुवादसे सब संयतोंका, संयतासंयतोंका और असंयतोंका स्पर्श ओघ के समान है ।
8 81. दर्शन मार्गणा के अनुवादसे मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर क्षीणकषाय तकके चक्षुदर्शन वाले जीवोंका स्पर्श पंचेन्द्रियोंके समान है । मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर क्षीणकषाय तकके अचक्षुदर्शनवाले जीवोंका तथा अवधिदर्शनवाले और केवलदर्शनवाले जीवोंका स्पर्श ओघ के समान है ।
885. लेश्या मार्गणा अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले मिथ्यादृष्टियोंने सब लोकका स्पर्श किया है । सासादनसम्यग्दष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागों में से क्रमश: कुछ कम पाँच भाग, कुछ कम चार भाग और कुछ कम दो भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । पीतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने
1 वा देशोनाः । द्वाद्वशभागाः कुतो न लभ्यन्ते इति चेत् तत्रावस्थितलेश्यापेक्षया पञ्चैव । अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वाद्वशभागा न दत्ताः । सम्यङ्गिय्या - मु., आ., दि. 112. यह स्पर्श विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है, क्योंकि नीचे दो राजु और ऊपर छह राजु क्षेत्रमें गमनागमन देखा जाता है। 3. यह स्पर्शन मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है । क्योंकि ये जीव सब लोकमें मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं । 4. यह स्पर्श मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा बतलाया है। कृष्ण लेश्यावालेके कुछ कम पाँच राजु, नील लेश्यावाले कुछ कम चार यजु और कापोत लेश्यावालेके कुछ कम दो राजु यह स्पर्श होता है। जो नारकी ति व सासादन सम्यग्दृष्टियोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके यह स्पर्श सम्भव है ।
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381
सर्वार्थसिद्धौ
[118882... स्थासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशंभागा वा देशोनाः । संयतासंयतैलॊकस्यासंख्येयभागः अध्यर्धचतुर्दशभागा वा देशोनाः। प्रमत्ताप्रमतर्लोकस्यासंख्येयभागः । पद्मलेश्यैमिथ्यादृष्टयाद्यसंयतसम्यग् - बष्ट यन्तर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः। संयतासंयतर्लोकस्यासंख्येयभाग: पञ्च चतर्दशभागा वा देशोनाः । प्रमत्ताप्रमतर्लोकस्यासंख्येयभागः । शुक्ललेश्यैमिथ्यादष्टयादिसंयतासंयतान्तैर्लोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । प्रमत्तादिसयोगकेवल्यन्तानां अलेश्यानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम्। लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा लोकनाडीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंने लोको असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा लोकनाडीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पी किया है। संयतासंयतोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागाम-में कुछ कम डेढ़ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंने लोको - ख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर असंयतसम्यग्दृटियों तक के पद्मलेश्यावाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । संयतासंयतोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें से कुछ कम पाँच भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। मिथ्यादृप्टियोंसे लेकर संयतासंयतों तकके शक्ललेश्यावाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह' भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। प्रमत्तसंयत आदि सयोगकेवली तकके शुक्ललेश्यावालोंका और लेश्यारहित जीवोंका स्पर्श ओघके समान है। 1. यह स्पर्शन विहार, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदको अपेक्षा प्राप्त होता है, क्योंकि पीतलेश्यावाले सासादनोंका नीचे कुछ कम दो राजु और ऊपर छह राजु क्षेत्रमें गमनागमन देखा जाता है। 2. यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा प्राप्त होता है क्योंकि ऐसे जीव तीसरी पृथिवीसे ऊपर कुछ कम नौ राजु क्षेत्र में मारणान्तिक समुद्धात करते हुए पाये जाते हैं। उपपाद पदकी अपेक्षा इनका स्पर्श कुछ कम डेढ़ राजु होता है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। 3. यह स्पर्श विहार, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। युक्तिका निर्देश पहले किया ही है। इतनी विशेषता है कि मिश्र गुणस्थानमें मारणान्तिक समुघात नहीं होता। 4. यह स्पर्श मारणान्तिक पदको अपेक्षा प्राप्त होता है। इनके उपपाद पद नहीं होता। 5. यह स्पर्श विहार, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है। इनके उपपाद पदकी अपेक्षा स्पर्श कुछ कम पाँच राजु होता है। इतनी विशेषता है कि मिश्र गुणस्थानमें मारणान्तिक और उपपाद पद नहीं होता। 6. यह स्पर्श मारणान्तिक पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है, क्योंकि पद्म लेश्यावाले संयतासंयत ऊपर कुछ कम पाँच राजु क्षेत्रमें मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं। 7. बिहार, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन प्राप्त होता है । सो भी मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानोंकी अपेक्षा यह कथन किया है। संयतासंयत शुक्ल लेश्यावालोंके तो विहार, वेदना, कषाय और वंऋियिक पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही स्पर्शन प्राप्त होता है। उपपादकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि शुक्ल लेश्यावालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अविरतसम्यग्दृष्टि शुक्ल लेश्यावालोंका स्पर्श कुछ कम छह राजु है। संयतासंयतोंके उपपादपद नहीं होता। फिर भी इनके मारगान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम छह राजु स्पर्श बन जाता है।
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--118890 प्रथमोऽध्यायः
[39 886. व्यानुवादेन भव्यानां पथ्यादृष्टयागयोगकेवल्यन्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । अभव्यैः सतलोकः स्पष्ट ।
8 87. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्गादृष्टीनामसंयतसम्यादृष्टयाद्ययोगकेवत्यन्तानां सामान्योरतम । कित संयतासंयतानां लोकस्यासंख्येषभागः । क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तम् । शनिक सम्यक्त्वानामसंयतसम्यग्दृष्टीनां सामान्योक्तम् । शेषार्णा लोकस्यासंख्येयभागः । सासादनसम्यग्दृटिस मध्याटिमियादृष्टीनां मामान्योक्तम् ।
88. संज्ञानुवादेन संश्निां चक्षुदर्शनिवत असंदिभिः सर्वलोक: स्पृष्टः। तदुभयव्यपदेशरहिताना सामान्योक्तम् ।
689. आहारानवालेन अहारका मियादाट धादिक्षीणकर यान्तानां सामान्योक्तम । सयोगकेजिना लोकस्यान्येय : । अाहार व मिथ्यादृष्टिभि. सर्वलोकः स्पृष्टः । सासादनसम्यादष्टि लोका-यासंख्येयभार एक दक्षा चशभावा देशोना। असंयंतसभ्यष्टिभिः लोकस्यानस्येपनासः परतर्दश भार वा देशोनाः । संयोगकेवलिना लोकस्योसंख्येयभागाः सर्वलोको वा । अयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येय ग.: स्पर्श नं व्यायाम ।
$90. कालः प्रस्तूयते । सविध.- सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन ताद मिथ्यादष्टे नाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवापेक्षया त्रयो भङ्गाः। नादिरपर्यवसान अनादिः सर्यव
886. भव्य मार्गणाके अनुदादसे पिथ्यान्टियोंसे लकर अयोगकेवली तकके भव्योंका स्पर्श ओघके समान है। अभव्योंने सब लाकका स्पर्श किया है।
887. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे असंयतसम्यग्दष्टियोंसे लेकर अयोगकेवली तकके क्षापिकसम्यग्दष्टियोंका स्परी ओघके समान है। किन्तु संयतासंयतोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग है। क्षायोपशमिक सम्यग्दष्टियोंका स्पर्श ओघके समान है। असंयतसम्यग्दष्टि औपशामिक सम्यग्दष्टियो का स्पर्श ओघके समान है। तथा शष ओपशामक सम्यग्दष्टियोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग है । सासादनसम्यग्दृष्टि, सरगग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टियोंका सामान्योक्त स्पर्श है।
888. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंका स्पर्श चक्षुदर्शनवाले जीवोंके समान है । असंजियों ने सब लोगका स्पर्श किया है। इन दोनों व्यवहारोंसे रहित जीवोंका स्पर्श ओघके सामन है।
889. आहार मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर क्षीणकषाय तकके आहारकोंका स्पर्श ओघके सामान है । तथा सयोगकेवलियोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग है। अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टियोंने सब लोकका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम ग्यारह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । असंयतसम्यग्दृष्टियोंने लोकके असंख्यात भाग क्षेत्रका और लोकनाडीके चौदह भागोमेंसे कछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सयोगकेवलियोंने लोकके असंख्यात बहभाग क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्श किया है। तथा अयोगकेवलियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इस प्रकार स्पर्शनका व्याख्यान किया।
890. अब कालका कथन करते हैं । सामान्य और विशेषकी अपेक्षा वह दो प्रकारका है। सामान्यकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टिका माना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है अर्थात् मिथ्यादृष्टि 1. मेरु तलसे नीचे कुछ कम पाँच राजु और ऊपर छह राजु । यह स्पर्श उपपाद पदकी अपेक्षा प्राप्द होता है। 2. अच्युत कल्प तक ऊपर कुछ कम राजु । तिर्यंच असंयत सम्यग्दृष्टि जीव मर कर अच्युत कल्प तक उत्पन्न होते हैं इसलिए उपपाद पदकी अपेक्षा यह स्पर्श बन जाता है।
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40] सर्वार्थसिद्धौ
[118891सानः सादिः सपर्यवसानश्चेति । तत्र सादिः सपर्यवसानो जयन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेणार्धपुद्गलपरिवर्तों देशोनः । सोसादनसम्यादृष्टे नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । एकजीवं प्रति जघन्ये नैकः समयः । उत्कर्षेण षडावलिकाः । सम्यमिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । एकजीवं प्रति जघन्यः उत्कृष्टश्चान्तर्मुहर्त्तः । असंयतसम्य दृष्टेनानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः । उत्कर्षेण बर्यास्त्रशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्ये नान्तर्मुहर्त्तः । उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । प्रमताप्रमतयो नाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया एक जीवापेक्षया च जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेणान्तर्मुहर्तः । चतुर्णा क्षपकाणमयोगकेवलिनां च नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्यश्चोत्कृष्टश्चान्तर्मुहर्तः। सयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना ।
91. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ नारकेषु सप्तसु पृथिवीषु मिथ्यादृष्टे नाजीवाजीव सदा पाये जाते हैं । एक जीवकी अपेक्षा तीन भंग हैं—अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें से सादि-सान्त मिथ्यादष्टिका जघन्य काल अन्तमुहुर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है । सांसादनसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवलि है। सभ्यग्मिथ्यादष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तम हर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरोपम है। संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमहतं और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। चारों उपशमोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समर" है और उत्कृष्ट काल अन्तमूहर्त है। चारोंक्षपक और अयोगकेवलियोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तम हर्त है। सयोगकेवलियों का नाना जीवों की अपेक्षा सब काल है । एक जोवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमहर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है।
91. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरक गतिमें नारकियोंमें सातों पथि1. -हर्तः । तिगिण सहसा सत्त य सदाणि तेहरि च उस्मासा । एसो हवइ मुहुत्तो सम्वेसि चेव मणुयाणं ।' उत्क--म । 2. जो उपशम श्रेणिवाला जीव मर कर एक समय कम तेतीस सागरकी आयु ले कर अनुत्तर विमानमें पैदा होता है। फिर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें पैदा होकर जीवनभर असंयमके साथ रहा है। केवल जीवन में अन्त मुहूर्त काल शेष रहनेपर सयमको प्राप्त होकर सिद्ध होता है। उसके असंयत सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। यह काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अधिक एक समय कम तेतीस सागर है। 3. पूर्वकोटि की आयु वाला जो सम्मूछिम तिर्यच उत्पन्न होनेके अन्तम हर्त बाद वेदक सम्यक्त्वके साथ संयमासंयमको प्राप्त करता है संयमासंयमका उत्कृष्ट काल होता है। यह काल अन्तमुहर्त कम एक पूर्वकोटि है। 4. जघन्य काल एक समय मरणकी अपेक्षा बतलाया है। 5. जघन्य काल एकसमय मरणकी अपेक्षा बतलाया है।
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-118893]
प्रथमोऽध्यायः
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पेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण यथासंख्यं एक-त्रि-सप्त-दशसप्तदश-द्वाविंशति त्रयस्त्रशत्सागरोपमाणि । सासादनसम्यग्दृष्टः सम्यग्मिथ्यादृष्टेश्च सामान्योक्तः कालः । असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्ये नान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण उक्त एवोत्कृष्टो देशोनः ।
92. तितिरश्चां मिध्यादृष्टीनां नानाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । सासादनसम्य दृष्टिसभ्यमिथ्यादृष्टिसंयतासंयतानां सामान्योक्तः कालः । असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्महर्तः । उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि ।
६९३. मनुष्यगतौ मनुष्येषु मिथ्यादृष्टेर्नानानाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकानि । सासादनसम्यदृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण षडावलिकाः । सम्यग्मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया न जघन्यश्चोत्कृष्टवियों में मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य का अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमश: एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेतीस सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका काल ओघ के समान है । असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है ।
892 तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंका नानाजीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत तिर्यंचोंका सामान्योक्ति काल है । असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम है ।
893. मनुष्यगति में मनुष्यों में मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सत्र काल है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम है । सासादनसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवली है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी • अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्योपम है । तथा संयता
1. अन्तर्मुहूर्त कम । इतनी विशेषता है कि प्रारम्भके छह नरकोंमें मिथ्यात्वके साथ उत्पन्न करावे फिर अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्वको उत्पन्न कराकर जीवन भर सम्यक्त्वके साथ रखकर उत्कृष्ट काल प्राप्त करे । परन्तु सातवें नरकमें प्रवेश और निर्गम दोनों ही मिध्यात्वके साथ करावे । 2. यहाँ असंख्यातसे आवलिका असंख्यातवाँ भाग लिया गया है। 3. यहाँ पूर्वकोटि पृथक्त्वसे सैंतालीस पूर्वकोटियों का ग्रहण किया है । यद्यपि पृथक्त्व यह तीनसे ऊपर और नौसे नीचेकी संख्याका द्योतक है तथापि यहाँ बाहुल्यकी अपेक्षा पृथक्त्व पदसे संतालीसका ग्रहण किया है। 4. यहाँ साधिक पदसे कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभाग लिया गया है । उदाहरणार्थ – एक पूर्वकोटिके आयुवाले जिस मनुष्यने त्रिभागमें मनुष्यायुका बन्ध किया । फिर अन्तमुहूर्त में सम्यक्त्वपूर्वक क्षायिकसम्यग्दर्शनको प्राप्त किया और आयुके अन्तमें मरकर तीन पल्यकी आयुके साथ उत्तम भोगभूमिमें पैदा हुआ उसके अविरत सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है ।
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42]
सर्वार्थसिद्धौ
[118 893श्चान्तर्मुहर्तः । असंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः उत्कर्षेण त्रीणि पत्योपमानि सातिरेकाणि । शेषाणां सामान्योक्तः कालः।
894. देवगतौ देवेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तः। उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि । सासादनसम्यग्दृष्टेः सम्यग्मिच्यादृष्टश्च सामान्योक्तः कालः । असंयतसम्यग्दष्टे नाजोवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तः । उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि ।
895. इन्द्रियानुवादेन एफेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । विकलेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जवन्येत क्षुद्रभवग्रहणम् । उत्कर्षेण संख्येयानि वर्षसहस्राणि । पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः । उत्कर्षण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृयक्त्वैरभ्यधिकम् । शेषाणां सामान्योक्तः कालः ।
896. कायानुवादेन पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां नानाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जयन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । उत्कर्षेण/संख्येया लोकाः । वनस्पतिकायिकानामे केन्द्रियवत् । त्रसकाविषेषु मिश्यादृष्टेननिाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षण द्वे सागरोपमसहस्रे पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके । शेषाणां पञ्चेन्द्रियवत् ।
६ 97. योगानुवादेन वाङ्मनसयोगिषु मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तासंयत आदि शेषका काल ओघके समान है।
894. देवगतिमें देवोंमें मिथ्याष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादष्टिका काल ओघके समान है। असंयत सम्यग्दष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल : है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है।
$ 95. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। विकलेन्द्रियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। पंचेन्द्रियोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक हजार सागरोपम है। तथा शेष गुणस्थानोंका काल ओषके समान है।
896. काय मार्गणाके अनुवादसे पथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायूकायिकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। वनस्पतिकायिकोंका एकेन्द्रियोंके समान काल है। त्रसकायिकोंमें मिथ्याष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटीपथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। इनके शेष गुणस्थानोंका काल पंचेन्द्रियोंके समान है।
$ 97. योग मार्गणाके अनुवादसे वचनयोगी और मनोयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि, असंयत1. --ख्येयः कालः । वन-मु.। 2. लगातार दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय या चौइन्द्रिय होनेका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । इसलिए इनका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है।
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--118898] प्रथमोऽध्यायः
143 प्रमतसयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । सासादनसम्यग्दृष्टः . सामान्योक्तः कालः सम्यमिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया जघन्येनैकसमयः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेपान्तर्मुहूर्तः । चतुर्णामुपशमकानां क्षपकाणां च नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्येनैकसमयः । उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । काययोगिषु मिथ्यादृष्ट नाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनंकसमयः । उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । शेषाणां मनोयोगिवत् । अयोगानां सामान्यवत् ।
98. वेदानुवादेन स्त्रीवेदेषु मिश्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण पल्पोपमशतपृथक्त्वम् । सासादनसम्यग्दृष्टभानिवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्तः कालः । किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येनानन्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि देशोनानि । पुवेदेषु मिथ्यादृष्टानाजीवापेक्षवा सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जवन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण सागरोयमशतपृथक्त्वम् । सासादनसम्यग्दृष्टयाद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्तः कालः। नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवासम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवलियोंका नाना जीवोंको अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त है। सासादनसम्यग्दष्टिका सामान्योक्त काल है। सम्यग्मिथ्याष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। चारों उपशमक और चारों क्षपकोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। काययोगियोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। शेषका काल मनोयोगियोंके समान है। तथा अयोगियोंका काल ओघके समान है।
898. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदवालोंमें मिथ्यादष्टिका नाना जीवकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट काल सौपल्योपम पथक्त्व है । सासादन सम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है। किन्तु असंयत सम्यग्दष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तम हर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम 'पचपन पल्योपम है। पुरुषवेदवालोंमें मिथ्यादष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जवन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सौ सागरोपम पथक्त्व है। तथा सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक 1. मनोयोग, वचनयोग और काययोगका जघन्य काल एक समय योगपरावृत्ति, गुणपरावृत्ति, मरण और व्याघात इस तरह चार प्रकारसे बन जाता है। इनमें से मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत यहाँ पर चारों प्रकार सम्भव हैं। अप्रमत्तसंयतके व्याघातके बिना तीन प्रकार सम्भव हैं, क्योंकि व्याघात और अप्रमत्तभावका परस्परमें विरोध है और सयोगिकेवलीके एक योगपरावृत्तिसे ही जघन्य काल एक समय प्राप्त होना सम्भव है। 2. मरणके बिना शेष तीन प्रकारसे यहाँ जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिए। 3. उपशमकोंके व्याघातके बिना तीन प्रकारसे और क्षपकोंके मरण और व्याघातके बिना दो प्रकारसे जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। 4. देवीकी उत्कृष्ट आयु पचपन पल्य है। इसमें से प्रारम्भका अन्तमुहूर्त काल कम कर देनेपर स्त्रीवेदमें असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य प्राप्त हो जाता है। 5. तीन सौ सागरसे ऊपर और नौ सौ सागरके नीचे ।
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441 सर्वार्थसिद्धौ
[118898पेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । सासादनसम्यग्दृष्ट याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्यवत् । त्विसंयतसम्यग्दृष्ट नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि देशोनानि । अपगतवेदानां सामान्यवत् ।
899. कषायानुवादेन चतुष्कषायाणां मिथ्यादृष्टयाद्यप्रमत्तान्तानां मनोयोगिवत् । द्वयोरुपशमकयोर्द्वयोः क्षपकयोः केवललोभस्य च अकषायाणां च सामान्योक्तः कालः।
8100. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिष मिथ्यादष्टिसासादनसम्यग्दष्टयोः सामान्यवत् । विभङ्गज्ञानिषु मिच्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्टः सामान्योक्तः कालः । आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानिनां च सामान्योक्तः ।
$101. संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातशुद्धिसंयतानां संयतासंयतानामसंयतानां च चतुर्णां सामान्योक्तः कालः ।
$102. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्टेन नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। एकजीवं प्रति जघन्यनान्तर्मुहर्तः । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र । सासादनसम्यग्दष्टयादीनां क्षीणकषायाका सामान्योक्त काल है । नपुसकवेदवालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है । तथा सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है। किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । तथा वेदरहित जीवोंका काल ओघके समान है।
899. कषाय मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक चारों कषायों का काल मनोयोगियोंके समान है। तथा दोनों उपशमक, दोनों क्षपक, केवल लोभवाले और कषायरहित जीवोंका सामान्योक्त काल है।
$100. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिका काल ओघके समान है। विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। तथा सासादनसम्यग्दष्टिका सामान्योक्त काल है। आभिनिबोधिकज्ञानी, भ्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानियोंका सामान्योक्त काल है।
$ 101. संयम मार्गणाके अनुवादसे सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, यथाख्यातशुद्धिसंयत, संयतासंयत और चारों असंयतोंका सामान्योक्त काल है।
$102. दर्शन मार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल दो 1. यह सादि सान्त कालका निर्देश है। 2. सातवें नरक में असंयत सम्यग्दृष्टिका जो उत्कृष्ट काल है वही यहाँ नपुंसक वेदमें असंयत सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल कहा है। 3. मिथ्यादृष्टि नारकी या देवके उत्पन्न होनेके बाद पर्याप्त होने पर ही विभंगज्ञान प्राप्त होता है। इसीसे यहाँ एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टिके विभंगज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है।
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-1188103] प्रथमोऽध्यायः
145 न्तानां सामान्योक्तः कालः। अधक्षुर्दर्शनिषु मिय्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तः कालः । अवधिकेवलदर्शनिनोरवधिकेवलज्ञानिवत् ।
8103 लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यासु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि सातिरेकाणि । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्टयोः सामान्योक्तः कालः । असंयतसम्य दृष्ट नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहर्तः। उत्कर्षेण त्रस्त्रिशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि देशोनानि । तेजःपद्मलेश्ययोमिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयो नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। एकजीवं प्रति जयन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि । सासावनसम्यग्दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्टयोः सामान्योक्तः कालः । संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तानां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । उत्कर्वेणान्तर्मुहर्तः । शुक्ललेश्यानां मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तः। उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । सासादनसम्यग्दृष्टयादिसयोगकेवल्यन्तानामलेश्यानां च सामान्योक्तः हजार सागरोपम है। तथा सासादन सम्यग्दष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है । अचक्षुदर्शनवालोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है। अवधिदर्शनवाले और केवलदर्शनवाले जीवोंका काल अवधिज्ञानी और केवलज्ञानियोंके समान है।
8103. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक तेतीस सागरोपम, साधिक सत्रह सागरोपम और साधिक सात सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका सामान्योक्त काल है। असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ कम तेतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है। पीत और पद्मलेश्यावालों में मिथ्यादष्टि और असंयतसम्यग्दष्टि का नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है। सासादनसम्यग्दष्टि और सम्यग्मिथ्याष्टिका सामान्योक्त काल है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शुक्ल लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागरोपम है । सासादन सम्यग्दृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक प्रत्येकका और लेश्यारहित जीवों
1. जो जिस लेश्यासे नरकमें उत्पन्न होता है उसके मरते समय अन्तर्मुहूर्त पहले वही लेश्या आ जाती है। इसी प्रकार नरकसे निकलनेपर भी अन्तर्मुहूर्त तक वही लेश्या रहती है। इसीसे यहाँ मिथ्यादृष्टिके कृष्ण, नील और कापोत लेश्याका उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागरोपम,साधिक सत्रह सागरोपम और साधिक सात सागरोपम बतलाया है । 2. मिथ्यादृष्टिके पल्योपमका असंख्यातवां भाग अधिक दो सागरोपम या अन्तमुहूर्त कम ढाई सागरोपम और सम्यग्दृष्टिके अन्तमुहर्त कम ढाई सागरोपम । 3. मिथ्यादृष्टिके पल्योपमका असंख्यातवा भाग अधिक अठारह सागरोपम और सम्यग्दृष्टिके अन्तमुहूर्त कम साढ़े अठारह सागरोपम । 4. लेश्यापरावृत्ति और गुणपरावृत्तिसे जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है।
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46]
सर्वार्थसिद्ध
[118 § 103कि तु संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः ।
कालः ।
$ 104. भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवापेक्षया द्वौ भङ्गौ अनादिः सपर्यवसानः सादिः सपर्यवसानश्च । तत्र सादिः सपर्यवसानो जघन्ये नान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेणार्द्धपुद्गल परिवर्तो देशोनः । सासादनसम्यग्दृष्टयद्ययोगकेवत्यन्तानां सामान्योक्तः कालः । अभव्यानामनादिरपर्यवसानः ।
8105. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टी नामसंयतसम्यग्दृष्टाद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्योक्तः कालः । क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टीनां चतुर्णां सामान्योक्तः कालः । औपशमिकसम्यक्त्वेषुअसंयत सम्यग्दृष्टिसंयत । संयतयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । एकजीवं प्रति जघन्यश्चोत्कृष्टइचान्तर्मुहूर्तः । प्रमताप्रमतयोश्चतुर्णामुपशमकानां च नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । सासादनसभ्यग्दृष्टिसम्यङ्गमिथ्यादृष्टिमिथ्यादृष्टीनां सामान्योक्तः कालः ।
8106. संज्ञानुवादेन संज्ञिषु मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां पुंवेदवत् । शेषाणां सामान्योक्तः । 'असंज्ञिनां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । 'उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । तदुभयव्यपदेश रहितानां सामान्योक्तः । का सामान्योक्त काल है । किन्तु संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
§ 104. भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्यों में मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा संब काल है । एक जीवकी अपेक्षा दो भंग हैं अनादि - सान्त और सादि - सान्त । इनमेंसे सादि- सान्त भंगकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है । सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है । अभव्योंका अनादि - अनन्त काल है ।
।
8105. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येकका सामान्योक्त काल है । चारों क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टियोंका सामान्योक्त काल है । औपशमिक सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृट काल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और चारों उपशमकोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टिका सामान्योक्त काल है ।
8106. संज्ञा मार्गणा अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येकका काल पुरुषवेदियोंके समान है । तथा शेष गुणस्थानोंका सामान्योक्त काल है । असंज्ञियों का नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है । संज्ञी और असंज्ञी व्यवहारसे रहित जीवोंका सामान्योक्त काल है
1. - ज्ञिनां मिथ्यादृष्टेर्नाना मु. 1 2 ग्रहणम् । तिष्णिसया छत्तीसा छावट्ठी सहस्साणि मरणाणि । अन्तोमुहुत्तमेत तावदिया चेव होंति खुद्द भवा । 66336 । उत्क—मु. ।
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--118 8 108] प्रथमोऽध्यायः
[47 107. आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेणांगुलासंख्येयभागः असंख्येयासंख्येया उत्सपिण्यवसपिण्यः ।। शेषाणां सामान्योक्तः कालः । अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः उत्कर्षेण त्रयः समयाः। सासादनसम्यग्दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयोनानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः। उत्कर्षेणावलिकाया असंख्येयभागः । एकजीवं प्रति जघन्येनकः समयः । उत्कर्षेण द्वौ समयौ । सयोगकेवलिनो नानाजीवापेक्षया जघन्येन त्रयः समयाः । उत्कर्षण संख्येयाः समयाः । एकजीवं प्रति जघायश्चोत्कृष्टश्च त्रयः समयाः। अयोगकेवलिनां सामान्योक्तः कालः । कालो वणितः ।
___$108. अन्तरं निरूप्यते । विवक्षितस्य गुणस्य गुणान्तरसंक्रमे सति पुनस्तत्प्राप्तेः प्राङमध्यमन्तरम । तद द्विविध सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावद मिथ्यादृष्टानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनार्मुहुर्तः । उत्कर्षेण द्वे षट्पष्टी देशोने सागरोपमाणाम् । सासादनसम्यग्दृष्टेरन्तरं नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । एकजीवं प्रति जवन्येन पत्योपमासंपेयमागः । उत्कर्षेणार्द्धपुद्गलपरिवर्तो देशोनः।
8107. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट काल अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जिसका प्रमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है। शेष गणस्थानोंका सामान्योक्त काल है। अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवको अपेक्षा जवन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। सासादनसम्यग्दष्टि और असंयत सम्यग्दष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। सयोगकेवलीका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अयोगकेवलियोंका सामान्योक्त काल है। इस प्रकार कालका वर्णन किया।
8108. अब अन्तरका निरूपण करते हैं । जब विवक्षित गुण गुणान्तररूपसे संक्रमित हो जाता है और पुन: उसकी प्राप्ति होती है तो मध्यके कालको अन्तर कहते हैं। वह सामान्य और विशेषकी अपेक्षा दो प्रकारका है। सामान्यकी अपेक्षा मिथ्यादष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय।
1. —ख्येयाः संख्य-मु.। 2. यदि दर्शन मोहनीयका क्षपणा काल सम्मिलित न किया जाय तो वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल अन्तम हर्त कम छयासठ सागर प्राप्त होता है। साथ ही यह भी नियम है कि ऐसा जीव मध्य में अन्तम हर्तके लिए मिथ गुणस्थानमें जाकर पुनः अन्तम हर्त कम छयासठ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रह सकता है । इसके बाद वह या तो मिथ्यात्वमें चला जाता है या दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करने लगता है । यहाँ मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर लाना है इसलिए मिथ्यात्वसे लाकर अन्तमें पुनः मिथ्यात्वमें ही ले जाना चाहिए। इससे मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक सौ बत्तीस सागर प्राप्त हो जाता है। 3. यदि सासादन सम्यग्दृष्टि न हों तो वे कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भाग काल तक नहीं होते इसीसे इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है।
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48]
सर्वार्थसिद्धौ
[1188 108 - सम्यग्मिध्यादृष्टेरन्तरं नानाजीवापेक्षया सासादनवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। उत्कर्षेणार्द्धपुद्गलपरिवर्तो देशोनः । असंयतसम्यग्दृष्टयाचप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेणार्द्धपुद्गलपरिवर्तो देशोनः । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षणार्द्धपुद्गलपरिवर्तो देशोनाः । चतुर्णा क्षपकाणामयोगकेवलिनां च नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण षग्मासाः। एक नीवं प्रति नास्त्यन्तरम। सयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् ।
६109. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ नारकाणां सप्तसु पृथिवीषु मिथ्यादृष्टयसंयतसम्पादृष्ट यो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण एकत्रि सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि देशोनानि। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्ट योनानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः। एक
और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तन है। सम्यग्मिथ्यादष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर सासादनसम्यग्दृष्टियोंके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है । असंयत सम्यग्दष्टिसे लेकर अप्रगत्तसंयत तक प्रत्येकका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तम हुर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। चारों क्षपक और अयोगकेवलियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सयोगकेवलियोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है।
8 109. विशेषकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें सातों पृथिवियोंमें मिथ्यादष्टि और असंयतसम्यदष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमश: कुछ कम एक सागरोपम, कुछ कम तीन सागरोपम, कुछ कम सात सागरोपम, कुछ कम दस सागरोपम, कुछ कम सत्रह साग
सम, कूछ कम बाईस सागरोपम और कुछ कम तेतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर सातों नरकोंमें क्रमशः कुछ कम एक साग
1 सासादन गुणस्थान उपशम सम्यवत्वसे च्युत होने पर ही प्राप्त हो सकता है। किन्तु एक जीव कमसे कम पल्पके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल के जाने पर ही दूसरी बार उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हो सकता है । इसीसे यहाँ सासादन सम्यग्दष्टि का जघन्यकाल अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा है। 2. एक जीव उपशम श्रेणिसे च्युत होकर पुनः अन्तर्मुहूर्तसे बाद उपशम श्रेणिपर चढ़ सकता है इसलिए चारों उपशमकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तम हुर्त बतलाया है। 3. जिस नरककी जितनी उत्कृष्ट स्थिति है उसके प्रारम्भ और अन्त में अन्तम हुर्त तक मिथ्यात्वके साथ रखकर मध्यमें सम्यक्त्वके साथ रखनेसे उस नरकमें मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर आ जाता है जिसका निर्देश मूल में किया ही है।
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-118 § 111]
प्रथमोऽध्यायः
जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । उत्कर्षेण एक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदशद्वाविंशति त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि देशोनानि ।
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110 तिर्यग्गतौ तिरश्चां मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्ये नान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्टद्यादीनां चतुर्णां सामान्योक्तमःतरम् ।
$ 111. मनुष्यगतौ मनुष्याणां मिथ्यादृष्टेस्तिर्यग्वत् । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमा संख्ये य भागोऽन्त महूर्तश्च । उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्व कोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकानि । असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीरोपम कुछ कम तीन सागरोपम, कुछ कम सात सागरोपम, कुछ कम दस सागरोपम, कुछ सत्रह सागरोपम, कुछ कम बाईस सागरोपम और कुछ कम तेतीस ' सागरोपम है ।
$ 110. तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्योपम है । तथा सासादनसम्यग्दृष्टि आदि चारोंका सामान्योक्त अन्तर है ।
$ 111. मनुष्य गतिमें मनुष्योंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर निर्यंचोंके समान है । सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट अन्तरपूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है । असंयसतसम्यदृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटी पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी
1. नरक में उत्कृष्ट स्थितिके साथ उत्पन्न होने पर अन्तर्मुहूर्त के बाद उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कराके सासादन और मिश्रमें ले जाय। फिर मरते समय सासादन और मिश्रमें ले जाय । इस प्रकार प्रत्येक नरक में सासादन और मिश्र गुण-स्थानका उत्कृष्ट अन्तर आ जाता है। इतनी विशेषता है कि सातवें नरकमें मरनेके अन्तर्मुहूर्त पहले सासादन और मिश्र में ले जाय। 2. जो तीन पत्येकी आयुके साथ कुक्कुट और मर्कट आदि पर्यायमें दो माह रहा और वहाँसे निकलकर मुहूर्तं पृथक्त्वके भीतर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । फिर अन्तमें मिथ्यात्व में जाकर और सम्यक्त्वको प्राप्त होकर मरकर देव हुआ । उसके मुहूर्त पृथक्त्व और दो माह कम तीन पल्य मिध्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर होता है । 3. मनुष्य गतिमें मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर 10 माह 19 दिन और दो अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्य है । 4. मनुष्यकी उत्कृष्ट काय स्थिति संतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है । कोई एक अन्य गतिका जीव सासादनके कालमें एक समय शेष रहने पर मनुष्य हुआ और अपनी उत्कृष्ट कार्यस्थिति प्रमाण काल तक मनुष्य पर्यायमें घूमता हुआ अन्तमें उपशम सम्यक्त्वपूर्वक एक समयके लिए सासादनको प्राप्त हुआ और मरकर देव हो गया तो इससे मनुष्य गतिमें सासादनका उत्कृष्ट अन्तर दो समय कम सैंतालीस पूर्व-कोटि और तीन पल्व प्राप्त हो जाता है । मिश्र गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय मनुष्य पर्याय प्राप्त करनेपर आठ वर्षके बाद मिश्र गुणस्थान प्राप्त करावे । फिर कायस्थितिके अन्त में मिश्र गुणस्थान प्राप्त कराकर मिथ्यात्व या सम्यक्त्वमें ले जाकर मरण करावे । तो इस प्रकार मिश्र गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर तीन अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्ष कम सैंतालीस पूर्वकोटि और तीन पल्य प्राप्त होता है। 5. मनुष्य सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर आठ वर्ष दो अन्तर्मुहूर्त कम संतालीस पूर्वकोटि और तीन पल्य है ।
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सर्वार्थसिद्धौ
[1188 111पृथक्त्वैरभ्यधिकानि । संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जयन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण पूर्वकोटोपृथक्त्वानि। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण पूर्वकोटीपृथक्त्वानि। शेषाणां सामान्यवत् ।
112. देवगतौ देवानां मिय्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्ट यो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्महर्तः । उत्कर्षेण एकत्रिशत्सागरोपमाणि देशोनानि। सासादनसम्यग्दष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि ।
113. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटोपृथक्त्वरभ्यधिके । विकलेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । एवमिन्द्रियं प्रत्यन्तरमुक्तम् । गुणं प्रत्युभयतोऽपि नास्त्यन्तरम् । पञ्चेन्द्रियेष मिथ्यादष्टः सामान्यवत । सासादनसम्यग्दष्टिसम्यङमिथ्यादष्टयो नाजीवापेक्षय सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । उत्कर्षेण सागरोपमसहस्र अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपथक्त्व है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व है। शेष गुणस्थानों का अन्तर ओघके समान है।
8112. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तमुहूर्त है । तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है।
6113. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। 'एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। विकलेन्द्रियोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी समक्षा जघन्य अन्तर क्षद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। इस प्रकार इन्द्रियकी अपेक्षा अन्तर कहा । गुणस्थानकी अपेक्षा विचार करने पर तो इनके नाना जीवोंकी अपेक्षा और एक जीवकी अपेक्षा दोनों अपेक्षाओंसे भी अन्तर नहीं है या उत्कृष्ट और जघन्य दोनों प्रकारसे अन्तर नहीं है। पंचेन्द्रियोंमें मिथ्यादष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमश: पल्योपमका असंख्यातवाँ 1. भोगभूमिमें संयमासंयम या संयमकी प्राप्ति सम्भव नहीं, इसलिए सैतालीस पर्वकोटिके भीतर ही यह अन्तर नाया है। 2. देवोंमें नौवें ग्रैवेयक तक हो गुणस्थान परिवर्तन सम्भव है । इसीसे यहाँ मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर बतलाया है। 3. त्रस पर्यायमें रहनेका उत्कृष्ट कान पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। इसीसे एकेन्द्रियोंका उक्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर कालाया है।
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- 1188114] प्रथमोऽध्यायः
51] पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम् । असंयतसम्यग्दृष्टयाद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहुर्तः। उत्कर्षेण सागरोपमसहस्र पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम् । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षण सागरोपमसहस्र पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम् । शेषाणां सामान्योक्तम् ।
$114. कायानुवादेन पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः। वनस्पतिकायिकानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । उत्कर्षेणासंख्येया लोकाः । एवं कार्य प्रत्यन्तरमुक्तम् । गुणं प्रत्युभयतोऽपि नास्त्यन्तरम् । त्रसकायिकेषु मिथ्यादृष्टः सामान्यवत् । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिय्यादृष्टयोनानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटोपृथ-. क्त्वैरभ्यधिके । असंयतसम्यग्दृष्टयाद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटोपृथक्त्वैरभ्यधिके। चतुर्णामुपशमकानां भाग और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम है । चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओधके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम है । शेष गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है।
8114. काय मार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायकायिक जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। वनस्पतिकायिकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। इस प्रकार कायकी अपेक्षा अन्तर कहा। गणस्थानकी अपेक्षा विचार करने पर तो नाना जीवोंकी अपेक्षा और एक जीवकी अपेक्षा इन दोनों अपेक्षाओंसे भी अन्तर नहीं है। या उत्कृष्ट और जघन्य इन दोनों अपेक्षाओंसे अन्तर नहीं है । त्रसकायिकोंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तम हर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त 1. –भ्यधिके । चतुर्णा-मु.। 2. सासादनोंका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपममें-से आवलिका असंख्यातवाँ भाग और नौ अन्तर्मुहुर्त कम कर देना चाहिए। मिश्र गुणस्थानवालोंका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय बारह अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए । असंयत सम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय दस अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए । संयतासंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय तीन पक्ष, तीन दिन और बारह अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए । प्रमत्तसंयतों और अप्रमत्तसंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय आठ वर्ष और दस अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए । अपूर्वकरण आदि चार उपशमकों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय क्रमसे 30,28,26 और 24 अन्तमुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम कर देना चाहिए।
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सर्वार्थसिद्धी
[1188114नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके । शेषाणां पञ्चेन्द्रियवत् ।
8115. योगानुवादेन कायवाङ्मनसयोगिनां मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमताप्रमत्तसयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिय्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एक जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । चतुर्णा क्षपकाणामयोगकेवलिनां च सामान्यवत् ।
8116. वेदानुवादेन स्त्रीवेदेषु मिथ्यादृष्टेन नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यावष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत । एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहर्तश्च । उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । असंयतसम्यग्दृष्टयाचप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । द्वयोरुपशमकयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । द्वयोः क्षपकयो नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । एकजीवं और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है । चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। तथा शेष गुणस्थानोंका अन्तर पंचेन्द्रियोंके समान है।
8115. योग मार्गणाके अनुवादसे काययोगी, वचनयोगी और मनोयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवलीका नाना जीवों और एक जोवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। चारों क्षपक और अयोगकेवलियोंका अन्तर ओघके समान है।
8116. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन' पल्योपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्बग्मियादृष्टिका नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तम हर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्योपम पृथक्त्व है। असंयतसम्यग्दष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तम हर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्योपम पृथक्त्व है। दोनों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तम हर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्योपम पृथक्त्व है। दोनों क्षपकोंका नाना जोवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और
1. पाँच अन्तमहतं कम पचपन पल्य । 2. स्त्रीवेदका उत्कृष्ट काल सो पल्योपम पृथक्त्व है उसमें से दो समय कम कर देनेपर स्त्रीवेदियोंमें सासादन सम्यग्दृष्टिका अन्तर आ जाता है और छह अन्तमहर्त कम कर देनेपर सम्यग्मिध्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर आ जाता है। आगे भी इसी प्रकार आगमानसार घटित कर लेना। चाहिए।
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--1175 119] प्रथमोऽध्यायः
[53 प्रति नास्त्यन्तरम् ।
117. पुंवेदेषु मिथ्यादृष्टः सामान्यवत् । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयोनानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । उत्कर्षण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । असंयतसम्यग्दृष्टयाद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । द्वयोरुपशमकयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । द्वयोः क्षपकपोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः। उत्कर्षेण संवत्सरः सातिरेकः । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्।
8118. नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहुर्तः । उत्कर्षेण त्रस्त्रिशत्सागरोपमाणि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्टयाद्यनिवृत्त्युपशमकान्तानां सामान्योक्तम । द्वयोःक्षपकयोः स्त्रीवेदवत । अपगतवेदेष अनिवत्तिबादरोपशमकसक्षमसांपरायोपशमकयो नाजीवापेक्षया सामान्योक्तम् । एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः। उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । शेषाणां सामान्यवत् ।
$ i19. कषायानुवादेन क्रोधमानमायालोभकषायाणां मिथ्यादृष्टयाद्यनिवृत्त्युपशमकाउत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व' है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है।
8117. पुरुषवेदियों में मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशःपल्योपमका असंख्यतवाँ भाग और अन्तमहर्त है तथा उत्कृष्टअन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ मायरोपम पथक्त्व है। दोनों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पथक्त्व है। दोनों अपकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है।
118. नपुंसक वेदवालोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा, अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दष्टिसे लेकर अनिवृत्ति उपशमक तक प्रत्येक गुणस्थानका सामान्योक्त अन्तर है। तथा दोनों क्षपकोंका अन्तर स्त्रीवेदियोंके समान है। अपगतवेदवालोंमें अनिवृत्तिबादर उपशमक और सक्ष्मसाम्पराय उपशमकका नाना जीवोंकी अपेक्षा सामान्योक्त अन्तर है। एकजीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तम हुर्त है। उपशान्तकषायका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवको अपेक्षा अन्तर नहीं हैं । शेष गुणस्थानोका अन्तर ओघके समान है।।
$ 119. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोध, मान, माया और लोभ में मिथ्यादृष्टिसे लेकर 1. साधारणतः क्षपकश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । पर स्त्रीवेदकी अपेक्षा उसका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व बतलाया है। 2. सासादनके दो समय कम और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके छह अन्तर्मुहूर्त कम सौ सागरोपम पृथक्त्व यह अन्तर जानना चाहिए। आगे भी इस प्रकार यथा योग्य अन्तर घटित कर लेना चाहिए। 3. पुरुषवेदी अधिकसे अधिक साधिक एक वर्ष तक क्षपक श्रेणिपर नहीं चढ़ता यह इसका भाव है।
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54] सर्वार्थसिद्धौ
-1188 119 ] न्तानां मनोयोगिवत् । द्वयोः क्षपकयो नाजीवापेक्षया जघन्ये नेकः समयः। उत्कर्षेण संवत्सरः सातिरेकः । केवललोभस्य सूक्ष्मसांपरायोपशमकस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । क्षपकस्य तस्य सामान्यवत् । अकवायेषु उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । शेषाणां त्रयाणां सामान्यवत् ।
120. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानिषु मिथ्यादृष्टेना जीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । सासादनसम्यग्दृष्टेना जीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानिषु असंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना। संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः । उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि सातिरेकाणि । प्रमत्ताप्रमत्तयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षण त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि। चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि सातिरेकाणि । चतुर्णां क्षपकाणां सामान्यवत् । किंतु अवधिज्ञानिषु नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । अनिवृत्तिबादर उपशमक तक प्रत्येक गुणस्थानका अन्तर मनोयोगियोंके समान है । दोनों क्षपकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष लोभ कषायमें सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमकका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । सूक्ष्मलोभवाले क्षपकका अन्तर ओघके समान है। व रहित जीवोंमें उपशान्तकषायका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। शेष तीन गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है।
120. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादष्टिका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सासादन सम्यग्दष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें असंयतसम्यग्दष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटी है । संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्सर अन्तमूहर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागरोपम है । प्रमत्तसंयत और अप्रभत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जोवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागरोपम है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागरोपम है। चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है। किन्तु अवधिज्ञानियोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। 1. चार अंतर्मुहूर्त कम पूर्व कोटि । 2. आठ वर्ष और ग्यारह अंतर्मुहूर्त कम तीन पूर्वकोटि अधिक छयासठ सागरोपम । किन्तु अवधिज्ञानीके ग्यारह अंतर्मुहूर्तके स्थानमें 12 अंतमुहूर्त कम करना चाहिए । 3. प्रमत्तके साढ़े तीन अंतर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर है । और अप्रमत्तके दो अंतमुहर्त कम पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर है। 4. तीन या चार पूर्व कोटि अधिक छयासठ सागरोपम । किंतु इसमें-से चारों उपशमकोंके क्रमसे 26, 24, 22 और 20 अंतमुहर्त तथा आठ वर्ष कम कर देना चाहिए। 5. अवधिज्ञानी प्राय: बहुत ही कम होते हैं, इसलिए इतना अंतर बन जाता है।
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551
--118 $ 121]
प्रथमोऽध्यायः एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । मनःपर्ययज्ञानिषु प्रमत्ताप्रमत्तसंयतयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । चतुर्णां क्षपकाणामवधिज्ञानिवत् । द्वयोः केवलज्ञानिनोः सामान्यवत् ।
121. संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयतेषु प्रमत्ताप्रमत्तयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । द्वयोरुपशमकयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण पूवकोटी देशोना। द्वयोः क्षपकयोः सामान्यवत् । परिहारशुद्धिसयतेषु प्रमत्ताप्रमत्तयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीव प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । सूक्ष्मसांपरायशुद्धि संयतेषूपशमकस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीव प्रति नास्त्यन्तरम् । तस्यैव क्षयकस्य सामान्यवत् । यथाख्याते अकषायवत् । संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । असंयतेषु मिथ्यादृष्टेन नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण त्रस्त्रिशत्सागरोपमाणि देशोनानि । शेषाणां त्रयाणां सामान्यवत् । एक जोवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । मनःपर्यज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त है। चारों उपशमकोंका नाना जोवोंको अपेक्षा अन्तर ओषके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटी है । चारों क्षपकोंका अन्तर अवधिज्ञानियोंके समान है । दोनों केवलज्ञानियोंका अन्तर ओघके समान है।
121. संयम मार्गणाके अनुवादसे सामायिक शुद्धिसंयत और छेदोपस्थापनशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। दोनों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटी है । दोनों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है। परिहारशु द्धि संयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जोवको अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। सूक्ष्मसाम्परायशद्धिसंयतोंमें उपशमकका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जोवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। तथा उसी सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकका अन्तर ओघके समान है। यथाख्यातमें अन्तर कषायरहित जीवोंके समान है। संयतासंयतका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । असंयतोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरोपम' है । शेष तीन गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है। 1. —यमे उप-आ., दि. 1, दि. 2, ता.। 2. उपशमश्रेणि और प्रमत्त-अप्रमत्तका काल अन्तर्मुहूर्त होनेरे मनःपर्ययज्ञानी प्रमत्त और अप्रमत्तका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अंतर्मुहूर्त बन जाता है । 3. आठ वर्ष और 12 अंतर्मुहुर्त कम एक पूर्वकोटि । 4. प्रमत्तको अप्रमत्तसे और अप्रमत्तको प्रमत्तसे अंतरित कराके यह अंतर ले आना चाहिए। 5. आठ वर्ष और ग्यारह अंतर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अपूर्वकरणका उत्कृष्ट अंतर है । अनिवृत्तिकरणका समयाधिक नौ अंतर्मुहुर्त और आठ वर्ष कम एक पूर्व कोटि उत्कृष्ट अंतर है। 6. प्रमत्त और अप्रमत्तको परस्पर अंतरित करानेसे यह अंतर आ जाता है। 7. यह अंतर सातवें नरकमें प्राप्त होता है।
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56] सर्वार्थसिद्धौ
[118 8 1228122. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्टः सामान्यवत् । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादष्टयोनानाजीवापेक्षया सामान्यवत। एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तमुहूर्तश्च । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र देशोने । असंयतसम्यग्दृष्टयाधप्रमतान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तः उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहने देशोने । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्योक्तम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तः। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र देशोने । चतुर्णां क्षपकाणां सामान्योक्तम् । अचक्षुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तमन्तरम् । अवधिदर्शनिनोऽवधिज्ञानिवत् । केवलदर्शनिनः केवलज्ञानिवत् ।
8123. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यासू मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दष्टयो नाजीवापेक्षया नास्त्यातरम । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तम हर्तः। उत्कर्षेण त्रस्त्रिशत्सप्तदशसप्तसागसेपमाणि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकझीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तमुहूर्तश्च । उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि देशोनानि।
8122. दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्याष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमक। असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम है। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तमूहर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टः अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम है । चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है। अचक्षुदर्शनवालोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानका सामान्योक्त अन्तर है। अवधिदर्शनवालोंका अवधिज्ञानियोंके समान अन्तर है। तथा केवलदर्शनवालोंके केवलज्ञानियोंके समान अन्तर है।
8123. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तम हर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः कुछ कम तेतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दोनों गुणस्थानोंमें क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर तीनों लेश्याओंमें क्रमशः कुछ कम तेतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है।
+सामान्यवत । एव-मु.। 2. चक्षुदर्शनवालोंमें सासादनके नौ अन्तम हर्त और आवलिका असंख्यातवाँ भाग कम सम्यग्मिथ्यादृष्टि के बारह अंतर्मुहुर्त कम दो हजार सागरोपम उत्कृष्ट अंतर है। 3. चक्षुदर्शनवालोंमें अविरतसम्यग्दष्टिके 10 अंतम हर्त कम संयतासंयतके 48 दिन और 12 अंतमहत कम, प्रमत्तसंयत के 8 वर्ष 10 अन्तर्मुहूर्त कम और अप्रमत्त संयतके भी 8 वर्ष और 10 अन्तर्मुहूर्त कम दो हजार सागरोपम उत्कृष्ट अंतर है। 4. चक्षुदर्शनवालोंमें चारों उपशमकोंका क्रमसे 29, 27, 25 और 23 अंतमहत तथा आठ वर्ष कम दो हजार सागरोपम उत्कृष्ट अंतर है।
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-1188 126] प्रथमोऽध्यायः
[57 $ 124. तेजःपमलेश्ययोमिथ्यावृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकज़ीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि। संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्स्यन्तरम् ।
$ 125. शुक्ललेश्येषु मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकनीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षणकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यक्त् । एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंल्येयभागोतमुहूर्तश्च । उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । संयतासंयतप्रमत्तसयतोस्तेजोलेश्यावत् । अप्रमत्तसंपतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्ट चान्तमूहर्तः । त्रयाणामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्ट चान्तर्महर्तः। उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत । एकजीवं प्रति नास्स्यन्तरम् । चतुर्णा क्षपकाणां सयोगकेवलिनामलेश्यानां च सामान्यवत् ।
126. भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्टयाद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । अभव्याना
8124. पीत और पद्म लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तम हतं और उत्कृष्ट अन्तर दोनों लेश्याओंमें क्रमशः साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है और एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर दोनों गुणस्थानोंमें क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर दोनों लेश्याओंमें क्रमशः साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीव और एक जे की अपेक्षा अन्तर नहीं है।
8125. शुक्ल लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है। संयतासंयत और मत्तसयतका अन्तरकथन पतिलेश्याक समान है। तथा अप्रमत्तसयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं । तीन उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर
अन्तम हर्त है। उपशान्तकषायका नाना जीवकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। चारों क्षपक, सयोगकेवली और लेश्यारहित जीवोंका अन्तर ओघके समान है।
$126. भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्योंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येक 1.-हर्तः । अयदो ति छ लेस्साओ सुहतिय लेस्सा हु देसबिरदतिये । तत्तो दु सुक्कलेस्सा अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥ त्रयाणा-मु. 1 2. उपशमश्रेणिसे अन्तरित कराके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तम हर्स प्राप्त करना चाहिए। 3. अप्रमत्तसंयतसे अन्तरित कराके यह अन्तर प्राप्त करना चाहिए।
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58]
सर्वार्थसिद्धौ
नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् ।
$ 127. सम्यक्त्वानुवावेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिष्व संयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यतरम् । एवजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसताना नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण त्रयस्त्रइात्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण त्रयस्त्रशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । शेषाणां सामान्यवत् ।
$ 128. क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिष्वसंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण पूवकोटी देशोना । संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्वन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्ये नान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि वेशोनानि । प्रमत्ताप्रमत्तसंयतयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण धर्मास्त्रशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि ।
8129. पशमिकसम्यग्दृष्टिष्वसंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण सप्त रात्रि' दिनानि । एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । संयतासंयतस्य नानागुणस्थानका अन्तर ओघके समान है । अभव्योंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है ।
8127. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटी है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तैंतीस सागरोपम है । चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर 'साधिक तैंतीस सागरोपम है । तथा शेष गुणस्थानोंका अन्तर ओघके समान है ।
[ 1188126 -
$ 128. क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटी है । संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छ्यासठ सागरोपम है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक' तैंतीस सागरोपम है ।
$ 129. औपशमिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयत सम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन रात है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट 1. ― दिनानि । एक मु. 2. आठ वर्ष और दो अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि । 3. संयतासंयत वर्ष और चौदह अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम । प्रमत्तसंयत के एक अन्तर्मुहूर्त और एक पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम । अथवा साढ़े तीन अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम । अप्रमत्त संयतके साढ़े पाँच अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटी अधिक तैंतीस सागरोपम । 4. चारों उपशमकोंके आठ वर्ष और क्रमसे 27, 25, 23 और 21 अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्व कोटी अधिक तेतीस सागरोपम । 5. चार अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि । 6. तीन अन्तर्मुहूर्त कम छ्यासठ सागरोपम । 7. प्रमत्तके सात अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अधिक तैंतीस सागरोपम और अप्रमत्तके आठ अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक तैंतीस सागरोपम ।
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-118 $ 130] प्रथमोऽध्यायः
[59 जीवापेक्षया जघन्येनकः समयः । उत्कर्षेण चतुर्दश रात्रिदिनानि । एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं धान्तमुहूर्तः। प्रमत्ताप्रमत्तसंयतयो नाजीवापेक्षया जघन्येनकः समयः । उत्कर्षेण पंचवश रात्रिदिनानि । एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः। त्रयाणामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया जघन्येनकः समयः । उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यामिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः। एकजीव प्रति नास्त्यन्तरम् । मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् ।
__$130. संज्ञानुवादेन संशिषु मिथ्यावृष्टेः सामान्यवत् । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिभ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । असंयतसम्यग्दृष्टचाद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । चतुर्णामुपशमकाना नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण सागरोपमशतपथक्त्वम् । चतुर्णा क्षपकाणां सामान्यवत् । असंजिनां नानाजीवापेक्षयकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । तदुभयव्यपदेशरहितानां सामान्यवत् ।
अन्तर अन्तमहर्त है। संयतासंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन रात्रि है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महर्त है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिन रात है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तीन उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। उपशान्तकषायका नामा जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सासादनसम्यग्दष्टि और सम्यग्मिथ्याष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है।
8 130 संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संजियोंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है। सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एकजीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्त उत्कष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है। असंयतसम्यग्दष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है। चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सो सागरोपम पृथक्त्व है । चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है । असंज्ञियोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । संज्ञी और असंज्ञो व्यवहारसे रहित जीवोंका अन्तर ओषके समान है। 1. क्योंकि उपशमश्रेणिसे उतर कर उपशम सम्यक्त्व छुट जाता है। यदि अन्तम हर्त बाद पुन: उपशमश्रेणिपर चढ़ता है तो वेदकसम्यक्त्व पूर्वक दूसरी बार उपशम करना पड़ता है। यही कारण है कि उपक्षम सम्यक्त्वमें एक जीवकी अपेक्षा उपशान्तकषायका अन्तर नहीं प्राप्त होता ।
तथा
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सर्वार्थसिद्धौ
[118 § 131
8.131. आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टेः सामान्यवत् । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्ट योननाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जघन्येन पत्योपमासंख्येयभागोऽन्तमुहूर्तश्च । उत्कर्षेणाङ्गुला संख्येय भागोऽसंख्ये या संख्येया' उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः । असंयतसम्यग्दृष्टचप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेणाङ्गुलासंख्येयभागोऽसंख्येया' उत्सर्पिण्यवरा पिण्यः । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकजीवं प्रति जधन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेणाङ्गुला संख्येयभागोऽसंख्ये यासंख्येया' उत्सर्पिण्यवसपिण्यः । चतुर्णां क्षपकाणां सयोगकेवलिनां च सामान्यवत् ।
60]
$ 132. अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीबापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । सासादनसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण मासपृथeet | एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । सयोगकेबलिनः नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । एकजावं प्रति नास्त्यन्तरम् । अयोगकेवलिनः नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः भ्रमयः । उत्कर्षेण षण्मासाः । एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । अन्तरभवगतम् ।
9 133. भावो विभाव्यते । स द्विविधः सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत्
मिथ्या
$ 131. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टिका अन्तर ओघके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अंमुलका असंख्यातवाँ भाग है जिसका प्रमाण असंख्यातासंख्यात उपसर्पिणी और अवसर्पिणी है । असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है जिसका प्रमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है । चारों उपशमकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओधके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलका असंख्यातवां भाग है जिसका प्रमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है। चारों क्षपक और सयोगकेवलियोंका अन्तर ओके समान है ।
8132. अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टिका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । सासादनसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। असंयतसम्यग्दृष्टिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्व है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है । सयोगकेवलीका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। एक जीवको अपेक्षा अन्तर नहीं है । अयोगकेवलीका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। एक जीवकी अपेक्षा. अन्तर नहीं है । इस प्रकार अन्तरका विचार किया ।
6 133. अब भावका विचार करते हैं। वह दो प्रकारका है-सामान्य और विशेष ।
.
1. -भागा असंख्येया उत्स - मु. 12. भावः उक्तं च--मिच्छे खलु ओदइओ विदिए पुण पारिणामिओ भावो । मिस्से समिको अविरदसम्मम्मि तिप्लेव ॥1॥ असं - मु. ।
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[61
-1188137]
प्रथमोऽध्यायः वष्टिरित्यौदयिको भावः । सासादनसम्यग्दृष्टिरिति पारिणामिको भावः । सम्यमिथ्यादृष्टिरिति क्षायोपशमिको भावः । असंयतसम्यग्दृष्टिरिति औपशमिको वा क्षायिको वा क्षायोपशमिको वा भावः । असंयतः पुनरौदयिकेन भावेन । संयतासंयतः प्रमत्तसंयतोऽप्रमत्तसंयत इति क्षायोपशमिको भावः । चतुर्णामपशमकानामौपशमिको भावः । चतुर्ष क्षपकेष सयोगायोगकेवलिनोश्च क्षायिको भावः।
134. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ प्रयमायां पृथिव्यां नारकाणां मिथ्यादृष्टयाद्यसंयतसम्यग्दृष्टयन्तानां सामान्यवत् । द्वितीयादिष्वा सप्तम्या मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङ्मिथ्यादृष्टीनां सामान्यवत् । असंयतसम्यग्दष्टेरौपशमिको वा क्षायोपशमिको वा भावः । असंयतः पुनरोदयिकेन भावेन । निर्गग्गतौ तिरश्चां मिथ्यादृष्ट्यादिसंयतासंयतान्तानां सामान्यवत् । मनुष्यगतो मनुष्याणां मिथ्यादृष्टयाद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । देवगतौ देवानां मिथ्यादृष्टयाधसंयतसम्यग्दृष्टयन्तानां सामान्यवत् ।
$ 135. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामौदयिको भावः । पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टयाद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् ।
8 136. कायानुवादेन स्थावरकायिकानामौदयिको भावः । त्रसकायिकानां सामान्यमेव ।
$ 137. योगानुवादेन कायवाङ्मनसयोगिनां मिय्यादृष्टयादिसयोगकेवल्यन्तानां च सामान्यकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि यह औदयिकभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि यह पारिणामिक भाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह क्षायोपशमिक भाव है। असंयतसम्यग्दृष्टि यह औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव है। किन्तु इसमें असंयतपना औदयिक भावकी अपेक्षा है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह क्षायोपशमिक भाव है। चारों उपशमकोंके औपशमिक भाव है। चारों क्षपक, सयोगकेवली और अयोगकेवलीके क्षायिक भाव है।
8134. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरक गतिमें पहली प्रथिवी में नारकियोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक ओघके समान भाव है। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंके ओघके समान भाव है। असंयतसम्यग्दष्टिके औपशमिक या क्षायोपशमिक भाव है। किन्तु इसमें असंयतपना औदयिक भावकी अपेक्षा है। तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंके मिथ्यादष्टिसे लेकर संयतासंयत तक ओघके समान भाव है। मनुष्यगतिमें मनुष्योंके मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगकेवली तक ओधके समान भाव है। देवगतिमें देवोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक ओषके समान भाव है।
8135. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंके औदयिक भाव है। पंचेन्द्रियोंमें मिथ्यादष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येक गूणस्थानका ओघके समान भाव है।
8136. कायमार्गणाके अनुवादसे स्थावरकायिकोंके औदयिक भाव है। त्रसकायिकोंके ओघके समान भाव है।
8137. योगमार्गणाके अनुवादसे काययोगी, वचनयोगी और मनोयोगी जीवोंके मिथ्या1. सासादनसम्यक्त्व यह दर्शनमोहनीय कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे नहीं होता इस लिए निष्कारण होनेसे पारिणामिक भाव है। 2. सम्यग्मिथ्यात्वकर्मका उदय होने पर श्रमानाथद्धानात्मक मिला हआ जीव परिणाम होता है। उसमें श्रद्धानांश सम्यत्वव अंश है। सम्यग्मिथ्यात्व कर्मका उदय उसका अभाव करनेमें असमर्थ है इस लिए सम्यग्मिथ्यात्व यह क्षायोपशमिक भाव है।
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621
सर्वार्थ सिद्धौ
[1188136 -- सामान्यमेव ।
5138. वेदानुवादेन स्त्रीपुन्नपुंसकवेदानामवेदानां च सामान्यवत् । 2139. कपायानुवादेन क्रोधमानमायालोभकषायाणामकषायाणां च सामान्यवत् ।
8140. ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताशानिविभङ्गज्ञानिनां मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवल ज्ञानिनां च सामान्यवत । 8141. संयमानुवादेन सर्वेषां संयतानां संयतासंयतानां च सामान्यवत । $142. दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनिनां सामान्यवत् । 6143. लेश्यानुवादेन षडलेश्यालेश्यानां च सामान्यवत ।
8144. भव्यानुवादेन भव्यानां मिथ्यादृष्टयाद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । अभव्यान पारिणामिको भावः ।
8145. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टेः क्षायिको भावः । क्षायिक सम्यक्त्वम् । असंयतत्वमौदयिकेन भावेन । संयतासंयतप्रमताप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भावः । क्षायिकं सम्यक्त्वम् । चतुर्णामुपशमकानामौपशमिको भावः । क्षायिकं सम्यक्त्वम् । शेषाणां सामान्यक्त । क्षायोपमिकसम ष असंयतसम्यग्दष्टेःक्षायोपशमिको भावः । क्षायोपशमिक दष्टि से लेकर सयोगकेवली तक और अयोगकेवलीके ओघके समान भाव है।
38. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और वेदरहित जीवोंके ओघके समान भाव है।
8139. कषाय मार्गगाके अनुवादसे क्रोध कषायवाले, मान कषायवाले, माया कषायवाले, लोभ कषायवाले और कषाय रहित जीवोंके समान भाव है।
8140. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीवोंके ओघके समान भाव हैं।
6141. संयम मार्गणाके अनुवादसे सब संयतोंके, संयतासंयतोंके और असंयतोंके ओघके समान भाव हैं।
6142. दर्शन मार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले और केवलदर्शनवाले जीवोंके ओघके समान भाव हैं।
8143. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे छहों लेश्यावाले और लेश्या रहित जीवोंके ओघके समान भाव हैं।
8144. भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्योंके मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगकेवली तक ओघके समान भाव हैं। अभव्योंके पारिणामिक भाव हैं।
8145. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिके क्षायिक भाव है। क्षायिक सम्यक्त्व है। किन्तु असंयतपना औदयिक भाव है। संयतासंय प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतके क्षायोपमिक भाव है । क्षायिक सम्यक्त्व है। चारों उपशमकोंके औपशमिक भाव है। क्षायिक सम्यक्त्व है। शेष गुणस्थानोंका ओघके समान भाव है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिके क्षायोपशमिक भाव है। क्षायोपशमिक 1. यों तो ये भाव दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीयके उदयादिकी अपेक्षा बतलाये गये हैं। किन्तु अभव्योंके 'अभव्यत्व भाव क्या है इसकी अपेक्षा भावका निर्देश किया है । यद्यपि इससे क्रम भंग हो जाता है तथापि विशेष जानकारीके लिए ऐसा किया है। उनका बन्धन सहज ही अत्रुटयत सन्तानवाला होनेसे उनके पारिणामिक भाव कहा है यह इसका तात्पर्य है।
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--1188148] प्रथमोऽध्यायः
[63 सम्यक्त्वम् । असंयतः पुनरोदयिकेन भावेन। संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भावः । क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् । औपशमिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टेरौपशमिको भावः ।
औपशमिकं सम्यक्त्वम् । असंयतः पुनरोदयिकेन भावेन । संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भावः । औपशमिकं सम्यक्त्वम् । चतुर्णामुपशमकानामौपशमिको भावः । औपशमिकं सम्यक्त्वम् । सासादनसम्यग्दृष्टः पारिणामिको भावः । सम्यमिथ्यादृष्टेः क्षायोपशमिको भावः । मिथ्यादृष्टेरोदयिको भावः ।
8146. संज्ञानुवादेन संजिनां सामान्यवत् । असंज्ञिनामौदयिको भावः । तदुभयव्यपदेशरहितानां सामान्यवत्।
8147. आहारानुवादेन आहारकाणामनाहारकाणां च सामान्यवत् । भावः परिसमाप्तः।
8148. अल्पबहुत्वमुपवर्ण्यते । तद् द्विविघं सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् सर्वतः स्तोकाः त्रय उपशमकाः स्वगुणस्थानकालेषु प्रवेशेन तुल्यसंख्याः । उपशान्तकषायास्तावन्त एप प्रयः क्षपकाः संख्येयगुणाः । क्षीणकषायवीतरागच्छमस्थास्तावन्त एव । सयोगकेवलिनोsबोगकेवलिनश्च प्रवेशेन तुल्यसंख्याः। सयोगकेवलिनःस्वकालेन समुदिताः संख्येयगुणाः। अप्रमत्त संयताः संख्येयगुणाः । प्रमतसंयताः संल्येयगुणाः । संयतासंयता असंख्येयगुणाः। सासावनसम्यग्वृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । सम्यग्मिच्यादृष्टयः संख्येगुणाः। असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः। मिष्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः । सम्यक्त्व है। किन्तु असंयतपना औदयिक भाव है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतके क्षायोपशमिक भाव है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। औपशमिक सम्यग्दष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिके औपशमिक भाव है । औपशमिक सम्यक्त्व है। किन्तु असंयतपना औदयिक भाव है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतके क्षायोपशमिक भाव हैं। औपशमिक सम्यक्त्व है। चारों उपशमकोंके औपशमिक भाव है। औपशमिक सम्यक्त्व है। सासादनसम्यग्दृष्टिके पारिगामिक भाव है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिके क्षायोपशमिक भाव है। मिथ्यादृष्टिके औदयिक भाव है।
8146. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंके ओघके समान भाव हैं । असंज्ञियोंके औदयिक भाव हैं। तथा संज्ञी और असंज्ञी व्यवहारसे रहित जीवोंके ओघके समान भाव हैं।
8147. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारक और अनाहारक जीवोंके ओघके समान भाव हैं । इस प्रकार भाव समाप्त हुआ।
8148. अब अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। वह दो प्रकारका है सामान्य और विशेष । सामान्यकी अपेक्षा तीनों उपशमक सबसे थोड़े हैं जो अपने-अपने गुणस्थानके कालोंमें प्रवेशकी अपेक्षा समान संख्यावाले हैं। उपशान्तकषाय जीव उतने ही हैं । इनसे अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानके क्षपक संख्यात गुणे हैं । क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ उतने ही हैं । सयोगकेवली और अयोगकेवली प्रवेशकी अपेक्षा समान संख्यावाले हैं। इनसे अपने कालमें समुदित हए सयोगकेवली संख्यातगुणे हैं। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं । इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं । इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यग्मिध्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं। 1.-संपता संख्ये--मु. 1 2.-दृष्टयः असंख्ये--मु.। 3. कमसे कम एक और अधिक से अधिक चौवन । 4. कमसे कम एक और अधिकसे अधिक एक सौ आठ ।
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64] सथिसिद्धौ
[11881498149. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु नारकेषु सर्वतः स्तोकाः सासादनसम्यग्दृष्टयः । सम्यग्मिथ्यादृष्टयः संख्येयगुणाः । असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः। मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । नियंग्गतौ तिरश्चां सर्वतः स्तोकाः संयतासंयताः। इतरेषां सामान्यवत् । मनुष्यगतौ मनुष्याणामुपशमकादिप्रमत्तसंयतान्तानां सामान्यवत् । ततः संख्येयगुणाः संयतासयताः। सासादनसम्यग्दृष्टयः सस्येयगुणाः । सम्यग्मिय्यादृष्टयः संख्येयगुणाः । असंयतसम्यग्दृष्टयः संख्येयगुणाः । मिय्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । देवगतौ देवानां नारकवत् ।
$ 150. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियविकलेन्द्रियेषु गुणस्थानभेदो नास्तीत्यल्पबहुत्वाभावः । पञ्चेन्द्रियाणां सामान्यवत् । अयं तु विशेषः मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणाः ।
8151. कायानुवादेन स्थावरकायेषु गुणस्थानभेदाभावादल्पबहुत्वाभावः । त्रसकायिकानां पञ्चेन्द्रियवत् ।
8152. योगानुवादेन वाङ्मनसयोगिनां पञ्चेन्द्रियवत् । काययोगिनां सामान्यवत् । धेदानुवादेन स्त्रीवेदानां पञ्चेन्द्रियवत् । नपुंसकवेदानामवेदानां च सामान्यवत् ।
$ 153. कषायानुवादेन क्रोधमानमायाकषायाणां पुंवेदवत् । अयं तु विशेषः मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः । लोभकषायाणां द्वयोरुपशमकयोस्तुल्या संख्या। क्षपकाः संख्येयगुणाः । सूक्ष्मसांप
8149. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब पृथिवियोंमें नारकियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे थोड़े हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं । इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं । इनसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणे हैं। तिर्यंचगतिमें तिथंचोंमें संयतासंयत सबसे थोड़े हैं । शेष गुणस्थानवाले तिर्यंचोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। मनुष्यगतिमें मनुष्योंके उपशमकोंसे लेकर प्रमत्तसंयत तकका अल्पबहत्व ओघके समान है। प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत संख्यातगुणे हैं । इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं । इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणे हैं । इनसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणे हैं। देवगतिमें देवोंका अल्पबहत्व नारकियोंके समान है।
8150. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंमें गुणस्थान भेद न होनेसे अल्पबहुत्व नहीं है । पंचेन्द्रियोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रियोंसे मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय असंख्यातगुणे हैं।
8151. काय मार्गणाके अनुवादसे स्थावरकायिकोंमें गुणस्थान भेद न होनेसे अल्पबहुत्व नहीं है । त्रसकायिकोंका अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियोंके समान है।
8152. योग मार्गणाके अनुवादसे वचनयोगी और मनोयोगी जीवोंका अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियोंके समान है। काययोगियोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंका अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियोंके समान है। नपुंसकवेदी और वेदरहित जीवोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है।
8153. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले और मायाकषायवाले जीवोंका अल्पबहत्व पुरुषवेदियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें असंयत सम्यग्दष्टियोंसे मिथ्यादष्टि अनन्तगण हैं। लोभ कपायवालोंमें दोनों उपशमकोंकी संख्या समान है। इनसे क्षपक संख्यातगुणे हैं । इनसे सूक्ष्मसाम्परायशुद्धि उपशमकसंयत विशेष अधिक हैं। इनसे 1. भावः । इन्द्रियं प्रत्युच्यते। पंचेन्द्रियाद्ये केन्द्रियान्ता उत्तरोत्तरं बहवः । पंचे-मु.। 2. भावः कार्य प्रत्युच्यते । सर्वतस्तेजःकायिका अल्पाः । ततो बहवः पृथिवीकायिकाः । ततोऽप्यप्कायिकाः। ततो वातकायिकाः । सर्वतोऽनन्तगुणा वनस्पतयः । स--मु.।
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- 1188156]
प्रथमोऽध्यायः रामशरुप पशमकसंयता विशेषाधिकाः । सूक्ष्मसांपरायक्षपकाः संख्येयगुणाः। शेषाणां सामान्यवत् ।
154. झामानुवादेन मत्यशानिश्रुताशानिषु सर्वतः स्तोकाः सासादनसम्यग्दृष्टयः । मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः । विभङ्गज्ञानिषु सर्वतः स्तोकाः सासादनसम्यग्दृष्टयः । मिथ्यादृष्टयोsसंख्येयगुणाः । मतिश्रुतावधिनानिषु सर्वतः स्तोकाश्चत्वार उपशमकाश्चत्वारः क्षपकाः संख्येयगुणाः । अप्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । प्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । संयतासंयताः असंख्येयगुणाः। असंयतसम्यावृष्टयःअसंख्येयगुणाः । मनःपर्ययज्ञानिषु सर्वतः स्तोकाश्चत्वार उपशमकाः । चत्वारः क्षपकाः संख्येयगुणाः । अप्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । प्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः। केवलज्ञानिषु अयोगकेवलिभ्यः सयोगकेवलिनः संख्येयगुणाः ।
8155. संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतेषु द्वयोरुपशमकयोस्तुल्या संख्या । ततः संख्येयगुणो क्षपको । अप्रमताः संख्येयगुणाः । प्रमत्ताः संख्येयगुणाः । परिहारशुद्धिसंपतेषु अप्रमत्तेभ्यः प्रमत्ताः संख्येयगुणाः । सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयतेषु उपशमकेभ्यः क्षपकाः संख्येयगुणाः । यथाल्यातविहारशुद्धिसंयतेषु उपशान्तकवायेभ्यः क्षीणकषायाः संख्येयगुणाः । अयोगकेवलिनस्तावन्त एव । सयोगकेवलिनः संख्येयगुणाः । संयतासंयतानां नास्त्यल्पबहुत्वम् । असंयतेषु सर्वतः स्तोकाः सासादनसम्यग्दृष्टयः। सम्यमिथ्यादृष्टयः। संख्येयगुणाः । असंयतसम्यग्दृष्टयोसंख्येयगुणाः । मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः।
156..दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिनां मनोयोगिवत् । अचक्षुर्वर्शनिना काययोगिवत् । अवषिदर्शनिनामवधिज्ञानिवत् । केवलदर्शनिनां केवलज्ञानिवत् । सूक्ष्मसाम्यपराय क्षपक संख्यातगुणे हैं । शेष गुणस्थानवालोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है।
8154. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे थोड़े हैं। मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं । विभंगज्ञानियों में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे थोड़े हैं। मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणे हैं । मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंपें चारों उपशमक सबसे थोड़े हैं। इनसे चारों क्षपक संख्यातगुणे हैं । इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं । इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। मनःपर्ययज्ञानियोंमें चारों उपशमक सबसे थोड़े हैं । इनसे चारों क्षपक संख्यातगुणे है। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगणे हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। केवलज्ञानियोंमें अयोगकेवलियोंसे सयोगकेवली संख्य
8155. संयम मार्गणा के अनुवादसे सामायिक और छेदोपस्थापना शुद्धिसंयतोंमें दोनों उपशमक समान संख्यावाले हैं। इनसे दोनों क्षपक संख्यातगुणे हैं । इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं । इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। परिहारविशुद्धि संयतोंमें अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं । सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयतोंमें उपशमकोंसे क्षपक संख्यातगुणे हैं। यथाख्यात विहार शुद्धिसंयतोंमें उपशान्त कषायवालोंसे क्षीणकषाय जीव संख्यातगुणे हैं। अयोगकेवली उतने ही हैं । सयोगकेवली संख्यातगुणे हैं । संयतासंयतोंका अल्पबहुत्व नहीं है। असमतोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे थोड़े हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं । इनसे असंपतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं । इनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं।
8156. दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंका अल्पबहुत्व मनोयोगियोंके समान है। अचक्षुदर्शनवालोंका अल्पबहुत्व काययोगियोंके समान है। अवधिदर्शनवालोंका अल्पबहुत्व अवधिशानियोंके समान है और केवलदर्शनवालोंका अल्पबहुत्व केवलज्ञानियोंके समान है। 1. दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः।मति–मु.। 2.---यताः संख्ये---मु.। 3.—ष्टयः संख्ये-मु. । 4.-दृष्टयोऽसंख्ये-मु.।
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सर्वार्थसिद्धौ
--1188 157] 157. लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यानां असंयतवत् । तेजःपद्मलेश्यानां सर्वतः स्तोका अप्रमत्ताः । प्रमत्ताः संख्येयगुणाः । एवमितरेषां पंचेन्द्रियवत् । शुक्ललेश्यानां सर्वतः स्तोका उपशमकाः । क्षपकाः संख्येयगुणाः । सयोगकेवलिनः संख्येयगुणाः। अप्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः। प्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । संयतासंयता असंख्येयगुणाः। सासादनसम्यग्दृष्टयोऽ संख्येयगुणाः। सम्पम्मिच्यादृष्टयः संख्येयगुणाः। मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणाः। असंयतसम्यग्दृष्टयः संख्येयगुणाः ।
8158. भव्यानुवादेन भव्यानां सामान्यवत् । अभव्यानां नास्त्यल्पबहुत्वम्।।
8 159. सम्यवत्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु सर्वतः स्तोकाश्चत्वार उपशमकाः। इतरेषा प्रमत्तान्तानां सामान्यवत् । ततः संयतासंयताः संख्येयगुणाः। असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिष सर्वतः स्तोका अप्रमत्ता। प्रमताः संख्येयगुणाः । संयतासंयताः' असंख्येपगुणाः। असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः। औपशमिकसम्यग्दृष्टीनां सर्वतः स्तोकाश्चत्वार उपशमकाः । अप्रमत्ताः संख्येयगुणाः। प्रमत्ताः संख्येयगुणाः। संयतासंयताः असंख्येयगणाः । असंयतसम्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । शेषाणां नास्त्यल्पबहुत्वम् ।
$160. संज्ञानुवादेन संझिनां चक्षुर्दर्शनिवत् । असंजिनां नास्त्यल्पबहुत्वम् । तदुभयव्यपदेशरहितानां केवलज्ञानिवत् ।।
8157. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंका अल्पबहुत्व असंयतोंके समान है। पीत और पद्म लेश्यावालोंमें अप्रमत्तसंयत सबसे थोड़े हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इस प्रकार शेष गुणस्थानवालोंका अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियोंके समान है। शुक्ल लेश्यावालोंमें उपशमक सबसे थोड़े हैं। इनसे क्षपक संख्यातगुणे हैं। इनसे सयोगकेवली संख्यातगुणे हैं । इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं । इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं । इनसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणे हैं।
6158. भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्योंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। अभव्योंका अल्पबहुत्व नहीं है।
159. सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें चारों उपशमक सबसे थोड़े हैं। प्रमत्तसंयतों तक शेषका अल्पबहुत्व ओघके समान है। प्रमतसंयतोंसे संयतासंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दष्टि असंख्यातगुणे हैं। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियोंमें अप्रमत्तसंयत सबसे थोड़े हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं। इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। औपशमिकसम्यग्दृष्टियोंमें चारों उपशमक सबसे थोड़े हैं। इनसे अप्रमतसंयत संख्यातगुणे हैं । इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे हैं । इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंयत सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं। शेष सासादन सम्यग्दृष्टि आदिका अल्पबहुत्व नहीं है।
8160. संज्ञा मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंका अल्पबहुत्व चक्षुदर्शनवालोंके समान है। असंज्ञियोंका अल्पबहुत्व नहीं है। संज्ञी और असंज्ञी व्यवहारसे रहित जीवोंका अल्पबहुत्व केवलज्ञानियोंके समान है।
1. संयताः संख्ये-मु.। 2. दृष्टयः संख्ये-मु.। 3. -दृष्टयोऽसंख्ये-मु.। 4. -यता:सरूपेय ----मु.। 5. यता: संख्ये--मु.। 6. बहुत्वम्। विपक्षे एकैकगुणस्थानग्रहणात् । संज्ञा-म. .
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-119 § 164]
प्रथमोऽध्यायः
[67
8161. आहारानुवादेन आहारकाणां काययोगिवत् । अनाहारकाणां सर्वतः स्तोकाः सयोगकेवलिनः । अयोगकेवलिनः संख्येयगुणाः । सासादन सम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । असंयतसम्यग्दृष्ट योऽसंख्येयगुणाः । मिथ्यादृष्ट्योऽनन्तगुणाः ।
I
8162 एवं मिथ्यादृष्ट्यादीनां गत्यादिषु मार्गणा कृता सामान्येन । तत्र सूक्ष्मभेद आगमाविरोधेनानु सर्तव्यः ।
8163. एवं सम्यग्दर्शनस्यादावुद्दिष्टस्य लक्षणोत्पत्तिस्वामिविषयन्यासाधिगमोपाया निर्दिष्टाः । तत्संबन्धेन च जीवादीनां संज्ञापरिमाणावि निर्दिष्टम् । तदनन्तरं सम्यग्ज्ञानं विचारार्हमित्याह
मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम् ॥१॥
8 164. ज्ञानशब्दः प्रत्येकं परिसमाप्यते । मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं अवधिज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं केवलज्ञानमिति । इन्द्रियैर्मनसा च यथास्वमर्थो मन्यते अनया मनुते मननमात्रं वा मतिः । तदातरण' कर्मक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयते अनेन' तत् शृणोति श्रवणमात्रं वा श्रुतम् । अनयोः प्रत्यासन्न निर्देशः कृतः कार्यकारणभावात् । तथा च वक्ष्यते "श्रुतं मतिपर्वम्" इति । अवाग्धानादवfच्छन्नविषयाद्वा अवधिः । परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते । साहचर्यात्तस्य पर्ययणं
8161. आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारकोंका अल्पबहुत्व काययोगियोंके समान है । अनाहारकों में सयोगकेवली सबसे थोड़े हैं। इनसे अयोगकेवली संख्यातगुणे हैं । इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं । इनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे हैं । अल्पबहुत्वका कथन समाप्त हुआ ।
$ 162. इस प्रकार गत्यादि मार्गणाओंमें मिथ्यादृष्टि आदिका सामान्यसे विचार किया। इसमें उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद आगमानुसार जान लेना चाहिए ।
8163. इस प्रकार सर्व प्रथम कहे गये सम्यग्दर्शनके लक्षण, उत्पत्ति, स्वामी, विषय न्यास और अधिगमका उपाय कहा । और उसके सम्बन्धसे जीवादिकोंकी संज्ञा और परिमाण आदि भी कहा । अब इसके बाद सम्यग्ज्ञान विचार योग्य है इसलिए आगेका सूत्र कहते हैंमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान हैं ||9||
164. सूत्रमें ज्ञान शब्द मति आदि प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथामतिज्ञान, श्रुतज्ञान, • अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । मतिका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - 'इन्द्रियैर्मनसा च यथा स्वमर्थो मन्यते अनया मनुते मननमात्रं वा मतिः' इन्द्रिय और मनके द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है या मननमात्र मति कहजाता है। श्रुतका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- 'तदावरणकर्मक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयते अनेन
ति श्रवणमात्रं वा श्रुतम् = श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होने पर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुननामात्र श्रुत कहलाता है। मति और श्रुत इन दोनों ज्ञानों का समीपमें निर्देश किया है क्योंकि इनमें कार्य कारणभाव पाया जाता है। जैसा कि आगे कहेंगे 'श्रुतं मतिपूर्वम् ।' अवधिका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ = अधिकतर नीचेके विषयको जानने
f
1. स्वमर्थान्मन्यते मु. 2. - वरणक्षयों - मु. 3. अनेनेति तत् - मु. 4. ' अवाग्धानादवधि:
अथवा अधोगौरवधर्मत्वात्पुद्गलः प्रवाङ् नाम तं दधाति परिच्छिनत्तीति अवधि : अवधिरेव ज्ञानं अवधिज्ञानम् । अथवा अवधिर्मर्यादा प्रवधिना सह वर्तमानज्ञानमवविज्ञानम् । —धव प्र. अ. प. 865 आरा
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68]
सर्वार्थसिद्धौ 194
[119 § 164परिगमनं मनः पर्ययः । मतिज्ञानप्रसङ्ग इति चेत्; न; अपेक्षामात्रत्वात् । क्षयोपशमशक्तिमात्रविजृम्भितं हि तत्केवलं स्वपरमनोभिर्व्यपदिश्यते । यथा अभ्रं चन्द्रमसं पश्येति । बाह्य नाग्यन्तरेण च तपसा यदर्थमथिनो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम् । असहायमिति वा । तदन्ते प्राप्यते इति अन्ते क्रियते । तस्य प्रत्यासन्नत्वात्तत्समीपे मनःपर्ययग्रहणम् । कुतः प्रत्यासत्तिः । संयमका - धिकरणत्वात् । तस्य अवधिविप्रकृष्टः । कुतः विप्रकृष्टान्त' रत्वात् । प्रत्यक्षात्परोक्षं पूर्वमुक्तं सुगमत्वात् । श्रुतपरिचितानुभूता हि महितपद्धतिः सर्वेण प्राणिगणेन प्रायः प्राप्यते यतः । एवमेतत्पञ्चविधं ज्ञानम् । तद्भ ेदादयश्च पुरस्ताद्वक्ष्यन्ते ।
।
8165. "प्रमाणनयेरधिगमः" इत्युक्तम् । प्रमाणं च केषांचित् ज्ञानमभिमतम् । केषांचित्
वाला होनेसे या परिमित विषयवाला होनेसे अवधि कहलाता है । मन:पर्ययका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ = दूसरेके मनोगत अर्थको मन कहते हैं । सम्बन्धसे उसका पर्ययण अर्थात् परिगमन करनेवाला ज्ञान मन:पर्यय कहलाता है। शंका- मन पर्यय ज्ञानका इस प्रकार लक्षण करने पर उसे मतिज्ञानका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि मन:पर्ययज्ञानमें मनकी अपेक्षामात्र है । यद्यपि वह केवल बढ़ी हुई क्षयोपशम शक्तिसे अपना काम करता है तो भी केवल स्व और परके मनकी अपेक्षा उसका व्यवहार किया जाता है । यथा, 'आकाश में चन्द्रमा देखो' यहाँ आकाशकी अपेक्षामात्र होनेसे ऐसा व्यवहार किया गया है । केवलका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ = अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और आभ्यन्तर तपके द्वारा मार्गका केवन अर्थात् सेवन करते हैं वह केवल - ज्ञान कहलाता है । अथवा केवल शब्द असहायवाची है, इसलिए असहाय ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं । केवलज्ञानकी प्राप्ति अन्तमें होती है इसलिए सूत्र में उसका पाठ सबके अन्त में रखा है । उसके समीपका होने से उसके समीप में मन:पर्ययका ग्रहण किया है। शंका- मन:पर्यय केवलज्ञानके समीपका क्यों है ? समाधान - क्योंकि इन दोनोंका संयम ही एक आधार है, अतएव मन:पर्यय केवलज्ञानके समीपका है । अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञानसे दूर है, इसलिए उसका मन:पर्ययज्ञानके पहले पाठ रखा है । शंका - मन:पर्ययज्ञानसे अवधिज्ञानको दूरका क्यों कहा ? समाधान क्योंकि अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञानसे अत्यन्त दूर है । प्रत्यक्षसे परोक्षका पहले कथन किया, क्योंकि वह सुगम है। चूंकि मति श्रुतपद्धति श्रुत, परिचित और अनुभूत होनेसे प्रायः सब प्राणियोंके द्वारा प्राप्त करने योग्य है अतः वह सुगम है । इस प्रकार यह पाँच प्रकारका ज्ञान है । इसके भेद आदि आगे कहेंगे ।
विशेषार्थ - क्रमानुसार इस सूत्रमें सम्यग्ज्ञानके पाँच भेद बतलाये गये हैं । यद्यपि सूत्र में 'ज्ञानम्' ऐसा निर्देश किया है पर सम्यक्त्वका प्रकरण होने से ये पाँचों सम्यग्ज्ञानके भेद हैं, ऐसा यहाँ जानना चाहिए । यद्यपि आत्मा केवलज्ञान स्वभाव है । मूल ज्ञानमें कोई भेद नहीं है पर आवरणके भेदसे वह पाँच भागों में विभक्त हो जाता है। इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए सर्वार्थसिद्धि में मुख्यतया तीन विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है - 1. मति आदि शब्दोंका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ । 2. मति और श्रुतको समीपमें रखनेके कारणका निर्देश 3. मतिके बाद श्रुत इत्यादि रूपसे पाँच ज्ञानोंके निर्देश करनेका कारण ।
8 165. प्रमाण और नयसे ज्ञान होता है यह पहले कह आये हैं । किन्होंने ज्ञानको प्रमाण
1. विप्रकृष्टतर - मु.
2. 'सुदपरिचिदाणुभूदास. प्रा. मा. 41
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- 11108169] प्रथमोऽध्यायः
[69 संनिकर्षः केषांविदिन्द्रियमिति । अतोऽधिकृतानामेव मत्यादीनां प्रमाणत्वख्यापनार्थमाह
तत्प्रमाणे 1100 8166. तद्वचनं किमर्थम् । प्रमाणान्तरपरिकल्पनानिवृत्त्यर्थम् । संनि'कर्षः प्रमाणमिन्द्रिय प्रमाणमिति केचित्कल्पयन्ति तन्निवृत्त्यर्थं तदित्युच्यते । तदेव मत्यादि प्रमाणं नान्यदिति ।
8167. अथ संनिकर्षे प्रमाणे सति इन्द्रिये वा को दोषः? यदि संनिकर्षः प्रमाणम्, सूक्ष्म व्यवहितविप्रकष्टानामर्थानामग्रहणप्रसङ्गः। न हि ते इन्द्रियः संनिकृष्यन्ते । अतः सर्वज्ञत्वाभावः 'स्यात् । इन्द्रियमपि यदि प्रमाणं स एव दोषः, अल्पविषयत्वात् चक्षुरादीनां ज्ञेयस्य चापरिमाणत्वात्।
168. सर्वेन्द्रियसंनिकर्षाभावश्च ; चक्षर्मनसोः प्राप्यकारित्वाभावात् । अप्राप्यकारित्वं च उत्तरत्र वक्ष्यते।
8169 यदि ज्ञानं प्रमाणं फलाभावः। अधिगमो हि फलमिष्टं न भावान्तरम् । स चेत्रमाणं, न तस्यान्यत्फलं भवितुमर्हति । फलवता च प्रमाणेन भवितव्यम् । संनिकर्षे इन्द्रिये वा प्रमाणे सति अधिगमः फलमर्थान्तरभूतं युज्यते इति । तदयुक्तम् । यदि संनिकर्षः प्रमाणं अर्थामाना है, किन्हींने सन्निकर्षको और किन्हींने इन्द्रियको। अतः अधिकार प्राप्त मत्यादिक ही प्रमाण हैं इस बातको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
८ वह पांचों प्रकार का ज्ञान दो प्रमाणरूप है ॥10॥ 8166. शंका-सूत्रमें 'तत्' पद किसलिए दिया है ? समाधान—जो दूसरे लोग सन्निकर्ष आदिको प्रमाण मानते हैं उनकी इस कल्पनाके निराकरण करने के लिए सूत्रमें 'तत्' पद दिया है। सन्निकर्ष प्रमाण है, इन्द्रिय प्रमाण है ऐसा कितने ही लोग मानते हैं इसलिए इनका निराकरण करनेके लिए सूत्रमें 'तत्' पद दिया है जिससे यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि वे मत्यादि ही प्रमाण हैं, अन्य नहीं।
167. शंका -सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण मानने में क्या दोष है ? समाधान-यदि सन्निकर्षको प्रमाण माना जाता है तो सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के अग्रहणका प्रसंग प्राप्त होता है; क्योंकि इनका इन्द्रियोंसे सम्बन्ध नहीं होता। इसलिए सर्वज्ञताका अभाव हो जाता है। यदि इन्द्रियको प्रमाण माना जाता है तो वही दोष आता है, क्योंकि चक्षु आदिका विषय अल्प है और ज्ञेय अपरिमित हैं।
8163. दूसरे सब इन्द्रियोंका सन्निकर्ष भी नहीं बनता, क्योंकि चक्षु और मन प्राप्यकारी नहीं हैं, इसलिए भी सन्निकर्षको प्रमाण नहीं मान सकते। चक्षु और मनके अप्राप्यकारित्वका कथन आगे कहेंगे।
8 169. शंका-यदि ज्ञानको प्रमाण मानते हैं तो फलका अभाव होता है। प्रकृतमें ज्ञानकोही फल मानना इष्ट है अन्य पदार्थ को फल मानना इष्ट नहीं। पर यदि उसे प्रमाण मान लिया जाता है तो उसका कोई दूसरा फल नहीं प्राप्त हो सकता। किन्तु प्रमाणको फलवाला होना चाहिए। पर सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण मानने पर उससे भिन्न ज्ञानरूप फल बन जाता है?
1. 'उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि ।'-11113 न्या. मा.। 2. 'यदुपलब्धिनिमित्तं तत्प्रमाणं ।' त्या. वा. पृ. 51 3. नातो-ऽन्यदिति-प्रा., दि. 1।
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70] सर्वार्थसिद्धौ
[11108169धिगमः फलं, तस्य द्विष्ठत्वात्तत्फलेनाधिगमेनापि द्विष्ठेन भवितव्यमिति अर्यादीनामप्यधिगमः प्राप्नोति । आत्मनश्चेतनत्वात्तत्रैव समवाय इति चेत् । न; ज्ञस्वभावाभावे सर्वेषामचेतनत्वात् । जस्वभावाभ्युपगमे वा आत्मनः स्वमतविरोधः स्यात् ।
170. ननु चोक्तं ज्ञाने प्रमाणे सति फलाभाव इति । नष दोषः; अर्थाधिगमे प्रीतिदर्शनात् । शस्त्रमावस्यात्मनः कर्ममलीम सस्य करणालम्बनावर्थ निश्चये प्रीतिरुपजायते। सा फनमित्युच्यते। उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम् । रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा। अन्धकारकल्पाज्ञाननाशो वा फलमित्युच्यते।
171. प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम्। किमनेन प्रमीयते । जीवा-' दिरर्थः । यदि जीवादेरधिगमे प्रमाण प्रमाणाधिगमे च अन्यत्प्रमाण परिकल्पयितव्यम् । तथा सत्यनवस्था । नानवस्था प्रदीपवत् । यथा घटादीनां प्रकाशने प्रदीपो हेतुः स्वस्वरूपप्रकाशनेऽपि स एव, न प्रकाशान्तरं मृग्यं तथा प्रमाणमपीति अवश्यं चैतदभ्युपगन्तव्यम् । प्रमेयवत्प्रमाणस्य प्रमाणान्तरपरिकल्पनायां स्वाधिगमाभावात् स्मृत्यभावः । तदभावाद् व्यवहारलोपः स्यात् ।
समाधान -यह कहना यूक्त नहीं, क्योंकि यदि सन्निकर्षको प्रमाण और अर्थ के ज्ञानको फल मानते हैं तो सन्निकर्ष दो में रहनेवाला होनेसे उसके फलस्वरूप ज्ञानको भी दोमें रहनेवाला होना चाहिए इसलिए घट-पटादि पदार्थोके भी ज्ञानकी प्राप्ति होती है। शंका-आत्मा चेतन है, अतः उसीमें ज्ञानका समवाय है ? समाधान-नहीं, क्योंकि आत्माको ज्ञस्वभाव नहीं मानने पर सभी पदार्थ अचेतन प्राप्त होते हैं। यदि आत्माको ज्ञस्वभाव माना जाता है, तो स्वमतका विरोध होता है।
8170.. पहले पर्वपक्षीने जो यह कहा है कि ज्ञानको प्रमाण मानने पर फलका अभाव होता है सो यह कोई दोष नहीं; क्योंकि पदार्थके ज्ञान होने पर प्रीति देखी जाती है। यद्यपि आत्मा ज्ञस्वभाव है तो भी वह कर्मोंसे मलोन है अतः इन्द्रियों के आलम्बनसे पदार्थका निश्चय होने पर उसके जो प्रीति उत्पन्न होती है वही प्रमाणका फल कहा जाता है । अथवा उपेक्षा या अज्ञानका नाश प्रमाणका फल है। राग-द्वेषरूप परिणामोंका नहीं होना उपेक्षा है और अन्धकारके समान अज्ञानका दूर हो जाना अज्ञाननाश है । सो ये भी प्रमाण के फल हैं।
8171.प्रमाण शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-प्रमिणोति, प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम-जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमितिमात्र प्रमाण है। शंका-प्रमाणके द्वारा क्या जाना जाता है ? समाधान-जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं। शंका-यदि जीवादि पदार्थोंके ज्ञान में प्रमाण कारण है तो प्रमाणके ज्ञानके अन्य प्रमाणको कारण मानना चाहिए। और ऐसा माननेपर अनवस्था दोष प्राप्त होता है ? समाधानजीवादि पदार्थोंके ज्ञानमें प्रमाणको कारण मानने पर अनवस्था दोष नहीं आता, जैसे दीपक । जिस प्रकार घटादि पदार्थों के प्रकाश करने में दीपक हेतु है और अपने स्वरूपके प्रकाश करने में भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशान्तर नहीं ढूंढना पड़ता। उसी प्रकार प्रमाण भी है यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए। अब यदि प्रमेयके समान प्रमाणके लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्व का ज्ञान नहीं होनेसे स्मृति का अभाव हो जाता है और स्मृति का अभाव हो जानेसे व्यवहार का लोप हो जाता है।
1. 'अज्ञाननिवृत्तिहानोपादानोपेक्षाश्च फलम् ।-प. मु. 5191'यदा संनिकर्षस्तदा ज्ञान प्रमितिः । यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम् ।'-11113 न्या. भा. । 2. -लाज्ञानाभाव: अज्ञाननाशो मु. । 3. -विगमे अन्य-मु.। 4. हेतु: तत्स्व-मु.। 5.न्तरमस्य मृग्यम्-मु. ।
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-11108172] प्रथमोऽध्यायः
[71 8172. वक्ष्यमाणभेदापेक्षया द्विवचन निर्देशः । वक्ष्यते हि "आद्य परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यद्" इति स च द्विवचननिर्देशः प्रमाणान्तरसंख्यानिवृत्त्यर्थः ।
8 72. सूत्र में आगे कहे जानेवाले भेदोंकी अपेक्षा द्विवचनका निर्देश किया है। आगे कहेंगे 'आद्य परोक्षम, प्रत्यक्षमन्यत्।' यह द्विवचनका निर्देश प्रमाणकी अन्य संख्या के निराकरण करनेके लिए किया है।
विशेषार्थ-पिछले सूत्र में पाँच सम्यग्ज्ञानोंकी चर्चा करके इस सूत्र में उनकी प्रमाणता बतलायी गयी है। यों तो सम्यग्ज्ञान कहनेसे उनकी प्रमाणता सुतरां सिद्ध है, किन्तु दर्शनान्तरों में ज्ञानको मूख्यतया प्रमाण न मान कर सन्निकर्ष या इन्द्रिय आदिको प्रमाण माना गया है, इसलिए यहाँपर सन्निकर्ष आदि प्रमाण नहीं हैं, किन्तु ज्ञान ही प्रमाण है यह बतलाया गया है। सर्वार्थसिद्धि टीकामें मुख्यतया दो मतोंका उल्लेख करके उनकी आलोचना की गयी है। ये दोनों मत नैयायिक सम्मत हैं। नैयायिकोंने प्रत्यक्ष ज्ञानकी उत्पत्तिमें सन्निकर्ष और इन्द्रिय दोनोंको प्रमाण माना है। सन्निकर्ष प्रमाण है इस मत का उल्लेख न्यायभाष्यमें और इन्द्रिय प्रमाण है इस मतका उल्लेख उद्योतकरके न्यायवार्तिकमें पाया जाता है। परन्तु सर्वार्थसिद्धिकारने जब इस दुसरे मतका उल्लेख किया है, तो यह भी प्रथम मतके समान प्राचीन प्रतीत होता है। बहुत सम्भव है कि इस द्वारा सर्वार्थसिद्धिकारने सांख्यके 'इन्द्रियवृत्ति प्रमाण है इस मतका उल्लेख किया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। नैयायिक लोग प्रत्यक्षज्ञानकी उत्पत्तिमें सन्निकर्षको असाधारण कारण मानकर उसे प्रमाण मानते हैं। किन्तु आगे चलकर करणके 'असाधारण कारणको करण कहते हैं। इस लक्षणके स्थानमें 'व्यापारवाले कारणको करण कहते हैं यह लक्षण भी प्रचलित हो गया जिससे सन्निकर्षके साथ उनके यहाँ इन्द्रियाँ भी प्रमाण मानी जाने लगीं। वे जब सन्निकर्षको प्रमाण मानते हैं तब ज्ञान उसका फल मान लिया जाता है और जब इन्द्रियों को प्रमाण मानते हैं तब भी सन्निकर्षको इन्द्रियोंका व्यापार मानकर ज्ञान उनका फल मान लिया जाता है। इसका यह अर्थ नहीं कि वे ज्ञानको प्रमाण ही नहीं मानते। उनके यहाँ ज्ञानको भी प्रमाण माना गया है। जब वे ज्ञानको प्रमाण मानते हैं तब हानबुद्धि और आदानबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि उसका फल माना जाता है किन्तु नैयायिकोंकी सन्निकर्ष और इन्द्रियको प्रमाण माननेकी बात समीचीन नहीं है यही निर्णय इस सत्रकी टीकामें किया गया है। सन्निकर्षको प्रमाण मानने में जो दोष प्राप्त होते हैं वे इस प्रकार हैं-1. सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए सर्वज्ञताका अभाव होता है 2. चक्ष और मनसे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ये अप्राप्यकारी हैं। 3. प्रत्येक इन्द्रियका अलग-अलग विषय मानना उचित नहीं, क्योंकि चक्षका रूपके साथ सन्निकर्ष पाया जानेसे जैसे वह रूपज्ञानका जनक है उसी प्रकार उसका रसके साथ भी सन्निकर्ष पाया जाता है अतः उससे रसका भी ज्ञान होना चाहिए। 4. सन्निकर्ष एकका न होकर इन्द्रिय और अर्थ इन दो या दोसे अधिकका होता है अत: सन्निकर्षका फल जो ज्ञान है वह भी दोनोंमें होना चाहिए। इन्द्रियको प्रमाण मानने में ये दोष आते हैं -1. सर्वज्ञताका अभाव होता है, क्योंकि इन्द्रियाँ सब पदार्थोंको एक साथ जाननेमें असमर्थ हैं । 2. इन्द्रियोंसे सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंका ज्ञान सम्भव न होनेसे भी सर्वज्ञताका अभाव होता है। 3. अनुमान आदि ज्ञानोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगो, क्योंकि इन ज्ञानोंको उत्पत्ति इन्द्रियोंसे नहीं होती। सन्निकर्ष और इन्द्रियको प्रमाण मानने पर इसी प्रकार और भी दोष आते हैं। सन्निकर्ष और इन्द्रियको प्रमाण माननेवाले लोग ज्ञानको प्रमाण माननेपर एक बड़ी भारी आपत्ति यह देते हैं कि यदि ज्ञानको प्रमाण माना जाता है तो प्रमाण निष्फल हो जाता है। किन्तु उनकी यह आपत्ति भी समीचीन नहीं है, क्योंकि
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72]] सर्वार्थसिद्धौ
[11108173 - $ 173. 'उक्तस्य पञ्चविधस्य ज्ञानस्य प्रमाणद्वयान्तःपातित्वे प्रतिपादिते प्रत्याक्षानुमागादिप्रमाणद्वयकल्पनानिवृत्त्यर्थमाह
आद्ये परोक्षम् ॥1॥ 8174. आदिशन्दः प्राथम्यवचनः। आदौ भवमाद्यम् । कथं द्वयोः प्रथमत्वम् ? मुख्योपचारकल्पनया । मतिज्ञानं तावन्मुख्यकल्पनया प्रथमम् । श्रुतमपि तस्य प्रत्यासत्या प्रथममित्युपञ्चर्यते । द्विवचननिर्देशसामर्थ्याद गौणस्यापि ग्रहणम् । आद्यं च आद्यं च आये मतिश्रुते इत्यर्थः। तदुभयमपि परोक्षं प्रमाणमित्यभिसंबध्यते। कुतोऽस्य परोक्षत्वम् । परायत्तत्वात "मतिज्ञानं इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्" इति वक्ष्यते "श्रुतमनिन्द्रियस्य" इति च । अतः पराणोन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्यनिमित्तं प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो मतिश्रुतं उत्पद्यमानं परोक्षमित्या
ज्ञानको प्रमाण माननेपर प्रीति, अज्ञाननाश, त्यागबुद्धि, ग्रहणबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि आदि अनेक फल बन जाते हैं। उन्होंने भी जब ज्ञानको प्रमाण माना है तब ये ही फल माने हैं। न्यायभाष्य में लिखा है कि 'जब ज्ञान प्रमाण होता है तब हानबद्धि, उपादानबद्धि और उपेक्षाबद्धि उसके फल प्राप्त होते हैं। इसलिए ज्ञानको ही सर्वत्र प्रमाण मानना चाहिए यही निष्कर्ष निकलता है। इससे पर्वोक्त सभी दोषोंका निराकरण हो जाता है। इसके अतिरिक्त इस सत्रकी टीकामें इन बातोंपर और प्रकाश डाला गया है-1. प्रमाणको निरुक्ति । 2. जीवादि पदार्थोके जाननेके लिए जैसे
ला अन्य प्रमाण अपेक्षित नहीं, इसका खलासा। प्रमाण माना गया है वैसे प्रमाणके जानने के लिए अन्य प्रम। 3. सूत्र में 'प्रमाणे' इस प्रकार द्विवचन रखनेका कारण। ये विषय सुगम हैं।
8173 पहले कहे गये पाँच कारकके ज्ञान दो प्रमाणोंमें आ जाते हैं इस प्रकार सुनिश्चित हो जाने पर भी वे दो प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान आदिक भी हो सकते हैं अतः इस कल्पनाको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
प्रथम दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं॥1॥ 8174. आदि शब्द प्राथम्यवाची है । जो आदिमें हो वह आद्य कहालता है। शंकादो प्रथम कैसे हो सकते हैं ? समाधान-पहला मुख्यकल्पनासे प्रथम है और दूसरा उपचार कल्पनासे प्रथम है। मतिज्ञान तो मुख्यकल्पनासे प्रथम है और श्रतज्ञान भी उसके समीपका होनेसे प्रथम है ऐसा उपचार किया जाता है। सूत्र में 'आद्य' इस प्रकार द्विवचनका निर्देश किया है अतः उसकी सामर्थ्यसे गौणका भी ग्रहण हो जाता है। 'आद्य' पदका समास 'आद्यच आद्य च आद्य' है। इससे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों लिये गये हैं। ये दोनों ज्ञान मिलकर परोक्ष प्रमाण हैं ऐसा यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए। शका-ये दोनो ज्ञान परोक्ष क्यों हैं समाधान क्योंकि ये दोनों ज्ञान पराधीन हैं। 'मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है, यह आगे कहेंगे और 'अनिन्द्रियका विषय श्रत है' यह भी आगे कहेंगे। अतः 'पर' से यहाँ इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेश आदि बाह्य निमित्त लेने चाहिए । तात्पर्य यह है कि मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माके इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेशादिक बाह्य निमित्तोको अपेक्षा मोतज्ञान और श्रत
1. त्यर्थः । . --उपमानार्थापत्त्यादीनामत्रैवान्तर्भावादुक्त-मु.। 2. –क्षत्वम् ? परोपेक्षत्वात् । मति --आ., दि. 1, दि. 21
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- 112 8 176] प्रथमोऽध्यायः
[73 ल्यायते । अत उपमानागमादीनामत्रवान्तर्भावः। 8 175. अभिहितलक्षणात्परोक्षादितरस्य सर्वस्य प्रत्यक्षत्वप्रतिपादनार्थमाह--
प्रत्यक्षमन्यत् ॥12॥ 8176. अक्षणोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा। तमेव प्राप्तक्षयोपशम प्रक्षीणावरण या प्रतिनियतं प्रत्यक्षम् । अवधिदर्शनं केवलदर्शनमपि अक्षमेव प्रतिनियतमतस्तस्यापि ग्रहणं प्राप्नोति। नैष दोषः; ज्ञानमित्यनुवर्तते, तेन दर्शनस्य व्यदासः। एवमपि विभडज्ञानमक्षमेय उत्पन्न होते हैं अतः ये परोक्ष कहलाते हैं । उपमान और आगमादिक भी ऐसे ही हैं अतः इनको... भी इन्हींमें अन्तर्भाव हो जाता है।
विशेषार्थ-पिछले सूत्र में दो प्रकारके प्रमाणोंका उल्लेख कर आये हैं। वे दो प्रमाण कौन हैं और उनमें पाँच ज्ञानोंका कैसे विभाग होता है यह बतलाना शेष है, अत: ग्यारहवें और बारहवें सूत्रों द्वारा यही बतलाया गया है। उसमें भी ग्यारहवें सूत्र द्वारा प्रमाणके पहले भेदकी परोक्ष संज्ञा बतलाकर उसमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका अन्तर्भाव किया गया है। दूसरे लोग जो इन्द्रियोंका अविषय है उसे परोक्ष कहते हैं। किन्तु जैन परम्परामें परोक्षता और प्रत्यक्षता यह ज्ञानका धर्म मानकर उस प्रकारसे उनकी व्याख्या की गयी है। जैन परम्पराके अनुसार, परकी सहायतासे जो अक्ष अर्थात् आत्माके ज्ञान होता है वह परोक्ष ज्ञान कहलता है परोक्ष शब्दका म अर्थ लिया गया है। मतिज्ञान और श्रतज्ञान ये दोनों ज्ञान ऐसे हैं जो यथासम्भव इन्द्रिय. मन तथा प्रकाश और उपदेश आदिके बिना नहीं हो सकते, अत: ये दोनों परोक्ष माने गये हैं। दार्शनिक ग्रन्थोंमें इन्द्रिय ज्ञानका सांव्यवहारिक प्रत्यक्षरूपसे उल्लेख देखनेको मिलता है। सो यह कथन औपचारिक जानना चाहिए। दूसरे लोगोंने अक्षका अर्थ इन्द्रिय करके इन्द्रियज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। वहाँ इसी अपेक्षासे इन्द्रिय ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष लिखा गया है ऐसा यहां जानना चाहिए। वस्तुतः आत्माके सिवा अन्य निमित्तसे जितना भी ज्ञान होता है वह सब परोक्ष ही है। उपमान, आगम आदि और जितने ज्ञान हैं वे भी अन्यकी अपेक्षाके बिना नहीं होते अतः उनका इन्हीं ज्ञानोंमें अन्तर्भाव हो जानेसे मुख्यतः परोक्ष ज्ञान दो ही ठहरते हैं एक मतिज्ञान और दसरा श्रतज्ञान । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि ये ज्ञान केवल बाह्य निमित्तसे नहीं होते हैं। मुख्यतया इनकी उत्पत्तिमें मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम आवश्यक है। आत्माकी ऐसी योग्यता हए, बिना ये ज्ञान नहीं होते। ऐसी योग्यताके होने पर बाह्यनिमित्त सापेक्ष इनकी प्रवृत्ति होती है यह उक्त कथनाका सार है।
8175 परोक्षका लक्षण कहा । इससे बांकीके सब ज्ञान प्रत्यक्ष हैं इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
शेष सब ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है ॥12॥
8176 अक्ष शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा। अक्ष, व्याप और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं, इसलिए अक्षका अर्थ आत्मा होता है । इस प्रकार क्षयोपशमवाले या आवरणरहित केवल आत्माके प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य
न्द्रयादिककी अपेक्षासे न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरणरहित आत्मासे होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। शंका-अवधिदर्शन और केवलदर्शन भी अक्ष अर्थात आत्माके प्रति नियत हैं अतः प्रत्यक्ष शब्दके द्वारा उनका भी ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि प्रकृतमें ज्ञान शब्दकी अनुवृत्ति है, जिससे दर्शनका निराकरण हो जाता है। 1.-ज्ञानमपि प्रति-म.।
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74] सर्वार्थसिद्धी
[1112 8 176 - प्रतिनियतमतोऽस्यापि ग्रहणं प्राप्नोति । सम्यगित्यधिकारात् तन्निवृत्तिः। सम्यगित्यनुवर्तते तेन ज्ञानं विशिष्यते ततो विभङ्गज्ञानस्य निवृत्तिः कृता । तद्धि मिथ्यावर्शनोदयाद्विपरीतार्थविषयमिति न सम्यक।
8177. स्यान्मतमिन्द्रियव्यापार जनितं ज्ञानं प्रत्यक्ष व्यतीतेन्द्रिय विषयव्यापार परोक्षमित्येतदविसंवादि लक्षणमभ्युपगन्तव्यमिति। तदयुक्तम्, आप्तस्य प्रत्यक्ष ज्ञानाभावप्रसङ्गात' यदि इन्द्रियनिमित्तमेव ज्ञानं प्रत्यक्षमिष्यते "एवं सति आप्तस्य प्रत्यक्षजानं न स्यात् । न हि तस्येन्द्रियपूर्वोऽर्थाधिगमः । अथ तस्यापि करणपूर्वकमेव ज्ञानं कल्प्यते, तस्यासर्वज्ञत्वं स्यात् । तस्य मानसं प्रत्यक्षमिति चेत् मनः प्रणिधानपूर्वकत्वात् ज्ञानस्य सर्वज्ञत्वाभाव एव । आगमतस्तत्सिद्विरिति चेत् । न ; तस्य' प्रत्यक्षज्ञानपूर्वकत्वात् ।
178 . योगिप्रत्यक्षमन्यज्ज्ञानं दिव्यमप्यस्तीति चेत् । न तस्य प्रत्यक्षत्वं ; इन्द्रियनिमित्तत्वाभावात् ; अक्ष मक्षं प्रति यद्वर्तते तत्प्रत्यक्षमित्यम्युपगमात् ।
8179. किंच सर्वज्ञत्वाभावः प्रतिज्ञाहानिर्वा । अस्य योगिनो यज्ज्ञानं तत्प्रत्यर्थवशवति का-यद्यपि इससे दर्शनका निराकरण हो जाता है तो भी विभंगज्ञान केवल आत्माके प्रति नियत है अतः उसका ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान-यहाँ 'सम्यक' पदका अधिकार है, अतः उसका निराकरण हो जाता है । तात्पर्य यह है की इस सूत्रमें 'सम्यक्' पदकी अनुवृत्ति होती है, जिससे ज्ञान विशेष्य हो जाता है इसलिए विभंगज्ञानका निराकरण हो जाता है। क्योंकि विभंगज्ञान मिथ्यादर्शनके उदयसे विपरीत पदार्थको विषय करता है, इसलिए वह समीचीन नहीं है।
6177. शंका-जो ज्ञान इन्द्रियोंके व्यापारसे उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है और जो इन्द्रियोंके व्यापारसे रहित होकर विषयको ग्रहण करता है वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष और परोक्षका यह अविसंवादी लक्षण मानना चाहिए? समाधान-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि उक्त लक्षणके मानने पर आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञानका अभाव प्राप्त होता है। यदि इन्द्रियोंके निमित्तसे होनेवाले ज्ञानको ही प्रत्यक्ष कहा जाता है तो ऐसा मानने पर आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि आप्तके इन्द्रियपूर्वक पदार्थका ज्ञान नहीं होता। कदाचित् उसके भी इन्द्रियपूर्वक ही ज्ञान माना जाता है तो उसके सर्वज्ञता नहीं रहती। शंका- उसके मानस प्रत्यक्ष होता है | समाधान-मनके प्रयत्नसे ज्ञानकी उत्पत्ति मानने पर सर्वज्ञत्वका अभाव ही होता है । शंका - आगमसे सब पदार्थोंका ज्ञान हो जायगा । समाधान नहीं, क्योंकि आगम प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक प्राप्त होता है।
8178. शंका-योगी प्रत्यक्ष नामका एक अन्य दिव्य ज्ञान है। समाधान-तो भी उसमें · प्रत्यक्षता नहीं बनती, क्योंकि वह इन्द्रियोंके निमित्तसे नहीं होता है। जिसकी प्रवृत्ति प्रत्येक इन्द्रियसे होती है वह प्रत्यक्ष है ऐसा आपके मतमें स्वीकार किया गया है।
6179. दूसरे प्रत्यक्षका पूर्वोक्त लक्षण माननेपर सर्वज्ञत्वका अभाव और प्रतिज्ञाहानि ने दो दोष आते हैं। विशेष इस प्रकार है-इस योगीके जो ज्ञान होता है वह प्रत्येक पदार्थको क्रमसे जानता है या अनेक अर्थोंको युगपत् जानता है। यदि प्रत्येक पदार्थको क्रमसे जानता है तो
1 रात् तस्तन्नि-मु.। 2. 'अक्षस्य अक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम् ।' -1,1,3 न्याय. भा । 3. 'परोक्ष इत्युच्यते कि परोक्षं नाम । परमक्षण: परोक्षम् ।'-पा. म. मा. 3121211151 4. --प्रसंगता । यदि आ, दि. 1. दि. 2। 5. एवं प्रसक्त्या आप्त-म.। 6. 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति: मनसो लिङ्गम् ।' -न्या. सू. 1111161 7. तस्य प्रागमस्य प्रत्य-मु.। 8. निमित्तामा-मु.। 9. 'अक्षमक्षं प्रति वर्तते तत्प्रत्यक्षम ।'-न्याय बिन्दु. टी. पु. 11।
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- 111281801 प्रथमोऽध्यायः
118 वा स्यात् अनेकार्थग्राहि वा । यदि प्रत्यर्थवशवति, सर्वज्ञत्वमस्य नास्ति योगिनः, ज्ञेयस्यानन्त्यात् । अथानेकार्थग्राहि, या प्रतिज्ञा
. "विजानाति न विज्ञानमेकमर्थद्वयं यथा । एकमर्थं विजानाति न विज्ञानद्वयं तथा।" 'सा हीयते।
8180. अथवा "क्षणिका: सर्वसंस्काराः" इति प्रतिज्ञा हीयते; अनेकक्षण' वृत्त्येकविज्ञानाभ्युपगमात् । अनेकार्थग्रहणं हि क्रमेणेति। युगपदेति चेत् । योऽस्य जन्मक्षणः स आत्मलाभार्थ एव। लब्धात्मलाभ हि किचित्स्वकार्य प्रति व्याप्रियते। प्रदीपवदिति चेत् । तस्याप्यनेकभगविषयतायां सत्यामेव प्रकाश्यप्रकाशनाभ्युपगमात् । विकल्पातीतत्वात्तस्य शून्यताप्रसंगश्च ।
रहता।
इस योगीके सर्वज्ञताका अभाव होता है, क्योंकि ज्ञेय अनन्त हैं। और यदि अनेक अर्थोंको युगपत् जामता है तो जो यह प्रतिज्ञा है कि 'जिस प्रकार एक विज्ञान दो अर्थोंको नहीं जानता है उसी प्रकार दो विज्ञान एक अर्थ को नहीं जानते हैं ।' वह नहीं रहती।
$180. अथवा 'सब पदार्थ क्षणिक हैं' यह प्रतिज्ञा नहीं रहती, क्योंकि आपके मतमें अनेक क्षणतक रहनेवाला एक विज्ञान स्वीकार किया गया है। अतः अनेक पदार्थोंका ग्रहण क्रमसे ही
है। शंका-अनेक पदार्थोंका ग्रहण एक साथ हो जायगा। समाधान-जो ज्ञानकी उत्पत्तिका समय है उस समय तो वह स्वरूप लाभ ही करता है, क्योंकि कोई भी पदार्थ स्वरूपलाभ करने के पश्चात् ही अपने कार्यके प्रति व्यापार करता है। शंका-विज्ञान दीपके समान है, अतः उसमें दोनों बातें एक साथ बन जायेंगी। समाधान-नहीं, क्योंकि उसके अनेक क्षण तक रहनेपर ही प्रकाश्यभूत पदार्थोंका प्रकाशन करना स्वीकार किया गया है। यदि ज्ञानको विकल्पातीत माना जाता है तो शून्यताकी प्राप्ति होती है।
विशेषार्थ-इस सूत्रमें कौन-कौन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं यह बतलाया गया है। प्रसंगसे इसकी दीकामें इन विशेषताओंपर प्रकाश डाला गया है--
1. अक्ष शब्दका अर्थ । 2. प्रत्यक्ष शब्दकी व्युत्पत्ति। 3. अक्ष शब्दका अर्थ इन्द्रिय या मनको निमिस कर प्रत्यक्ष शब्दका लक्षण करनेपर क्या दोष आते हैं इनका निर्देश । 4. आगमसे सर्वज्ञता नहीं बनती, किन्तु आगम प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक ही प्राप्त होता है इसका निर्देश । 5. बौद्धोंके द्वारा माने गये प्रत्यक्षके लक्षणको स्वीकार करनेपर क्या दोष प्राप्त होते हैं इसकी चर्चा । 6. प्रसंगसे बौद्धोंके यहाँ सर्वशता कैसे नहीं बनती और प्रतिज्ञाहानि दोष कैसे आता है इसका निर्देश । तीसरी बातको स्पष्ट करते हुए जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि प्रत्यक्षज्ञानको इन्द्रियनिमित्तक या मननिमित्तक मानने पर सर्वज्ञता नहीं बनती । वेद ही भूत, भविष्यत्, वर्तमान, दूरवर्ती, सूक्ष्म इत्यादि अर्थोका ज्ञान कराने में समर्थ है। इससे सकल पदार्थों का ज्ञान हो जाता है। इसलिए इन्द्रियजन्य ज्ञान और मनोजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष मानने में कोई आपत्ति नहीं है ऐसा मीमांसक मानते हैं। परन्तु उनका ऐसा मानना समोचीन नहीं है, क्योंकि आगम प्रत्यक्ष ज्ञान के बिना नहीं बन सकता है। यह बात चोथो विशेषता द्वारा बतलायी गयी है। बौद्ध भी अक्षका अर्थ इन्द्रिय करके इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष मानते हैं, परन्तु उनका ऐसा मानना क्यों समीचीन नहीं है यह पांचवीं विशेषता द्वारा बतलाया गया है । शेष कथन सुगम है।
1. 'क्षणिकाः सर्वसंस्कारा: स्थिराणां कुत: क्रिया। भूतियेषां क्रिया सैव कारक सैव चोच्यते ।' ... 2. क्षणवत्येक-म.।
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76]
सर्वार्थसिद्धौ
8181. प्रभिहितोभयत्रकारस्य प्रमाणस्य आविप्रकारविशेष प्रतिपत्यर्थमाह
मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥13॥
8182 1 आदौ उद्दिष्टं यज्ज्ञानं तस्य पर्यायशब्दा एते वेदितव्याः; मतिज्ञानावरणक्षयोपशमान्तरं गनिमित्तजनितोपयोग विषयत्वादेतेषां श्रुतादिष्वप्रवृत्तेश्च । मननं मतिः, स्मरणं स्मृतिः, संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता, अभिनिबोधनमभिनिबोध इति । यथासंभवं विग्रहान्तरं विज्ञेयम् । 183. सत्यपि प्रकृतिभेदे रुढिबललाभात् पर्यायशब्दत्वम् । यथा इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इति इन्दनादिक्रिया भेदेऽपि शचीपतेरेकस्यैव संज्ञा । समभिरूढनयापेक्षया तेषामर्थान्तरकल्पनायां मत्यादिष्वपिसक्रम विद्यत एव। किं तु मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमितोपयोगं 'नातिवर्तन्त इति मत्रा विवक्षितः । 'इति' शब्द: ' प्रकारार्थ: : एवं प्रकाश अस्य पर्यायशब्दा इति । अभियार्थो वा । मति स्मृतिः संज्ञा चिन्ता अभिनिबोध इत्येतैर्योऽर्थोऽभिधीयते स एक एव इति ।
[1113 § 181
$ 181 प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद कहे। अब हम प्रथम प्रकारके प्रमाणके विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और श्रभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं ।। 13u
8182. आदिमें जो ज्ञान कहा है उसके ये पर्यायवाची शब्द जानने चाहिए, क्योंकि ये मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप अन्तरंग निमित्तसे उत्पन्न हुए उपयोगको विषय करते हैं और इनकी श्रुतादिक में प्रवृत्ति नहीं होती । 'मननं मतिः, स्मरण स्मृतिः, संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता और अभिनिबोधनमभिनिबोधः' यह इनकी व्युत्पत्ति है । यथा सम्भव इनका दूसरा विग्रह जानना चाहिए ।
8183. यद्यपि इन शब्दोंकी प्रकृति अलग-अलग है अर्थात् यद्यपि ये शब्द अलग-अलग धातुसे बने हैं तो भी रूढ़िसे पर्यायवाची हैं। जैसे इन्द्र, शक और पुरन्दर । इनमें यद्यपि इन्द आदि क्रियाकी अपेक्षा भेद है तो भी ये सब एक शचीपतिकी वाचक संज्ञाएँ हैं । अब यदि समभिरूढ नयकी अपेक्षा इन शब्दोंका अलग-अलग अर्थ लिया जाता है तो वह क्रम मति आदि शब्दों में भी पाया जाता है । किन्तु ये मति आदि मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप निमित्तसे उत्पन्न हुए उपयोगको उल्लंघन नहीं करते हैं यह अर्थ यहाँपर विवक्षित है । प्रकृत में 'इति' शब्द प्रकारवाची है जिससे यह अर्थ होता है कि इस प्रकार ये मति आदि मतिज्ञानके पर्यायवाची शब्द हैं । अथवा प्रकृत में मति शब्द अभिधेयवाची है जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इनके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह एक ही है ।
विशेषार्थ - इस सूत्र में मतिज्ञानके पर्यायवाची नाम दिये गये हैं । षट्खण्डागमके प्रकृति अनुयोगद्वार में भी मतिज्ञानके ये ही पर्यायवाची नाम आये हैं । अन्तर केवल यह है कि वहाँ विज्ञान नाम न देकर आभिनिबोधिकज्ञान नाम दिया है और फिर इसके संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये चार पर्यायवाची नाम दिये हैं। इससे जो लोग प्रकृतमें मतिका अर्थ वर्तमान ज्ञान, स्मृतिका अर्थ स्मरणज्ञान, संज्ञाका अर्थ प्रत्यभिज्ञान, चिन्ताका अर्थ तर्क और अभिनिबोधका अर्थ अनुमान करते हैं वह विचारणीय हो जाता है । वास्तव में यहाँ इन नामोंका विविध ज्ञानों
1. आदी यदुद्दिष्ठं ज्ञानं मु. । 2. 'बहवो हि शब्दा: एकार्था भवन्ति । तद्यथा - 'इन्द्र: शक्रः पुरुहूत: पुरन्दरः ।' पा. म. भा. 11212145 3. संज्ञा: । सम - मु. 4. नातिवर्तत इति मु. ।
5. कारार्थं । एवं आ, दि. 1, दि 2 । 'हेतावेवं प्रकारे च व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भावे समाप्ती च इतिशब्दः प्रकीर्तितः । ' -अने. ना. श्लो. ।
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11114 § 186]
प्रथमोऽध्यायः
$ 184. अथास्यात्मलाभे किं निमित्तमित्यत आह
तदिन्द्रियानिन्द्रियमित्तम् ॥14॥
8 185. इन्दतीति इन्द्र आत्मा । तस्य ज्ञस्वभावस्य तदावरणक्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् ग्रहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धि लिंगं तदिन्द्रस्य लिंगमिन्द्रियमित्युच्यते । अथवा लीनमयं मयतीति लिगम् । आत्मनः सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिंगमिन्द्रियम् । यथा इह धूमोऽग्नेः । ऐवमिदं स्पर्शनादि करणं नासति कर्तर्यात्मनि भवितुमर्हतीति ज्ञातुरस्तित्वं गम्यते । अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते । तेन सृष्टमिन्द्रियमिति । तत्स्पर्शनादि उत्तरत्र वक्ष्यते ।
$ 186 अनिन्द्रियं मनः अन्तःकरणमित्यनर्थान्तरम् । कथं पुनरिन्द्रियत्र तिषेधेन इद्रलिंगे एवं मनसि अमिन्द्रिय शब्दस्य वृत्तिः । ईषदर्थस्य नञः प्रयोगात् । ईषदिन्द्रियमनिन्द्रियमिति ।
की अपेक्षा संग्रह नहीं किया गया है, किन्तु मतिज्ञानके पर्यायवाची नामोंकी अपेक्षासे ही संग्रह किया गया है । सूत्रकारने इसी अर्थ में इनका अनर्थान्तररूपसे निर्देश किया है। इस सूत्र की टीका में इन विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है । 1. मति आदि शब्दोंके पर्यायवाची होनेमें हेतु । 2. मति आदि शब्दोंकी व्युत्पत्ति । 3. मति आदि शब्दोंमें प्रकृति भेद होनेपर भी उनके पयायवाचित्वका दृष्टान्त द्वारा समर्थन । 4. समभिरूढनयकी अपेक्षा इनमें अर्थ भेद होने पर भी प्रकृत में ये पर्यायवाची क्यों हैं इनमें पुनः युक्ति । 5. सूत्रमें आये हुए 'इति' शब्दकी सार्थकता ।
$ 184. मतिज्ञानके स्वरूप लाभमें क्या निमित्त है अब यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र
कहते हैं
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[77
वह (मतिज्ञान) इन्द्रिय और मनके निमित्तसे होता है ॥14॥
8 185. इन्द्र शब्दका व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है 'इन्दतीति इन्द्रः' जो आज्ञा और ऐश्वर्यवाला है वह इन्द्र । इन्द्र शब्दका अर्थ आत्मा है । वह यद्यपि ज्ञस्वभाव है तो भी मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके रहते हुए स्वयं पदार्थों को जानने में असमर्थ है, अतः उसको पदार्थके जानने में जो लिंग ( निमित्त) होता है वह इन्द्रका लिंग इन्द्रिय कही जाती है । अथवा जो लीन अर्थात् गूढ़ पदार्थका ज्ञान कराता है उसे लिंग कहते हैं। इसके अनुसार इन्द्रिय शब्दका यह अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्वका ज्ञान कराने में लिंग अर्थात् कारण है उसे इन्द्रिय कहते हैं । जैसे लोकमे धूम अग्निका ज्ञान कराने में कारण होता है। इसी प्रकार ये स्पर्शनादिक करण कर्त्ता आत्माके अभाव में नहीं हो सकते हैं, अतः उनसे ज्ञाताका अस्तित्व जाना जाता है। अथवा इन्द्र शब्द नामकर्मका वाची है | अतः यह अर्थ हुआ कि उससे रची गयी इन्द्रिय हैं । वे इन्द्रियाँ स्पर्शनादिक हैं जिनका कथन आगे करेंगे। अनिन्द्रिय, मन और अन्तःकरण ये एकार्थवाची नाम हैं ।
8186 शंका - अनिन्द्रिय शब्द इन्द्रियका निषेधपरक है अतः इन्द्रके लिंग मनमें अनिन्द्रिय शब्दका व्यापार कैसे हो सकता है ? समाधान -यहाँ नत्र का प्रयोग 'ईषद्' अर्थ में किया है इन्द्रिय अनिन्द्रिय । यथा अनुदरा कन्या । इस प्रयोगमें जो अनुदरा शब्द है उससे उदरका अभाव रूप अर्थ न लेकर ईषद् अर्थ लिया गया है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। शंका-अनिन्द्रय
1. - लब्धिनिमित्त लिंग मु. 2. 'भोगसाधनानीन्द्रियाणि । न्या. भा. 11119 ! 3. 'भगवां हि मुम्मासंबुद्धो परमिस्सरियमावतो इन्दो, कुसलाकुसलं च कम्मं, कम्मेसु कस्सचि इस्सरियाभावतो । तेनेत्थ कम्मसज्जनितानि ताव इंद्रियानि कुसलाकुसलं कम्मं उल्लिगेन्ति तेन च सिद्वानीति इन्दलिगट्ठेन इन्दसिट्ठट्ठेन च इंदियानि ।.वि. म. पू. 3431
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78]
सर्वार्थसिद्धी
[1114 § 186
या अनुदरा कन्या इति । कथमोषदर्थः । इमानीन्द्रियाणि प्रतिनियतवेशविषयाणि कालान्तरावस्थायोनि च । न तथा मनः इन्द्रस्य लिंगमपि सत्प्रतिनियतवेशविषयं कालान्तरावस्थायि च । 8187. तदन्तःकरणमिति चोच्यते । गुणदोषवि वारस्मरणादिव्यापारे इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवद् बहिरनुपश्धेश्च अन्तर्गतं करणमन्तःकरणमित्युच्यते ।
188 तदिति किमर्थम् । मतिज्ञान निर्देशार्थम् ननु च तदनन्तरं 'अनन्तरस्य विधिव भवति प्रतिषेधो वा' इति तस्यैव ग्रहणं भवति । इहार्थमुत्तरार्थं च तदित्युच्यते । यम्मत्यादिपर्यायशब्दवाच्यं ज्ञानं तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमितं तदेवावप्रहेहावायधारणा इति । इतरथा हि प्रथमं मत्यादिशब्दवाच्यं ज्ञानमित्युक्त्वा इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं श्रुतम् । तदेव विग्रहेहावायधारणा इत्यनिष्टमभिसंबध्येत ।
में 'नत्र का निषेधरूप अर्थ न लेकर 'ईषद्' अर्थ कैसे लिया गया है ? समाधान-ये इन्द्रियाँ नियत देश में स्थित पदार्थोंको विषय करती हैं और कालान्तर में अवस्थित रहती हैं । किन्तु मन इन्द्रका लिंग होता हुआ भी प्रतिनियत देशमें स्थित पदार्थको विषय नहीं करता और कालान्तर में अवस्थित नहीं रहता ।
§ 187. यह अन्तःकरण कहा जाता है । इसे गुण और दोषोंके विचार और स्मरण करने आदि कार्यों में इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं लेनी पड़ती तथा चक्षु आदि इन्द्रियोंके समान इसकी बाहर उपलब्धि भी नहीं होती इसलिए यह अन्तर्गत करण होनेसे अन्तःकरण कहलाता है । इसलिए अनिन्द्रिय में नत्र का निषेधरूप अर्थ न लेकर ईषद् अर्थ लिया गया है।
8188 शंका - सूत्रमें 'तत्' पद किसलिए दिया है ? समाधान - -सूत्र में 'तत्' पद मतिज्ञानका निर्देश करने के लिए दिया है। शंका- मतिज्ञान निर्देश का अनन्तर किया ही है और ऐसा नियम है कि 'विधान या निषेध अनन्तरवर्ती पदार्थका ही होता है' अतः यदि सूत्रमें 'तत्' पद न दिया जाय तो भी मतिज्ञानका ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान - इस सूत्र के लिए और अगले सूत्रके लिए 'तत्' पदका निर्देश किया है । मति आदि पर्यायवाची शब्दोंके द्वारा जो ज्ञान कहा गया है वह इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है और उसीके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं, इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं प्राप्त होता । यदि 'तत्' पद न दिया जाये तो मति आदि पर्यायवाची नाम प्रथम ज्ञानके हो जायेंगे और इन्द्रिय- अनिन्द्रियके निमित्त होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलायेगा और इसीके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद प्राप्त होंगे इस प्रकार अनिष्ट अर्थके सम्बन्धकी प्राप्ति होगी । अतः इस अनिष्ट अर्थ के सम्बन्धके निराकरण करने के लिए सूत्र में 'तत् पद का निर्देश करना आवश्यक है ।
विशेषार्थ - इस सूत्र में मतिज्ञानकी उत्पत्तिके निमित्तोंकी चर्चा करते हुए वे इन्द्रिय और मनके भेदसे दो प्रकारके बतलाये हैं । यद्यपि इस ज्ञानकी उत्पत्तिमें अर्थ और आलोक आदि भी निमित्त होते हैं पर वे अव्यभिचारी कारण न होने से उनका यहाँ निर्देश नहीं किया है। इसकी chara इन्द्रिय- अनिन्द्रिय शब्दका अर्थ क्या है इस पर प्रकाश डालते हुए इन्द्रियोंको जो प्रतिनियत देशको विषय करनेवाला और कालान्तरमें अवस्थित रहनेवाला तथा मनको अनियत देशमें स्थित
1. 'अनुदरा कन्येति ।' पा. म. भा. 61312142 1 2. 'इन्द्रस्य वे सतो मनस इन्द्रियेभ्यः पृथगुपदेशो धर्मभेदात । भौतिकानीन्द्रियाणि नियतविषयाणि, सगुणानां चैषामिन्द्रियभाव इति । मनस्त्व भौतिक सर्वविषयं च... ।' न्या. मा. 11114 | 'सर्वविषयमन्तःकरणं मनः । न्या. मा. 11119 1 3. तं करणमित्यु- मु.
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179
-1158190]
प्रथमोऽध्यायः 8189. एवं निर्जातोत्पत्तिनिमित्तमनिर्णीतभेदमिति तद्भेदप्रतिपत्त्यर्थमाह
अवग्रहेहावायधारणाः ॥15॥ 8 190. विषयविषयिसंनिपातसमनन्तरमाद्य ग्रहणमवग्रहः । विषयविषयिसंनिपाते सति वर्शनं भवति । तदनन्तरमथग्रहणमवग्रहः । यथा-चक्षुषा शुक्लं रूपमिति ग्रहणमवग्रहः । अबमहगृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकाङ्क्षणमोहा । यथा शुक्लं रूपं कि वलाका पताका वेति । विशेषनिर्जामाद्याथात्म्यावगमनमवायः । उत्पतननिपतनपक्षविक्षेपादिभिर्वलाकवयं न पताकेति। अवतस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा । यथा. सैवेयं वलाका पूर्वाहणे यामहमद्रासमिति । एषामवहादीनामुपन्यासक्रम उत्पतिक्रमकृतः ।
पदार्थको विषय करनेवाला और कालान्तर में अवस्थित नहीं रहनेवाला बतलाया है सो इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार इन्द्रियाँ देश और काल दोनोंकी अपेक्षा नियत विषयको ग्रहण , करती हैं वैसा मन नहीं है। इस प्रकार मनका विषय नियत नहीं है। उसकी इन्द्रियगम्य और । अतीन्द्रिय सब विषयों में प्रवृत्ति होती है। इसका दूसरा नाम अन्तःकरण क्यों है इसका स्पष्टार्थ टीकामें किया ही है । शेष कथन सुगम है।
189. इस प्रकार मतिज्ञानकी उत्पत्तिके निमित्त जान लिये, किन्तु अभी उसके भेदोंका निणय नहीं किया अतः उसके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए अगला सूत्र कहते हैं
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये मतिज्ञानके चार भेद है ॥15॥
$190 विषय और विषयीके सम्बन्धके बाद होनेवाले प्रथम ग्रहणको अवग्रह कहते हैं। विषय और विषयीका सन्निपात होनेपर दर्शन होता है उसके पश्चात् जो पदार्थका ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है। जैसे चक्षु इन्द्रियके द्वारा 'यह शुक्ल रूप हैं। ऐसा ग्रहण करना अवग्रह है। अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों में उसके विशेषके जानने की इच्छा ईहा कह. लाती है । जैसे, जो शुक्ल रूप देखा है 'वह क्या वकपंक्ति है' इस प्रकार विशेष जाननेको इच्छा या 'वह क्या पताका है' इस प्रकार विशेष जाननेकी इच्छा ईहा है। विशेषके निर्णय-द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते हैं । जैसे उत्पतन, निपतन और पक्षविक्षेप आदि के द्वारा 'मह वकपंक्ति ही है ध्वजा नहीं है' ऐसां निश्चय होना अवाय है। जानी हुई वस्तु का जिस कारण कालान्तरमें विस्मरण नहीं होता उसे धारणा कहते हैं। जैसे यह वही वकपंक्ति है जिसे प्रात.काल मैंने देखा था ऐसा जानना धारणा है। सूत्रमें इन अवग्रहादिकका उपन्यासक्रम इनके उत्पत्तिक्रमकी अपेक्षा किया है । तात्पर्य यह है कि जिस क्रमसे ये ज्ञान उत्पन्न होते हैं उसी क्रमसे इनका सत्र में निर्देश किया है।
विशेषार्थ-इस सत्रमें मतिज्ञान के चार भेद किये हैं सोये भेद मतिज्ञानकी उपयोगरूप अवस्थाकी प्रधानतासे किये गये हैं। इससे इसका क्षयोपशम भी इतने प्रकारका मान लिया गया है। पदार्थको जानते समय किस क्रमसे वह उसे जानता है यह इन भेदों-द्वारा बतलाया गया है यह इस कथनका तात्पर्य है । भेदके स्वरूपका निर्देश टीकामें किया ही है। विशेष वक्तव्य इतना
1.-माद्य ग्रह-मु.। 2.-मर्थस्य ग्रह-मु.। 3. पताकेति-मु.। 4. उत्पतनपक्ष-आ., दि. 1, दि. 21 5. अर्थतस्य–मु.। 6. 'तयणंतरं तयथाविच्चवणं जो य वासणाजोगो। कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा साउ।'-वि. भा. गा. 291। 7. ईहिज्जइ नागहियं नज्जइ नाणीहियं न यावायं । धारिज्जइ जं वत्थं लेण कमोऽवग्गहाईप्रो'वि. मा. गा. 2961 .
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सर्वार्थसिद्धी
[11168 1918191. उक्तानामवग्रहादीनां प्रभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह -
बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ॥16॥ 8192. अवमहादयः क्रियाविशेषाः प्रकृताः। तदपेक्षोऽयं कर्मनिर्देशः । बह्वादीनां सेतराणामिति । बहुशब्दस्य संख्यावैपुल्यवाचिनो ग्रहणमविशेषात् । संख्यावाची' यथा, एको हो बहव इति । वैपुल्यवाची यथा, 'बहुरोदनो बहुः सूप इति । विधशब्दः प्रकारवाची । क्षिप्रग्रहणमचिरप्रतिपत्त्यर्थम् । अनिःसृतग्रहणं असकलपुद्गलोद्गमार्थम् । अनुक्तमभिप्रायेण ग्रहणम् । ध्रुवं निरन्तरं यथार्थग्रहणम् । सेतर ग्रहणं प्रतिपक्षसंग्रहार्थम् ।
193. बहूनामवग्रहः अल्पस्यावग्रहः बहुविधस्यावग्रहः एकविधस्यावग्रहः क्षिप्रमवग्रहः चिरेणावग्रहः अनिःसृतस्यावग्रहः निःसृतस्यावग्रहः अनुक्तस्यावग्रहः उक्तस्यावग्रहः ध्र वस्यावग्रहः अध वस्यावग्रहश्चेति अवग्रहो द्वादशविकल्पः। एवमोहादयोऽपित एते पञ्चभिरिन्द्रियदारर्मनसा च प्रत्येकं प्रादुर्भाव्यन्ते । तत्र बह्ववनहादयः मतिज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षात् प्रभवन्ति नेतरे इति । तेषामहितत्वादादौ ग्रहणं क्रियते। है कि यह ज्ञान किसी विषयको जानते समय उसीको जानता है। एक विषयके निमित्तसे इसका दूसरे विषय में प्रवेश नहीं होने पाता। टीकामें अवग्रह आदिके जो दृष्टान्त दिये हैं सो उनका वर्गीकरण इसी दृष्टिसे किया गया है।
$191. इस प्रकार अवग्रह आदिका कथन किया। अब इनके भेदोंके दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
सेतर (प्रतिपक्षसहित) बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त जोर ध्र वके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप मतिज्ञान होते हैं ॥16॥
8192. अवग्रह आदि क्रियाविशेषोंका प्रकरण है उनकी अपेक्षा 'बह्वादीनां सेतराणां' इस प्रकार कर्मकारकका निर्देश किया है। 'बहु' शब्द संख्यावाची और वैपुल्यवाची दोनों प्रकारका है। इन दोनोंका यहाँ ग्रहण किया है, क्योंकि उनमें कोई विशेषता नहीं है। संख्यावाची बड़ शन्द यथा-एक, दो, बहुत । वैपुल्यवाची बहु शब्द यथा- बहुत भात, बहुत दाल । 'विध' शब्द प्रकारवाची है। सूत्र में क्षिप्र' शब्दका ग्रहण, जल्दी होनेवाले ज्ञानके जतानेके लिए किया है। जब पूरी वस्तु प्रकट न होकर कुछ प्रकट रहती है और कुछ अप्रकट तब वह अनिःसृत कही जाती है । यहाँ अनिःसृत अर्थ ईष निःसृत है, अतः इसका ग्रहण करनेके लिए सूत्रमें 'लनिःसृत' पद दिया है। जो कही या बिना कही वस्तु अभिप्राय से जानी जाती है उसके ग्रहण करनेके लिए 'अनुक्त' पद दिया है। जो यथार्थ ग्रहण निरन्तर होता है उसके जतानेके लिए 'ध्र व' पद दिया है। इनसे प्रतिपक्षभूत पदार्थोंका संग्रह करनेके लिए 'सेतर' पद दिया है।
६193. बहतका अवग्रह, अल्पका अवग्रह, बहुविधका अवग्रह, एकविधका अवग्रह, क्षिप्रावग्रह, अक्षिप्रावग्रह, अनिःसतका अवग्रह, निःसृतका अवयह, अनुक्तका अवग्रह, उक्तका अवग्रह, ध्र नका अवग्रह और अध्र वका अवग्रह ये अवग्रहके बारह भेद हैं। इसी प्रकार ईहादिकमेंसे प्रत्येकके बारह-बारह भेद हैं। ये सब अलग-अलग पाँच इन्द्रिय और मनके द्वारा उत्पन्न कराने चाहिए। इनमें से बहु अवग्रह आदि मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके प्रकर्षसे होते हैं, इतर नहीं । बहु आदि श्रेष्ठ हैं, अतः उनका प्रथम ग्रहण किया है।
-1. “अत्स्येव संख्यावाची। तद्यथा एको द्वौ बहव इति ।'-पा. म. भा. 114121211 2. 'बहुरोदनो बहः सूप इति।'-पा. म. मा. 11412121। 3. ध्रुवं यथा-ता., न. ।
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-1116 § 196 ]
प्रथमोऽध्यायः
[ 81
8194. बहुबहुविधयोः कः प्रतिविशेषः; यावता 'बहुष्वपि बहुत्वमस्ति बहुविधेष्वपि बहुत्वमस्ति ? एकप्रकारनानाप्रकारकृतो विशेषः । उक्तनिःसृतयोः कः प्रतिविशेषः ; यावता सकल निःसरणान्निःसृतम् । उदतमप्येवंविधमेव ? श्रयमस्ति विशेषः, अन्योपदेश पूर्वकं ग्रहणमुक्तम् । स्वत एव ग्रहणं निःसृतम् ।
$ 195. अपरेषां क्षिप्रनिःसृत इति पाठः । त एवं वर्णयन्ति श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य वा कुररस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते । अपरः स्वरूपमेवाश्रित्य' इति ।
196 वावग्रहस्य धारणायाश्च कः प्रतिविशेषः ? उच्यते, क्षयोपशमप्राप्तिकाले विशुद्धपरिणाम संतत्या प्राप्तात्क्षयोपशमात्प्रथमसमये यथावग्रहस्तथैव द्वितीयादिष्वपि समयेषु aa arधक इति वावग्रह इत्युच्यते । यदा पुनविशुद्धपरिणामस्य संक्लेशपरिणामस्य च मिश्रणात्क्षयोपशमो भवति तत उत्पद्यमानोऽवग्रहः कदाचित् बहूनां कदाचिदल्पस्य कदाचिद् बहुविधस्य कदाचिदेकविधस्य वेति न्यूनाधिकभावादध्य वावग्रह इत्युच्यते । धारणा पुनगृहीतार्थाविस्मरणकारणमिति महदनयोरन्तरम् ।
8191. शंका - बहु और बहुविधमें क्या अन्तर है, क्योंकि बहु और बहुविध इन दोनोंमें बहुतपना पाया जाता है ? समाधान-इनमें एक प्रकार और नाना प्रकारकी अपेक्षा अन्तर है । अर्थात् बहुमें प्रकारभेद इष्ट नहीं और बहुविधमें प्रकारभेद इष्ट है । शंका-उक्त और निःसृतमें क्या अन्तर है- क्योंकि वस्तुका पूरा प्रकट होना निःसृत है और उक्त भी इसी प्रकार है ? समाधान- इन दोनोंमें अन्तर यह है - अन्यके उपदेशपूर्वक वस्तुका ग्रहण करना उक्त है और स्वतः ग्रहण करना निःसृत है ।
195. कुछ आचार्योंके मतसे क्षिप्रानिःसृतके स्थान में 'क्षिप्रनिःसृत' ऐसा पाठ है । वे ऐसा व्याख्यान करते हैं कि श्रोत्र इन्द्रियके द्वारा शब्दको ग्रहण करते समय वह मयूरका है अथवा कुररका है ऐसा कोई जानता है। दूसरा स्वरूपके आश्रयसे ही जानता है ।
8196 शंका - ध्रुवावग्रह और धारणा में क्या अन्तर है ? समाधान - क्षयोपशमकी प्राप्ति के समय विशुद्ध परिणामोंकी परम्पराके कारण प्राप्त हुए क्षयोपशमसे प्रथम समय में जैसा अवग्रह होता है वैसा ही द्वितीयादिक समयोंमें भी होता है, न न्यून होता है और न अधिक । यह
वाग्रह है। किन्तु जब विशुद्ध परिणाम और संक्लेश परिणामोंके मिश्रण से क्षयोपशम होकर उससे अवग्रह होता है तब वह कदाचित् बहुतका होता है, कदाचित् अल्पका होता है, कदाचित् बहुविधा होता है और कदाचित् एकविधका होता है । तात्पर्य यह कि उनमें न्यूनाधिक भाव होता रहता है, इसलिए वह अध्र वावग्रह कहलाता है किन्तु धारणा तो गृहीत अर्थ के नहीं भूलने के कारणभूत ज्ञानको कहते हैं, अतः ध्रुवावग्रह और धारणा में बड़ा अन्तर है ।
विशेषार्थ - ये अवग्रह आदि मतिज्ञान द्वारा जाननेरूप क्रिया के भेद हैं और बहु आदि उनके कर्म हैं इसलिए इस सूत्र में इनका इसीरूपसे निर्देश किया गया है । मतिज्ञान द्वारा पदार्थोंका बहु आदिरूप इतने प्रकारसे अवग्रहण, ईहन, अवाय और धारण होता है यह इसका तात्पर्य है । इन बहु आदिके स्वरूपका तथा उनके अन्तरका व्याख्यान टीकामें किया ही है। मालूम होता है कि पूज्यपाद स्वामी के समय इस सूत्र के दो पाठ प्रचलित थे और उनका दो प्रकार से व्याख्यान भी किया जाता "था जिनका उल्लेख पूज्यपाद स्वामीने स्वयं किया है। एक पाठ जो उस समय अधिक मान्य था या पूज्यपाद स्वामी जिसे मूल पाठ मानते रहे उसका उल्लेख तो उन्होंने व्याख्यानरूपसे किया 1. बहुपु बहुविधे । - मु. 2. -- मेवानिःसृत - आ., दि. 1, दि. 2, मु. 1 3. नोनाभ्य -- ता.,
न., मु.
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सर्वार्थसिद्धी
[11168 197: 197. यद्यवग्रहादयो बह्वादीनां कर्मणामाक्षेप्तारः, बह्वादीनि पनविशेषणानि कस्येत्यत आह
___ अर्थस्य ॥17॥ 198 चक्षुरादिविषयोऽर्थः । तस्य बह्वादिविशेषणविशिष्टस्य अवग्रहादयो भवन्तीत्यभिसंबन्धः क्रियते। किमर्थमिदमुच्यते यावता बह्वादिरर्थ एव ? सत्यमेवं, किन्तु प्रवादिपरिकल्पनानिबृत्त्यर्थ 'अर्थस्य' इत्युच्यते। केचित्प्रवादिनो मन्यन्ते रूपादयो गुणा एव इन्द्रियः संनिकृष्यन्ते ते तेषामेव ग्रहणमिति । तदयुक्तम् ; न हि ते रूपादयो गुणा अमूर्ता इन्द्रियसंनिकर्षमापद्यन्ते । न तहि इदानीमिदं भवति 'रूपं मया दृष्टं, गन्धो वा घ्रात' इति । भवति च । कथम्? इति पर्यायांस्तैर्वाऽयंत इत्यर्थो द्रव्यं, तस्मिन्निन्द्रियैः संनिकृष्यमाणे तदव्यतिरेका पादिष्वपि संव्यवहारो युज्यते।
$ 199. किमिमे अवग्रहादयः सर्वस्येन्द्रियानिन्द्रियस्य भवन्ति उत कश्चिद्विषयविशेषोऽस्तीत्यत आह
व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥18॥ . है और दूसरे पाठका उल्लेख अन्य कुछ आचार्योंके अभिप्रायके रूप में किया है । इन दोनों व्याख्यानों में जो अन्तर है वह इस प्रकार है-मूल पाठके अनुसार-अनिःसृतज्ञान- अवयवके ग्रहणके समय ही पूरे अवयवीका ज्ञान होना। निःसृत ज्ञान-- इससे उलटा। पाठान्तरके अनुसार-निःसृतज्ञान-विशेषताको लिये हुए ज्ञान होना। अनिःसृत ज्ञान--विशेषताके बिना साधारण ज्ञान होना । शेष कथन सुगम है।
197. यदि अवग्रह आदि बहु आदिकको जानते हैं तो बहु आदिक किसके विशेषण हैं अब इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अर्थक (वस्तुके) अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान होते हैं ॥17॥
8 198. चक्षु आदि इन्द्रियोंका विषय अर्थ कहलाता है। बहु आदि विशेषणोंसे युक्त उस (अर्थ) के अवग्रह आदि होते हैं ऐसा यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए। शंका-- यतः बहु आदिक अर्थ ही हैं, अतः यह सूत्र किसलिए कहा ? समाधान- यह सत्य है कि बहु आदिक अर्थ ही हैं तो भी अन्य वादियोंकी कल्पनाका निराकरण करनेके लिए 'अर्थस्य' सत्र कहा है। कितने ही प्रवादी मानते हैं कि रूपादिक गुण ही इन्द्रियोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त होते हैं, अतः उन्हींका ग्रहण होला है, किन्तु उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि वे रूपादिक गुण अमूर्त हैं, अतः उनका इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। शंका-यदि ऐसा है तो 'मैंने रूप देखा, मैंने गन्ध सूंघा' यह व्यवहार नहीं हो सकता, किन्तु होता अवश्य है सो इसका क्या कारण है ? समाधान- जो पर्यायोंको प्राप्त होता है या पर्यायोंके द्वारा जो प्राप्त किया जाता है, यह 'अर्थ' है। इसके अनुसार अर्थ दव्य ठहरता है। उसके इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध को प्राप्त होने पर चूंकि रूपादिक उससे अभिन्न है, अतः रूपादिकमें भी ऐसा व्यवहार बन जाता है कि 'मैंने रूप देखा, मैंने गन्ध संघा।'
विशेषार्थ-ज्ञानका विषय न केवल सामान्य है और न विशेष, किन्तु उभयात्मक पदार्थ है। प्रकृतमें इसी बातका ज्ञान करानेके लिए 'अर्थस्य' सूत्रको रचना हुई है। इससे नैयायिक वैशेषिकोंके इस मतका खण्डन हो जाता है कि रूपादि गुण इन्द्रियोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त होते हैं ।
199. क्या ये अवग्रह आदि सब इन्द्रिय और मन के होते हैं या इनमें विषयकी अपेक्षा कुछ भेद हैं ? अब इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
व्यंजनका अवग्रह ही होता है ॥18॥ 1. 'न तहि इदानीमिदं भवति ।' वा. भा. 1, 1,4।
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[83
--1119 8 201]
प्रथमोऽध्यायः 8 200. व्यञ्जनमव्यक्तं शब्दादिजातं तस्यावग्रहो भवति नेहादयः। किमर्थमिदम् ? नियमार्थम्, अवग्रह एव नेहादय इति । स तहि एवकारः कर्तव्यः ? न कर्तव्यः, ' सिद्धे विधिरारभ्यमाणो नियमार्थ' इति अन्तरेणवकारं नियमार्थो भविष्यति । ननु अवग्रहग्रहणमुभयत्र तुल्यं तत्र किं कृतोऽयं विशेषः ? अर्थावग्रहव्यञ्जनावग्रहयोळक्ताव्यक्तकृतो विशेषः । कथम् ? अभिनवशरावाद्रीकरणवत् । यथा जलकणद्वित्रा "सिक्तः सरावोऽभिनवो नाद्रीभवति, स एव पुनःपुनः सिच्यमानः शस्तिम्यति, एवं श्रोत्रादिष्विन्द्रियेषु शब्दादिपरिणताः पुद्गला 'द्विवादिषु समयेषु गृह्यमाणा न व्यक्तीभवन्ति, पुनःपुनरवग्रहे सति व्यक्तीभवन्ति । अतो व्यक्तग्रहणात्प्राग्व्यञ्जनावग्रहः व्यक्त ग्रहणमर्यावग्रहः । ततोऽव्यक्तावग्रहणादीहादयो न भवन्ति। 8 201 सर्वेन्द्रियाणामविशेषेण व्यञ्जनावग्रहप्रसङ्गे यत्रासंभवस्तदर्थप्रतिषेधमाह
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥19॥ 8200. अव्यक्त शब्दादिके स हको व्यंजन कहते हैं। उसका अवग्रह ही होता है, ईहादिक नहीं होते । शंका-यह सूत्र किसलिए आया है ? समाधान-अवग्रह ही होता है, ईहादिक नहीं होते इस प्रकारका नियम करनेके लिए यह सूत्र आया है । शंका-तो फिर इस सूत्रमें एवकारका निर्देश करना चाहिए। समाधान नहीं करना चाहिए, क्योंकि किसी कार्यके सिद्ध रहते हुए यदि उसका पुनः विधान किया जाता है तो वह नियमके लिए होता है' इस नियमके अनुसार सूत्रमें एवकारके न करने पर भी वह नियमका प्रयोजक हो जाता है। शंका-जब कि अवग्रहका ग्रहण दोनों जगह समान है तब फिर इनमें अन्तर किंनिमित्तक है ? समाधान-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह में व्यक्त ग्रहण और अव्यक्त ग्रहणकी अपेक्षा अन्तर है। शंका-कैसे ? समाधान-जैसे माटोका नया सकोरा जलके दो तोन कणोंसे सोचने पर गीला नहीं होता और पुनः पुनः सोंचने पर वह धोरे-धोरे गोला हो जाता है इसो प्रकार श्रात्र आदि इन्द्रियों के द्वारा किये गये शब्दादिरूप पुदगल स्कन्ध दो तान समयों में व्यक्त नहीं होते हैं, किन्तु पून:-पुनः ग्रहण होनेपर वे व्यक्त हो जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्त ग्रहगसे पहले-पहले व्यंजनावग्रह होता है और व्यक्त ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है। यही कारण है कि अव्यक्त ग्रहणपूर्वक ईहादिक नहीं होते ।
विशेषार्थ-यहाँ अव्यक्त शब्दादिकको व्यंजन कहा है। किन्तु वीरसेन स्वामी इस लक्षणसे सहमत नहीं हैं, उनके मतानुसार प्राप्त अर्थका प्रथम ग्रहण व्यंजन कहलाता है । विचार करने पर ज्ञात होता है कि दष्टिभेदसे हो ये दो लक्षण कहे गये हैं। तत्त्वतः इनमें कोई भेद नहीं। प्राप्त अर्थका प्रथम ग्रहण व्यंजन है यह तो पूज्यपाद स्वामो और वीरसेन स्वामो दोनोंको इष्ट है। केवल पूज्यपाद स्वामीने स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियोंके द्वारा विषयके प्राप्त होनेपर प्रथम ग्रहणके समय उसकी क्या स्थिति रहती है इसका विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए शब्दजातके पहले अव्यक्त विशेषण दिया है । लेकिन वीरसेन स्वामीने ऐसा विशेषण नहीं दिया है । शेष कथन सुगम है।
$ 201. सब इन्द्रियोंके समानरूपसे व्यंजनावग्रहके प्राप्त होनेपर जिन इन्द्रियोंके द्वारा यह सम्भव नहीं है उसका निषेध करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता ॥19॥ 1. 'तक्कालम्मि वि णाणं तत्थत्थि तणं ति तो तमव्वत्त । वि. भा. गा. 196। 2.-ग्रहो भवति । किम-दि. 1, दि. 2, आ., मु. । 3. 'सिद्धे विधिरारभ्यमाणो ज्ञापकार्थो भवति'-पा. म. भा. 1, 1,31 4. द्वित्रिसि-मु.। 5. द्वित्र्यादि-मु.।
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84]
सर्वार्थसिद्धौ
[119 $202 -
8 202. चक्षुश अनिन्द्रियेण च व्यञ्जनावग्रहो न भवति । कुतः ? अप्राप्यकारित्वात् । तोऽप्राप्तमर्थमविदिकं युक्तं संनिकर्षविषयेऽवस्थितं बाह्यप्रकाशाशिम यवतमुपलभते चक्षुः मनश्चाप्राप्तमित्यनयोर्व्य' अञ्जनावग्रहो' नास्ति ।
8 203. चक्षुषोप्राप्यकारित्वं 'कथमध्यवसीयते ? आगमतो युक्तितश्च । आपसातु "पुट्ठे सुणेदि सद्द अपुट्ठे चेव पस्सदे रूअं । गंध रसं च फास. बद्ध पुट्ठे वियाणादि ॥ "
$ 204. युक्तितश्च - अप्राप्यकारि चक्षुः स्पृष्टानवग्रहात् । यदि प्राप्यकारि स्यात् - न्द्रियवत् स्पृष्टमञ्जनं गृह्णीयात् नतु गृह, जात्यतो 'मनोवदप्राप्यकारीत्य वसेयम् । ततदचक्षु र्मनसी वर्जयित्वा शेषाणामिन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रहः । सर्वेषामिन्द्रियानिन्द्रियाणामर्थावग्रह इति सिद्धम् ।
8202. चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता है । शंका- क्यों ? समाधान—क्योंकि चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं। चूँकि नेत्र अप्राप्त, योग्य दिशामें अवस्थित युक्त, सन्निकर्ष के योग्य देश में अवस्थित और बाह्य प्रकाश आदिसे व्यक्त हुए पदार्थको ग्रहण करता है और मन भी प्राप्त अर्थको ग्रहण करता है अतः इन दोनोंके द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता ।
$ 203. शंका- चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है यह कैसे जाना जाता है ? समाधानआगम और युक्तिसे जाना जाता है । आगमसे यथा - "श्रोत्र स्पष्ट शब्दको सुनता है, नेत्र अस्पृष्ट रूपको ही देखता है । तथा घ्राण, रसना और स्पर्शत इन्द्रियाँ कमसे स्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्शको हो जानती हैं । "
$ 204. युक्ति से यथा-चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह रपृष्ट पदार्थको नहीं ग्रहण करती। यदि चक्ष इन्द्रिय प्राप्यकारो होतो तो वह त्वचा इन्द्रियके समान स्पृष्ट हुए अंजनको ग्रहण करती । किन्तु वह स्पृष्ट अंजनको नहीं ग्रहण करती है इससे मालूम होता है कि मनके समान चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है । अतः सिद्ध हुआ कि चक्षु और मनको छोड़कर शेष इन्द्रियोंके व्यजनावग्रह होता है । तथा सब इन्द्रिय और मनके अर्थाविग्रह होता है।
विशेषार्थ – पहले अवग्रहके दो भेद बतला आये हैं— अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। इनमें से अर्थावग्रह तो पाँचों इन्द्रियों और मन इन छहों से होता है, किन्तु व्यंजनावग्रह चक्षु और मन इन दोसे नहीं होता यह इस सूत्र का भाव है । चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह क्यों नहीं होता, इसका निर्देश करते हुए जो टीकाम लिखा है उसका भाव यह है कि ये दोनों अप्राप्यकारी हैं अर्थात् ये दोनों विषयको स्पृष्ट करके नहीं जानते हैं, इसलिए इन द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता । इससे यह अपने आप फलित हो जाता है कि व्यंजनावग्रह प्राप्त अर्थका ही होता है और अर्थावग्रह प्राप्त तथा अप्राप्त दोनों प्रकारके पदार्थों का होता है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि यदि अप्राप्त अर्थका अर्थावग्रह होता है तो होवे इसमें बाधा नहीं, पर प्राप्त अर्थका अर्थावग्रह कैसे हो सकता है ? सो इस शंकाका यह समाधान है कि प्राप्त अर्थका सर्व प्रथम ग्रहण के समय तो व्यंजनावग्रह ही होता है, किन्तु बादमें उसका भो अर्थावग्रह हो जाता है। नेत्र प्राप्त अर्थको
1. अप्राप्तिका - आ., दि. 1, दि. 21 2 युक्तस - मु., ता., ना. 3. दिशेषेऽन- मु ता. ना. । 4. प्राप्तमतो नानयोर्व्य - मु., ता., ना., । 5. ग्रहोऽस्ति- मु. 16. कथमप्यवसी- मु. 17 तावत् पुट्ठे सुणोदि सद्दं अपु पुणे परसदे रूवं । फासं रसं च गंधं बद्धं पुट्ठं विद्यागादि ॥ युक्ति-मु । आ. नि. गा. 5 । 8. "जड़ पत्त गण्हेज उतग्गयमंजण - 1" वि. भा. गा. 212 9 'लोयणमपत्तविसयं मणोव्व । - वि. भागा. 209
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-1120 $ 206] प्रथमोऽध्यायः
[85 $ 205. आह निर्दिष्टं मतिज्ञानं लक्षणतो विक पतश्च; तदनन्तरमुद्दिष्टं यत् श्रुतं तस्येदानों लक्षणं विकल्पश्च वक्तव्य इत्यत आह
श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥20॥ 8 206. श्रुतशब्दोऽयं श्रवणमुपादाय व्युत्पादितोऽपि रूढिवशात् कस्मिश्चिज्ज्ञानविशेष बर्तते । यथा कुशलवनकर्म प्रतीत्य व्युत्पादितोऽपि कुशलशब्दो रूढिवशात्पर्यवदाते. वर्तते। कः पुनरसो ज्ञानविशेष इति ? अत आह 'श्रुतं मतिपूर्वम्' इति । श्रुतस्य प्रमाणत्वं पूरयतीति पूर्व निमित्तं कारणमित्यनन्तरम् । मतिनिर्दिष्टा । मतिः पूर्वमस्य मतिपूर्वं मतिकारणमित्यर्थः । यदि मतिपूर्व श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति 'कारणसदृशं हि लोके कार्य दृष्टम्' इति । नतदैकान्तिकम् । दण्डादिकारणोऽयं घटो न दण्डाद्यात्मकः । अपि च सति तस्मिस्तदभावात् । सत्यपि मतिज्ञाने बाह्यश्रुतज्ञाननिमित्तसंनिधानेऽपि प्रबलश्रुतावरणोदयस्य श्रुताभावः। श्रुतावरणक्षयोपशमप्रकर्षे तु सति श्रुतज्ञानमुत्पद्यत इति मतिज्ञानं निमित्तमात्रं ज्ञेयम् । क्यों नहीं जानता इसका निर्देश टीकामें किया ही है। किन्तु धवलाके अभिप्रायानुसार शेष इन्द्रियाँ भी कदाचित अप्राप्यकारी हैं यह भी सिद्ध होता है। प्रायः पृथिवीमें जिस ओर निधि रखी रहती है उस ओर वनस्पतिके मूलका विकास देखा जाता है। यह तभी बन सकता है जब स्पर्शन इन्द्रिय-द्वारा अप्राप्त अर्थका ग्रहण बन जाता है । इसी प्रकार रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रिय-द्वारा भी उसकी सिद्धि हो जाती है। शेष कथन सुगम है।
8205. लक्षण और भेदोंकी अपेक्षा मतिज्ञानका कथन किया। अव उसके बाद क्रमप्राप्त श्रुतज्ञानके लक्षण और भेद कहने चाहिए; इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है । वह दो प्रकारका; अनेक प्रकारका और बारह प्रकारका है ॥20॥
8 206 यह 'श्रुत' शब्द सुननेरूप अर्थको मुख्यतासे निष्पादित है तो भी रूढ़िसे भी उसका वाच्य कोई ज्ञानविशेष है । जैसे 'कुशल' शब्दका व्युत्पत्ति अर्थ कुशाका छेदना है तो भी रूढिसे उसका अर्थ पर्यवदात अर्थात् विमल या मनोज्ञ लिया जाता है । वह ज्ञानविशेष क्या है इस बात को ध्यानमें रखकर 'श्रुतं मतिपूर्वम्' यह कहा है । जो श्रुतकी प्रमाणताको पूरता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार पूर्व, निमित्त और कारण ये एकार्थवाची हैं । मतिका व्याख्यान पहले कर आये हैं। वह मति जिसका पूर्व अर्थात् निमित्त है वह मतिपूर्व कहलाता है जिसका अर्थ मतिकारणक होता है। तात्पर्य यह है कि जो मतिज्ञानके निमित्तसे होता है उसे श्रतज्ञान कहते हैं। शंकायदि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तो श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोक में कारणके समान ही कार्य देखा जाता है ? समाधान-यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारणके समान कार्य होता है । यद्यपि घटको उत्पत्ति दण्डादिकसे होती है तो भी वह दण्डाद्यात्मक नहीं होता। दूसरे, मतिज्ञानके रहते हुए भी श्रुतज्ञान नहीं होता। यद्यपि मतिज्ञान रहा आता है और श्रुतज्ञानके बाह्य निमित्त भी रहे आते हैं तो भी जिसके श्रुतज्ञानावरणका प्रबल उदय पाया जाता है उसके श्रुतज्ञान नहीं होता। किन्तु श्रुतज्ञानावरण कर्मका प्रकर्ष क्षयोपशम होनेपर ही श्रुतज्ञान होता है इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्तमात्र जानना चाहिए। 1. प्रतीत्या व्यु-मु.। 2. 'अवदातं तु विमले मनोज्ञा'-अ. ना. 4, 96। 3. "पुव्वं पूरणगालणभावओ जं मई।' वि. भा. गा. 1051
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86] सर्वार्थसिद्धौ
[1120 8 207६ 207. आह, श्रुतमनादिनिधनमिष्यते । तस्य मतिपूर्वफत्वे तदभावः; आदिमतोऽन्तवत्त्वात् । ततश्च 'पुरुषकृतित्वादप्रामाण्यमिति ? नैष दोषः; द्रव्यादिसामान्यार्पणात् श्रुतमनादिनिधनमिष्यते । न हि केनचित्पुरुषेण क्वचित्कदाचित्कथंचिदुत्प्रेक्षितमिति । तेषामेव विशेषापेक्षया आदिरन्तश्च संभवतीति 'मतिपूर्वम्' इत्युच्यते।. ययाङ्कुरो बीजपूर्वकः स च संतानापेक्षया अनादिनिधन इति। न. चापौरुषेयत्वं प्रामाण्यकारणम् ; चौर्याधुपदेशस्यास्मर्यमाणकर्तृ कस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात् । अनित्यस्य च प्रत्यक्षादेः प्रामाण्ये को विरोधः।
$ 208. आह, 'प्रयमसम्यक्त्वोत्पत्तौ युगपज्ज्ञानपरिणामान्मतिपूर्वकत्वं श्रुतस्य नोपपद्यत इति ? तदयुक्तम् ; सम्यात्वस्य तदक्षत्वात् । आत्मलाभस्तु क्रमवानिति मतिपूर्वकत्वव्याघाताभावः।
$ 209. आह, मतिपूर्व श्रुतमित्येतल्लक्षणमव्यापि श्रुतपूर्वमपि श्रुतमिष्यते । तद्यथाशब्दपरिणतपुद्गलस्कन्धादाहितवर्णपदवा क्यादिभावाच्चक्षुरादिविषयाच्च आद्यश्रुतविषयभावमापन्नादव्यभिचारिणः कृतसंगीतिर्जनो घटाज्जलधारणादि कार्य संबन्ध्यन्तरं प्रतिपद्यते, धूमादेर्वाग्न्यादिद्रव्यं, तदा श्रुतात् श्रुतप्रतिपत्तिरिति ? नैष दोषः। तस्यापि मतिपूर्वकत्वमुपचारतः।
8 207. शंका-श्रुतज्ञानको अनादिनिधन कहा है। ऐसी अवस्थामें उसे मतिज्ञानपूर्वक मान लेने पर उसको अनादिनिधनता नहीं बनतो, क्योंकि जिसका आदि होता है उसका अन्त अवश्य होता है। और इसलिए वह पुरुषका कार्य होनेसे उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता। समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्य आदि सामान्य नयको मुख्यतासे श्रृतको अनादिनिधन कहा है । किसी पुरुषने कहीं और कभी किसी भी प्रकारसे उसे किया नहीं है । हाँ उन्हीं द्रव्य आदि विशेष नयकी अपेक्षा उसका आदि और अन्त सम्भव है इसलिए 'वह मतिपूर्वक होता है' ऐसा कहा जाता है। जैसे कि अंकुर बोजपूर्वक होता है, फिर भी वह सन्तानकी अपेक्षा अनादि निधन है । दूसरे, जो यह कहा है कि पुरुषका कार्य होनेसे वह अप्रमाण है सो अपौरुषेयता प्रमाणताका कारण नहीं है। यदि अपौरुषेयताको प्रमाणताका कारण माना जाय तो जिसके कर्ताका स्मरण नहीं होता ऐसे चोरो आदिके उपदेश भो प्रमाण हो जाएँगे। तीसरे, प्रत्यक्ष आदि ज्ञान अनित्य होकर भो यदि प्रमाण माने जाते हैं तो इसमें क्या विरोध है, अर्थात कुछ भी नहीं।
8208. शंका-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके साथ हो ज्ञानको उत्पत्ति होतो है, अतः श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है यह कथन नहीं बनता? समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि ज्ञानमें समोचोनता सम्यग्दर्शनके निमित्तसे प्राप्त होती है। इन दोनोंका आत्मलाभ तो क्रमसे ही होता है, इसलिए 'श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है' इस कथनका व्याघात नहीं होता।
209. शंका-'मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है' इस लक्षणमें अव्याप्ति दोष आता है क्योंकि श्रुतज्ञानपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है ऐसा कहा जाता है । यथा-किसी एक जीवने वर्ण, पद और वाक्य आदिरूपसे शब्द परिणत पुद्गल स्कन्धोंको कर्ण इन्द्रिय-द्वारा ग्रहण किया। अनन्तर उससे घटपदार्थविषयक प्रथम श्रुतज्ञान हुआ । यदि उसने घटके कायाका सकत कर रखा है तो उसे उस घटज्ञानके बाद जलधारणादि दूसरे कार्यों का ज्ञान होता है और तब श्रुतज्ञानसे श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। या किसो एक जोवने चक्ष आदि इन्द्रियों के विषयको ग्रहण किया। 1. -षकृतत्वा-मु.। 2. 'णाणाण्णाणाणि य समकालाई जओ मइसूयाई। तो न सुयं मइपव्वं मदणाणे वा सुयन्नाणं'-वि- भा. गा. 107 । 3. 'इहलद्धि मइसुयाई समकालाई न तूवओगो सि । मइपुवं सुयमिह पुण सूओपओगो मइप्पभवो। -वि. भा. गा. 108। 4. पदव्याख्यादि-आ., दि. 1। 5. संगति--मु. । 6. सम्बन्धान्तरं-ता., ना.।
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---1120 $ 211] प्रथमोऽध्यायः
[87 श्रुतमपि क्वचिन्मतिरित्युपचर्यते, मतिपूर्वकत्वादिति ।
8 210. भेदशब्दः प्रत्येक परिसमाप्यते-द्विभेदमनेकभेदं द्वादशभेदमिति । द्वि भेदं तावत् - अङ्गबाह्यमङ्गप्रविष्टमिति । अङ्गबाह्यमनेकविधं दशवकालिकोत्तराध्ययनादि । अङ्गप्रविष्टं द्वादशविधम । तद्यथा, आचारः सुत्रकृतं स्थानं समवायः व्याख्यान
तधर्मकथा उपासकाध्ययनं अन्तकृद्दशं अनुत्तरौपपादिकदशं प्रश्नव्याकरणं विपाकसूत्रं दृष्टिवाद इति । दृष्टिवादः पञ्चविध:परिकर्म सूत्रं प्रथमानुयोगः पूर्वगतं चूलिका चेति । तत्र पूर्वगतं चतुर्दशविधम्-उत्पादपूर्व अग्रायणीयं वीर्यानुप्रवादं अस्तिनास्तिप्रवादं ज्ञानप्रवादं सत्यप्रवादं आत्मप्रवादं कर्मप्रवादं प्रत्याख्याननामधेयं विद्यानुप्रवादं कल्याणनामधेयं प्राणावायं क्रियाविशालं लोकबिन्दुसारमिति । तदेतत् श्रुतं द्विभेदमनेकभेदं द्वादशभेदमिति।
211. किंकृतोऽयं विशेषः ? 'वक्तृविशेषकृतः । त्रयो वक्तार:-सर्वज्ञस्तीर्थकर इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति । तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञानविभूतिविशेषेण अर्थत आगम उद्दिष्टः । तस्य प्रत्यक्षदर्शित्वात्प्रक्षीणदोषत्वाच्च प्रामाण्यम् । तस्य साक्षाच्छिष्यर्बुद्धयतिशद्धियुक्तैर्गणधरैः श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्थरचनमङ्गपूर्वलक्षणम् । तत्प्रमाणम् ; तत्प्रामाण्यात् । आरातीयैः पुनराचार्य: कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थ दशवकालिकाद्युपनिबद्धम् । तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव। अनन्तर उसे उससे धूमादि पदार्थविषयक प्रथम श्रुतज्ञान हुआ । यदि उसे धूमादि और अग्नि आदि द्रव्यके सम्बन्धका ज्ञान है तो वह धूमादिके निमित्तसे अग्नि आदि द्रव्यको जानता है और तब भी श्रुतज्ञानसे श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है यह बात नहीं बनती ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जहाँपर श्रुतज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है वहाँपर प्रथम श्रुतज्ञान उपचारसे मतिज्ञान माना गया है । श्रुतज्ञान भी कहींपर मतिज्ञानरूपसे उपचरित किया जाता है क्योंकि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है ऐसा नियम है।
8 210. सूत्रमें आये हुए 'भेद' शब्दको दो आदि प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा-दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद । श्रुतज्ञानके दो भेद अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट हैं। अंगबाह्यके दशवकालिक और उत्तराध्ययन आदि अनेक भेद हैं। अंगप्रविष्टके बारह भेद हैं। यथा-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दश, अनुत्तरौपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद । दृष्टिवादके पाँच भेद हैंपरिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । इनमें से पूर्वगतके चौदह भेद हैं-उत्पादपूर्व, आग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। इस प्रकार यह श्रुत दो प्रकारका, अनेक प्रकारका और बारह प्रकारका है।
8211. शंका-यह भेद किंकृत है ? समाधान-यह भेद वक्ताविशेषकृत है। वक्ता तीन प्रकारके हैं-सर्वज्ञ तीर्थंकर या सामान्य केवली तथा श्रुतकेवली और आरातीय। इनमें से परम ऋषि सर्वज्ञ उत्कृष्ट और अचिन्त्य केवलज्ञानरूपी विभूतिविशेषसे युक्त हैं। इस कारण उन्होंने अर्थरूपसे आगमका उपदेश दिया। ये सर्वज्ञ प्रत्यक्षदर्शी और दोषमुक्त हैं, इसलिए प्रमाण हैं। इनके साक्षात् शिष्य और बुद्धिके अतिशयरूप ऋद्धिसे युक्त गणधर श्रुतकेवलियोंने अर्थरूप आगमका स्मरण कर अंग और पूर्वग्रन्थोंकी रचना की। सर्वज्ञदेवकी प्रमाणताके कारण ये भी प्रमाण हैं । तथा आरातीय आचार्योंने कालदोषसे जिनकी आयु, मति और बल घट गया है ऐसे 1. -शेषः । विशेषपक्तृतो विशेषः कृतः । आ., दि. 1, दि. 2 ।
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सर्वार्थसिद्धौ
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[11208212
8212. व्याख्यातं परोक्षम । प्रत्यक्षमिदानी वक्तव्यम। तद द्वेधा-वेशप्रत्यक्षं सर्वप्रत्यक्षं च । देशप्रत्यक्षमवधिमनःपर्ययज्ञाने। सर्वप्रत्यक्ष केवलम् । यद्यवमिदमेव तावदवधिज्ञानं त्रिःप्रकारस्य प्रत्यक्षस्याद्यं व्याक्रियतामित्यत्रोच्यते-द्विविधोऽवधिर्भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्चेति । तत्र भवप्रत्यय उच्यते--
भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकारणाम् ॥21॥ शिष्योंका उपकार करने के लिए दशवकालिक आदि ग्रन्थ रचे । जिस प्रकार क्षीरसागरका जल घटमें भर लिया जाता है उसी प्रकार ये ग्रन्थ भी अर्थरूपसे वे ही हैं, इसलिए प्रमाण हैं।
विशेषार्थ-मतिज्ञान श्रुतज्ञानका कारण किस रूपमें है, मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें अन्तर क्या है, श्रुत अनादिनिधन और सादि कैसे है, श्रुतके भेद कितने और कौन-कौन हैं, श्रुतमें प्रमाणता कैसे आती है इत्यादि बातोंका विशेष विचार तो मूलमें किया ही है । यहाँ केवल विचारणीय विषय यह है कि श्रुतज्ञानका निरूपण करते समय सूत्रकारने केवल द्रव्य आगम श्रुतका ही निरूपण क्यों किया? अनुमान आदि ऐसे बहत-से ज्ञान हैं जिनका अन्तर्भाव श्रतज्ञानमें किया जाता है फिर उनका निर्देश यहाँ क्यों नहीं किया ? क्या श्रुतज्ञान द्रव्य आगम श्रुतके ज्ञान तक ही सीमित है और अनुमान आदिका अन्तर्भाव सूत्रकारके मतानुसार मतिज्ञानमें होता है ? ये ऐसे विचारणीय प्रश्न हैं जिनका प्रकृतमें समाधान करना आवश्यक है। बात यह है कि जैन परम्परामें द्रव्य आगम श्रुतकी प्रधानता सदासे चली आ रही है, इसलिए सूत्रकारने श्रुतज्ञानके निरूपणके समय उसका प्रमुखतासे निर्देश किया है। पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि श्रुतज्ञान द्रव्य आगम श्रुतके ज्ञान तक ही सीमित है। मतिके सिवा मतिपूर्वक होनेवाले अन्य अनुमान आदि सब परोक्ष ज्ञानाका अन्तभाव श्रुतज्ञानमें ही होता है, क्योंकि इन ज्ञानोंमें हेतु आदिका प्रत्यक्ष ज्ञान आदि होने पर ही इन ज्ञानोंकी प्रवृत्ति होती है। उदाहरणार्थ, नेत्र इन्द्रियसे धमका ज्ञान होता है । अनन्तर व्याप्तिका स्मरण होता है तब जाकर 'यहाँ अग्नि होनी चाहिए' यह अनुमान होता है। कहीं-कहीं मतिज्ञानमें भी इनके अन्तर्भावका निर्देश मिलता है पर वह कारणरूपसे ही जानना चाहिए । मतिज्ञान श्रुतज्ञानको उत्पत्तिमें निमित्त है, इसलिए कारणमें कार्यका उपचार करके कहीं-कहीं अनुमान आदिका भी मतिज्ञानरूपसे निर्देश किया जाता है। एक बात और विचारणीय है, वह यह कि यह श्रुतज्ञानका प्रकरण है द्रव्यश्रुतका नहीं, इसलिए यहाँ सूत्रकारने श्रुतज्ञानके भेद न दिखलाकर द्रव्यश्रुतके भेद क्यों दिखलाये ? उत्तर यह है कि श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमका और द्रव्यश्रुतका अन्योन्य सम्बन्ध है । क्षयोपशमके अनुसार होनेवाले श्रुतज्ञानको ध्यानमें रखकर ही द्रव्यश्रुतका विभाग किया गया है । यही कारण है कि यहाँ श्रुतज्ञानका प्रकरण होते हुए भी द्रव्यश्रुतके भेद गिनाये गये हैं। इस बातकी विशेष जानकारीके लिए गोम्मटसार जीवकाण्डमें निर्दिष्ट ज्ञानमार्गणा द्रष्टव्य है।
8212. परोक्ष प्रमाणका व्याख्यान किया । अब प्रत्यक्ष प्रमाणका व्याख्यान करना है। वह दो प्रकारका है-देशप्रत्यक्ष और सर्वप्रत्यक्ष । देशप्रत्यक्ष अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके भेदसे दो प्रकारका है। सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है । यदि ऐसा है तो तीन प्रकारके प्रत्यक्षके आदिमें कहे गये अवधिज्ञानका व्याख्यान करना चाहिए, इसलिए कहते हैं-अवधिज्ञान दो प्रकारका है-भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक । उनमें से सर्वप्रथम भवप्रत्यय अवधिज्ञानका अगले सत्र द्वारा कथन करते हैं
भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है ॥21॥ 1. -त्यक्षं सकलप्र--मु.।
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-1/215214] प्रथमोऽध्यायः
[89 F213. भव इत्युच्यते । को भवः। आयुर्नामकर्मोदयनिमित्त आत्मनः पर्यायो भवः । प्रत्ययः कारणं निमित्तमित्यनान्तरम् । भवः प्रत्ययोऽस्य भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणां वेदितव्यः । यद्येवं तत्र क्षयोपशमनिमितत्वं न प्राप्नोति। नैष दोष; तदाश्रयात्तत्सिद्धेः। भवं प्रतीत्य क्षयोपशमः संजायत' इति कृत्वा भवः प्रधानकारणमित्युपदिश्यते । यथा पतत्रिणो गमनमाकाशे भवनिमित्तम्, न शिक्षागुणविशेषः तथा देवनारकाणां व्रतनियमाद्यभावेऽपि जायत 'इति भवप्रत्ययः' २ इत्युच्यते। इतरथा हि भवः साधारण इति कृत्वा सर्वेषामविशेषः स्यात् । इष्यते च तत्रावधेः प्रकर्षाप्रकर्षवृत्तिः। 'देवनारकाणाम्' इत्यविशेषाभिधानेऽपि सम्यग्दृष्टीनामेव ग्रहणम् । कुतः । अवधिग्रहणात् । मिथ्यादृष्टीनां च विभङ्ग इत्युच्यते । प्रकर्षाप्रकर्षवृत्तिश्च आगमतो विज्ञेया।
214. यदि भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्, अथ क्षयोपशमहेतुकः केषामित्यत आह
5 213. भवका स्वरूप कहते हैं । शंका-भव किसे कहते हैं ? समाधान-आयु नामकर्मके उदयका निमित्त पाकर जो जीवकी पर्याय होती है उसे भव कहते हैं ? प्रत्यय, कारण और निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं। जिस अवधिज्ञानके होने में भव निमित्त है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है । वह देव और नारकियोंके जानना चाहिए। शंका-यदि ऐसा है तो इनके अवधिज्ञानके होने में क्षयोपशमकी निमित्तता नहीं बनती? समाधान-यह कोई दोष नहीं है. क्योंकि भवके आश्रयसे क्षयोपशमकी सिद्धि हो जाती है। भवका आलम्बन लेकर क्षयोपशम हो जाता है ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है ऐसा उपदेश दिया जाता है । जैसे पक्षियोंका आकाशमें गमन करता भवनिमित्तक होता है, शिक्षा गुणको अपेक्षासे नहीं होता वैसे ही देव और नारकियोंके व्रत नियमादिकके अभावमें भी अवधिज्ञान होता है, इसलिए उसे भवनि मित्तक कहते हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो भव तो सबके साधारण रूपसे पाया जाता है, अतः सबके एक-सा अवधिज्ञान प्राप्त होगा। परन्तु वहाँपर अवधिज्ञान न्यूनाधिक कहा ही जाता है, इससे ज्ञात होता है कि यद्यपि वहाँपर अवधिज्ञान होता तो क्षयोपशमसे ही है पर वह क्षयोपशम भवके निमित्तसे प्राप्त होता है अतः उसे 'भवप्रत्यय' कहते हैं। सूत्र में 'देवनारकाणाम्' ऐसा सामान्य वचन होने पर भी इससे सम्यग्दृष्टियोंका ही ग्रहण होता हैं, क्योंकि सूत्रमें 'अवधि' पदका ग्रहण किया है। मिथ्यादृष्टियोंका वह विभंगज्ञान कहलाता है। अवधिज्ञान देव और नारकियोंमें न्यूनाधिक किसके कितना पाया जाता है यह आगमसे जान लेना चाहिए।
विशेषार्थ-अवधिज्ञान वह मर्यादित ज्ञान है जो इन्द्रिय और मनकी सहायताके बिना मतिक पदार्थोंको स्पष्ट जानता है। मनःपर्ययज्ञानका भी यही स्वरूप कहा जाता है पर इससे मनःपर्ययज्ञानमें मौलिक भेद है। वह मनकी पर्यायों द्वारा ही मूर्तिक पदार्थोंको जानता है, सीधे तोरसे मूर्तिक पदार्थोंको नहीं जानता। यह अवधिज्ञान देव और नारकियोंके उस पर्यायके प्राप्त होने पर अनायास होता है। इसके लिए उन्हें प्रयत्न विशेष नहीं करना पड़ता। तथा तिर्यञ्चों और मनुष्यों के सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके निमित्तसे होता है। इससे इसके भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक ये दो भेद किये गये हैं। यहाँ भवप्रत्यय अवधिज्ञान मुख्यतः देव और नारकियोंके बतलाया है, पर तीर्थकर आदिके भी इस अवधिज्ञानको प्राप्ति देखी जाती है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। देव और नारकियोंमें भी उन्हींके भवके प्रथम समयसे अवधिज्ञान होता है जो सम्यग्दृष्टि होते हैं। मिथ्यादृष्टियोंके इसकी उत्पत्ति पर्याप्त होनेपर ही होती है और उसका नाम विभंगज्ञान है। इस ज्ञानकी विशेष जानकारी जीवकाण्ड, धवला वेदनाखण्ड आदिसे करनी चाहिए।
214. यदि भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है तो क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञान किसके होता है। आगे इसी बातको बतलाते हैं
1. -शमः संजात इति। आ. दि. 1, दि. 2। 2. -त्यय इष्यते। इत-आ., दि. 1, दि. 2 ।
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सर्वार्थसिद्धी
[11228 215क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषारणाम ॥22॥ 8215. अवधिज्ञानावरणस्य देशघातिस्पर्द्धकानामुदये सति सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयाभावः क्षयः तेषामेवानुदयप्राप्तानां सदवस्था उपशमः । तौ निमित्तमस्येति क्षयोपशमनिमित्तः । स शेषाणां वेदितव्यः । के पुनः शेषाः ? मनुष्यास्तिर्यञ्चश्च । तेष्वपि यत्र सामर्थ्यमस्ति तत्रैव वेदितव्यः। न ह्यसंजिनामपर्याप्तकानां च तत्सामर्थ्यमस्ति । संजिनां पर्याप्तकानां च न सर्वेषाम् । केर्षा हि ? यथोक्तसम्यग्दर्शनादिनिमित्तसंनिधाने सति शान्तक्षीणकर्मणां तस्योपलब्धिर्भवति । सर्वस्य क्षयोपशमनिमित्तत्वे क्षयोपशमग्रहणं नियमार्थ क्षयोपशम एव निमित्तं न भव इति । स एषोऽवधिः षड्विकल्पः । कुतः? अनुगाम्यननुगामिवर्धमानहीयमानावस्थितानवस्थितभेदात्। कश्चिदवधिर्भास्करप्रकाशवद् गच्छन्तमनुगच्छति । कश्चिन्नानुगच्छति तत्रैवातिपतति उन्मुखप्रश्नादेशिपुरुषवचनवत् । अपरोऽवधिः अरणिनिर्मथनोत्पन्नशुष्कपर्णोपचीयमानेन्धननिचयसमिद्ध पावकवत्सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धिपरिणामसंनिधानाधत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते आ असंख्येयलोकेभ्यः । अपरोऽवधिः परिच्छिन्नोपादानसंतत्यग्निशिखावत्सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेशपरिणामवृद्धियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अगुलस्यासंख्येयभागात् । इतरोऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणावस्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते; न हीयते नापि वर्धते लिङ्गवत्
क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान छह प्रकारका है, जो शेष अर्थात् तिर्यंचों और मनुष्योंके होता है ॥22॥
8 215. अवधिज्ञानावरण कर्मके देशघाती स्पर्धकोंका उदय रहते हुए सर्वघाति स्पर्धकोंका उदयाभावी क्षय और अनुदय प्राप्त इन्हींका सदवस्थारूप उपशम इन दोनोंके निमित्तसे जो होता है वह क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान है । यह शेष जीवोंके जानना चाहिए। शंकाशेष कौन हैं ? समाधान-मनुष्य और निर्यच । उनमें भी जिनके सामर्थ्य है उन्हींके जानना चाहिए । असंज्ञी और अपर्याप्तकोंके यह सामर्थ्य नहीं है । संज्ञी और पर्याप्तकोंमें भी सबके यह सामर्थ्य नहीं होती । शंका-तो फिर किनके होती है ? समाधान-यथोक्त सम्यग्दर्शन आदि निमित्तोंके मिलने पर जिनके अवधिज्ञानावरण कर्म शान्त और क्षीण हो गया है उनके यह सामर्थ्य होती है । अवधिज्ञान मात्र क्षयोपशमके निमित्तसे होता है तो भी सूत्रमें क्षयोपशम पदका ग्रहण यह नियम करनेके लिए किया है कि उक्त जीवोंके मात्र क्षयोपशम निमित्त है भव नहीं। यह अवधिज्ञान अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थितके भेदसे छह प्रकारका है। कोई अवधिज्ञान जैसे सूर्य का प्रकाश उसके साथ जाता है वैसे अपने स्वामी का अनुसरण करता है । कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता,किंतु जैसे विमुख हुए पुरुषके प्रश्नके उत्तरस्वरूप दूसरा पुरुष जो वचन कहता है वह वहीं छूट जाता है, विमुख पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता है वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहींपर छूट जाता है। कोई अवधिज्ञान जंगलके निर्मन्थनसे उत्पन्न हई और सूखे पत्तोंसे उपचीयमान ईधनके समुदायसे वृद्धिको प्राप्त हुई अग्निके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी विशुद्धिरूप परिणामोंके सन्निधानवश जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उससे असंख्यात लोक जानने की योग्यता होने तक बढ़ता जाता है। कोई अवधिज्ञान परिमित उपादानसन्ततिवाली अग्निशिखाके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी हानिसे हुए संक्लेश परिणामोंके बढनेसे जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उससे मात्र अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण जाननेकी योग्यता होने तक घटता चला जाता है। कोई अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणोंके समानरूपसे 1. 'सेसाण खओवसमियाओ।'–वि. भा. गा.5751 2. तति । उन्मुग्धप्र-ता., ना., मु.। 3. -वधिः परिमितपरि-मु.।
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- 1123 8 218j
प्रथमोऽध्यायः आ भवझयादाकेवलज्ञानोत्पत्तेर्वा । अन्योऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणवृद्धिहानियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्धते यावदनेन वषितव्यं होयते च यावदनेन हातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोमिवत । एवं षड़विकल्पोऽवधिर्भवति।
$ 216. एवं व्याल्यातमवधिज्ञानं, तदनन्तरमिदानी मनःपर्ययज्ञानं वक्तव्यम् । तस्य भेदपुरःसरं लक्षणं व्याचिख्यासुरिदमाह
___ ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥23॥ 8 217. ऋज्वी निर्वतिता प्रगुणा च । कस्मान्निर्वतिता? वाक्कायमनःकृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानात । ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽय ऋजमतिः । अनिर्वतिता कटिला च विपुलाकर निर्वतिता ? वाक्कायमनःकृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञानात् । विपुला मतिर्यस्य सोऽयं विपुलमतिः । ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च ऋजुविपुलमती । एकस्य मतिशब्दस्य गतार्थत्वादप्रयोगः । अथवा ऋजुश्च विपुला च ऋजुविपुले । ऋजुविपुले मती ययोस्तो ऋजुविपुलमती इति । स एष मनःपर्यययो द्विविधः ऋजुमतिविपुलमतिरिति।
218. आह, उक्तो भेदः, लक्षणमिदानों वक्तव्यमित्यत्रोच्यते—वीर्यान्तरायमनःपर्ययस्थिर रहनेके कारण जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उतना ही बना रहता है। पर्यायके नाश होने तक या केवलज्ञानके उत्पन्न होने तक शरीरमें स्थित मसा आदि चिह्नके समान न घटता है और न बढ़ता है । कोई अवधिज्ञान वायुके वेगसे प्रेरित जलकी तरंगोंके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंको कभी द्धि और कभी हानि होनेसे जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उससे बढ़ता है जहाँतक उसे बढ़ना चाहिए और घटता है जहाँतक उसे घटना चाहिए । इस प्रकार अवधिज्ञान छह प्रकारका है।
विशेषार्थ-क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञानके तीन भेद हैं—देशावधि, परमावधि और सर्वावधि । देशावधि तिर्यंचों और मनुष्योंके होता है पर मनुष्योंके संयत अवस्थामें परमावधि और सर्वावधिका प्राप्त होना भी सम्भव है। मनुष्योंके चौथे और पाँचवें गुणस्थानमें देशावधि और आगे के गुणस्थानोंमें यथासम्भव तीनों होते हैं । भवप्रत्यय अवधिज्ञानका अन्तर्भाव देशावधिमें होता है।
8216. इस प्रकार अवधिज्ञानका व्याख्यान किया। अब आगे मनःपर्ययज्ञानका व्याख्यान करना चाहिए, अतः उसके भेदोंके साथ लक्षणका कथन करनेकी इच्छासे आगेका सूत्र कहते हैं
ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है ।।23।।
8 217. ऋजुका अर्थ निर्वतित और प्रगुण है । शंका-किससे निर्वतित ? समाधानदुसरेके मनको प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थके विज्ञानसे निर्वर्तित। जिसकी मति ऋजु है वह ऋजुमति कहलाता है । विपुलका अर्थ अनिर्वतित और कुटिल है। शंका-किससे अनिवर्तित ? समाधान-दूसरेके मनको प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थके विज्ञानसे अनिवर्तित । जिसको मति विपुल है वह विपुलमति कहलाता है। सूत्रमें जो 'ऋजुविपुलमती' पद आया है वह ऋजुमति और विपुलमति इन पदोंसे समसित होकर बना है। यहाँ एक ही मति शब्द पर्याप्त होनेसे दूसरे मति शब्दका प्रयोग नहीं किया । अथवा ऋजु और विपुल शब्दका कर्मधारय समास करनेके बाद इनका मति शब्दके साथ बहुव्रीहि समास कर लेना चाहिए । तब भी दूसरे मति शब्दकी आवश्यकता नहीं रहती। यह मनःपर्ययज्ञान दो प्रकारका है-ऋजुमति और विपुलमति।
8218. शंका-मनःपर्ययज्ञानके भेद तो कह दिये। अब उसका लक्षण कहना चाहिए।
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92]
सर्वार्थसिद्धौ
[1123 8 218 --- ज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भादात्मनः परकीयमनःसंबन्धेन लब्धवृत्तिरुपयोगो मनःपर्ययः । मतिज्ञानप्रसंग इति चेत् ? उक्तोत्तरं पुरस्तात् । अपेक्षाकारणं मन इति । परकीयमनसि व्यवस्थितोऽर्थः अनेन ज्ञायते इत्येतावदत्रापेक्ष्यते । तत्र ऋजुमतिर्मनःपर्ययः कालतो जघन्येन जीवानामात्मनश्च द्वित्राणि भवग्रहणानि, उत्कर्षेण सप्ताष्टौ गत्यागत्यादिभिः प्ररूपयति । क्षेत्रतो जघन्येन गन्यूतिपृथक्त्वं, उत्कर्षेण योजनपृथक्त्वस्याभ्यन्तरं, न बहिः। द्वितीयः कालतो जघन्येन सप्ताण्टौ भवग्रहणानि, उत्कर्षेणासंख्येयानि गत्यागत्यादिभिः प्ररूपयति । क्षेत्रतो जघन्येन योजनपृथक्त्वं, उत्कर्षेण मानुषोत्तरशलस्याभ्यन्तरं, न बहिः । 219. उक्तयोरनयोः पुनरपि विशेषप्रतिपत्यर्थमाह
विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥24॥ 8220. तदावरणक्षयोपशमे सति आत्मनः प्रसादो विशुद्धिः । प्रतिपतनं प्रतिपातः । समाधान-वीर्यान्तराय और मनःपर्यय ज्ञानावरणके क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके आलम्बनसे आत्मामें जो दूसरेके मनके सम्बन्धसे उपयोग जन्म लेता है उसे मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। शंका-यह ज्ञान मनके सम्बन्धसे होता है, अतः इसे मतिज्ञान होनेका प्रसंग आता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि इस शंकाका उत्तर पहले दे आये हैं । अर्थात् यहाँ मनकी अपेक्षामात्र है। दूसरेके मनमें अवस्थित अर्थको यह जानता है इतनी मात्र यहाँ मनकी अपेक्षा है। इनमेंसे ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान कालकी अपेक्षा जघन्यसे जीवोंके और दो तीन भावोंको ग्रहण करता है, उत्कृष्टसे गति और आगतिकी अपेक्षा सात-आठ भवोंका कथन करता है । क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यसे गव्यू तिपृथक्त्व और उत्कृष्टसे योजनपृथक्त्वके भीतरकी बात जानता है, इससे बाहरकी नहीं । विपुलमति कालकी अपेक्षा जघन्यसे सात-आठ भवोंको ग्रहण करता है, उत्कृष्टसे गति और आगतिकी अपेक्षा असंख्यात भवोंका कथन करता है। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यसे योजनापृथक्त्व और उत्कृष्टसे मानुषोत्तर पर्वतके भीतरको बात जानता है, इससे बाहरकी बात नहीं जानता।
विशेषार्थ---तत्त्वार्थसूत्रके छठवें अध्यायके दसवें सूत्रके राजवातिकमें शंका-समाधानके प्रसंगसे मनःपर्ययज्ञानकी चर्चा की है। वहाँ बतलाया है कि मनःपर्ययज्ञान अपने विषयमें अवधिज्ञानके समान स्वमुखसे प्रवृत्त नहीं होता है। किन्तु दूसरेके मनके सम्वन्धसे ही प्रवृत्त होता है, इसलिए जैसे मन अतीत और अनागत विषयोंका विचार तो करता है, पर साक्षात्कार नहीं करता उसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी भी भुत और भविष्यत विषयोंको जानता तो है पर सीधे तोरसे साक्षात्कार नहीं करता। इसी प्रकार यह वर्तमान विषयको भी मनोगत होते पर विशेषरूपसे जानता है। राजवातिकका यह कथन इतना स्पष्ट है जिससे मनःपर्ययज्ञानको उपयोगात्मक दशाका स्पष्ट आभास मिल जाता है। इसका आशय यह है कि करता तो है यह मन की पर्यायोंको ही विषय किन्तु तद्वारा पदार्थोंका ज्ञान हो जाता है । इसके दो भेद हैं---ऋजुमति और विपुलमति ।
219. पहले मनःपर्ययज्ञानके दो भेद कहे हैं उनका और विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं---
विशुद्धि और अप्रतिपातकी अपेक्षा इन दोनोंमें अन्तर है ॥24॥
8220. मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर जो आत्मामें निर्मलता आती है 1.-पेक्षते आ. दि.1, दि. 21 2. --द्वित्रीणि मु. ।
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--1124 § 221]
प्रथमोऽध्यायः
[93
न प्रतिपातः अप्रतिपातः । उपशान्तकषायस्य चारित्र नोहोद्रेकात्प्रच्युत संयम शिखरस्य प्रतिपातो भवति । क्षीणकषायस्य प्रतिपातकारणाभावादप्रतिपातः । विशुद्धिश्च अप्रतिपातश्च विशुद्ध्यप्रतिपातौ । ताभ्यां विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्याम् । तयोर्विशेषस्तद्विशेषः । तत्र विशुद्ध्या तावत्-ऋजुमतेविपुलमति द्रव्यक्षेत्रकालभावैविशुद्धतरः । कथम् ? इह यः कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्त्यः सर्वावबिना ज्ञातस्तस्य पुनरनन्तभागीकृतस्यान्त्यो भाग ऋजुमतेविषयः । तस्य ऋजुमतिविषयस्यानन्तभागीकृतस्यान्त्यो भागो विपुलमतेविषयः । अनन्तस्यानन्तभेदत्वात् । द्रव्यक्षेत्रकालतो विशुद्धिरुक्ता । भावतो विशुद्धिः सूक्ष्मतरद्रव्यविषयत्वादेव वेदितव्या, प्रकृष्टक्षयोपशमविशुद्धियोगात् । अप्रतिपातेनापि विपुलमतिविशिष्टः; स्वामिनां प्रवर्द्धमानचारित्रोदयत्वात् । ऋजुमतिः पुनः प्रतिपाती; स्वामिनां कषायोद्रेकाद्धीयमानचारित्रोदयत्वात् ।
$ 221. यद्यस्य मनःपर्ययस्य प्रत्यात्ममयं विशेषः, अथानयोरवधिमनः पर्यययोः कुतो विशेष इत्यत आह-
उसे विशुद्धि कहते हैं । गिरनेका नाम प्रतिपात है और नहीं गिरना अप्रतिपात कहलाता है । उपशान्तकषाय जीवका चारित्र मोहनीयके उदयसे संयम शिखर छूट जाता है, जिससे प्रतिपात होता है और क्षीणकषाय जीवका पतनका कारण न होनेसे प्रतिपात नहीं होता । इन दोनोंकी अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमतिमें भेद है । विशुद्धि यथा----ऋजुमतिसे विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा विशुद्धतर है । शंका- कैसे ? समाधान - यहाँ जो कार्मण द्रव्यका अनन्तवाँ अन्तिम भाग सर्वावधिज्ञानका विषय है उसके भी अनन्त भाग करनेपर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है वह ऋजुमतिका विषय है । और इस ऋजुमतिके विषयके अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है वह विपुलमतिका विषय है । अनन्तके अनन्त भेद हैं अतः ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय बन जाते हैं। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र और कालकी अपेक्षा विशुद्धि कही। भावकी अपेक्षा विशुद्धि उत्तरोत्तर सूक्ष्म द्रव्यको विषय करनेवाला होनेसे ही जान लेनी चाहिए, क्योंकि इनके उत्तरोत्तर प्रकृष्ट क्षयोपशम रूप विशुद्धि पायी जाती है, इसलिए ऋजुमतिसे विपुलमतिमें विशुद्धि अधिक होती है । अप्रतिपातकी अपेक्षा भी विपुलमति विशिष्ट है; क्योंकि इसके स्वामियोंके प्रवर्धमान चारित्र पाया जाता है । परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है; क्योंकि इसके स्वामियोंके कषायके उदयसे घटता हुआ चारित्र पाया जाता है ।
विशेषार्थ —— यहाँ मन:पर्यय ज्ञानके दोनों भेदोंमें अन्तर दिखलाया गया है। ऋजुमति स्थूल ज्ञान है और विपुलमति सूक्ष्मज्ञान । इसीसे इसका भेद स्पष्ट हो जाता है । यह विशुद्धिकृत भद है । इससे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा पदार्थका ज्ञान करनेमें अन्तर पड़ जाता है । किन्तु इन दोनों ज्ञानोंके अन्तरका एक कारण और है जो कि प्रतिपात और अप्रतिपात शब्दसे पुकारा जाता है । प्रतिपातका अर्थ है गिरना और अप्रतिपातका अर्थ है नहीं गिरना । ऐसा नियम है कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान उसीके होता है जो तद्भव मोक्षगामी होते हुए भी क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है, किन्तु ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञानके लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। वह तद्भव मोक्षगामी भी हो सकता है और अन्यके भी हो सकता है। इसी प्रकार जो क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है उसके भी हो सकता है और जो उस पर नहीं चढ़कर उपशमश्रेणी पर चढ़ता है या नहीं भी चढ़ता है उसके भी हो सकता है । इसीसे ऋजुमति प्रतिपाती और विपुलमति अप्रतिपाती माना गया है । यह विशेषता योग्यताजन्य है, इसलिए इसका निर्देश अलगसे किया है ।
1
8221. यदि इस मन:पर्ययज्ञानका अलग-अलग यह भेद है तो अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञानमें किस कारणसे भेद है ? अब इसी बात बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
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94]
सर्वार्थसिद्धी
विशुद्धिक्षेत्रस्वामि विषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥25॥
8 222. विशुद्धिः प्रसादः । क्षेत्रं यत्रस्थान्भावान्प्रतिपद्यते । स्वामी प्रयोक्ता । विषयो शेयः । तत्रावधेर्मनः पर्ययो विशुद्धतरः । कुतः ? सूक्ष्मविषयत्वात् । क्षेत्रमुक्तम्' । विषयो वक्ष्यते । स्वामित्वं प्रत्युत्यते । प्रकृष्टचारित्रगुणोपेतेषु वर्तते प्रमत्तादिषु क्षीणकषायान्तेषु । तत्र चोत्पद्यमानः प्रवर्द्धमानचारित्रेषु न हीयमानचारित्रेषु । प्रवर्द्धमानचारित्रेषु चोत्पद्यमानः सप्तविधान्यत'मद्धप्राप्तेषूपजायते नेतरेषु । ऋद्धिप्राप्तेषु केषुचिन्न सर्वेषु । ' इत्यस्यायं स्वामिविशेषो । विशिष्टसंयमग्रहणं वा वाक्ये प्रकृतम् । अवधिः पुनश्चातुर्गतिकेष्विति स्वामिभेदादप्यनयो विशेषः ।
8223. इदानीं केवलज्ञानलक्षणाभिधानं प्राप्तकालम् । तदुल्लङ्घ्य ज्ञानानां विषयनिबन्ध: परीक्ष्यते । कुतः ? तस्य 'मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' इत्यत्र वक्ष्य- माणत्वात् । यद्येवमाद्ययोरेव तावन्मतिश्रुतयो विषयनिबन्ध उच्यतामित्यत आह
मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्ययेषु ॥ 26
1 8224 निबन्धनं निबन्धः । कस्य ? विषयस्य । तद्विषग्रहणं कर्तव्यम् ? न कर्तव्यम् । प्रकृतं विषयग्रहणम् । क्व प्रकृतम् ? 'विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यः' ' इत्यत्र । अतस्तस्यार्थवशाद्विविशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयको अपेक्षा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानमें भेद है ||25||
8222. विशुद्धिका अर्थ निर्मलता है । जिस स्थान में स्थित भावोंको जानता है वह क्षेत्र है | स्वामीका अर्थ प्रयोक्ता है। विषय ज्ञेयको कहते हैं । सो इन दोनों ज्ञानोंमें अवधिज्ञानसे मन:पर्ययज्ञान विशुद्धतर है, क्योंकि मन:पर्ययज्ञानका विषय सूक्ष्म है। क्षेत्रका कथन पहले कर आये हैं । विषयका कथन आगे करेंगे । यहाँ स्वामीका विचार करते हैं--मन:पर्ययज्ञान प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके उत्कृष्ट चारित्रगुणसे युक्त जीवोंके ही पाया जाता है । वहाँ उत्पन्न होता हुआ भी वह वर्द्धमान चारित्रवाले जीवोंके ही उत्पन्न होता है, घटते हुए चारित्रवाले जीवोंके नहीं । वर्धमान चारित्रवाले जीवोंमें उत्पन्न होता हुआ भी सात प्रकारकी ऋद्धियों में से किसी एक ऋद्धिको प्राप्त हुए जीवोंके ही उत्पन्न होता है, अन्यके नहीं । ऋद्धिप्राप्त जीवोंमें भी किन्हींके ही उत्पन्न होता है, सबके नहीं, इस प्रकार सूत्रमें इसका स्वामीविशेष या विशिष्ट सयमका ग्रहण प्रकृत है । परन्तु अवधिज्ञान चारों गतिके जीवोंके होता है, इसलिए स्वामियोंके भेदसे भी इनमें अन्तर है ।
विशेषार्थ ---- यों तो अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानमें मौलिक अन्तर है । अवधिज्ञान सीधे तौरसे पदार्थोंको जानता है और मन:पर्ययज्ञान मनकी पर्यायरूपसे । फिर भी यहाँ अन्य आधारोंसे इन दोनों ज्ञानोंमें अन्तर दिखलाया गया है । वे आधार चार हैं--द्रव्य, क्षेत्र, स्वामी और विषय । 8223. अब केवलज्ञानका लक्षण कहनेका अवसर है। किन्तु उसका कथन न कर पहले ज्ञानोंके विषयका विचार करते हैं, क्योंकि केवलज्ञानका लक्षण 'मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' यहाँ कहेंगे । यदि ऐसा है तो सर्वप्रथम आदिमें आये हुए मतिज्ञान और श्रुतज्ञान विषयका कथन करना चाहिए । इसी बातको ध्यान में रखकर आगेका सूत्र कहते हैं
[1125 § 222
मतिज्ञान और श्रुतज्ञानकी प्रवृत्ति कुछ पर्यायोंसे युक्त सब द्रव्योंमें होती है ॥26॥
8224. निबन्ध शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - निबन्धनं निबन्ध: ---जोड़ना, सम्बन्ध करना । शंका ---- किसका सम्बन्ध ? समाधान - विषयका । शंका- तो सूत्रमें विषय पदका ग्रहण 1. मुक्तं विशेषो व मु.। 2 - तेऽप्रन- मु., दि 1, 2 1 3. इत्यस्य स्वामिविशेषविशिष्ट संयमग्रहणं वाक्ये कृतम् । अव-मु. ता., ना. । 4. -येभ्य इत्यतस्त - दि. 1, दि. 2, आ., मु.
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-1128 8 228] प्रथमोऽध्यायः
[95 भक्तिपरिणामो भवतीति विषयस्य' इत्यभिसंबध्यते । 'द्रव्येषु' इति बहुवचननिर्देशः सर्वेषां जीवधर्माधर्म 'कालाकाशपुद्गलानां संग्रहार्थः । तद्विशेषणार्थ 'असर्वपर्याय' ग्रहणम् । तानि द्रव्याणि मतिश्रुतयोविषयभावमापद्यमानानि कतिपयरेव पर्यायविषयभावमास्कन्दन्ति न सर्वपर्यायैरनन्तरपीति । अत्राह-धर्मास्तिकायादीन्यतीन्द्रियाणि तेषु मतिज्ञानं न प्रवर्तते । अतः सर्वद्रव्येषु मतिज्ञानं वर्तत इत्ययुक्तम् ? नैष दोषः; अनिन्द्रियाख्यं करणमस्ति तदालम्बनो नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमलन्धिपूर्वक उपयोगोऽवग्रहादिरूपः प्रागेवोपजायते । ततस्तत्पूर्व श्रुतज्ञानं द्विषयेषु स्वयोग्येषु व्याप्रियते। 8225. अथ मतिश्रुतयोरनन्तनिर्देशार्हस्यावधेः को विषनिबन्ध इत्यत आह
रूपिष्ववधेः ॥27॥ 8 226. विषयनिबन्धः' इत्यनुवर्तते । 'रूपिषु' इत्यनेन पुद्गलाः पुद्गलद्रव्यसंबन्धाश्च जीवाः परिगृह्यन्ते । रूपिष्वेवावधेविषनिबन्धो 'नारूपिष्विति नियमः क्रियते। रूपिष्वपि भवन्न सर्वपर्यायेष, स्वयोग्येष्वेवेत्यवधारणार्थमसर्वपर्यायेष्विभिसंबध्यते।। 8 227. अथ तदनन्तनिर्देशभाजो मनःपर्ययस्य को विषयनिबन्ध इत्यत आह
तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥28॥
करना चाहिए ? समाधान---नहीं करना चाहिए, क्योंकि विषय पदका ग्रहण प्रकरण प्राप्त है। शंका-कहाँ प्रकरणमें आया है ? समाधान---'विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यः' इस सूत्रमें आया है। वहाँसे 'विषय' पदको ग्रहण कर अर्थके अनुसार उसकी विभक्ति बदल ली है, इसलिए यहाँ षष्ठी विभक्तिके अर्थ में उसका ग्रहण हो जाता है । सूत्र में 'द्रव्येषु' बहुवचनान्त पदका नि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन सब द्रव्योंका संग्रह करनेके लिए किया है। और इन सब द्रव्योंके विशेषणरूपसे 'असर्वपर्यायेषु' पदका ग्रहण किया है । वे सब द्रव्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषयभावको प्राप्त होते हुए कुछ पर्यायोंके द्वारा ही विषयभावको प्राप्त होते हैं. सब पर्यायोंके द्वारा नहीं और अनन्त पर्यायोंके द्वारा भी नहीं। शंका---धर्मास्तिकाय आदि अतीन्द्रिय हैं। उनमें मतिज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अतः 'सब द्रव्योंमें मतिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है' यह कहना अयुक्त है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अनिन्द्रिय नामका एक करण है। उसके आलम्बनसे नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमरूप लब्धिपूर्वक अवग्रह आदिरूप उपयोग पहले ही उत्पन्न हो जाता है, अतः तत्पूर्वक होनेवाला श्रुतज्ञान अपने योग्य इन विषयोंमें व्यापार करता है।
225. मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके अनन्तर निर्देशके योग्य अवधिज्ञानका विषय क्या है आगे सूत्र द्वारा इसी बातको बतलाते हैं---
"अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति रूपी पदार्थो में होती है ॥27॥
8 226. पिछले सूत्रसे 'विषयनिबन्धः' पदकी अनुवृत्ति होती है। 'रूपिषु' पद-द्वारा पदगलों और पुद्गलोंमें बद्ध जीवोंका ग्रहण होता है । इस सूत्रद्वारा 'रूपी पदार्थोंमें हो अवधि
का विषय सम्बन्ध है. अरूपी पदार्थो में नहीं' यह नियम किया गया है। रूपी पदार्थों में होता हुआ भी उनकी सब पर्यायोंमें नहीं होता, किन्तु स्वयोग्य पर्यायोंमें ही होता है इस प्रकारका निश्चय करनेके लिए 'असर्वपर्यायेष' पदका सम्बन्ध होता है।
8 227. अब इसके अनन्तर निर्देशके योग्य मनःपर्ययज्ञानका विषयसम्बन्ध क्या है इस बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मनःपर्ययज्ञानको प्रवृत्ति अवधिज्ञानके विषयके अनन्तवें भागमें होती है ।।28। 1. धर्माकाश-मः। 2. नारूपेष्विति-म.।
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96]
सर्वार्थसिद्धी
[11288 2288 228. यदेतद्रूपि' द्रव्यं सर्वावधिज्ञानविषयत्वेन समथितं तस्यानन्तभागीकृतस्यैकस्मिभागे मनःपर्ययः प्रवर्तते। 8 229. अथान्ते यन्निर्दिष्टं केवलज्ञानं तस्य को विषयनिबन्ध इत्यत आह
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥29॥ 230. द्रव्याणि च पर्यायाश्च द्रव्य पर्याया इति इतरेतरयोगलक्षणो द्वन्द्वः । तद्विशेषणं 'सर्व' ग्रहणं प्रत्येकमभिसंबध्यते, सर्वेषु द्रव्येषु सर्वेषु पर्यायेष्विति। जीवद्रव्याणि तावदनन्तानन्तानि ततोऽप्यनन्तानन्तानि पुद्गलद्रव्याणि च अणुस्कन्धभेदभिन्नानि, धर्माधर्माकाशानि श्रीणि, कालश्चासंख्येयस्तेषां पर्यायाश्च त्रिकालभुवः प्रत्येकमनन्तानन्तास्तेषु । द्रव्यं पर्यायजातं वा न किंचित्केवलज्ञानस्य विषयभावमतिकान्तमस्ति । अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थ 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु' इत्युच्यते ।
8 231. आह विषयनिबन्धोऽवधृतो मत्यादीनाम् । इदं तु न नितिमेकस्मिन्नात्मनि स्वनिमित्तसंनिधानोपजनितवृत्तीनि ज्ञानानि यौगपद्येन कति भवन्तीत्युच्यते
8 228. जो रूपी द्रव्य सर्वावधिज्ञानका विषय है उसके अनन्त भाग करनेपर उसके एक भागमें मनःपर्ययज्ञान प्रवृत्त होता है।
8 229. अब अन्तमें जो केवलज्ञान कहा है उसका विषय क्या है यह बतलानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं
केवलज्ञानकी प्रवृत्ति सब द्रव्य और उनकी सब पर्यायोंमें होती है ॥29॥
6230. सत्रमें आये हए द्रव्य और पर्याय इन दोनों पदोंका इतरेतरयोग द्वन्द्वसमास है। तथा इन दोनोंके विशेषरूपसे आये हुए 'सर्व' पदको द्रव्य और पर्याय इन दोनोंके साथ जोड लेना चाहिए। यथा-सब द्रव्योंमें और सब पर्यायोंमें । जीव द्रव्य अनन्तानन्त हैं। पूदगल द्रव्य इनसे भी अनन्तानन्तगणे हैं। जिनके अणु और स्कन्ध ये भेद हैं । धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन हैं और काल असंख्यात हैं। इन सब द्रव्योंकी पृथक-पृथक् तीनों कालोंमें होनेवालो अनन्तानन्त पर्यायें हैं। इन सबमें केवलज्ञानकी प्रवृत्ति होती है । ऐसा न कोई द्रव्य है और न पर्यायसमूह है जो केवलज्ञानके विषयके परे हो । केवलज्ञानका माहात्म्य अपरिमित है इसी बातका ज्ञान कराने के लिए सूत्र में 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु' पद कहा है।
विशेषार्थ-यहाँ चार सूत्रोंमें पाँचों ज्ञानोंके विषयका निर्देश किया गया है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान पाँचों इन्द्रियों और मनकी सहायतासे प्रवृत्त होते हैं यह तो स्पष्ट ही है, इसलिए इनका विषय मतिक पदार्थ ही हो सकता है। पर मन विकल्प-द्वारा रूपी और अरूपी सभी पदार्थोको जानता है, इसीसे इन दोनों ज्ञानोंका विषय छहों द्रव्य और उनकी कुछ पर्यायोंको बतलाया है। अवधिज्ञान यद्यपि बाह्य सहायताके बिना प्रवृत्त होता है, पर वह क्षायोपशमिक होनेसे उसका विषय मूर्तिक पदार्थ ही हो सकता है। इसी कारणसे अवधिज्ञानका विषय रूपी पदार्थ कहा है । मनःपर्ययज्ञान भी क्षायोपशमिक होता है, इसलिए उसका विषय यद्यपि रूपी पदार्थ ही है, पर यह रूपी पदार्थको मनकी पर्यायों द्वारा ही ग्रहण करता है, इससे इसका विषय अवधिज्ञानके विषयके अनन्तवें भागप्रमाण कहा है तथा केवलज्ञान निरावरण होता है, इसलिए उसका विषय सब द्रव्य और उनकी सब पर्यायें हैं ऐसा कहा है।
8231. मत्यादिकके विषयसम्बन्धका निश्चय किया, किन्तु यह न जान सके कि एक 1. यदूपि-दि. 1, दि. 21 2. भेदेन भि -मु. ।
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-1130 § 328]
प्रथमोऽध्यायः
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्यः ॥30॥
8232. एकशब्दः संख्यावाची, आदिशब्दोऽवयववचनः। एक आदिर्येषां तानि इमान्येकादीनि । भाज्यानि विभक्तव्यानि । यौगपद्येनैकस्मिन्नात्मनि । आ कुतः ? आ चतुर्भ्यः । तद्यथा एकं तावत्केवलज्ञानं, न तेन सहान्यानि क्षायोपशमिकानि युगपदवतिष्ठन्ते । द्वे मतिश्रुते । त्रीणि मतिश्रुतावधिज्ञानानि, मतिश्रुतमन:पर्ययज्ञानानि वा । चत्वारि मतिश्रुतावधिमन:पर्ययज्ञानानि । न पञ्च सन्ति, केवलस्यासहायत्वात् ।
आत्मा में एक साथ अपने-अपने निमित्तोंके मिलनेपर कितने ज्ञान उत्पन्न हो सकते हैं, इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
एक आत्मामें एक साथ एकसे लेकर चार ज्ञान तक भजनासे होते हैं ॥30॥
232. 'एक' शब्द संख्यावाची है और 'आदि' शब्द अवयववाची है । जिनका आदि एक है वे एकादि कहलाते हैं । 'भाज्यानि' का अर्थ 'विभाग करना चाहिए' होता है । तात्पर्य यह है कि एक आत्मामें एक साथ एक ज्ञानसे लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं। यथा-यदि एक ज्ञान होता है तो केवलज्ञान होता है । उसके साथ दूसरे क्षायोपशमिक ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते । दो होते हैं तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं। तीन होते हैं तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान या मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान होते हैं । तथा चार होते हैं तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान होते हैं। एक साथ पाँच ज्ञान नहीं होते, क्योंकि केवलज्ञान असहाय है ।
[97
विशेषार्थ - यहाँ एक साथ एक आत्मामें कमसे कम कितने और अधिकसे अधिक कितने ज्ञान हो सकते हैं इस बातका निर्देश किया है । यह तो स्पष्ट है कि ज्ञान एक है, अतः उसकी पर्याय भी एक कालमें एक ही हो सकती है। फिर भी यहाँ एक आत्मामें एक साथ कई ज्ञान होनेका निर्देश किया है सो उसका कारण अन्य है । बात यह है कि जब ज्ञान निवारण होता है तब तो उसमें किसी प्रकारका भेद नहीं किया जा सकता है, अतएव ऐसी अवस्थामें एक केवलज्ञान पर्यायका ही प्रकाश माना गया है। किन्तु संसार अवस्थामें जब ज्ञान सावरण होता है तब निमित्त भेदसे उसी ज्ञानको कई भागों में विभक्त कर दिया जाता है । सावरण अवस्थामें जितने भी ज्ञान प्रकट होते हैं वे सब क्षायोपशमिक ही होते हैं और क्षयोपशम एक साथ कई प्रकारका हो सकता है, इसलिए सावरण अवस्थामें दो, तीन या चार ज्ञानकी सत्ता युगपत् मानी गयी है । पर इसका यह अर्थ नहीं कि जब दो, तीन या चार ज्ञानकी सत्ता रहती है तब वे सब ज्ञान उपयोगरूप हो सकते हैं । उपयोग तो एक कालमें एक ही ज्ञानका होता है, अन्य ज्ञान उस समय लब्धिरूप से रहते हैं। आशय यह है कि ऐसा कोई क्षण नहीं जब ज्ञानकी कोई उपयोगात्मक पर्याय प्रकट न हो । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये सब ज्ञानकी पर्यायें हैं, इसलिए इनमें से एक कालमें उपयोगात्मक एक ही पर्यायका उदय रहता है। निरावरण अवस्थामें मात्र केवलज्ञान पर्यायका उदय रहता है और सावरण अवस्थामें प्रारम्भकी चार पर्यायोंमेंसे एक काल में किसी एक पर्यायका उदय रहता है। फिर भी तब युगपत् दो, तीन और चार ज्ञानोंकी सत्ताके माननेका कारण एकमात्र निमित्तभेद है । जब मति और श्रुत इन दो पर्यायोंके प्रकट होनेका क्षयोपशम विद्यमान रहता है तब युगपत् दो ज्ञानोंका सद्भाव कहा जाता है । जब मति, श्रुत और अवधि या मति, श्रुत और मनःपर्यय इन तीन पर्यायोंके प्रकट होने का क्षयोपशम विद्यमान रहता है तब युगपत् तीन ज्ञानोंका सद्भाव कहा जाता है और जब मति आदि चार पर्यायोंके प्रकट होनेका क्षयोपशम विद्यमान रहता है तब युगपत् चार ज्ञानोंका सद्
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98]
सर्वार्थसिद्धी
[ 11308233
$ 233. अथ यथोक्तानि मत्यादीनि ज्ञानव्यपदेशमेव लभन्ते उतान्यथापीत्यत आह--- मति तावधयो विपर्ययश्च ॥31॥
$ 234. विपर्ययो मिथ्येत्यर्थः । कुतः ? सम्यगधिकारात् । 'च'शब्दः समुच्चयार्थः । विपर्ययश्च सम्यदचेति । कुतः पुनरेषां विपर्ययः ? मिथ्यादर्शनेन सहैकार्थसमवायात् सरजस्ककटुकालाबुगतदुग्धवत् । ननु च तत्राधारदोषाद् दुग्धस्य रसविपर्ययो भवति । न च तथा मत्यज्ञानादीनां विषयग्रहणे विपर्ययः । तथा हि सम्यग्दृष्टिर्यथा चक्षुरादिभी रूपादीनुपलभते तथा मिथ्यादृष्टिरपि मत्यज्ञानेन । यथा च सम्यग्दृष्टिः श्रुतेन रूपादीन् जानाति निरूपयति च तथा मिथ्यादृष्टिरपि श्रुताज्ञानेन । यथा चावधिज्ञानेन सम्यग्दृष्टिः रूपिणोऽर्थानवगच्छति तथा मिथ्यादृष्टिविभङ्गज्ञानेनेति ।
$ 235. अत्रोच्यते
-
सदसतोरविशेषाद्यद्द च्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥32॥
8236. सद्विद्य मानमसदविद्यमानमित्यर्थः । तयोरविशेषेण यदृच्छया उपलब्धेविपर्ययो भाव माना जाता है । यही कारण है कि प्रकृत सूत्रमें एक साथ एक आत्माके एक, दो, तीन या चार ज्ञान हो सकते हैं यह कहा है ।
8233. अब यथोक्त मत्यादिक ज्ञान व्यपदेशको ही प्राप्त होते हैं या अन्यथा भी होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र है
मति श्रुत और अवधि ये तीन विपर्यय भी हैं ॥31॥
$ 234. विपर्ययका अर्थ मिथ्या है, क्योंकि सम्यग्दर्शनका अधिकार है । 'च' शब्द समुच्चयरूप अर्थ में आया । इससे यह अर्थ होता है कि मति, श्रुत, और अवधि विपर्यय भी हैं और समीचीन भी । शंका- ये विपर्यय किस कारणसे होते हैं ? समाधान क्योंकि मिथ्यादर्शनके साथ एक आत्मामें इनका समवाय पाया जाता है। जिस प्रकार रज सहित कड़वी तूंबड़ीमें रखा हुआ दूध कड़वा हो जाता है उसी सकार मिथ्यादर्शनके निमित्त ये विपर्यय होते हैं। कड़वी तंबड़ीमें आधारके दोपसे दूधका रस मीठेसे कड़वा हो जाता है- यह स्पष्ट है, किन्तु उस प्रकार मत्यादि ज्ञानोंकी विषयके ग्रहण करने में विपरीतता नहीं मालूम होती । खुलासा इस प्रकार है - जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि चक्षु आदिके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको ग्रहण करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी मत्यज्ञानके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको ग्रहण करता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टिश्रुतके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको जानता है और उनका निरूपण करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी श्रुतज्ञानके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको जानता है और उनका निरूपण करता है । जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी विभंग ज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थोंको जानता है ।
8235. यह एक प्रश्न है जिसका समाधान करनेके लिए अगला सूत्र कहते हैं । वास्तविक और अवास्तविकके अन्तर के बिना यदृच्छोपलब्धि ( जब जैसा जी में आया उस रूप ग्रहण होने) के कारण उन्मत्तकी तरह ज्ञान भी अज्ञान हो जाता है ॥32॥
$ 236. प्रकृत में 'सत्' का अर्थ विद्यमान और 'असत्' का अर्थ अविद्यमान है। इनकी 1. विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् । पा. यो. सू. 1, 8 1 2 - रपि । यथा - दि. 1, दि. 2, आ. 3. ‘सदसदविसेसणाओ भयहेउज दिच्छिओवलम्भाओ । नाणफलाभावाओ मिच्छद्दिट्ठस्स अण्णाणं । ' - वि.
भा. गा. 115 ।
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-1132 § 239]
प्रथमोऽध्यायः
[99
भवति । कदाचिद्रूपादि सदस्यसदिति प्रतिपद्यते, असदपि सदिति, कदाचित्सत्सदेव, असदप्यसदेवेति मिथ्यादर्शनोदयादध्यवस्यति । यथा पित्तोदयाकुलितबुद्धिर्मातरं भार्येति, भार्यामपि मातेति मन्यते । यदृच्छया यदपि मातरं मातैवेति भार्यामपि भार्येवेति च तदापि न तत्सम्यग्ज्ञानम् । एवं मत्यादीनामपि रूपादिषु विपर्ययो वेदितव्यः । तथा हि कश्चिन्मिथ्यादर्शनपरिणाम आत्मन्यवस्थितो रूपाद्युपलब्धौ सत्यामपि कारणविपर्यासं भेदाभेदविपर्यासं स्वरूपविपर्यासं च जनयति ।
8237. कारणविपर्यासस्तावद् - रूपादीनामेकं कारणममूर्तं नित्यमिति केचित्कल्पयन्ति । अपरे पृथिव्यादिजातिभिन्नाः परमाणवश्चतुस्त्रिद्वय कगुणास्तुल्यजातीयानां कार्याणामारम्भका इति । अन्ये वर्णयन्ति - पृथिव्यादीनि चत्वारि भूतानि, भौतिकधर्मा वर्णगन्धरसस्पर्शाः, एतेषां समुदायो रूपपरमाणुरष्टक इत्यादि । 'इतरे 'वर्णयन्ति - पृथिव्यप्तेजोवायवः काठिन्यादि'द्रवत्वाद्युष्णत्वादी रणत्वादिगुणा' जातिभिन्नाः परमाणवः कार्यस्यारम्भकाः ।
8238. भेदाभेदविपर्यासः कारणात्कार्यमर्थान्तरभूतमेवेति 'अनर्थान्तरभूतमेवेति च परिकल्पना ।
$ 239. स्वरूपविपर्यासो रूपादयो निर्विकल्पाः 10 सन्ति न सन्त्येव 11 वा । तदाकारपरिणतं विज्ञानमेव" । न च तदालम्बनं वस्तु बाह्यमिति । एवमन्यानपि परिकल्पनाभेदान् दृष्टेष्टविरुद्धाविशेषता न करके इच्छानुसार ग्रहण करनेसे विपर्यय होता है। कदाचित् रूपादिक विद्यमान हैं तो भी उन्हें अविद्यमान कहता है । और कदाचित् अविद्यमान वस्तुको भी विद्यमान कहता है । कदाचित् सत्को सत् और असत्को असत् ही मानता है । यह सब निश्चय मिथ्यादर्शनके उदयसे होता है । जैसे पित्तके उदयसे आकुलित बुद्धिवाला मनुष्य माताको भार्या और भार्याको माता मानता है । जब अपनी इच्छाकी लहरके अनुसार माताको माता और भार्याको भार्या है तब भी वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है । इसी प्रकार मत्यादिकका भी रूपादिक में विपर्यय जानना चाहिए | खुलासा इस प्रकार है-आत्मामें स्थित कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम रूपादिककी उपलब्धि होनेपर भी कारण विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यासको उत्पन्न करता रहता है ।
मानता
,
237. कारण विपर्यास यथा- कोई मानते हैं कि रूपादिकका एक कारण है जो अमूर्त और नित्य है । कोई मानते हैं कि पृथिवी जातिके परमाणु अलग हैं जो चार गुणवाले हैं। जल जातिके परमाणु अलग हैं जो तीन गुणवाले हैं। अग्नि जातिके परमाणु अलग हैं जो दो गुणवाले हैं और वायु जातिके परमाणु अलग हैं जो एक गुणवाले हैं। तथा ये परमाणु अपने समान जातीय कार्य को ही उत्पन्न करते हैं। कोई कहते हैं कि पृथिवी आदि चार भूत हैं और इन भूतोंके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये भौतिक धर्म हैं । इन सबके समुदायको एक रूप परमाणु या अष्टक कहते हैं । कोई कहते हैं कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये क्रम से काठिन्यादि, द्रवत्वादि, उष्णत्वादि और रणत्वादिगुणवाले अलग-अलग जातिके परमाणु होकर कार्यको उत्पन्न करते हैं ।
238. भेदाभेदविपर्यास यथा - कारणसे कार्यको सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न
मानना ।
8239 स्वरूपविपर्यास यथा-रूपादिक निर्विकल्प हैं, या रूपादिक हैं ही नहीं, या रूपादिकके आकाररूपसे परिणत हुआ विज्ञान ही है उसका आलम्बनभूत और कोई बाह्य पदार्थ 1. -च्छया मातरं - मु., ता., ना. । 2. सांख्याः । 3 नैयायिकाः । 4. atal: 1 5. लोकायतिकाः । 6. -तरे कल्पयन्ति पथि--- आ., दि. 117. णत्वादिगमनादिगुणा - आ., दि 1, दि. 21 8 नैयायिकाः । 9. सांख्या: । 10. बोद्धाः । 11 नैयायिकाः । 12 योगाचाराः ।
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100] सर्वार्थसिद्धौ
[1132 6 239मिथ्यादर्शनोदयात्कल्पयन्ति तत्र च श्रद्धानमुत्पादयन्ति । ततस्तन्मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं च भवति । सम्यग्दर्शनं पुनस्तत्त्वार्थाधिगमे श्रद्धानमुत्पादयति । ततस्तन्मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं च भवति।
8 240. आह प्रमाणं द्विप्रकारं वर्णितम् । प्रमाणैकदेशाश्च नयास्तदनन्तरोद्देशभाजी निर्देष्टव्या इत्यत आह
नंगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूदैवंभूता नयाः ॥33॥
8241. एतेषां सामान्यविशेषलक्षणं वक्तव्यम् । सामान्यलक्षणं तावद्वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवणः प्रयोगो नयः। स द्वधा द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्चेति । द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः अनुवृत्तिरित्यर्थः। तद्विषयो द्रव्यार्थिकः । पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः । तद्विषयः पर्यायाथिकः । तयोर्भेदा नैगमादयः।
$ 242. तेषां विशेषलक्षणमुच्यते-अनभिनिर्वृत्तार्यसंकल्पमात्रग्राही नगमः । कंचित्पुरुषं नहीं है। इसी प्रकार मिथ्यादर्शनके उदयसे ये जीव प्रत्यक्ष और अनुमानके विरुद्ध नाना प्रकारकी कल्पनाएँ करते हैं और उनमें श्रद्धान उत्पन्न करते हैं । इसलिए इनका यह ज्ञान मत्यज्ञान.श्रताज्ञान या विभंगज्ञान होता है। किन्तु सम्यग्दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञान में श्रद्धान उत्पन्न करता है अतः इस प्रकारका ज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है।
विशेषार्थ-यहाँपर प्रारम्भके तीन ज्ञान विपर्यय होते हैं यह बतलाकर वे विपर्यय क्यों होते हैं यह बतलाया गया है। संसारी जीवकी श्रद्धा विपरीत और समीचीनके भेदसे दो प्रकारकी होती है । विपरीत श्रद्धावाले जीवको विश्वका यथार्थ ज्ञान नहीं होता। वह जगत्में कितने पदार्थ हैं उनका स्वरूप क्या है यह नहीं जानता। आत्मा और परमात्माके स्वरूप बोधसे तो वह सर्वथा वंचित ही रहता है । वह घटको घट और पटको पट ही कहता है, पर जिन तत्त्वोंसे इनका निर्माण होता है उनका इसे यथार्थ बोध नहीं होने पाता । यही कारण है कि जीवकी श्रद्धाके अनुसार ज्ञान भी समीचीन ज्ञान और मिथ्या ज्ञान इन दो भागोंमें विभक्त हो जाता है। यथार्थ श्रद्धाके होनेपर जो ज्ञान होते हैं उन्हें समीचीन ज्ञान कहते हैं और यथार्थ श्रद्धाके अभावमें होनेवाले ज्ञानोंका नाम ही मिथ्याज्ञान है। ऐसे मिथ्याज्ञान तीन माने गये हैं-कूमति ज्ञान, कुश्रत ज्ञान और विभंग ज्ञान । ये ही तीन ज्ञान मिथ्या होते हैं, अन्य नहीं, क्योंकि ये ज्ञान विपरीत श्रद्धावालेके भी पाये जाते हैं। विपरीत श्रद्धा होती है इसका निर्देश मूल टीकामें किया ही है।
8 240. दो प्रकारके प्रमाणका वर्णन किया। प्रमाणके एकदेशको नय कहते हैं । इनका कथन प्रमाणके अनन्तर करना चाहिए, अतः आगेका सूत्र कहते हैं
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं ॥33॥
8241. इनका सामान्य और विशेष लक्षण कहना चाहिए। सामान्य लक्षण-अनेकान्तात्मक वस्तुमें विरोधके बिना हेतुकी मुख्यतासे साध्यविशेषकी यथार्थताके प्राप्त करानेमें समर्थ प्रयोगको नय कहते हैं। इसके दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । द्रव्यका अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है और इसको विषय करनेवाला नय द्रव्याथिक नय कहलाता है। तथा पर्यायका अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है और इसको विषय करनेवाला नय पर्यायार्थिक नय कहलाता है । इन दोनों नयोंके उत्तर भेद नैगमादिक हैं।
8 242. अब इनका विशेष लक्षण कहते हैं - अनिष्पन्न अर्थमें संकल्पमात्रको ग्रहण करनेवाला नय नैगम है । यथा-हाथमें फरसा लेकर जाते हुए किसी पुरुषको देखकर कोई अन्य पुरुष 1.-ज्ञानमवध्यज्ञा-मु.। 2. -वणप्रयो-मु.।
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--1133 8 244] प्रथमोऽध्यायः
[101 परिगृहीतपरशुं गच्छन्तमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमर्थं भवान्गच्छतीति । स आह प्रस्थमानेतुमिति । नासौ तदा प्रस्यपर्यायः संनिहितः । तदभिनिवृत्तये संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहारः। तथा एधोदकाद्याहरणे व्याप्रियमाणं कश्चित्पृच्छति किं करोति भवानिति । स आह ओदनं पचामीति । न तदौदनपर्यायः संनिहितः, तदर्थे व्यापारे स प्रयुज्यते। एवंप्रकारो लोकसंव्यवहारः अनभिनिवत्तार्थसंकल्पमात्रविषयो नैगमस्य गोचरः।
$ 243. स्वजात्यविरोधेनकध्यमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात्संग्रहः । सत, द्रव्यं, घट इत्यादि । सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताधारभूतानामविषेण सर्वेषां संग्रहः । द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजवतभेदप्रभेदानां संग्रहः । तथा घट इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिङ्गानुमितसकलार्थसंग्रहः। एवंप्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य विषयः।
244. संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः । को विधिः ? यः संग्रहगृहीतोऽर्थस्तदानुपूर्वेणैव व्यवहारः प्रवर्तत इत्ययं विधिः । तद्यथा-सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तत्त्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते। यत्सत्तद् द्रव्यं गुणो वेति । द्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तेन जीवाजीवविशेषानपेक्षेण न शक्यः संव्यवहार इति जीवद्रव्यमजीवद्रव्यपूछता है आप किस कामके लिए जा रहे हैं । वह कहता है प्रस्थ लानेके लिए जा रहा हूँ। उस समय वह प्रस्थ पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल उसके बनानेका संकल्प होनेसे उसमें प्रस्थ व्यवहार किया गया है । तथा ईंधन और जल आदिके लाने में लगे हुए किसी पुरुषसे कोई पूछता है कि आप क्या कर रहे हैं। उसने कहा भात पका रहा हूँ। उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भातके लिए किये गये व्यापारमें भातका प्रयोग किया गया है। इस प्रकारका जितना लोकव्यवहार अनिष्पन्न अर्थके आलम्बनसे संकल्पमात्रको विषय करता है वह सब नेगम नयका विषय है।
8243. भेदसहित सब पर्यायोंको अपनी जातिके अविरोध-द्वारा एक मानकर सामान्यसे सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है । यथा-सत्, द्रव्य और घट आदि। 'सत्' ऐसा कहनेपर सत् इस प्रकारके वचन और विज्ञानकी अनुवृत्तिरूप लिंगसे अनुमित सत्ताके आधारभूत सब पदार्थों का सामान्यरूपसे संग्रह हो जाता है । 'द्रव्य' ऐसा कहनेपर भी 'उन-उन पर्यायोंको द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है' इस प्रकार इस व्युत्पत्तिसे युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेदप्रभेदोका संग्रह हो जाता है। तथा 'घट ऐसा कहनेपर भी घट इस प्रकारकी बुद्धि और घट इस प्रकारके शब्दकी अनुवृत्तिरूप लिंगसे अनुमित सब घट पदार्थोका संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रह नयका विषय है।
244. संग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थोंका विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहार नय है । शंका-विधि क्या है ? समाधान-जो संग्रह नयके द्वारा गृहीत अर्थ है उसीके आनुपूर्वी क्रमसे व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि है । यथा-सर्वसंग्रह नयके द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है वह अपने उत्तर भेदोंके बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहार नयका आश्रय लिया जाता है । यथा—जो सत् है वह या तो द्रव्य है या गुण। इसी प्रकार संग्रह नयका विषय जो द्रव्य है वह जीव अजीव विशेषकी अपेक्षा किये बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है इस प्रकारके व्यवहारका आश्रय लिया जाता है। जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रह नयके विषय रहते हैं तब तक 1. संग्रहनयः ।।2। संग्र--मु.। 2. यत्संग्र-मु., दि. 1, दि. 2, आ.।
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102] सर्वार्थसिद्धौ
[1133 8 244मिति वा व्यवहार आश्रीयते । जीवाजीवावपि च संग्रहाक्षिप्तौ नालं संव्यवहारायेति प्रत्येक देवनारकादिर्धटाविश्च व्यवहारेणाश्रीयते । एवमयं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनर्नास्ति विभागः ।
8 245. ऋजुप्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयतीति ऋजुसूत्रः । पूर्वापरांस्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयानादते अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् । तच्च वर्तमानं समयमात्रम् । तद्विषयपर्यायमात्रमाह्ययमृजुसूत्रः । ननु संव्यहारलोपप्रमङ्ग इति चेद् ? न; अस्य नयस्य विषयमात्रप्रदर्शनं क्रियते । सर्वनयसमूहसाध्यो हि लोकसंव्यवहारः।
8246. लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दनयः । तत्र लिङ्गव्यभिचारःपुष्यस्तारका नक्षत्रमिति । संख्याव्यभिचारः-जलमापः, वर्षा ऋतः, आम्रा वनम्, वरणा नगर मिति । साधनव्यभिचार::सेना' पर्वतमधिवसति । पुरुषव्यभिचारः-एहि मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पितेति । कालव्यभिचारः—विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो जनिता। भावि कृत्यमातीदिति । उपग्रहव्यभिचारः--संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति । एवंप्रकारं व्यवहारमन्याय्यं10 वे व्यघहार करानेमें असमर्थ हैं, इसलिए व्यवहारसे जीव द्रव्यके देव, नारकी आदिरूप और अजीव द्रध्यके घटाटिरूप भेदोंका आश्रय लिया जाता है। इस प्रकार इस नयकी प्रवृत्ति वहीं तक होती है जहाँ तक वस्तु में फिर कोई विभाग करना सम्भव नहीं रहता।
245. ऋजु का अर्थ प्रगुण है। जो ऋजु अर्थात् सरलको सूत्रित करता है अर्थात् स्वीकार करता है वह ऋजुसूत्र नय है । यह नय पहले हुए और पश्चात् होनेवाले तीनों कालोंके विषयोंको ग्रहण न करके वर्तमान कालके विषयभूत पदार्थोंको ग्रहण करता है, क्योंकि अतीतके विनष्ट और अनागतके अनुत्पन्न होनेसे उनमें व्यवहार नहीं हो सकता । वह वर्तमान काल समयमात्र है और उसके विषयभूत पर्यायमात्रको विषय करनेवाला यह ऋजुसूत्र नय है। शंका-इस तरह संव्यवहारके लोपका प्रसंग आता है ? समाधान-नहों; क्योंकि यहाँ इस नयका विषयमात्र दिखलाया है, लोक संव्यवहार तो सब नयों के समूहका कार्य है।
246. लिंग, संख्या और साधन आदिके व्यभिचारकी निवृत्ति करनेवाला शब्दनय है। लिंगव्यभिचार यथा--पूष्य, तारका और नक्षत्र। ये भिन्न-भिन्न लिंगके शब्द हैं। इनका मिलाकर प्रयोग करना लिंगव्यभिचार है। संख्याव्यभिचार यथा- 'जलं आपः, वर्षाः ऋतुः, आम्रा वनम्, वरणा: नगरम्' ये एकवचनान्त और बहुवचनान्त शब्द हैं। इनका विशेषणविशेष्यरूपसे प्रयोग करना संख्याव्यभिचार है। साधनव्यभिचार यथा-'सेना पर्वतमधिवसति' सेना पर्वतपर है। यहाँ अधिकरण कारकके अर्थमें सप्तमी विभक्ति न होकर द्वितीया विभक्ति है, इसलिए यह साधनव्यभिचार है। पुरुषव्यभिचार यथा--'एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता' =आओ, तुम समझते हो कि मैं रथसे जाऊँगा, नहीं जाओगे । तुम्हारे पिता गये । यहाँ 'मन्यसे के स्थानमें 'मन्ये' और 'यास्यामि के स्थानमें 'यास्यसि क्रियाका प्रयोग किया गया है, इसलिए यह पुरुषव्यभिचार है । कालव्यभिचार यथा-'विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता' = इसका विश्वदश्वा पुत्र होगा । 'यहाँ 'विश्वदश्वा' कर्ता रखकर 'जनिता क्रियाका प्रयोग किया गया है, इसलिए यह कालव्यभिचार है। अथवा, 'भाविकृत्यमासीत्' = होनेवाला कार्य हो गया । यहाँ होनेवाले कार्यको हो गया बतलाया गया है, इसलिए यह कालव्यभिचार है। उपग्रहव्यभिचार 1. यत इति ऋजु-मु., ता. ना.,। 2. पूर्वान्परा--मु.। 3.-षयमाद--आ. । 4. चेदस्य-दि. 1, दि. 2 । 5. वनमिति । साध--आ, दि. 1, दि. 2, ता., ना.। 6. -चारः (कारकव्यभिचारः) सेना-मु.। 7. सेना वनमध्यास्ते। पुरु-ता.। 8. 'एहि मन्ये रथेन यास्यसीति ।-पा. म. भा. 81111161 9. 'भाविकृत्यमासीत । पुत्रो जनिष्यमाण आसीत् । पा. म. मा. 3141112। 10.-हारनयं न्याय्यं-मु. दि. 1, दि. 2, आ.।
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-1133 § 248]
प्रथमोऽध्यायः
[103
मन्यते ; अन्यार्थस्यान्यार्थेन संबन्धाभावात् । लोकसमयविरोध इति चेत् ? विरुध्यताम् । तत्त्वमिह मीमांस्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुर्वात ।
$ 247. नानार्थशमभिरोहणात्समभिरूढः । यतो नानार्थान्समतीत्येकमर्थमाभिमुख्येन रूढः समभिरूढः । गौरित्ययं शब्दो वागादिष्वर्थेषु वर्तमानः पशावभिरूढः । अथवा 'अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः । तत्रैकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थकः । शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदे - नाप्यवश्यं भवितव्यमिति । नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः । इन्दनादिन्द्रः शकनाच्छक्रः पूर्दारणात् पुरदर इत्येवं सर्वत्र । अथवा यो यत्राभिरूढः स तत्र समेत्याभिमुख्ये नारोहणात्समभिरूढः । यथा क्व भवानास्ते ? आत्मनीति । कुतः ? वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात् । " यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्तिः स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्तिः स्यात् ।
$ 248. येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययतीति एवंभूतः । स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यदेति । यदैवेन्दति तदेवेन्द्रो नाभिषेचको न पूजक इति । यदेव गच्छति तदैव यथा - 'संतिष्ठते, प्रतिष्ठते, विरमति, उपरमति ।' यहाँ 'सम्' और 'प्र' उपसर्गके कारण 'स्था' धातुका आत्मनेपद प्रयोग तथा 'वि' और 'उप' उपसर्गके कारण रम्' धातुका परस्मैपदमें प्रयोग किया गया है, इसलिए यह उपग्रहव्यभिचार है । यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं तथापि इस प्रकारके व्यवहारको शब्दनय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे अन्य अर्थका अन्य अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता । शंका- इससे लोकसमयका ( व्याकरण शास्त्रका ) विरोध होता है । समाधान - यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं, क्योंकि यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ पीड़ित पुरुषकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती।
247. नाना अर्थों का समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ़ नय कहलाता है। चूंकि जो नाना अर्थोको 'सम्' अर्थात् छोड़कर प्रधानतासे एक अर्थ में रूढ़ होता है वह समभिरूढ़ नय है । उदाहरणार्थ – 'गो' इस शब्दके वचन आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं तो भी वह 'पशु' इस अर्थ में रूढ़ है । अथवा अर्थका ज्ञान करानेके लिए शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। ऐसी हालत में एक अर्थका एक शब्दसे ज्ञान हो जाता है, इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है । यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार नाना अर्थों का समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ़ नय कहलाता है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीन शब्द होने से इनके अर्थ भी तीन हैं । इन्द्रका अर्थ आज्ञा ऐश्वर्यवान् है, शक्रका अर्थ समर्थ है और पुरन्दरका अर्थ नगरका दारण करनेवाला है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए। अथवा जो जहाँ अभिरूढ़ है वह वहाँ 'सम्' अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ़ होनेके कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है । यथा - आप कहाँ रहते हैं ? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तुकी अन्य वस्तुमें वृत्ति नहीं हो सकती । यदि अन्यकी अन्य में वृत्ति होती है ऐसा माना जाय तो ज्ञानादिककी और रूपादिककी आकाश में वृत्ति होने लगे ।
8248. जो वस्तु जिस पर्यायको प्राप्त हुई है उसीरूप निश्चय करानेवाले नयको एवंभूत नय कहते हैं । आशय यह है कि जिस शब्दका जो वाच्य है उसरूप क्रिया के परिणमनके समय ही 1. तत्त्वं मीमां- आ., दि. 1, दि. 21 2. न तु भैष-- आ., दि. 1 । 3. गादिषु वर्तता, ना. । 4. 'अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः । अर्थ संप्रत्याययिष्यामीति शब्दः प्रयुज्यते । तत्रैकेनोक्तत्वात्तस्यार्थस्य द्वितीयस्य च तृतीयस्य च प्रयोगेण न भवितव्यम् 'उक्तार्थानामप्रयोगः' इति – पा. म. भा. 2।1।1।1।
5. यद्यस्यान्यत्र आ. ।
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104]
सर्वार्थसिद्धौ
[1133 § 248
गौर्न स्थितो न शयित इति । अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूतः परिणतस्तेनैवाध्यवसाययति । यथेन्द्राग्निज्ञानपरिणत आत्मैवेन्द्रोऽग्निश्चेति ।
8249. उक्ता नैगमादयो नयाः । उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषां क्रमः पूर्वपूर्वहेतुकत्वाच्च । एवमेते नयाः पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उत्तरोत्तरानुकूलाल्पविषया द्रव्यस्यानन्तशक्तेः प्रतिशक्ति विभिद्यमाना बहुविकल्पा जायन्ते । त एते गुणप्रधानतया परस्परतन्त्राः सम्यग्दर्शन हेतवः पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तत्त्वादय इव यथोपायं विनिवेश्यमानाः पटादिसंज्ञाः स्वतन्त्राश्चासमर्थाः ।
1
$ 250: 1 तत्वादय इवेति विषम उपन्यासः । तन्त्वादयो निरपेक्षा अपि कांचिदर्थमात्रां जनयन्ति । भवति हि कश्चित्प्रत्येकं तन्तुस्त्वक्त्राणे समर्थः । एकश्च बल्वजो बन्धने समर्थः । इमे पुनर्नया निरपेक्षाः सन्तो न कांचिदपि सम्यग्दर्शनमात्रां प्रादुर्भावयन्तीति ? नैष दोष; अभिहिता नवबोधात् । अभिहितमर्थमनवबुध्य परेणेदमुपालभ्यते । एतदुक्तं, निरपेक्षेषु तन्त्वादिषु पटादिकार्यं नास्तीति । यत्तु तेनोपदर्शितं न तत्पटादिकार्यम् । किं तहि ? केवलं तत्त्वादिकार्यम् । तन्त्वादिकार्यमपि तत्वाद्यवयवेषु निरपेक्षेषु नास्त्येव इत्यस्मत्पक्ष सिद्धिरेव । अथ तन्त्वादिषु पटादिकार्यं उस शब्दका प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयमें नहीं । जभी आज्ञा ऐश्वर्यवाला हो तभी इन्द्र है, अभिषेक करनेवाला नहीं और न पूजा करनेवाला ही । जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी हुई नहीं और न सोती हुई ही । अथवा जिसरूपसे अर्थात् जिस ज्ञानसे आत्मा परिणत हो उसीरूपसे उसका निश्चय करनेवाला नय एवंभूत नय है । यथा - इन्द्ररूप ज्ञानसे परिणत आत्मा इन्द्र है और अग्निरूप ज्ञानसे परिणत आत्मा अग्नि है ।
8249. ये नैगमादिक नय कहे । उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयवाले होनेके कारण इनका यह क्रम कहा है । पूर्व-पूर्व नय आगे-आगेके नयका हेतु है, इसलिए भी यह क्रम कहा है । इस प्रकार ये नय पूर्व-पूर्व विरुद्ध महाविषयवाले और उत्तरोत्तर अनुकूल अल्प विषयवाले हैं । द्रव्यकी अनन्त शक्ति है, इसलिए प्रत्येक शक्तिकी अपेक्षा भेदको प्राप्त होकर ये अनेक विकल्पवाले हो जाते हैं । ये सब नय गौण मुख्यरूपसे एक दूसरेकी अपेक्षा करके ही सम्यग्दर्शन के हेतु हैं । जिस प्रकार पुरुषकी अर्थक्रिया और साधनोंकी सामर्थ्यवश यथायोग्य निवेशित किये गये तन्तु आदिक पट आदि संज्ञाको प्राप्त होते हैं और स्वतन्त्र रहनेपर कार्यकारी नहीं होते उसी प्रकार ये नय समझने चाहिए ।
8250. शंका - प्रकृतमें 'तन्त्वादय इव' विषम दृष्टान्त है; क्योंकि तन्तु आदिक निरपेक्ष रहकर भी किसी न किसी कार्यको जन्म देते ही हैं। देखते हैं कि कोई एक तन्तु त्वचाकी रक्षा करने में समर्थ है और एक वल्कल किसी वस्तुको बाँधने में समर्थ है । किन्तु ये नय निरपेक्ष रहते हुए थोड़ा भी सम्यग्दर्शनरूप कार्यको नहीं पैदा कर सकते हैं ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो कुछ कहा गया है उसे समझे नहीं । कहे गये अर्थको समझे बिना दूसरेने यह उपालम्भ दिया है । हमने यह कहा है कि निरपेक्ष तन्तु आदिमें पटादि कार्य नहीं पाया जाता । किन्तु शंकाकारने जिसका निर्देश किया है वह पटादिका कार्य नहीं है। शंका- तो वह क्या है ? समाधान - केवल तन्तु आदिका कार्य है । तन्तु आदिका कार्य भी सर्वथा निरपेक्ष तन्तु आदिके 1. तन्त्वादिवदेष विष - आ., दि. 1, दि. 2, ता. ना । 2 ' एकस्तन्तुस्त्वक्त्राणेऽसमर्थं स्तत्समुदायश्च कम्बलः समर्थः X X एकश्श बल्वजो बन्धनेऽसमर्थस्तत्समुदायश्च रज्जु समर्था भवति । विषम उपन्यासः । भवति हि तत्र या च यावती चार्थमात्रा । भवति हि कश्चित्प्रत्येकस्तन्तुस्त्वक्त्राणे समर्थः । X X एकश्च बल्बजो बन्धने समर्थः । ' पा. म. भा. 112121451 3 कार्यम् । तहि तन्त्वा - ता., ना. । 4. न्यायस्य । ज्ञानदर्शनयोस्तत्त्वं नयानां चैव लक्षणम् । ज्ञानस्य व प्रमाणत्वमध्यायेऽस्मिन्निरूपितम् ॥ इति' प्रतिष्वेवं पाठः ।
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-1133 § 250]
शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते । नयेष्वपि निरपेक्षेषु बुद्ध्यभिधानरूपेषु कारणवशात्सम्यग्दर्शनहेतुत्वविपरिणतिसद्भावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्यमेवोपन्यासस्य' । इति तत्त्वार्थवृत्ती सर्वार्थ सिद्धि संज्ञायां प्रथमोऽध्यायः ।
प्रथमोऽध्यायः
अवयवोंमें नहीं पाया जाता, इसलिए इससे हमारे पक्षका ही समर्थन होता है । यदि यह कहा जाय कि तन्तु आदिमें पटादि कार्य शक्तिकी अपेक्षा है ही तो यह बात बुद्धि और अभिधान - शब्दरूप निरपेक्ष नयोंके विषय में भी जानना चाहिए। उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शनके हेतुरूपसे परिणमन करने में समर्थ हैं, इसलिए दृष्टान्त का दान्त से साम्य ही है ।
[105
विशेषार्थ प्रमाणके भेद-प्रभेदोंका कथन करनेके बाद यहाँ नयोंका निर्देश किया गया है । नय श्रुतज्ञानका एक भेद है यह पहले ही बतला आये हैं । यहाँ आलम्बनकी प्रधानतासे उसके सात भेद किये गये हैं । मुख्यतः आलम्बनको तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है, उपचार, अर्थ और शब्द । पहला नैगमनय उपचारनय होकर भी अर्थनय है । संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र अर्थनय हैं और शेष तीन शब्दनय हैं। आशय यह है कि नैगम नयकी प्रवृत्ति उपचारकी प्रधानतासे होती है, इसलिए इसे मुख्यता से उपचार नय कहा है । वैसे तो इसकी परिगणना अर्थनय में ही की गयी है । संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रकी प्रवृत्ति अर्थकी प्रधानतासे होती है, इसलिए इन्हें अर्थनय कहा है और शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत नयकी प्रवृत्ति शब्दकी प्रधानतासे होती है, इसलिए इन्हें शब्द नय कहा है। जैसा कि हमने संकेत किया है कि नैगमनयका समावेश अर्थनयों में किया जाता है, किन्तु शेष अर्थनयोंसे नैगमनयको अर्थनय माननेमें मौलिक भेद है । बात यह है कि उपचारकी प्रधानता से वस्तुको स्वीकार करना यह नैगमनयका काम है, शेष अर्थनयोंका नहीं, इसलिए इसे उपचार नय कहा है। शेष अर्थनय तो भेदाभेद या सामान्य विशेषकी प्रधानता से सीधा ही वस्तुको विषय करते हैं वहाँ उपचारको विशेष स्थान नहीं, इसलिए हमने अर्थनयोंसे नैगमनयको पृथक् बतलाया है। माना कि नैगमनय भी गौण मुख्यभावसे भेदाभेद या सामान्यविशेषको विषय करता है पर इन सबकी जड़में उपचार काम करता है इसलिए नैगमनय मुख्यतः उपचारनय ही है । सिद्धसेन दिवाकरने नैगमनयको नय ही नहीं माना है इसका कारण यह उपचार ही है । उनके मतसे सम्यग्ज्ञानके प्रकरण में उपचारको कहाँ तक स्थान दिया जाय यह एक प्रश्न तो है ही । वस्तुस्पर्शी विकल्प और वस्तु में आरोपित विकल्प इनमें बड़ा अन्तर है । वस्तु स्पर्शी विकल्पोंको सम्यग्ज्ञानकी कोटिमें स्थान देना तो अनिवार्य है, किन्तु यदि वस्तु में आरोपित विकल्पोंको सम्यग्ज्ञानकी कोटिमें स्थान दिया जाय तो अनवस्थाकी सीमा ही न रहे यह एक भय था, सम्भवत: इसी कारण आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने नय प्रकरण में नैगमका नामोल्लेख नहीं किया है। किन्तु ऐसा उपचार, जो परम्परासे ही सही मूल कार्यका ज्ञान करानेमें सहायक हो और जिससे अवास्तविक भ्रम फैलनेका भय न हो या जो वस्तुका विपरीतरूपसे बोध न कराकर वस्तुके गूढ़तम तत्त्वकी ओर इशारा करता हो, ग्राह्य है ऐसा मानकर उपचार प्रधान नैगमनयको नयप्रकरणमें स्थान दिया गया है। इससे विचार करने की परिधि बढ़ जाती है और सम्यग्ज्ञानके जनक समग्र विचारोंका वर्गीकरण करनेमें सहायता मिलती है । यदि नैगमनयकी श्रेणीमें जो विचार आते हैं उन्हें मिथ्या मानकर सर्वथा छोड़ दिया जाता है - सम्यग्ज्ञानकी श्रेणीमें स्थान नहीं दिया जाता है तो अभेदकी ओर ले जानेवाले जितने विचार हैं उनकी भी यही गति होनी चाहिए। यदि उनसे वस्तुके स्वरूपका विश्लेषण करने में सहायता मिलती है, इसलिए उनकी नयकी श्रेणीमें परिगणना की जाती है तो यही बात नैगमनयके ऊपर भी लागू करनी चाहिए। इन नयोंका सामान्य और विशेष स्वरूप टीका में दिया ही
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106]
सर्वार्थसिद्धौ
[1133 § 250
है, इसलिए यहाँ इस विषय में विशेष नहीं लिखा गया है। ऋजुसूत्र नय वर्तमान पर्याय द्वारा करते वस्तुको ग्रहण करता है और शब्दादिक नय शब्दों द्वारा वर्तमान पर्यायमुखेन वस्तुको ग्रहण: हैं, इसलिए इन नयोंका विषय द्वित्व नहीं हो सकता। यही कारण है कि शब्दनयके विषयका . निरूपण करते समय विशेषण विशेषभाव आदिसे एक साथ प्रयुक्त किये गये एकवचनान्त और द्विवचनान्त आदि शब्दके वाच्य आदि इसके अविषय बतलाये हैं और समभि ढ़के विषयका निरूपण करते समय एक शब्दके अनेक अर्थ या एक अर्थ में अनेक शब्दोंका प्रयोग करना इसका अविषय बतलाया है, क्योंकि एकवचनान्त शब्दका वाच्य अन्यार्थ है और द्विवचनान्त शब्दका वाच्य अन्यार्थ है, इसलिए शब्द नय इनको एक वाच्य रूपसे ग्रहण नहीं कर सकता । इसी प्रकार गो शब्दका गाय अर्थ अन्यार्थ है और वाणीरूप अर्थ अन्यार्थ है, इसलिए समभिरूढ़ निय एक शब्दद्वारा इन अर्थोंको ग्रहण नहीं कर सकता। इसी प्रकार सभी नयोंके विषयको समझना चाहिए । नय अंश द्वारा वस्तुको स्पर्श करनेवाला एक विकल्प है। प्रमाण ज्ञानके समान यह समग्र वस्तुको स्पर्श नहीं करता, इसलिए ही निरपेक्ष नयको मिथ्या और सापेक्ष नयको सम्यक् कहा गया है। इस विषयका विशेष खुलासा और सब नयोंकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का विचार मूलमें किया ही है। इस प्रकार नय सात हैं और वे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन . दो भागों में बटे हुए हैं यह निश्चित होता है ।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामावली तत्त्वार्थवृत्तिमें प्रथम अध्याय समाप्त हुआ ।
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अथ द्वितीयोऽध्यायः
$ 251. आह, सम्यग्दर्शनस्य विषयभावेनोपदिष्टेषु जीवादिष्वादावुपन्यस्तस्य जीवस्य किं स्वतत्त्वमित्युच्यतेप्रौपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥1॥
$ 252. आत्मनि कर्मणः स्वशक्तेः कारणवशादनुभूतिरुपशमः । यथा कतकादिद्रव्यसंबन्धादम्भसि पंकस्य उपशमः। क्षय आत्यन्तिको निवत्तिः । यथा तस्मिन्नेवाम्भसि शुचिभाजनान्तरसंक्रान्ते पंकस्यात्यन्ताभावः। उभयात्मको मिधः। यथा तस्मिन्नेवाम्भसि कतकाविद्रव्यसंबन्धात्पंकस्य क्षीणाक्षीणवृत्तिः । द्रव्यादिनिमित्तवशात्कर्मणां फलप्राप्तिरुदयः। द्रव्यात्मलाभमात्रहेतुकः परिणामः । उपशमः प्रयोजनमस्येत्यौपशमिकः । एवं क्षायिकः क्षायोपशमिकः औदयिकः परिणामिकश्च । त एते पञ्च भावा असाधारणा जीवस्य स्वतत्त्वमित्युच्यन्ते।
8253. सम्यग्दर्शनस्य प्रकृतत्वात्तस्य त्रिषु विकल्पेषु औपशमिकमादौ लभ्यत इति तस्यादौ ग्रहणं क्रियते । तदनन्तरं क्षायिकग्रहणम् । तस्य प्रतियोगित्वात् संसार्यपेक्षया द्रव्यतस्ततोऽसंख्येयगुणत्वाच्च । तत उत्तरं मिश्रग्रहणम् ; तदुभयात्मकत्वात्ततोऽसंख्येयगुणत्वाच्च । तेषां सर्वेषामनन्तगुणत्वाद् औदयिकपारिणामिकग्रहणमन्ते क्रियते । अत्र द्वन्द्वनिर्देशः कर्तव्यः-औपशमिकक्षायिक
8251. सम्यग्दर्शनके विषयरूपसे जीवादि पदार्थोंका कथन किया। उनके आदिमें जो जीव पदार्थ आया है उसका स्वतत्त्व क्या है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक ये जीवके स्वतस्व हैं ॥1॥
8252. जैसे कतक आदि द्रव्यके सम्बन्धसे जलमें कीचड़का उपशम हो जाता है उसी प्रकार आत्मामें कर्मकी निज शक्तिका कारणवशसे प्रकट न होना उपशम है। जैसे उसी जलको दूसरे साफ बर्तनमें बदल देनेपर कीचड़का अत्यन्त अभाव हो जाता है वैसे ही कर्मोंका आत्मासे सर्वथा दूर हो जाना क्षय है । जिस प्रकार उसी जलमें कतकादि द्रव्यके सम्बन्धसे कुछ कीचड़का अभाव हो जाता है और कुछ बना रहता है उसी प्रकार उभयरूप भाव मिश्र है। द्रव्यादि
मित्तके वशसे कर्मोंके फलका प्राप्त होना उदय है। और जिनके होने में द्रव्यका स्वरूपलाभमात्र कारण है वह परिणाम है। जिस भावका प्रयोजन अर्थात कारण उपशम है वह औपशमिक भाव है। इसी प्रकार क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक भावोंको व्युत्पत्ति कहनी चाहिए। ये पाँच भाव असाधारण हैं, इसलिए जीवके स्वतत्त्व कहलाते हैं।
8253. सम्यग्दर्शनका प्रकरण होनेसे उसके तीन भेदोंमेंसे सर्वप्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है अतएव औपशमिक भावको आदिमें ग्रहण किया है। क्षायिक भाव औपशमिक भावका प्रतियोगी है और संसारी जीवोंकी अपेक्षा औपशमिक सम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं अत: औपशमिक भावके पश्चात् क्षायिक भावको ग्रहण किया है। मिश्रभाव इन दोनोंरूप होता है और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंसे असंख्यातगुणे होते हैं, अत: तत्पश्चात् मिश्रभावको ग्रहण किया है । इन सबसे अनन्तगुणे होनेके कारण इन सबके अन्तमें औदयिक और पारिणामिक भावोंको रखा है । शंका
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108] सर्वाथसिद्धौ
[2118 253मिश्रौदयिकपारिणामिका इति । तथा सति द्विः 'च'शब्दो न कर्तव्यो भवति। नैवं शक्यम् । अन्यगुणापेक्षया इति प्रतीयेत । वाक्ये पुनः सति 'च'शब्देन प्रकृतोभयानुकर्षः कृतो भवति। तहि क्षायोपशमिकग्रहणमेव कर्तव्यमिति चेत् । न; गौरवात् । मिश्रग्रहणं मध्ये क्रियते उभयापेक्षार्थम् । भव्यस्य औपशमिकक्षायिको भावौ । मिश्रः पुनरभव्यस्यापि भवति, औयिकपरिणामिकाभ्यां सह भव्यस्यापीति । भावापेक्षया तल्लिङसंख्याप्रसङ्गः स्वतत्त्वस्येति चेत ? न; उपालिंगसंख्यत्वात। तदभावस्तत्त्वम् । स्वं तत्त्वं स्वतत्वमिति ।
254. अत्राह तस्यैकस्यात्मनो ये भावा औपमिकादयस्ते किं भेदवन्त उताभेदा इति । अत्रोच्यते, भेदवन्तः । यद्येवं, भेदा उच्यन्तामित्यत आह
द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥2॥ $ 255. द्वयादीनां संख्याशब्दानां कृतद्वन्द्वानां भेदशब्देन सह स्वपदार्थेऽन्यपदार्थे वा वृत्तियहाँ 'औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिकाः' इस प्रकार द्वन्द्व समास करना चाहिए। ऐसा करनेसे सूत्रमें दो 'च' शब्द नहीं रखने पड़ते हैं। समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए,
क्योंकि स्त्रमें यदि 'च' शब्द न रखकर द्वन्द्व समास करते तो मिश्रकी प्रतीति अन्य गुणको अपेक्षा · होती। किन्तु वाक्यमें 'च' शब्दके रहनेपर उससे प्रकरण में आये हुए औपशमिक और क्षायिक भावका अनुकर्षण हो जाता है। शंका-तो फिर सूत्र में 'क्षायोपमिक' पदका ही ग्रहण करना चाहिए ? समाधान नहीं, क्योंकि क्षायोपशमिक पदके ग्रहण करने में गौरव है; अतः इस दोषको दूर करनेके लिए क्षायोपशमिक पदका ग्रहण न करके मिश्र पद रखा है। दोनोंकी अपेक्षासे मिश्र पद मध्यमें रखा है। औपगमिक और क्षायिकभाव भव्यके ही होते हैं। किन्तु मिश्रभाव अभव्यके भी होता है। तथा औदयिक और पारिणामिक भावोंके साथ भव्यके भी होता है। शंका-भावोंके लिंग और संख्या के समान स्वतत्त्वपदका वही लिंग और संख्या प्राप्त होती है। समाधान-नहीं, क्योंकि जिस पदको जो लिंग और संख्या प्राप्त हो गयी है उसका वही लिंग और संख्या बनी रहती है। स्वतत्त्वका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वम्-जिस वस्तुका जो भाव है वह तत्त्व है और स्व तत्त्व स्वतत्त्व है।
विशेषार्थ-पाँच भावोंमें प्रारम्भके चार भाव निमित्तकी प्रधानतासे कहे गये हैं और अन्तिम भाव योग्यताकी प्रधानतासे। जगमें जितने कार्य होते हैं उनका विभागीकरण इसी हिसाबसे किया जाता है। कहीं निमित्तको प्रमुखता दी जाती है और कहीं योग्यताको। पर इससे अन्य वस्तुका कर्तृत्व अन्यमें मानना उचित नहीं। ऐसे विभागीकरणके दिखलानेका इतना ही प्रयोजन है कि जहाँ जिस कार्यका जो सुनिश्चित निमित्त हो उसका परिज्ञान हो जावे। यों तो कार्य अपनी योग्यतासे होता है, किन्तु जिसका जिसके होने के साथ सुनिश्चित अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है वह उसका सुनिश्चित निमित्त कहा जाता है । इस हिसाबसे विचार करनेपर औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक ये चार नैमित्तिक भाव कहलाते हैं।
6254. उस एक आत्माके जो औपशमिक आदि भाव हैं, उनके कोई भेद हैं या नहीं ? भेद हैं । यदि ऐसा है तो इनके भेदोंका कथन करना चाहिए, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
उक्त पाँच भावोंके क्रमसे दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद हैं ॥2॥ 8255. संख्यावाची दो आदि शब्दोंका द्वन्द्व समास करके पश्चात उनका भेद शब्दके
1. संख्यात्वात्-मु.। 2. त्रयः। त एक भेदा:--मु. ।
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-213 § 258]
द्वितीयोऽध्यायः
[109 वेदितव्या । द्वौ च नव च अष्टादश च एकविंशतिश्च त्रयश्च द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयः । ते च ते भेदाश्च त एव भेदा येषामिति वा वृतिद्विनवाष्टादशैकविशतित्रिभेदा इति । यदा स्वपदार्थे वृत्तिस्तदा औपमकादीनां भावानां द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयो भेदा इत्यभिसंबन्धः क्रियते; अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति । यदान्यपदार्थे वृत्तिस्तदा निर्दिष्टविभक्त्यन्ता एवाभिसंबध्यन्ते, औपशमिकादयो भावा द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा इति । 'यथाक्रम'वचनं यथासंख्यप्रतिपत्त्यर्थम् । औपशमिको द्विभेदः । क्षायिको नवभेदः । मिश्रोऽष्टादशभेद: । औदयिक एकविंशतिभेदः । पारिणामिकस्त्रिभेद इति ।
8256. यद्येवमौपशमिकस्य कौ द्वौ भेदावित्यत आह
सम्यक्त्वचारित्रे ॥3॥
257. व्याख्यातलक्षणे सम्यक्त्वचारित्रे । औपशमिकत्वं कथमिति चेत् ? उच्यतेचारित्रमोहो द्विविधः कषायवेदनीयो नोकत्रायवेदनीयश्चेति । तत्र कषायवेदनीयस्य भेदा अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाद चत्वारः । दर्शनमोहस्य त्रयो भेदाः सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यग्मिय्यात्वमिति । आसां सप्तानां प्रकृतीनामुपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वम् ।
$ 258. अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशमः ? काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् - कर्माविष्ट आत्मा भव्यः कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनायेऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति । इयमेका काललब्धिः । अपरा साथ स्वपदार्थ में या अन्यपदार्थ में समास जानना चाहिए। स्वपदार्थ प्रधान समास यथा - द्वौ च नव च अष्टादश च एकविंशतिश्च त्रयश्च इति द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयः, ते एव भेदा: इति द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदाः । अन्यपदार्थप्रधान समास यथा— द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयो भेदा येषां ते द्विनवाष्टादशै कविंशतित्रिभेदाः । जब स्वपदार्थ में समास करते हैं तब औपशमिक आदि भावोंके दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद हैं ऐसा सम्बन्ध कर लेते हैं । यद्यपि पूर्व सूत्र में औपशमिक आदि पदको षष्ठी विभक्ति नहीं है तो भी अर्थवश विभक्ति बदल जाती है । और जब अन्य पदार्थों में समास करते हैं तब विभक्ति बदलने का कोई कारण नहीं रहता । सूत्रमें इनकी विभक्तिका जिस प्रकार निर्देश किया है तदनुसार सम्बन्ध हो जाता है । सूत्रमें 'यथाक्रम' वचन यथासंख्याके ज्ञान कराने के लिए दिया है। यथा - औपशमिक भावके दो भेद हैं, क्षायिकके नौ भेद हैं, मिश्रके अठारह भेद हैं, औदयिकके इक्कीस भेद हैं और पारिणामिकके तीन भेद हैं । 256. यदि ऐसा है तो औपशमिकके दो भेद कौन-से हैं ? इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
औपशभिक भावके दो भेद हैं-औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ॥ 3 ॥
$ 257. सम्यक्त्व और चारित्रके लक्षणका व्याख्यान पहले कर आये हैं । शंका- इनके औपशमिकपना किस कारण से है ? समाधान — चारित्रमोहनीयके दो भेद हैं- कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय । इनमें से कषायवेदनीयके अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद और दर्शनमोहनीयके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद - इन सातके उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है ।
8258. शंका-अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोंके उदयसे प्राप्त कलुषताके रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? समाधान काल्लब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है । अब यहाँ काललब्धिको बतलाते हैं - कर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गल परिवर्तन नाम1. दीनां द्विमु.
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110]
सर्वार्थसिद्धौ
[213 § 258
कर्मस्थितिका काललब्धिः । उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । क्व तर्हि भवति ? अन्तःकोटीकोटीसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्ध मापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात्सत्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपम सहस्रानायामन्तःकोटीकोटी सागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति । अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया । भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति । 'आदि' शब्देन जातिस्मरणादिः परिगृह्यते । 8 259. कृत्स्नस्य मोहनीयस्योपशमादौ पशमिकं चारित्रम् । तत्र सम्यक्त्वस्यादौ वचनं; तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रस्य ।
8 260. यः क्षायिको भावो नवविध उद्दिष्टस्तस्य भेदस्वरूपप्रतिपादनार्थमाहज्ञानदर्शनदान लाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥4॥
8261. 'च'शब्दः सम्यक्त्वचारित्रानुकर्षणार्थः । ज्ञानावरणस्यात्यन्तक्षयात्केवलज्ञानं के कालके शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण करने के योग्य होता है, इससे अधिक कालके शेष रहनेपर नहीं होता यह एक काललब्धि है । दूसरी काललब्धिका सम्बन्ध कर्म स्थितिसे है । उत्कृष्ट स्थितिवाले कर्मोंके शेष रहनेपर या जघन्य स्थितिवाले कर्मोंके शेष रहनेपर प्रथम सम्यक्त्वका लाभ नहीं होता। शंका- तो फिर किस अवस्थामें होता है ? समाधान- जब बँधनेवाले aat स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम पड़ती है और विशुद्ध परिणामोंके वशसे सत्ता में स्थित कर्मोकी स्थिति संख्यात हजार सागरोपम कम अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्राप्त होती है तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्वके योग्य होता है । एक काललब्धि भवकी अपेक्षा होती है- जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्त है और सर्वविशुद्ध है वह प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है । 'आदि' शब्दसे जातिस्मरण आदिका ग्रहण करना चाहिए ।
8259. समस्त मोहनीय कर्मके उपशमसे औपशमिक चारित्र होता है । इनमें से 'सम्यक्त्व' पदको आदिमें रखा है, क्योंकि चारित्र सम्यक्त्व पूर्वक होता है ।
विशेषार्थ - उपशम दो प्रकारका है—करणोपशम और अकरणोपशम । कर्मका अन्तरकरण होकर जो उपशम होता है वह करणोपशम कहलाता है। ऐसा उपशम दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दो का ही होता है, इसलिए उपशम भावके दो ही भेद बतलाये हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्तरकरण उपशम नहीं होता, इसलिए जहाँ भी इसके उपशमका विधान किया गया है वहाँ इसका विशुद्धि विशेषसे पाया गया अनुदयोपशम ही लेना चाहिए । औपशमिक सम्यग्दृष्टिके दर्शनमोहनीयका तो अन्तरकरण उपशम होता है व अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अनुदयरूप उपशम- यह उक्त कथनका भाव है । प्रकृतमें जिस जीवके औपशमिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है उसकी योग्यताका निर्देश करते हुए ऐसी चार यौग्यताएँ बतलायी हैं । विशेष इस प्रकार है-- पहली योग्यता अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालकी है । जिस जीवके संसारमें रहनेका इतना काल शेष रहा है उसे ही सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो सकती है । पर इतने कालके शेष रहनेपर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होनी ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । इसके पहले सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं होती इतना सुनिश्चित है ।
I
8260. जो क्षायिकभाव नौ प्रकारका कहा है उसके भेदोंके स्वरूपका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
क्षायिक भावके नौ भेद हैं-क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र ॥4॥ § 261. सूत्रमें 'च' शब्द सम्यक्त्व और चारित्रके ग्रहण करनेके लिए आया है । ज्ञाना
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-214 $ 261] द्वितीयोऽध्यायः
[111 क्षायिक तथा केवलदर्शनम् । दानान्तरायस्यात्यन्तक्षयादनन्तप्राणिगणानुग्रहकरं क्षायिकमभयदानम् । लाभान्तरायस्याशेषस्य निरासात् परित्यक्तकवलाहारक्रियाणां केवलिनां यतः शरीरबलाधानहेतवोऽन्यमनुजासाधारणाः परमशुभाः सूक्ष्माः अनन्ताः प्रतिसमयं पुद्गलाः संबन्धमुपयान्ति स. क्षायिको लाभः । कृत्स्नस्य भोगान्तरायस्य तिरोभावादाविर्भतोऽतिशयवाननन्तो भोगः क्षायिकः। यतः कुसुमवृष्टयादयो विशेषाः प्रादुर्भवन्ति । निरवशेषस्योपभोगान्तरायस्य प्रलयात्प्रादुर्भूतोऽनन्त उपभोगः क्षायिकः । यतः सिंहासनचामरच्छत्रयादयो विभूतयः। वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽत्यन्तक्षयादाविर्भूतमनन्तवीर्य क्षायिकम् । पूर्वोक्तानां सप्तानां प्रकृतीनामत्यन्तक्षयात्क्षायिकं सम्यक्त्वम् । चारित्रमपि तथा । यदि क्षायिकदानादिभावकृतमभयदानादि, सिद्धेष्वपि तत्प्रसङ्गः ? नैष दोषः; शरीरनामतीर्थकरनामकर्मोदयाद्यपेक्षत्वात् । तेषां तदभावे तदप्रसंगः । कथं तहि तेषां सिद्धेषु वृत्तिः ? परमानन्दाव्याबाधरूपेगव तेषां तत्र वृत्तिः । केवलज्ञानरूपेणानन्तवीर्यवृत्तिवत् । वरण कर्मके अत्यन्त क्षयसे क्षायिक केवलज्ञान होता है। इसी प्रकार केवलदर्शन भी होता है। दानान्तराय कर्मके अत्यन्त क्षयसे अनन्त प्राणियोंके समुदायका उपकार करनेवाला क्षायिक अभयदान होता है। समस्त लाभान्तराय कर्मके क्षय के कवलाहार क्रियासे रहित केवलियोंके क्षायिक लाभ होता है, जिससे उनके शरीरको बल प्रदान करने में कारणभूत, दूसरे मनुष्योंको असाधारण अर्थात् कभी न प्राप्त होनेवाले, परम शुभ और सूक्ष्म ऐसे अनन्त परमाणु प्रति समय सम्बन्धको प्राप्त होते हैं। समस्त भोगान्तराय कर्मके क्षयसे अतिशयवाले क्षायिक अनन्त भोगका प्रादुर्भाव होता है । जिससे कुसुमवृष्टि आदि अतिशय विशेष होते हैं । समस्त उपभोगान्तरायके नष्ट हो जानेसे अनन्त क्षायिक उपभोग होता है। जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्र आदि विभूतियाँ होती हैं । वीर्यान्तराय कर्मके अत्यन्त क्षयसे क्षायिक अनन्तवीर्य प्रकट होता है। पूर्वोक्त सात प्रकृतियोंके अत्यन्त विनाशसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है। इसी प्रकार क्षायिक चारित्रका स्वरूप समझना चाहिए। शंका-यदि क्षायिक दान आदि भावोंके निमित्तसे अभयदान आदि कार्य होते हैं तो सिद्धोंमें भी उनका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि इन अभयदान आदिके होने में शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्मके उदयकी अपेक्षा रहती है। परन्तु सिद्धोंके शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म नहीं होते, अत: उनके अभयदान आदि प्राप्त नहीं होते । शंका-तो सिद्धोंके क्षायिक दान आदि भावोंका सदभाव कैसे माना जाय ? समाधान-जिस प्रकार सिद्धोंके केवलज्ञान रूपसे अनन्तवीर्यका सद्भाव माना गया है उसी प्रकार परमानन्द और अव्याबाध रूपसे ही उनका सिद्धोंके सद्भाव है।
विशेषार्थ-घातिकर्मोंके चार भेद हैं—ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तय। इनमें से ज्ञानावरणक अभावस क्षायिक ज्ञान, दशनावरणक अभावसे क्षायिक दर्शन, मोहनीयके अभावसे क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र तथा अन्तरायके अभावसे क्षायिक दानादि पांच लब्धियाँ होती हैं। इसीसे क्षायिक भावके नौ भेद किये हैं। यद्यपि अघाति कर्मोके अभावसे जीवके क्षायिक अगुरुलघु आदि गुण प्रकट होते हैं पर वे अनुजीवी न होनेसे उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया है । प्रश्न यह है कि टीकामें जो अभयदान आदिको शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्मकी अपेक्षा रखनेवाले क्षायिक दान आदिके कार्य बतलाये हैं सो ऐसा बतलाना कहाँ तक उचित है ? बात यह है कि ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है कि तीर्थकरके गर्भ में आनेपर छह महीना पहलेसे भक्तिवश देव आकर, जिस नगरीमें तीर्थंकर जन्म लेते हैं वहाँ. रत्न 1. --यस्यात्यन्ताभा-मु । 2. --मानन्तवीर्याव्याबाधसुखरूपे-मु. ।--मानन्ताव्याबाधसुखरूप--आ., दि. 1,
दि.21
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1121 सर्वार्थसिद्धौ
-214 $ 262] 8 262. य उक्तः क्षायोपशमिको भावोऽष्टादशविकल्पस्तभेदनिरूपणार्थमाह-- ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥5॥
६ 263. चत्वारश्च त्रयश्च त्रयश्च पञ्च च चतुस्त्रित्रिपञ्च । ते भेदाः यासां ताश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः। यथाक्रममित्यनुवर्तते। तेनाभिसंबन्धाच्चतरादिभिर्ज्ञानादीन्यभिसंबध्यन्ते। चत्वारि ज्ञानानि, त्रीण्यज्ञानानि, त्रीणि दर्शनानि, पञ्च लब्धय इति। सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयवर्षा करते हैं। छप्पन कुमारिकाएँ आकर माताकी सेवा करती हैं, गर्भशोधन करती हैं, रक्षा करती हैं। तीर्थंकरके गर्भ में आनेपर देव-देवियाँ उत्सव मनाते हैं। जन्म, तप, केवल और निर्वाणके समय भी ऐसा ही करते हैं। केवलज्ञान होनेके बाद समवसरणकी रचना करते हैं, कुसुमवृष्टि करते हैं आदि । इसलिए मुख्यतः ये अभयदानादि देवादिकोंकी भक्ति और धर्मानुरागके कार्य हैं, शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्मकी अपेक्षा रखनवाले क्षायिक दान आदिके नहीं। फिर भी इन अभयदानादिको उपचारसे इनका कार्य कहा है। ऐसा नहीं माननेपर ये तीन दोष आते हैं--1. निर्वाण कल्याणकके समय शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्म नहीं रहता, इसलिए वह नहीं बन सकेगा। 2. गर्भमें आनेके पहले जो रत्नवर्षा आदि कार्य होते हैं उन्हें अकारण मानना पड़ेगा। 3. गर्भ, जन्म और तप कल्याणकके समय न तो क्षायिक दान आदि ही पाये जाते हैं और न तीर्थकर प्रकृतिका उदय ही रहता है, इसलिए इन कारणोंके
वसे इन्हें भी अकारण मानना पडेगा । इन सब दोषोंसे बचनेका एक ही उपाय है कि पांच कल्याणकोंको और समवसरण आदि बाह्य विभूतिको देवादिककी भक्ति और धर्मानुरागका कार्य मान लिया जाय । जिस प्रकार जिन-प्रतिमाका अभिषेक आदि महोत्सव भी इसीके कार्य हैं इसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। इसपर यह प्रश्न होता है कि उक्त कार्य भले ही देवादिककी भक्ति और धर्मानुराग वश होते हों पर जन्मकल्याणकके समय जो घण्टानाद आदि कार्य विशेष होते हैं उनका कारण तो धर्मानुराग और भक्ति नहीं है । यदि उनका कारण पुण्यातिशय माना जाता है तो शेष कार्योंका कारण पुण्यातिशय मानने में क्या आपत्ति है ? समाधान यह है कि जिस प्रकार एक अवपिणी या उत्सपिणीमें चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलभद्र आदिके होनेका नियम है-यह कर्म विशेषका कार्य नहीं। उस-उस कालके साथ ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है कि इस काल में इतने तीर्थंकर, इतने चक्रवर्ती आदि ही होंगे न्यूनाधिक नहीं, इसी प्रकार तीर्थकरके जन्मकालके साथ ऐसा हो निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है कि इस समय अमुक स्थानके अमक प्रकारके बाजे बजेंगे, इसलिए इसे कर्म विशेषका कार्य मानना उचित नहीं। कर्मकी अपनी मर्यादाएँ हैं। उन तक ही वह सीमित है। फिर भी मूलमें जिस स्थितिके रहते हुए ये कार्य होते हैं उस स्थितिको ध्यानमें रखकर उपचारसे उस स्थितिको इनका कारण कहा है। शेष कथन सुगम है।।
8 262. जो अठारह प्रकारका क्षायोपशमिक भाव कहा है उसके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
क्षायोपशमिक भावके अठारह भेद हैं-चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ।।5।।
$ 263. जिनक चार. तीन, तीन और पाँच भेद हैं वे चार, तीन, तीन और पांच भेदवाले कहलाते हैं । इस.सूत्रमें 'यथाक्रमम्' पदकी अनुवृत्ति होती है, जिससे चार आदि पदोंके साथ ज्ञान आदि पदोंका क्रमसे सम्बन्ध होता है । यथा-चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन और पाँच 1, पञ्च भेदा यासां-मु. ।
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- 215 8 263] प्रथमोऽध्यायः
[113 क्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघातिस्पर्द्धकानामुदये क्षायोपशमिको भावो भवति । तत्र ज्ञानादीनां वृत्तिः स्वावरणान्तरायक्षयोपशमाद् व्याख्यातव्या। 'सम्यक्त्व'ग्रहणेन वेदकसम्यक्त्वं गृह्यते । अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्वसम्यमिथ्यात्वयोश्चोदयक्षयात्सदुपशमाच्च सम्यक्त्वस्य देशघातिस्पर्द्धकस्योदये तत्त्वार्थश्रद्धानं क्षायोपशमिकं सम्क्क्त्व म् । अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानद्वादशकषायोदयक्षयात्सदुपशमाच्च संज्वलनकषायचतुष्टयान्यतमदेशघातिस्पर्द्धकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च निवृत्तिपरिणाम आत्मनः क्षायोपशमिकं चारित्रम् । अनन्तानुजयप्रत्याख्यानकषायाष्टकोदक्षयात्सदपशमाच्च प्रत्याख्यानकषायोदये संज्वलनकषायस्य देशघातिस्पर्द्धकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च विरताविरतपरिणामः क्षायोपशमिकः संयमासंयम इत्याख्यायते। लब्धियाँ । वर्तमान कालमें सर्वघाती स्पर्द्ध कोंका उदयाभावी क्षय होनेसे और आगामी कालकी अपेक्षा उन्हींका सदवस्था रूप उपशम होनेसे देशघाती स्पर्द्ध कोंका उदय रहते हुए क्षायोपशमिक भाव होता है । इन पूर्वोक्त भावोंमें-से ज्ञान आदि भाव अपने-अपने आवरण और अन्तराय कर्मके क्षयोपशमसे होते हैं ऐसा व्याख्यान यहाँ कर लेना चाहिए। सूत्रमें आये हए सम्यक्त्वपदसे वेदक सम्यक्त्व लेना चाहिए । तात्पर्य यह है कि चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व
और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशमसे देशघाती स्पर्धकवाली सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयमें जो तत्त्वार्थधद्धान होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। अनन्तानबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन बारह कषायोंके उदयाभावी क्षय होनेसे और इन्हीके सदवस्थारूप उपशम होनेसे तथा चार संज्वलनोंमें-से किसी एक देशप्राती प्रकतिके उदय होनेपर और नौ नोकषायोंका यथासम्भव उदय होनेपर जो संसारसे परी निवत्तिरूप परिणाम होता है वह क्षायोपशमिक चारित्र है । अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण इन आठ कषायोंके उदयाभावी क्षय होनेसे और सदवस्थारूप उपशम होनेसे तथा प्रत्याख्यानावरण कषायके और संज्वलन कषायके देशघाती स्पर्द्ध कोंके उदय होनेपर तथा नौ नोकषायोंके यथासम्भव उदय होनेपर जो विरताविरतरूप परिणाम होता हैं वह संयमासंयम कहलाता हैं।
विशेषार्थ-वर्तमान समयमें सर्वघाति स्पर्धकोंका उदयाभावी क्षय, आगामी कालकी अपेक्षा उन्हींका सदवस्थारूप उपशम और देशघाति स्पर्धकोंका उदय यह क्षयोपशमका लक्षण है। यह तो सुनिश्चित है कि अधिकतर देशघाति कर्म ऐसे होते हैं जिनमें देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारके स्पर्धक पाये जाते हैं। केवल नौ नोकषाय और सम्यक प्रकृति ये दस प्रकृतियाँ इसकी अपवाद हैं। इनमें मात्र देशघाति स्पर्धक ही पाये जाते हैं, अत: नौ नोकषायोंके सिवा शेष सब देशघाति कर्मोका क्षयोपशम सम्भव है, क्योंकि पूर्वोक्त लक्षणके अनुसार क्षयोपशममें दोनों प्रकारकी शक्तिवाले कर्म लगते हैं। सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व व सभ्यग्मिथ्यात्वसे मिलकर क्षायोपशमिक भावको जन्म देनेमें निमित्त होती है, इसलिए क्षायोपशमिक भावके कुल अठारह भेद ही घटित होते हैं। उदाहरणार्थ-ज्ञानावरणकी देशघाति प्रकृतियाँ चार हैं, अतः इनके क्षयोपशमसे चार ज्ञान प्रकट होते हैं, पर मिथ्यादष्टिके तीन अज्ञान और सम्यग्दृष्टिके चार ज्ञान इस प्रकार क्षायोपशमिक ज्ञानके कुल भेद सात होते हैं। इसीसे अठारह क्षायोपशमिक भावोंमें इन सात ज्ञानोंकी परिगणना की जाती है। प्रकृतमें दर्शन तीन और लब्धि पाँच क्षायोपशमिक भाव हैं यह स्पष्ट ही है। शेष रहे तीन भाव सो ये वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम लिये गये हैं। इन सब भावोंमें देशघाति स्पर्धकोंका उदय होता है, इसलिए इन्हें वेदक भाव भी कहते हैं। जितने भी क्षायोपशमिक भाव होते हैं वे देशघाति स्पर्धकोंके उदयसे वेदक भी कहलाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसमें सर्वघाति स्पर्धकों या सर्वघाति प्रकृतियोंका
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114] सर्वार्थसिद्धी
[216 8 264___$264. य एकविंशतिविकल्पऔदयिको भावउद्दिष्टस्तस्य'भेदसंज्ञासंकीर्तनार्थमिदमुच्यते-- गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्येकैकैकैकपडभेदाः ॥6॥
$ २६५. यथाक्रममित्यनुवर्तते, तेनाभिसंबन्धाद गतिश्चतुर्भेदा, नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिरिति । तत्र नरकगतिनामकर्मोदयानारको भावो भवतीति नरकगतिरौदयिकी। एवमितरत्रापि। कषायश्चतर्भेदः, क्रोधो मानो माया लोभ इति । तत्र क्रोधनिर्वर्तनस्य कर्मण उदयात्क्रोधः औदयिकः। एवमितरत्रापि। लिङ्गं त्रिभेदं, स्त्रीवेदः पुंवेदो नपुंसकवेद इति । स्त्रीवेदकर्मण उदयात्स्त्रीवेद औदयिकः। एवमितरत्रापि। मिथ्यादर्शनमेकभेदम् । मिथ्यादर्शनकर्मण उदयात्तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनमौदयिकम् । ज्ञानावरणकर्मण उदयात्पदार्थानवबोधो भवति तदज्ञानमौदयिकम् । चारित्रमोहस्य सर्वघातिस्पर्द्धकस्योदयादसंयत औदयिकः। कर्मोदयसामान्यापेक्षोऽसिद्ध औदयिकः। लेश्या द्विविधा, द्रव्यलेश्या भावलेश्या चेति। जीवभावाधिकाराद द्रव्यलेश्या नाधिकृता । भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकोत्युच्यते । वर्तमान समय में अनुदय रहता है, इसलिए इनका उदय कालके एक समय पहले उदयरूप स्पर्धकों या प्रकृतिमें स्तिक संक्रमण हो जाता है। प्रकृतमें इसे ही उदयाभावी क्षय कहते हैं। यहाँ स्वरूपसे उदय न होना ही क्षय रूपसे विवक्षित है। और आगामी कालमें उदयमें आने योग्य इन्हीं सर्वधाति स्पर्धकों व प्रकृतियोंका सदवस्थारूप उपशम रहता है। इसका आशय यह है कि वे सत्तामें रहते हैं। उदयवलिसे ऊपरके उन निषेकोंकी उदोरणा नहीं होती। मात्र उदयावलिमें स्तिवक संक्रमणके द्वारा इनका उदय कालसे एक समय पहले सजातीय देशघाति प्रकृति या स्पर्धकरूपसे संक्रमण होता रहता है। सर्वघाति अंशका उदय और उदीरणा न होनेसे जीवका निजभाव प्रकाशमें आता है और देशधाति अंशका उदय रहनेसे उसमें सदोषता आती है यह इस भावका तात्पर्य है।
264. अब जो इक्कीस प्रकारका औदयिक भाव कहा है उसके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
औदयिक भावके इक्कीस भेद हैं-चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्ध भाव और छह लेश्याएँ ॥6॥
8265. इस मूत्रमें 'यथाक्रमम्' पदकी अनुवृत्ति होती है, क्योंकि यहाँ उसका सम्बन्ध है। गति चार प्रकारकी है-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति । इनमें-से नरकगति नामकर्मके उदयसे नारकभाव होता है, इसलिए नरकगति औदयिक है। इसी प्रकार शेष तीन गतियोंका भी अर्थ करना चाहिए। कषाय चार प्रकारका है-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें से क्रोधको पैदा करनेवाले कर्मके उदयसे क्रोध औदयिक होता है। इसी प्रकार शेष तीन कषायोंको औदयिक जानना चाहिए। लिंग तीन प्रकारका है-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंकवेद । स्त्रीवेद कर्मके उदयसे स्त्रीवेद औदयिक होता है। इसी प्रकार शेष दो वेद औदयिक हैं। मिथ्यादर्शन एक प्रकारका है। मिथ्यादर्शन कर्मके उदयसे जो तत्त्वोंका अश्रद्धानरूप परिणाम होता है वह मिथ्यादर्शन है, इसलिए वह औदयिक है। पदार्थोके नहीं जाननेको अज्ञान कहते हैं। चूकि वह ज्ञानावरण कर्गके उदयसे होता है, इसलिए औदयिक है। असंयतभाव चारित्रमोहनीय कर्मके सर्वधातीस्पर्द्ध कोंके उदयसे होता है, इसलिए औदयिक है। असिद्धभाव कर्मोदय सामान्य की अपेक्षा होता है, इसलिए औदयिक है। लेश्या दो प्रकारकी है-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या। यहां जीवके भावोका अधिकार होनेसे द्रव्यलेश्या नहीं ली गयी है। चकि भावलेश्या कषायके 1‘संज्ञाकीर्त---आ., दि. 1, दि.2।
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-~-217 8 268] द्वितीयोऽध्यायः
[115 सा षड्विधा-कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या चेति ।
8266. ननु च उपशान्तकषाये क्षीणकषाये सयोगकेवलिनि च शक्ललेश्यास्तीत्यागमः। तत्र कायानुरजनाभावादोदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोष; पूर्वभावप्रज्ञापननया पेक्षया यासौ योगप्रवृत्तिः कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकोत्युच्यते । तदभावादयोगकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते। $ 267. यः पारिणामिको भावस्त्रिभेद उक्तस्तभेदस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह
जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥7॥ 8268. जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वमिति त्रयो भावाः पारिणामिका अन्यद्रव्यासाधारणा आत्मनो वेदितव्याः । कतः पुनरेषां पारिणामिकत्वम् । कर्मोदयोपशमक्षयक्षयोपशमानपेक्षित्वात । जोलत्वं दैतन्यमित्यर्थः । सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यतीति भव्यः । तद्विपरोतोऽभव्यः। त एते उदयसे अनुरंजित योगकी प्रवृत्तिरूप है, इसलिए वह औदयिक है ऐसा कहा जाता है। वह व्ह प्रकारको है-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पदमलेश्या और शुक्ललेश्या।
$ 266. शंका-उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थानमें शुक्ललेश्या है ऐसा आगम है, परन्तु वहाँपर कषायका उदय नहीं है इसलिए औदयिकपना नहीं बन सकता। समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योगप्रवृत्ति कषायोंके उदयसे अनुरंजित होती रही वह यह है इस प्रकार पूर्वभावप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उपशान्तकषाय आदि गुणस्थानोंमें भी लश्याको औदयिक कहा गया है। किन्तु अयोगकेवलीके योगप्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए वे लेश्यारहित हैं ऐसा निश्चय होता है।
विशेषार्थ-कर्मोको जातियाँ और उनके अवान्तर भेद अनेक हैं, इसलिए उनके उदयसे होने वाले भाव भो अनेक हैं, पर यहाँ मुख्य-मुख्य औदयिक भाव ही गिनाये गये हैं। ऐसे भाव इक्कोस होते हैं। प्रथम चार भेद चार गति हैं । ये गति-नामकर्म के उदयसे होते हैं। नामकर्म अघातिकर्म है। गति-नामकर्म उसीका एक भेद है। जो प्रकृतमें अन्य जीवविपाकी अघाति कर्मोंका उपलक्षण है। पूदगलविपाकी कर्मोके उदयसे जीवभाव नहीं होते, अत: उनकी यहाँपरिगणना नहीं की गयी है । धाति कर्मोम क्रोधादि चारों कषायोंके उदयसे क्रोधादि चार भाव हैं तीन वेदोंके उदयसे तीन लिंग होते हैं। तीन वेद उपलक्षण हैं। इनसे हास्य आदि छह भावोंका भो ग्रहण होता है । दर्शनमोहनोयके उदयसे मिथ्यादर्शन होता है। दर्शनावरणके उदयसे होनेवाले अदर्शनभावोंका इसी में ग्रहण होता है । ज्ञानावरगके उदयसे अज्ञानभाव होता है, असंयत भाव चारित्रमोहनीयके उदयका कार्य है और असिद्ध भाव सब कर्मोके उदयका कार्य है। रहीं लेश्याएँ सो ये कषाय और योग इनके मिलनेसे उत्पन्न हई परिणति विशेष हैं। फिर भी इनमें कर्मोदयको मख्यता होनेसे इनकी औदयिक भावोंमें परिगणना की गयी है। इन भावोंमें कर्मोका उदय निमित्त है, इसलिए इन्हें औदयिक कहते हैं।
8 267. अब जो तीन प्रकारका पारिणामिक भाव कहा है उसके भेदोंके स्वरूपका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पारिणामिक भावके तीन भेद हैं-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ॥7॥
8268. जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव अन्य द्रव्योंमें नहीं होते इसलिए ये आत्माके जानने चाहिए। शंका-ये पारिणामिक क्यों हैं? समाधान-ये तीनों भाव कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके बिना होते हैं, इसलिए पारिणामिक हैं। जीवत्वका 1.-पनापेक्ष आ., दि. 1, दि. 2 ।
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116] सर्वार्थसिद्धौ
[217 8 268त्रयो भावा जीवस्य पारिणामिकाः।
8 269. ननु चास्तित्वनित्यत्वप्र'देशवत्त्वादयोऽपि भावाः पारिणामिकाः सन्ति, तेषामिह ग्रहणं कर्तव्यम् । न कर्तव्यम् ; कृतमेव । कथम् ? 'च''शब्देन समुच्चितत्वात् । यद्येवं त्रय इति संख्या विरुध्यते । न विरुध्यते, असाधारणा जीवस्य भावाः पारिणामिकास्त्रय एव । अस्तित्वादयः पुनर्जीवाजीवविषयत्वात्साधारणा इति 'च'शब्देन पृथग्गृह्यन्ते। आह, औपशमिकादिभावानुप'पत्तिरमूर्तत्वादात्मनः । कर्मबन्धापेक्षा हि ते भावाः । न चामूर्तेः कर्मणां बन्धो युज्यत इति । तन्न; अनेकान्तात् । नायमेकान्तः अमूतिरेवात्मेति । कर्मबन्धपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मूर्तः । शुद्धस्वरूपापेक्षया स्यादमूर्तः । यद्येवं कर्मबन्धावेशादस्यैकत्वे सत्यविवेकः प्राप्नोति । नैष दोषः; बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादस्य नानात्वमवसीयते । उक्तं च--
"बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो हवइ तस्स णाणत्तं ।
तम्हा अमुत्तिभावो यंतो होइ जीवस्स ।।" इति । अर्थ चैतन्य है। जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है । वह भव्य कहलाता है। अभव्य इसका उलटा है। ये तीनों जीवके पारिणामिक भाव हैं।
8269. शंका--अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशवत्त्व आदिक भी भाव हैं उनका इस सूत्रमें ग्रहण करना चाहिए ? समाधान-अलगसे उनके ग्रहण करनेका कोई काम नहीं; क्योंकि उनका ग्रहण किया ही है । शंका-कैसे ? समाधान-क्योंकि सूत्रमें आये हुए 'च'शब्दसे उनका समुच्चय हो जाता है । शंका-यदि ऐसा है तो 'तीन' संख्या विरोधको प्राप्त होती है, क्योंकि इस प्रकार तीनसे अधिक पारिणामिक भाव हो जाते हैं ? समाधान-तब भी 'तीन' यह संख्या विरोधको नहीं प्राप्त होती, क्योंकि जीवके असाधारण पारिणामिक भाव तीन ही हैं। अस्तित्वादिक तो जीव और अजीव दोनोंके साधारण हैं इसलिए उनका 'च'शब्दके द्वारा अलगसे ग्रहण किया है। शंका-औपशमिक आदि भाव नहीं बन सकते; क्योंकि आत्मा अमूर्त है। ये औपशमिक आदि भाव कर्मबन्धको अपेक्षा होते हैं परन्तु अमूर्त आत्माके कर्मोंका बन्ध नहीं बनता है ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्माके अमर्तत्वके विषयमें अनेकान्त है। यह कोई एकान्त नहीं कि आत्मा अमूर्त ही है । कर्मबन्धरूप पर्यायकी अपेक्षा उसका आवेश होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूपको अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है । शंका-यदि ऐसा है तो कर्मबन्धके आवेशसे आत्माका ऐक्य हो जानेपर आत्माका उससे भेद नहीं रहता ? समाधानयह कोई दोष नहीं, क्योंकि यद्यपि बन्धकी अपेक्षा अभेद है तो भी लक्षणके भेदसे कर्मसे आत्माका भेद जाना जाता है। कहा भी है
'आत्मा बन्धकी अपेक्षा एक है तो भी लक्षणकी अपेक्षा वह भिन्न है। इसलिए जीवका अमूर्तिकभाव अनेकान्तरूप है । वह एक अपेक्षासे है और एक अपेक्षासे नहीं है।
विशेषार्थ—पारिणामिक भाव तीन हैं --जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । जीवत्वके दो भेद हैं—एक जीवन-क्रियासापेक्ष और दूसरा चैतन्यगुणसापेक्ष । जीवनक्रिया प्राणसापेक्ष होती है, इसलिए ऐसे जीवत्वकी मुख्यता नहीं है, यहाँ तो चैतन्यगुणसापेक्ष जीवत्वकी ही मुख्यता है । यह सब जीवोंमें समानरूपसे पाया जाता है और कारणनिरपेक्ष होता है, इसलिए इसे पारिणामिक कहा है। यही बात भव्यत्व और अभव्यत्वके सम्बन्धमें भी जाननी चाहिए, क्योंकि ये दोनों भाव भी कारणनिरपेक्ष होते हैं । साधारणतः जिनमें रत्नत्रय गुण प्रकट होनेकी योग्यता होती है वे 1. प्रदेशत्वा-आ., दि. 1 दि. 2, मु.। 2. कथं चेच्चशब्देन मु.। कथं चेतनशब्देन आ.। 3. ते । न चामूर्तेः कर्मणा आ. दि. 1, दि. 2; ता., ना.। 4. प्रत्येकत्वे (विवेके) सत्य-मु.।
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द्वितीयोऽध्यायः
8270. यद्येवं तदेव लक्षणमुच्यतां येन नानात्वमवसीयते इत्यत आहउपयोगो लक्षणम् ॥8॥
-219 § 273]
8271. उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः । तेन बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यप्यात्मा लक्ष्यते सुवर्णरजतयोर्बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि वर्णादिभेदवत् । $ 272 तद्भेदप्रदर्शनार्थमाह
[117
सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥ 9॥
8273. स उपयोगो द्विविधः -- ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति । ज्ञानोपयोगोऽष्टभेदःमतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं केवलज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं चेति । दर्शनोपयोगश्चतुर्विधः -- चक्षुर्दर्शनमचक्षुदर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति । तयोः कथं भेदः ? भव्य कहलाते हैं और जिनमें ऐसी योग्यता नहीं होती उन्हें अभव्य कहते | जीव में ये दोनों प्रकारकी योग्यताएँ स्वभावसे होती हैं । इसीसे भव्यत्व और अभव्यत्व ये दोनों भाव भी पारिमिक माने गये हैं । अभिप्राय यह है कि किन्हीं जीवोंका स्वभावसे अनादि-अनन्त बन्ध होता है और किन्हींका अनादिसान्त । जीवोंका इस तरहका बन्ध कारणनिरपेक्ष होता है । यह किसी कर्मविशेषका कार्य नहीं है, किन्तु ऐसी योग्यता पारिणामिक मानी गयी है । इसीसे जीवत्वके साथ भव्यत्व और अभव्यत्व ये दोनों भाव भी कहे गये हैं । यद्यपि जीवमें अस्तित्व आदि और बहुत से पारिणामिक भाव पाये जाते हैं पर वे जीवके असाधारण धर्म न होनेसे उनकी यहाँ परिगणना नहीं की गयी है ।
1
इन भावोंके सम्बन्धमें मुख्य प्रश्न यह है कि जब कि जीव अमूर्त है ऐसी दशा में उसका कर्म के साथ बन्ध नहीं हो सकता और कर्मबन्ध के अभाव में औपशमिक आदि भावोंकी उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि पारिणामिक भावोंके सिवा शेष भाव कर्मनिमित्तक माने गये हैं ? उत्तर यह है कि कर्मका आत्मासे अनादि सम्बन्ध है, इसलिए कोई दोष नहीं आता । आशय यह है कि संसार अवस्थामें जीवका कर्मके साथ अनादिकालीन बन्ध होनेके कारण वह व्यवहारसे मूर्त हो रहा है। और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि मदिरा आदिका सेवन करनेपर ज्ञानमें मूर्च्छा देखी जाती है । पर इतने मात्र से आत्माको मूर्तस्वभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये पुद्गल के धर्म हैं । आत्मा मूर्तरूप इन धर्मोसे भिन्न उपयोगस्वभाववाला है। 8270. यदि ऐसा है तो वही लक्षण कहिए जिससे कर्मसे आत्माका भेद जाना जाता है, इसी बात को ध्यान में रखकर आगेका सूत्र कहते हैं
उपयोग जीवका लक्षण है ॥8॥
$ 271. जो अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके निमित्तोंसे होता है और चैतन्यका अन्वयी है अर्थात् चैतन्यको छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता वह परिणाम उपयोग कहलाता । यद्यपि आत्मा बन्धकी अपेक्षा एक है तो भी इससे वह स्वतन्त्र जाना जाता है । जिस प्रकार स्वर्ण और चाँदी बन्धकी अपेक्षा एक हैं तो भी वर्णादिके भेदसे उनमें पार्थक्य रहता है उसीप्रकार प्रकृतमें समझना चाहिए ।
8272. अब उपयोग के भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वह उपयोग दो प्रकारका है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है और दर्शनोपयोग चार प्रकारका है ॥9॥
8273. वह उपयोग दो प्रकारका है, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान,
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118]
सर्वार्थसिद्धौ
[219 § 273
साकारानाकारभेदात् । साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति । तच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते । निरावरणेषु युगपत् पूर्वकालभाविनोऽपि दर्शनाज्ज्ञानस्य प्रागुपन्यासः ; अर्ध्याहतत्वात् ! सम्यग्ज्ञानप्रकरणात्पूर्वं पञ्चविधो ज्ञानोपयोगो व्याख्यातः । इह पुनरुपयोगग्रहणाद्विपर्ययोऽपि गृह्यते इत्यष्ट-:विध' इति उच्यते ।
274. यथोक्तेनानेनाभिहितपरिणामेन सर्वात्मसाधारणेनोपयोगेन ये उपलक्षिता उपयोगिनस्ते द्विविधाः ---
संसारिणो मुक्ताश्च || 10
और विभंगज्ञान । दर्शनोपयोग चार प्रकारका है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन |
शंका- इन दोनों उपयोगोंमें किस कारण से भेद है ? समाधान साकार और अनाकारके भेदसे इन दोनों उपयोगोंमें भेद है । साकार ज्ञानोपयोग है और अनाकार दर्शनोपयोग है। ये दोनों छद्मस्थोंमें क्रमसे होते हैं और आवरणरहित जीवोंमें युगपत् होते हैं । यद्यपि दर्शन पहले होता है तो भी श्रेष्ठ होनेके कारण सूत्रमें ज्ञानको दर्शनसे पहले रखा है । सम्यग्ज्ञानका प्रकरण होने के कारण पहले पाँच प्रकारके ज्ञानोपयोगका व्याख्यान कर आये हैं । परन्तु यहाँ उपयोगका ग्रहण करनेसे विपर्ययका भी ग्रहण होता है, इसलिए वह आठ प्रकारका कहा है ।
विशेषार्थ - यहाँ जीवका लक्षण उपयोग बतलाकर उसके भेदोंकी परिगणना की है । उपयोगके मुख्य भेद दो हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ये दोनों प्रकारके उपयोग सब जीवों के पाये जाते हैं । इनके अवान्तर भेद कई हैं जो निमित्तविशेषसे होते हैं । ज्ञानावरण और दर्शनावरणके अवान्तर भेदोंका यथायोग्य क्षयोपशम और क्षय तथा दर्शनमोहनीयका उदयादि ये प्रधान निमित्त हैं । इनके कारण दोनों प्रकारके उपयोग बारह भेदोंमें विभक्त हो जाते हैं । इस प्रकार ज्ञानोपयोग के आठ और दर्शनोपयोग के चार भेद प्राप्त होते हैं । मुख्यतया संसारी जीवके एक काल में एक उपयोग और केवलीके दो उपयोग होते हैं। पर नाना जीवों की अपेक्षा परिगणना करनेपर वे बारह होते हैं । यद्यपि प्रथम अध्यायमें एक जीवके एक साथ चार ज्ञान बतला आये हैं और जिसके एक साथ चार ज्ञान होंगे उसके उसी समय तीन दर्शन भी पाये जायेंगे, पर यह कथन क्षयोपशमकी प्रधानतासे किया गया जानना चाहिए। एक जीवके एक कालमें मतिज्ञानावरण आदि चार ज्ञानावरण और चक्षुदर्शनावरण आदि तीन दर्शनावरण इन सात कर्मोंका क्षयोपशम हो सकता है पर तत्त्वतः उनके उस समय उपयोग एक ही होगा । क्षयोपशम ज्ञानोत्पत्ति और दर्शनोत्पत्ति में निमित्त है और उपयोग ज्ञान दर्शनकी प्रवृत्ति । जीवमें ज्ञान और दर्शन गुणकी धारा निरन्तर प्रवर्तित होती रहती है । वह जिस समय बाह्य और अन्तरंग जैसा निमित्त मिलता है उसके अनुसार काम करने लगती है । इतना अवश्य है कि संसार अवस्था में वह मलिन, मलिनतर और मलिनतम रहती है और कैवल्य लाभ होनेपर वह विशुद्ध हो जाती है फिर उसकी प्रवृत्तिके लिए अन्तरंग व बाह्य कारण अपेक्षित नहीं रहते ।" ही कारण है कि यहाँ जीवका लक्षण उपयोग कहा है ।
8 274. सब आत्माओंमें साधारण उपयोगरूप जिस आत्मपरिणामका पहले व्याख्यान या है उससे उपलक्षित सव उपयोगवाले जीव दो प्रकारके हैं, इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
--
जीव दो प्रकारके हैं- संसारी और मुक्त ||ion
1. विष उच्यते दि. 2, मु. 1
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--2110 § 276]
द्वितीयोऽध्यायः
[119
8275. संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः । स एषामस्ति ते संसारिणः । तत्परिवर्तनं पञ्चविधम्----द्रव्यपरिवर्तनं क्षेत्रपरिवर्तनं कालपरिवर्तनं भवपरिवर्तनं भावपरिवर्तनं चेति । तत्र द्रव्यपरिवर्तनं द्विविधम्---नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं कर्मद्रव्यपरिवर्तनं चेति । तत्र नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां च योग्या ये पुद्गला एकेन जीवेन एकस्मिन्समये गृहीताः स्निग्धरूक्षवर्णगन्धादिभिस्तोत्रमन्दमध्यमभावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णा अगृहीताननन्तवारानतीत्य मिश्रकांश्चानन्तवारानतीत्य मध्ये गृहीतांश्चानन्तवारानतीत्य त एव तेभव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनम् । कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते---- एकस्मिन्समये एकेन जीवेनाष्टविधकर्मभावेन ये गृहीताः पुद्गलाः साधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णाः, पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण तस्थ जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनम् । उक्तं च----
" सव्वे वि पुग्गला खलु कमसो भुत्तुज्झिया य जीवेण । ' तो पुलपरियट्टसंसारे" ।। "
8276. क्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते--सूक्ष्म निगोदजीवोऽपर्याप्तकः सर्वजघन्यप्रदेशशरीरो लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान्स्वशरीरमध्ये कृत्वोत्पन्नः क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृतः । स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तया त्रिस्तथा चतुरित्येवं यावद् 'घनांगुलस्यासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रदेशास्तावत्कृत्व8275. संसरण करनेको संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिवर्तन है । यह जिन जीवोंके पाया जाता है वे सारी हैं। परिवर्तन के पाँच भेद हैं-द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन । द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद हैं-नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन और कर्म द्रव्यपरिवर्तन । अव नोकर्म द्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप कहते हैं- किसी एक जीवने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलोंको एक समय में ग्रहण किया । अनन्तर वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा वर्ण और गन्ध आदिके द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यम भावरूप से ग्रहण किये थे उस रूपसे अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयोंमें निर्जीर्ण हो गये । तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओंको अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा, मिश्र परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा और बीच में हीत परमाणओंको अनन्त वार ग्रहण करके छोड़ा। तत्पश्चात् जब उसी जीवके सर्वप्रथम ग्रहण किये गये वे ही नोकर्म परमाणु उसी प्रकारसे नोकर्म भावको प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन होता | अब कर्मद्रव्यपरिवर्तनका कथन करते हैंएक जीवने आठ प्रकारके कर्मरूपसे जिन पुद्गलोंको ग्रहण किया, वे समयाधिक एक आवलीFree बाद द्वितीयादिक समयोंमें झर गये । पश्चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तनमें बतलाया है उसी क्रमसे वे ही पुद्गल उसी प्रकारसे उस जीवके जब कर्मभावको प्राप्त होते हैं तब यह सब एक कर्म द्रव्यपरिवर्तन कहलाता है । कहा भी है
'इस जीवने सभी पुद्गलोंको क्रमसे भोगकर छोड़ दिया। और इस प्रकार यह जीव असकृत अनन्तबार पुद्गल परिवर्तनरूप संसारमें घूमता है । '
8276. अत्र क्षेत्रपरिवर्ततका कथन करते हैं-- जिसका शरीर आकाशके सबसे कम प्रदेशोंपर स्थित है ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव लोकके आठ मध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीकर मर गया। पश्चात् वही tray: उसी अवगाहनासे वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथी बार 1. अच्छइ अणं-- दि. 1, दि. 2, आ., मु. 12. बा. अणु, गा. 25 । 3. शरीरमध्यप्रदेशान् कृत्वा मु. । 4, यावदङ्गुलस्या - दि. 1, दि. 2, आ. ।
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120] सर्वार्थसिद्धौ
[2110 8 278स्तत्रैव जनित्वा पुनरेकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्वो लोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीतो भवति याव'त्तावत्क्षेत्रपरिवर्तनम् । उक्तं च----
1"सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तं णत्थि जंण उप्पण्णं ।
____ ओगाहणाए- बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे॥" 8277. कालपरिवर्तनमुच्यते----उत्सपिण्याः प्रथमसमये जातः कश्चिज्जीवः स्वायुषः परिसमाप्तौ मृतः । स एव पुनद्वितीयाया उत्सपिण्या द्वितीयसमये जातः स्वायुषः क्षयान्मृतः । स एव पुनस्तृतीयाया उत्सपिण्यास्तृतीयसमये जातः । एवमनेन क्रमेणोत्सपिणी परिसमाप्ता। तथावसर्पिणी च । एवं जन्मनरन्तर्यमुक्तम् । मरणस्यापि नैरन्तयं तथैव ग्राह्यम् । एतावत्कालपरिवर्तनम् । उक्तं च----
5लस्सप्पिणिअवसप्पिणिसमयावलियासु णिरवसेसासु।
जादो मुदो य बहुसो भमणेण दु कालसंसारे ॥" 8278. भवपरिवर्तनमुच्यते----नरकगतौ सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि । तेनायुषा तत्रोत्पन्नः पुनः परिभ्रम्य तेनेवायुषा जातः । एवं दशवर्षसहस्राणां यावन्तः समयास्तावत्कृत्वस्तव जातो मतः । पूनरेकैकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि । ततः प्रच्यत्य तिर्यग्गतावन्तर्मुहुर्तायुः समुत्पन्नः । पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त्रीणि पल्योपमानि तेन परिसमापितानि । उत्पन्न हुआ। इस प्रकार घनांगुलके असंख्यातवें भागमें आकाशके जितने प्रदेश प्राप्त हों उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ। पून: उसने आकाशका एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोकको अपना जन्मक्षेत्र बनाया। इस प्रकार यह सब मिलकर एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है । कहा भी है
___'सब लोक क्षेत्रमें ऐसा एक प्रदेश नहीं है जहाँ यह अवगाहनाके साथ क्रमसे नहीं उत्पन्न हुआ । इस प्रकार इस जीवने क्षेत्र संसारमें अनेक बार परिभ्रमण किया।'
8277. अब कालपरिवर्तनका कथन करते हैं कोई जीव उत्सर्पिणीके प्रथम समयमें उत्पन्न हुआ और आयुर्के समाप्त हो जानेपर मर गया । पुनः वही जीव दूसरी उत्सर्पिणीके दूसरे समयमें उत्पन्न हुआ और अपनी आयुके समाप्त होनेपर मर गया। पुन: वही जीव तीसरी उत्सपिणीके तीसरे समयमें उत्पन्न हआ। इस प्रकार इसने क्रमसे उत्सपिणी समाप्त की और इसी प्रकार अवसर्पिणी भी। यह जन्मका नैरन्तर्य कहा । तथा इसी प्रकार मरण का भी नैरन्तर्य लेना चाहिए। इस प्रकार यह सब मिलकर एक कालपरिवर्तन है। कहा भी है
कालसंसारमें परिभ्रमण करता हआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके सब समयोंमें अनेक बार जन्मा और मरा।'
8278. अब भवपरिवर्तनका कथन करते हैं-नरकगतिमें सबसे जघन्य आय दस हजार वर्षकी है। एक जीव उस आयुसे वहाँ उत्पन्न हुआ, पुनः घूम-फिरकर उसी आयुसे वहीं उत्पन्न हआ। इस प्रकार दस हजार वर्षके जितने समय हैं उतनी बार वहीं उत्पन्न हआ और मरा। पूनः आयूके एक-एक समय बढ़ाकर नरककी तेंतीस सागर आयु समाप्त की। तदनन्तर नरकसे निकलकर अन्तर्मुहूर्त आयुके साथ तिर्यंचगतिमें उत्पन्न हुआ। और पूर्वोक्त क्रमसे उसने तिर्यंचगतिकी तीन पल्योपम आयु समाप्त की। इसी प्रकार मनुष्यगतिमें अन्तर्मुहूर्तसे लेकर तीन पल्योपम आयु समाप्त की। तथा देवगतिमें नरकगतिके समान आयु समाप्त की। किन्तु देव1. बा. आ., आयु., गा. 26 । 2. --हणेण बहुसो मु., ना.। 3. एव तृती-आ., दि. 1, दि. 2 । 4. मरणमपि तथैव ग्रा-ता. । मरणस्यापि तथव ग्रा.----ना.। 5. बा. अण, गा. 271
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--2110 8 279] द्वितीयोऽध्यायः
[121 एवं मनुष्यगतौ च । देवगतौ च नारकवत् । अयं तु विशेषः---एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमा. पितानि यावत्तावद् भवपरिवर्तनम् । उक्तं च
"णिरयादिजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लया दु गेवज्जा।
मिच्छत्तसंसिदेण दु बहुसो वि भवट्ठिदी भमिदा।" 8 279. भावपरिवर्तनमुच्यते---पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तको मिथ्यावृष्टिः कश्चिज्जीवः स सर्वजघन्यां स्वयोग्यां ज्ञानावरणप्रकृतेः स्थितिमन्तःकोटीकोटीसंज्ञिकामापद्यते । तस्य कषायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि तत्स्थितियोग्यानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थाननिमित्तान्यनुभागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि भवन्ति। एवं सर्वजघन्यां स्थिति सर्वजघन्यं च कषायाध्यवसायस्थानं सर्वजघन्यमेवानुभागबन्धस्थानमास्कन्दतस्तद्योग्यं सर्वजघन्यं योगस्थानं भवति। तेषामेव स्थितिकषायानुभागस्थानानां द्वितीयमसंख्येयभागवृद्धियुक्तं योगस्थानं भवति । एवं च तृतीयादिषु चतुःस्थानपतितानि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा तामेव स्थिति तदेव कषायाध्यवसायस्थानं च प्रतिपद्यमानस्य द्वितीयमनुभवाध्यवसायस्थानं भवति । तस्य च योगस्थानानि पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि गतिमें इतनी विशेषता है कि यहाँ इकतीस सागरोपम आयु समाप्त होने तक कथन करना चाहिए। इस प्रकार यह सब मिलकर एक भवपरिवर्तन है । कहा भी है
'इस जीवने मिथ्यात्वके संसर्गसे उपरिम वेयक तक नरक आदि गतियोंकी जघन्य आदि स्थितियोंमें उत्पन्न हो-होकर अनेक बार परिभ्रमण किया।'
6279. अब भावपरिवर्तनका कथन करते हैं-पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृतिकी सबसे जघन्य अपने योग्य अन्तःकोडाकोडीप्रमाण स्थितिको प्राप्त होता है। उसके उस स्थितिके योग्य षट्स्थानपतित असंख्यात लोकप्रमाण कषायअध्यवसाय स्थान होते हैं। और सबसे जघन्य इन कषायअध्यवसायस्थानोंके निमित्तसे असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागअध्यवसायस्थान होते हैं । इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषायअध्यवसायस्थान और सबसे जघन्य अनुभागअध्यवसायस्थानको धारण करनेवाले इस जीवके तद्योग्य सबसे जघन्य योगस्थान होता है । तत्पश्चात् स्थिति, कषायअध्यवसायस्थान और अनुभागअध्यवसायस्थान वही रहते हैं, किन्तु योगस्थान दूसरा हो जाता है जो असंख्यात भागवृद्धिसंयुक्त होता है। इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि योगस्थानोंमें समझना चाहिए। ये सब योगस्थान चार स्थान पतित होते हैं और इनका प्रमाण श्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तदनन्तर उसी स्थिति और उसी कषायअध्यवसायस्थानको धारण करनेवाले जीवके दूसरा अनूभागअध्यवसायस्थान होता है। इसके योगस्थान पहलेके समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ भी पूर्वोक्त तीनों बातें ध्रुव रहती हैं किन्तु योगस्थान जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागअध्यवसायस्थानोंके होने तक तीसरे आदि अनुभाग अध्यवसायस्थानोंमें जानना चाहिए । तात्पर्य यह है कि यहाँ स्थिति और कषाय अध्यवसायस्थान तो जघन्य ही रहते हैं किन्तु अनुभागअध्यवसायस्थान क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण हो जाते हैं और एक-एक अनुभागअध्यवसायस्थानके प्रति जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थान होते हैं। तत्पश्चात् उसी स्थितिको प्राप्त होनेवाले जीवके दूसरा कषायअध्यवसायस्थान होता है। इसके भी अनुभागअध्यवसायस्थान और योगस्थान पहलेके समान जानना चाहिए। अर्थात् 1. च तिर्यंचवत् । मू., ता.। 2. बा. अ. गा. 28 1 3. -नुभवाध्य- दि.। 4. -दिषु योगस्थानेषु चतुः --मु., ता.।
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122] सर्वार्थसिद्धौ
[2110 8 279~अनुभवाध्यवसायस्थानेषु आ असंख्येयलोकपरिसमाप्तेः। एवं तामेव स्थितिमापद्यमानरय द्वितीयं करायाध्यवसायस्थानं भवति । तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि। एवं तृतीयादिष्वपि कलायाध्यवसायस्थानेष आ असंख्येयलोकपरिसमाप्लेव द्धिक्रमो वेदितव्यः। उक्ताया जघन्यायाः स्थितेः समयाधिकायाः कषायादिस्थानानि पूर्ववत् । एवं समयाधिकक्रमेण आ उत्कृष्टस्थितेस्त्रिशत्सागरोपमकोटोकोटीपरिमितायाः कषायादिस्थानानि वेदितव्यानि । अनन्तभागवृद्धिः असंख्येयभागवृद्धिः संख्येयभागवृद्धिः संख्येयगुणवृद्धिः असंख्येयगुणवृद्धिः अनन्तगुणवृद्धिः इमानि षट् वृद्धिस्थानानि । हानिरपि तथैव । अनन्तभागवृद्ध्यनन्तगुणवृद्धिरहितानि चत्वारि स्थानानि । एवं सर्वेषां कर्मणां मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च परिवर्तनकमो वेदितव्यः । तदेतत्सर्वं समुदितं भावपरिवर्तनम् । उक्तं च
3'सव्व। पयडिट्ठिदीओ अणुभागपदेसबंधठाणाणि ।
मिच्छत्तसंसिदेण य भमिदा पुण भावसंसारे ॥" 8 280. उक्तात्पञ्चविधात्संसारान्निवृत्ता ये ते मुक्ताः । संसारिणां प्रागुपादानं तत्पूर्वकत्वान्मुक्तव्यपदेशस्य। एक-एक कषायअध्यवसायस्थानके प्रति असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागअध्यवसायस्थान होते हैं और एक-एक अनुभागअध्यवसायस्थानके प्रति जगश्रेणीके असंख्यातवे भागप्रमाण योगस्थान होते हैं। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण कषायअध्यवसायस्थानोंके होने तक तीसरे आदि कषायअध्यवसायस्थानोंमें वृद्धिका क्रम जानना चाहिए। जिस प्रकार सबसे जघन्य स्थितिके कषायादि स्थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्य स्थितिके भी कषायादि स्थान जानना चाहिए और इसी प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे तोस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितितक प्रत्येक स्थितिविकल्पके भी कषायादि स्थान जानना चाहिए। अनन्त भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि इस प्रकार ये वृद्धिके छह स्थान हैं तथा इसी प्रकार हानि भी छह प्रकारकी है। इनमेंसे अनन्त भागवद्धि और अनन्त गुणवृद्धि इन दो स्थानोंके कम कर देनेपर चार स्थान होते हैं। इसी प्रकार सब मूल प्रकृतियोंका और उनकी उत्तर प्रकृतियोंके परिवर्तनका क्रम जानना चाहिए। यह सब मिलकर एक भावपरिवर्तन होता है। कहा भी है.--.
'इस जीवने मिथ्यात्वके संसर्गसे सब प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्धके स्थानों को प्राप्त कर भावसंसारमें परिभ्रमण किया।'
8 280. जो उक्त पाँच प्रकारके संसारसे निवृत्त हैं वे मुक्त हैं । सूत्र में 'संसारि' पदका पहले ग्रहण किया, क्योंकि 'मुक्त' यह संज्ञा संसारपूर्वक प्राप्त होती है।।
विशेषार्थ----जीवके मुख्य भेद दो हैं---संसारी और मुक्त । ये भेद जीवकी बद्ध और अबद्ध अवस्थाको ध्यान में रखकर किये गये हैं। वस्तुत: ये जीवकी दो अवस्थाएँ हैं। पहले जोव बट अवस्थामें रहता है. इसलिए उसे संसारी कहते हैं और बाद में उसके मुक्त होनेपर वही मक्त कहलाता है। जीवका संसार निमित्त-सापेक्ष होता है, इसलिए इस अपेक्षासे संसारके पाँच भेद किये गये हैं-द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार और भावसंसार। इनका दूसरा नाम परिवर्तन भी है। द्रव्य पदसे कर्म और नोकर्म लिये गये हैं, क्षेत्र पद से लोकाकाशके प्रदेशोंका ग्रहण किया है, काल पदसे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणो सम्बन्धी समयका ग्रहण किया है, भव पदसे जीवकी नर नारक आदि अवस्थाओंका ग्रहण किया है और भाव पदसे जीवके योग 1. पूर्ववदेकसम-मु.। 2. ---स्थानानि (पूर्ववत्) वेदि-मु.। 3. बा. अणु. गा. 29 ।
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[123
-2112 5 284]
द्वितीयोऽध्यायः $ 281. य एते संसारिणस्ते द्विविधाः
समनस्कामनस्काः ॥11॥ 8 282. मनो द्विविधम्-द्रव्यमनो भावमनश्चेति । तत्र पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्ष द्रव्यमनः । वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षा आत्मनो विशुद्धिर्भावमनः। तेन मनसा सह वर्तन्त इति समनस्काः। न विद्यते मनो येषां त इमे अमनस्काः । एवं मनसो भावाभावाभ्यां संसारिणो द्विविधा विभज्यन्ते । समनस्काश्वामनस्काश्च समनस्कामनस्का इति। अभ्यहितत्वात्समनस्कशब्दस्य पूर्वनिपातः । कयमभ्यहितत्वम् ? गुणदोषविचारकत्वात् । 8283. पुनरपि संसारिणां भेदप्रतिपत्त्यर्थमाह
संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥12॥ $ 284. 'संसारि' ग्रहणमनर्थकम् ; प्रकृतत्वात् । क्व प्रकृतम् ? 'संसारिणो मुक्ताश्च' इति । नानर्थकम्, पूर्वापेक्षार्थम् । ये उक्ताः समनस्का अमनस्कास्ते संसारिण इति। यदि हि पूर्वस्य विशेषणं न स्यात्, समनस्कामनस्क ग्रहणं संसारिणो मुक्ताश्चेत्यनेन यथासंख्यमभिसंबध्येत ।
और कषायस्थान विवक्षित हैं। इन द्रव्यादिके निमित्तसे संसारमें जीवका परिभ्रमण किस प्रकार होता रहता है यही यहाँ बतलाया गया है। इन परिवर्तनोंके होनेमें उत्तरोत्तर अधिक-अधिक काल लगता है। मुख्यरूपसे जीवका संसार सम्यग्दर्शनके प्राप्त होनेके पूर्वतक माना गया है, इससे ये परिवर्तन जीवको मिथ्यात्व अवस्थामें होते हैं यह सिद्ध होता है । सम्यग्दर्शनके होनेपर जीवका ईषत् संसार शेष रहनेपर भी वह इन परिवर्तनोंसे मुक्त हो जाता है । पूर्ण मोक्ष मुक्त अवस्था में होता है । इसीसे जीवके संसारी और मुक्त ये दो भेद किये गये हैं।
$ 281. पहले जो संसारी जीव कह आये हैं वे दो प्रकारके हैं । आगेके सूत्र-द्वारा इसी बातको बतलाते हैं
मनवाले और मनरहित ऐसे संसारी जीव हैं ॥11॥
8282. मन दो प्रकारका है----द्रव्यमन और भावमन । उनमें-से द्रव्यमन पुदगलविपाकी अंगोपांग नामकर्मके उदयसे होता है तथा वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माको विशुद्धिको भावमन कहते हैं। यह मन जिन जीवोंके पाया जाता है वे समनस्क हैं। और जिनके मन नहीं पाया जाता है वे अमनस्क हैं। इस प्रकार मनके सद्भाव और असद्भावको अपेक्षा संसारो जीव दो भागोंमें बँट जाते हैं। 'समनस्कामनस्काः' इसमें समनस्क और अमनस्क इस प्रकार द्वन्द्व समास है। समनस्क शब्द श्रेष्ठ है अत: उसे सत्रमें पहले रखा । शंका---श्रेष्ठता किस कारणसे है ? समाधान----क्योंकि समनस्क जीव गुण और दोषोंके विचारक होते हैं, इसलिए समनस्क पद श्रेष्ठ है।
$ 283. अब फिरसे भी संसारी जीवोंके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंतथा संसारी जीव त्रस और स्थावरके भेदसे दो प्रकार हैं॥12॥
8 284. शंका--सूत्रमें 'संसारी' पदका ग्रहण करना निरर्थक है, क्योंकि वह प्रकरण प्राप्त है ? प्रतिशंका-इसका प्रकरण कहाँ है ? शंकाकार----'संसारिणों मुक्ताश्च' इस सूत्रमें उसका प्रकरण है । समाधान----सूत्रमें 'संसारी' पदका ग्रहण करना अनर्थक नहीं है, क्योंकि पूर्व सूत्रकी अपेक्षा इस सूत्रमें 'संसारी' पदका ग्रहण किया है । तात्पर्य यह है कि पूर्व सूत्रमें जो समनस्क और अमनस्क जीव बतलाये हैं वे संसारी हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रमें 'संसारी' पद दिया है । यदि 'संसारी' पदको पूर्वका विशेषण न माना जाय तो समनस्क और अमनस्क 1.-पेक्षया आत्मनो मु., ता.।
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124) सर्वार्थसिद्धी
-2112 6 284] एवं च कृत्वा 'संसारि'ग्रहणमादौ क्रियमाणभुपपन्नं भवति । तत्पूर्वापेक्ष सदुत्तरार्थमपि भवति । ते संसारिणो द्विविधाः-प्रसाः स्थावरा इति । असनामकर्मोदयवशीकृतास्त्रसा। स्थावरनामकर्मोवयवशवर्तिनः स्थावराः । त्रस्यन्तीति त्रसाः, स्थानशीलाः स्थावरा इति चेत् ? न; आगमविरोषात् । आगमे हि कायानुवादेन सा द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवलिन इति । तस्मान्न चलनाचलनापेक्षं त्रसस्थावरत्वम् । कर्मोदयापेक्षमेव । त्रसग्रहणमादौ क्रियते; अल्पाच्तरत्वादभ्यहितत्वाचा सर्बोपयोगसंभवावाहितत्वम् ।
8 285. एकेन्द्रियाणामतिबहुवक्तव्याभावादुल्लच्यानुपूर्वी स्थावरभेवप्रतिपत्त्यर्थमाह
.. पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥13॥
8 286. स्थावरनामकर्मभेदाः पृथिवीकायादयः सन्ति। तदुदयनिमित्ता' जीवेषु पृथिव्यावयः संज्ञा वेवितम्बाः। प्रवनाविप्रकृतिनिष्पन्ना अपि रूढिवशात्प्रथनाधनपेक्षा वर्तन्ते । एषां पृथिव्यादीनामा चातुर्विध्यमुक्तं प्रत्येकम् । तत्कयमिति चेत् ? उच्यते-पृथिवी पृथिवीकायः पृथिवीकायिकः पृथिबीजीव इत्यादि । तत्र अचेतना वैश्रसिकपरिणामनिवृत्ता काठिन्यगुणात्मिका पृथिवी । अचेतनत्वावसत्वपि पृथिवीकायनामकर्मोदये प्रथनक्रियोपलक्षितवेयम् । अथवा पृथिवीति सामान्यम् । इनका संसारी और मुक्त इनके साथ क्रमसे सम्बन्ध हो जायेगा। और इस अभिप्रायसे 'संसारिणो' पदका इससूत्रक आदिम ग्रहण करना बन जाता है। इस प्रकार 'संसारिणो' पदका ग्रहण पूर्व सत्र को अपेक्षासे होकर अगले सूत्रके लिए भी हो जाता है । यथा--वे संसारो जीव दो प्रकारक है प्रस और स्थावर । जिनके त्रस नामकर्मका उदय है वे त्रस कहलाते हैं और जिनके स्थावर नाम कर्मका उदय है उन्हें स्थावर कहते हैं। शंका---'त्रस्यन्ति' अर्थात् जो चलते-फिरते हैं वे अस हैं और जो स्थिति स्वभाववाले हैं वे स्थावर हैं, क्या त्रस और स्थावरका यह लक्षण ठीक है ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में आगमसे विरोध आता है, क्योंकि कायानुवादकी अपेक्षा कथन करते हुए आगम में बतलाया है कि द्वीन्द्रिय जीवोंसे लेकर अयोगकेवली तकके सब जीव त्रस हैं, इसलिए गमन करने और न करनेकी अपेक्षा त्रस और स्थावर यह भेद नहीं है, किन्तु त्रस और स्थावर कर्मोके उदयकी अपेक्षासे ही है। सूत्रमें त्रसपदका प्रारम्भमें ब्रहण किया है, क्योंकि स्थावर पदसे इसमें कम अक्षर हैं और यह श्रेष्ठ है । स श्रेष्ठ इसलिए है कि इनकं सब उपयोगोंका पाया जाना सम्भव है।
8285. एकेन्द्रियोंके विषयमें अधिक वक्तव्य नहीं है, इसलिए आनुपूर्वी को छोड़कर पहले स्थावरके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पाँच स्थावर हैं ॥13॥
8 286. पृथिवीकाय आदि स्थावर नामकर्मके भेद हैं । उनके उदयके निमित्तसे जीवोंके पृथिवी आदिक नाम जानने चाहिए । यद्यपि ये नाम प्रथन आदि धातुओंसे बने हैं तो भी ये रोटिक हैं, इसलिए इनमें प्रथन आदि धर्मोकी अपेक्षा नहीं है । शंका--आर्ष में ये पृथिवी आदिक अलग-अलग चार प्रकारके कहे हैं सो ये चार-चार भेद किस प्रकार प्राप्त होते हैं ? समाधानपृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव ये पृथिवीके चार भेद हैं। इनमें से जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनोंसे बनी है और कठिन गुणवाली है वह पृथिवी है । अचेतन होनेसे यद्यपि इसमें पृथिवी नामकर्मका उदय नहीं है तो भी प्रथनक्रियासे उपलक्षित होनेके कारण 1. भवति । संसा-मु.। 2. सनाम आ., दि. 1, दि. 2, ता. । 3. -रिमित्ता अमी इति जीवेषु मु. ना. ।
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--2114 $ 288] द्वितीयोऽध्यायः
[125 उत्तरत्रयेऽपि सद्भावात् । कायः शरीरम् । पृथिवीकायिकजीवपरित्यक्तः पृथिवीकायो मृतमनुष्याविकायवत् । पृथिवीकायोऽस्यास्तीति पृथिवीकायिकः । तत्कायसंबन्धवशीकृत आत्मा। समवाप्तपृथिवीकायनामकर्मोदयः कार्मणकाययोगस्थो यो न तावत्पृथिवीं कायत्वेन गृह्णाति स पथिवीजीवः । एवमबादिष्वपि योज्यम् । एते मञ्चविधाः प्राणिनः स्थावराः। कति पुनरेषां प्राणाः ? . चत्वारः-स्पर्शनेन्द्रियप्राणः कायबलप्राणः उच्छ वासनिश्वासप्राणः आयुःप्राणश्चेति । 8287. अथ त्रसाः के ते, इत्यत्रोच्यते
द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥14॥ $ 288. वे इन्द्रिये यस्य सोऽयं द्वीन्द्रियः । द्वीन्द्रिय आविर्येयां ते द्वीन्द्रियावयः । 'आदि'शब्दो व्यवस्थावाची । क्व व्यवस्थिताः ? आगमे । कयम् ? द्वीन्द्रियस्त्रीन्द्रियश्चतुरिन्द्रियः पञ्चेन्द्रियश्चेति । तद्गुणसंविज्ञानवृत्तिग्रहणाद् द्वीन्द्रियस्याप्यन्तर्भावः। कति पुनरेषां प्राणाः? द्वीन्द्रियस्य तावत् षट् प्राणाः, पूर्वोक्ता एव रसनवाक्प्राणाधिकाः । त्रीन्द्रियस्य सप्त त एव प्राणप्राणाधिकाः । चतुरिन्द्रियस्याष्टौ त एव चक्षुःप्राणाधिकाः। पञ्चेन्द्रियस्य तिरश्चोऽसंझिनो नव त एव श्रोत्रप्राणाधिकाः । संज्ञिनो दश त एव मनोबलप्राणाधिकाः ।
अर्थात् विस्तार आदि गुणवाली होनेके कारण यह पृथिवी कहलाती है। अथवा पृथिवी यह सामान्य वाची संज्ञा है, क्योंकि आगेके तीन भेदोंमें भी यह पायी जाती है। कायका अर्थ शरीर है. अतःपथिवीकायिक जीव द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है वह पृथिवीकाय कहलाता है। यथा मरे हुए मनुष्य आदिकका शरीर । जिस जीवके पृथिवीरूप काय विद्यमान है उसे पृथिवीकायिक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जीव पृथिवीरूप शरीरंके सम्बन्धसे युक्त है । कार्मणकाययोगमें स्थित
रूपसे ग्रहण नहीं किया है तबतक वह प्रथिवीजाव कहलाता है। इसी प्रकार जलादिकमें भी चार-चार भेद कर लेने चाहिए। ये पांचों प्रकारके प्राणी स्थावर हैं । शंका-इनके कितने प्राण होते हैं ? समाधान-इनके चार प्राण होते हैं-स्पर्शन इन्द्रियप्राण, कायबलप्राण, उच्छ्वास-निःश्वासप्राण और आयुःप्राण ।
8287. अब त्रस कौन हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं---- दो इन्द्रिय आदि त्रस हैं ॥14॥
8288. जिन जीवोंके दो इन्द्रियाँ होती हैं उन्हें दो-इन्द्रिय कहते हैं। तथा जिनके प्रारम्भमें दो इन्द्रिय जीव हैं वे दो-इन्द्रियादिक कहलाते हैं । यहाँ आदि शब्द व्यवस्थावाची है। शंका---ये कहाँ व्यवस्थित होकर बतलाये गये हैं ? समाधान----आगम में । शंका---किस क्रमसे ? समाधान---दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इस क्रमसे व्यवस्थित हैं। यहाँ तद्गुणसंविज्ञान बहुव्रीहि समासका ग्रहण किया है, अतः द्वीन्द्रियका भी अन्तर्भाव हो जाता है। शंका-इन द्वीन्द्रिय आदि जीवोंके कितने प्राण होते हैं ? समाधान----पूर्वोवत चार प्राणोंमें रसनाप्राण और वचनप्राण इन दो प्राणोंके मिला देनेपर दो इन्द्रिय जीवोंके छह प्राण होते हैं। इनमें घ्राणप्राणके मिला देनेपर तीनइन्द्रिय जीवके सात प्राण होते हैं। इनमें चक्षप्राणके मिला देनेपर चौइन्द्रिय जीवके आठ प्राण होते हैं। इनमें श्रोत्रप्राणके मिला देनेपर तिर्यंच असंज्ञीके नौ प्राण होते हैं। इनमें मनोबलके मिला देनेपर संज्ञी जीवोंके दस प्राण होते हैं। 1. जीवः । उक्तं च--पुढवी पुढवीकायो पुढवीकाइय पुढविजीवो य । साहारणोपमुक्को सरीरगहिदो भवंतरिदो। एव-मु.। 2. 'बहुबीही तद्गुणसं विज्ञानमपि-परि.-शे. प. 4, 4। 3. बलाधिकाः, आ., दि. 1,दि.21
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126] सर्वाथसिदौ
[21158289$ 289. 'आदि'शब्देन निर्दिष्टानामनितिसंख्यानामियत्तावधारणं कर्तव्यमित्यत आह
पंचेन्द्रियाणि ॥15॥ 8290: 'इन्द्रिय'शब्दो व्याख्यातार्थः । 'पञ्च'ग्रहणमवधारणार्थम्, पंचव नाधिकसंख्यानीति । कर्मेन्द्रियाणां धागादीनामिह ग्रहणं कर्तव्यम् ? न कर्तव्यम्; उपयोगप्रकरणात् । उपयोगसाधनानामिह ग्रहणं, न क्रियासाधनानाम् ; अनवस्थानाच्च । क्रियासाधनानामङ्गोपाङ्गनामकर्मनिवतितानां सर्वेषामपि क्रियासाघनत्वमस्तीतिन पंचव कर्मेन्द्रियाणि । ६ 291. तेषामन्तर्भेदप्रदर्शनार्थमाह
द्विविधानि॥16॥ 8 292. "विध'शब्दः प्रकारवाची। दो विधौ येषां तानि द्विविधानि, द्विप्रकाराणीत्यर्थः।
विशेषार्थ----यहाँ द्वीन्द्रियके छह, ब्रीन्द्रियके सात, चतुरिन्द्रियके आठ, असंज्ञी पंचेन्द्रियके नौ और संज्ञीके दस प्राण पर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा बतलाये हैं। अपर्याप्त अवस्थामें इनके क्रमसे चार, पाँच, छह और सात प्राण होते हैं । खुलासा इस प्रकार है-कुल प्राण दस हैं----पाँच इन्द्रियप्राण; तीन बलप्राण, आयु और श्वासोच्छ्वास। इनमें-से संज्ञी और असंज्ञीके अपर्याप्त), अवस्थामें श्वासोच्छ्वास, मनोबल और वचनबल ये तीन प्राण नहीं होते, शेष सात प्राण होते हैं। चतुरिन्द्रियके अप्ति अवस्थामें तीन ये और श्रोत्रेन्द्रिय ये चार प्राण नहीं होते, शेष छह,
होते हैं। त्रीन्द्रियके अपर्याप्त अवस्थामें चार ये और चक्षरिन्द्रिय ये पाँच प्राण नहीं होते. शेष पाँच प्राण होते हैं और द्वीन्द्रियके अपर्याप्त अवस्थामें पाँच ये और घ्राणेन्द्रिय ये छह प्राण नहीं होते, शेष चार प्राण होते हैं तथा एकेन्द्रियके छह ये तथा श्वासोच्छवास ये सात प्राण नहीं होते, शेष तीन प्राण होते हैं।
8289. पूर्व सूत्र में जो आदि शब्द दिया है उससे इन्द्रियोंकी संख्या नहीं ज्ञात होती, अतः उनके परिमाणका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
इन्द्रियाँ पाँच हैं ॥15॥
8290. इन्द्रिय शब्दका व्याख्यान कर आये। सत्र में जो 'पंच' पदका ग्रहण किया है वह मर्यादाके निश्चित करनेके लिए किया है कि इन्द्रियाँ पाँच ही होती हैं। इससे इन्द्रियोंकी और अधिक संख्या नहीं पायी जाती। शंका----इस सूत्रमें वचनादिक कर्मेन्द्रियोंका ग्रहण करना चाहिए ? समाधान----नहीं करना चाहिए, क्योंकि उपयोगका प्रकरण है। इस सूत्रमें उपयोगकी साधनभूत इन्द्रियोंका ग्रहण किया है, क्रियाकी साधनभूत इन्द्रियोंका नहीं। दूसरे, क्रिया की साधनभूत इन्द्रियोंकी मर्यादा नहीं है। अंगोपांग नामकर्मके उदयसे जितने भी अंगोपांगोंकी रचना होती हैं वे सब क्रियाके साधन हैं, इसलिए कर्मेन्द्रियाँ पाँच ही हैं ऐसा कोई नियम नहीं किया जा सकता।
8291. अब उन पाँचों इन्द्रियोंके अन्तर्भेदोंको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--- वे प्रत्येक दो-दो प्रकार की हैं॥16॥
$ 292. विध शब्द प्रकारवाची है । 'द्विविधानि' पदमें 'द्वौ विधौ येषां तानि द्विविधानि' इस प्रकार बहुव्रीहि समास है। आशय यह है कि ये पाँचों इन्द्रियाँ प्रत्येक दो-दो प्रकारकी हैं। 1. 'वाक्पाणिपादपायूपस्थानि कर्मेन्द्रियाण्याहः।---सां. को. इलो. 26। 2. ग्रहणं कृतं न क्रिया--मु., ता., ना.। 3. 'कतिविहाणं भंते इंदिया पण्णत्ता । गोयमा, दुविहा पण्णत्ता । तं जहा–दव्विंदिया य भाविदिया य -पण्णवणा पद 151
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-2018 8 296] द्वितीयोऽध्यायः
[127 को पुनस्तौ द्वौ प्रकारौ ? द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियमिति। 8 293. तत्र द्रव्येन्द्रियस्वरूपप्रतिपत्त्यर्थमाह
नित्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥17॥ 8 294. निवर्त्यते इति निर्वृत्तिः । केन निर्वय॑ते ? कर्मणा । सा द्विविधा; बाह्याभ्यन्तरभेदात् । उत्सेधागुलासंख्येयभागप्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यान्तरा निर्वृत्तिः । तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक्षु यः प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः सा बाह्या निवृत्तिः । येन निवृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम् । पूर्ववत्तदपि द्विविधम् । तत्राभ्यन्तरं कृष्णशुक्लमण्डलं, बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि । एवं शेषेष्वपीन्द्रियेषु ज्ञेयम् । 8295. भावेन्द्रियमुच्यते
लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥18॥ 8 296. लम्भनं लब्धिः । का पुनरसौ ? ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः। यत्संनिधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्ति प्रति व्याप्रियते तन्निमित्त आत्मनः परिणाम उपयोगः । तदुभये भावेशंका-वे दो प्रकार कौन हैं ? समाधान-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । 8293. अब द्रव्येन्द्रियके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं----
निवत्ति और उपकरणरूप द्रव्ये न्द्रिय है ॥17॥ 8 294. रचनाका नाम निर्वृत्ति है । शंका----किसके द्वारा यह रचना की जाती है ? समाधान-कर्म के द्वारा । निर्वृत्ति दो प्रकार की है-बाह्यनिर्वृत्ति और आभ्यन्तर निर्वत्ति। उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियोंके आकाररूपसे अवस्थित शुद्ध आत्मप्रदेशोंकी रचनाको आभ्यन्तर निवृत्ति कहते हैं । तथा इन्द्रिय नामवाले उन्हीं आत्मप्रदेशोंमें प्रतिनियत आकाररूप और नामकर्मके उदयसे विशेष अवस्थाको प्राप्त जो पुदगलप्रचय होता है उसे बाह्यनिर्वृत्ति कहते हैं। जो निर्वृत्तिका उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं। निर्वृत्तिके समान यह भी दो प्रकारका है----आभ्यन्तर और बाह्य । नेत्र इन्द्रियमें कृष्ण शक्लमण्डल आभ्यन्तर उपकरण है तथा पलक और दोनों बरोनी आदि बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार शेष इन्द्रियोंमें भी जानना चाहिए। ....विशेषार्थ-आगममें संसारी जीवके प्रदेश चलाचल बतलाये हैं। मध्यके आठ प्रदेश अचल होते हैं और प्रदेश चल । ऐसी अवस्थामें नियत आत्मप्रदेश ही सदा विवक्षित इन्द्रियरूप बने रहते हैं यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु प्रदेश परिस्पन्दके अनुसार प्रति समय अन्य-अन्य - प्रदेश आभ्यन्तर निर्वृत्तिरूप होते रहते हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए। जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं उसके उतने इन्द्रियावरण कर्मोका क्षयोपशम सर्वांग होता है, इसलिए आभ्यन्तर निवत्तिकी उक्त प्रकारसे व्यवस्था होने में कोई बाधा नहीं आती। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है।
8295. अब भावेन्द्रियका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंलब्धि और उपयोगरूप भावेन्द्रिय है।॥18॥
$ 296. लब्धि शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-लम्भनं लब्धि:-प्राप्त होना। शंकालब्धि किसे कहते हैं ? समाधान--ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमविशेषको लब्धि कहते हैं। जिसके 1. निर्वयंत इति मु.। 2. शेषेष्विन्द्रि-मु.।
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128]
सर्वार्थसिद्धी
[21188 296न्द्रियम् । इन्द्रियफलमुपयोगः, तस्य कथमिन्द्रियत्वम् ? कारणधर्मस्य कार्ये दर्शनात् । यथा घटाकारपरिणतं विज्ञानं घट इति । स्वार्थस्य तत्र मुख्यत्वाच्च । इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमिति यः स्वार्थः स उपयोगे मुख्यः, 'उपयोगलक्षणो जीव' इति वचनात् । अत उपयोगस्येन्द्रियत्वं न्याय्यम् । संसर्गसे आत्मा द्रव्येन्द्रियकी रचना करने के लिए उद्यत होता है, तन्निमित्तक आत्माके परिणामको उपयोग कहते हैं । लब्धि और उपयोग ये दोनों भावेन्द्रियाँ हैं। शंका----उपयोग इन्द्रियका फल है, वह इन्द्रिय कैसे हो सकता है ? समाधान---कारणका धर्म कार्य में देखा जाता है। जैसे घटाकार परिणत हआ ज्ञान भी घट कहलाता है. अतः इन्द्रियके फलको इन्द्रिय मानने में कोई आपत्ति नहीं है। दूसरे इन्द्रियका जो अर्थ है वह मुख्यतासे उपयोगमें पाया जाता है। तात्पर्य यह है कि 'इन्द्रके लिंगको इन्द्रिय कहते हैं' यह जो इन्द्रिय शब्दका अर्थ है वह उपयोगमें मुख्य है, क्योंकि जीवका लक्षण उपयोग है' ऐसा वचन है, अतः उपयोगको इन्द्रिय मानना उचित है।
J विशेषार्थ----ज्ञानकी अमुक पर्यायको प्रकट न होने देना विवक्षित ज्ञानावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयका काम है। किन्तु जिस जीवके विवक्षित ज्ञानावरणका क्षयोपशम होता है उसके उस ज्ञानावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंका उदय न होनेसे विवक्षित ज्ञानके प्रकाशमें आनेकी योग्यता होती है और इसी योग्यताका नाम लब्धि है। ऐसी योग्यता एक साथ सभी क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी हो सकती है, किन्तु उपयोगमें एक कालमें एक ही ज्ञान आता है । इसका अभिप्राय यह है कि क्षायोपशमिक ज्ञानको जाननेके सन्मुख हुई पर्यायका नाम लब्धि न होकर क्षयोपशमविशेषका नाम लब्धि है और उपयोग ज्ञानकी उपयुक्त पर्यायका नाम हैं। यही कारण है कि लब्धि एक साथ अनेक ज्ञानोंकी हो सकती है पर उपयोग एक कालमें एक ही ज्ञानका होता है। पहले प्रथम अध्याय सूत्र 14 में यह कह आये हैं कि मतिज्ञान इन्द्रिय और मनके निमित्तसे होता है । इससे ज्ञात होता है कि उपयोग स्वरूप ज्ञानकी इन्द्रिय संज्ञा न होकर जो उपयोगरूप मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके होने में साधकतम करण है उसीकी इन्द्रिय संज्ञा है, इसलिए वहाँ निर्वृत्ति, उपकरण और लब्धिको इन्द्रिय कहना तो ठीक है, क्योंकि ये उपयोगरूप मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके होनेमें साधकतम करण हैं पर स्वयं उपयोगको इन्द्रिय कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वह इन्द्रिय व्यापारका फल है। यह एक शंका है जिसका समाधान पूज्यपाद स्वामीने दो प्रकारसे किया है। प्रथम तो यह बतलाया है कि कारणके धर्म इन्द्रियत्वका कार्यमें उपचार करके उपयोगको भी इन्द्रिय कहा है। अर्थात् उपयोग स्वयं इन्द्रिय नहीं है, किन्तु इन्द्रियके निमित्तसे वह होता है, इसलिए यहाँ उपचारसे उसे इन्द्रिय कहा है । यह प्रथम समाधान है । दूसरा समाधान करते हुए उन्होंने जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि जिससे इन्द्र अर्थात् आत्माको पहचान हो वह इन्द्रिय कहलाती है और ऐसी पहचान करानेवाली वस्तु निज अर्थ होनी चाहिए। यदि इस दृष्टिसे देखा जाता है तो इन्द्रिय शब्दका मुख्य वाच्य उपयोग ही ठहरता है, क्योंकि वह आत्मा. का निज अर्थ है । यही कारण है कि यहाँ उपयोगको भी इन्द्रिय कहा है। तात्पर्य यह है कि निमित्तकी अपेक्षा विचार करनेपर निर्वृत्ति, उपकरण और लब्धिको इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त होती है और स्वार्थकी अपेक्षा विचार करतेपर उपयोगको इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त होती है। पहले प्रथम अध्यायमें केवल निमित्तकी अपेक्षा इन्द्रिय शब्दका व्यवहार किया गया था और यहाँ निमित्त और मुख्यार्थ दोनोंको ध्यानमें रखकर इन्द्रियके भेद दिखलाये गये हैं इसलिए कोई विरोध नहीं है। 1. -योगो मुख्य: दि. 1, दि. 2, मु.। 2. 'बुद्धीन्द्रियाणि चक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनत्वगाख्यानि।' सां.-को., श्लो. 61 घ्राणरसनचक्षुस्त्रक्श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः ।-न्या. सू.1,1,12।
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[129
-2120 300]
द्वितीयोऽध्यायः $ 297. उक्तानामिन्द्रियाणां संज्ञानुपूर्वीप्रतिपादनार्थमाह
स्पर्शनरसनघाणचतुःश्रोत्राणि ॥19॥ 8298. लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते । अनेनाक्षणा सुष्ठ पश्यामि, अनेज कर्णेन सुष्ठु शृणोमीति । ततः पारतन्त्र्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम् । वीर्यान्तरायमतिज्ञानावरणक्षयोपशमाडोपाडनामलाभावष्टम्भादात्मना स्पश्यतेऽनेनेति स्पर्शनम । रस्यतेऽनेनेति रसनम । घायतेऽनेनेति घाणम् । चक्षेरनेकार्थत्वाद्दर्शनार्थविवक्षायां चष्टे अर्थान्पश्यत्यनेनेति चक्षुः। शूय . ऽनेनेति श्रोत्रम् । स्वातन्त्र्यविवक्षा च दृश्यते । इदं मे अक्षि सुष्ठ पश्यति । अयं मे कर्णः सुष्टु शृणोति । ततः स्पर्शनादीनां कर्तरि निष्पत्तिः । स्पृशतीति स्पर्शनम् । रसतीति रसनम् । जिधतोति घाणम् । चष्टे इति चक्षुः। शृणोतीति श्रोत्रम् । एषां निर्देशक्रमः एकैकवृद्धिक्रमप्रज्ञापनार्थः । 8 299. तेषामिन्द्रियाणां विषयप्रदर्शनार्थमाह
स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः 20॥ 6 300. द्रव्यपर्याययोः प्राधान्यविवक्षायां कर्मभावसाधनत्व स्पर्शादिशब्दानां वेदितव्यम् । द्रव्यप्राधान्यविवक्षायां कर्मनिर्देशः । स्पृश्यत इति स्पर्शः । रस्यत इति रसः । गन्ध्यत इति गन्धः।
8 297. अब उक्त इन्द्रियोंके क्रमसे संज्ञा दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंस्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, और धोत्र ये पाँच इन्द्रियों हैं॥19॥ इस आँखसे मैं अच्छा
२९८. लोकमें इन्द्रियोंको पारतन्त्र्य विवक्षा देखी जाती है। जैसे इस आँखसे मैं अच्छा देखता है. इस कानसे मैं अच्छा सुनता है। अतः पारतन्त्र्य विवक्षामें स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका करणपना बन जाता है । वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांग नामकर्मके आलम्बनसे आत्मा जिसके द्वारा स्पर्श करता है वह स्पर्शन इन्द्रिय है, जिसके द्वारा स्वाद लेता है वह रसन इन्द्रिय है, जिसके द्वारा सूंघता है वह ध्राण इन्द्रिय है। चक्षि धातुके अनेक अर्थ हैं। उनमें-से यहाँ दर्शनरूप अर्थ लिया गया है इसलिए जिसके द्वारा पदार्थोंको देखता है वह चक्षु इन्द्रिय है तथा जिसके द्वारा सुनता है वह श्रोत्र इन्द्रिय है। इसीप्रकार इन इन्द्रियोंकी स्वातन्त्र्य विवक्षा भी देखी जाती है। जैसे यह मेरो आँख अच्छी तरह देखती है, यह मेरा कान अच्छी तरह सुनता है। और इसलिए इन स्पर्शन आदि इन्द्रियोंको कर्ताकारकमें सिद्धि होती है। यथा-जो स्पर्श करती है वह स्पर्शन इन्द्रिय है, जो स्वाद लेती है वह रसन इन्द्रिय है, जो सूंघती है वह घ्राण इन्द्रिय है, जो देखती है वह चक्षु इन्द्रिय है और जो सुनती है वह कर्ण इन्द्रिय है। सूत्र में इन इन्द्रियोंका जो स्पर्शनके बाद रसना और उसके बाद घ्राण इत्यादि क्रमसे निर्देश किया है वह एक-एक इन्द्रियको इस क्रमसे वृद्धि होती है यह दिखलानेके लिए किया है।
5२९९. अब उन इन्द्रियोंका विषय दिखलाने के लिए आगेका सत्र कहते हैंस्पर्शन, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये क्रमसे उन इन्द्रियोंके विषय हैं ॥२०॥
६३००. द्रव्य और पर्यायकी प्राधान्य विवक्षामें स्पर्शादि शब्दोंकी क्रमसे कर्मसाधन अरौ भावसाधनमें सिद्धि जानना चाहिए। जब द्रव्यकी अपेक्षा प्रधान रहती है तब कर्मनिर्देश होता है। जैसे-जो स्पर्श किया जाता है वह स्पर्श है, जो स्वादको प्राप्त होता है वह रस है, जो सूंघा जाता है वट गन्ध है जो देखा जाता है वह वर्ण है और जो शब्दरूप होता है वह शब्द है। इस १. जिघ्रत्यनेन घ्राणं गन्धं गृह्णातीति । रसयत्यनेनेनि रसनं रसं गृहातीति । चष्टेऽनेनेति चक्ष रूपं पश्यतीतिxxशृणोत्यनेनेति श्रोत्र शब्दं गृह्णातीति । -वा. मा०१,..१२। २. इमानीन्द्रियाणि कदाचित्स्वातन्त्र्येण विवक्षितानि भवन्ति । तद्यथा-इदं मे अक्षि सुष्ठ पश्यति, अयं मे कर्णः सुष्ठ शृणोतीति । कदाचित्पारतव्येण विवक्षितानि भवन्ति-अनेनाणा सुष्ठ पश्यामि । अनेन कर्णेन सुष्ठ शृणोमि इति । -पा. म. मा० ॥२॥२॥५९ । ३. गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः पृथिव्यादिगुणास्तदर्थाः । -वा० मा० "
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130] सर्वार्थसिदौ
[2121 $ 301वर्ण्यत इति वर्णः । शब्दचत इति शब्दः । पर्यायप्राधान्यविवक्षायां भावनिर्देशः । स्पर्धनं स्पर्शः। रसनं रसः। गन्धनं गन्धः । वर्णनं वर्णः । शब्दनं शब्द इति । एषां क्रम इन्द्रियक्रमेणव व्याख्यातःr
8301. अत्राह, यत्तावन्मनोऽनवस्थानादिन्द्रियं न भवतीति प्रत्याख्यातं तत्किमपयोगस्योपकारि उत नेति । तदप्युपकार्येव। तेन विनेन्द्रियाणां विषयेषुस्वप्रयोजनवृत्यभावात् । किञ्चास्यवां सहकारित्वमात्रमेव प्रयोजनमुतान्यदपोत्यत आह
श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥21॥ $ 302. श्रुतज्ञानविषयोऽर्थः श्रुतम् । स विवयोऽनिन्द्रियस्य; परिप्राप्तश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमस्यात्मनः श्रुतार्थेऽनिन्द्रियालम्बनज्ञानप्रवृत्तेः । अथवा श्रुतशानं श्रुतम्, तदनिन्द्रियस्यार्षः प्रयोजनमिति यावत । स्वातन्त्र्यसाध्यमिदं प्रयोजनमनिन्द्रियस्य ।
$ 303. उक्तानामिन्द्रियाणां प्रतिनियतविषयाणां स्वामित्वनिर्देशे कर्तव्ये यत्प्रथम गृहीतं स्पर्शनं तस्य तावत्स्वामित्वावधारणार्थमाह
वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥22॥ व्युत्पत्तिके अनुसार ये सब स्पर्शादिक द्रव्य ठहरते हैं। तथा जब पर्यायकी विवक्षा प्रधान रहती है तब भावनिर्देश होता है । जैसे—-स्पर्शन स्पर्श है, रसन रस है, गन्धन गन्ध है, वर्णन वर्ण है
और शब्दन शब्द है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार ये सब स्पर्शादिक धर्म निश्चित होते हैं । इन स्पर्शादिकका क्रम इन्द्रियोंके क्रमसे ही व्याख्यात है । अर्थात् इन्द्रियोंके क्रमको ध्यानमें रखकर इनका क्रमसे कथन किया है।
8301. आगे कहते हैं कि मन अनवस्थित है, इसलिए वह इन्द्रिय नहीं । इस प्रकार जो मनके इन्द्रियपनेका निषेध किया है, सो यह मन उपयोगका उपकारी है या नहीं? मन भी उपकारी है, क्योंकि मनके बिना स्पर्शादि विषयोंमें इन्द्रियाँ अपने-अपने प्रयोजनकी सिद्धि करने में समर्थ नहीं होतीं। तो क्या इन्द्रियोंकी सहायता करना ही मनका प्रयोजन है या और भी इसका प्रयोजन है ? इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
श्रुत मनका विषय है ॥21॥ 16302. श्रुतज्ञानका विषयभूत अर्थ श्रुत है वह अनिन्द्रिय अर्थात् मनका विषय है, क्योंकि श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमको प्राप्त हुए जीवके श्रुतज्ञानके विषयमें मनके आलम्बनसे ज्ञान की प्रवृत्ति होती है । अथवा श्रुत शब्दका अर्थ श्रुतज्ञान है । और वह मनका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है। यह प्रयोजन मनके स्वतः आधीन है, इसमें उसे दूसरेके साहाय्यकी आवश्यकता नहीं लेनी पड़ती।
विशेषार्थ-यहाँ श्रुत शब्दका अर्थ श्रुतज्ञानका विषय या श्रुतज्ञान किया है और उसे अनिन्द्रियका विषय बतलाया है । आशय यह है कि श्रुतज्ञानकी उपयोग दशा पाँच इन्द्रियोंके निमित्तसे न होकर केवल अनिन्द्रियके निमित्तसे होती है। इसका यह अभिप्राय नहीं कि अनिन्द्रियके निमित्तसे केवल श्रुतज्ञान ही होता है, किन्तु इसका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार मतिज्ञान इन्द्रिय और भनिन्द्रिय दोनोंके निमित्तसे होता है उस प्रकार श्रुतज्ञान इन दोनोंके निमित्तसे न होकर केवल अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है । इन्द्रियाँ परम्परा निमित्त हैं।
6303. किस इन्द्रियका क्या विषय है यह बतला आये । अब उनके स्वामीका कथन करना है, अतः सर्व प्रथम जो स्पर्शन इन्द्रिय कही है उसके स्वामीका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* वनस्पतिकायिक तफके जीवोंके एक अर्थात् प्रथम इन्द्रिय होती है ॥22॥ 1. - शन्दः । एषां -मु. ता । -- शब्दः । तेषां -मु.। 2. श्रुतस्यार्थे -मु., ता., ना.।
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- 2123 8307] द्वितीयोऽध्यायः
[131 $ 304. एकं प्रथममित्यर्थः । किं तत् ? स्पर्शनम् । तत्केषाम् ? पृथिव्यादीनां वनस्पत्यनहानां वेदितव्यम् । तस्योत्पत्तिकारणमुच्यते- वीर्यान्तरायस्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमे सद शेषेन्द्रियसर्वघातिस्पर्षकोदये च शरीरनामलाभावष्टम्भे एकेन्द्रियजातिनामोदयवशतितायां व सत्यां स्पर्शनमेकमिन्द्रियमाविर्भवति । 5 305. इतरेषामिन्द्रियाणां स्वामित्वप्रदर्शनार्थमाह--
कृमिपिपीलकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ।। 23॥ 306. 'एकंकम्' इति वीप्सायां द्वित्वम् । एककेन वृद्धानि एकंकवद्धानि । कृमिमादि कृत्वा, स्पर्शनाधिकारात् स्पर्शनमादि कृत्वा एककवृद्धानीत्यभिसंबन्धः क्रियते । 'आदि'शब्दः प्रत्येक परिसमाप्यते । कृम्यादीनां स्पर्शमं रसनाधिकम्, पिपीलिकादीनां स्पर्शनरसने घाणधिके, भ्रमरादीनां स्पर्शनरसनधाणानि चक्षुरधिकानि, मनुष्यादीनां तान्येव श्रोत्राधिकानीति यथासंख्येनाभिसंबन्धो न्याख्यातः। तेषां निष्पत्तिः स्पर्शनोत्पत्त्या व्याख्याता उत्तरोत्तरसर्वघाति: स्पर्धकोदयेन।
$307: एवमेतेषु संसारिषु द्विभेदेषु इन्द्रियभेदात्पञ्चविधेषु ये पञ्चेन्द्रियास्तद्भवस्यानुक्तस्य प्रतिपादनार्थमाह
8304. सूत्रमें आये हुए 'एक' शब्दका अर्थ प्रथम है। शंका-यह कौन है ? समाधानस्पर्शन | शंका-वह किन जीवोंके होती है ? समाधान-प्रथिवीकायिक जीवोंसे लेकर वनस्पतिकायिक तकके जीवोंके जानना चाहिए । अब उसकी उत्पत्तिके कारंणका कथन करते हैं-वीर्यान्तराय तथा स्पर्शन इन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमके होनेपर और शेष इन्द्रियोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयके होनेपर तथा शरीर नामकर्मके आलम्बनके होनेपर और एकेन्द्रिय जाति नामकर्मके उदयकी आधीनताके रहते हुए एक स्पर्शन इन्द्रिय प्रकट होती है।
8305. अब इतर इन्द्रियोंके स्वामित्वका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंकृमि, पिपीलिका, भ्रमर और मनुष्य आदिके क्रमसे एक-एक इन्द्रिय अधिक होती है ।।23।
8306. 'एकैकम्' यह वीप्सामें द्वित्व है । इन्द्रियाँ एक-एकके क्रमसे बढ़ी हैं इसलिए वे 'एकैकवृद्ध' कही गयी हैं। ये इन्द्रियाँ कृमिसे लेकर बढ़ी हैं । स्पर्शन इन्द्रिय का अधिकार है, अतः स्पर्शन इन्द्रियसे लेकर एक-एकके क्रमसे बढ़ी हैं इस प्रकार यहा सम्बन्ध कर लेना चाहिए। आदि शब्दका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध होता है। जिससे यह अर्थ हुआ कि कृमि आदि जीवोंके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं । पिपीलिका आदि जीवोंके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं। भ्रमर आदि जीवोंके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं। मनुष्यादिकके श्रोत्र इन्द्रियके और मिला देनेपर पाँच इन्द्रियाँ होती हैं। इस प्रकार उक्त जीव और इन्द्रिय इनका यथाक्रमसे सम्बन्धका व्याख्यान किया। पहले स्पर्शन इन्द्रियकी उत्पत्तिका व्याख्यान कर आये हैं उसी प्रकार शेष इन्द्रियोंकी उत्पत्तिका व्याख्यान करना चाहिए। किन्तु उत्पत्तिके कारणका व्याख्यान करते समय जिस इन्द्रियकी उत्पत्तिके कारणका व्याख्यान किया जाय, वहाँ उससे अगली इन्द्रिय सम्बन्धी सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयके साथ वह व्याख्यान करना चाहिए।
$307. इस प्रकार इन दो प्रकारके और इन्द्रिय-भेदोंकी अपेक्षा पाँच प्रकारके संसारी जीवों में जो पंचेन्द्रिय जीव हैं उनके भेद नहीं कहे, अतः उनका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
1.-किस्यादि आ.। -कृम्यादि दि. 1, दि.2।
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132] सर्वार्थसिदी
[2124 8308 संज्ञिनः समनस्काः ॥24॥ 8308. मनो व्याख्यातम् । सह तेन ये वर्तन्ते ते समनस्काः । संजिन इत्युच्यन्ते । पारिशेष्यादितरे संसारिणः प्राणिनोऽसशिन इति सिद्धम् । ननु च संजिन इत्यनेनैव गतार्थत्वात्समनस्का इति विशेषणमनर्थकम् । यतो मनोव्यापारो हिताहितप्राप्तिपरिहारपरीक्षा। संज्ञापि सैवेति । तद्युक्तम्, संज्ञाशब्दार्थव्यभिचारात् । संज्ञा नामेत्युच्यते । तद्वन्तः संशिन इति सर्वेषामतिप्रसङ्गः । संज्ञा ज्ञानमिति चेत् सर्वेषां प्राणिनां ज्ञानात्मकत्वादतिप्रसङ्गः। आहारादिविषयाभिलाषः संझेति चेत् । तुल्यम् । तस्मात्समनस्का इत्युच्यते । एवं च कृत्वा गर्भाण्डजमूच्छितसुषप्त्याचवस्थासु हिताहितपरीक्षाभावेऽपि मनःसंनिधानात्संज्ञित्वमुपपन्नं भवति।
6309. यदि हिताहितादिविषयपरिस्पन्दः प्राणिनां मनःप्रणिधानपूर्वकः । अथाभिनवशरीरग्रहणं प्रत्यापूर्णस्य विशोगपूर्व मूर्तनिर्मनस्कस्य यत्कर्म तत्कुत इत्युच्यते
विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥25॥ मनवाले जीव संज्ञी होते हैं ॥24॥
8308. मनका व्याख्यान कर आयेही उसके साथ जो रहते हैं वे समनस्क कहलाते हैं। और उन्हें ही संज्ञी कहते हैं । परिशेष न्यायसे यह सिद्ध हुआ कि इनसे अतिरिक्त जितने संसारी जीव होते हैं वे सब असंज्ञी होते हैं। शंका--सूत्रमें 'संज्ञिनः' इतना पद देनेसे ही काम चल जाता है, अत: 'समनस्काः' यह विशेषण देना निष्फल है, क्योंकि हितकी प्राप्ति और अहितके त्यागकी परीक्षा करने में मनका व्यापार होता है और यही संज्ञा है ? समाधान-यह कहना उचित नहीं, क्योंकि संज्ञा शब्दके अर्थ में व्यभिचार पाया जाता हैं । अर्थात् संज्ञा शब्दके अनेक अर्थ हैं । संज्ञाका अर्थ नाम है। यदि नामवाले जीव संज्ञी माने जायँ तो सब जीवोंको संज्ञीपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। संज्ञाका अर्थ यदि ज्ञान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञानस्वभाव होनेसे सबको संज्ञीपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आहारादि विषयोंकी अभिलाषाको संज्ञा कहा जाता है तो भी पहलेके समान दोष प्राप्त होता है । अर्थात् आहारादि विषयक अभिलाषा सबके पायी जाती है, इसलिए भी सबको संज्ञीपनेका प्रसंग प्राप्त होता है । चूंकि ये दोष न प्राप्त हों अतः सूत्रमें 'समनस्काः ' यह पद रखा है। इससे यह लाभ है कि गर्भज, अण्डज, मूच्छित और सुषुप्ति आदि अवस्थाओंमें हिताहितकी परीक्षाके न होनेपर भी मनके सम्बन्धसे संज्ञीपना बन जाता हैं।
विशेषार्थ-प्रायः एकेन्द्रिय आदि प्रत्येक जीव अपने इष्ट विषयमें प्रवृत्ति करता है और अनिष्ट विषयसे निवृत्त होता है, फिर भी मनको स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है सो इसका कारण यह है कि तुलनात्मक अध्ययन, लोक-परलोकका विचार, हिताहितका विवेक आदि कार्य ऐसे हैं जो मनके बिना नहीं हो सकते। इसीसे मनकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है। यह मन जिनके होता है वे संज्ञी होते हैं अन्य नहीं । जीवोंका संज्ञी और असंज्ञी यह भेद पंचेन्द्रिय जीवोंमें ही पाया जाता है । अन्य एकेन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय तकके जीव तो असंज्ञी ही होते हैं। अर्थात् उनके मन न होनेसे वे उक्त प्रकारके ज्ञानसे वंचित रहते हैं।
6309. यदि जीवोंके हित और अहित आदि विषयके लिए क्रिया मनके निमित्तसे होती है तो जिसने पूर्व शरीरको छोड़ दिया है और जो मनरहित है ऐसा जीव जब नूतन शरीर को ग्रहण करनेके लिए उद्यत होता है तब उसके जो क्रिया होती है वह किस निमित्तसे होती है यही बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
विहगतिमें कार्मणकाय योग होता है ॥25॥ 1. -शिनः उच्य-दि. 1, दि. 2, आ.। 2. -नर्थकम् । मनो---ता. ना.।
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[133
-21268 312]
द्वितीयोऽध्यायः $ 310. विग्रहो देहः। विग्रहार्था गतिविग्रहर्गातः। अथवा विरुद्धो ग्रहो विग्रहो व्याघातः । कर्मादानेऽपि नोकर्मपुद्गलादाननिरोध इत्यर्थः । विग्रहेण गतिविग्रहगतिः । सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं कार्मणं शरीरं कर्मेत्युच्यते । योगो वाङ्मनसकायवर्गणानिमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः । कर्मणा कृतो योगः कर्मयोगो विग्रहगतौ भवतीत्यर्थः । तेन .कर्मादानं देशान्तरसंक्रमश्च भवति ।
311. आह जीवपुद्गलानां गतिमास्कन्दतां देशान्तरसंक्रमः किमाकाशप्रदेशक्रमवृत्त्या भवति, उताविशेषणेत्यत आह
__ अनुश्रेणि गतिः ॥26॥ 8312. लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमस्तिर्यक च आकाशाप्रदेशानां क्रमसंनिविष्टानां पतितः श्रेणिः इत्युच्यते । 'अनु'शब्दस्यानपुर्येण वत्तिः। श्रेणेरानुपयेणानुश्रेणीति जीवानां पुदगलानां च गतिर्भवतीत्यर्थः । अनधिकृतानां पुद्गलानां कयं ग्रहणमिति चेत् । गतिग्रहणात् । यदि जीवानामेव गतिरिष्टा स्याद् गतिग्रहणमनर्थकम् ; अधिकारात्तत्सिद्धेः। उत्तरत्र जीवग्रहणाच्च पुद्गलसंप्रत्ययः । ननु चन्द्रादीनां ज्योतिष्काणां मेरुप्रदक्षिणाकाले विद्याधरादीनां च विश्रेणिगतिरपि दृश्यते, तत्र किमुच्यते, 'अनुश्रेणि गतिः' इति । कालदेशनियमोऽत्र वेदितव्यः। तत्र कालनियम
8310. विग्रहका अर्थ देह है। विग्रह अर्थात शरीरके लिए जो गति होती है वह विग्रह गति है । अथवा विरुद्ध ग्रहको विग्रह कहते हैं जिसका अर्थ व्याघात है । तात्पर्य यह है कि जिस अवस्थामें कर्मके ग्रहण होनेपर भी नोकर्मरूप पुद्गलोंका ग्रहण नहीं होता वह विग्रह है और इस विग्रहके साथ होनेवाली गतिका नाम विग्रहगति है । सब शरीरोंकी उत्पत्तिके मूलकारण कार्मण शरीरको कर्म कहते हैं । तथा वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्मप्रदेशोंके हलनचलनको योग कहते हैं। कर्मके निमित्तसे जो योग होता है वह कर्मयोग है । वह विग्रहगतिमें होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे नूतन कर्मका ग्रहण और एक देशसे दूसरे देशमें गमन होता है।
$311. गमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंका एक देशसे दूसरे देश में गमन क्या आकाशप्रदेशोंकी पंक्तिक्रमसे होता है या इसके बिना होता है, अब इसका खुलासा करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
गति श्रेणीके अनुसार होती है ॥26॥
8312. लोकके मध्यसे लेकर ऊपर नीचे और तिरछे क्रमसे स्थित आकाशप्रदेशोंकी पंक्तिको श्रेणी कहते हैं । अनु शब्द 'आनुपूर्वी' अर्थमें समसित है। इसलिए 'अनुश्रेणि' का अर्थ 'श्रेणीकी आनुपूर्वीसे' होता है । इस प्रकारकी गति जीव और पुद्गलोंकी होती है यह इसका भाव है । शंका--पुद्गलोंका अधिकार न होनेसे यहाँ उनका ग्रहण कैसे हो सकता है ? समाधान-सूत्र में गतिपदका ग्रहण किया है इससे सिद्ध हुआ कि अनधिकृत पुद्गल भी यहाँ विवक्षित हैं । यदि जीवोंकी गति ही इष्ट होती तो सूत्रमें गति पदके ग्रहण करनेकी आवश्यकता न थी, क्योंकि गति पदका ग्रहण अधिकारसे सिद्ध है । दूसरे अगले सूत्र में जीव पदका ग्रहण किया है, इसलिए इस सूत्रमें पुद्गलोंका भी ग्रहण इष्ट है यह ज्ञान होता है । शंका--चन्द्रमा आदि ज्योतिषियोंको और मेरुकी प्रदक्षिणा करते समय विद्याधरोंकी विश्रेणी गति देखी जाती है, इसलिए जीव और पुद्गलोंको अनुश्रेणी गति होती है यह किसलिए कहा ? समाधान यहाँ कालनियम और देशनियम जानना चाहिए । कालनियम यथा--मरणके समय जब जीव एक भवको छोड़कर 1. -व्याघातः । नोकर्म-ता., ना.। 2. -रानुपूर्वेणा- आ.। 3. ज्योतिषां आ., दि. 1, दि. 2 ।
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134]
सर्वार्थसिद्धी
[2126 § 312
स्तावज्जीवानां मरणकाले भवान्तरसंक्रमे मुक्तानां चोर्ध्वगमनकाले अनुश्रेण्येव गतिः । देशनियमोsपि ऊर्ध्व जो हादधोगतिः, अधोलोका दूर्ध्वगतिः, तिर्यग्लोकादधोगतिरूर्ध्वा वा तत्रानुश्रेण्येव । पुद्गलानां च या लोकान्तप्रापिणी सा नियमावनुश्रेण्येव । इतरा गतिर्भजनीया ।
8 313. पुनरपि गतिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाहअविग्रहा जीवस्य ॥27॥
$ 314 विग्रहो व्याघातः कौटिल्यमित्यर्थः । स यस्यां न विद्यतेऽसावविग्रहा गतिः । कस्य ? जीवस्य । कीदृशस्य ? मुक्तस्य । कथं गम्यते मुक्तस्येति ? उत्तरसूत्रे संसारिग्रहणादिह मुक्तस्येति विज्ञायते । ननु च 'अनुश्रेणि गतिः' इत्यनेनैव श्रेण्यन्तरसंक्रमाभावो व्याख्यातः । नार्थोऽनेन । पूर्वसूत्रे विश्रेणिगतिरपि क्वचिदस्तीति ज्ञापनार्थमिदं वचनम् । ननु तत्रैव देशकाल - नियम उक्तः । न; अतस्तत्सिद्धेः ।
$ 315. यद्यसङ्गस्यात्मनोऽप्रतिबन्धेन गतिरालोकान्ताववधूतकाला' प्रतिज्ञायते, सवेहस्य पुनर्गतिः किं प्रतिबन्धिनी उत मुक्तात्मवदित्यत आह
विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः ॥28॥
दूसरे भवके लिए गमन करते हैं और मुक्त जीव जब ऊर्ध्व गमन करते हैं तब उनकी गति अनुश्रेणि ही होती है। देश नियम यथा - जब कोई ऊर्ध्वलोकसे अधोलोकके प्रति या अधोलोकसे ऊर्ध्व लोकके प्रति आता जाता है। इसी प्रकार तिर्यग्लोकसे अधोलोकके प्रति या अधोलोक से ऊर्ध्वलोकके प्रति आता जाता है तब उस अवस्था में गति अनुश्रेणि ही होती है। इसी प्रकार पुदगलोंकी जो लोकके अन्तको प्राप्त करानेवाली गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है। हाँ, इसके अतिरिक्त जो गति होती है वह अनुश्रेणि भी होती है और विश्रेणि भी। किसी एक प्रकारकी गति होने का कोई नियम नहीं है ।
313. अब फिर भी गति विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंमुक्त जीवको गति विग्रहरहित होती है ॥27॥
$ 314 विग्रहका अर्थ व्याघात या कुटिलता है । जिस गतिमें विग्रह अर्थात् कुटिलता नहीं होती वह विग्रहरहित गति है । शंका - यह किसके होती है ? समाधान- जीवके । शंकाकिस प्रकार के जीवके ? समाधान - मुक्त जीवके । शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है कि मुक्त जीवके विग्रहरहित गति होती है ? समाधान - अगले सूत्र में 'संसारी' पदका ग्रहण किया है इससे ज्ञात होता है कि इस सूत्र में मुक्त जीवके विग्रहरहित गति ली गयी है। शंका- 'अनुश्रेणि गति:' इस सूत्र से ही यह ज्ञात हो जाता है कि एक श्रेणिसे दूसरी श्रेणिमें संक्रमण नहीं होता फिर इस सूत्र के लिखनेसे क्या प्रयोजन है ? समाधान - पूर्व सूत्र में कहींपर विश्रेणिगति भी होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह सूत्र रचा है। शंका-पूर्वसूत्रकी टीका में ही देशनियम और कालनियम कहा है ? समाधान नहीं; क्योंकि उसकी सिद्धि इस सूत्र से होती है ।
8315. मुक्तात्माकी लोकपर्यन्त गति बिना प्रतिबन्धके नियत समयके भीतर होती है। यदि ऐसा आपका निश्चय है तो अब यह बतलाइए कि सदेह आत्माकी गति क्या प्रतिबन्धके साथ होती है या मुक्तात्माके समान बिना प्रतिबन्धके होती है, इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आमेका सूत्र कहते हैं—
संसारी जीवको गति विग्रहरहित और विग्रहवाली होती है। उसमें विग्रहवाली गति चार समय से पहले अर्थात् तीन समय तक होती है ।
1. न्तादवगतकाला मु. ।
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--2130 $ 320] द्वितीयोऽध्यायः
[135 $ 316. कालावधारणार्थ 'प्राक्चतुर्म्य' इत्युच्यते। 'प्राग्' इति वचनं मर्यादार्थम्, चतुर्थात्समयात्प्राग्विग्रहवतो गतिर्भवति न चतुर्थे इति । कुत इति चेत् ? सर्वोत्कृष्टविग्रहनिमित्तनिष्कटक्षेत्रे उत्पित्सुः प्राणी निष्कुटक्षेत्रानुपूर्व्यनुश्रेण्यभावादिषु गत्यभावे निष्कुटक्षेत्रप्रापणनिमित्तां त्रिविग्रहां गतिमारभते नोवा॑म् ; तथाविषोपपावक्षेत्राभावात् । 'च'शम्बः समुच्चयार्थः । विग्रहवती चाविग्रहा। चेति। ६ 317. विग्रहवत्या गतेः कालोऽवधृतः । अविग्रहायाः कियान् काल इत्युच्यते
एकसमयाऽविग्रहा ॥29॥ $ 318. एकः समयो यस्याः सा एकसमया । न विद्यते विग्रहो यस्याः सा अविग्रहा । गतिमतां हि जीवपुद्गलानामव्याघातेनैकसमयिकी गतिरालोकान्तादपीति।
$319. अनादिकर्मबन्धसंततौ मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययवशात्कर्माण्यावदानो विप्रहगतावत्याहारकः प्रसक्तस्ततो नियमार्थमिदमुच्यते
एक द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥30॥ 8320. अधिकारात्समयाभिसंबन्धः। 'वा'शब्दो विकल्पार्थः । विकल्पश्च यथेच्छातिसर्गः । एकं वा द्वौ वा त्रीन्वा 'समयाननाहारको भवतीत्यर्थः । त्रयाणां शरीराणां षष्णां पर्याप्तीनां
316. कालका अवधारण करनेके लिए 'प्राक्चतुर्व्यः' पद दिया है। 'प्राक्' पद मर्यादा निश्चित करनेके लिए दिया है । चार समयसे पहले मोड़ेवाली गति होती है, चौथे समयमें नहीं यह इसका तात्पर्य है । शंका-मोड़ेवाली गति चार समयसे पूर्व अर्थात् तीन समय तक ही क्यों होती है चौथे समय समयमें क्यों नहीं होती ? समाधान-निष्कुट क्षेत्र में उत्पन्न होनेवाले दूसरे निष्कुट क्षेत्र वाले जीवको सबसे अधिक मोड़े लेने पड़ते हैं, क्योंकि वहाँ आनुपूर्वीसे अनुश्रेणिका अभाव होने से इषुगति नहीं हो पाती। अतः यह जीव निष्कुट क्षेत्रको प्राप्त करनेके लिए तीन
डेवाली गतिका आरम्भ करता है। यहाँ इससे अधिक मोड़ोंकी आवश्यकता नहीं पड़ती. क्योंकि इस प्रकारका कोई उपपादक्षेत्र नहीं पाया जाता, अत: मोड़ेवाली गति तीन समय तक ही होती है, चौथे समयमें नहीं होती। 'च' शब्द समुच्चयके लिए दिया है। जिससे विग्रहवाली और विग्रहरहित दोनों गतियों का समुच्चय होता है।
8317. विग्रहवाली गतिका काल मालूम पड़ा। अब विग्रहरहित गतिका कितना काल है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
एक समयवाली गति विग्रहरहित होती है ॥29॥
8318. जिस गतिमें एक समय लगता है वह एक समयवाली गति है । जिस गतिमें विग्रह अर्थात् मोड़ा नहीं लेना पड़ता वह मोड़ारहित गति है । गमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंके व्याघातके अभावमें एक समयवाली गति लोकपर्यन्त भी होती है यह इस सूत्रका तात्पर्य है।
8319. कर्मबन्धकी परम्परा अनादिकालीन है. अत: मिथ्यादर्शन आदि बन्ध कारणोंके वशसे कर्मोंको ग्रहण करनेवाला जीव विग्रहगतिमें भी आहारक प्राप्त होता है, अतः नियम करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं. एक, दो या तीन समय तक जीव अनाहारक रहता है॥30॥
$ 320 समयका अधिकार होनेसे यहाँ उसका सम्बन्ध होता है। 'वा' पदका अर्थ विकल्प है और विकल्प जहाँ तक अभिप्रेत है वहां तक लिया जाता है । जीव एक समय तक, दो समय 1 चाविग्रहवती चेति मु.। 2. समयोऽस्याः , एक- आ., दि. 1 । समयोऽस्याः सा एक- दि, 2, ता., ना.। 3. -ग्रहोऽस्याः अवि-- आ., दि. 1, ता., ना.। 4. 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे ।'-पा. 2, 3,51
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136] सर्वार्थ सिद्धी
[2131 $ 321योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः । तदभावादनाहारकः । कर्मादानं हि निरन्तरं कार्मणशरीरसद्भावे । उपपादक्षेत्रं प्रति ऋज्व्यां गतौ आहारकः । इतरेषु त्रिषु समयेषु अनाहारकः । 8321. एवं गच्छतोऽभिनवमूर्त्यन्तरनिर्वृत्तिप्रकारप्रतिपादनार्थमाह
संमृच्छेनगर्भोपपादा जन्म ॥31॥ 8322. त्रिषु लोकेषूर्वमधस्तिर्यक् च देहस्य समन्ततो मूर्छनं संमूर्छनमवयवप्रकल्पनम् । स्त्रिया उदरे 'शुक्रशोणितयोर्गरणं मिश्रणं गर्भः । मात्रुपभुक्ताहारगरणाद्वा गर्भः। उपेत्य पद्यतेऽस्मिन्निति उपपादः । देवनारकोत्पत्तिस्थानविशेषसंज्ञा। एते त्रयः संसारिणां जीवानां जन्मप्रकाराः शुभाशुभपरिणामनिमित्तकर्मभेदविपाककताः।
323. अथाधिकृतस्य संसारविषयोपभोगोपलब्ध्य धिष्ठानप्रवणस्य जन्मनो योगिविकल्पा वक्तव्या इत्यत आह
सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ।।32॥ 8324. आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम् । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः। शीत इति स्पर्शविशेषः; शुक्लादिवदुभयवचनत्वात्तद्युक्तं द्रव्यमप्याह' । सम्यग्वृतः संवृतः। संवृत इति तक या तीन समय तक अनाहारक होता है यह इस सूत्रका अभिप्राय है। तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंके ग्रहण करनेको आहार कहते हैं। जिन जीवोंके इस प्रकारका आहार नहीं होता वे अनाहारक कहलाते हैं । किन्तु कार्मण शरीरके सद्भावमें कर्मके ग्रहण करने में अन्तर नहीं पड़ता। जब यह जीव उपपादक्षेत्रके प्रति ऋजुगतिमें रहता है तब आहारक होता है। बाकीके तीन समयोंमें अनाहारक होता है।
8321. इस प्रकार अन्य गतिको गमन करनेवाले जीवके नूतन दूसरे पर्यायकी उत्पत्तिके भेदोंको दिखलाने के लिए आगेका मूत्र कहते है
सम्मूच्र्छन, गर्भ और उपपाद ये (तीन) जन्म हैं॥31॥
8322. तीनों लोकोंमें ऊपर, नीचे और तिरछे देहका चारों ओरसे मूर्च्छन अर्थात् ग्रहण होना संमूर्च्छन है । इसका अभिप्राय है चारों ओरसे पुद्गलोंका ग्रहण कर अवयवोंकी रचना होना । स्त्रीके उदर में शुक्र और शोणितके परस्पर गरण अर्थात् मिश्रणको गर्भ कहते हैं । अथवा माताके द्वारा उपभुक्त आहारके गरण होनेको गर्भ कहते हैं । प्राप्त होकर जिसमें जीव हलनचलन करता है उसे उपपाद कहते हैं। उपपाद यह देव और नारकियोंके उत्पत्तिस्थान विशेषकी संज्ञा है । संसारी जीवोंके ये तीनों जन्मके भेद हैं, जो शुभ और अशुभ परिणामोंके निमित्तसे अनेक प्रकारके कर्म बँधते हैं, उनके फल हैं।
8323. यहाँ तक संसारी विषयोंके उपभोगकी प्राप्तिमें आधारभूत जन्मोंका अधिकार था। अब इनकी योनियोंके भेद कहने चाहिए, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं.---.
सचित्त, शीत और संवत तथा इनकी प्रतिपक्षभूत अचित्त, उष्ण और विवृत तथा मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत ये उसकी अर्थात् जन्मको योनियाँ हैं ॥32॥
8324. आत्माके चैतन्यविशेषरूप परिणामको चित्त कहते हैं। जो चित्तके साथ रहता है वह सचित्त कहलाता है । शीत यह स्पर्शका एक भेद है । शुक्ल आदिके समान यह द्रव्य और 1. -निर्वृत्तिजन्मप्रका- मु.। 2. शुक्लशोणित- ता., ना., दि. 1, मु.। 3. मात्रोपभुक्त- मु.। मात्रोपयुक्त-दि. 1, दि. 2। 4. उपेत्योत्पद्य- मु.। 5. -अध्याधिष्ठा- आ., दि. 1, दि. 2। 6. -कल्पो वक्तव्यः आ. ता., ना.। 7. सम्यग्वृतः संवृत इति आ, दि. 1, दि. 2।
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----2132 8 324] द्वितीयोऽध्यायः
[137 दुरुपलक्ष्यप्रदेश उच्यते । सह इतरवर्तन्त इति सेतराः । सप्रतिपक्षा इत्यर्थः । के पुनरितरे ? अचितोष्णविवृताः। उभयात्मको मिश्रः। सचित्ताचित्तः शीतोष्णः संवृतविवृत इति । 'च'शब्दः समुच्चयार्थः मिश्राश्च योनयो भवन्तीति । इतरथा हि पूर्वोक्तानामेव विशेषणं स्यात् । 'एकशः' इति वीप्सार्थः । तस्य ग्रहणं क्रममिश्रप्रतिपत्त्यर्थम् । यथैवं विज्ञायेत–सचित्तश्च अचित्तश्च, शीतश्च उष्णश्च, संवृतश्च विवृतश्चेति । मैवं विज्ञायि-सचित्तश्च शीतश्चेत्यादि । 'तद्ग्रहणं जन्मप्रकारप्रतिनिर्देशार्थम । तेषां संमर्छनादीनां जन्मनां योनय इति त एते नव योनयो वेदितव्याः। योनिजन्मनोरविशेष इति चेत् ? न; आधाराधेयभेदात्तदभेदः । त एते सचित्तादयो योनय आधाराः । आधेया जन्मप्रकाराः । यतः सचित्तादियोन्यधिष्ठाने आत्मा संमूर्छनादिना जन्मना शरीराहारेन्द्रियादियोग्यान्पुद्गलानुपादत्ते। देवनारका अचित्तयोनयः। तेषां हि योनिरुपपाददेशपुद्गलप्रचयोऽचित्तः । गर्भजा मिश्रयोनयः । तेषां हि मातुरुदरे शुक्रशोणितमचित्तम्, तदात्मना चित्तवता मिश्रणान्मिश्रयोनिः । संमूर्छनजास्त्रिविकल्पयोनयः। केचित्सचित्तयोनयः अन्ये अचित्तयोनयः । अपरे मिश्रयोनयः । सचित्तयोनयः साधारणशरीराः । कुतः ? परस्पराश्रयत्वात् । इतरे अचित्तयोनयो मिश्रयोनयश्च । शीतोष्णयोनयो देवनारकाः । तेषां हि उपपादस्थानानि गुण दोनोंका वाची है, अतः शीतगुणवाला द्रव्य भी शीत कहलाता है। जो भले प्रकार ढका हो वह संवृत कहलाता है। यहाँ संवत ऐसे स्थानको कहते हैं जो देखने में न आवे । इतर का अर्थ अन्य है और इनके साथ रहनेवाले सेतर कहे जाते हैं । शंका-वे इतर कौन हैं ? समाधानअचित्त, उष्ण और विवृत । जो उभयरूप होते हैं वे मिश्र कहलाते हैं। यथा-सचित्तोचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत । सूत्रमें 'च' शब्द समुच्चयवाची है। जिससे योनियाँ मिश्र भी होती हैं इसका समुच्चय हो जाता है। यदि 'च' पदका यह अर्थ न लिया जाय तो मिश्रपद पूर्वोक्त पदोंका ही विशेषण हो जाता । 'एकशः' यह पद वीप्सावाची है। सूत्रमें इस पदका ग्रहण क्रम और मिश्रका ज्ञान करानेके लिए किया है । जिससे यह ज्ञान हो कि सचित्त, अचित्त, शीत, उष्ण, संवृत, विवृत इस क्रमसे योनियाँ ली हैं। यह ज्ञान न हो कि सचित्त, शीत इत्यादि क्रमसे योनियाँ ली हैं । जन्मके भेदोंके दिखलानेके लिए सूत्रमें 'तत्' पदका ग्रहण किया है। उन संमूर्छन आदि जन्मोंकी ये योनियाँ हैं यह इसका भाव है। ये सब मिलाकर नौ योनियाँ जानना चाहिए। शंका-योनि और जन्ममें कोई भेद नहीं? समाधान नहीं; क्योंकि आधार और आधेयके भेदसे उनमें भेद हैं। ये सचित्त आदिक योनियाँ आधार हैं और जन्मके भेद आधेय हैं, क्योंकि सचित्त आदि योनिरूप आधारमें संमूर्च्छन आदि जन्मके द्वारा आत्मा शरीर, आहार और इन्द्रियोंके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है। देव और नारकियोंकी अचित्त योनि होती है, क्योंकि उनके उपपाददेशके पूदगलप्रचयरूप योनि अचित्त है। गर्भजोंकी मिश्र योनि होती है, क्योंकि उनकी माताके उदर में शुक्र और शोणित अचित्त होते हैं जिनका सचित्त माताकी आत्मासे मिश्रण है इसलिए वह मिश्रयोनि है। संमूर्च्छनोंकी तीन प्रकारकी योनियाँ होती हैं। किन्हींकी सचित्त योनि होती है, अन्यकी अचित्तयोनि होती है और दूसरोंकी मिश्रयोनि होती है । साधारण शरीरवाले जीवोंकी सचित्त योनि होती है, क्योंकि ये एक-दूसरेके आश्रयसे रहते हैं। इनसे अतिरिक्त शेष संमर्छन जीवोंके अचित्त और मिश्र दोनों प्रकारकी योनियाँ होती हैं। देव और नारकियोंकी शीत और उष्ण दोनों प्रकारको योनियाँ होती हैं; क्योंकि उनके कुछ उपपादस्थान शीत हैं और कुछ उष्ण । तेजस्कायिक जीवोंकी उष्णयोनि होती है। इनसे अतिरिक्त जीवोंकी योनियाँ तोन प्रकारकी होती हैं। किन्हींकी शीत योनियाँ होती हैं, किन्हींकी उष्णयोनियाँ होती हैं और 1.--मिश्रं मिश्रयोनिः आ., दि. 1, दि. 2।
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138] सर्वाथसिद्धौ
[2132 8324कानिचिच्छीतानि कानिचिदुष्णानीति। उष्णयोनयस्तैजस्कायिकाः। इतरे त्रिविकल्पयोनयः। केचिच्छीतयोनयः । केचिदुष्णयोनयः । अपरे मित्रयोनय इति । देवनारकैकेन्द्रियाः संवृतयोनयः । बिकलेन्द्रिया विवृतयोनयः । गर्भजाः मिश्रयोनयः। तद्देदाश्चतुरशीतिशतसहस्रसंख्या आगमतो वेदितव्याः । उक्तं च---
"णिच्चिदरधादु सत्त य तरु दस विलिदिएसु छच्चेव ।
सुरणिरयतिरिय चउरो चोदृस मण ए सदसहस्सा ।।" $ 325. एवमेतस्मिन्नवयोनिभेवसंकटे त्रिविधजन्मनि सर्वप्राणभृतामनियमेन प्रसक्ते तववधारणार्थमाह
जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ॥33॥ 8326. यज्जालवत्प्राणिपरिवरणं विततमांसशोणितं तज्जरायुः । यन्नखत्वक्सदृशमुपातकाठिन्यं शुक्रशोणितपरिवरणं परिमण्डलं तदण्डम् । किंचित्परिवरणमन्तरेण परिपूर्णावयवो योनिनिर्गतमात्र एव परिस्पन्दादिसामोपेतः योतः । जरायो जाता जरायुजाः। अण्डे जाता अण्डजाः। जरायुजाश्च अण्डजाश्च पोताश्च जरायुजाण्डजपोता गर्भयोनयः। $ 327. यद्यमीषां जरायुजाण्डजपोतानां गर्भोऽवध्रियते,अथोपपादः केषां भवतीत्यत आह--
देवनारकारणामुपपादः ॥34॥ देवानां नारकाणां चोपपादो जन्म वेदितव्यम् । किन्हींकी मिश्रयोनियाँ होती हैं। देव, नारकी और एकेन्द्रियोंकी संवत योनियाँ होती हैं। विकलेन्द्रियों की निवत योनियाँ होती हैं। तथा गर्भजोंकी मिश्र योनियां होती हैं। इन सब योनियोंके चौरासी लाख भेद हैं यह बात आगमसे जाननी चाहिए। कहा भी है
'नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी सात-सात लाख योनियाँ हैं । वृक्षोंकी दस लाख योनियाँ हैं । विकलेन्द्रियोंकी मिलाकर छह लाख योनियाँ हैं । देव, नारकी और तिर्यंचोंकी चार-चार लाख योनियाँ हैं तथा मनुष्योंकी चौदह लाख योनियाँ हैं।'
8325. इस प्रकार नौ योनियोंसे युक्त तीन जन्म सब जीवोंके अनियमसे प्राप्त हुए, अतः निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
जरायुज, अण्डज और पोत जीवोंका गर्भजन्म होता है ॥33॥
8326. जो जालके समान प्राणियोंका आवरण है और जो मांस और शोणितसे बना है उसे जरायु कहते हैं । जो नखकी त्वचाके समान कठिन है, गोल है और जिसका आवरण शुक्र और शोणितसे बना है उसे अण्ड कहते हैं। जिसके सब अवयव बिना आवरणके पूरे हुए हैं और जो योनिसे निकलते ही हलन-चलन आदि सामर्थ्यसे युक्त है उसे पोत कहते हैं। इनमें जो जरसे पैदा होते हैं वे जरायुज कहलाते हैं । जो अण्डोंसे पैदा होते हैं वे अण्डज कहलाते हैं। सूत्रमें जरायुज, अण्डज और पोत इनका द्वन्द्व समास है। ये सब गर्भकी योनियाँ हैं।
327. यदि इन जरायुज, अण्डज और पोत जीवोंका गर्भ जन्म निर्णीत होता है तो अब यह बतलाइए कि उपपाद जन्म किन जीवोंके होता है, अतः इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
. देव और नारकियोंका उपपाद जन्म होता है ॥34॥ 1. मूलाचार. गा. 5.29 एवं 12.63 1 गो. जी. गा.।
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-2136 8331] द्वितीयोऽध्यायः
[13 8 328. अथान्येषां किं जन्मेत्यत आह
शेषाणां संमर्छनम् ॥35।। 8329. गर्भजेभ्य औपपादिकेभ्यश्चान्ये शेषाः । संमूर्छनं जन्मेति। एते त्रयोऽपि योगा नियमार्थाः। उभयतो नियमश्च द्रष्टव्यः । जरायुजाण्डजपोतानामेव गर्भः । गर्भ एव च जरायजाण्डजपोतानाम् । देवनारकाणामेवोपपादः । उपपाद एव च देवनारकाणाम् । शेषाणामेव संमूर्छ। मम् । संमूर्छनमेव शेषाणामिति।
8330. तेषां पुनः संसारिणां त्रिविधजन्मनामाहितबहुविकल्पनवयोनिभेदानां शुभाशुभनामकर्मविपाकनिर्वतितानि बन्धफलानुभवनाधिष्ठानानि शरीराणि कानीत्यत आह
औदारिकवेक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥360 ६ 331. विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तीनि शीर्यन्त इति शरीराणि । औदारिकादि. प्रकृतिविशेषोदयप्राप्तवृत्तीनि औदारिकादीनि । उदारं स्थूलम् । उदारे भवं उदारं प्रयोजनमस्येति वा, औदारिकम् । अष्टगुणश्वर्ययोगादेकानेकाणुमहच्छरीरविधिकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम् । सूक्ष्मपदार्थनिर्ज्ञानार्थमसंयमपरिजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाहियते निर्वय॑ते तदित्याहारकम् । यत्तेजोनिमित्तं तेजसि वा भवं तत्तैजसम् । कर्मणां कार्य कार्मणम् । सर्वेषां कर्मनिमित्तत्त्वेऽपि रूढिवशाद्विशिष्टविषये वत्तिरवसेया।
8328. इनसे अतिरिक्त अन्य जीवोंके कौन-सा जन्म होता है। अब इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
शेष सब जीवोंको सम्मूर्छन जन्म होता है ॥35॥
8329. इस सूत्र में 'शेष' पदसे वे जीव लिये गये हैं जो गर्भ और उपपाद जन्मसे नहीं पैदा होते । इनके संमूर्च्छन जन्म होता है । ये तीनों ही सूत्र नियम करते हैं। और यह नियम दोनों ओरसे जानना चाहिए। यथा-गर्भ जन्म जरायुज, अण्डज और पोत जीवोंका ही होता है। या ज़रायज, अण्डज और पोत जीवों के गर्भजन्म ही होता है। उपपाद जन्म देव और नारकियों के ही होता है या देव और नारकियोंके उफ्पाद जन्म ही होता
न जन्म शेष जीवोंके ही होता है या शेष जीवोंके समर्छन जन्म ही होता है।
330. जो तीन जन्मोंसे पैदा होते हैं और जिनके अपने अवान्तर भेदोंसे युक्त नौ योनियाँ हैं उन संसारी जोवोंके शुभ और अशुभ नामकर्मके उदयसे निष्पन्न हुए और बन्धफलके अनुभव करनेमें आधारभूत शरीर कितने हैं । अब इसी बातको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये पाँच शरीर हैं ॥36॥
8331. जो विशेष नामकर्मके उदयसे प्राप्त होकर शीर्यन्ते अर्थात गलते हैं वे शरीर हैं। , इसके औदारिक आदि पाँच भेद हैं । ये औदारिक आदि प्रकृति विशेषके उदयसे होते हैं। उदार
और स्थूल ये एकार्थवाची शब्द हैं । उदार शब्दसे होनेरूप अर्थमें या प्रयोजनरूप अर्थ में ठक प्रत्यय होकर औदारिक शब्द बनता है । अणिमा आदि आठ गुणोंके ऐश्वर्यके सम्बन्धसे एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकारका शरीर करना विक्रिया है। यह विक्रिया जिस शरीरका प्रयोजन है वह वैक्रियिक शरीर है । सूक्ष्म पदार्थका ज्ञान करनेके लिए या असंयमको दूर करनेकी इच्छासे प्रमत्तसंयत जिस शरीरकी रचना करता है वह आहारक शरीर है। जो दीप्तिका कारण है या तेजमें उत्पन्न होता है उसे तैजस शरीर कहते हैं। कर्मोका कार्य कार्मण शरीर है। यद्यपि सब शरीर कर्मके निमित्तसे होते हैं तो भी रूढ़िसे विशिष्ट शरीरको कार्मण शरीर कहा है। 1. चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम् ।' न्या. सू. 1, 1. 11। 2. उदारे भवमोदारिकम् । उदारं मु.।
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सर्वार्थसिद्ध
8332. यथौवारिकस्येन्द्रियै रुपलब्धिस्तथेतरेषां कस्मान्न भवतीत्यत आहपरं परं सूक्ष्मम् ॥37॥
विवक्षातो व्यवस्थार्थगतिः ।
पृथग्भूतानां,
8333. 'पर' शब्दस्यानेकार्थवृत्तित्वेऽपि शरीराणां सूक्ष्मगुणेन वीप्सानिर्देशः क्रियते परम्परमिति । औदारिकं स्थूलम्, ततः सूक्ष्मं वैकिकिम्, ततः सूक्ष्मं आहारकम् ततः सूक्ष्मं तेजसम्, तेजसात्कार्मणं सूक्ष्ममिति ।
8334. यदि परस्परं सूक्ष्मम्, प्रदेशतोऽपि न्यूनं परम्परं हीनमिति विपरीतप्रतिपत्तिनिवृत्यर्थमाह
140]
प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् 13811
8335. प्रदिश्यन्त इति प्रदेशाः परमाणवः । संख्यामतीतोऽसंख्येयः । असंख्येयो गुणोऽस्य तदिदमसंख्येयगुणम् । कुतः ? प्रदेशतः । नावगाहतः । परम्परमित्यनुवृत्तेरा कार्मणात्प्रसङ्ग तन्निवृत्त्यर्थमाह प्राक्तैजसादिति । औदारिकादसंख्येयगुणप्रदेश वैक्रियिकम् । वैऋियिकाद संख्येयगुणप्रदेशमाहारकमिति । को गुणकारः । पत्योपमासंख्येयभागः । यद्येवम्, परम्परं महापरिमाणं प्राप्नोति ? नैवम्; बन्धविशेषात्परिमाणभेदाभावस्तूलनिचयायः पिण्डवत् ।
8336. अथोत्तरयोः किं समप्रदेशत्वमुतास्ति कश्विद्विशेष इत्यत आह
332. जिस प्रकार इन्द्रियाँ औदारिक शरीरको जानती हैं उस प्रकार इतर शरीरोंको क्यों नहीं जानतीं ? अब इस बात को दिखलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आगे-आगेका शरीर सूक्ष्म है ॥37॥
§ 333. पर शब्दके अनेक अर्थ हैं तो भी यहाँ विवक्षासे व्यवस्थारूप अर्थका ज्ञान होता है । यद्यपि शरीर अलग-अलग हैं तो भी उनमें सूक्ष्म गुणका अन्वय है यह दिखलानेके लिए 'परम्परम्' इस प्रकार वीप्सा निर्देश किया है । औदारिक शरीर स्थूल है । इससे वैक्रियिक शरीर सूक्ष्म है । इससे आहारक शरीर सूक्ष्म है। इससे तेजस शरीर सूक्ष्म है और इससे कार्मण शरीर सूक्ष्म है।
[2137 § 332
8334. यदि ये उत्तरोत्तर शरीर सूक्ष्म हैं तो प्रदेशोंकी अपेक्षा भी उत्तरोत्तर हीन होंगे । इस प्रकार विपरीत ज्ञानका निराकरण करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
तैजससे पूर्व तीन शरीरोंमें आगे-आगेका शरीर प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणा है || 38|| $ 335. प्रदेश शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रदिश्यन्ते' होती है । इसका अर्थ परमाणु है । संख्यातीतको असंख्येय कहते हैं। जिसका गुणकार असंख्यात है वह असंख्येयगुणा कहलाता है । शंकाकिसकी अपेक्षा ? समाधान प्रदेशोंकी अपेक्षा, अवगाहनकी अपेक्षा नहीं । पूर्व सूत्रमें 'परम्परम्' इस पदी अनुवृत्ति होकर असंख्येयगुणत्वका प्रसंग कार्मण शरीर तक प्राप्त होता है अतः उसकी निवृत्तिके लिए सूत्र में 'प्राक् तैजसात्' पद रखा है । अर्थात् तैजस शरीरसे पूर्ववर्ती शरीर तक ये शरीर उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं । औदारिक शरीरसे वैक्रियिक शरीर असंख्यातगुणे प्रदेशवाला है । शंका- गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधानं - पल्यका असंख्यातवाँ भाग । शंका- यदि ऐसा है तो उत्तरोत्तर एक शरीरसे दूसरा शरीर महापरिमाणवाला प्राप्त होता है ? समाधानयह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बन्धविशेषके कारण परिमाणमें भेद नहीं होता । जैसे रूईका ढेर और लोहेका गोला ।
8336. आगे दो शरीरोंके प्रदेश क्या समान हैं या उनमें भी कुछ भेद है। इस बात
1. - प्रदेशतः । परस्पर-ता, ना । 2. प्राप्नोति । बन्ध--ता ।
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द्वितीयोऽध्यायः
अनन्तगुणे परे ॥39॥
8337. प्रवेशत इत्यनुवर्तते, तेनैवमभिसंबन्धः क्रियते—आहारकात्तैजसं प्रवेशतोऽनन्तगुणम्, तैजसात्कार्मणं प्रवेशतोऽनन्तगुणगिति । को गुणकारः ? अभव्यानामनन्तगुणः सिद्धानाम
-2141 § 341]
नन्तभागः ।
8338. तत्रैतत्स्याच्छयक वन्मूर्तिमद्द्रव्योपचितत्वात्संसारिणो जीवस्याभिप्रेतग तिनिरोधप्रसङ्ग इति ? तन्न; कि कारणम् । यस्मादुभे अप्येते
[141
प्रतीघात ॥40॥
8339. मूर्तिमतो मूर्त्यन्तरेण व्याघातः प्रतीघातः । स नास्त्यनयोरित्यप्रतीघाते; सूक्ष्म'परिणामात् अयःपिण्डे तेजोऽनुप्रवेशवतेजसकार्मणयोर्नास्ति वज्रपटलादिषु व्याघातः । ननु च वैकाहारकयोरपि नास्ति प्रतीघातः ? सर्वत्राप्रतीघातोऽत्र विवक्षितः । यथा तैजसकार्मणयोरालोकान्तात् सर्वत्र नास्ति प्रतीघातः, न तथा वैक्रियिकाहारकयोः ।
8340. आह किमेतावानेव विशेष उत कश्चिदन्योऽप्यस्तीत्याहअनादिसंबन्धे च ॥41॥
§ 341 'च' शब्दो विकल्पार्थः । अनादिसंबन्धे सादिसंबन्धे चेति । कार्यकारणभावसंतत्या को बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
परवर्ती दो शरीर प्रदेशोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं ॥39॥
8337. पूर्व सूत्रसे 'प्रदेशत:' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। जिससे इसकार सम्बन्ध करना चाहिए कि आहारक शरीरसे तैजस शरीर के प्रदेश अनन्तगुणे हैं और तेजस शरीरसे कार्मण शरीरके प्रदेश अनन्तगुणे हैं। शंका- गुणकार क्या है ? समाधान - अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धोंका अनन्तवाँ भाग गुणकार है ।
8338. शंका - जिस प्रकार कील आदिके लग जानेसे कोई भी प्राणी इच्छित स्थानको नहीं जा सकता उसी प्रकार मूर्तिक द्रव्यसे उपचित होनेके कारण संसारी जीवको इच्छित गतिके निरोधका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ये दोनों शरीरप्रतीघातरहित हैं ॥40॥
339. एक मूर्ति पदार्थका दूसरे मूर्तिक पदार्थके द्वारा जो व्याघात होता है उसे प्रतीघात कहते हैं । इन दोनों शरीरोंका इस प्रकारका प्रतीघात नहीं होता, इसलिए ये प्रतीघात रहित हैं । जिस प्रकार सूक्ष्म होनेसे अग्नि लोहेके गोले में प्रवेश कर जाती है । उसी प्रकार तैजस और कार्मण शरीरका वज्रपटलादिकमें भी व्याघात नहीं होता । शंका- वैक्रियिक और आहारक शरीरका भी प्रतीघात नहीं होता फिर यहाँ तैजस और कार्मण शरीरको ही अप्रतीघात क्यों कहा ? समाधान इस सूत्रमें सर्वत्र प्रतीघातका अभाव विवक्षित है । जिस प्रकार तैजस और कार्मण शरीरका लोक पर्यन्त सर्वत्र प्रतीघात नहीं होता वह बात वैक्रियिक और आहारक शरीरकी नहीं है ।
$ 340. इन दोनों शरीरोंमें क्या इतनी ही विशेषता है या और भी कोई विशेषता है । इसी बात को बतलाने के लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
आत्माके साथ अनादि सम्बन्धवाले हैं ॥41॥
8341. सूत्रमें 'च' शब्द विकल्पको सूचित करनेके लिए दिया है। जिससे यह अर्थ हआ
1. - मनन्तो भागः ता., ना । 2 -- परिमाणात् मु.
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142]
सर्वार्थसिद्धी
[2141 $ 341 अनादिसंबन्धे, विशेषापेक्षया सादिसंबन्धे च बोजवृक्षवत् । ययौदारिकवक्रियिकाहारकाणि जीवस्य कदाचित्कानि, न तथा तैजसकार्मणे । नित्यसंबन्धिनी हि ते आ संसारक्षयात् । 8342. त एते तैजसकार्मणे किं कस्यचिदेव भवत उताविशेषेणेत्यत आह--
सर्वस्य ॥421 8343. 'सर्व' शब्दो निरवशेषवाची । निरवशेषस्य संसारिणो जीवस्य ते द्वे अपि शरीरे भवत इत्यर्थः।
8344. अविशेषाभिधानात्तरौदारिकादिभिः सर्वस्य संसारिणो योगपधेन संबन्धप्रसंगे संभविशरीरप्रदर्शनार्थमिदमुच्यते
तदादीनि भाज्यानि युगपर्दे कस्या चतुर्व्यः ॥43॥ 8345. 'तत्' शब्दः प्रकृततैजसकार्मणप्रतिनिर्देशार्थः । ते तैजसकार्मणे आदिर्येषां तानि तवादीनि । भाज्यानि विकल्प्यानि । आ कुतः? आ चतुर्व्यः। युगपदेकस्यात्मनः। कस्यचिद् द्वे तेजसकामणे । अपरस्य त्रीणि औदारिकतैजसकार्मणानि वैक्रियिकतजसकार्मणानि वा। अन्यस्य चत्वारि औदारिकाहारकर्तजसकार्मणानीति विभागः क्रियते । कि तैजस और कार्मण शरीरका अनादि सम्बन्ध है और सादि सम्बन्ध भी है। कार्यकारणभावकी परम्पराकी अपेक्षा अनादि सम्बन्धवाले हैं और विशेषकी अपेक्षा सादि सम्बन्धवाले हैं । यथा बीज और वृक्ष। जिस प्रकार औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर जीवके कदाचित् होते हैं उस प्रकार तैजस और कार्मण शरीर नहीं हैं । संसारका क्षय होने तक उनका जीवके साथ सदा सम्बन्ध है।
342. ये तैजस और कार्मण शरीर क्या किसी जीवके ही होते हैं या सामान्यरूपसे सबके होते हैं । इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
तथा सब संसारी जीवोंके होते हैं ॥42॥
8343. यहाँ 'सर्व' शब्द निरवशेषवाची है । वे दोनों ही शरीर सब संसारी जीवोंके होते हैं यह इस सूत्र का तात्पर्य है।
$344. सामान्य कथन करनेसे उन औदारिकादि शरीरोंके साथ सब संसारी जीवोंका एक साथ सम्बन्ध प्राप्त होता है, अतः एक साथ कितने शरीर सम्भव हैं इस बातको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
एक साथ एक जीवके तेजस और कार्मणसे लेकर चार शरीर तक विकल्पसे होते हैं।43॥
8345. सत्रमें प्रकरणप्राप्त तैजस और कार्मण शरीरका निर्देश करनेके लिए 'तत' शब्द दिया है । तदादि शब्दका समासलभ्य अर्थ है-तैजस और कार्मण शरीर जिनके आदि हैं वे। भाज्य और विकल्प्य ये पर्यायवाची नाम हैं। तात्पर्य यह है कि एक साथ एक आत्माके पूर्वोक्त दो शरीरसे लेकर चार शरीर तक विकल्पसे होते हैं। किसीके तैजस और कार्मण ये दो शरीर होते हैं । अन्यके औदारिक, तैजस और कार्मण या वैक्रियिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर होते हैं। किसी दूसरेके औदारिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये चार शरीर होते हैं। इस प्रकार यह विभाग यहाँ किया गया है ।
विशेषार्थ-आगे 47वें सूत्रमें तपोविशेषके बलसे वैक्रियिक शरीरकी उत्पत्तिका निर्देश किया है, इसलिए प्रश्न होता है कि किसी ऋद्धिधारी साधुके एक साथ पाँच शरीरका सद्भाव 1. -सम्बन्धेऽपि च मुः। 2. -देकस्मिन्ना च- मु.।
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-2144 $ 347]
द्वितीयोऽध्यायः 8 346. पुनरपि तेषां विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
निरुपभोगमन्त्यम् 144॥ 8347. अन्ते भवमन्त्यम् । किं तत् ? कार्मणम् । इन्द्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोगः । तदभावान्निरुपभोगम् । विग्रहगतौ सत्यामपि इन्द्रियलब्धी द्रव्येन्द्रियनित्यभावाच्छन्दाधुपभोगाभाव इनि। ननु तैजसमपि निरुपभोगम् तत्र किमुच्यते निरुपभोगमन्त्यमिति ? तैजसं शरीरं योगनिमित्तमपि न भवति, ततोऽस्योपभोगविचारेऽनधिकारः।।
माननेमें क्या हानि है ? समाधान यह है कि एक साथ वैक्रियिक और आहारक ऋद्धिकी प्रवत्ति नहीं होती, इसलिए एक तो एक साथ आहारक शरीरके साथ वैक्रियिक शरीरका अवस्थान नहीं बन सकता । दूसरे तपोविशेषसे जो विक्रिया प्राप्त होती है वह औदारिक शरीरसम्बन्धी ही विक्रिया है। उसे स्वतन्त्र वैक्रियिक शरीर मानना उचित नहीं है। कर्मसाहित्यमें वैक्रियिक शरीर नामकर्मके उदयसे जो शरीर प्राप्त होता है उसकी परिगणना ही वैक्रियिक शरीरमें की गयी है। इसलिए अधिकारी भेद होनेसे औदारिक और आहारक शरीरके साथ वैक्रियिक शरीर नहीं बन सकता । यही कारण है कि एक साथ अधिकसे अधिक चार शरीर बतलाये हैं।
8346. फिर भी उन शरीरोंका विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंअन्तिम शरीर उपभोगरहित है ॥44॥
8347. जो अन्तमें होता है वह अन्त्य कहलाता है। शंका-वह अन्तका शरीर कौन है ? समाधान-कार्मण । इन्द्रियरूपी नालियोंके द्वारा शब्दादिके ग्रहण करनेको उपभोग कहते हैं। यह बात अन्तके शरीरमें नहीं पायी जाती: अतः वह निरुपभोग है। विग्रहगतिमें लशिप भावेन्द्रियके रहते हुए भी वहाँ द्रव्येन्द्रियकी रचना न होनेसे शब्दादिकका उपभोग नहीं होता। शंका-तेजस शरीर भी निरुपभोग है, इसलिए वहाँ यह क्यों कहते हो कि अन्तका शरीर निरुपभोग है ? समाधान-तैजस शरोर योगमें निमित्त भी नहीं होता, इसलिए इसका उपभोगके विचारमें अधिकार नहीं है।
विशेषार्थ----औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीनों शरीरोंमें इन्द्रियोंकी रचना होकर उन द्वारा अपने-अपने विषयोंका ग्रहण होता है, इसलिए ये तीनों शरीर सोपभोग माने गये हैं । यद्यपि कार्मण काययोग केवली जिनके प्रतर और लोकपूरण समुद्घात के समय तथा विग्रहगतिमें होता है । पर इनमें से प्रतर और लोकपूरण समुद्घातके समय केवलज्ञान होनेसे वहाँ उपभोगका प्रश्न ही नहीं उठता । मात्र विग्रहगतिमें कार्मण काययोगके रहते हए उपभोग होता है या नहीं यह प्रश्न होता है और इसी प्रश्नका उत्तर देनेके लिए 'निरुपभोगमन्त्यम्' यह सूत्र रचा गया है । अन्तका शरीर उपभोगरहित क्यों है इस बातका खुलासा करते हुए बतलाया है कि विग्रहगतिमें भावेन्द्रियाँ तो होती हैं पर द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होतीं, इसलिए यहाँ शब्दादि विषयोंका ग्रहण नहीं होता । यही कारण है कि अन्तके शरीरको निरुपभोग कहा है। रहा तेजस शरीर सो अन्य चार शरोरोंके समान इसका स्वतन्त्र अधिकार नहीं है। अनिःसत तैजस शरीर सब संसारी जीवोंके सदा होता है और निःसृत तैजस शरीर कादाचित्क होता है । इस प्रकार तैजस शरीर पाया तो जाता है सब संसारी जीवोंके, पर आत्मप्रदेश परिस्पन्दमें यह शरीर कारण नहीं है, इसलिए इन्द्रियों-द्वारा विषयोंके ग्रहण करनेमें इस शरीरको उपयोगी नहीं माना गया है। यही कारण है कि तेजस शरीर निरुपभोग है कि सोपभोग यह प्रश्न ही नहीं उठता। 1. -नधिकारः । तत्रोक्त-ता., ना.।
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144]
सर्वार्थसिद्धी
[2145 § 348
348 एवं तत्रोक्तलक्षणेषु जन्मसु अमूनि शरीराणि प्रादुर्भावमापद्यमानानि किमविशेषेण भवन्ति, उत कश्चिदस्ति प्रतिविशेष इत्यत आहगर्भसंमूर्च्छन जमाद्यम् ।45।।
§ 349: सूत्रक्रमापेक्षया आदौ भवमाद्यम् । औदारिकमित्यर्थः । यद् गर्भजं यच्च संमूच्छेनजं तत्सर्वमौदारिकं द्रष्टव्यम् ।
8350. तदनन्तरं यन्निर्दिष्टं तत्कस्मिन जन्मनीत्यत आहऔपपादिकं वैक्रियिकम 46
8351. उपपादे भवमौपपादिकम् । तत्सर्वं वैक्रियिकं वेदितव्यम् ।
8352. यद्यौपपादिकं वैक्रियिकम्, अनौपपादिकस्य वैक्रियिकत्वाभाव इत्यत आहलब्धिप्रत्ययं च ||47||
8353. 'च' शब्देन वैक्रियिकमभिसंबध्यते । तपोविशेषादृद्धिप्राप्तिर्लब्धिः । लब्धिः प्रत्ययः कारणमस्य लब्धिप्रत्ययम् । वैक्रियिकं लब्धिप्रत्ययं च भवतीत्यभिसंबध्यते । 8354. किमेतदेव लब्ध्यपेक्षमुतान्यदप्यस्तीत्यत आह
तेजसमपि ॥ 48 ||
8348. इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणवाले इन जन्मोंमें क्या सामान्यसे सब शरीर उत्पन्न होते हैं या इसमें कुछ विशेषता है । इस बातको बतलाने के लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
पहला शरीर गर्भ और संमूर्च्छन जन्मसे पैदा होता है ||45||
349. सूत्रमें जिस क्रमसे निर्देश किया है तदनुसार यहाँ आद्यपदसे औदारिक शरीरका ग्रहण करना चाहिए । जो शरीर गर्भजन्म से और संमूर्च्छन जन्मसे उत्पन्न होता है वह सब औदारिक शरीर है यह इस सूत्र का तात्पर्य है ।
8350. इसके अनन्तर जिस शरीरका निर्देश किया है उसकी उत्पत्ति किस जन्म से होती है अब इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
affer शरीर उपपाद जन्मसे पैदा होता है || 46 ||
8351. जो उपपादमें होता है उसे औपपादिक कहते हैं । इस प्रकार उपपाद जन्मसे पैदा होनेवाले शरीरको वैक्रियिक जानना चाहिए ।
8352. यदि जो शरीर उपपाद जन्मसे पैदा होता है वह वैक्रियिक है तो जो शरीर उपपाद जन्मसे नहीं पैदा होता उसमें वैक्रियिकपन नहीं बन सकता । अब इसी बातका स्पष्टी - करण करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
-
तथा लब्धि से भी पैदा होता है ||47||
8353. सूत्रमें 'च' शब्द आया है। उससे वैक्रियिक शरीरका सम्बन्ध करना चाहिए । तपविशेषसे प्राप्त होनेवाली ऋद्धिको लब्धि कहते हैं । इस प्रकारकी लब्धिसे जो शरीर उत्पन्न होता है वह लब्धिप्रत्यय कहलाता है । वैक्रियिक शरीर लब्धिप्रत्यय भी होता है ऐसा यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए ।
8354. क्या यही शरीर लब्धिकी अपेक्षासे होता है या दूसरा शरीर भी होता है । अब इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं
तेजस शरीर भी लब्धिसे पैदा होता है || 48 |
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- 2149 8358] द्वितीयोऽध्यायः
[145 6355. 'अपि'शब्देन लब्धिप्रत्ययमभिसंबध्यते । तैजसमपि लब्धिप्रत्ययं भवतीति । $ 356. वैक्रियिकानन्तरं यदुपदिष्टं तस्य स्वरूपनिर्धारणार्थ स्वामिनिर्देशार्थ चाह
शुभं विशुद्ध मव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥49॥ 8357. शुभकारणत्वाच्छुभव्यपदेशः। शुभकर्मण आहारककाययोगस्य कारणत्वाच्छुभमित्युच्यते अन्नस्य प्राणव्यपदेशवत् । विशुद्धकार्यत्वाद्विशुद्धव्यपदेशः। विशुद्धस्य 'पुण्यकर्मणः अशबलस्य निरवद्यस्य कार्यत्वाद्विशुद्धमित्युच्यते तन्तूनां कार्पासव्यपदेशवत् । उभयतो व्याघाताभावादव्याघाति । न ह्याहारकशरीरेणान्यस्य व्याघातः । नाप्यन्ये नाहारकस्येति । तस्य प्रयोजनसमुच्यार्थः 'च'शब्दः क्रियते । तद्यया-कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावज्ञापनार्थ कदाचित्सूक्ष्मपदार्थनिर्धारणार्थ संयमपरिपालनार्थं च । आहारकमिति प्रागुक्तस्य प्रत्याम्नायः। यदाहारकशरीरं निर्वर्तयितुमारभते तदा प्रमत्तो भवतीति 'प्रमत्तसंयतस्य' इत्युच्यते । इष्टतोऽवधारणार्थ 'एवं'कारोपादानम् । यथैवं विज्ञायेत प्रमत्तसंयतस्यैवाहारकं नान्यस्येति । मैवं विज्ञायि प्रमत्तसंयतस्थाहारकमेवेति । मा भूदौदारिकादिनिवृत्तिरिति।
$ 358. एवं विभक्तानि शरीराणि बिभ्रता संसारिणां प्रतिगति किं त्रिलिङ्गसंनिधानं
$355. सूत्रमें 'अपि' शब्द आया है। उससे 'लब्धिप्रत्ययम्' पदका ग्रहण होता है। तेजस शरीर भी लब्धिप्रत्यय होता है यह इस सूत्रका भाव है।
6356. वैक्रियिक शरीरके पश्चात् जिस शरीरका उपदेश दिया है उसके स्वरूपका निश्चय करनेके लिए और उसके स्वामीका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और व्याघात रहित है और वह प्रमत्तसंयतके ही होता है ॥४९॥
8357. शुभकर्मका कारण होनेसे इसे शुभ कहा है। यह शरीर आहारक काययोगरूप शभकर्मका कारण है, इसलिए आहारक शरीर शभ कहलाता है। यहाँ कारणमें कार्यका उपचार है। जैसे अन्नमें प्राणका उपचार करके अन्नको प्राण कहते हैं । विशुद्ध कर्मका कार्य होनेसे आहारक शरीरको विशुद्ध कहा है। तात्पर्य यह है कि जो चित्र-विचित्र न होकर निर्दोष है ऐसे विशुद्ध अर्थात् पुण्यकर्मका कार्य होनेसे आहारक शरीरको विशुद्ध कहते हैं । यहाँ कार्य में कारणका उपचार है। जैसे तन्तुओंमें कपासका उपचार करके तन्तुओं को कपास कहते हैं। दोनों ओरसे व्याघात नहीं होता, इसलिए यह अव्याघाती है । तात्पर्य यह है कि आहारक शरीरसे अन्य पदार्थका व्याघात नहीं होता और अन्य पदार्थसे आहारक शरीरका व्याघात नहीं होता। आहारक शरीरके प्रयोजनका समुच्चय करनेके लिए सूत्रमें 'च' शब्द दिया है। यथा-आहारक शरोर कदाचित लब्धि-विशेषके सद्भावको जतानेके लिए, कदाचित् सूक्ष्म पदार्थका निश्चय करने के लिए और संयमकी रक्षा करनेके लिए उत्पन्न होता है । सूत्रमें 'आहारक' पद आया है उससे पूर्व में कहे गये आहारक शरीरको दुहराया है । जिस समय जीव आहारक शरीरकी रचनाका आरम्भ करता है उस समय वह प्रमत्त हो जाता है, इसलिए सूत्र में प्रमत्तसंयतके ही आहारक शरीर होता है यह कहा है । इष्ट अर्थ के निश्चय करने के लिए सूत्रमें 'एवकार' पदको ग्रहण किया है। जिससे यह जाना जाय कि आहारक शरीर प्रमत्तसंयतके ही होता है अन्यके नहीं। किन्तु यह न जाना जाय कि प्रमत्तसंयतके आहारक ही होता है । तात्पर्य यह है कि प्रमत्तसंयतके औदारिक आदि शरीरोंका निराकरण न हो, इसलिए प्रमत्तसंयत पदके साथ ही एवकार पद लगाया है।
8358. इस प्रकार इन शरीरोंको धारण करनेवाले संसारो जीवोंके प्रत्येक गतिमें क्या 1. पुण्यस्य कर्मणः मु.।
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146]
उत लिङ्गनियमः कश्चिदस्तीत्यत आह
सर्वार्थसिद्धौ
नारकसंमूच्छिनो नपुंसकानि ||50||
8359. नरकाणि वक्ष्यन्ते । नरकेषु भवा नारकाः । संमूर्च्छनं संमूच्र्छः स येषामस्ति' ते संमूच्छिनः । नारकारच संमूच्छिनश्च नारकसमूच्छिनः । चारित्रमोहविकल्पनोकषायभेदस्य नपुंसकवेदस्याशुभनाम्नश्चोदयात्न स्त्रियो न पुमांस इति नपुंसकानि भवन्ति । नारकसंमूच्छिनो नपुंसकान्येवेति नियमः । तत्र हि स्त्रीपुंसविषयमनोज्ञशब्दगन्धरूपरसस्पर्शसंबन्धनिमित्ता स्वल्पापि सुखमात्रा नास्ति ।
$ 360. यद्येवमवधियते, अर्थादापन्नमेतदुक्तेभ्योऽन्ये संसारिणस्त्रिलिङ्गा इति यत्रात्यन्तं नपुंसकलिङ्गस्याभावस्तत्प्रतिपादनार्थमाह
-2150 § 359]
न देवाः ॥51॥
8361. स्त्रैणं पौंस्नं च यन्निरतिशयसुखं शुभगतिनामोदयापेक्षं तद्देवा अनुभवन्तीति न तेषु नपुंसकानि सन्ति ।
$ 362. अथेतरे किल्लिङ्गा इत्यत आह—
शेषास्त्रिवेदाः ॥ 521
8 363. त्रयो वेदा येषां ते त्रिवेदाः । के पुनस्ते वेदा: ? स्त्रीत्वं पुंस्त्वं नपुंसकत्वमिति । तीनों लिंग होते हैं या लिंगका कोई स्वतन्त्र नियम है ? अव इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
नारक और संमूच्छिन नपुंसक होते हैं ॥50॥
8359. नरकोंका कथन आगे करेंगे। जो नरकोंमें उत्पन्न होते हैं वे नारकी कहलाते हैं । जो संमूर्च्छन जन्मसे पैदा होते हैं वे संमूच्छिन कहलाते हैं । सूत्रमें नारक और संमूच्छिन इन दोनों पदोंका द्वन्द्वसमास हैं । चारित्रमोह के दो भेद हैं-कपाय और नोकषाय । इनमें से नोकषायके भेद नपुंसकवेदके उदयसे और अशुभ नामकर्मके उदयसे उक्त जीत्र स्त्री और पुरुष न होकर नपुंसक होते हैं । यहाँ ऐसा नियम जानना कि नारक और संमूच्छिन नपुंसक ही होते हैं.! इन जीवोंके मनोज्ञ शब्द, गन्ध, रूप, रस और स्पर्श के सम्बन्धसे उत्पन्न हुआ स्त्री-पुरुष विषयक थोड़ा भी सुख नहीं पाया जाता है ।
$ 360. यदि उक्त जीवोंके नपुंसकवेद निश्चित होता है तो यह अर्थात् सिद्ध है कि इनसे अतिरिक्त अन्य संसारी जीव तीन वेदवाले होते हैं। इसमें भी जिनके नपुंसकवेदका अत्यन्त अभाव है उनका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
देव नपुंसक नहीं होते ॥51॥
$ 361. शुभगति नामकर्मके उदयसे स्त्री और पुरुषसम्बन्धी जो निरतिशय सुख है। उसका देव अनुभव करते हैं इसलिए उनमें नपुंसक नहीं होते ।
$ 362. इनसे अतिरिक्त शेष जीव कितने लिंगवाले होते हैं, इस बातको बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
शेषके सब जीव तीन वेदवाले होते हैं ॥52॥
8363. जिनके तीन वेद होते हैं वे तीन वेदवाले कहलाते हैं । शंका- वे तीन वेद कौन 1. मस्तीति सम्मू- मु. 1. 2. -त्यन्तनपु - आ. दि. 1 त्यन्तिकनपुर - दि. 21 3 शयं 4. नपुंसकलिंगानि सन्ति मु. ।
सुखं गति- मु. ।
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--2153 $ 364] द्वितीयोऽध्यायः
[147 कथं तेषां सिद्धिः ? वेद्यत इति वेदः । लिंगमित्यर्थः। तद् द्विविधं द्रयलिगं भालिगं चेति । द्रलिंग योनिमेहनादि नामकर्मोदयनिर्वतितम् । नोकषायोदयापादितवृत्ति भालिंगम् । स्त्रीवेदोदयात् स्त्यायस्त्यस्यां गर्भ इति स्त्रो। वेदोदयात् सूते जनयत्यपत्यमिति पुमान् । नपुंसकवेदोदयात्तदुभयशक्तिविकलं नपुंसकम् । रूढिशब्दाश्चैते। रूढिषु च क्रिया व्युत्पत्त्यर्थं च । यथा गच्छतीति गौरिति । इतरथा हि गर्भधारणादिक्रियाप्राधान्ये बालवृद्धानां तिर्यङ्मनुष्याणां देवानां कार्मणकाययोगस्थानां च तदभावात्स्त्रीत्वादिव्यपदेशो न स्यात् । त एते त्रयो वेदाः शेषाणां गर्भजानां भवन्ति।
8364. य इमे जन्मयोनिशरीरलिंगसंबन्धाहितविशेषाः प्राणिनो निर्दिश्यन्ते देवादयो विचित्रधर्माधर्मवशीकृताश्चतसृषु गतिषु शरीराणि धारयन्तस्ते कि यथाकालमुपभुक्तायुषो मूर्त्यन्तराण्यास्कन्दन्ति उतायाकालमपीत्यत आह
औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुपोऽनपवायुषः ॥53॥ हैं ? समाधान--स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुसकवेद। शंका -इनकी सिद्धि कैसे होती है ? समाधान-जो वेदा जाता है उसे वेद कहते हैं। इसोका दूसरा नाम लिंग है। इसके दो भेद हैं--द्रव्यलिंग और भावलिंग । जो योनि मेहन आदि नामकर्मके उदयसे रचा जाता है वह द्रव्यलिंग है और जिसकी स्थिति नोकषायके उदयसे प्राप्त होती है वह भावलिंग है। स्त्रीवेदके उदयसे जिसमें गर्भ रहता है वह स्त्री है। पूवेदके उदयसे जो अपत्यको जनता है वह प है और नपुसकवेदके उदयसे जो उक्त दोनों प्रकारकी शक्तिसे रहित है वह नपुसक है। वास्तवमें ये तीनों रौढिक शब्द हैं और रूढ़िमें क्रिया व्युत्पत्तिके लिए ही होती है । यथा जो गमन करती है वह गाय है । यदि ऐसा न माना जाय और इसका अर्थ गर्भधारण आदि क्रियाप्रधान लिया जाय तो बालक और वृद्धोंके, तिर्यच और मनुष्योंके, देवोंके तथा कार्मणकाययोगमें स्थित जीवोंके गर्भधारण आदि क्रियाका अभाव होनेसे स्त्री आदि संज्ञा नहीं बन सकती है। ये तीनों वेद शेष जीवोंके अर्थात् गर्भजोंके होते हैं ।
विशेषार्थ - इसी अध्यायमें औदयिक भावोंका निर्देश करते समय उनमें तीन लिंग भी गिनाये हैं। ये तीनों लिंग वेदके पर्यायवाची हैं जो वेद-नोकषायके उदयसे होते हैं । यहाँ किन जीवोंके कौन लिंग होता है इसका विचार हो रहा है। इसी प्रतंगसे आचार्य पूज्यपादने लिंगके दो भेद बतलाये हैं-द्रव्यलिंग और भावलिंग । प्रश्न यह है कि लिंगके ये दो भेद सूत्रोंसे फलित होते हैं या विशेष जानकारीके लिए मात्र टीकाकारने इनका निर्देश किया है। उत्तर स्पष्ट है कि मूल सूत्रोंमें मात्र वेद नोकषायके उदयसे होनेवाले वेदोंका ही निर्देश किया है जैसा कि इसी अध्यायके (वें सूत्रसे ज्ञात होता है।
8364. जो ये देवादिक प्राणी जन्म, योनि, शरीर और लिंगके सम्बन्धसे अनेक प्रकारके बतलाये हैं वे विचित्र पुण्य और पापके वशीभूत होकर चारों गतियोंमें शरीरको धारण करते हुए यथाकाल आयुको भोगकर अन्य शरीरको धारण करते हैं या आयुको पूरा न करके भी शरीरको धारण करते हैं ? अब इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उपपादजन्मवाले, चरमोत्तमदेहवाले और असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीव अनपवयंअन्य आयुवाले होते हैं ।।53।।
1. पुमान् । तदुभय- आ., दि. 1- दि. 21
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148] सर्वार्थ सिद्धौ
[2153 83658365. औपपादिका व्याख्याता देवनारका इति । चरमशब्दोऽन्त्यवाची। उत्तम उत्कृष्टः । चरम उत्तमो वेहो येषां ते चरमोत्तमदेहाः । 'परीतसंसारास्तज्जन्मनिर्वाणारे 'इत्यर्थः । असंख्येयमतीतसंख्यानमुपमाप्रमाणेन पल्यादिना गम्यमायुर्येषां त इमे असंख्येयवर्षायुषस्तिर्यङ्मनुष्या उत्तरकुर्वादिषु प्रसूताः । औपपादिकादच चरमोत्तमदेहाश्च असंख्येयवर्षायुषश्च औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषः । बाह्यस्योपघातनिमित्तस्य विषशस्त्रादेः सति संनिधाने ह्रस्वं भवतीत्यपवयंम् । अपवर्त्यमायुर्येषां त इमे अपवायुषः । न अपवायुषः अनपवायुषः । न ह्यषामोप
8365. उपपादजन्मवाले देव और नारकी हैं यह व्याख्यान कर आये। चरम शब्द अन्त्यवाची है। उत्तम शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है। जिनका शरीर चरम होकर उत्तम है वे चरमोत्तम देहवाले कहे जाते हैं। जिनका संसार निकट है अर्थात् उसी भवसे मोक्षको प्राप्त होनेवाले जीव चरमोत्तम देहवाले कहलाते हैं । असंख्येय परिमाण विशेष है जो संख्यातसे परे है । तात्पर्य यह है कि पल्य आदि उपमा प्रमाणके द्वारा जिनकी आयु जानी जाती है वे उत्तरकुरु आदिमें उत्पन्न हुए तिर्यंच और मनुष्य असंख्यात वर्षको आयुवाले कहलाते हैं। उपघातके निमित्त विष शस्त्रादिक बाह्य निमित्तोंके मिलनेपर जो आयु घट जाती है वह अपवर्त्य आयु कहलाती है । इस प्रकार जिनकी आयु घट जाती है वे अपवर्त्य आयुवाले कहलाते हैं और जिनकी आयु नहीं घटती वे अनपवर्त्य आयुवाले कहलाते हैं। इन औपपादिक आदि जीवोंकी आयु बाह्य निमित्तसे नहीं घटती यह नियम है तथा इनसे अतिरिक्त शेष जीवोंका ऐसा कोई नियम नहीं है । सूत्र में जो उत्तम विशेषण दिया है वह चरम शरीरके उत्कृष्टपनको दिखलाने के लिए दिया है। यहाँ इसका और विशेष अर्थ नहीं है । अथवा 'चरमोत्तमदेहा' पाठके स्थानमें 'चरमदेहा'यह पाठ भी मिलता है।
विशेषार्थ-भुज्यमान आयुका उत्कर्षण नहीं होता, केवल उदीरणा होकर आयु घट सकती है, इसलिए प्रश्न होता है कि क्या सब संसारो जीवोंकी आयूका ह्रास होता है या इसका भी कोई अपवाद है। इसी प्रश्नके उत्तर स्वरूप प्रकृत सूत्रकी रचना हुई है। इसमें बतलाया है कि उपपादजन्मवाले देव और नारकी, तद्भवमोक्षगामी मनुष्य और असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यच और मनुष्य इनकी भुज्यमान आयुका ह्रास नहीं होता। इन्हें जो आयु प्राप्त होती है उसका पूरा भोग होकर ही उस पर्यायका अन्त होता है । यह विशेष नियम करनेका कारण यह है कि कर्मशास्त्रके अनुसार निकाचना, निधत्ति और उपशमकरण का प्राप्त कर्मको छोड़कर अन्य कोई भी अधिक स्थितिवाला कर्म उभयरूप कारण विशेषके मिलनेपर अल्पकालमें भोगा जा सकता है । भुज्यमान आयुपर भी यह नियम लागू होता है, इसलिए इस सूत्र-द्वारा यह व्यवस्था दी गयी है कि उक्त जीवोंकी भुज्यमान आयुपर यह नियम लागू नहीं होता। आशय यह है कि इन जीवोंके भुज्यमान आयुके प्रारम्भ होनेके प्रथम समयमें आयुके जितने निषेक होते हैं वे क्रमसे एक-एक निषेक उदयमें आकर ही निर्जराको प्राप्त होते हैं । विष शस्त्रादिक बाह्य निमित्तके बलसे उनका घात नहीं होता । पर इसका अर्थ यह नहीं कि इन जीवोंके आयुकर्मकी उदोरणा ही न होती होगी। इनके उदीरणका होना तो सम्भव है पर निषेक स्थितिघात न होकर ही यह उदीरणा होती है । स्थितिघात न होनेसे हमारा अभिप्राय है कि इनके पूरे निषेकका उदीरणाद्वारा क्षय नहीं होता। सूत्रमें तद्भव मोक्षगामीके लिए 'चरमोत्तमदेह' पाठ आया है। सर्वार्थसिद्धि टीकामें इसकी व्याख्या करते हुए चरम शरीरको ही उत्तम बतलाया गया है, किन्तु तत्त्वार्थराजवातिकमें पहले तो चरमदेह और उत्तमदेह ऐसा अलग-अलग अर्थ किया गया है किन्तु बादमें उत्तम देहवाले चक्रधर आदिके शरीरको अपवर्त्य आयूवाला बतलाकर उत्तम शब्दको 1. -देहाः । विपरीत- मु.। 2. इत्यर्थः । अतीतसंख्यान- ता. ना.।
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-2153 $ 365] द्वितीयोऽध्यायः
[149 पादिकादीनां बाह्यनिमित्तवशादायुरपवर्त्यते, इत्ययं नियमः । इतरेषामनियमः। चरमस्य देहस्योस्कृष्टत्वप्रदर्शनार्थमुत्तमग्रहणं नार्थान्तरविशेषोऽस्ति । 'चरमदेहा' इति वा पाठः ।
__इति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धि संज्ञिकायां द्वितीयोऽध्यायः ।।2।।
चरमदेहका ही विशेषण मान लिया है। एक बात स्पष्ट है कि प्रारम्भसे ही उत्तम पदपर विवाद रहा है। तभी तो सर्वार्थसिद्धि में 'चरमदेह इस प्रकार पाठान्तरको सूचना की गयी है और यह पाठान्तर उन्हें पूर्व परम्परासे प्राप्त था।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धिनामक तत्त्वार्थवृत्तिमें दूसरा अध्याय समाप्त हुआ ।।2।।
1. पाठः ।।2।। जीवस्वभावलक्षणसाधनविषयस्वरूपभेदाश्च । गतिजन्मयोनिदेहलिंगानपवर्तितायुष्कभेदाश्चाध्यायेऽस्मिन्निरूपिता भवन्तीति संबन्धः ।। इति तत्त्वा- मु. । पाठः ।।2। जीवस्वभावलक्षणसाधनविषयस्वरूपमेदाश्च । गतिजन्मयोनिदेहलिंगानपवायुभिदास्तत्र ।। इति तत्त्वा- ना.।
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अथ तृतीयोऽध्यायः $ 366. 'भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्' इत्येवमादिषु नारकाः श्रुतास्ततः पृच्छति के ते नारका इति । तत्प्रतिपादनाथं तदधिकरणनिर्देशः क्रियते
रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो . घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः ॥१॥ 800/. रत्नं च शर्करा च वालुका च पडूश्च धूमश्च तमश्च महातमश्च रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमांसि । 'प्रभा' शब्दः प्रत्येक परिसमाप्यते। साहचर्यात्ताच्छन्द्यम् । चित्रादिरत्नप्रभासहचरिता भूमिः रत्नप्रभा, शर्कराप्रभासहचरिता भूमिः शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभासहचरिता भूमिर्वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभासहचरिता भूमिः पङ्कप्रभा, धूमप्रभासहचरिता भूमिधूमप्रभा, तमःप्रभासहचरिता भूमिस्तमःप्रभा, महातमःप्रभासहचरिता भूमिर्महातमःप्रभा इति । एताः संज्ञा अनेनोपायेन व्युत्पाद्यन्ते । 'भूमि'ग्रहणमधिकरणविशेषप्रतिपत्त्यर्थम् । यथा स्वर्गपटलानि भूमिमनाश्रित्य व्यवस्थितानि न तथा नारकावासाः। किं तर्हि । भूमिमाश्रिता इति'। आसां भूमीनामालम्बननिर्ज्ञानार्थ घनाम्बूवातादिग्रहणं क्रियते। घनाम्बु च वातश्च आकाशं च धनाम्बुवाताकाशानि । तानि प्रतिष्ठा आश्रयो यासा ता घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः । सर्वा एता भूमयो घनोदधिवलयप्रतिष्ठाः । घनोदधिवलयं धनवातवलयप्रतिष्ठम् । धनवातवलयं तनुवातवलयप्रतिष्ठम् ।
8366. 'भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्' इत्यादिक सूत्रोंमें नारक शब्द सुना है इसलिए पूछते हैं कि वे नारकी कौन हैं ? अतः नारकियोंका कथन करनेके लिए उनकी आधारभूत प्रथि वियोंका निर्देश करते हैं
रत्नप्रभा, शकराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा,धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ घनाम्बु, वात और आकाशके सहारे स्थित हैं तथा क्रमसे नीचे-नीचे हैं ॥1॥
8367. 'रत्नशर्कराबालुकापंकधूमतमोमहातमाः' इसमें सब पदोंका परस्पर द्वन्द्व समास है। प्रभा शब्दको प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। पृथिवियोंकी प्रभा क्रमसे रत्न आदिके समान होनेसे इनके रत्नप्रभा आदि नाम पड़े हैं । यथा-जिसकी प्रभा चित्र आदि रत्नोंकी प्रभाके समान है वह रत्नप्रभा भूमि है । जिसकी प्रभा शर्कराके समान है वह शर्कराप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा बालुकाकी प्रभाके समान है वह वालुका प्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा कीचड़के समान है वह पंकप्रभा भूमि है । जिसको प्रभा धुवाके समान है वह धूमप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा अन्धकारके समान है वह तम प्रभा भूमि है और जिसकी प्रभा गाढ अन्धकारके समान है वह महातमःप्रभा भूमि है । इस प्रकार इन नामोंकी व्युत्पत्ति कर लेनी चाहिए। सूत्र में भूमि पदका ग्रहण अधिकरण विशेषका ज्ञान करानेके लिए किया है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्वर्गपटल भमिके बिना स्थित है उस प्रकार नारकियोंके निवासस्थान नहीं हैं। किन्तु वे भूमिके आश्रयसे अवस्थित हैं। इन भूमियोंके आलम्बनका ज्ञान करानेके लिए सूत्र में 'घनाम्बुवात' आदि पदका ग्रहण किया है। अभिप्राय यह है कि ये भूमियाँ क्रमसे घनोदधिवातवलय, घनवातलय, 1.-इति । तासां भूमी- मु., ता., ना.। 2. प्रतिष्ठाः । घनं च घनो मन्दो महान् आयत, इत्यर्थः । अम्बु च जलमु उदकमित्यर्थः। वात-शब्दोऽन्त्यदीपकः । तत एवं संबन्धनीयः । धनो घनवातः । अम्बु अम्बुवातः । वातस्तनुवातः । इति महदपेक्षया तनुरिति सामर्थ्यगम्यः । अन्यः पाठः । सिद्धान्तपाठस्तु घनाम्बु च वातश्चेति । वातशब्दः सोपस्क्रियते । वातस्तनुवात इति वा । सर्वा एता मु., ता., ना.।
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[151
-3118368 ]
तृतीयोऽध्याय तनुवातवलयमाकाशप्रतिष्ठम् । आकाशमात्मप्रतिष्ठ, तस्यैवाधाराधेयत्वात् । श्रीण्यप्येतानि वलयानि प्रत्येक विंशतियोजनसहस्रबाहुल्यानि । 'सप्त'ग्रहणं संख्यान्तरनिवृत्त्यर्थम् । सप्त भूमयो नाष्टौ न नव चेति अधोऽधः'वचनं तिर्यक्प्रचयनिवृत्त्यर्थम् ।।
8368. किं ता भूमयो नारकाणां सर्वत्रावासा आहोस्वित्क्वचित्क्वचिदिति प्रन्निर्धारणार्थमाहतनुवातवलय और आकाशके आश्रयसे स्थित हैं इस बातके दिखलानेके लिए सूत्र में 'घनाम्बुमाताकाशप्रतिष्ठाः' पद दिया है । ये सब भूमियाँ घनोदधिवातवलयंके आश्रयसे स्थित हैं । घनोदधिवातवलय धनवातवलयके आधारसे स्थित है। घनवातवलय तनुवातवलयके आश्रयसे स्थित है। तनुवातवलय आकाशके आश्रयसे स्थित हैं और आकाश स्वयं अपने आधारसे स्थित है; क्योंकि वह आधार और आधेय दोनों है। ये तीनों वातवलय प्रत्येक बीस-बीस हजार योजन मोटे हैं। सुत्रमें 'सप्त' पदका ग्रहण दूसरी संख्या निराकरण करनेके लिए दिया है। भूमियाँ सात ही हैं, न आठ हैं और न नौ हैं । ये भूमियाँ तिर्यक् रूपसे अवस्थित नहीं हैं । इस बातको दिखानेके लिए सूत्रमें 'अधोऽधः' यह वचन दिया है।
विशेषार्थ----आकाशके दो भेद हैं-~अलोकाकाश और लोकाकाश। लोकाकाश अलोकाकाशके बीचोंबीच अवस्थित है। यह अकृत्रिम, अनादिनिधन स्वभावसे निर्मित और छह द्रव्योंसे व्याप्त है। यह उत्तर-दक्षिण अधोभागसे लेकर ऊर्ध्वभाग तक विस्तार की अपेक्षा सर्वत्र सात राजु है। पूर्व-पश्चिम नोचे सात राजु चौड़ा है। फिर दोनों ओरसे घटते-घटते सात राजुकी ऊँचाईपर एक राजु चौड़ा है । फिर दोनों ओर बढ़ते-बढ़ते साढ़े दस राजुकी ऊँचाईपर पाँच राजु चौड़ा है । फिर दोनों ओर घटते-घटते चौदह राजुकी ऊँचाईपर एक राजु चौड़ा है। पूर्व पश्चिमकी ओरसे लोकका आकार कटिपर दोनों हाथ रखकर और पैरोंको फैलाकर खड़े ननुष्य के आकारसा प्रतीत होता है। इससे अधोभाग वेतके आसनके समान, मध्यभाग झालरके समान और ऊर्ध्वभाग मदंगके समान दिखाई देता है। इसके तीन भाग हैं.–अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । मध्यलोकके बीचोंबीच मेरु पर्वत है जो एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। उसके नीचेका भाग अधोलोक, ऊपरका भाग ऊर्ध्वलोक और बराबर रेखामें तिरछा फैला हआ मध्यलोक है। मध्यलोकका तिरछा विस्तार अधिक होनेसे इसे तिर्यग्लोक भी कहते हैं। प्रकृत सूत्र में अधोलोकका विचार किया गया है। इसमें सात भूमियाँ हैं जो उत्तरोत्तर नीचे-नीचे हैं पर आपस में भिड़कर नहीं हैं । किन्तु एक दूसरी भूमिके बीच में असंख्य योजनोंका अन्तर है। इन भूमियोंके नाम सूत्र में क्रमसे दिये ही हैं। ये इनके गुणनाम है । घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी ये इनके रौढिक नाम हैं। पहली पृथिवी एक लाख अस्सी हजार
जन मोटी है। दूसरा बत्तीस हजार याजन मोटी है, तोसरी अट्राइस हजार योजन मोटी है, चौथी चौबीस हजार योजन मोटी है, पाँचवीं बीस हजार योजन मोटी है, छठी सोलह हजार योजन मोटी है, और सातवीं आठ हजार योजन मोटी है। ये सातों भूमियाँ घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाशके आधारसे स्थित हैं । अर्थात् प्रत्येक पृथिवी घनोदधिके आधारसे स्थित है. घनोदधि धनवातके आधारसे स्थित है, घनवात तनुवातके आधारसे स्थित है, तनुवात आकाशके आधारसे स्थित है और आकाश अपने आधारसे स्थित है।
$368. क्या इन भूमियोंमें सर्वत्र नारकियोंके निवास स्थान हैं या कहीं-कहीं, इस बातका निश्चय करनेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
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152]
सर्वार्थसिद्धौ
[31218361तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनेकनरकशतसहस्राणि
पंच चैव यथाक्रमम् ॥2॥ 8 369. तासु रत्नप्रभादिषु भूमिषु नरकाण्यनेन संख्यायन्ते यथाक्रमम् । रत्नप्रभायां त्रिशम्नरकातसहस्राणि, शर्कराप्रभायां पञ्चविंशतिर्नर कशतसहस्राणि, वालुकाप्रभायां पञ्चदश नरकातसहस्राणि, पंकप्रभायां दश नरकशतसहस्राणि, धूमप्रभायां त्रीणि नरकशतसहस्राणि, तमःप्रभायां पञ्चोनमेकं नरकशतसहस्र, महातमःप्रभायां पञ्च नरकाणि । रत्नप्रभायां नरकप्रस्तारास्त्रयोदश । ततोऽध आ सप्तम्या द्वौ द्वौ नरकप्रस्तारो' हीनौ । इतरो विशेषो लोकानुयोगतो वेदितव्यः ।
$ 370. अथ तासु भूमिषु नारकाणां कः प्रतिविशेष इत्यत आह
उन भूमियोंमें क्रमसे तीस लाख, पचीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच नरक हैं ।।2।।
8369. उन रत्नप्रभा आदि भूमियोंमें, इस सूत्र-द्वारा क्रमसे नरकोंकी संख्या बतलायी गयी है । रत्नप्रभामें तीस लाख नरक हैं । शर्कराप्रभामें पचीस लाख नरक हैं। वालुकाप्रभामें पन्द्रह लाख नरक हैं । पंकप्रभामें दश लाख नरक हैं । धूमप्रभामें तीन लाख नरक हैं। तमःप्रभामें पाँच कम एक लाख नरक हैं और महातमःप्रभामें पाँच नरक हैं। रत्नप्रभामें तेरह नरक पटल हैं। इससे आगे सातवी भूमि तक दो-दो नरक पटल कम हैं। इसके अतिरिक्त और विशे लोकानुयोगसे जान लेनी चाहिए।
विशेषार्थ--पहले सात प्रथिवियोंका निर्देश किया ही है। उनमें से पहली पथिवीके तीन भाग हैं-खरभाग, पंकभाग और अब्बहुल भाग । खर भाग सबसे ऊपर है। इसमें रत्नोंकी बहुतायत है और यह सोलह हजार योजन मोटा है । दूसरा पंकभाग है, इसकी मोटाई चौरासी हजार योजन है ! तथा तीसरा अब्बहुल भाग है। इसकी मोटाई अस्सी हजार योजन है। नारकियोंके रहने के आवासको नरक कहते हैं । रत्नप्रभा भूमिके प्रथम भाग और दूसरे भाग में नरक नहीं हैं। तीसरे भागमें हैं। इस प्रकार प्रथम भूमिके तीसरे भागकी और शेष छह भूमियों की जितनी-जितनी मोटाई बतलायी है उसमें-से ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन भूमिको छोड़कर सातों भूमियोंके बाकीके मध्य भागमें नरक हैं। इनका आकार विविध प्रकारका है। कोई गोल हैं, कोई त्रिकोण हैं, कोई चौकोण हैं और कोई अनिश्चित आकारवाले हैं। ये सब नरकपटल क्रमसे अवस्थित है। जिस प्रकार पत्थर या मिट्टीके एक थरपर दूसरा थर अवस्थित होता है उसी प्रकार ये पटल हैं। पहली भूमिमें ये पटल तेरह हैं और आगेकी भूमियोंमें क्रमसे दो-दो पटल कम होते गये हैं । एक पटल दूसरे पटलसे सटा हुआ है। इनमें नरक हैं। नरक जमीनके भीतर कुएंके समान पोलका नाम है। यह ऊपर, नीचे चारों ओर जमीनसे घिरी रहती है। इन्हीं नरकोंमें नारकी जीव अपनी आयुके अन्तिम समय तक रहते हैं और वहाँ नाना प्रकारके दुःख भोगते हैं।
8370 उन भूमियोंमें रहनेवाले नारकियोंमें क्या विशेषता है इस बातको बतलानेके लिए अब आगे सूत्र को कहते हैं1.-सप्तम्या द्वं हूँ नरक-- आ. दि. 1, दि. 2। 2. -प्रस्तारा हीनाः। इतरो आ. दि. 1. दि. 2 । 2. लोकनियोगतो दि. 1, दि. 2 ।
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-313 § 371]
तृतीयोऽध्यायः
नारका नित्याशुभतरलेश्या परिणाम देहवेदनाविक्रियाः ॥ 3 ॥
8371. लेश्यादयो व्याख्यातार्थाः । अशुभतरा इति प्रकर्षनिवंशः तिर्यग्गतिविष याशुभलेश्याद्यपेक्षया अधोऽधः स्वगत्यपेक्षया च वेदितव्यः । 'नित्य' शब्द ' आभीक्ष्ण्यवचनः । नित्यमशुभतरा लेश्यादयो येषां ते नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया नारकाः । प्रथमाद्वितीययोः कापोती लेश्या, तृतीयायामुपरिष्टात्कापोती अधो नीला, चतुर्थ्यां नीला, पञ्चम्यामुपरि नीला अधः कृष्णा, षष्ठ्यां कृष्णा, सप्तम्यां परमकृष्णा । स्वायुः प्रमाणावधूता' द्रव्यलेश्या उक्ताः । भावलेश्यास्तु अन्तर्मुहूर्त परिवर्तन्यः । परिणामाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाः क्षेत्रविशेषनिमित्तवशादतिदुःखहेतवोऽशुभतराः । देहाश्च तेषामशुभनाम' कर्मोदयादत्यन्ताशुभतरा विकृताकृतयो हुण्डसंस्थाना' दुर्दर्शनाः । तेषामुत्सेधः प्रथमायां सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षडंगुलयः । अधोऽधो- द्विगुणद्विगुण' उत्सेधः । अभ्यन्तरासद्वेद्योदये सति अनाविपारिणामिकशीतोष्णबाह्यनिमित्तजनिता' अतितीव्रा वेदना भवन्ति नारकाणाम् । प्रथमाद्वितीयातृतीयाचतुर्थीषु उष्णवेदनान्येव नरकाणि । पञ्चम्यामुपरि उष्णवेदने द्वे नरकशतसहस्रे । अधः शीतवेदन मेकं शतसहस्रम् । षष्ठीसप्तम्योः शीतवेदनान्येव । शुभं विकरिष्याम इति अशुभतरमेव विकुर्वन्ति, सुख
नारको निरन्तर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रियावाले हैं ॥3॥
1
8371. लेश्यादिकका पहले व्याख्यान कर आये हैं । 'अशुभतर' इस पद के द्वारा तियंचगतिमें प्राप्त होनेवाली अशुभ लेश्या आदिककी अपेक्षा और नीचे-नीचे अपनी गतिकी अपेक्षा लेश्यादिrat प्रकर्षता बतलायी है । अर्थात् तिर्यंचोंमें जो लेश्यादिक हैं उनसे प्रथम नरकके नारकियोंके अधिक अशुभ हैं आदि । नित्य शब्द अभीक्ष्ण्य अर्थात् निरन्तरवाची है । तात्पर्यं यह है कि नारकियोंकी लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया निरन्तर अशुभ होते हैं । यथा, प्रथम और दूसरी पृथिवीमें कापोत लेश्या है । तीसरी पृथिवीमें ऊपरके भागमें कापोत लेश्या है और नीचेके भागमें नील लेश्या है। चौथी पृथिवीमें नील लेश्या है । पाँचवीं पृथिवीमें ऊपरके भाग में नील लेश्या है और नीचेके भागमें कृष्ण लेश्या है । छठी पृथिवोमें कृष्ण लेश्या हैं । और सातवीं पृथिवी में परम कृष्ण लेश्या है । द्रव्य लेश्याएँ अपनी आयु तक एक सी कही गयी हैं । किन्तु भावलेश्याएँ अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती हैं । परिणामसे यहाँ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द लिये गये हैं । ये क्षेत्र विशेषके निमित्तसे अत्यन्त दुःखके कारण अशुभतर हैं। नारकियोंके शरीर अशुभ नामकर्मके उदयसे होनेके कारण उत्तरोत्तर अशुभ हैं । उनकी विकृत आकृति है, हुंड संस्थान है और देखने में बुरे लगते हैं । उनकी ऊँचाई प्रथम पृथिवीमें सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है । तथा नीचे-नीचे प्रत्येक पृथिवीमें वह दूनी दूनी है । नारकियोंके अभ्यन्तर कारण असातावेदनीयका उदय रहते हुए अनादिकालीन शीत और उष्णरूप बाह्य निमित्तसे उत्पन्न हुई अति तीव्र वेदना होती है। पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी पृथिवीमें मात्र उष्ण वेदनावाले नरक हैं । पाँचवीं पृथिवीमें ऊपरके दो लाख नरक ऊष्ण वेदनावाले हैं । और नीचे एक लाख नरक शीत वेदनावाले हैं। तथा छठी और सातवीं पृथिवीके नरक शीत वेदनावाले ही हैं । नारकी 'शुभ विक्रिया करेंगे' ऐसा विचार करते हैं पर उत्तरोत्तर अशुभ विक्रियाको ही करते हैं । 'सुखकर हेतुओंको उत्पन्न करेंगे' ऐसा विचार करते हैं, परन्तु वे दुःख1. 'अय खलु नित्यशब्दो नावश्यं कूटस्थेष्वविचालिषु भावेषु वर्तते । किं तहि ? अभीक्ष्ण्येऽपि वर्तते । तद्यथानित्यप्रहसितो नित्यप्रजल्पित इति ।' पा. म. भा. पृ. 57 1 2. स्वायुधः प्रमा-मु, ता., ना., । 3. -माणेऽववृता आ., दि. 1, दि. 21 4. नामोदया - आ. दि. 1, दि. 2 1 5. संस्थापना । तेषां. आ., दि 1, दि. 1, दि. 21 6. द्विगुणो द्विगुण आ., दि. 1, दि. 2 । 7. जनिताः सुतीव्रा मु, दि. 1, दि. 2, आ., ता. 8. - वेदनानामेकं आ. दि. 1, दि. 2 1 9. शुभं करि- मु., आ., दि. 1, दि. 2 ।
[153
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154] सर्वार्थसिद्धौ
[314 8372 हेतूनुत्पादयाम इति दुःखहेतूनेवोत्पादयन्ति । त एते भावा अधोऽधोऽशुतरा वेदितव्याः। 6372. क्रिमेतेषां नारकाणां शीतोष्णजनितमेव दुःखमुतान्यथापि भवतीत्यत आह
परस्परोदीरितदुःखाः ॥4॥ F373. कथं परस्परोदीरितदुःखत्वम् ? नारकाः भवप्रत्ययेनाधिना मिथ्यादर्शनोदयाविभङ्गव्यपदेशभाजा च दूरादेव दुःखहेतूनवगम्योत्पन्नदुःखाः प्रत्यासत्तौ परस्परालोकनाच्च प्रज्वलितकोपाग्नयः पूर्वभवानुस्मरणाच्चातितीवानुबद्धवराश्च श्वशृगालादिवत्स्वाभिघाते प्रवर्तमानाः स्वविक्रियाकृतासिवासीपरशुभिण्डिमालशक्तितोमरकुन्तायोधनादिभिरायुधः स्वकरचरणदशनैश्च छेवनभेदनतक्षणवंशनादिभिः परस्परस्यातितीवं दुःखमुत्पादयन्ति । 8374. किमेतावानेव दुःखोत्पत्तिकारणप्रकार उतान्योऽपि कश्चिदस्तीत्यत आह
संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक चतुर्थ्याः ।।5।। कर हेतुओंको ही उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार ये भाव नीचे-नीचे अशुभतर जानने चाहिए।
विशेषार्थ यहाँ टीकामें लेश्याके दो भेद करके भावलेश्या अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती है यह कहा है । सो इसका तात्पर्य यह है कि जहाँ जो भावलेश्या कही है उसमें परिवर्तन नहीं होता। मात्र उसमें योग और कषायके अनुसार तरतमभाव होता रहता है; क्योंकि प्रत्येक नारकीके वही योग और वही कषाय रहनी चाहिए ऐसा नियम नहीं है। किन्तु अपने-अपने जंघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट कालके अनुसार या द्रव्य, क्षेत्र और भावके अनुसार योग और कषायका परिवर्तन नियमसे होता है । यतः कषायानुरंजित योगप्रवृत्तिका नाम लेश्या है अत: योग और कषायके बदलनेसे अपनी मर्यादा के भीतर वह भी बदल जाती है । मात्र जहाँ कापोत लेश्याका जघन्य अंश कहा है वहाँ वही रहता है वह बदलकर कापोत लेश्याका मध्यम और 'उत्कृष्ट अंश नहीं होता या जहाँ परम कृष्ण लेश्या कही है वहाँ वही रहती है वह बदल कर अन्य लेश्या नहीं होती। शेष कथन सुगम है।
६372. क्या इन नारकियोंके शीतोष्णजनित ही दुःख है या दूसरे प्रकारका भी दुःख है, इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
तथा वे परस्पर उत्पन्न किये गये दुःखवाले होते हैं ॥4॥
8373. शंका नारकी परस्पर एक-दूसरेको कैसे दुःख उत्पन्न करते हैं ? समाधाननारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान है जिसे मिथ्यादर्शनके उदयसे विभंगज्ञान कहते हैं । इस ज्ञानके कारण दूरसे ही दुःखके कारणोंको जानकर उनको दुःख उत्पन्न हो जाता है और समीपमें आनेपर एक-दूसरेको देखनेसे उनकी क्रोधाग्नि भभक उठती है । तथा पूर्वभवका स्मरण होनेसे उनकी वैरकी गाँठ और दृढ़तर हो जाती है। जिससे वे कुत्ता और गीदड़के समान एक-दूसरे का घात करनेके लिए प्रवृत्त होते हैं । वे अपनी विक्रियासे तलवार, बसूला, फरसा, हाथसे चलानेका तीर, बी, तोमर नामका अस्त्र विशेष, बरछा और हथौड़ा आदि अस्त्र-शस्त्र बनाकर उनसे तथा अपने हाथ, पांव और दाँतोंसे छेदना, भेदना, छोलना और काटना आदिके द्वारा परस्पर अतितीव्र दुःखको उत्पन्न करते हैं।
5374. जिन कारणोंसे दुःख उत्पन्न होता है वे क्या इतने ही हैं या और भी हैं ? अब इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
और चौथी भूमिसे पहले तक वे संक्लिष्ट असुरोंके द्वारा उत्पन्न किये गये दुःखवाले भी होते हैं ।।5। 1. नारकाणम् ? भव- मु., ता; ना. ।
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-316 $ 376] तृतीयोऽध्यायः
[155 6375. देवगतिनामकर्मविकल्पस्यासुरत्वसंवर्तनस्य कर्मण उदयावस्यन्ति परानित्यसुराः। पूर्वजन्मनि भाषितेनातितीवेणं संक्लेशपरिणामेन यदुपार्जितं पापकर्म तस्योदयात्सततं क्लिष्टाः' संक्लिष्टाः, संश्लिष्टा असुराः संश्लिष्टासुराः । संक्लिष्टा इति विशेषणान्न सर्वे असुरा नारकाणां दुःखमुत्पादयन्ति । कि तहि ? अम्बावरीषादय एव केचनेति । अवधिप्रदर्शनार्थ 'प्राक्चतुर्थ्याः' इति विशेषणम् । उपरि तिसृषु पृथ्वीषु संक्लिष्टासुरा बाधाहेतवो नातः परमिति प्रदर्शनार्थम् । 'ई' शवः पूर्वोक्तदुःखहेतुसमुच्चयार्थः । सुतप्तायोरसपायननिष्टप्तायस्तम्भालिङ्गनकूटशाल्मल्यारोहणावतरणायोधनाभिघातवासीक्षरतक्षणक्षारतप्ततलावसेचनायःकुम्भीपाकाम्बरीषभर्जनवैतरगोमज्जनयन्त्रनिष्पीडनादिभिर्नारकाणां दुःखमुत्पादन्ति । एवं छेदनभेदनादिभिः शकलीकृतमूर्तीनामपि तेषां न मरणभकाले भवति । कुतः ? अनपवायुष्कत्वात् । 6376. यद्येवं, तदेव तावदुच्यतां नारकाणामायुःपरिमाणमित्यत आहतेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रस्त्रिशत्सागरोपमा सत्त्वानां
परा स्थितिः ॥6॥ 8375. देवगति नामक नामकर्मके भेदोंमें एक असुर नामकर्म है जिसके उदयसे 'परान् अस्यन्ति' जो दूसरोंको फेंकते हैं उन्हें असुर कहते हैं। पूर्व जन्ममें किये गये अतितीव्र संक्लेशरूप परिणामोंसे इन्होंने जो पापकर्म उपाजित किया उसके उदयसे ये निरन्तर क्लिष्ट रहते हैं इसलिए संक्लिष्ट असुर कहलाते हैं । सूत्रमें यद्यपि असुरोंको संक्लिष्ट विशेषण दिया है पर इसका यह अर्थ नहीं कि सब असुर नारकियोंको दुःख उत्पन्न कराते हैं । किन्तु अम्बावरीष आदि कुछ असुर ही दुःख उत्पन्न कराते हैं । मर्यादाके दिखलानेके लिए सूत्रमें 'प्राक् चतुर्थ्याः' यह विशेषण दिया है । इससे यह दिखलाया है कि ऊपरकी तीन पृथिवियोंमें ही संक्लिष्ट असुर बाधाके कारण हैं, इससे आगे नहीं। सूत्रमें 'च' शब्द पूर्वोक्त दुःखके कारणोंका समुच्चय करनेके लिए दिया है। परस्पर खूब तपाया हुआ लोहेका रस पिलाना, अत्यन्त तपाये गये लौहस्तम्भका आलिंगन, कूट सेमरके वृक्षपर चढ़ाना-उतारना, लोहेके घनसे मारना, बसूला और छुरासे तरासना; तपाये गये
तेलसे सींचना, तेलकी कढाई में पकाना, भाडमें भजना, वैतरणीमें डबाना, यन्त्रसे पेलना आदिके द्वारा नारकियोंके परस्पर दुःख उत्पन्न कराते हैं। इस प्रकार छेदन, भेदन आदिके द्वारा उनका शरीर खण्ड-खण्ड हो जाता है तो भी उनका अकालमें मरण नहीं होता है, क्योंकि उनकी आयु घटती नहीं।
विशेषार्थ-नारक जीव स्वभावसे क्रू र स्वभाववाले होते हैं। एक-दूसरेको देखते ही उनका क्रोध भभक उठता है और वे एक-दूसरेको मारने काटने लगते हैं। उनका शरीर वैक्रियिक होता है इसलिए उससे वे नाना प्रकारके आयुध आदिका आकार धारण कर उनसे दूसरे नारकियोंको पीड़ा पहुँचाते हैं। तीसरे नरक तक देवोंका भी गमन होता है, इसलिए ये भी कुतूहल वश उन्हें आपस में भिड़ा देते हैं और उनका घात-प्रत्याघात देखकर मजा लूटते हैं। पर यह काम सब देव नहीं करते किन्तु अम्बावरीष आदि जातिके कुछ ही असुर कुमार देव करते हैं । इतना सब होते हुए भी उन नारकियोंका अकाल मरण नहीं होता इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए।
6376. यदि ऐसा है तो यह कहिए कि उन नारकियोंकी कितनी आयु है ? इसी बातको बतसानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उन नरकोंमें जीवोंको उत्कृष्ट स्थिति क्रमसे एक, तीन, सात, बस, सत्रह, बाईस और ततोल सागरोपम है ॥6॥ 1. सम्मनि संभावि- मु.। 2. क्लिष्टाः संक्लिष्टा असुरा: मु.। 3. -पुषस्वात् आ. दि . दि. 2।
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156]
सर्वार्थसिद्धी
[316 § 377
8377. यथाक्रममित्यनुवर्तते । तेषु नरकेषु भूमिमेण यथासंख्य मे कावयः स्थितयोऽभिसंबध्यन्ते । रत्नप्रभायामुत्कृष्टा स्थितिरेकसागरोपमा । शर्कराप्रभायां त्रिसागरोपमा । वालुकाप्रभायां सप्तसागरोपमा । पंकप्रभायां दशसागरोपमा । धूमप्रभायां सप्तदशसागरोपमा । तमः प्रभायां द्वाविंशतिसागरोपमा । महातमः प्रभायां त्रयस्त्रशत्सागरोपमा इति । परा उत्कृष्टेत्यर्थः । 'सत्वानाम्' इति वचनं भूमिनिवृत्त्यर्थम् । भूमिषु सत्स्वानामियं स्थितिः, न भूमीनामिति ।
$378. उक्तः सप्तभूमिविस्तीर्णोऽधोलोकः । इदानीं तिर्यग्लोको वक्तव्यः । कथं पुनस्तिर्यग्लोकः । यतोऽसंख्येयाः स्वयंभूरमणपर्यन्ता स्तिर्यक्प्रचयविशेषेणावस्थिता द्वीपसमुद्रास्ततस्तिर्यग्लोक इति । के पुनस्तिर्यग्व्यवस्थिता इत्यत आह
जम्बूद्वीपलवणोदादय: शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥17॥
8379. जम्बूद्वीपादयो द्वीपाः । लवणोदादयः समुद्राः । यानि लोके शुभानि नामानि तन्नामानस्ते । तद्यथा - जम्बूद्वीपो द्वीपः । लवणोदः समुद्रः । धातकीखण्डो द्वीपः । कालोवः समुद्रः । पुष्करवरो द्वीपः । पुष्करवरः समुद्रः । वारुणीवरो द्वीपः । वारुणीवरः समुद्रः । क्षीरवरो द्वीपः । क्षीरवरः समुद्रः । घृतवरो द्वीपः । घृतवरः समुद्रः । इक्षुवरो द्वीपः । इक्षुवरः समुद्रः । नन्दीश्वरवरो द्वीपः । नन्दीश्वरवरः समुद्रः । अरुणवरो द्वीपः । अरुणवरः समुद्रः । इत्येवम संख्येया द्वीपसमुद्राः स्वयंभूरमणपर्यन्ता वेदितव्याः ।
8 380. अमीषां विष्कम्भसंनिवेशसंस्थानविशेषप्रतिपत्यर्थमाह
8377. इस सूत्रमें 'यथाक्रमम्' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। जिससे उन नरकोंमें भूमिके क्रमसे एक सागरोपम आदि स्थितियोंका क्रमसे सम्बन्ध हो जाता है । रत्नप्रभामें एक सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । शर्कराप्रभामें तीन सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । वालुकाप्रभामें सात सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । पंकप्रभामें दस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । धूमप्रभामें सत्रह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । तमःप्रभामें बाईस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है और महातमःप्रभा तैंतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । 'परा' शब्दका अर्थ 'उत्कृष्ट' है । और 'सत्त्वानाम्' पद भूमियोंके निराकरण करनेके लिए दिया है। अभिप्राय यह है कि भूमियोंमें जीवोंकी यह स्थिति है, भूमियोंकी नहीं ।
8378. सात भूमियों में फैले हुए अधोलोकका वर्णन किया। अब तिर्यग्लोकका कथन करना चाहिए । शंका- तिर्यग्लोक यह संज्ञा क्यों है ? समाधान—चूँकि स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप- समुद्र तिर्यक् प्रचयविशेषरूपसे अवस्थित हैं, इसलिए तिर्यग्लोक संज्ञा है । तिर्यक् रूपसे अवस्थित क्या हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
जम्बूद्वीप आदि शुभ नामवाले द्वीप और लवणोद आदि शुभ नामवाले समुद्र हैं ॥7॥ 8379. जम्बूद्वीप आदिक द्वीप हैं और लवणोद आदिक समुद्र हैं । तात्पर्य यह है कि लोकमें जितने शुभ नाम हैं उन नामवाले वे द्वीप समुद्र हैं । यथा - जम्बूद्वीप नामक द्वीप, लवणोद समुद्र, धातकीखण्ड द्वीप, कालोद समुद्र, पुष्करवर द्वीप, पुष्करवर समुद्र, वारुणीवर द्वीप, वारुणीवर समुद्र, क्षीरवर द्वीप, क्षीरवर समुद्र, घृतवर द्वीप, घृतवर समुद्र, इक्षुवर द्वीप, इक्षुवर समुद्र, नन्दीश्वरवर द्वीप, नन्दीश्वरवर समुद्र, अरुणवर द्वीप और अरुणवर समुद्र, इस प्रकार स्वयंभूरमण पर्यन्त असंख्यात द्वीप- समुद्र जानने चाहिए ।
8380. अब इन द्वीप समुद्रों के विस्तार, रचना और आकारविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
1. के पुनस्ते तिर्य- आ. वि. 1
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तृतीयोऽध्यायः
द्विद्विविष्कम्भाः पूर्व पूर्व परिक्षेपणो वलयाकृतयः || ४ ||
381. द्विद्विरिति वीप्साम्यावृत्तिवचनं विष्कम्भद्विगुणत्वव्याप्त्यंम् । आद्यस्य द्वीपस्य यो विष्कम्भः तद्विगुणविष्कम्भो लवणजलधिः । तद् द्विगुणविष्कम्भो द्वितीयो द्वीपः । तद्विगुणविष्कम्भोद्वितीयो जलधिरिति । द्विद्विविष्कम्भो येषां ते द्विद्विविष्कम्भाः । पूर्वपूर्वपरिक्षेपिवचनं ग्रामनगरादिवद्विनिवेशो मा विज्ञायीति । वलयाकृतिवचनं चतुरस्त्रादिसंस्थानान्तरनिवृत्त्यर्थम् । 8382. अत्राह, जम्बूद्वीपस्य प्रवेशसंस्थानविष्कम्भा वक्तव्यास्तन्मूलत्वादितरविष्कम्भाविविज्ञानस्येत्युच्यते
-319383]
तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृतो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः || १||
8383. तेषां मध्ये तन्मध्ये । केषाम् ? पूर्वोक्तानां द्वीपसमुद्राणाम् । नाभिरिव नाभिः । मेरुर्नाभिर्यस्य स मेरुनाभिः । वृत्त आदित्यमण्डलोपमानः । शतानां सहस्रं शतसहस्रम् । योजनानां शतसहस्रं योजनशतसहस्रम् | योजनशतसहस्रं विष्कम्भो यस्य सोऽयं योजनशतसहस्रविष्कम्भः । कोsit ? जम्बूद्वीपः । कथं जम्बूद्वीप: ? जम्बूवृक्षोपलक्षितत्वात् । उत्तरकुरूणां मध्ये जम्बूवृक्षोनादिनिधनः पृथिवीपरिणामो ऽकृत्रिमः सपरिवारस्तदुपलक्षितोऽयं द्वीपः ।
[157
वे सभी द्वीप और समुद्र दूने-दूने व्यासवाले, पूर्व-पूर्व द्वीप और समुद्रको वेष्टित करनेवाले और चूड़ीके आकारवाले हैं ॥8॥
8381. द्वीप - समुद्रोंका विस्तार दूना दूना है इस बातको दिखलाने के लिए सूत्र में 'द्विद्विः ' इस प्रकार वीप्सा अर्थ में अभ्यावृत्ति वचन है । प्रथम द्वीपका जो विस्तार है लवणसमुद्रका विस्तार उससे दूना है तथा दूसरे द्वीपका विस्तार इससे दूना है और समुद्रका इससे दूना है । इस प्रकार उत्तरोत्तर दूना-दूना विस्तार है । तात्पर्य यह है कि इन द्वीप समुद्रों का विस्तार दूनादूना है, इसलिए सूत्र में उन्हें दूने-दूने विस्तारवाला कहा है। ग्राम और नगरादिकके समान इन द्वीप- समुद्रों की रचना न समझो जाये इस बातके बतलाने के लिए सूत्र में 'पूर्वपूर्व परिक्षेपिण:' यह वचन दिया है । अर्थात् वे द्वीप और समुद्र उत्तरोत्तर एक दूसरेको घेरे हुए हैं । सूत्रमें जो 'वलयाकृतय:' वचन दिया है वह चौकोर आदि आकारोंके निराकरण करने के लिए दिया है ।
8382. अब पहले जम्बूद्वीपका आकार और विस्तार कहना चाहिए, क्योंकि दूसरे द्वीप समुद्रोंका विस्तार आदि तन्मूलक है, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
उन सबके बीचमें गोल और एक लाख योजन विष्कम्भवाला जम्बूद्वीप है। जिसके मध्यमें नाभिके समान मेरु पर्वत है ॥9॥
$ 383. 'तन्मध्ये' पदका अर्थ है 'उनके बीच में' । शंका-किनके बीचमें ? समाधानपूर्वोक्त द्वीप और समुद्रोंके बीचमें । नाभिस्थानीय होनेसे नाभि कहा है। जिसका अर्थ मध्य है । अभिप्राय यह है कि जिसके मध्य में मेरु पर्वत है, जो सूर्य के मण्डल के समान गोल है और जिसका एक लाख योजन विस्तार है ऐसा यह जम्बूद्वीप है । शंका- इसे जम्बूद्वीप क्यों कहते हैं ? समाधान - जम्बूवृक्षसे उपलक्षित होने के कारण इसे जम्बूद्वीप कहते हैं । उत्तरकुरुमें अनादिनिधन, पृथिवी से बना हुआ, अकृत्रिम और परिवार वृक्षोंसे युक्त जम्बूवृक्ष है, उसके कारण यह जम्बूद्वीप कहलाता है ।
विशेषार्थ - अधोलोकका विवेचन कर आये हैं। इसके बाद मध्यलोक
यभा
1. बीप्सायां वृत्तिवचनं आ, दि. 1, दि. 2, मु. 1 2. पूर्वोक्तद्वीप - आ., दि. 1, दि. 2, मु. 3. नाभिर्मध्यम । मेरु- आ., दि. 1, दि. 2, मु. 1 4. परिमाणोऽकृ- मु. ।
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1581 सर्वार्थसिदौ
[3110.8 3845 384. तत्र जमाद्वीपे षडभिः कलपर्वतैविभक्तानि सप्त क्षेत्राणि कानि तानीत्यत आह
भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि 10100 1385. भरतावयः संज्ञा अनादिकालप्रवृत्ता अमिमित्ताः। तत्र भरतवर्षःक्व संनिविष्टः? दक्षिणविग्भागे हिमवतोऽद्रेस्त्रयाणां समुद्राणां मध्ये आरोपितचापाकारो भरतवर्षः। विजयान गङ्गासिन्धम्यां च विभक्तः स षट्खण्डः । क्षुद्रहिमवन्तमुत्तरेण दक्षिणेन महाहिमवन्तं पूर्वापरसमुद्रयोर्मध्ये हैमवतवर्षः। निषषस्य दक्षिणतो महाहिमवत उत्तरतः पूर्वापरसमुद्रयोरन्तराले हरिवर्षः । निषषस्योत्तरान्नीलतो दक्षिणतः पूर्वापरसमुद्रयोरन्तरे विवेहस्य संनिवेशो द्रष्टव्यः । नीलत उत्तरात् (द्) रुक्मिणो दक्षिणात् पूर्वापरसमुद्रयोर्मध्ये रम्यकवर्षः। रुक्मिण उत्तराच्छिखप्रथिवीके ऊपरी भागपर अवस्थित है। इसमें गोल आकारको लिये हुए और एकके बाद एकको घेरे हुए असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं । इन सबके बीचमें जम्बूद्वीप है । इसके बीचमें और दूसरा द्वीप समुद्र नहीं है। यद्यपि गोल तो सब द्वीप और समुद्र हैं पर वे सब चूड़ीके समान गोल हैं और यह थालोके समान गोल है । इसका व्यास एक लाख योजन है। इसके ठीक बीच में मेरु पर्वत है। यह एक लाख चालीस योजन ऊंचा है। इसमें से एक हजार योजन जमीन में है । चालीस योजनकी आखीरमें चोटी है और शेष निन्यानबे हजार योजनका समतलसे चूलिका तक है। प्रारम्भमें जमीनपर मेरु पर्वतका व्यास दस हजार योजन है । ऊपर क्रमसे घटता गया है। जिस हिसाबसे ऊपर घटा है उसी हिसाबसे जमीनमें उसका व्यास बढ़ा है। मेरु पर्वतके तीन काण्ड हैं। पहला काण्ड जमीनसे पांच सौ योजनका, दूसरा साढ़े बासठ हजार योजनका और तीसरा छत्तीस हजार योजनका है । प्रत्येक काण्डके अन्तमें एक-एक कटनी है। जिसका एक ओरका व्यास पाँचसौ योजन है। अन्तिम कटनीका व्यास मात्र छह योजन कम है। एक जमीनपर और तीन इन तीन कटनियोंपर इस प्रकार यह चार वनोंसे 'सुशोभित है। इनके क्रमसे भद्रसाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक ये नाम हैं। पहली और दूसरी कटनीके बाद मेरु पर्वत सीधा गया है फिर क्रमसे घटने लगता है । इसके चारों वनोंमें चारों दिशाओंमें एक-एक वनमें चार-चार इस हिसाबसे सोलह चैत्यालय हैं। पाण्डुक वनमें चारों दिशाओं में चार पाण्डुक शिलाएं हैं जिनपर उस-उस दिशाके क्षेत्रोंमें उत्पन्न हुए तीर्थंकरोंका अभिषेक होता है। इसका रंग पीला है।
6384. इस जम्बूद्वीपमें छह कुलपर्वतोंसे विभाजित होकर जो सात क्षेत्र हैं वे कौन-से हैं ? इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरव्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात क्षेत्र हैं ॥10॥
8385. क्षेत्रोंकी भरत आदि संज्ञाएँ अनादि कालसे चली आ रही हैं और अनिमित्तक हैं। इनमें से भरत क्षेत्र कहाँ स्थित है ? हिमवान् पर्वतके दक्षिणमें और तीन समुद्रोंके बीचमें चढ़े हुए धनुषके आकारवाला भरत क्षेत्र है जो विजयाध और गंगा-सिन्धुसे विभाजित होकर छह खण्डोंमें बँटा हुआ है। क्षुद्र हिमवान्के उत्तरमें और महाहिमवान्के दक्षिणमें तथा पूर्वपश्चिम समुद्रके बीच में हैमवत क्षेत्र है। निषधके दक्षिणमें और महाहिमवान्के उत्तरमें तथा पूर्व
और पश्चिम समुद्रके बीचमें हरिक्षेत्र है । निषधके उत्तरमें और नोलके दक्षिणमें तथा पूर्व और पश्चिम समुद्रके बीच में विदेह क्षेत्रकी रचना है । नोलके उत्तरमें और रुक्मीके दक्षिणमें तथा पूर्व 1. क्षेत्राणि ||100 भिन्न-भिन्नानि भरता- आ. । 2. -याणां च समु- मु. । 3. विभक्तः षट- मु,। 4. नीलवत उत्त- आ., दि. 1, दि. 21 5. उत्तरः रुक्मिणो दक्षिणः मु.।
-
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-3112 8388] तृतीयोऽध्यायः
[159 रिणो दक्षिणात्पूर्वापरसमुद्रयोमध्ये संनिवेशी हैरण्यक्तवर्षः । शिखरिण उत्तरतस्त्रयाणां समुद्राणां मध्ये ऐरावतवर्षः । विजयार्द्धन रक्तारक्तोदाभ्यां च विभक्तः स षट्खण्डः। 8386. षट् कुलपर्वता इत्युक्तं के पुनस्ते कथं वा व्यवस्थिता इत्यत आहतद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनील
रुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥1॥ 8387. तानि क्षेत्राणि विभजन्त इत्येवंशीलास्तद्विभाजिनः । पूर्वापरायता इति पूर्वापरकोटिभ्यां लवणजलधिस्पशिन इत्यर्थः। हिमवदादयोऽनादिकालप्रवत्ता अनिमित्तसंज्ञा वर्षविभागहेतुत्वाद्वर्षधरपर्वता इत्युच्यन्ते । तत्र क्व हिमवान् ? भरतस्य हैमवतस्य च सोमनि व्यवस्थितः । क्षुद्रहिमवान् योजनशतोच्छ्रायः । हैमवतस्य हरिवर्षस्य च विभागकरो महाहिमवान् द्वियोजनशतोच्छायः । विदेहस्य दक्षिणतो हरिवर्षस्योत्तरतो निषधो नाम पर्वतश्चतुर्योजनशतोच्छायः । उत्तरे त्रयोऽपि पर्वताः स्ववर्षविभाजिनो व्याख्याताः । उच्छायश्च तेषां चत्वारि द्वे एकं च योजनशतं वेदितव्यम् । सर्वेषां पर्वतानामुच्छायस्य चतुर्भागोऽवगाहः । 8 388. तेषां वर्णविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
हेमाजुनतपनीयौडूर्यरजतहेममयाः ॥12।। पश्चिम समुद्रके बीच में रम्यक क्षेत्र है। रुक्मीके उत्तरमें और शिखरीके दक्षिणमें तथा पूर्व और पश्चिम समुद्रके बीच में हैरण्यवत क्षेत्र है । शिखरीके उत्तरमें और तीन समुद्रोंके बीच में ऐरावत क्षेत्र है जो विजयाधं और रक्ता रक्तोदासे विभाजित होकर छन् खण्डोंमें बँटा हुआ है।
386. कुलपर्वत छह हैं यह पहले कह आये हैं, परन्तु वे कौन हैं और कहाँ स्थित हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उन क्षेत्रोंको विभाजित करनेवाले और पूर्व-पश्चिम लम्बे ऐसे हिमवान, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह वर्षधर पर्वत हैं ॥1॥
387. इन पर्वतोंका स्वभाव उन क्षेत्रोंका विभाग करना है, इसलिए इन्हें उनका विभाग करनेवाला कहा है । ये पूर्वसे पश्चिम तक लम्बे हैं । इसका यह भाव है कि इन्होंने अपने पूर्व और पश्चिम सिरेसे लवण समुद्रको स्पर्श किया है। ये हिमवान् आदि संज्ञाएँ अनादि कालसे चली आ रही हैं और बिना निमित्तकी हैं । इन पर्वतोंके कारण क्षेत्रोंका विभाग होता है इसलिए इन्हें वर्षधर पर्वत कहते हैं । हिमवान् पर्वत कहाँ है अब इसे बतलाते हैं-भरत और हैमबत क्षेत्रकी सीमापर हिमवान् पर्वत स्थित है। इसे क्षुद्र हिमवान् भी कहते हैं। यह सो योजन ऊँचा है। हैमवत और हरिवर्षका विभाग करनेवाला महाहिमवान है। यह दो सौ योजन ऊँचा है। विदेहके दक्षिणमें और हरिवर्षके उत्तर में निषध पर्वत है। यह चार सौ योजन ऊँचा है। इसी प्रकार आगेके तीन पर्वत भी अपने-अपने क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले जानने चाहिए। उनकी ऊँचाई क्रमशः चार सौ, दो सौ और सौ योजन जाननी चाहिए । इन सब पर्वतोंकी जड़ अपनी . ऊँचाईका एक-चौथाई भाग है।
8 388. अब इन पर्वतोंके वर्णविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
ये छहों पर्वत क्रमसे सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, वैडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके समान रंगवाले हैं ॥12॥ 1. संनिवेशो हैर- मु.। 2. -विभक्तः षट- मु.। 3. सीमन्यव- आ., दि. 1, दि. 2। 4. हरिवंशस्य च विभा- आ., दि. 1, दि. 21 5. -च्छ्रायः । महाविदेहस्य जा., दि. 1, दि. 21 6. -तव्यम् । पर्वता- मु.।
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160]
सर्वार्थसिद्धी
[3112 § 389
8389. त एते हिमवदादयः पर्वता हेमादिमया वेदितव्या यथाक्रमम् । हेममयो हिमवान् चीनवर्ण: । अर्जुनमयो महाहिमवान् शुक्लवर्णः । तपनीयमयो निषधस्तरणादित्यवर्णः । वैडूर्यमयो नीलो मयूरग्रीवाभः । रजतमयो रुक्मी शुक्लः । हेममयः शिखरो चीनपट्टवर्णः । 8390. पुनरपि तद्विशेषणार्थमाह
मणिविचित्र पार्वा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ।।13।।
$ 391. नानावर्णप्रभादिगुणोपेतैर्मणिभिविचित्राणि पार्खाणि येषां ते मणिविचित्रपावः । अनिष्ट' संस्थानस्य निवृत्त्यर्थमुपर्यादिवचनं क्रियते । 'च' शब्दो मध्यसमुच्चयार्थः । य एषां मूले विस्तारः स उपरि मध्ये च तुल्यः ।
8392. तेषां मध्ये लब्धास्पदा हदा उच्यन्ते-
पद्ममहापद्मतिगिञ्छ के सरि महापुण्डरीक पुण्डरीका हृदास्तेषामुपरि ॥14॥
8393. पद्मो महापद्मस्तिगिञ्छः केसरी महापुण्डरीकः पुण्डरोक इति तेषां हिमवदादीनामुपरि यथाक्रममेते हदा वेदितव्याः ।
$ 394. तत्राद्यस्य संस्थानविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
8389. वे पर्वत क्रमसे हेम आदि वर्णवाले जानने चाहिए। हिमवान् पर्वतका रंग हेममय अर्थात् चीनी रेशमके समान है । महाहिमवान्का रंग अर्जुनमय अर्थात् सफेद है । निषध पर्वतका रंग तपाये गये सोनेके समान अर्थात् उगते हुए सूर्य के रंगके समान है। नील पर्वतका रंग वैडूर्यमय अर्थात् मोरके गलेकी आभावाला है । रुक्मी पर्वतका रंग रजतमय अर्थात् सफेद है और शिखरी पर्वतका रंग हेममय अर्थात् चीनी रेशमकें समान है ।
8390. फिर भी इन पर्वतोंकी और विशेषता का ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र
कहते हैं
इनके पार्श्व मणियोंसे चित्र-विचित्र हैं तथा वे ऊपर, मध्य और मूलमें समान विस्तारवाले हैं ॥13॥
8391. इन पर्वतोंके पार्श्व भाग नाना रंग और नाना प्रकार की प्रभा आदि गुणोंसे युक्त मणियोंसे विचित्र हैं, इसलिए सूत्रमें इन्हें मणियोंसे विचित्र पार्श्ववाले कहा है । अनिष्ट आकारके निराकरण करनेके लिए सूत्रमें 'उपरि' आदि पद रखे हैं । 'च' शब्द मध्यभागका समुच्चय करनेके लिए है। तात्पर्य यह है कि इनका मूलमें जो विस्तार है वही ऊपर और मध्यमें है ।
8392. इन पर्वतों मध्यमें जो तालाब हैं उनका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र
कहते
इन पर्वतोंके ऊपर क्रमसे पद्म, महापद्म, तिगिछ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये तालाब हैं॥14॥
8393. पद्म, महापद्म, तिगिंच्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये छह ताला हैं जो उन हिमवान् आदि पर्वतोंपर क्रमसे जानना चाहिए ।
$ 394. इनमें से पहले तालाबके आकार- विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र
कहते हैं
1. तद्विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह मु । 2. -ष्टस्य संस्था- मु.
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---3118 § 401]
तृतीयोऽध्यायः
प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कम्भो हृदः ॥15॥
$ 395. प्राक्प्रत्यग् योजन सहस्रायाम उदगवाक् पञ्चयोजनशतविस्तारो वज्रमयतलो विविधमणिकनक विचित्रिततटः पद्मनामाह्रदः ।
8396. तस्थावगाप्रक्लृप्त्यर्थमिदमुच्यते
दशयोजनावगाहः ।।16।।
8397. अवगाहोऽधः प्रवेशो निम्नता । दशयोजनान्यवगाहोऽस्य दशयोजनावगाहः । 8398. 'तन्मध्ये किम्
तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ॥17॥
8399. योजनप्रमाणं योजनम्, क्रोशायामपत्रत्वात्क्रोशद्वयविष्कम्भकणिकत्वाच्च योजनायामविष्कम्भम् । जलतलात्क्रोशद्वयोच्छ्रायनालं यावद्बहुलपत्रप्रचयं पुष्करमवगन्तव्यम् । $ 400. इतरेषां हृदानां पुष्कराणां चायामादिनिर्ज्ञानार्थमाहतद्विगुणद्विगुणा हदाः पुष्कराणि च ॥18॥
8401. स च तच्च ते, तयद्विगुणा' द्विगुणास्तद्विगुणद्विगुणा इति द्वित्वं व्याप्तिज्ञापनार्थम् । केन द्विगुणाः ? आयामादिना । पद्मह्रदस्य द्विगुणायामविष्कम्भावगाहो महापद्मो
पहला तालाब एक हजार योजन लम्बा और इससे आधा चौड़ा है ।। 150
8395. पद्म नामक तालाव पूर्व और पश्चिम एक हजार योजन लम्बा है तथा उत्तर और दक्षिण पाँच सौ योजन चौड़ा है। इसका तलभाग वज्रसे बना हुआ है। तथा इसका तट नाना प्रकारके मणि और सोनेसे चित्रविचित्र है ।
[161
$ 396. अब इसकी गहराई दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं—
तथा दस योजन गहरा है ॥16॥
8397. अवगाह, अधः प्रवेश और निम्नता ये एकार्थवाची नाम हैं । पद्म तालाबकी गहराई दस योजन है यह इस सुत्रका तात्पर्य है ।
8398. इसके बीच में क्या है ?
इसके बीच में एक योजनका कमल है । 17
t
8399. सूत्रमें जो 'योजनम्' पद दिया है उससे एक योजन प्रमाण लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि कमलका पत्ता एक कोस लम्बा है और उसकी कणिकाका विस्तार दो कोसका है, इसलिए कमल एक योजन लम्बा और एक योजन विस्तारवाला है । इस कमलकी नाल जलतल से दो कोस ऊपर उठी है और इसके पत्तोंकी उतनी ही मोटाई है। इस प्रकार यह कमल जानना चाहिए ।
8400. अब दूसरे तालाब और कमलोंकी लम्बाई आदिका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
-
आगे तालाब और कमल दूने दूने हैं || 18 |
§ 401. सूत्र में जो 'तत्' पद आया है उससे तालाब और कमल दोनोंका ग्रहण किया है। आगेके तालाब और कमल दूने दूने हैं इस व्याप्तिका ज्ञान करानेके लिए सूत्र में ' तद्विगुणद्विगुणाः ' कहा है। शंका-ये तालाब और कमल किसकी अपेक्षा दूने हैं ? समाधान - लम्बाई आदिकी 1. -- गाहः । तन्मध्ये योजनं आ, दि. 1, दि. 2 1 2. तयद्विगुणास्तद्विगुणास्त- मु. । 3. ज्ञानार्थम् मु. । 4. - पद्महृदः मु.
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162]
सर्वार्थसिद्धी
[3119 8 402ह्रदः । तस्य द्वि गुणायामविकरभादगाहरितरिड छो' हदः । पुरकराणि च । किम् ? द्विगुणानि दिगुणानीत्यभिसंबध्यते।
६ 402. तन्निवासिनीनां देवीनां संज्ञाजीवितपरिवारप्रतिपादनार्थमाहतनिवासिन्यो देव्यः श्रीहीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः
ससामानिकपरिषत्काः ॥19॥ 8403. तेषु पुष्करेषु कणिकामध्यदेशनिवेशिनः शरद्विमलपूर्णचन्द्रद्युतिहराः क्रोशायामाः क्रोशार्द्धविष्कम्भा देशोनकोशोत्सेधाः प्रासादाः। तेष निवसन्तीत्येवंशीलास्तन्निवासिन्यः, देव्यः श्रीह्रीधृतिकोतिबुद्धिलक्ष्मीसंज्ञिकास्तेषु पद्मादिषु यथाक्रम वेदितव्याः । 'पल्योपमस्थितयः' इत्यनेनायुषः प्रमाणमुक्तम् । समाने स्थाने भवाः सामानिकाः । सामानिकाश्च परिषदश्च सामानिकपरिषदः । सह सामानिकपरिषद्भिर्वर्तन्त इति ससामानिकपरिषत्काः। तस्य पद्मस्य परिवारपदमेष प्रासादानामपरि सामानिकाः परिषदश्च वसन्ति । ।
8 404. यकाभिः सरिद्भिस्तानि क्षेत्राणि प्रविभक्तानि ता उच्यन्ते-- गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकान्ता
सुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ॥२०॥ 8405. सरितो न वाप्यः । ताः किमन्तरा उत समीपा इति ? आह--तन्मध्यगाः तेषां अपेक्षा। पद्म तालाबकी जो लम्बाई, विस्तार और गहराई है महापद्म तालाबकी लम्बाई, विस्तार और गहराई इससे दूनी है। इससे तिगिछ तालाबकी लम्बाई, विस्तार और गहराई दूनी है । शंका-कमल क्या है ? समाधान-वे भी लम्बाई आदिकी अपेक्षा दूने-दूने हैं ऐसा यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए।
8402. इनमें निवास करनेवाली देवियोंके नाम, आयु और परिवारका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
इनमें श्री, ह्री, धृति, कोति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियां सामानिक और परिषद् देवोंके साथ निवास करती हैं। तथा इनकी आयु एक पल्योपम है ॥19॥
8403. इन कमलोंकी कणिकाके मध्यमें शरत्कालीन निर्मल पूर्ण चन्द्रमाकी कान्तिको हरनेवाले एक कोस लम्बे, आधा कोस चौड़े और पौन कोस ऊँचे महल हैं। उनमें निवास करनेवाली श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नामवाली देवियाँ क्रमसे पद्म आदि छह कमलोंमें जानना चाहिए। उनकी स्थिति एक पल्योपमकी है' इस पदके द्वारा उनकी आयुका प्रमाण कहा है। समान स्थानमें जो होते हैं वे सामानिक कहलाते हैं। सामानिक और परिषत्क ये देव हैं। वे देवियाँ इनके साथ रहती हैं । तात्पर्य यह है कि मुख्य कमलके जो परिवार कमल हैं उनके महलोंमें सामानि और परिषद जातिके देव रहते हैं।
8404. जिन नदियोंसे क्षेत्रोंका विभाग हुआ है अब उन नदियोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
इन भरत आदि क्षेत्रों में-से गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित्, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता और रक्तोदा नदियां बही हैं ॥20॥
8405. ये नदियाँ हैं तालाब नहीं। वे नदियाँ अन्तरालसे हैं या पास-पास इस बातका 1.-गिञ्छहृदः मु.।
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[163
--3122 $ 408]
तृतीयोऽध्यायः क्षेत्राणां मध्यं तन्मध्यम् । तन्मध्यं तन्मध्येन वा गच्छन्तीति तन्मध्यगाः। एकत्र सर्वास प्रसंगनिवृत्त्यर्थं दिग्विशेषप्रतिपत्त्यर्थं चाह
द्वयोर्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः ॥21॥ 8406. द्वयोर्द्वयोः सरितोरेकै क्षेत्रं विषय इति वाक्यशेषाभिसंबन्धादेकत्र सर्वासा प्रसंगनिवृत्तिः कृता । 'पूर्वाः पूर्वगाः' इति वचनं दिग्विशेषप्रतिपत्त्यर्थम् । तत्र पूर्वा याः सरितस्ताः पूर्वगाः । पूर्वजलधि गच्छन्तीति पूर्वगाः । किमपेक्षं पूर्वत्वम् ? सूत्रनिर्देशापेक्षम् । यद्येवं गङ्गासिन्ध्वादयः सप्त पूर्वगा इति प्राप्तम् ? नैष दोषः; द्वयोयोरित्यभिसंबन्धात् । द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगा इति वेदितव्याः । 8407. इतरासां दिग्विभागप्रतिपत्त्यर्थमाह---
शेषास्त्वपरगाः ॥22॥ 8408. द्वयोर्द्वयोर्या अवशिष्टास्ता अपरगाः प्रत्येतव्याः । अपरसमुद्रं गच्छन्तीत्यपरगाः। तत्र पद्महदप्रभवा पूर्वतोरणद्वारनिर्गता गङ्गा । अपरतोरणद्वारनिर्गता सिन्धुः । उदीच्यतोरणद्वारनिर्गता रोहितास्या। महापद्महदप्रभवा अवाच्यतोरणद्वारनिर्गता रोहित् । उदीच्यतोरणद्वारनिर्गता हरिकान्ता । तिगिञ्छहदप्रभवा दक्षिणतोरणद्वारनिर्गता हरित् । उद्वीच्यतोरणद्वारनिर्गता खुलासा करनेके लिए सूत्रम 'तन्मध्यगाः' पद दिया है। इसका यह भाव है कि उन क्षेत्रोंमें या उन क्षेत्रोंमें-से होकर वे नदियाँ बही हैं । एक स्थानमें सबका प्रसंग प्राप्त होता है, अतः इसका निराकरण करके दिशा विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
दो-दो नदियों में से पहली-पहली नदी पूर्व समुद्रको जाती है ॥21॥
$ 406. इस सूत्रमें 'दा-दो नदियाँ एक-एक क्षत्रमें हैं' इस प्रकार वाक्यविशेषका सम्बन्ध कर लेनेसे एक क्षेत्र में सब नदियोके प्रसंग होनेका निराकरण हो जाता है। 'पूर्वाः पूर्वगाः' यह वचन दिशाविशेषका ज्ञान कराने के लिए दिया है। इन नदियोंम जो प्रथम नदियाँ हैं वे पूर्व समुद्रमें जाकर मिली हैं । सूत्रम जो 'पूर्वगाः' पद है उसका अर्थ 'पूर्व समुद्रको जाती हैं' यह है । शंका-पूर्वत्व किस अपेक्षासे है ? समाधान-सूत्रम किये गये निर्देशकी अपेक्षा। शंका यदि ऐसा है तो गंगा, सिन्धु आदि सात नदियाँ पूर्व समुद्रको जानेवालो प्राप्त होती हैं ? समाधानयह कोई दोष नहीं, क्योंकि 'द्वयोः द्वयोः' इन पदोंका सम्बन्ध है। तात्पर्य यह है कि दो-दो नदियों में से प्रथम-प्रथम नदी वहकर पूर्व समुद्रमें मिली है।
$ 407. अब इतर नदियांके दिशाविशेषका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं.. किन्तु शेष नदियाँ पश्चिम समुद्रको जाती हैं ॥22॥
$408. दो-दो नदियोंमें जो शेष नदियाँ हैं वे बहकर पश्चिम समुद्र में मिली हैं। 'अपरगाः' पदका अर्थ अपर समुद्र को जातो हैं यह है। उनमें-से पद्म तालाबसे उत्पन्न हुई और पूर्व तोरण द्वारसे निकली हुई गगा नदी है । पश्चिम तोरण द्वारसे निकली हुई सिन्धु नदी है तथा उत्तर तोरण द्वारसे निकली हुई रोहितास्या नदी है । महापद्म तालाबसे उत्पन्न हुई और दक्षिण तोरणद्वारसे निकला हुई रोहित नदा है तथा उत्तर तोरणद्वारसे निकली हुई हरिकान्ता नदी है। तिगिंछ तालाबसे उत्पन्न हुई और दक्षिण तोरणद्वारसे निकली हुई हरित नदी है। और उत्तर तोरण द्वारसे निकली हुई सीतोदा नदी है । केसरी तालाबसे उत्पन्न हुई और दक्षिण तोरणद्वारसे 1. मध्यं तन्मध्यं तन्मध्येन मु. । मध्यं तन्मध्येन आ., दि. 1, दि.2। 2. --पूर्व जलधि मु.। 3. अपाच्यतोरण- आ. 2, दि. 1, दि. 2, ता., ना.।
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164]
सर्वार्थसिद्धौ
-3123 § 412]
सोतोबा । केसरिहवप्रभवा अवाच्यतोरणद्वारनिर्गता सीता । उदीच्यतोरणद्वारनिर्गता नरकान्ता । महापुण्डरीकवप्रभवा दक्षिणतोरणद्वारनिर्गता नारी । उदीच्यतोरणद्वारनिर्गता रूप्यकूला ।. पुण्डरीक हबप्रभवा अवाच्यतोरणद्वारनिर्गता सुवर्णकूला । पूर्वतोरणद्वारनिर्गता रक्ता । प्रतीव्यतोरण द्वारनिर्गता रक्तोदा ।
8409. तासां परिवारप्रतिपादनार्थमाह
चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृत्ता गंगासिन्धवादयो नद्यः ॥ 23 ॥
8410. किमर्थं 'गङ्गासिन्ध्वादि ग्रहणं क्रियते ? नदीप्रहणार्थम् । प्रकृतास्ता अभिसंबध्यन्ते ? नैवं शंक्यम्; अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा' इति अपरगाणामेव ग्रहणं स्यात् । गङ्गादिग्रहणमेवास्तीति चेत् ? पूर्वगाणामेव ग्रहणं स्यात् । अत उभयीनां ग्रहणार्थं 'गङ्गासिन्ध्यादि' ग्रहणं क्रियते । 'नदी' ग्रहणं द्विगुणा हिगुणा इत्यभिसंबन्धार्थम् । गङ्गा चतुर्दशनवीसहापरिवृता । सिन्धुरपि । एवमुत्तरा अपि नद्यः प्रतिक्षेत्रं तद्द्द्विगुणद्विगुणा' भवन्ति; आ विदेहान्तात् । तत उतरा अर्द्धहीनाः ।
$ 411. उक्तानां क्षेत्राणां विष्कम्भप्रतिपत्त्यर्थमाह
भरतः षड्विंशपञ्चयोजनशत विस्तारः षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य ॥24॥ $ 412. षडधिका विंशतिः षड्विंशतिः । षविशतिरधिका' येषु तानि षड्वशानि । निकली हुई सीता नदी है तथा उत्तर तोरणद्वारसे निकली हुई नरकान्ता नदी है । महापुण्डरीक तालाबसे उत्पन्न हुई और दक्षिण तोरणद्वारसे निकली हुई नारी नदी है । तथा उत्तर तोरणद्वारसे निकली हुई रूप्यकूला नदी है। पुण्डरीक तालाबसे उत्पन्न हुई और दक्षिण तोरणद्वारसे निकली हुई सुवर्णकूला नदी है। पूर्व तोरणद्वारसे निकली हुई रक्ता नदी है और पश्चिम तोरणद्वारसे निकली हुई रक्तोदा नदी है ।
8409. अब इनकी परिवार नदियोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंगंगा और सिन्धु आदि नदियोंकी चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं ॥23॥
8410. शंका - गंगा सिन्धु आदि पदका ग्रहण किसलिए किया है ? समाधान-नदियों का ग्रहण करनेके लिए। शंका-उनका तो प्रकरण है ही, अतः 'गंगासिन्ध्वादि' पदके बिना ग्रहण किये ही उनका सम्बन्ध हो जाता है ? समाधान - ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि 'अनन्तरका विधान होता है या प्रतिषेध' इस नियमके अनुसार पश्चिम की ओर बहनेवाली नदियोंका ही ग्रहण होता जो कि इष्ट नहीं, अतः सूत्रमें 'गंगासिन्ध्वादि' पद दिया है । शंकातो सूत्र में 'गंगादि' इतने पद का ही ग्रहण रहे ? समाधान - यदि 'गंगादि' इतने पदका ही ग्रहण किया जाये तो पूर्व की ओर बहनेवाली नदियोंका ही ग्रहण होवे जो भी इष्ट नहीं, अतः दोनों प्रकारकी नदियोंका ग्रहण करनेके लिए 'गंगासिन्ध्वादि' पदका ग्रहण किया है । यद्यपि - 'गंगासिन्ध्वादि' इतने पदके ग्रहण करनेसे ही यह बोध हो जाता है कि ये नदियाँ हैं, फिर भी सूत्र में जो 'नदी' पदका ग्रहण किया है वह 'द्विगुणा द्विगुणा:' इसके सम्बन्धके लिए किया है । गंगाकी परिवार नदियाँ चौदह हजार । इसी प्रकार सिन्धुकी भी परिवार नदियाँ चौदह हजार हैं । इस प्रकार आगेकी परिवार नदियाँ विदेह पर्यन्त दूनी दूनी होती गयी हैं। और इससे आगेकी परिवार नदियाँ आधी-आधी होती गयी हैं ।
$ 411. अब उक्त क्षेत्रोंके विस्तारका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंभरत क्षेत्रका विस्तार पांच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन है ॥25॥ $ 412. यहाँ टीकामें 'पहले षड्विंशपंचयोजनशतविस्तारः' पदका समास किया गया 1. अपरतोरण- मु. 1 2. पा. म. भा., पृ. 335 3. क्षेत्र द्विगुणा द्विगुणा मु. 14. -रधिकानि येषु मु. ।
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-3127 § 418]
तृतीयोऽध्यायः
[165
विशानि पञ्चयोजनशतानि विस्तारो यस्य षविशपञ्चयोजनशतविस्तारो भरतः । किमेतावानेव ? न; इत्याह षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य विस्तारोऽस्येत्यभिसंबध्यते । § 413. इतरेषां विष्कम्भविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह्—
तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः ॥25॥
8414. 'ततो भरताद् द्विगुणो द्विगुणो विस्तारो येषां त इमे तद्विगुणद्विगुणविस्ताराः । के ते वर्षधरवर्षाः । कि सर्वे ? न; इत्याह विदेहान्ता इति ।
$ 415. अयोत्तरेषां कथमित्यत आह-
उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥26॥
$ 416. उत्तरा ऐरावतादयो नीलान्ता भरतादिभिर्दक्षिणस्तुल्या द्रष्टव्याः । अतीतस्य सर्वस्यायं विशेषो वेदितव्यः । तेन हृदपुष्करादीनां तुल्यता योज्या ।
8417. अत्राह, उक्तेषु भरतादिषु क्षेत्रेषु मनुष्याणां किं तुल्योऽनुभवादिः, आहोस्विदस्ति कश्चित्प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते
redit षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ||२७||
$ 418. वृद्धिश्च ह्रासश्च वृद्धिहासौ । काभ्याम् ? षट् समयाभ्यामुत्सपण्यवसर्पिणीहै जिसका अभिप्राय यह है कि भरतवर्ष पाँच सौ छब्बीस योजनप्रमाण विस्तार से युक्त है । शंका- क्या इसका इतना ही विस्तार है ? समाधान नहीं, क्योंकि इसका एक योजनका छह बटे उन्नीस योजन विस्तार और जोड़ लेना चाहिए ।
8413. अब इतर क्षेत्रोंके विस्तार विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-विदेह पर्यन्त पर्वत और क्षेत्रोंका विस्तार भरत क्षेत्रके विस्तारसे दूना दूना है ॥25॥
8414. जिनका भरतसे दूना-दूना विस्तार है वे भरतसे दूने-दूने विस्तारवाले कहे ये हैं । यहाँ 'तद्विगुणद्विगुणविस्तारा:' में बहुव्रीहि समास है । शंका- वे दूने दूने विस्तारवाले क्या हैं ? समाधान -- पर्वत और क्षेत्र । शंका- क्या सबका दूना दूना विस्तार है ? समाधाननहीं, किन्तु विदेह क्षेत्र तक दूना-दूना विस्तार है ।
8415. क्षेत्र और पर्वतोंका विस्तार क्रमसे किस प्रकार है अब इस बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उत्तरके क्षेत्र और पर्वतोंका विस्तार दक्षिणके क्षेत्र और पर्वतोंके समान है ||26||
§ 416. 'उत्तर' इस पदसे ऐरावत क्षेत्रसे लेकर नील पर्यन्त क्षेत्र और पर्वत लिये गये हैं । इनका विस्तार दक्षिण दिशावर्ती भरतादिके समान जानना चाहिए। पहले जितना भी कथन कर आये हैं उन सबमें यह विशेषता जाननी चाहिए। इससे तालाब और कमल आदिकी समानता लगा लेनी चाहिए ।
§ 417. यहाँ पर शंकाकार कहता है कि इन पूर्वोक्त भरतादि क्षेत्रोंमें मनुष्योंका अनुभव आदि क्या समान हैं या कुछ विशेषता है ? इस शंकाका समाधान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
भरत और ऐरावत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके छह समयकी अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता रहता है ॥27॥
8418 वृद्धि और ह्रास इन दोनों पदोंमें कर्मधारय समास है । शंका- किनकी अपेक्षा 1. ततो द्विगुणो ता, ना. । 2. तुल्योऽनुभवः आहो- ता., ना. । 3. -याभ्याम् । कयोः मु. ।
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1661
सर्वार्थसिद्धी
[31278418भ्याम् । कयोः ? भरतरावतयोः। न तयोः क्षेत्रयोखिहासौ स्तः ; असंभवात् । तत्स्थानां मनुष्याणां वृद्धिहासौ भवतः । अथवाधिकरणनिर्देशः । भरते ऐरावते च मनुष्याणां वृद्धिह्रासाविति। किंकृतौ वृद्धिहासौ ? अनुभवायुःप्रमाणादिकृतौ । अनुभव उपभोगः, आयुर्जीवितपरिमाणम्', प्रमाणं शरीरोत्सेध इत्येवमादिभिर्वृद्धिह्रासौ मनुष्याणां भवतः । किहेतुको पुनस्तौ ? कालहेतुको । स च कालो द्विविधः-उत्सर्पिणी अवसर्पिणी चेति। तद्भवाः प्रत्येकं षट् । अन्वर्थसंज्ञे चैते । अनुभवादिभिरुत्सर्पणशीला उत्सपिणी । तैरेवावसर्पणशीला अवपिणी। तत्रावसर्पिणी षड्विधा-सुषमसुषमा सुषमा सुषमदुष्षमा दुष्षमसुषमा दुष्षमा अतिदुष्षमा चेति । उत्सपिण्यपि अतिदुष्षमाद्या सुषमसुषमान्ता षड्विधैव भवति । अवपिण्याः परिमाणं दशसागरोपमकोटीकोटयः । उत्सपिण्या अपि तावत्य एव । सोभयो कल्प इत्याख्याते । तत्र सुषमसुषमा चतस्त्रः सागरोपमकोटीकोटयः । तवादी मनुष्या उत्तरकुरुमनुष्यतुल्याः। ततः क्रमेण हानौ सत्यां सुषमा भवति तिस्रः सागरोपमकोटीकोटयः । तदादौ मनुष्या हरिवर्षमनुष्यसमाः । ततः क्रमेण हानौ सत्यां सुषमदुष्षमा भवति द्वे सागरोपमकोटीकोट चौ । तदादी मनुष्या हैमवतकमनुष्यसमाः । ततः क्रमेण हानी सत्यां दुष्षमसुषमा भवति एकसागरोपमकोटीकोटी द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रोना । तदादौ मनुष्या विदेहजनतुल्या भवन्ति । ततः क्रमेण हानौ सत्यां दुष्षमा भवति एकोवंशतिवर्षसहस्राणि । ततः क्रमेण हानौ सत्यावृद्धि और ह्रास होता है ? समाधान-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणोसम्बन्धी छह समयोंको अपेक्षा । शंका-किनका छह समयोंको अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता है ? समाधान-भरत और ऐरावत क्षेत्रका । इसका यह मतलब नहीं कि उन क्षेत्रोंका वृद्धि और ह्रास होता है, क्योंकि ऐसा होना असम्भव है। किन्तु उन क्षेत्रोंमें रहनेवाले मनुष्योंका वृद्धि और हास होता है। अथवा, भरत रावतयोः' षष्ठी विभक्ति न होकर अधिकरणमें यह निर्देश किया है जिससे इस प्रकार अर्थ होता है कि भरत और ऐरावत क्षेत्रमें मनुष्योंको वृद्धि ओर ह्रास होता है। शंका-यह वृद्धि और हास किनिमित्तक होता है? समाधान--अनुभव, आयु ओर प्रमाण आदि निमित्तक होता है। अनुभव उपभागका कहते है, जावत रहनेक परिमाणको आयू कहते हैं और शरीरकी ऊँचाईको प्रमाण कहते हैं। इस प्रकार इत्यादि कारणोंसे का वृद्धि और ह्रास होता है। शंका-ये वृद्धि-ह्रास किस निमित्तसे होते हैं ? समाधान—ये कालके निमित्त से होते हैं। वह काल दो प्रकारका है-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। इनमें से प्रत्येकके छह भेद हैं। ये दोनों काल सार्थक नामवाले हैं। जिसमें मनुष्योंके अनुभव आदिकी वृद्धि होती है वह उत्सपिणी काल है और जिसमें इनका ह्रास होता है वह अवसर्पिणी है । अवसर्पिणीके छह भद हैं-सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुष्षमा, दुष्षमसुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा । इसीप्रकार उत्सर्पिणी भी अतिदुष्षमासे लेकर सुषमसुषमा तक छह प्रकार का है। अवसर्पिणी कालका परिमाण दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है और उत्सर्पिणोका भी इतना ही है । ये दोनों मिलकर एक कल्पकाल कहे जाते हैं । इनमें से सुषमसुषमा चार कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण है। इसके प्रारम्भमें मनुष्य उत्तरकुरुके मनुष्योंके समान होते हैं। फिर क्रमसे हानि होनेपर तीन कोड़ाकोड़ो सागरोपम प्रमाण सुषमा काल प्राप्त होता है। इसके प्रारम्भमें मनुष्य हरिवर्ष के मनुष्योंके समान होते हैं । तदनन्तर क्रमसे हानि होनेपर दो कोडाकोड़ो सागरोपम प्रमाण सुषमदुषमा काल प्राप्त होता है। इसके प्रारम्भमें मनुष्य हैमवतके मनुष्योंके समान होते हैं। तदनन्तर क्रमसे हानि होकर ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ो सागरोपम प्रमाण दुष्षमसुषमा काल प्राप्त होता है। इसके प्रारम्भमें मनुष्य विदेह क्षेत्रके मनुष्योंके समान होते हैं । तदनन्तर क्रमसे हानि होकर इक्कीस 1. -परिमाणम्, शरी - म । 2. भवतः तयोः । किंतु- ता., ना. ।
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-3129 § 422]
तृतीयोऽध्यायः
मतिमा भवति एकविंशतिवर्षसहस्राणि । एवमुत्सपिण्यपि विपरीतक्रमा वेदितव्या । $ 419. अथेतरासु भूमिषु कावस्थेत्यत आह
ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ॥28॥
S 420. ताभ्यां भरत रावताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिता भवन्ति । न हि तत्रोत्सर्पिण्यव सर्पिण्यौ स्तः ।
$ 421. कि तासु भूमिषु मनुष्यास्तुल्यायुष आहोस्वित्कश्चिदस्ति प्रतिविशेष इत्यत आहएकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवत कहारिवर्ष कदैवकुरवकाः ||29||
[167
8422. हैमवते भवा हैमवतका इत्येवं 'वुत्रि' सति मनुष्यसंप्रत्ययो भवति । एवमुत्तरयोरपि । हैमवतकादयस्त्रयः । एकादयस्त्रयः । तत्र यथासंख्यमभिसंबन्धः क्रियते । एकपल्योपमस्थितयो हैमवतकाः । द्विल्योपमस्थितयो हारिवर्षकाः । त्रिपल्योपमस्थितयो दैवकुरवका इति । तत्र पंचसु हैमवतेषु सुषमदुष्षमा सदावस्थिता । तत्र मनुष्या एकपल्योपमायुषो द्विधनुःसहस्रोच्छ्रिताश्चतुर्थभक्ताहारा नीलोत्पलवर्णाः । पञ्चसु हरिवर्षेषु सुषमा सदावस्थिता । तत्र मनुष्या द्विवल्योपमायुषश्चापसहत्रोत्सेधाः षष्ठभक्ताहाराः शंखवर्णाः । पञ्चसु देवकुरुषु सुषमसुषमा सदावस्थिता ।
हजार वर्षका दुष्षमा काल प्राप्त होता है । तदनन्तर क्रमसे हानि होकर इक्कीस हजार वर्षका अतिदुष्षमा काल प्राप्त होता है । इसी प्रकार उत्सर्पिणी भी इससे विपरीत क्रमसे जाननी चाहिए ।
8419. इतर भूमियोंमें क्या अवस्था है अब इस बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
भरत और ऐरावतके सिवा शेष भूमियाँ अवस्थित हैं ॥28॥
8420. सूत्रमें 'ताभ्याम्' पदसे भरत और ऐरावत क्षेत्रका ग्रहण किया है । इन दोनों क्षेत्रोंसे शेष भूमियाँ अवस्थित हैं । उन क्षेत्रोंमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल नहीं हैं ।
8421. इन भूमियोंमें मनुष्य क्या तुल्य आयुवाले होते हैं या कुछ विशेषता है इस बात बतलाने के लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं-
हैमवत, हरिवर्ष और देवकुरुके मनुष्योंकी स्थिति क्रमसे एक, दो और तीन पल्योपम प्रमाण है ॥29॥
§ 422. हैमवत क्षेत्रमें उत्पन्न हुए हैमवतक कहलाते हैं । यहाँ हैमवत शब्दसे 'वुञ ' प्रत्यय करके हैमवतक शब्द बना है जिससे मनुष्योंका ज्ञान होता है । इसी प्रकार आगेके हारिवर्षक और दैवकुरवक इन दो शब्दोंमें जान लेना चाहिए । हैमवतक आदि तीन हैं और एक आदि तीन हैं। यहाँ इनका क्रमसे सम्बन्ध करते हैं जिससे यह अर्थ हुआ कि हैमवत क्षेत्रके मनुष्यों की स्थिति एक पल्योपम है । हरिवर्ष क्षेत्रके मनुष्योंकी स्थिति दो पल्योपम है और देवकुरुक्षेत्र मनुष्यों की स्थिति तीन पल्योपम है । ढाई द्वीपमें जो पाँच हैमवत क्षेत्र हैं उनमें सदा सुषमा का है । वहाँ मनुष्योंकी आयु एक पल्योपम है, शरीरकी ऊँचाई दो हजार धनुष है, उनका आहार एक दिनके अन्तरालसे होता है और शरीरका रंग नील कमलके समान है । पाँच हरिवर्ष नामके क्षेत्रोंमें सदा सुषमा काल रहता है । वहाँ मनुष्योंकी आयु दो पल्योपम है, शरीरकी ऊँचाई चार हजार धनुष है, उनका आहार दो दिनके अन्तरालसे होता है और शरीरका रंग शंखके समान सफेद है । पाँच देवकुरु नामके क्षेत्रमें सदा सुषमसुषमा काल है । वहाँ मनुष्योंकी आयु ती पल्योपम है, शरीरकी ऊँचाई छह हजार धनुष है । उनका भोजन तीन
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168] सर्वार्थसिद्धौ
[31308423तत्र मनुष्या स्त्रिपल्योपमायुषः षड्धनुःसहस्रोच्छाया अष्टमभक्ताहाराः कनकवर्णाः । 8 423. अथोत्तरेषु कावस्थेत्यत आह
तथोत्तराः ॥30॥ 8424. यथा दक्षिणा व्याख्यातास्तथैवोत्तरा वेदितव्याः । हैरण्यवतका हैमवतकस्तुल्याः । राम्यका हारिवर्षकैस्तुल्याः । दैवकुरवरौत्तरकुरवकाः समाख्याताः । 8425. अथ विदेहेष्ववस्थितेष का स्थितिरित्यत्रोच्यते
विदेहेषु संख्येयकालाः ॥31॥ 6426. 'सर्वेषु विदेहेषु संख्येयकाला मनुष्याः । तत्र कालः सुषमदुष्षमान्तोपमः सदावस्थितः। मनुष्याश्च पञ्चधनुःशतोत्सेधाः । नित्याहाराः। उत्कर्षेणेकपूर्वकोटोस्थितिकाः । जघन्येनान्तर्मुहूर्तायुषः । तस्याश्च संबन्धे गाथां पठन्ति
"पुवस्स दु परिमाणं सदर खलु कोडिसदसहस्साई।
छप्पण्णं च सहस्सा वोद्धव्वा वासकोडीणं॥" 8427. उक्तो भरतस्य विष्कम्भः । पुनः प्रकारान्तरेण तत्प्रतिपत्त्यर्थमाह
भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः ।।32॥ 8428. जम्बूद्वीपविष्कम्भस्य योजनशतसहस्रस्य नवतिशतभागीकृतस्यैको भागो भरतस्य दिनके अन्तरालसे होता है और शरीरका रंग सोनेके समान पीला है।
8423. उत्तर दिशावर्ती क्षेत्रोंमें क्या अवस्था है इसके बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
दक्षिणके समान उत्तरमें है ॥30॥
8424. जिस प्रकार दक्षिणके क्षेत्रोंका व्याख्यान किया उसी प्रकार उत्तरके क्षेत्रोंका जानना चाहिए। हैरण्यवत क्षेत्रोंके मनुष्योंकी सब बातें हैमवतके मनुष्योंके समान हैं, रम्यक क्षेत्रके मनुष्योंकी सब बातें हरिवर्ष क्षेत्रके मनुष्योंके समान हैं और देवकुरु क्षेत्रके मनुष्योंकी सब बातें उत्तरकुरु क्षेत्रके मनुष्योंके समान हैं।
8 425. पाँच विदेहोंमें क्या स्थिति है इसके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंविदेहोंमें संख्यात वर्षको आयुवाले मनुष्य हैं ॥31॥
8426. सब विदेहोंमें संख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य होते हैं। वहाँ सुषमदुःषमा कालके अन्तके समान काल सदा अवस्थित है। मनुष्योंके शरीरकी ऊँचाई पाँच सौ धनुष होती है, वे प्रतिदिन आहार करते हैं । उनकी उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि वर्षप्रमाण और जघन्य आयु अन्तर्मुहर्त प्रमाण है। इसके सम्बन्धमें एक गाथा कही जाती है
"एक पर्वकोटिका प्रमाण सत्तर लाख करोड और छप्पन हजार करोड वर्ष जानना चाहिए।"
8427. भरतक्षेत्रका विस्तार पहले कह आये हैं। अब प्रकारान्तरसे उसका ज्ञान कराने. के लिए आगेका सूत्र कहते हैं---
भरत क्षेत्रका विस्तार जम्बूद्वीपका एकसौ नम्वेवाँ भाग है ॥32॥
8428. एक लाख योजन प्रमाण जम्बूद्वीपके विस्तारके एक सौ नब्बे भाग करनेपर 1. सर्वेषु पंचसु महाविदे- मु.। 2. कालः दुःषमसुषमादिः सदा ता., ना. । 3. तस्यास्ति सम्बन्धे आ., दि. 1, दि. 2। 4. -डीणं ।। 70560000000000 उक्तो मु. ता., ना., ।
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-31338430] तृतीयोऽध्यायः
169 विष्कम्भः । स पूर्वोक्त एव । उक्तं जम्बूद्वीपं परिवृत्य वेदिका स्थिता, ततः परो लवणोदः समुद्रो द्वियोजनशतसहस्रवलयविष्कम्भः । ततः परोधातकीखण्डो द्वीपश्चतुर्योजनशतसहस्रवलयविष्कम्भः । 8429. तत्र वर्षादीनां संख्यादि विधिप्रतिपत्त्यर्थमाह
द्विर्धातकीखण्डे ॥33॥ 8430. भरतादीनां द्रव्याणामिहाभ्यावृत्तिविवक्षिता । तत्र कथं सुच् ? अध्याह्रियमाणक्रियाभ्यावृत्तिद्योतनार्थः सुच् । यथा द्विस्तावानयं प्रासादो मीयत इति । एवं द्विर्धातकीखण्डे भरतादयो मीयन्ते इति । तद्यथा-द्वाभ्यानिष्वाकारपर्वताभ्यां दक्षिणोत्तरायताभ्यां लवणोदकालोक्वेदिकास्पृष्टकोटिभ्यां विभक्तो धातकीखण्डः पूर्वापर इति । तत्र पूर्वस्य अपरस्य च मध्ये द्वौ मन्दरौ। तयोरुभयतो भरतादीनि क्षेत्राणि हिमवदादयश्च वर्षधरपर्वताः। एवं दो भरतो तो हिमवन्तौ इत्येवमादि संख्यानं द्विगुणं वेदितव्यम् । जम्बूद्वीपहिमवदादीनां वर्षधराणां यो विष्कम्भस्तद्विगुणो धातकीखण्डे हिमववादीनां वर्षधराणाम् । वर्षधराश्चक्रारवदवस्थिताः। अरविवरसंस्थानानि क्षेत्राणि । जम्बूद्वीपे यत्र जम्बूवृक्षः स्थितः तत्र धातकीखण्डे धातकीवृक्षः सपरिवारः । तद्योगाद्धातकीखण्ड इति द्वीपस्य नाम प्रतीतम् । तत्परिक्षेपी कालोवः समुद्रः टंकच्छिन्नतीर्थः अष्टजो एक भाग प्राप्त हो उतना भरतक्षेत्रका विस्तार है जो कि पूर्वोक्त पांचसो छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन होता है।
8429. जो पहले जम्बूद्वीप कह आये हैं उसके चारों ओर एक वेदिका है। इसके बाद लवणसमुद्र है जिसका विस्तार दो लाख योजन है । इसके बाद धातकीखण्ड द्वीप है जिसका
स्तार चार लाख योजन है। अब इसमें क्षेत्र आदिकी संख्याका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
धातकीखण्डमें क्षेत्र तथा पर्वत आदि जम्बूदीपसे दूने हैं ।।33॥
8430. भरत आदि क्षेत्रोंकी यहाँ आवृत्ति विवक्षित है। शंका-सूत्रमें 'सुच्' प्रत्यय किसलिए किया है ? समाधान वाक्य पूरा करने के लिए जो क्रिया जोड़ी जाती है उसकी आवृत्ति बतलानेके लिए 'सुच्' प्रत्यय किया है । जैसे 'द्विस्तावान् अयं प्रासादः' यहाँ 'सुच्' प्रत्ययके रहनेसे यह प्रासाद दुमंजिला है यह समझा जाता है । इसी प्रकार धातकीखण्डमें 'सुच्' से भरतादिक दूने ज्ञात हो जाते हैं । यथा-अपने सिरेसे लवणोद और कालोदको स्पर्श करनेवाले और दक्षिणसे उत्तर तक लम्बे इष्वाकार नामक दो पर्वतोंसे विभक्त होकर धातकीखण्ड द्वीपके दो भाग हो जाते हैं-पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड । इन पूर्व और पश्चिम दोनों खण्डोंके मध्यमें दो मन्दर अर्थात् मेरु पर्वत हैं। इन दोनों के दोनों ओर भरत आदि क्षेत्र और हिमवान् आदि पर्वत हैं। इस प्रकार दो भरत दो हिमवान् इत्यादि रूपसे जम्बूद्वीपसे धातकीखण्ड द्वीपमें दूनी संख्या जाननी चाहिए। जम्बूद्वीपमें हिमवान् आदि पर्वतोंका जो विस्तार है धातकी खण्ड द्वीपमें हिमवान् आदि पर्वतोंका उससे दूना विस्तार है। चक्के में जिस प्रकार आरे होते हैं उसी प्रकार ये पर्वत क्षेत्रोंके मध्य में अवस्थित हैं। और चक्के में छिद्रोंका जो आकार होता है यहाँ क्षेत्रोंका वही आकार है । जम्बूद्वीपमें जहाँ जम्बू वृक्ष स्थित है धातकीखण्डद्वीपमें परिवार वृक्षोंके साथ वहाँ धातकी वृक्ष स्थित है । और इसके सम्बन्धसे द्वीपका नाम धातकीखण्ड प्रसिद्ध है। इसको घेरे हुए कालोद समुद्र है। जिसका घाट ऐसा मालूम देता है कि उसे टाँकीसे काट 1. संख्याविषि- मु.। 2. -तकीषंडे ता., ना., दि. 1, दि. 2, आ.। 3. -र्वस्य चापरस्य मध्ये मु.।
विस्तार चार लाख
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170] सर्वार्थसियो
[3134 $431योजनशतसहस्रवलयविकम्भः। कालोवपरिक्षेपी पुष्करद्वीपः षोडशयोजनशतसहस्रवलयविष्कम्भः। __8431. तत्र द्वीपाम्भोनिषिविष्कम्भद्विगुणपरिक्लृप्तिवद्धातकोखण्डवर्षादिद्विगुणवृद्धिप्रसंगे विशेषावधारणार्थमाह
__ पुष्कराद्धे च ॥34॥ __8432. किम् । द्विरित्यनुवर्तते। किमपेक्षा द्विरावृत्तिः ? जम्बूदीपभरतहिमववाद्यपेक्षयेव । कुतः ? व्याख्यानतः । यथा धातकीखण्डे हिमवदादीनां विष्कम्भस्तथा पुष्कराः हिमवदादीनां विष्कम्भो द्विगुण इति व्याख्यायते । नामानि तान्येव, इष्वाकारी मन्दरौ च पूर्ववत् । यत्र' जम्बूवृक्षस्तत्र पुष्करं सपरिवारम् । तत एव तस्य द्वीपस्य नाम रूढं पुष्करद्वीप इति । अथ कथं पुष्कराद्धसंज्ञा । मानुषोत्तरशैलेन विभक्तार्थत्वात्पुष्कराधसंज्ञा।
8433. अत्राह किमर्थं जम्बूद्वीपहिमवदादिसंख्या द्विरावृत्ता पुष्कराचे कथ्यते, न पुनः कृत्स्न एव पुष्करद्वीपे । इत्यत्रोच्यते--
प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥35॥ 8434. पुष्करद्वीपबहुमध्यदेशभागी वलयवृत्तो मानुषोत्तरो नाम शैलः । तस्मात्प्रागेव मनुष्या न बहिरिति । ततो न बहिः पूर्वोक्तक्षेत्रविभागोऽस्ति । नास्मादुत्तरं कदाचिदपि विद्याधरा दिया हो और जिसका विस्तार आठ लाख योजन है । कालोदको घेरे हुए पुष्करद्वीप है जिसका विस्तार सोलह लाख योजन है।
8431. द्वीप और समुद्रोंका उत्तरोत्तर जिस प्रकार दूना दूना विस्तार बतलाया है उसी प्रकार यहाँ धातकीखण्ड द्वीपके क्षेत्र आदिकी संख्या दूनी प्राप्त होती है अतः विशेष निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पुष्कराधमें उतने ही क्षेत्र और पर्वत हैं ॥34॥
8 432. यहाँ 'द्वि' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। शंका–'हि' इस पदकी किसकी अपेक्षा अनुवृत्ति होती है ? समाधान-जम्बूद्वीपके भरत आदि क्षेत्र और हिमवान् आदि पर्वतोंकी अपेक्षा 'द्विः' इस पदको अनुवृत्ति होती है । शंका-यह कैसे समझा जाता है ? समाधानव्याख्यानसे । जिस प्रकार धातकीखण्ड द्वीपमें हिमवान् आदिका विस्तार कहा है उसी प्रकार पुष्करार्धमें हिमवान् आदिका विस्तार दूना बतलाया है । नाम वे ही हैं । दो इष्वाकार और दो मन्दर पर्वत पहलेके समान जानना चाहिए। जहाँ पर जम्बूद्वीप में जम्बूवृक्ष हैं पुष्कर द्वीपमें वहाँ अपने परिवार वृक्षोंके साथ पुष्करवृक्ष हैं। इसीलिए इस द्वीपका पुष्करद्वीप यह नाम रूढ़ हुआ है । शंका-इस द्वीपको पुष्करार्ध यह संज्ञा कैसे प्राप्त हुई ? समाधान मानुषोत्तर पर्वतके कारण इस द्वीपके दो विभाग हो गये हैं अत: आधे द्वीपको पुष्करार्ध यह संज्ञा प्राप्त हुई।
8433. यहाँ शंकाकारका कहना है कि जम्बूद्वीपमें हिमवान् आदिकी जो संख्या हैं उससे हिमवान् आदिकी दूनी संख्या आधे पुष्करद्वीपमें क्यों कही जाती है पूरे पुष्कर द्वीपमें क्यों नहीं कही जाती ? अब इस शंकाका समाधान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मानुषोत्तर पर्वतके पहले तक ही मनुष्य हैं ॥35॥
8434. पुष्करद्वीपके ठीक मध्यमें चूड़ीके समान गोल मानुषोत्तर नामका पर्वत है। उससे पहले ही मनुष्य हैं, उसके बाहर नहीं । इसलिए मानुषोत्तर पर्वतके बाहर पूर्वोक्त क्षेत्रों1. -पेक्षयव । जम्बूद्वीपात्पुष्करार्धे द्वौ भरतो द्वौ हिमवन्ती, इत्यादि । कुतः मु., दि. 1, दि. 2, आ. । 2. पत्र जम्बूद्वीपे जम्बू- मु., कि., दि. 2, आ.। 3. तस्य द्वीपस्यानुरुढं पुष्करदीप इति नाम । अब मु.।
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[171
---3136 6 435]
तृतीयोऽध्यायः ऋद्धिप्राप्ता अपि मनुष्या गच्छन्ति अन्यत्रोपपादसमुद्घाताभ्याम् । ततोऽस्यान्वर्थसंज्ञा। एवं जम्बूद्वीपाविष्वर्धतृतीयेषु द्वीपेष द्वयोश्च समुद्रयोर्मनुष्या वेदितव्याः । ते द्विविधाः
प्रार्या म्लेच्छाश्च ॥36॥ 8435. गुणैर्गुणवद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः । ते द्विविधा ऋद्धिप्राप्तार्या अनृद्धिप्राप्तार्याश्चेति । अनुद्धिप्राप्तार्याः पंचविधाः क्षेत्रार्या जात्यार्याः कर्माश्चिारित्रार्या वर्शनार्याश्चेति । ऋद्धिप्राप्ताः सप्तविधाः; बुद्धिविक्रियातपोबलौषधरसाक्षीणभेदात् । म्लेच्छा द्विविधाः-अन्तर्वोपजाः कर्मभूमिजाश्चेति । तत्रान्तीपा लवणोदधेरभ्यतरे पार्वेऽष्टासु दिक्ष्वष्टौ। तदन्तरेषु चाष्टौ। हिमवच्छिखरिणोरुभयोश्च विजया योरन्तेष्वष्टौ । तत्र विक्षु द्वीपा वेदिकायास्तिर्यक् पञ्चयोजनशतानि प्रविश्य भवन्ति । विदिश्वन्तरेषु च द्वोपाः पञ्चाशत्पञ्चयोजनशतेषु गतेषु भवन्ति । शैलाका विभाग नहीं है । इस पर्वतके उस ओर उपपाद जन्मवाले और समुद्घातको प्राप्त हुए मनुष्योंको छोड़ कर और दूसरे विद्याधर या ऋद्धिप्राप्त मुनि भी कदाचित नहीं जाते हैं इसलिए इस पर्वतका मानुषोत्तर यह सार्थक नाम है। इस प्रकार जम्बूद्वीप आदि ढाई द्वीपोंमें और दो समुद्रोंमें मनुष्य जानना चाहिए।
विशेषार्थ---ढाई द्वीप और इनके मध्यमें आनेवाले दो समुद्र यह मनुष्यलोक है। मनुष्य इसी क्षेत्रमें पाये जाते हैं। मानुषोत्तर पर्वत मनुष्यलोकको सीमापर स्थित होनेसे इसका मानषोत्तर यह नाम सार्थक है । मनुष्य इसी क्षेत्रमें रहते हैं, उनका बाहर जाना सम्भव नहीं, इसका यह अभिप्राय है कि गर्भ में आने के बाद मरण पर्यन्त औदारिक शरीर या आहारक शरीरके साथ वे इस क्षेत्रसे बाहर नहीं जा सकते । सम्मूर्च्छन मनुष्य तो इसके औदारिक शरीर के आश्रयसे होते हैं, इसलिए उनका मनुष्यलोकके बाहर जाना कथमपि सम्भव नहीं है। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी भी अवस्थामें मनुष्य इस क्षेत्रके बाहर नहीं पाये जाते हैं। ऐसी तीन अवस्थाएँ हैं जिनके होनेपर मनुष्य इस क्षेत्रके भी बाहर पाये जाते हैं, यथा--(1) जो मनुष्य मरकर ढाई द्वीपके बाहर उत्पन्न होनेवाले हैं वे यदि मरणके पहले मारणान्तिक समुद्घात करते हैं तो इसके द्वारा उनका ढाई द्वापक बाहर गमन देखा जाता है । (2) ढाई द्वीपके बाहर निवास करनेवाले जो जीव मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होते है उनके मनुष्यायू और मनुष्य गतिनाम कर्मका उदय होनेपर भी ढाई द्वीप में प्रवेश करनेके पूर्व तक उनका इस क्षेत्रके बाहर अस्तित्व देखा जाता है। (3) केवलिसमूदघातके समय उनका मनुष्यलोकके बाहर अस्तित्व देखा जाता है। इन तीन अपवादों को छोड़कर और किसी अवस्था में मनुष्योंका मनुष्यलोकके बाहर अस्तित्व नहीं देखा जाता । व मनुष्य दा प्रकारक है अब य बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं
मनुष्य दो प्रकारके हैं-आर्य और म्लेच्छ ॥361
8435. जो गुणों या गुणवालोंके द्वारा माने जाते हैं-वे आर्य कहलाते हैं। उनके दो भेद हैं.--ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिरहित आर्य । ऋद्धिरहित आर्य पाँच प्रकारके हैं-क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य । बुद्धि, विक्रिया, तप, बल, औषध, रस और अक्षीण ऋद्धिके भेदसे ऋद्धिप्राप्त आर्य सात प्रकारके हैं। म्लेच्छ दो प्रकारके हैं-अन्तीपज म्लेच्छ और कर्मभूमिज म्लेच्छ । लवणसमुद्रके भोतर आठों दिशाओं में आठ अन्तर्वीप हैं और उनके अन्तरालमें आठ अन्तर्वीप और हैं। तथा हिमवान और शिखरी इन दोनों पर्वतोंके अन्त में और दोनों विजयार्ध पर्वतोंके अन्तमें आठ अन्तर्वीप हैं। इनमें-से जो दिशाओंमें द्वीप हैं वे वेदिकासे 1. --तीयेषु वयोश्च मू। 2. लवणोदे अष्टासु दिवष्टौ आ. दि, 1, दि. 2 । लवणोदधेरभ्यन्तरेऽष्टासु दिक्ष्वष्टौ मु.।
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172]
सर्वार्थसिद्धौ 288
[3136 § 435
न्तेषु द्वीपा: षड्योजनशतेषु गतेषु भवन्ति । विभु द्वीपाः शतयोजनविस्ताराः । विविश्वन्तरेषु च द्वीपास्तदर्धविष्कम्भाः । शैलान्तेषु पञ्चविंशतियोजनविस्ताराः । तत्र पूर्वस्यां विश्येकोरुकाः । अपरस्यां दिशि लाङ्गूलिनः । उत्तरस्यां ' 'विश्यभाषकाः । दक्षिणस्यां दिशि विषाणिनः । शशकर्णशष्कुलीकर्णप्रावरणकर्णलम्बकर्णाः विदिक्षु । अश्वसहश्वमहिषवराहव्याघ्र 'काककपिमुखा अन्तरेषु । मेघ' मुखविद्युन्मुखाः शिखरिण उभयोरन्तयोः । मत्स्यमुखकालमुखा हिमवत उभयोरन्तयोः । हस्तिमुखादर्शमुखा उत्तरविजयार्धस्योभयोरन्तयोः । गोमुखमेषमुखा 'दक्षिणविजयार्धस्योभयोरन्तयोः । एकोरुका मृदाहारा गुहावासिनः । शेषाः पुष्पफलाहारा वृक्षवासिनः । सर्वे ते पल्योमायुषः । ते चतुविशतिरपि' द्वीपा जलतलावेकयोजनोत्सेधाः । लवणोदधेर्बाह्यपार्श्वेऽप्येवं चतुविशतिद्वीपा विज्ञातव्याः । तथा कालोवेऽपि वेदितव्याः । त एतेऽन्तर्वोपजा म्लेच्छाः । कर्मभूमिजाश्च शकयवनशबरपुलिन्दादयः ।
तिरछे पाँचसौ योजन भीतर जाकर हैं । विदिशाओं और अन्तरालों में जो द्वीप हैं वे पाँचसौ पचास योजन भीतर जाकर हैं । तथा पर्वतोंके अन्तमें जो द्वीप हैं वे छहसौ योजन भीतर जाकर हैं। दिशाओंमें स्थित द्वीपोंका विस्तार सौ योजन है। विदिशाओं और अन्तरालोंमें स्थित द्वीपोंका विस्तार उससे आधा अर्थात् पचास योजन है। तथा पर्वतोंके अन्तमें स्थित द्वीपोंका विस्तार पच्चीस योजन है। पूर्व दिशामें एक टाँगवाले मनुष्य हैं। पश्चिम दिशा में पूंछवाले मनुष्य हैं। उत्तर दिशामें गूंगे मनुष्य हैं और दक्षिण दिशामें सींगवाले मनुष्य हैं। चारों विदिशाओंमें क्रमसे खरगोशके समान कानवाले, शष्कुली अर्थात् मछलो अथवा पूड़ोके समान कानवाले, प्रावरणके समान कानवाले और लम्बे कानवाले मनुष्य हैं । आठों अन्तरालके द्वीपोंमें क्रमसे घोड़े के समान मुखवाले, सिंहके समान मुखवाले, कुत्तोंके समान मुखवाले, भैंसाके समान मुखवाले, सुअरके समान मुखवाले, व्याघ्रके समान मुखवाले, कौआके समान मुखवाले और बन्दरके समान मुखवाले मनुष्य हैं । शिखरी पर्वतके दोनों कोणोंकी सीध में जो अन्तद्वीप है उनमें मेघके समान मुखवाले और बिजली के समान मुखवाले मनुष्य हैं। हिमवान् पर्वतके दोनों कोणोंकी सीध में जो अन्तद्वीप हैं उनमें मछलीके समान मुखवाले और कालके समान मुखवाले मनुष्य हैं। उत्तर विजयार्धके दोनों कोणोंकी सीधमें जो अन्तद्वीप हैं उनमें हाथीके समान मुखवाले और दर्पणके समान मुखवाले मनुष्य हैं। तथा दक्षिण विजयार्ध के दोनों कोणोंकी सीधमें जो अन्तद्वीप हैं उनमें गायके समान मुखवाले और मेढाके समान मुखवाले मनुष्य हैं। इनमें से एक टाँगवाले मनुष्य गुफाओं में निवास करते हैं और मिट्टीका आहार करते हैं तथा शेष मनुष्य फूलों और फलों का आहार करते हैं और पेड़ोंपर रहते हैं । इन सबकी आयु एक पल्योपम है । ये चौबीसों अन्तद्वीप जलकी सतह से एक योजन ऊँचे हैं । इसी प्रकार कालोद समुद्रमें भी जानना चाहिए। ये सब अन्तद्वपज म्लेच्छ हैं । इनसे अतिरिक्त जो शक, यवन, शबर और पुलिन्दादिक हैं वे सब कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं । विशेषार्थ - षट्खण्डागममें मनुष्योंके दो भेद किये गये हैं— कर्मभूमिज और अकर्मभूमि । अकर्मभूमि भोगभूमिका दूसरा नाम है । भोगभूमिका एक भेद कुभोगभूमि है । उसमें जन्म लेनेवाले मनुष्य ही यहाँ अन्तर्दीपज म्लेच्छ कहे गये हैं। शेष रहे शक, यवन, शबर और पुलिन्द आदि म्लेच्छ कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं । इसी प्रकार आर्य भी क्षेत्रकी अपेक्षा दो भागों में
2. - णस्यां विषा दि.
1. उत्तरस्यामभाषका आ. दि. 1, दि. 2 1 1, दि. 2 । 3. वरणलम्ब मु. 4. काकधूककपि- मु. 5. मेघविद्यु- मु. 6. दक्षिणदिग्विज- मु. 7. -शतिद्वितीयपक्षेऽपि उभयोरतत्प्रष्टचत्वारिंशद्वीपा जलतला - दि. 28 त्सेधाः । तथा कालोवेऽपि आ. दि. 11
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-3137 8 437] तृतीयोऽध्यायः
[173 $ 436. काः पुनः कर्मभूमय इत्यत आह
भरवैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूचरकुरुभ्यः ॥37॥ 8437. भरता ऐरावता विदेहाश्च पंच, पंच, एताः कर्मभूमय हात व्यपविश्यन्ते । तत्र 'विदेह'ग्रहणाद्देवकुरुत्तरकुरुग्रहणे प्रसक्ते तत्प्रतिषेधार्थमाह-'अन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः' इति । 'अन्यत्र' शब्दो वजनार्थः । देवकुरव उत्तरकुरवो हैमवतो हरिव! रम्यको हैरण्यवतोऽन्तर्वीपाश्च भोगभूमय इति व्यपदिश्यन्ते। अथ कथं कर्मभूमित्वम् ? शुभाशुभलक्षणस्य कर्मणोऽधिष्ठानत्वात् । ननु सर्व लोकत्रितयं कर्मणोऽधिष्ठानमेव । तत एवं प्रकर्षगतिविज्ञास्यते, प्रकर्षण यत्कर्मणोऽधिष्ठानमिति । तत्राशुभकर्मणस्तावत्सप्तमनरकप्रापणस्य भरताविष्वेवार्जनम्, शुभस्य च सर्वार्थसिद्धयादि स्थानविशेषप्रापणस्य' कर्मण उपार्जनं तत्रैव, कृष्यादिलक्षणस्य षविषय कर्मणः पात्रदानाविसहितस्य तत्रैवारम्भात्कर्मभूमिव्यपदेशो वेवितव्यः । इतरास्तु दशविधकल्पवृक्षकस्पितभोगानुभवनविषयत्वाद् भोगभूमय इति व्यपदिश्यन्ते । विभक्त है-कर्मभूमिज आर्य और अकर्मभूमिज आर्य । तीस भोगभूमियोंके मनुष्य अकर्मभूमिज आर्य हैं और कर्मभूमिके आर्य कर्मभूमिज आर्य हैं। इनमे से अकर्मभूमिज आर्य और म्लेच्छोंके अविरत सम्यग्दष्टि तक चार गुणस्थान हो सकते हैं किन्तु कर्मभूमिज आर्य और म्लेच्छ अणुव्रत और महाघ्रतके भी अधिकारी हैं। इनके सयमासंयम और संयमस्थानोंका विशेष व्याख्यान कषायप्राभृत लब्धिसार क्षपणासारमें किया है।
8436. कर्मभूमियाँ कौन-कौन हैं, अब इस बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंदेवकुरु और उत्तरकुरुके सिवा भरत, ऐरावत और विदेह ये सब कर्मभूमियाँ हैं ।।37॥
8437. भरत, ऐरावत और विदेह ये प्रत्येक पाँच-पाँच है। ये सब कर्मभूमियाँ कही जाती हैं। इनमें विदेहका ग्रहण किया है, इसलिए देवकुरु और उत्तरकुरुका भी ग्रहण प्राप्त होता . है, अतः उनका निषेध करनेके लिए 'अन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः' यह पद रखा है। अन्यत्र शब्दका अर्थ निषेध है । देवकुरु, उत्तरकुरु, हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक, हैरण्यवत और अन्तर्वीप ये भोगभूमियाँ कही जाती हैं । शंका-कर्मभूमि यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? समाधान-जो शुभ और अशभ कर्मोंका आश्रय हो उसे कर्मभूमि कहते हैं । यद्यपि तीनों लोक कर्मका आश्रय हैं, फिर भी इससे उत्कृष्टताका ज्ञान होता है कि ये प्रकर्ष रूपसे कर्मका आश्रय हैं। सातवें नरकको प्राप्त करनेवाले अशुभ कर्मका भरतादि क्षेत्रोंमें ही अर्जन किया जाता है। इसो प्रकार सर्वार्थसिद्धि आदि स्थान विशेषको प्राप्त करानेवाले पुण्य कर्मका उपार्जन भी यहीं पर होता है । तथा पात्रदान आदिके साथ कृषि आदि छह प्रकारके कर्मका आरम्भ यहीं पर होता है, इसलिए भरतादिककी कर्मभूमि संज्ञा जाननी चाहिए। इतर क्षेत्रोंमें दस प्रकारके कल्पवृक्षोंसे प्राप्त भोगोंकी मुख्यता है, इसलिए वे भोगभूमियाँ कहलाती हैं।
विशेषार्थ-यह पहले ही बतला आये हैं कि भरतादि क्षेत्रोंका विभाग ढाई द्वीपमें ही है। जम्बूद्वीपमें भरतादि क्षेत्र एक-एक हैं और धातकोखण्ड व पुष्करार्धमें ये दो-दो हैं। इस प्रकार कुल क्षेत्र 35 होते हैं । उसमें भी उत्तरकुरु और देवकुरु विदेह क्षेत्रमें होकर भी अलग गिने जाते हैं, क्योंकि यहाँ उत्तम भोगभूमिकी व्यवस्था है, इसलिए पाँच विदेहोंके पाँच देवकुरु और पाँच उत्तरकुरु इनको उक्त 35 क्षेत्रोंमें मिलानेपर कुल 45 क्षेत्र होते हैं । इनमें से 5 भरत, 1. भरतरावतविदेहाश्च मु., ता., ना.। 2. हरिवंशः रम्य-आ., दि. 1, दि. 21 3, सर्वो लोकत्रितयः कर्मआ., दि. 1, दि. 21 4. एक प्रक- मु.। 5, शुभस्य सर्वा- मु.। 6 -ध्यादिषु स्थान- आ., दि. 1, दि. 21 7. पणस्य पुण्यकर्म- मु.।
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174]
सर्वार्थसिद्धो
8438. उवतासु भूमिषु मनुष्याणां स्थितिपरिच्छेदार्थमाहनृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते ॥38॥।
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$ 439 त्रीणि पल्योपमानि यस्याः सा त्रिपल्योपमा । अन्तर्गतो मुहूर्तो यस्याः सा अन्तमुहूर्ता । यथासंख्येनाभिसंबन्धः । मनुष्याणां परा उत्कृष्टा स्थितिस्त्रिपल्योपमा । अपरा जघन्या अन्तर्मुहूर्ता | मध्ये अनेकविकल्पाः । तत्र पल्यं त्रिविधम्--व्यवहारपत्यमुद्धारवल्यमद्वापत्यमिति अन्वर्थसंज्ञा एताः । आद्यं व्यवहारपल्यमित्युच्यते; उत्तरपत्य' द्वयव्यवहारबीजत्वात् । नानेन किचिपरिच्छेद्यमस्तीति । द्वितीयमुद्धारपल्यम् । तत उद्धृतैर्लोमकच्छेदेद्वीपसमुद्राः संख्यायन्त इति । तृतीयमद्धापल्यम् । अद्धा काल स्थितिरित्यर्थः । तत्राद्यस्य प्रमाणं कथ्यते, तत्परिच्छेदनार्थत्वात् । तद्यथा - प्रमाणाङ्गुलपरिमितयोजनविष्कम्भायामावगाहानि त्रीणि पल्यानि कुशला इत्यर्थः । एकादिसप्तान्ताहोरात्रजाताविवालाग्राणि तावच्छिन्नानि यावद्वितीयं कर्तरिच्छेदं 'नावानुवन्ति तादृशैर्लोमच्छेदैः परिपूर्ण 'घनीकृतं व्यवहारपत्यमित्युच्यते । ततो वर्षशते वर्षशते " गते एकैकोमापकर्षणविधिना यावता कालेन तद्रिक्तं भवेत्तावान्कालो व्यवहारपल्योपमाख्यः । नरेव लोमच्छेवैः प्रत्येकम संख्ये यवर्ष कोटी समयमा त्रच्छिन्नैस्तत्पूर्ण मुद्धारपत्यम् । ततः समये समये एकैकस्मिन् रोमच्छेदेऽपकृष्यमाणे यावता कालेन तद्रिक्तं भवति तावान्काल उद्धारपल्योपमाख्यः । एषामुद्धारपत्यानां दशकोटीकोटथ एकमुद्धारसागरोपमम् । अर्धतृतीयोद्धारसागरोपमानां यावन्तो
1
5 विदेह और 5 ऐरावत ये 15 कर्मभूमियाँ हैं और शेष 30 भोगभूमियाँ हैं । ये सब कर्मभूमि और भोगभूमि क्यों कहलाती हैं इस बातका निर्देश मूल टीकामें किया ही है ।
8438. उक्त भूमियोंमें स्थितिका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंमनुष्योंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है ॥38॥
$ 439 'त्रिपल्योपमा' इस वाक्य में 'त्रि' और 'पल्योपम' का बहुव्रीहि समास है । मुहूर्त के भीतर के कालको अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। पर और अपर के साथ इन दोनोंका क्रमसे सम्बन्ध है । मनुष्योंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम है और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है । तथा मध्यकी स्थिति अनेक प्रकारकी है । पल्य तीन प्रकारका है-व्यवहार पल्य, उद्धरपल्य और अद्धापल्य । ये तीनों सार्थक नाम हैं। आदिके पल्यको व्यवहारपल्य कहते हैं, क्योंकि वह आगेके दो पल्यों के व्यवहारका मूल है । इसके द्वारा और किसी वस्तुका परिमाण नहीं किया जाता। दूसरा उद्धारपल्य है । उद्धारपल्य में से निकाले गये लोमके छेदोंके द्वारा द्वीप और समुद्रोंकी गिनती की जाती है । तीसरा अद्धापल्य है । अद्धा और कालस्थिति ये एकार्थवाची शब्द हैं। इनमें से अब प्रथम पत्यका प्रमाण कहते हैं-जो इस प्रकार है- प्रमाणांगुलकी गणनासे एक-एक योजन लम्बे, चौड़े और गहरे तीन गढ़ा करो और इनमें से एकमें एक दिनसे लेकर सात दिन तकके पैदा हुए मेढ़ के रोमोंके अग्र भागोको ऐसे टुकड़े करके भरो जिससे कैंची से उनके दूसरे टुकड़े न किये जा सकें । अनन्तर सौ-सौ वर्ष में एक-एक रोमका टुकड़ा निकालो। इस विधिसे जितने कालमें वह गढ़ा खाली हो वह सब काल व्यवहार पत्योपम नामसे कहा जाता है । अनन्तर असंख्यात करोड़ वर्षोंके जितने समय हों उतने उन लोमच्छेदों में से प्रत्येक खण्ड करके उनसे दूसरे गढ़ के भरनेपर उद्धारपल्य होता है । और इसमें से प्रत्येक समय में एक-एक रोमको निकाल हुए जितने काल में वह गढ़ा खाली हो जाये उतने कालका नाम उद्धार पल्योपम है । इन दस कोड़ाकोड़ी उद्धार1. मिषु स्थिति-- मु. 2. दृयस्य व्यव -- मु. 3. कथ्यते । तद्यथा मु. । 4. नाप्नु- मु. 1 5. घनीभूतं मु. 1 6 ततो वर्षशते एकैक -- मु. ।
[3138 § 438
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-~3:398441j तृतीयोऽध्यायः
[175 रोमच्छेबास्तावन्तो द्वीपसमुद्राः। पुनरुद्धारपल्यरोमच्छेदैवर्षशतसमयमात्रच्छिन्नैः पूर्णमद्धापल्यम् । ततः समये समये एककस्मिन् रोमच्छेदेऽपकृष्यमाणे यावता कालेन तद्रिक्तं भवति तावान्कालोऽबापल्योपमाल्यः । एषामद्धापल्यानां दशकोटीकोटय एकमद्धासागरोपमम् । दशाद्धासागरोपमकोटीकोठच एकावसपिणी । तावत्येवोत्सपिणी । अनेनाद्धापल्येन नारकतैर्यग्योनिजानां देवमनुष्याणां च कर्मस्थिति वस्थितिरायुःस्थितिः कायस्थितिश्च परिच्छेत्तव्या । उक्ता च संग्रहगाथा
ववहारुद्धारद्धा पल्ला तिण्णेव होंति बोद्धब्बा।
संखा दीव-समुद्दा कम्मट्ठिदि वण्णिदा तदिए॥" $ 440. यथैवैते उत्कृष्टजघन्ये स्थिती नृणां तथैव
__तिर्यग्योनिजानां च ॥39॥ 8441. तिरश्चां योनिस्तिर्यग्योनिः। तिर्यग्गतिनामकर्मोदयापादितं जन्मेत्यर्थः । तिर्यग्योनो जातास्तिर्यग्योनिजाः । तेषां तिर्यग्योनिजानामुत्कृष्टा भवस्थितिस्त्रिपल्योपमा। जघन्या अन्तर्मुहूर्ता। मध्येऽनेकविकल्पाः ।
इति तत्त्वार्थवृत्तो सर्वार्थसिद्धि संज्ञिकायां तृतीयोऽध्यायः ।।3।। पल्योंका एक उद्धार सागरोपम काल होता है। तथा ढाई उद्धार सागरके जितने रोमखण्ड हों उतने सब दीप और समुद्र हैं । अनन्तर सौ वर्षके जितने समय हों उतने उद्धारपल्यके रोमखण्डोंमें-से प्रत्येकके खण्ड करके और उनसे तीसरे गढ़ के भरनेपर एक अद्धापल्य होता है । और इनमें से प्रत्येक समयमें एक-एक रोमके निकालनेपर जितने समयमें वह गढ़ा खाली हो जाय उतने कालका नाम अद्धापल्योपम है। तथा ऐसे दस कोडाकोड़ी अद्धापल्योंका एक अद्धासागर होता है । दस कोडाकोड़ी अद्धासागरोंका एक अवसर्पिणी काल होता है और उत्सर्पिणी भी इतना ही बड़ा होता है।
___ इस अद्धापल्यके द्वारा नारकी, तिर्यंच, देव और मनुष्योंकी कर्मस्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति और कायस्थिति की गणना करनी चाहिए । संग्रह गाथा भी कही है
'व्यवहार, उद्धार और अद्धा ये तीन पल्य जानने चाहिए। संख्याका प्रयोजक व्यवहार पल्य है। दूसरेसे द्वीप-समुद्रोंकी गणना की जाती है और तीसरे अद्धापल्यमें कर्मोंकी स्थितिका लेखा लिया जाता है।'
8440. जिस प्रकार मनुष्योंकी यह उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति है उसी प्रकारतियंचों की स्थिति भी उतनी ही है ॥39।।
8441. तियंचोंकी योनिको तिर्यग्योनि कहते हैं। इसका अर्थ तिर्यंचगति नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुआ जन्म है । जो तिर्यंचयोनिमें पैदा होते हैं वे तिर्यग्योनिज कहलाते हैं। इन तिर्यंचयोनिसे उत्पन्न जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति तीन पल्योपम और जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त है। तथा बीचकी स्थितिके अनेक विकल्प हैं।
विशेषार्थ-स्थिति दो प्रकारको होती है-भवस्थिति और कायस्थिति । एक पर्यायमें रहने में जितना काल लगे वह भवस्थिति है। तथा विवक्षित पर्यायके सिवा अन्य पर्यायमें उत्पन्न न होकर पुनः पुनः उसी पर्यायमें निरन्तर उत्पन्न होनेसे जो स्थिति प्राप्त होती है वह कायस्थिति है। यहाँ मनुष्यों और तिर्यचोंकी भवस्थिति कही गयी है इनकी जघन्य कायस्थिति जघन्य 1. बवहारद्वारदा तियपल्ला पढयम्मि संसाओ । विदिए दोवसमुद्दा तदिए मिज्जेदि कम्मठिदी। ति. प. गा. 941 2.येते ते उत्कृ-आ.,दि. 1, दि. 2।
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176]
सर्वार्थसिद्धी
[31398441
भवस्थिति प्रमाण है, क्योंकि एक बार जघन्य आयुके साथ भव पाकर उसका अन्य पर्यायमें जाना संभव है । मनुष्योंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पत्योपम है । पृथक्त्व यह रौढिक संज्ञा है । मुख्यतः इसका अर्थ तीनसे ऊपर और नौसे नीचे होता है। यहाँ बहुत अर्थ में पृथक्त्व शब्द आया है। तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है। यह तिर्यंचगति सामान्यकी अपेक्षा उनकी कायस्थिति कही है। यदि अन्य गतिसे आकर कोई जीव निरन्तर तिर्यंचगतिमें परिभ्रमण करता रहता है तो अधिकसे अधिक इतने काल तक वह तिर्यंचगति में रह सकता है। इसके बाद वह नियमसे अन्य गतिमें जन्म लेता है। वैसे तिर्यचोंके अनेक भेद हैं, इसलिए उन भेदोंकी अपेक्षा उनकी कायस्थिति जुदीजुदी है।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामवाली तत्त्वार्थवृत्तिमें तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥3॥
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अथ चतुर्थोऽध्यायः
$ 442. 'भवप्रत्ययो ऽवधिर्देवनारकाणाम्' इत्येवमादिव्य सकृद्देवशब्द उक्तस्तत्र न शायते के देवाः कतिविधा इति' तन्निर्णयार्थमाह
देवाश्चतुरिकायाः || iu
8443. देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ बाह्यविभूतिविशेषः द्वीपाव्रिसमुद्रादिप्रवेशेषु यथेष्टं दीव्यन्ति क्रीडन्तोति देवाः । इहैकवचननिर्देशो युक्तः 'देवश्चतुणिकायः' इति' । स 'जात्यभिधानाद् बहूनां प्रतिपादको भवति । बहुत्व निर्देशस्तवन्तर्गतभेवप्रतिपत्त्यर्थः । इन्द्रसामाfrerant बहवो भेदाः सन्ति स्थित्याविकृताश्च तत्सूचनार्थः । देवगतिनामकर्मोदयस्य / स्वकर्मविशेषापादितभेवस्य सामर्थ्यान्निचीयन्त इति निकायाः संधाता इत्यर्थः । चत्वारो निकाया येषां ते चतुणिकायाः । के पुनस्ते ? भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाश्चेति ।
8 444 तेषां लेश्यावधारणार्थमुच्यते
प्रातिस्त्रिषु पीतान्तलेयाः ॥2॥
8 442. 'देव और नारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है' इत्यादि सूत्रोंमें अनेक बार देव शब्द आया है । किन्तु वहाँ यह न जान सके कि देव कौन हैं और वे कितने प्रकारके हैं, अतः इसका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
देव चार निकायवाले हैं ||1||
8443. अभ्यन्तर कारण देवगति नामकर्मका उदय होनेपर जो नाना प्रकारकी बाह्य विभूति से द्वीपसमुद्रादि अनेक स्थानोंमें इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं । शंका'देवश्चतुर्णिकाय:' इस प्रकार एकवचनरूप निर्देश करना उचित था, क्योंकि जातिका कथन कर देनेसे बहुतका कथन हो ही जाता है। समाधान - देवोंके अन्तर्गत अनेक भेद हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें बहुवचनका निर्देश किया है । तात्पर्य यह है कि देवोंके इन्द्र, सामानिक आदिकी अपेक्षा अनेक भेद हैं और स्थिति आदिकी अपेक्षा भी अनेक भेद हैं, अतः उनको सूचित करनेके लिए बहुवचनका निर्देश किया है। अपने अवान्तर कर्मोसे भेदको प्राप्त होनेवाले देवगति नामकर्मके उदयकी सामर्थ्यसे जो संग्रह किये जाते हैं वे निकाय कहलाते हैं । निकाय शब्द. का अर्थ संघात है । 'चतुर्णिकाय' में बहुव्रीहि समास है, जिससे देवोंके मुख्य निकाय चार ज्ञात होते हैं । शंका- इन चार निकायोंके क्या नाम हैं ? समाधान - भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक |
8444. अब इनकी लेश्याओंका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंआविके तीन निकायोंमें पीत पर्यन्त चार लेश्याएँ हैं ||2||
1. इति वा तन्नि- मु. 5. इति । जात्य- मु. विशे- मु. ता., ना. ।
2. विशेषाद् द्वीपा - मु. 3. मुद्रादिषु प्रदे- मु, 4. -- डन्ति ते देवा: मु. । 6. 'जात्यास्यायामेकस्मिन्बहुवचनमन्यतरस्याम् पा. 1, 3, 2, 58
7. स्वधर्म
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178] सर्वार्थसिद्धौ
[413 8445 8445. 'आदित' इत्युच्यते', अन्ते मध्ये अन्यथा वा ग्रहणं मा विज्ञायोति। आदौ आदितः । द्वयोरेकस्य च निवृत्त्यर्थ 'त्रि'ग्रहणं क्रियते । अथ चतुण्णां निवृत्त्यर्थं कस्मान्न भवति ? 'आदितः' इति वचनात् । षड्लेश्या उक्ताः । तत्र चतसृणां लेश्यानां ग्रहणार्थं 'पोतान्त' ग्रहणं कियते । पीतं तेज इत्यर्थः । पीता अन्ते यासां ताः पीतान्ताः । पीतान्ता लेश्या येषां ते पीतान्तलेश्याः। एतदुक्तं भवति--आदित्तस्त्रिषु निकायेषु भवनवासिव्यन्तरज्योति एकनामसु देवानां कृष्णा नीला कापोता पीतेति चतस्रो लेश्या भवन्ति।
8446. तेषां निकायानामन्तर्विकल्पप्रतिपादनार्थमाह____दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥3॥
8447. चतुण्णा देवनिकायानां दशादिभिः संख्याशब्दैर्यथासंख्यमभिसंबन्धो वेदितव्यः । वशविकल्पा भवनवासिनः । अष्टविकल्पा व्यन्तराः । पञ्चविकल्पा ज्योतिष्काः। द्वादशविकल्पा वैमानिका इति । सर्ववैमानिकानां द्वादशविकल्पान्तःपातित्वे प्रसक्ते ग्रैवेयकादिनिवृत्त्यर्थं विशेषणमुपादीयते 'कल्पोपपन्नपर्यन्ताः' इति । अथ कथं कल्पसंज्ञा? इन्द्रादयः प्रकारा दश एतेषु कल्प्यन्त
8445. अन्तके तीन निकायोंका, मध्यके निकायोंका या विपरीत क्रमसे निकायोंका ग्रहण न समझ लिया जाय, इसलिए सूत्र में 'आदितः' पद दिया है। दो और एक निकायके निराकरण करनेके लिए 'त्रि' पदका ग्रहण किया है। शंका--'त्रि' पदसे चारकी निवत्ति क्यों नहीं होती है? समाधान-सूत्रमें जो 'आदित:' पद दिया है इससे ज्ञात होता है कि त्रि' पद चारकी निवृत्तिके लिए नहीं है । लेश्याएँ छह कहीं है। उनमें से चार लेश्याओंके ग्रहण करनेके लिए सूवमें 'पीतान्त' पदका ग्रहण किया है। यहाँ पीतसे तेज लेश्या लेनी चाहिए। यहाँ पहले पीत और अन्त इन शब्दोंमें और अनन्तर पीतान्त और लेश्या शब्दोंमें बहुव्रीहि समास है। इसका यह अभिप्राय है कि आदिके भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषो इन तीन निकायोंमें देवोंके कृष्ण, नील, कापोत और पीत ये चार लेश्याएँ होती हैं।
विशेषार्थ-यों तो भवनवासी, व्यस्तर और ज्योतिषी-देवोंके एक पीत लेश्या ही होती है किन्तु ऐसा नियम है कि कृष्ण, नील और कापोत लेश्याके मध्यम अंशसे मरे हुए कर्मभूमियाँ मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यंच और पीत लेश्याके मध्यम अंशसे मरे हुए भोगभूमियाँ मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यंच भवनत्रिकमें उत्पन्न होते हैं । यतः ऐसे कर्मभूमियाँ मनुष्य और तिर्यंचीके मरते समय प्रारम्भकी तीन अशुभ लेश्याएँ होती हैं अतः इनके मरकर भवनत्रिकोंमें उत्पन्त होनेपर वहाँ भी अपर्याप्त अवस्थामें ये तीन अशुभ लेश्याएँ पायी जाती हैं। इसीसे इनके पीत तक चार लेश्याएँ कही हैं । अभिप्राय यह है कि भवनत्रिकोंके अपर्याप्त अवस्थामें पीत तक चार लेश्याएँ और पर्याप्त अवस्था में एक पीत लेश्या होती है।
8 446. अब इन निकायोंके भीतरी भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं- :
वे कल्पोपपन्न देव तकके चार निकायके देव क्रमसे दस, आठ, पाँच और बारह भेदवाले हैं ॥3॥
3447. देव निकाय चार हैं और दश आदि संख्या शब्द चार हैं अत: इनका क्रमसे न्ध जानना चाहिए। यथा--भवनवासी दस प्रकारके हैं, व्यन्तर आठ प्रकारके हैं, ज्योतिषी . प्रकारके हैं और वैमानिक बारह प्रकारके हैं। पूर्वोक्त कथनसे सब वैमानिक बारह भेदामें आ जाते हैं, अत: ग्रेवेयक आदिके निराकरण करनेके लिए सूत्रमें 'कल्पोपपन्नपर्यन्ताः' 1. --लयते अन्यथा वा ग्रह- वि. 2। -च्यते अन्ते मध्ये वा ग्रह- मु., ता., ना.। --च्यते अन्ते अन्यथा वा ग्रह
। 2. ---ताः पीतान्ता लेश्या मु., दि. 2। 3. ज्योतिष्काणां देवा- आ., दि. 1; दि. 2।
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-- 414 $ 450] चतुर्थोऽध्यायः
[179 इति कल्याः । भवनवासिषु तत्कल्पनासंभवेऽपि रूढिवशाद्वैमानिकेष्वेव वर्तते कल्पशब्दः । कल्पेषपपन्ना कल्पोपपन्नाः। कल्पोपपन्नाः पर्यन्ता येषां ते कल्पोपपन्नपर्यन्ताः। $ 448. पुनरपि तद्विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाहइन्द्रसामानिकत्रास्त्रिशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णका
भियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ॥4॥ 8449. अन्यदेवासाधारणाणिमादिगुणयोगादिन्दन्तीति इन्द्राः । आजैश्वर्यवजितं यत्स्थानायुर्वीर्यपरिवारभोगोपभोगादि तत्समानं, तस्मिन्समाने भवाः सामानिका महत्सराः पितगुरूपाध्यायतुल्याः। मन्त्रिपुरोहितस्थानीयास्त्रास्त्रिशाः। त्रस्त्रिशदेव त्रास्त्रिशाः । वयस्यपीठमदरादृशाः परिषदि भवाः पारिषदाः। आत्मरक्षाः शिरोरक्षोपमानाः । अर्थचरा रक्षकसमाना लोकपालाः । लोकं पालयन्तीति लोकपालाः । पदात्यादीनि सप्त अनीकानि दण्डस्थानीयानि । प्रकीर्णकाः पौरजानपदकल्पाः । आभियोग्या दाससमाना वाहनादिकर्मणि प्रवृत्ताः। अन्तेवासिस्थानीयाः किल्विषिकाः । किल्विषं पापं येषामस्तीति किल्विषिकाः।
$ 450. एकैकस्य निकायस्य एकश एते इन्द्रादयो दश विल्कपाश्चतुर्पु निकायेषूत्सर्गेण यह पद दिया है । शंका-कल्प इस संज्ञाका क्या कारण है ? समाधान-जिनमें इन्द्र आदि दस प्रकार कल्पे जाते हैं वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इन्द्रादिककी कल्पना ही कल्प संज्ञाका कारण है । यद्यपि इन्द्रादिक- की कल्पना भवनवासियों में भी सम्भव है फिर भी रूढ़िसे कल्प शब्द का व्यवहार वैमानिकोंमे ही किया जाता है । जो कल्पोंमें उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपन्न कहलाते हैं। तथा जिनके अन्त में कल्पोपपन्न देव हैं उनको कल्पोपपन्नपर्यन्त कहा है।
8448. प्रकारान्तरसे उनके भेदोंका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उक्त दस आदि भेदों में से प्रत्येक इन्द्र, सामानिक, त्रास्त्रिश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकोणक, आभियोग्य और किल्विषिक रूप हैं ॥4॥
8449 जो अन्य देवोंमें असाधारण अणिमादि गुणोंके सम्बन्धसे शोभते हैं वे इन्द्र कहलाते हैं । आज्ञा और ऐश्वर्य के सिवा जो स्थान, आयु, वीर्य, परिवार, भोग और उपभोग आदि हैं वे सभान कहलाते हैं । उस समानमें जो होते हैं वे सामानिक कहलाते हैं। ये पिता, गुरु और उपाध्यायके समान सबसे बड़े है। जो मन्त्री और पुरोहित के समान हैं वे त्रायस्त्रिश हैं। ये ततास हा होते हैं इसलिए त्रास्त्रिश कहलाते हैं । जो सभा में मित्र और प्रेमीजनों के समान होते हैं वे पारिषद कहलाते हैं। जो अंगरक्षक के समान हैं वे आत्मरक्ष कहलाते हैं। जो रक्षकके समान अर्थचर है वे लोकपाल कहलते हैं । तात्पर्य यह है कि जो लोकका पालन करते हैं वे लोकपाल कहलाते हैं । जैसे यहाँ सेना है उसी प्रकार सात प्रकारके पदाति आदि अनीक कहलाते हैं । जो गाँव और शहरों में रहनेवालों के समान हैं उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं। जो दास के समान वाहन आदि कर्ममें प्रवृत्त होते हैं वे आभियोग कहलाते हैं । जो सीमाके पास रहने वालों के समान हैं वे किल्विषिक कहलाते हैं। किल्विष पापको कहते हैं इसकी जिनके बहुलता होती है वे किल्विषिक कहलाते हैं।
8450. चारों निकायों में से प्रत्येक निकायमें ये इन्द्रादिक दस भेद उत्सर्गसे प्राप्त हुए, 1. --यत्समानायु- मु.। 2. -वृत्ताः । अन्त्यवासि- आ., दि. 1, दि. 2 । 3. -स्थानीयाः । किल्विषं मु. । 4. -येषामस्ति ते किल्वि- मु. ।
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180] सर्वार्थसिद्धी
14158451प्रसक्तास्ततोऽपवादार्थमाह
त्रास्त्रिशलोकपालवा व्यन्तर ज्योतिष्काः ॥5॥ 8451. व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु च त्रास्त्रिशाल्लोकपालांच वर्जयिरवा इतरेऽष्टो विकल्पा द्रष्टव्याः। 8452. अब तेषु निकायेषु किमेकक इन्द्र उतान्यः प्रतिनियमः कश्चिदस्तीत्यत आह
पूर्वयोर्वीन्द्राः ॥6॥ 8453. पूर्वयोनिकाययोर्भवनवासिव्यन्तरनिकाययोः । कथं द्वितीयस्य पूर्वत्वम् ? सामीप्यात्पूर्वस्वमुपचर्योक्तम् । 'दीन्द्राः' इति अन्त तवीप्सार्थः । द्वौ द्वौ इन्द्रो येषां ते द्वोन्द्रा इति । पमा सप्तपर्णोऽष्टापद इति । तद्यथा--भवनवासिषु तावदसुरकुमाराणां द्वाविन्द्रौ चमरो वैरोचनश्च । नागकुमाराणां धरणो भूतानन्दश्च । विद्युत्कुमाराणां हरिसिंहो हरिकान्तश्च । सुपर्णकुमाराणां वेणुदेवो वेणुधारी च। अग्निकुमाराणामग्निशिखोऽग्निमाणवश्च । वातकुमाराणां बैलम्बः प्रभञ्जनश्च । स्तनितकुमाराणां सुघोषो महाघोषश्च । उदधिकुमाराणां जलकान्तो जलप्रभश्च । द्वीपकुमाराणां पूर्णो वसिष्ठश्च । विक्कुमाराणाममितगतिरमितवाहनश्चेति । व्यन्तरेष्वपि किन्नराणां द्वाविन्द्रौ किन्नरः किम्पुरुषश्च । किम्पुरुषाणां सत्पुरुषो महापुरुषश्च । महोरगाणांमतिकायो महाकायश्च । गन्धर्वाणां गीतरतिर्गोतयशश्च । यक्षाणां पूर्णभद्रो मणिभद्रश्च । अतः जहाँ अपवाद है उसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
किन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देव त्रास्त्रिश और लोकपाल इन दो भेदों से रहित हैं ।।5।।
8551. व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें प्रायस्त्रिश और लोकपाल इन दो भेदोंके सिवा शेष आठ भेद जानना चाहिए।
8452. उन निकायोंमें क्या एक-एक इन्द्र है या और दूसरा कोई नियम है इस बातके बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
प्रथम दो निकायोंमें दो दो इन्द्र हैं ॥6॥
6453. पूर्वके दो निकायोंसे भवनवासी और व्यन्तर ये दो निकाय लेना चाहिए। शंका-दूसरे निकायको पूर्व कैसे कहा जा सकता है ? समाधान-प्रथमके समीपवर्ती होनेसे दूसरे निकाय को उपचारसे पूर्व कहा है। 'द्वीन्द्राः' इस पदमें वीप्सारूप अर्थ गभित है अतः इसका विग्रह इस प्रकार हुआ कि 'द्वौ द्वौ इन्द्रौ येषां ते दीन्द्राः' जैसे सप्तपर्ण और अष्टापद । तात्पर्य यह है जिस प्रकार सप्तपर्ण और अष्टापद इन पदोंमें वीप्सारूप अर्थ गभित है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए । खुलासा इस प्रकार है-भवनवासियोंमें असुरकुमारोंके चमर और वैरोचन ये दो इन्द्र हैं। नागकुमारोंके धरण और भूतानन्द ये/दो इन्द्र हैं । विद्युत्कुमारोंके हरिसिंह और हरिकान्त ये दो इन्द्र हैं । सुपर्णकुमारोंके वेणुदेव और वेणुधारी ये दो इन्द्र हैं । अग्निकुमारोंके अग्निशिख और अग्निमाणव ये दो इन्द्र हैं । वातकुमारोंके वैलम्ब और प्रभंजन ये दो इन्द्र हैं । स्तनितकुमारोंके सुघोष और महाघोष ये दो इन्द्र हैं । उदधिकुमारोंके जलकान्त और जलप्रभ ये दो इन्द्र हैं । दीपकुमारोंके पूर्ण और विशिष्ट ये दो इन्द्र हैं । तथा दिक्कुमारोंके अमित गति और अमितवाहन ये दो इन्द्र हैं । व्यन्तरोंमें भी किन्नरोंके किन्नर और किम्पुरुष ये दो इन्द्र हैं। किम्पुरुषोंके सत्पुरुष और महापुरुष ये दो इन्द्र हैं । महोरगोंके अतिकाय और महाकाय ये दो.इन्द्र है । गन्धों के गीतरति और गीतयश ये दो इन्द्र हैं । यक्षोंके पूर्णभद्र और मणिभद्र ये 1.-बर्जा म्य- ता., ना., । 2. -रुषश्चेति महो- मु.।
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[181
--4188457]
चतुर्थोऽध्यायः राक्षसानां भीमो महाभीमश्च । भूतानां प्रतिरूपोऽप्रतिरूपश्च । पिशाचानां कालो महाकालश्च । 5454. अर्थषां देवानां सुखं कीदृशमित्युक्ते सुखावबोधनार्थमाह
कायप्रवीचारा पा ऐशानात् ॥7॥ 8455. प्रवीचारो मैथुनोपसेवनम् । कायेन प्रवीचारो येषां ते कायप्रवीचाराः। आङ् अभिविध्यर्थः । असंहितया निर्देशः असंदेहार्थः । एते भवनवास्यादय ऐशानान्ताः संक्लिष्टकर्मत्वान्मनुष्यवत्स्त्रीविषयसुखमनुभवन्तीत्यर्थः । 8456. अवधिग्रहणादितरेषां सुखविभागेऽनिर्माते तत्प्रतिपादनार्थमाह
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनः प्रवीचाराः ॥8॥ 8457. उक्तावशिष्टग्रहणार्थ 'शेष' ग्रहणम। के पनरुक्तावशिष्टाः? कल्पवासिनः । स्पर्शश्च रूपं च शब्दश्च मनश्च स्पर्शरूपशब्दमनांसि, तेषु प्रवीचारो येषां ते स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः । कयभिसंबन्धः ? आर्षाविरोधेन । कुतः पुनः 'प्रवीचार' ग्रहणम् ? इष्टसंप्रत्ययार्थमिति । कः पुनरिष्टोऽभिसंबन्धः ? आर्षाविरोधी-सानत्कुमारमाहेन्द्रयोर्देवा देवाङ्गना स्पर्शमात्रादेव परां प्रीतिमुपलभन्ते, तथा देव्योऽपि । ब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठेषु देवा दिव्याङ्गनानां दो इन्द्र हैं। राक्षसोंके भीम और महाभीम ये दो इन्द्र हैं । भूतोंके प्रतिरूप और अप्रतिरूप ये दो इन्द्र है । तथा पिशाचोंके काल और महाकाल ये दो इन्द्र हैं।
8454. इन देवोंका सुख किस प्रकारका होता है ऐसा पूछने पर सुखका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ऐशान तकके देव कायप्रवीचार अर्थात् शरीरसे विषय-सुख भोगनेवाले होते हैं ॥7॥
8455. मैथुनद्वारा उपसेवनको प्रवीचार कहते हैं । जिनका कायसे प्रवीचार है वे कायप्रवी चारवाले कहे जाते हैं । कहाँतक कायसे प्रवीचारकी व्याप्ति है इस बातके बतलानेक लिए सूत्रमें 'आङ्' का निर्देश किया है । सन्देह न हो इसलिए 'आ ऐशानात्' इस प्रकार सन्धिके विना निर्देश किया है । तात्पर्य यह है कि ऐशान स्वर्ग पर्यन्त ये भवनवासी आदि देव संक्लिष्ट कर्मवाले होनेके कारण मनुष्योक समान स्त्रीविषयक सुखका अनुभव करते हैं।
8456 पूर्वोक्त सत्र में कायसे प्रवीचारकी मर्यादा कर दी है इसलिए इतर देवोंके सुखका विभाग नहीं ज्ञात होता है, अतः इसके प्रतिपादन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं --
शेष देव स्पर्श, रूप, शब्द और मनसे विषय-सुख भोगनेवाले होते हैं ॥8॥
8457. पहले जिन देवोंका प्रवीचार कहा है उनसे अतिरिक्त देवोंके ग्रहण करने के लिए 'शेष' पदका ग्रहण किया है। शंका-उक्त देवोंसे अवशिष्ट और कौन देव हैं ? समाधानकल्पवासी । यहाँ स्पर्श, रूप, शब्द और मन इनका परस्पर द्वन्द्व समास करके अनन्तर प्रवीचार शब्दके साथ बहुटीहि समास किया है । शंका–इनमें से किन देवोंके कौन-सा प्रवीचार है इसका सम्बन्ध कैसे करना चाहिए ? समाधान--इसका सम्बन्ध जिस प्रकार आर्ष में विरोध न आवे उस प्रकार कर लेना चाहिए। शंका-पुनः 'प्रवीचार' शब्दका ग्रहण किसलिए किया है ? समाधान-इष्ट अर्थका ज्ञान कराने के लिए। शंका-जिसमें आर्षसे विरोध न आवे ऐसा वह इष्ट अर्थ क्या है ? समाधान--सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गके देव देवांगनाओंके स्पर्श मात्रसे परम प्रोतिको प्राप्त होते हैं और इसी प्रकार वहाँकी देवियाँ भी। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गके देव देवांगनाओंके शृगार, आकृति, विलास, चतुर और मनोज्ञ वेष तथा मनोज्ञ रूपके 1. 'आङ् मर्यादाभिविध्योः।' पा. 2, 1, 13 1 2. -नांगकास्पर्श: मु.।
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182]
सर्वार्थसिद्धौ
[419 $458शृङ्गाराकारविलासचतुरमनोज्ञवेषरूपावलोकनमात्रादेव परममुखमाप्नुवन्ति। शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेषु देवा देववनितानां मधुरसंगीतमृदुहसितललितकथितभूषणरवश्रवणमात्रादेव परां प्रीतिमास्कन्दन्ति।आनतप्राणतारणाच्युतकल्पेषु देवा स्वाङ्गनामनःसंकल्पमात्रादेव परं सुखमाप्नुवन्ति। 8 458. अथोत्तरेषां किंप्रकारं सुखमित्युक्ते तन्निश्चयार्थमाह ---
___ परेऽप्रवीचाराः ॥9॥ $ 459. 'पर' ग्रहणमितराशेषसंग्रहार्थम् । 'अप्रवीचार'ग्रहणं परमसुखप्रतिपत्त्यर्थम् । प्रवीचारो हि वेदनाप्रतिकारः । तदभावे तेषां परमसुखमनवरतं भवति ।
8460. उक्ता ये आदिनिकायदेवा दशविकल्पा इति तेषां सामान्यविशेषसंज्ञाविज्ञापनार्थमिदमुच्यते
भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ॥10॥
8461. भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला भवनवासिनः । आदिनिकायस्येयं सामान्यसंज्ञा। असुरादयो विशेषसंज्ञा विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तयः सर्वेषां देवानामवस्थितवयःस्वभावत्वेऽपि वेषभूषायुधयानवाहनक्रीडनादिकुमारवदेषामाभासत इति भवनवासिषु कुमारव्यपदेशो रूढः । स प्रत्येक परिसमाप्यते असुरकुमारा इत्येवमादि । क्व तेषां भवनानीति चेत् । उच्यते--- रत्नप्रभायाः पंकबहुलभागेऽसुरकुमाराणां भवनानि । खरपृथिवीभागे उपर्यधश्च एकैकयोजनसहस्रं वर्जयित्वा देखने मात्रसे ही परम सुखको प्राप्त होते हैं । शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्गक देव देवांगनाओंके मधुर संगीत, कोमल हास्य, ललित कथित और भूषणोंके कोमल शब्दोंके सुननेमात्र से ही परम प्रीतिको प्राप्त होते है । तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पके देव अपनी अंगनाका मनमें संकल्प करनेमात्रसे ही परम सूखको प्राप्त होते हैं।
8 458. अब आगेके देवोंका किस प्रकारका सुख है ऐसा प्रश्न करनेपर उसका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
बाकीके सब देव विषय-सुख से रहित होते हैं ॥9॥
8459. शेष सब देवोंका संग्रह करनेके लिए सूत्र में 'पर' शब्दका ग्रहण किया है। परम सखका ज्ञान कराने के लिए अप्रवीचार पदका ग्रहण किया है। प्रवीचार वेदनाका प्रतिकारमात्र है। इसके अभावमें उनके सदा परम सुख पाया जाता है।
8460. आदिके निकायके देवोंके दस भेद कहे हैं । अब उनकी सामान्य और विशेष संज्ञाका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
भवनवासी देव दस प्रकारके हैं—असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार ॥10॥
8461. जिनका स्वभाव भवनोंमें निवास करना है वे भवनवासी कहे जाते हैं। प्रथम निकायकी यह सामान्य संज्ञा है। तथा असुरादिक विशेष संज्ञाएँ हैं जो विशिष्ट नामकर्मके उदयसे प्राप्त होती हैं । यपि इन सब देवोंका वय और स्वभाव अवस्थित है तो भी इनके वेष, भूषा, शस्त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारोंके समान होती है, इसलिए सब भवनवासियोंमें कुमार शब्द रूढ़ है। यह कुमार शब्द प्रत्येकके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा असुरकुमार आदि । शंका-इनके भवन कहाँ है ? समाधान-रत्नप्रभाके पंकबहुल भागमें असुर. कुमारोंके भवन हैं। और खर पृथिवीभाग में ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष 1. पंकबहल- आ., दि. 1, दि. 2 ।
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-4112 § 465]
शेषनवानां कुमाराणामावासाः ।
चतुर्थोऽध्यायः
6462. द्वितीय निकायस्य सामान्यविशेषसंज्ञावधारणार्थमाह्—
व्यन्तराः किंनरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूत पिशाचाः 1110
8463. विविधदेशान्तराणि येषां निवासास्ते 'व्यन्तराः' इत्यन्वर्था सामान्यसंज्ञेयमष्टानामपि विकल्पानाम् । तेषां व्यन्तराणामष्टौ विकल्पाः किंनरादयो वेदितव्या नामकर्मोदय विशेषापादिताः । क्व पुनस्तेषामावासा इति चेत् । उच्यते—– अस्माज्जम्बूद्वीपादसंख्येयान् द्वीपसमुद्रानतीत्य उपरिष्टे' खरपृथिवीभागे सप्तानां व्यन्तराणामावासाः । राक्षसानां पङ्कबहुलभागे ।
8464. : तृतीयस्य निकायस्य सामान्यविशेषसंज्ञासंकीर्तनार्थमाहज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकारच
[183
ii120
8465. ज्योतिस्स्वभावत्वादेषां पञ्चानामपि 'ज्योतिष्का:' इति सामान्यसंज्ञा अन्वर्था । सूर्यादयस्तद्विशेषसंज्ञा नामकर्मोदयप्रत्ययाः । 'सूर्याचन्द्रमसौ' इति पृथग्ग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम् । किकृतं पुनः प्राधान्यम् ? प्रभावादिकृतम् । क्व पुनस्तेषामावासाः ? इत्यत्रोच्यते, अस्मात्समाद् भूमिभागादृवं सप्तयोजनशतानि नवत्युत्तराणि उत्पत्य सर्वज्योतिषामधोभागविन्यस्तास्तारकाचरन्ति । ततो दशयोजनान्युत्पत्य सूर्याश्चरन्ति । ततोऽशीतियोजनान्युत्पत्य चन्द्रमसो भ्रमन्ति । रचत्वारि योजनान्युत्पत्य नक्षत्राणि । ततश्चत्वारि योजनान्युत्पत्य बुधाः । ततस्त्रीणि नौ प्रकारके कुमारोंके भवन हैं ।
8462. अब दूसरे निकायकी सामान्य और विशेष संज्ञाके निश्चय करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
व्यन्तर देव आठ प्रकारके हैं— किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ॥11॥
8463. जिनका नानाप्रकारके देशोंमें निवास है वे व्यन्तर देव कहलाते हैं । यह सामान्य संज्ञा सार्थक है जो अपने आठों ही भेदोंमें लागू है । इन व्यन्तरोंके किन्नरादिक आठों भेद विशेष नामकर्मके उदयसे प्राप्त होते हैं ऐसा जानना चाहिए। शंका- इन व्यन्तरोंके आवास कहाँ हैं ? समाधान – इस जम्बूद्वीपसे असंख्यात द्वीप और समुद्र लाँघकर ऊपरके खर पृथिवी भाग में सात प्रकारके व्यन्तरोंके आवास हैं । तथा पंकबहुल भागमें राक्षसों के आवास हैं ।
$ 464. अब तीसरे निकायकी सामान्य और विशेष संज्ञाका कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --
ज्योतिषी देव पाँच प्रकारके हैं- सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे ॥12॥
$ 465. ये सब पाँचों प्रकारके देव ज्योतिर्मय हैं, इसलिए इनकी ज्योतिषी यह सामान्य संज्ञा सार्थक है । तथा सूर्य आदि विशेष संज्ञाएँ विशेष नामकर्मके उदयसे प्राप्त होती हैं । सूर्य और चन्द्रमाकी प्रधानताको दिखलानेके लिए 'सूर्याचन्द्रमसौ' इस प्रकार इन दोनोंका अलग से ग्रहण किया है । शंका- इनमें प्रधानता किस निमित्तसे प्राप्त होती है ? समाधान -इनमें प्रभाव आदिककी अपेक्षा प्रधानता प्राप्त होती है । शंका- इनका आवास कहाँपर है ? समाधान- इस समान भूमिभागसे सातसौ नब्बे योजन ऊपर जाकर तारकाएँ विचरण करती हैं जो सब ज्योतिषियोंके अधोभागमें स्थित हैं। इससे दस योजन ऊपर जाकर सूर्य विचरण करते हैं। इससे 1. -तीत्य परिष्टे आ., ता., ना., दि. 1, दि. 2 2 -त्तराणि 790 उत्प- मु । 3 ततस्त्रीणि योजता., ना., । तत्त्वा. । 4 ततस्त्रीणि योज- ता., ना., तत्त्वा ।
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184] सर्वार्थसिद्धौ
[41138466योजनान्युत्पत्य शुक्राः । 'ततस्त्रीणि योजनान्युत्पत्य बृहस्पतयः। ततस्त्रीणि' योजनान्युत्पत्यागारकाः । ततस्त्रीणि योजनान्युत्पत्य शनैश्चराश्चरन्ति । स एष ज्योतिर्गणगोचरो नभोऽवकाशो दशाधिकयोजनशतबहलस्तिर्यगसंख्यातद्वीपसमुद्रप्रमाणो घनोदधिपर्यन्तः । उक्तं च ।
“णउदुत्तरसत्तसया दससीदी चदुगं तियचउक्कं ।
तारारविससिरिक्खा बुहभग्गवगुरुअंगिरारसणी ।" 8466. ज्योतिष्काणां गतिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥13॥ 8467. मेरोः प्रदक्षिणा मेरुप्रदक्षिणा । 'मेरुप्रदक्षिणाः' इति वचनं गतिविशेषप्रतिपत्त्यर्थ विपरीता गतिर्मा विज्ञायोति । 'नित्यगतयः' इति विशेषणमनुपरतक्रियाप्रतिपादनार्थम् । 'नलोक'ग्रहणं विषयार्थम् । अर्धतृतीयेषु द्वीपेषु द्वयोश्च समुद्रयोयोतिष्का नित्यगतयो नान्यत्रेति। ज्योतिष्कविमानानां गतिहेत्वभावात्तवृत्त्यभाव इति चेत् । न; असिद्धत्वात्, गतिरताभियोग्यदेवप्रेरित गतिपरिणामात्कर्मविपाकस्य वैचित्र्यात् । तेषां हि गतिमुखेनैव कर्म विपच्यत इति । अस्सी योजन ऊपर जाकर चन्द्रमा परिभ्रमण करते हैं। इससे चार योजन ऊपर जाकर नक्षत्र हैं। इससे चार योजन ऊपर जाकर बुध हैं । इससे तीन योजन ऊपर जाकर शुक्र है । इससे तीन योजन ऊपर जाकर बृहस्पति हैं । इससे तीन योजन ऊपर जाकर मंगल हैं। इससे तीन योजन ऊपर जाकर शनीचर हैं । यह ज्योतिषियोंसे व्याप्त नभःप्रदेश एक सौ दस योजन मोटा और घनोदधि-पर्यन्त असंख्यात द्वीप-समुद्र-प्रमाण लम्बा है। कहा भी है --
'इस पृथिवी-तलसे सात सौ नब्बे योजन ऊपर जाकर ताराएँ हैं। पुनः दस योजन ऊपर जाकर सूर्य हैं । पुनः अस्सी योजन ऊपर जाकर चन्द्रमा हैं । पुनः चार योजन ऊपर जाकर नक्षत्र और चार योजन ऊपर जाकर बुध हैं। पुनः चार बार तीन योजन ऊपर जाकर अर्थात् तीन-तीन योजन ऊपर जाकर क्रमसे शुक्र, गुरु, मंगल और शनि हैं।'
8466. अब ज्योतिषी देवोंकी गतिविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैंज्योतिषी देव मनुष्यलोकमें मेरुको प्रदक्षिणा करते हैं और निरन्तर गतिशील हैं। 13॥
8467. 'मेरुप्रदक्षिणा' इस पदमें षष्ठी तत्पुरुष समास है। 'मेरुप्रदक्षिणा' यह वचन गतिविशेष का ज्ञान करनेके लिए और कोई विपरीत गति न समझ बैठे इसके लिए दिया है। वे निरन्तर गतिरूप क्रिया युक्त हैं इस बात का ज्ञान करानेके लिए 'नित्यगतयः' पद दिया है। इस प्रकार के ज्योतिषी देवोंका क्षेत्र बताने के लिए 'नृलोक' पदका गृहण किया है। तात्पर्य यह है कि ढाई द्वीप और दो समुद्रोंमें ज्योतिषी देव निरन्तर गमन करते रहते हैं अन्यत्र नहीं। शंका-ज्योतिषी देवोंके विमानों की गति का कारण नहीं पाया जाता अतः उनका गमन नहीं बन सकता ? समाधान नहीं, क्योंकि यह हेतु असिद्ध है। बात यह है कि गमन करने में रत जो आभियोग्य जातिके देव हैं उनसे प्रेरित होकर ज्योतिषी देवों के विमानों का गमन होता रहता है। यदि कहा जाय कि आभियोग्य जाति के देव निरन्तर गति में ही क्यों रत रहते हैं तो उसका उत्तर यह है कि यह कर्म के परिपाककी विचित्रता है। उनका कर्म गतिरूप से ही 1. ततश्चत्वारि योज- ता.. ना., तत्त्वा.। 2. ततश्चत्वारि योज- ता., ना., तत्त्वा.। 3. -सीदि पदुतिक दुगचउक्कं । तारा- ता.. ना, तत्त्वा.। 4. 'णउदुत्तरसत्तसए दस सीदी चदुद्गे तियबउक्के । तारिणससिरिक्खबुहा सुक्कगुरुंगारमंदगदी।'- ति., सा., गा. 332 ।
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-4114 § 4697
चतुर्थोऽध्यायः
एकादशभिर्योगविशेस्मप्राप्य ज्योतिष्काः प्रदक्षिणाश्चरन्ति । S 160 गतिमज्ज्योतिस्संबन्धेन व्यवहारकालप्रतिपत्त्यर्थमाह-तत्कृतः कालविभागः ॥14॥
$ 469. ' तद्' ग्रहणं गतिमज्ज्योतिः प्रतिनिर्देशार्थम् । न केवल्या गत्या नापि केवलैज्योंतिभिः कालः परिच्छद्यते; अनुपलब्धेरपरिवर्तनाच्च । कालो द्विविधो व्यावहारिको मुख्यश्च । व्यावहारिकः कालविभागर तत्कृतः समयावलिकादिः क्रियाविशेषपरिच्छिन्नोऽन्यस्यापरिच्छिन्नस्य परिच्छेदहेतुः । मुख्योऽन्यो वक्ष्यमाणलक्षणः ।
1185
फलता है । यहो कारण है कि वे निरन्तर गमन करने में ही रत रहते हैं । यद्यपि ज्योतिषी देव मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं तो भी वे मेरु पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर रह कर ही विचरण करते हैं ।
$ 468. अब गमन करनेवाले ज्योतिषियोंके सम्बन्धसे व्यवहार-काल का ज्ञान करानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं
उन गमन करनेवाले ज्योतिषियोंके द्वारा किया हुआ कालविभाग है ॥14॥
$ 469. गमन करनेवाले ज्योतिषी देवोंका निर्देश करनेके लिए सूत्रमें 'तत्' पदका ग्रहण किया है । केवल गतिसे कालका निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि वह पायी नहीं जाती और गतिके बिना केवल ज्योति से भी कालका निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि परिवर्तनके बिना वह सदा एक-सी रहेगी । यही कारण है कि यहाँ 'तत्' पदके द्वारा गतिवाले ज्योतिषियोंका निर्देश किया है । काल दो प्रकार का है--व्यावहारिक काल और मुख्य काल । इनमें से समय और आवलि आदि रूप व्यावहारिक काल विभाग गतिवाले ज्योतिषी देवोंके द्वारा किया हुआ है । यह क्रिया विशेषसे जाना जाता है और अन्य नहीं जानी हुई वस्तुओंके जाननेका हेतु है। मुख्यकाल इससे भिन्न है जिसका लक्षण आगे कहनेवाले हैं
विशेषार्थ - मनुष्य मानुषोत्तर पर्वतके भीतर पाये जाते हैं । मानुषोत्तर पर्वतके एक ओरसे लेकर दूसरी ओर तक कुल विस्तार पैंतालीस लाख योजन है । मनुष्य इसी क्षेत्रमें पाये जाते 'हैं इसलिए यह मनुष्यलोक कहलाता है । इस लोकमें ज्योतिष्क सदा भ्रमण किया करते हैं । इनका भ्रमण मेरुके चारों ओर होता है । मेरुके चारों ओर ग्यारहसौ इक्कीस योजन तक ज्योतिष्क मण्डल नहीं है । इसके आगे वह आकाशमें सर्वत्र बिखरा हुआ है । जम्बूद्वीपमें दो सूर्य और दो चन्द्र हैं । एक सूर्य जम्बूद्वीपकी पूरी प्रदक्षिणा दो दिन रात में करता है । इसका चार क्षेत्र जम्बूद्वीप में 180 योजन और लवण समुद्र में 3300 योजन माना गया है। सूर्यके घूमनेकी कुल गलियाँ 184 हैं । इनमें यह क्षेत्र विभाजित हो जाता है। एक गलीसे दूसरी गलीमें दो योजनका अन्तर माना गया है । इसमें सूर्यबिम्बके प्रमाणको मिला देनेपर वह 200 योजन होता है । इतना उदयान्तर है । मण्डलान्तर दो योजनका ही है । चन्द्रको पूरी प्रदक्षिणा करनेमें दो दिन-रात से कुछ अधिक समय लगता है । चन्द्रोदयमें न्यूनाधिकता इसीसे आती है । लवण समुद्र में चार सूर्य, चार चन्द्र; धातकीखण्डमें बारह सूर्य, बारह चन्द्र, कालोदधिमें व्यालीस सूर्य, व्यालीस चन्द्र और पुष्करार्ध में बहत्तर सूर्य, बहत्तर चन्द्र हैं । इस प्रकार ढाई द्वीपमें एक सौ बत्तीस सूर्य और एक सौ बत्तीस चन्द्र हैं । इन दोनोंमें चन्द्र, इन्द्र और सूर्य प्रतीन्द्र हैं। एक-एक चन्द्रका परिवार एक सूर्य, अट्ठाईस नक्षत्र, अठासी ग्रह और छ्यासठ हजार नौ सौ कोड़ाकोड़ी तारे हैं । इन ज्योतिष्कोंका गमन स्वभाव है तो भी अभियोग्य देव सूर्य आदि के विमानोंको निरन्तर ढोया करते हैं । ये देव सिंह, गज, बैल और घोड़ेका आकार धारण किये रहते हैं । सिंहाकार देवोंका
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136]
सर्वार्थसिद्धी
[4115 $ 4708 470. इतरत्र ज्योतिषामवस्थानप्रतिपादनार्थमाह
बहिरवस्थिताः ॥15॥ 6 471. 'बहिः' इत्युच्यते । कुतो बहिः ? नृलोकात् । कथमवगम्यते ? अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामो भवति । नन च नलोके नित्यगति'वचनादन्यत्रावस्थानं ज्योतिष्काणां सिद्धम । बहिरवस्थिता इति वचनमनर्थकमिति । तन्न; किं कारणम् ? नलोकादन्यत्र हि ज्योतिषामस्तिस्वमवस्थानं चासिद्धम् । अतस्तदुभयसिद्ध्यर्थं बहिरवस्थिता इत्युच्यते। विपरीतगतिनिवृत्त्यर्थं कादाचित्कगतिनिवृत्त्यर्थं च सूत्रमारब्धम् ।। 8 472. तुरीयस्य निकायस्य सामान्यसंज्ञासंकीर्तनार्थमाह---
वैमानिकाः ॥16॥ 8473. 'वैमानिक' ग्रहणमधिकारार्थम् । इत उत्तरं ये वक्ष्यन्ते तेषां वैमानिकसंप्रत्ययो स्था स्यादिति अधिकारः क्रियते । विशेषेणात्मस्थान सुकृतिनो मानयन्तीति विमानानि । विमानेषु
वा वैमानिकाः। तानि विमानानि त्रिविधानि–इन्द्रकश्रेणीपुष्पप्रकीर्णकभेदेन । तत्र इन्द्रकविमानानि इन्द्रवन्मध्येऽवस्थितानि । तेषां चतसृषु दिक्षु आकाशप्रदेशश्रेणिवदवस्थानात् श्रेणिमुख पूर्व दिशाकी ओर रहता है । तथा गजाकार देवोंका मुख दक्षिण दिशाकी ओर, वृषभाकार देवोंका मुख पश्चिमकी ओर, और अश्वाकार देवोंका मुख उत्तर दिशाकी ओर रहता है।
8470. अव ढाई द्वीपके बारह ज्योतिषियोंके अवस्थानका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मनुष्य-लोकके बाहर ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं ।।15।।
8471. सूत्रमें 'वहिः' पद दिया है । शंका-किससे बाहर ? समाधान-मनुष्य-लोकसे बाहर । शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान पिछले सूत्र में 'नृलोके' पद आया है। अर्थ के अनुसार उसकी विभक्ति बदल जाती है, जिससे यह जाना जाता है कि यहाँ 'वहिः' पदसे मनुष्यलोकके बाहर यह अर्थ इष्ट है। शंका –मनुष्य-लोक में ज्योतिषी निरन्तर गमन करते हैं यह पिछले सूत्रमें कहा ही है, अत: अन्यत्र ज्योतिषियोंका अवस्थान सूतरां सिद्ध है। इसलिए 'बहिरवस्थिताः' यह सूत्रवचन निरर्थक है ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि मनुष्यलोकके बाहर ज्योतिषियोंका अस्तित्व और अवस्थान ये दोनों असिद्ध है। अतः इन दोनों की सिद्धिके लिए 'बहिरवस्थिताः' यह सूत्रवचन कहा है। दूसरे विपरीत गतिके निराकरण करनेके लिए और कादाचित्क गतिके निराकरण करनेके लिए यह सूत्र रचा है। अतः यह सूत्रचन अनर्थक नहीं है।
6472. अब चौथे निकायकी सामान्य संज्ञाके कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
चौथे निकायके देव वैमानिक हैं।16।।
6473. वैमानिकोंका अधिकार है यह बतलानेके लिए 'वैमानिक' पदका ग्रहण किया है। आगे जिनका कशन करनेवाले हैं वे वैमानिक हैं। इनका ज्ञान जैसे हो इसके लिए यह अधिकार वचन है। जो विशेषत: अपने में रहनेवाले जीवोंको पृण्यात्मा मानते हैं वे विमान हैं और जो उन विमानोंमें होते हैं वे पैमानिक हैं । इन्द्रक, श्रेणिबद्ध और पुष्पप्रकीर्णकके भदसे विमान अनेक प्रकारके हैं। उनमें-से इन्द्रक विमान इन्द्रके समान मध्यमें स्थित हैं । उनके नारों और 1.-न्यत्र बहिर्यो- मु.। 2. -नानि विविधा- मु.। 3. मध्ये व्यव- मु. ।
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-4119 § 479]
विमानानि । विदिक्षु प्रकीर्णपुष्पवदवस्थानात्पुष्पप्रकीर्णकानि । 8474 तेषां वैमानिकानां भेदावबोधनार्थमाहकल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥17॥
8475. कल्पेषूपन्नाः कल्पोपपन्नाः कल्पातीताः कल्पातीताश्चेति द्विविधा वैमानिका: $ 476. तेषामवस्थानविशेषनिर्ज्ञानार्थमाह
चतुर्थोऽध्यायः
[187
उपर्युपरि ॥18॥
8477. किमर्थमिदमुच्यते । तिर्यगवस्थितिप्रतिषेधार्थमुच्यते । न ज्योतिष्कवत्तिर्यगवस्थिताः । न व्यन्तरवद समावस्थितयः । 'उपर्युपरि' इत्युच्यन्ते । के ते ? कल्पाः । 8478. यो, कियत्सु कल्पविमानेषु ते देवा भवन्तीत्यत आह-सौधर्मैशानसानत्कुमार माहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्र महाशुक्रशतार सहस्त्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजय वैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥१६॥
1
$479. कथमेषां सौधर्मादिशब्दानां कल्पाभिधानम् ? चातुरर्थिकेनाणा स्वभावतो वा कल्पस्याभिधानं भवति । अथ कथमिन्द्राभियानम् ? स्वभावतः साहचर्याद्वा । तत्कथमिति चेत् ? उच्यते - सुधर्मा नाम सभा, साऽस्मिन्नस्तीति सौधर्मः कल्पः । "तदस्मिन्नस्तोति "" अण् । तत्कल्पआकाश के प्रदेशोंकी पंक्तिके समान जो स्थित हैं वे श्रेणिविमान हैं । तथा बिखरे हुए फूलों के 'समान विदिशाओं में जो विमान हैं वे पुष्पप्रकोणक विमान हैं ।
$474. उन वैमानिकां भेदांका ज्ञान करानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैंवे दो प्रकारके हैं- कल्पोपपन्न और कल्पातीत ॥ 17 ॥
$ 475. जो कल्पांमें उत्पन्न होते हैं वे कलापपन्न कहलाते हैं। ओर जो कल्पों के परे हैं वे कातात कहलाते हैं । इस प्रकार वैमानिक दो प्रकारके हैं ।
§ 476. अब उनके अवाविशेषाज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैंवे ऊपर-ऊपर रहते हैं ।। 18 ।।
8477. शंका-पह सूत्र किसलिए कहा है ? समाधान - ये कल्पोपन्न और कल्पातीत वैमानिक तिरछे रूपसे रहत है इसका निषेध करनेके लिए कहा है। ये ज्योतिषियोंके समान तिरछे रूपसे नहीं रहते हैं । उसी प्रकार व्यन्तरोंके समान विषमरूपसे नहीं रहते हैं । किन्तु ऊपर-ऊपर हैं। शंका - वे ऊपर-ऊपर क्या हैं ? समाधान - कल्प |
8478. यदि ऐसा है तो कितने कल्प विमानांमें वे देव निवास करते हैं, इस बात के बतलाने के लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार तथा आनत प्राणत, आरण-अच्युत, नौ ग्रैवेयक और विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धिमें वे निवास करते हैं ॥19॥
8479. शका--इन सोधर्मादिक शब्दोंको कल्प संज्ञा किस निमित्तसे मिली है ? समाधान - व्याकरणमें चार अर्थ में 'अग्' प्रत्यय होता है उससे सोधर्म आदि शब्दोंकी कल्पसंज्ञा है या स्वभावते हो व कल्प कहलाते हैं । शंका- पीधर्म आदि शब्द इन्द्रके वाचो कैसे हैं ? समा1. तदस्मिन्नस्तीति देशे तन्नाम्नि पा. 4, 2, 67 । तदस्मिन्नन्नं प्राये खो' जनेन्द्र 4, 1,25
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188]
सर्वार्थसिद्धी
[41198419साहचर्यादिन्द्रोऽपि सौधर्मः । ईशानो नाम इन्द्रः स्वभावतः । ईशानस्य निवासः कल्प ऐशानः । "तस्य निवास:1" इत्यण् । तत्साहचर्यादिन्द्रोऽप्यैशानः। सनत्कुमारो नाम इन्द्रः स्वभावतः। "तस्य निवासः" इत्यण् । सानत्कुमारः कल्पः । तत्साहचर्यादिन्द्रोऽपि सानत्कुमारः। महेन्द्रो नामेन्द्रः स्वभावतः। तस्य निवासः कल्पो माहेन्द्रः। तत्साहचर्यादिन्द्रोऽपि माहेन्द्रः। एवमुत्तरत्रापि योज्यम् । आगमापेक्षया व्यवस्था भवतीति 'उपर्युपरि' इत्यनेन द्वयोद्धयोरभिसंबन्धो वेदितव्यः । प्रथमो सौधर्मेशानकल्पो, तयोरुपरि सानत्कुमारमाहेन्द्रौ, तयोरुपरि ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरौ, तयोरुपरि लान्तवकापिष्ठौ, तयोरुपरि शुक्रमहाशुक्रौ, तयोरुपरि शतारसहस्रारौ, तयोरुपरि आनतप्राणतो, तयोरुपरि आरणाच्युतौ। अध उपौर च प्रत्येकमिन्द्रसंबन्धो वेदितव्यः । मध्ये तु प्रतिद्वयम् । सौधर्मशानसानत्कुमारमाहेन्द्राणां चतुर्णां चत्वार इन्द्राः । ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोरेको ब्रह्मा नाम । लान्तधकापिष्ठयोरेको लान्तवाख्यः। शुक्रमहाशुक्रयोरेकः शुक्रसंज्ञः । शतारसहस्रारयोरेकः शतारनामा। आनतप्राणतारणाच्युताना चतुर्णां चत्वारः। एवं कल्पवासिनां द्वादश इन्द्रा भवन्ति । जम्बूद्वीपे महामन्दरो योजनसहस्रावगाहो' नवनवतियोजनसहस्रोच्छायः । तस्याधस्ताद
कः । बाहल्येन तत्प्रमाण स्तिर्यप्रसुतस्तियंग्लोकः । तस्योपरिष्टादूवलोकः । मेरुचूलिका धान-स्वभावसे या साहचर्य से। शंका-कैसे ? समाधान-सुधर्मा नामकी सभा है, वह जहाँ है उस कल्पका नाम सौधर्म है। यहाँ तदस्मिन्नस्ति' इससे 'अण्' प्रत्यय हुआ है। और इस कल्पके सम्बन्धसे वहाँका इन्द्र भी सौधर्म कहलाता है। इन्द्रका ईशान यह नाम स्वभावसे है। वह इन्द्र जिस कल्पमें रहता है उसका नाम ऐशान कल्प है । यहाँ 'तस्य निवासः' इस सूत्रसे 'अण प्रत्यय हुआ है । तथा इस कल्पके सम्बन्धसे इन्द्र भी ऐशान कहलाता है। इन्द्रका सनत्कुमार नाम स्वभावसे है । यहाँ 'तस्य निवासः' इस सूत्रसे 'अण्' प्रत्यय हुआ है इससे कल्पका नाम सानत्कुमार पड़ा और इसके सम्बन्धसे इन्द्र भी सानत्कुमार कहलाता है। इन्द्रका महेन्द्र नाम स्वभावसे है। वह इन्द्र जिस कल्पमें रहता है उसका नाम माहेन्द्र है। और इसके सम्बन्धसे इन्द्र भी माहेन्द्र कहलाता है । इसी प्रकार आगे भी जानना । व्यवस्था आगमके अनुसार होती है इसलिए 'उपर्यपरि' इस पदके साथ दो दो कल्पोंका सम्बन्ध कर लेना चाहिए। सर्वप्रथम सौधर्म और ऐशान कल्प हैं। इनके ऊपर सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्प हैं । इनके ऊपर ब्रह्म और ब्रह्योत्तर कल्प हैं। इनके ऊपर लान्तव और कापिष्ठ कल्प हैं। इनके ऊपर शुक्र और महाशुक्र कल्प हैं। इनके ऊपर शतार और सहसार कल्प हैं। इनके ऊपर आनत और प्राणत कल्प हैं। इनके ऊपर आरण और अच्युत कल्प हे । नीचे और ऊपर प्रत्येक कल्पमें एक एक इन्द्र है तथा मध्यमें दो दो कल्पोंमें एक एक इन्द्र है । तात्पर्य यह है कि सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार
और माहेन्द्र इन चार कल्पोंके चार इन्द्र हैं। ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तर इन दो कल्पोंका एक ब्रह्म नामक इन्द्र है। लान्तव और कापिष्ठ इन दो कल्पोंमें एक लान्तव नामका इन्द्र है। शुक्र और महाशुक्रमें एक शुक्र नामका इन्द्र है । शतार और सहसार इन दो कल्पोंमें एक शतार नामका इन्द्र है । तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चार कल्पोंके चार इन्द्र हैं। इस प्रकार कल्पवासियोंके बारह इन्द्र होते हैं । जम्बूद्वीप में एक महामन्दर नामका पर्वत है जो मूलमें एक हजार योजन गहरा है । और निन्यानबे हजार योजन ऊँचा है । उसके नीचे अधोलोक है। मेरु पर्वतकी जितनी ऊँचाई है उतना मोटा और तिरछा फैला हुआ तिर्यग्लोक है। उसके ऊपर ऊर्ध्वलोक है, जिसकी मेरु चूलिका चालीस योजन विस्तृत है । उसके ऊपर एक बालके अन्तरसे 1. 'तस्य निवासः' -पा. 4,2,69, । तस्य निवासादूरभवो' -जैनेन्द्र . 3, 2, 86 1 2. द्वयमेकम् मु. । 3. ब्रह्मन्द्रो माम मु.। 4. -गाहो भवति नव मु., ता., ना.। 5. बाहुल्येन मु., ता., ना., दि. 2। 6. तत्प्रमाग (मेरुप्रमाण) स्तिर्य- मु.।
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[189
-4120 8482]
चतुर्थोऽध्यायः चत्वारिंशद्योजनोच्छाया । तस्या उरि केशान्तरमात्रे व्यवस्थितमजुविमानमिन्द्रकं सौधर्मस्य । सर्वमन्यल्लोकानुयोगाद्वेदितव्यम् । 'नवसु अवेयकेषु' इति नवशब्दस्य पृथग्वचनं किमर्थम् ? अन्यान्यपि नवविमानानि अनुदिशसंज्ञकानि सन्तीति ज्ञापनार्थम् । तेनानुदिशानां ग्रहणं बेदितव्यम् ।
6 480. एषामधिकृतानां वैमानिकानां परस्परतो विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥20॥ 8481. स्वोपात्तस्यायुष उदयात्तस्मिन्भवे शरीरेण सहावस्थानं स्थितिः । शापानुग्रहशक्तिः प्रभावः । सुखमिन्द्रियार्थानुभवः । शरीरवसनाभरणादिदीप्तिः द्युतिः। लेश्या उक्ता। लेश्याया विशुद्धिलेश्याविशुद्धिः। इन्द्रियाणामवधेश्च विषय इन्द्रियावधिविषयः। तेभ्यस्तैर्वाऽधिका इति तसिः । उपर्युपरि प्रतिकल्पं प्रतिप्रस्तारं च वैमानिकाः स्थित्यादिभिरधिका इत्यर्थः ।
8482. यथा स्थित्यादिभिरुपर्युपर्यधिका एवं गत्यादिभिरपीत्यतिप्रसंगे तन्निवृत्त्यर्थमाहऋजविमान है जो सौधर्म कल्पका इन्द्रक विमान है। शेष सब लोकानुयोगसे जानना चाहिए। शंका---'नवसु ग्रे वेयकेषु' यहाँ 'नव' शब्दका कथन अलगसे क्यों किया है ? समाधान–अनुदिश नामके नौ विमान और हैं इस बातके बतलाने के लिए 'नव' शब्दका अलगसे कथन किया है। इससे भी अनुदिशोंका ग्रहण कर लेना चाहिए।
विशेषार्थ-यद्यपि पहले वैमानिक निकायके बारह भेद कर आये हैं और यहाँ सोलह भेद गिनाये हैं इसलिए यह शंका होती है कि इनमें से कोई एक कथन समीचीन होना चाहिए ? समाधान यह है कि कल्पोपपन्नोंके बारह इन्द्र होते हैं, इसलिए उनके भेद भी बारह ही हैं पर वे रहते हैं सोलह कल्पोंमें । यहाँ कल्पोंमें रहनेवाले देवोंके भेद नहीं गिनाये हैं। यहाँ तो उनके निवार स्थानोंकी परिगणना की गयी है,इसलिए दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं है। शेष कथन सुगम है।
8480. अब इन अधिकार प्राप्त वैमानिकोंके परस्पर विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्याविशुद्धि इन्द्रियविषय और अवधिविषयको अपेक्षा ऊपर-ऊपरके देव अधिक हैं।
8481. अपने द्वारा प्राप्त हुई आयुके उदयसे उस भवमें शरीरके साथ रहना स्थिति कहलाती है। शाप और अनुग्रहरूप शक्तिको प्रभाव कहते हैं । इन्द्रियोंके विषयों के अनुभवन करनेको सुख कहते हैं। शरीर, वस्त्र और आभूषण आदिको कान्तिको द्यु ति कहते हैं । लेश्याका कथन कर आये हैं। लेश्याको विशुद्धि लेश्याविशुद्धि कहलाती है । इन्द्रिय और अवधिज्ञानका विषय इन्द्रियविषय और अवधिविषय कहलाता है। इनसे या इनकी अपेक्षा वे सब देव उत्तरोत्तर अधिक-अधिक हैं। तात्पर्य यह है कि ऊपर-ऊपर प्रत्येक कल्पमें और प्रत्येक प्रस्तारमें वैमानिक देव स्थिति आदिकी अपेक्षा अधिक-अधिक हैं।
8482. जिस प्रकार ये वैमानिक देव स्थिति आदिकी अपेक्षा ऊपर-ऊपर अधिक हैं उसी प्रकार गति आदिकी अपेक्षा भी प्राप्त हुए, अतः इसका निराकरण करनेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं
1. -वचनं अन्या- ता., ना.। 2. -मानानि सन्तीति आ., ता., ना.। 3. --तानां परस्प- आ. : +.म स्थानं आ., दि. 1, दि. 2। 5. 'अपादाने चाहीयरुहो:'- पा. 5, 4, 45 ।। --अपादानेऽ । -जैनेन्द्र 4, 2, 62 । 'आद्यादिभ्य उपसंख्यानम्'-- पा. 5, 4, 44 वाति । 'आद्यादिभ्यस्तसिः' .. 4, 2, 601 6. इति तस्मिन्नुप- मु.।
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190] सर्वार्थ सिद्धौ
[4121 8483गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो होनाः ॥21॥ 8483. देशाद्देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः । शरीरं वैक्रियिकमुक्तम् । लोभकषायोदयाद्विषयेषु सङ्गः परिग्रहः । मानकषायादुत्पन्नोऽहंकारोऽभिमानः । एतैर्गत्यादिभिरुपर्युपरि होनाः । देशान्तरविषयक्रीडारतिप्रकर्षाभावादुपर्युपरि गतिहीनाः । शरीरं सौधर्मशानयोर्देवानां सप्तारत्निप्रमाणम् । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः षडरत्निप्रमाणम् । ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरलान्तबकापिष्ठेषु पञ्चारत्निप्रमाणम् । शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेषु चतुररत्निप्रमाणभ् । आनतप्राणतयोरर्द्धचतुर्थारत्निप्रमाणम् । आरणाच्युतयोस्त्र्यरत्निप्रमाणम् । अधोग्रैवेयकेषु अर्द्धतृतीयारत्निप्रमाणम् । मध्यप्रैवेयकेष्वरनिद्वयप्रमाणम् । उपरिमप्रैवेयकेषु अनुदिशविमानके षु च अध्य रत्नि'प्रमाणम् । अनुत्तरेष्वरत्निप्रमाणम् । परिग्रहश्च विमानपरिच्छदादिरुपर्युपरि हीनः । अभिमानश्चोपर्युपरि तनुकषायत्वाद्धीनः ।
8484. पुरस्तात्त्रिषु निकायेषु देवानां लेश्याविधिरुक्तः । इदानों वैमानिकेषु लेश्याविधिप्रतिपत्त्यर्थमाह
पीतपदमशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥22॥ 8485. पीता च पद्मा च शुक्ला चताः पीतपद्मशुक्लाः । पोतपद्मशुक्ला लेश्या येषां गति, शरीर, परिग्रह और अभिमानको अपेक्षा ऊपर-ऊपरके देव हीन हैं ॥21॥
8483. एक देशसे दूसरे देशके प्राप्त करनेका जो साधन है उसे गति कहते हैं । यहाँ शरीरसे वक्रियिक शरीर लिया गया है यह पहले कह आये हैं । लोभ कषायक उदयसे विषयोंके संगको परिग्रह कहते हैं। मानकषायके उदयसे उत्पन्न हुए अहंकारको अभिमान कहते हैं। इन गति आदिको अपेक्षा वेमानिक देव कार-ऊपर होन हैं । भिन्न देश में स्थित विषयों में क्रीड़ा विषयक रतिका प्रकर्ष नहीं पाया जाता इसलिए ऊपर-ऊपर गमन कम है। सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवांका शरार सात अरन्निप्रमाण है । सान कुमार आर माहेन्द्र स्वर्गके देवोंका शरीर छह अरनिप्रमाण है। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव ओर कापिष्ठ कल्पके देवोंका शरोर पाँच अरनिप्रमाण है। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहसार कल्पके देवाका शरीर चार अरनिप्रमाण है आनत और प्राणत कल्पके देवोंका शरीर साढ़े तीन अरलिप्रमाण है। आरण और अच्यूत कल्पके देवोंका शरीर तीन अरत्निप्रमाण है। अधोग्र वेयकमें अहमिन्द्रोंका शरीर ढाई अरनिप्रमाण है। मध्यग्रं वेयकमें अहमिन्द्रोंका शरीर दो अरलिप्रमाण है। उपरिम ग्रं वेयकमें और अनुदिशोंमें अहमिन्द्रोंका शरीर डेढ़ अरनिप्रमाण है। तथा पाँच अनुत्तर विमानोंमें अहमिन्द्रोंका शरीर एक अरनिप्रमाण है । विमानोंको लम्बाई चौड़ाई आदि रूप परिग्रह ऊपर-ऊपर कम है। अल्प कषाय होनेसे अभिमान भी ऊपर-ऊपर कम है।
विशेषार्थ-ऊपरके देवोंमें परिग्रह कमती-कमती होता है और पुण्यातिशय अधिकअधिक, इससे ज्ञात होता है कि बाह्य परिग्रहका संचय मुख्यतः पुण्यका फल न होकर मूर्छाका फल है। ऊपर-ऊपर मूर्छा न्यून होती है जो उनके पूर्वभवके संस्कारका फल है, इसलिए परिग्रह भी न्यून-न्यून होता है।
8484. पहले तीन निकायोंमें लेश्याका कथन कर आये। अब वैमानिकोंमें लेश्याओंका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
दो, तीन कल्प युगलोंमें और शेष में क्रमसे पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले देव हैं॥22॥
6485. पोता, पद्मा और शुक्लामें द्वन्द्व समास है, अनन्तर लेश्या शब्दके साथ बहुव्रीहि 1. -रलिमात्रम् । अनु- आ., दि. 1, दि. 2, ता.। 2. च पीत- आ., दि. 2, ।
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-4122 § 485]
चतुर्थोऽध्यायः
[191
ते पीतपद्मशुवललेश्याः । कथं ह्रस्वत्वम् । औत्तरपदिकम् ' । यथा-" द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानम्" इति । अथवा पीतश्च पद्मश्च शुवलश्च पीतपद्मशुक्ला वर्णवतोsर्थाः । तेषामिव लेश्या येषां ते पीतपद्मशुक्ललेश्याः । तत्र कस्य का लेश्या इति । अत्रोच्यतेसौधर्मेशानयोः पीतलेश्या: । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः पीतपद्मलेश्याः । ब्रह्मलोक ब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठेषु पद्मलेश्याः | शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेषु पदमशुक्ललेश्याः । आनतादिषु शुक्ललेश्याः । तत्राप्यनुदिशानुत्तरेषु परमशुक्ललेश्याः । सूत्रेऽनभिहितं कथं मिश्रग्रहणम् ? साहचर्याल्लोकवत् । तद्यथा - छत्रिणो गच्छन्ति इति अच्छत्रिषु छत्रव्यवहारः । एवमिहापि मिश्रयोरन्यतरग्रहणं भवति । अयमर्थः सूत्रतः कथं गम्यते इति चेत् । उच्यते-- एवमभिसंबन्धः क्रियते, द्वयोः कल्पयुगलयोः पीतलेश्या; सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः पद्मलेश्याया अविवक्षातः । ब्रह्मलोकादिषु त्रिषु कल्पयुगलेषु पद्मलेश्या; शुक्रमहाशुकयोः शुक्ललेश्याया अविवक्षातः । शेषेषु शतारादिषु शुक्ललेश्या; पद्मलेश्याया अविवक्षातः । इति नास्ति दोषः ।
समास है । जिनके ये पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएं पायी जाती हैं। पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले देव हैं । शंका-पीता, पद्मा और शुक्ला ये तीनों शब्द दीर्घ हैं वे ह्रस्व किस नियमसे हो गये ? समाधान - जैसे 'द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानम्' अर्थात् द्रुतावृत्तिमें तपरकरण करनेपर मध्यमा और विलम्बितावृत्तिमें उसका उपसंख्यान होता है इसके अनुसार यहाँ 'मध्यमा' शब्दमें औत्तरपदिक ह्रस्व हुआ है । उसी प्रकार प्रकृतमें भी औत्तरपदिक ह्रस्व जानना चाहिए। अथवा यहाँ पीता, पद्मा और शुक्ला शब्द न लेकर पीत, पद्म और शुक्ल 'वर्णवाले पदार्थ लेने चाहिए। जिनके इन वर्णोंके समान लेश्याएँ पायी जाती हैं वे पीत. पदम और शुक्ल लेश्यावाले जीव हैं । इस प्रकार यहाँ पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन शब्द ह्रस्व ही समझना चाहिए। अब किसके कौन लेश्या है यह बतलाते हैं-सौधर्म और ऐशान कल्प में पीत लेश्या है । सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में पीत और पद्म लेश्याएँ हैं । ब्रह्मलोक, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ कल्पों में पद्मलेश्या है । शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पमें पद्म और शुक्ल ये दो लेश्याएँ हैं । तथा आनतादिकमें शुक्ल लेश्या है । उसमें भी अनुदिश और अनुत्तर विमानों में परम शुक्ल लेश्या है । शंका- सूत्रमें तो मिश्र लेश्याएँ नहीं कही हैं फिर उनका ग्रहण कैसे होता है ? समाधान - साहचर्यवश मिश्र लेश्याओंका ग्रहण होता है, लोकके समान । जैसे, 'छत्री जाते हैं' ऐसा कथन करने पर अछत्रियोंमें भी छत्री व्यवहार होता है उसी प्रकार यहाँ भी दोनों मिश्र लेश्याओं में से किसी एकका ग्रहण होता है। शंका- यह अर्थ सूत्रसे कैसे जाना जाता है ? समाधान - यहाँ ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए कि दो कल्प युगलों में पीत लेश्या है । यहाँ सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पमें पद्मलेश्याकी विवक्षा नहीं की । ब्रह्मलोक आदि तीन कल्पयुगलोंमें पद्म लेश्या है। शुक्र और महाशुक्रमें शुक्ल लेश्याकी विवक्षा नहीं की । शेष शतार आदिमें शुक्ललेश्या है । पद्म लेश्याकी विवक्षा नहीं की । इसलिए कोई दोष नहीं है ।
1. तरपादिकम् आ., दि. 1, दि. 21 2. यथाहु: दु- मु. ना. ता. 3 ' द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानं कालभेदात् । द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानं कर्तव्यम् । तथा मध्यमायां द्रुतविलम्बितयोः तथा विलम्बितायां द्रुतमध्यमयोः । किं पुनः कारणं न सिद्ध्यति । कालभेदात् । ये हि द्रुतायाँ वृत्तौ वर्णास्त्रिभागाधिकास्ते मध्यमायाम् । ये च मध्यमायां वर्णास्त्रिभागाधिकास्ते विलम्बितायाम् ।' -पा. म. मा. 1, 1, 9 1 4 ख्यानमिति । द्रुतमध्यमविलम्बिता इति । अथवा आ, दि. 1 -ख्यानमिति । द्रुतमध्यमविलम्बिता इति । अथवा दि. 2 ।
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192] सर्वार्थ सिद्धी
[4123 84868486. आह कल्पोपपन्ना इत्युक्तं तत्रेदं न ज्ञायते के कल्पा इत्यत्रोच्यते
प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥23॥ 8487. इदं न ज्ञायते इत आरभ्य कल्पा भवन्तीति सौधर्मादिग्रहणमनुवर्तते । तेनायमों लभ्यते--सौधर्मादयः प्राग्वेयकेभ्यः कल्पा इति । पारिशेष्यादितरे कल्पातीता इति ।
8488. लोकान्तिका देवा वैमानिकाः सन्तः क्व गृह्यन्ते ? कल्पोपपग्नेषु । कथमिति चेदुच्यते
ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः ॥24॥ 8489. एत्य तस्मिन् लीयन्त इति आलय आवासः । ब्रह्मलोक आलयो येषां ते ब्रह्मलोकालया लौकान्तिका देवा वेदितव्याः । यद्येवं सर्वेषां ब्रह्मलोकालयानां देवानां लौकान्तिकत्वं प्रसक्तम् । अन्वर्थसंज्ञाग्रहणाददोषः । ब्रह्मलोको लोकः, तस्यान्तो लोकान्तः, तस्मिन्भवा लौकान्तिका इति न सर्वेषां ग्रहणम् । तेषां हि विमानानि ब्रह्मलोकस्यान्तेषु स्थितानि । अथवा जन्मजरामरणाकीर्णो लोकः संसारः, तस्यान्तो लोकान्तः। लोकान्ते भवा लौकान्तिकाः। ते सर्वे परीतसंसाराः, ततश्च्यता एकं गर्भावासं प्राप्य परिनिर्वास्यन्तीति ।
8 490. तेषां सामान्येनोपदिष्टानां भेदप्रदर्शनार्थमाह
सारस्वतादित्यवह्नयरुरणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ।।25।।
8486. कल्पोपपन्न देव हैं यह कह आये पर यह नहीं ज्ञात हुआ कि कल्प कौन हैं, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
ग्रैवेयकोंसे पहले तक कल्प हैं ॥23॥
8487. यह नहीं मालूम होता कि यहाँसे लेकर कल्प हैं, इसलिए सौधर्म आदि पदकी अनुवृत्ति होती है। इससे यह अर्थ प्राप्त होता है कि सौधर्मसे लेकर और नौ ग्रंवेयकसे पूर्वतक कल्प हैं । परिशेष न्यायसे यह भी ज्ञात हो जाता है कि शेष सब कल्पातीत हैं।
488. लोकान्तिक देव वैमानिक हैं उनका किनमें समावेश होता है ? वैमानिकोंमें । कैसे ? अब इसी बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
लौकान्तिक देवोंका ब्रह्मलोक निवासस्थान है ॥24॥
8 489. आकर जिसमें लयको प्राप्त होते हैं अर्थात् निवास करते हैं वह आलय या आवास कहलाता है। ब्रह्मलोक जिनका घर है वे ब्रह्मलोकमें रहनेवाले लौकान्तिक देव जानना चाहिए। शंका –यदि ऐसा है तो ब्रह्मलोकमें रहनेवाले सब देव लोकान्तिक हुए ? समाधानसार्थक संज्ञाके ग्रहण करनेसे यह दोष नहीं रहता । लौकान्तिक शब्दमें जो लोक शब्द है उससे ब्रह्मलोक लिया है और उसका अन्त अर्थात् प्रान्तभाग लोकान्त कहलाया। वहाँ जो होते हैं वे लौकान्तिक कहलाते हैं, इसलिए ब्रह्मलोकमें रहनेवाले सब देवोंका ग्रहण नहीं होता है। इन लौकान्सिक देवोंके विमान ब्रह्मलोकके प्रान्तभाग में स्थित हैं। अथवा जन्म, जरा और मरणसे व्याप्त संसार लोक कहलाता है और उसका अन्त लोकान्त कहलाता है । इस प्रकार संसारके अन्तमें जो होते हैं वे लौकान्तिक हैं, क्योंकि ये सब परीतसंसारी होते हैं। वहाँसे च्युत होकर और एक बार गर्भ में रहकर निर्वाणको प्राप्त होंगे।
8490. सामान्यसे कहे गये उन लौकान्तिक देवोंके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अनिष्ट ये लौकान्तिक देव हैं ॥25॥
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--41268 493] चतुर्थोऽध्यायः
[193 8491. क्व इमे सारस्वतादयः ? अष्टास्वपि पूर्वोत्तरादिषु दिक्षु यथाक्रममेते सारस्वतादयो देवगणा वेदितव्याः । तद्यथा---पूर्वोत्तरकोणे सारस्वतविमानम्, पूर्वस्यां विशि आदित्यविमानम्, पूर्वदक्षिणस्यां दिशि वह्निविमानम्, दक्षिणस्यां दिशि अरुणविमानम्, दक्षिणापरकोणे गर्दतोयविमानम्, अपरस्यां विशि तुषितविमानम्, उत्तरापरस्यां दिशि अव्याबाधविमानम्, उत्तरस्यां दिशि अरिष्टविमानम् । 'च'शब्दसमुच्चितास्तेषामन्तरेषु द्वौ देवगणौ । तद्यथा-सारस्वतादित्यान्तरे अग्न्याभसूर्याभाः। आदित्यस्य च वह्नश्चान्तरे चन्द्राभसत्याभाः। वह्नयरुणान्तराले श्रेयस्करक्षेमंकराः । अरुणगर्दतोयान्तराले वृषभेष्टकामचाराः गर्दतोयतुषितमध्ये निर्माणरजोदि. गन्तरक्षिताः । तुषिताव्याबाधमध्ये आत्मरक्षितसर्वरक्षिताः। अव्याबाधारिष्टान्तराले मरुद्वसवः । अरिष्टसारस्वतान्तराले अश्वविश्वाः । सर्वे एते स्वतन्त्राः; होनाधिकत्वाभावात्, विषयरतिविरहादेवर्षयः, इतरेषां देवानामर्चनीयाः, चतुर्दशपूर्वधराः तीर्थकरनिष्क्रमणप्रतिबोधनपरा वेदितव्याः।
8492. आह, उक्ता लौकान्तिकास्ततश्च्युता एक गर्भवासमवाप्य निर्वास्यन्तीत्युक्ताः। किमेवमन्येष्वपि निर्वाणप्राप्तिकालविभागो विद्यते । इत्यत आह
विजयादिषु द्विचरमाः ॥26॥ 8493. 'आदि'शब्दः प्रकारार्थे वर्तते, तेन विजयवंजयन्तजयन्तापराजितानुविशविमानानामिष्टानां ग्रहणं सिद्धं भवति । कः पुनरत्र प्रकारः ? अहमिन्द्रत्वे सति सम्यग्दृष्टय पपादः । सर्वार्थसिद्धिप्रसङ्ग इति चेत् । न तेषां परमोत्कृष्टत्वात्, अन्वर्थसंज्ञात एकचरमत्वसिद्धः। चरमत्वं
8491. शंका ये सारस्वत आदिक कहाँ रहते हैं ? समाधान–पूर्व-उत्तर आदि आठों ही दिशाओं में क्रमसे ये सारस्वत आदि देवगण रहते हैं ऐसा जानना चाहिए। यथा-पूर्वोत्तर कोणमें सारस्वतोंके विमान हैं । पूर्व दिशामें आदित्योंके विमान हैं। पूर्व-दक्षिण दिशामें वह्निदेवोंके विमान हैं। दक्षिण दिशामें अरुण विमान हैं। दक्षिण-पश्चिम कोने में गर्दतोयदेवोंके विमान हैं । पश्चिम दिशामें तुषितविमान हैं। उत्तर-पश्चिम दिशामें अव्याबाधदेवोंके विमान हैं। और उत्तर दिशामें अरिष्टदेवोंके विमान हैं। सूत्रमें 'च' शब्द है उससे इनके मध्य में दो दो देवगण
और हैं इसका समुच्चय होता है। यथा-सारस्वत और आदित्यके मध्य में अग्न्याभ और सूर्याभ हैं। आदित्य और वह्निके मध्यमें चन्द्राभ और सत्याभ हैं। वह्नि और अरुणके मध्य में श्रेयस्कर और क्षेमंकर हैं। अरुण और गर्दतोयके मध्य में वृषभेष्ट और कामचौर हैं। गर्दतोय और तुषितके मध्यमें निर्माणरजस् और दिगन्तरक्षित हैं । तुषित और अव्याबाधके मध्यमें आत्मरक्षित और सर्वरक्षित हैं । अव्याबाध और अरिष्टके मध्य में मरुत् और वसु हैं । अरिष्ट और सारस्वतके मध्यमें अश्व और विश्व हैं। ये सब देव स्वतन्त्र हैं क्योंकि इनमें हीनाधिकता नहीं पायी जाती। विषय-रतिसे रहित होनेके कारण देवऋषि हैं। दूसरे देव इनकी अर्चा करते हैं। चौदह पूर्वोके ज्ञाता हैं और वैराग्य कल्याणकके समय को संबोधन करनेमें तत्पर हैं।
8492. लौकान्तिक देवोंका कथन किया और वहाँसे च्युत होकर तथा एक गभको धारण करके निर्वाणको प्राप्त होंगे यह भी कहा । क्या इसी प्रकार अन्य देवोंमें भी निर्वाणको प्राप्त होनेके कालमें भेद है ? अब इसी बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
विजयाविकमें दो चरमवाले देव होते हैं ॥26॥
8493. यहाँ आदि शब्द प्रकारवाची है। इससे विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और नौ अनुदिगोंका ग्रहण सिद्ध हो जाता है । शंका-यहाँ कौन-सा प्रकार लिया है ? समाधानअहमिन्द्र होते हुए सम्यग्दृष्टियोंका उत्पन्न होना, यह प्रकार यहाँ लिया गया है। शंका-इससे
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194]
सर्वार्थसिद्धी
[4127 § 494
देहस्य मनुष्यभवापेक्षया । द्वौ चरमौ देहौ येषां ते द्विचरमाः । विजयादिभ्यश्च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषूत्पद्य संयममाराध्य पुनर्वजयादिषूत्पद्य ततश्च्युताः पुनर्मनुष्यभवमवाप्य सिद्धघन्तीति द्विचरमदेहत्वम् ।
494. आह, जीवस्यौदयिकेषु भावेषु तिर्यग्योनिगतिरौर्दायकीत्युक्तं पुनश्च स्थितौ 'तिर्यग्योनिजानां च' इति । तत्र न ज्ञायते के तिर्यग्योनयः । इत्यत्रोच्यतेपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥27॥
$ 495. औपपादिका उक्ता देवनारकाः । मनुष्याश्च निर्दिष्टाः प्राङ्मानुषोसरान्मनुष्याः ' इति । एभ्योऽन्ये संसारिणो जीवाः शेषास्ते' तिर्यग्योनयो वेदितव्याः । तेषां तिरश्चां देवादीनामिव क्षेत्रविभागः पुनर्देष्टव्यः ? सर्वलोकव्यापित्वात्तेषां क्षेत्रविभागो नोक्तः ।
8 496. आह, स्थितिरुक्ता नारकाणां मनुष्याणां तिरश्चां च । देवानां नोक्ता । तस्यां वक्तव्यायामादावुद्दिष्टानां भवनवासिनां स्थितिप्रतिपादनार्थमाह
सर्वार्थसिद्धिका भी ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि वे परम उत्कृष्ट हैं। उनका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है, इसलिए वे एक भवावतारी होते हैं । देहका चरमपना मनुष्य भवकी अपेक्षा लिया है। जिसके दो चरम भव होते हैं वे द्विचरम कहलाते हैं। जो विजयादिकसे च्युत होकर और सम्यक्त्वको न छोड़कर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं और संयमकी आराधना कर पुन: विजयादिक में उत्पन्न होकर और वहाँसे च्युत होकर मनुष्य भवको प्राप्त करके सिद्ध होते हैं । इस प्रकार यहाँ मनुष्य भवकी अपेक्षा द्विचरमपना है ।
विशेषार्थ --- कोई-कोई विजयादिकके देव मनुष्य होते हैं । अनन्तर सौधर्म और ईशान कल्पमें देव होते हैं । अनन्तर मनुष्य होते हैं । फिर विजयादिक में देव होते हैं और अन्त में वहाँसे च्युत होकर मनुष्य होते हैं । तब कहीं मोक्ष जाते हैं । इस प्रकार इस विधि से विचार करनेपर मनुष्य के तीन भव हो जाते हैं । इसलिए मनुष्य भवकी अपेक्षा द्विचरमपना नहीं घटित होता ? इसका समाधान यह है कि विजयादिकसे तो दो बार ही मनुष्य जन्म लेना पड़ता है, इसलिए पूर्वोक्त कथन बन जाता है। ऐसा जीव यद्यपि मध्य में एक बार अन्य कल्पमें हो आया है, पर सूत्रकारने यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की है । उनकी दृष्टि यही बतलानेकी रही है कि विजयाकिसे अधिक से अधिक कितनी बार मनुष्य होकर जीव मोक्ष जाता है ।
8 494. कहते हैं, जोनके औदयिक भावोंको बतलाते हुए तिर्यंचगति औदयिकी कही है । पुनः स्थितिका कथन करते समय 'तिर्यग्योनिजानां च ' यह सूत्र कहा है । पर यह न जान सके कि तिच कौन हैं इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
उपपाद जन्मवाले और मनुष्योंके सिवा शेष सब जीव तिर्यंचयोनिवाले हैं ॥27॥
8 49 5. औपपादिक देव और नारकी हैं यह पहले कह आये हैं । 'प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ' इसका व्याख्यान करते समय मनुष्योंका भी कथन कर आये हैं । इनसे अन्य जितने संसारी जीव हैं उनका यहाँ शेष पदके द्वारा ग्रहण किया है। वे सब तिर्यंच जानना चाहिए । शंका -- जिस प्रकार देवादिकका पृथक्-पृथक् क्षेत्र बतलाया है उसी प्रकार इनका क्षेत्र बतलाना चाहिए ? समाधान - तिर्यंच सब लोकमें रहते हैं, अतः उनका अलगसे क्षेत्र नहीं कहा।
8 496. नारकी, मनुष्य और तिर्यंचोंकी स्थिति पहले कही जा चुकी है । परन्तु अभी तक देवोंकी स्थिति नहीं कही है, अतः उसका कथन करते हुए सर्वप्रथम प्रारम्भ में कहे गये भवनवासियों की स्थितिका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
1. शेषास्तिर्य मु., दि. 2 1
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---4130 $ 501] चतुर्थोऽध्यायः
[193 स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्धहीनमिता ॥28॥
8497. असुरादीनां सागरोपमादिभिर्यथाक्रममत्राभिसंबन्धो वेदितव्यः। इयं स्थितिरुत्कृष्टा जघन्याप्युत्तरत्र बक्ष्यते । तद्यया असुराणां सागरोपमा स्थितिः । नागानां त्रिपल्योपमानि' स्थितिः । सुपर्णानामर्द्धतृतीयानि । द्वीपानां द्वे । शेषाणां षण्णामध्यर्द्धपल्योपमम् ।
$ 498. आद्यदेवनिकायस्थित्यभिधानादनन्तरं व्यन्तरज्योतिष्कस्थितिवचने क्रमप्राप्त.सति तदुल्लङ्घय वैमानिकानां स्थितिरुच्यते । कुतः ? तयोरुत्तरत्र लघुनोपायेन स्थितिवचनात् । तेषु चादानुद्दिष्टयोः कल्पयोः स्थितिविधानार्थमाह
सौधर्मशानयोः सागरोपमे अधिके ॥29॥ $ 499. 'सागरोपमे' इति द्विवचननिर्देशाद् द्वित्वगतिः। 'अधिक' इत्ययमधिकारः। आ कुतः ? आ सहस्रारात् । इदं तु कुतो ज्ञायते ? उत्तरत्र 'तुशब्दग्रहणात् । तेन सौधर्मशानयोवानां द्वे सागरोपमे सातिरेके प्रत्येतव्ये। $500. उत्तरयोः स्थितिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥30॥ 8501. अनयोः कल्पयोर्देवानां सप्तसागरोपमाणि साधिकानि उत्कृष्टा स्थितिः ।
असुरकमार, नागकमार, सुपर्णकमार, द्वीपकमार और शेष भवनवासियों को उत्कृष्ट स्थिति क्रमसे एक सागरोपम, तीन पल्योपम, ढाई पल्योपम, दो पल्योपम और डेढ़ पल्योपम होती है ।।28॥
8.497. यहाँ सागरोपम आदि शब्दोंके साथ असुरकुमार आदि शब्दोंका क्रमसे सम्बन्ध जान लेना चाहिए। यह उत्कृष्ट स्थिति है । जघन्य स्थिति भी आगे कहेंगे । वह उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है-असुराकी स्थिति एक सागरोपम है । नागकुमारोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम है। सूपोंकी उत्कृष्ट स्थिति ढाई पल्योपम है। द्वीपोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो पल्योपम है। और शेष छह कुमारोंकी उत्कृष्ट स्थिति डेढ़ पल्योपम है।
8498. देवोंके प्रथम निकायकी स्थिति कहनेके पश्चात व्यन्तर और ज्योतिषियोंकी स्थिति क्रमप्राप्त है, किन्तु उसे छोड़कर वैमानिकोंकी स्थिति कहते हैं; क्योंकि व्यन्तर और ज्योतिषियोंकी स्थिति आगे थोड़में कहो जा सकेगी। वैमानिकोंमें आदिमें कहे गये दो कल्पोंकी स्थितिका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं___ सौधर्म और ऐशान कल्पमें दो सागरोपमसे कुछ अधिक उत्कृष्ट स्थिति है ॥29॥
8499. सूत्र में 'सागरोपमे' यह द्विवचन प्रयोग किया है उससे दो सागरोपमोंका ज्ञान होता है । 'अधिके' यह अधिकार वचन है । शंका-इसका कहाँतक अधिकार है ? समाधानसहसार कल्प तक । शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-अगले सूत्र में जो 'तु' पद दिया है उससे जाना जाता है। इससे यह निश्चित होता है कि सौधर्म और ऐशान कल्पमें दो सागरोप से कर अधिक स्थिति है।
00. अब आगेके दो कल्पोंमें स्थिति विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पमें सात सागरोपमसे कुछ अधिक उत्कृष्ट स्थिात है 1300
8501. इन दो कल्पोंमें देवोंको साधिक सात सागरोपम उत्कृट स्थिति है। 1.-पमा स्थितिः मु.।
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196]
सर्वार्थसिद्धी
[4131 $ 5028502. ब्रह्मलोकादिष्वच्युतावसानेषु स्थितिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु ॥31॥
8503. 'सप्त'ग्रहणं प्रकृतम् । तस्येह ज्यादिभिनिर्दिष्टरभिसंबन्धो वेदितव्यः । सप्त त्रिभिरधिकानि, सप्त सप्तभिरधिकानीत्यादिः। द्वयोर्द्वयोरभिसंबन्धो वेदितव्यः। 'तु'शब्दो विशेषपार्थः। कि विशिनष्टि ? 'अधिक'शब्दोऽनुवर्तमानश्चतुभिर भिसंबध्यते नोत्तराभ्यामित्ययमों विशिष्यते । तेनायमर्थो भवति-ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोर्दशसागरोपमाणि साधिकानि । लान्तवकापिष्ठयोश्चतुर्दशसागरोपमाणि साधिकानि । शुक्रमहाशुक्रयोः षोडशसागरोपमाणि साधिकानि। शतारसहस्रारयोरष्टादशसागरोपमाणि साधिकानि । आनतप्राणतयोवितिसागरोपमाणि । आरणाच्युतयोविंशतिसागरोपमाणि।
8504. तत ऊवं स्थितिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाहप्रारणाच्युतावर्ध्वमेकेन नवसु वेयकेंषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥32॥
$ 505. 'अधिक ग्रहणमनुवर्तते। तेनेहाभिसंबन्धो वेदितव्यः । एकैकेनाधिकानोति ।
8502. अब ब्रह्मलोकसे लेकर अच्युत पर्यन्त कल्पोंमें स्थिति विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगलसे लेकर प्रत्येक युगलमें आरण-अच्युत तक क्रमसे साधिक तीनसे अधिक सात सागरोपम, साधिक सातसे अधिक सात सागरोपम, साधिक नौसे अधिक सात सागरोपम, साधिक ग्यारहसे अधिक सात सागरोपम, तेरहसे अधिक सात सागरोपम और पन्द्रहसे अधिक सात सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है ॥31॥
6503. यहाँ पिछले सूत्रसे 'सप्त' पदका ग्रहण प्रकृत है। उसका यहाँ तीन आदि निर्दिष्ट संख्याओं के साथ सम्बन्ध जानना चाहिए। यथा—तीन अधिक सात, सात सधिक सात आदि । तथा इनका क्रमसे दो दो कल्पोंके साथ सम्बन्ध जानना चाहिए। सूत्रमें 'तु' शब्द विशेषताके दिखलानेके लिए आया है। शंका-इससे क्या विशेषता मालूम पड़ती है ? समाधान-इससे यहाँ यह विशेषता मालूम पड़ती है कि अधिक शब्दकी अनुवृत्ति होकर उसका सम्बन्ध त्रि आदि चार शब्दोंसे ही होता है, अन्तके दो स्थितिविकल्पोंसे नहीं। इससे यहाँ यह अर्थ प्राप्त हो जाता है, ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तरमें साधिक दस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। लान्तव और कापिष्ठमें साधिक चौदहसागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । शुक्र और महाशुक्रमें साधिक सोलह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । शतार और सहस्रारमें साधिक अठारह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । आनत और प्राणतमें बीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। तथा आरण और अच्युतमें बाईस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है।
8504. अब इसके आगेके विमानोंमें स्थितिविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आरण-अच्युतके ऊपर नौ प्रैवेयकमें-से प्रत्येकमें नौ अनुदिशमें, चार विजयादिकमें एकएक सागरोपम अधिक उत्कृष्ट स्थिति है। तथा सर्वार्थसिद्धि में पूरी तैंतीस सागरोपम स्थिति है॥32॥
8505. पूर्व सूत्रसे अधिक पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिए यहाँ इस प्रकार सम्बन्ध . 1. -तुभिरिह सम्ब- आ. 1, दि. 2 ।
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-4134 § 508]
चतुर्थोऽध्यायः
[197
'नव' ग्रहणं किमर्थम् ? प्रत्येकमेकैकमधिकमिति ज्ञापनार्थम् । इतरथा हि ग्रैवेयकेष्वेकमेवाधिक स्यात् । विजयादिष्विति 'आदि' शब्दस्य प्रकारार्थत्वादनुदिशानामपि ग्रहणम् । सर्वार्थसिद्धेस्तु पृथग्ग्रहणं जघन्याभावप्रतिपादनार्थम् । तेनायमर्थः, अधोग्रैवेयकेषु प्रथमे त्रयोविंशतिः, द्वितीये चतुविशतिः, तृतीये पञ्चविंशतिः । मध्यमग्रैवेयकेषु प्रथमे षडविंशतिः द्वितीये सप्तविंशतिः तृतीयेऽष्टाविंशतिः । उपरिमग्रैवेधकेषु प्रथमे एकोनत्रिशद् द्वितीये त्रिंशत् तृतीये एकत्रिशत् । अनुविशविमानेषु द्वात्रिंशत् । विजयादिषु त्रयस्त्रशत्सागरोपमा प्युत्कृष्टा स्थितिः । सर्वार्थसिद्धौ' त्रयस्त्रशदेवेति ।
S506. निर्दिष्टोत्कृष्ट स्थितिकेषु देवेषु जघन्यस्थितिप्रतिपादनार्थमाहअपरा पत्योपममधिकम् ॥33॥
8507. पल्योपमं व्याख्यातम् । अपरा जघन्या स्थितिः । पल्योपमं साधिकम् । केषाम् ? सौधर्मज्ञानीयानाम् । कथं गम्यते ? 'परतः परतः' इत्युत्तरत्र वक्ष्यमाणत्वात् ।
$ 508. तत ऊर्ध्वं जघन्य स्थितिप्रतिपादनार्थमाह
परतः परतः पूर्वापूर्वाऽनन्तरा ॥34॥
करना चाहिए कि एक-एक सागरोपम अधिक है। शंका सूत्रमें 'नव' पदका ग्रहण किसलिए किया ? समाधान - प्रत्येक ग्रैवेयक में एक-एक सागरोपम अधिक उत्कृष्ट स्थिति है इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'नव' पदका अलगसे ग्रहण किया है। यदि ऐसा न करते तो सब ग्रैवेयकों में एक सागरोपम अधिक स्थिति ही प्राप्त होती । 'विजयादिषु' में आदि शब्द प्रकारवाची है जिससे अनुदिशोंका ग्रहण हो जाता है । सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य आयु नहीं है यह बतलानेके लिए 'सर्वार्थसिद्धि' पदका अलग से ग्रहण किया है। इससे यह अर्थ प्राप्त हुआ कि अधोग्रं वेयक में से प्रथममें तेईस सागरोपम, दूसरेमें चौबीस सागरोपम और तीसरेमें पच्चीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । मध्यम ग्रैवेयक में से प्रथममें छब्बीस सागरोपम, दूसरे में सत्ताईस सागरोपम और तीसरेमें अट्ठाईस सागरोम उत्कृष्ट स्थिति है । उपरिम ग्रंवेयक में से पहले में उनतीस सागरोपम, दूसरे में तीस सागरोपम और तीसरेमें इकतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। अनुदिश विमानोंमें बत्तीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । विजयादिकमें तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है और सर्वार्थसिद्धिमें तेतीस सागरोपम ही स्थिति है । यहाँ उत्कृष्ट और जघन्यका भेद नहीं है ।
§ 506. जिनमें उत्कृष्ट स्थिति कह आये हैं उनमें जघन्य स्थिति का कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
सौधर्म और ऐशान कल्पमें जघन्य स्थिति साधिक एक पल्योपन है || 33
§ 507. पल्योपमका व्याख्यान कर आये । यहाँ 'अपरा' पदसे जघन्य स्थिति ली गयी है जो साधिक एक पल्योपम है । शंका- यह जघन्य स्थिति किनकी है ? समाधान - सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंकी। शंका-कैसे जाना जाता है ? समाधान- जो पूर्व-पूर्व देवों की उत्कृष्ट स्थिति है वह अगले अगले देवों की जघन्य स्थिति है यह आगे कहनेवाले हैं इससे जाना जाता है कि यह सौधर्म और ऐशान कल्पके देवों की जघन्य स्थिति है ।
8508. अब सौधर्म और ऐशान कल्पसे आगेके देवोंकी जघन्य स्थितिका प्रतिपादन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आगे-आगे पूर्व-पूर्वको उत्कृष्ट स्थिति अनन्तर - अनन्तरकी जघन्य स्थिति है ॥34॥
1. जजन्यस्थिति: मु.। 2 जवन्यस्थिति: मु. 1
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198]
सर्वार्थसिद्धी
[4135 § 509
$ 509. परस्मिन्देशे परतः । वीप्सायां द्वित्वम् । 'पूर्व' शब्दस्यापि । 'अधिक' ग्रहणमनुवर्तते । तेनैवमभिसंबन्धः क्रियते - सौधर्मेशानयोद्वे सागरोपमे साधिके उक्ते, ते साधिके सानत्कुमारमाहेन्द्रयोर्जघन्या स्थितिः । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः परा स्थितिः सप्तसागरोपमाणि साधिकानि, तानि साधिकानि ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोजघन्या स्थितिरित्यादि ।
8510. नारकाणामुत्कृष्टा स्थितिरुक्ता । जथम्यां सूत्रेऽनुपात्तामप्रकृतामपि लघुनोपायेन प्रतिपादयितुमिच्छम्माह
नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥35॥
$ 511. 'च'शब्दः किमर्थः ? प्रकृतसमुच्चयार्थः । किं च प्रकृतम् ? 'परतः परतः पूर्वा पूर्वाStri' अपरा स्थितिरिति । तेनायमर्थो लभ्यते - रत्नप्रभावां नारकाणां परा स्थितिरेकं सागरोपमम् । सा शर्कराप्रभायां जघन्या । शर्कराप्रभायामुत्कृष्टा स्थितिस्त्रीणि सागरोपमाणि । सा वालुकाप्रभायां जघन्येत्यादि ।
8512. एवं द्वितीयादिषु जघन्या स्थितिरुक्ता । प्रथमायां का जघन्येति तत्प्रदर्शनार्थमाहदशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥36॥
513. अपरा स्थितिरित्यनुवर्तते । रत्नप्रभायां दशवर्षसहस्राणि अपरा स्थितिवें वित्तव्या ।
8509. यहाँ 'परतः ' पदका अर्थ 'पर स्थानमें' लिया गया है । तथा द्वित्व वीप्सा रूप अर्थमें आया है । इसी प्रकार 'पूर्व' शब्द को भी वीप्सा अर्थ में द्वित्व किया है। अधिक पदकी यहाँ अनुवृत्ति होती है । इसलिए इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए कि सौधर्म और ऐशान कल्प में जो साधक दो सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति कही है उसमें एक समय मिला देने पर वह सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में जघन्य स्थिति होती है । सानत्कुमार और माहेन्द्र में जो साधिक सात सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति कही है उसमें एक समय मिला देने पर वह ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में जघन्य स्थिति होती है इत्यादि ।
8510. नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति कह आये हैं पर सूत्र द्वारा अभी जघन्य स्थिति नहीं कही है । यद्यपि उसका प्रकरण नहीं है तो भी यहाँ उसका थोड़े में कथन हो सकता है इस इच्छासे आचार्यने आगेका सूत्र कहा है
दूसरी आदि भूमियों में नारकोंकी पूर्व-पूर्वकी उत्कृष्ट स्थिति ही अनन्तर- अनन्तरकी जघन्य स्थिति है ॥35॥
8511. शंका-सूत्र में 'च' शब्द किसलिए दिया है ? समाधान - प्रकृत विषयका समुच्चय करने के लिए 'च' शब्द दिया है। शंका-क्या प्रकृत है ? समाधान - परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा अपरा स्थितिः' यह प्रकृत है अतः 'च' शब्द से इसका समुच्चय हो जाता है। इससे यह अर्थ प्राप्त होता है कि रत्नप्रभामें नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति जो एक सागरोपम है वह शर्कराप्रभा में जघन्य स्थिति है । शर्कराप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति जो तीन सागरोपम है वह वालुका प्रभा में जघन्य स्थिति है इत्यादि ।
8512. इस प्रकार द्वितीयादि नरकों में जघन्य स्थिति कही । प्रथम नरकमें जघन्य स्थिति कितनी है अब यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
प्रथम भूमिमें दस हजार वर्ष जघन्य स्थिति है ॥36॥
§ 513. इस सूत्रमें 'अपरा स्थिति:' इस पदकी अनुवृत्ति होती है । तात्पर्य यह है कि रत्नप्रभा पृथिवीमें दस हजार वर्ष जघन्य स्थिति है ।
1. तानि ब्रह्म- मु. ता. । 2. र्तते । अथ भवन- आ. fa. 1, fa. 2 1
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[199
--4140 $522]
चतुर्थोऽध्यायः 8514. अथ भवनवासिनां का जघन्या स्थितिरित्यत आह
भवनेषु च ।।370 8 515. 'च' शब्द किमर्थः ? प्रकृतसमुच्चयार्थः । तेन भवनवासिनामपरा स्थितिर्दशवर्षसहस्त्राणीत्यभिसंबध्यते। 8516. व्यन्तराणां तर्हि का जघन्या स्थितिरित्यत आह---
व्यन्तरारणां च ॥38॥ 8517. 'च'शब्दः प्रकृतसमुच्चयार्थः । तेन व्यन्तराणामपरा स्थितिर्दशवर्षसहस्राणीत्यवगम्यते। 8518. अर्थषां परा स्थितिः का इत्यत्रोच्यते
परा पल्योपममधिकम् ॥39॥ 8519. परा उत्कृष्टा स्थितिय॑न्तराणां पल्योपममधिकम् । 8 520. इदानीं ज्योतिष्काणां परा स्थितिर्वक्तव्येत्यत आह
ज्योतिष्कारगां च॥401 $ 521. 'च'शब्दः प्रकृतसमुच्चयार्थः । तेनैवमभिसंबन्धः। ज्योतिष्काणां परा स्थितिः पल्योपममधिकमिति।
8522. अथापरा कियतीत्यत आह
8514. अब भवनवासियोंकी जघन्य स्थिति कितनी है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
भवनवासियों में भी दस हजार वर्ष जघन्य स्थिति है ।।37॥
$ 515. शंका-सूत्रमें 'च' शब्द किसलिए दिया है ? समाधान-प्रकृत विषयका समुच्चय करनेके लिए। इससे ऐसा अर्थ घटित होता है कि भवनवासियों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है।
8516. तो व्यन्तरोंकी जघन्य स्थिति कितनी है अब यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
व्यन्तरों की दस हजार बर्ष जघन्य स्थिति है ॥38॥
8517. सूत्रमें 'च' शब्द प्रकृत विषयका समुच्चय करनेके लिए दिया है। इससे . ऐसा अर्थ घटित होता है कि व्यन्तरोंकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है।।
8 218. अब व्यन्तरों की उत्कृष्ट स्थिति कितनी है यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
और उत्कृष्ट स्थिति साधिक एक पल्वोपम है ।।391
$ 519. पर शब्दका अर्थ उत्कृष्ट है । तात्पर्य यह है कि व्यन्तरों की उत्कृष्ट स्थिति साधिक एक पल्योपम है।
8 520. अब ज्योतिषियों की स्थिति कहनी चाहिए, अतः आगे का सूत्र कहते हैंज्योतिषियोंकी उत्कृष्ट स्थिति साधिक एक पल्योपम है ॥40॥
8521. सूत्रमें 'च' शब्द प्रकृतका समुच्चय करनेके लिए दिया है । इससे यह अर्थ घटित होता है कि ज्योतिषियोंकी उष्कृष्ट स्थिति साधिक एक पल्योपम है।
522. ज्योतिषियोंकी जघन्य स्थिति कितनी है अब यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
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200] सर्वार्थ सिद्धी
[4141 8523 तदष्टभागोऽपरा ॥4॥ 8 523. तस्य पल्योपमस्याष्टभागो ज्योतिष्काणामपरा स्थितिरित्यर्थः ।
8524. अथ लोकान्तिकानां विशेषोक्तानां स्थितिविशेषो मोक्तः। स कियानित्यनोच्यते
लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमारिण सर्वेषाम् ॥42॥ 8525. अविशिष्टाः सर्वे ते शुक्ललेश्याः पञ्चहस्तोत्सेधशरीराः ।
इति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धि संज्ञिकायां चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥
ज्योतिषियोंकी जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थितिका आठवां भाग है ॥41॥
६ 523. इस सूत्रका यह भाव है कि उसका अर्थात् पल्योपमका आठवाँ भाग ज्योतिषियोंकी जघन्य स्थिति है।
8554. विशेषरूपमें कहे गये लौकान्तिक देवोंकी स्थिति नहीं कही है। वह कितनी है अब यह बतलाते हैंसब लौकान्तिकोंकी स्थिति आठ सागरोपम है ।।42॥
8525. इन सब लौकान्तिकोंकी शुक्ल लेश्या होती है । और शरीरकी ऊंचाई पाँच हाथ होती है।
इस प्रकार सर्वार्थसिदि नामवाली तत्त्वार्थवृत्तिमें चौथा अध्याय समाप्त हुआ 140
1. शरीराः । चतुणिकायदेवानां स्थानं भेद: सुखादिकम् । परापरा स्थितिर्लेश्या तुर्याध्याये निरूपितम् ॥ इति तत्वा - मु., दि. 1, मि. 2, आ.। ,
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अथ पञ्चमोऽध्यायः 8526. इदानी सम्पग्दर्शनस्य विषयभावेनोपक्षिप्तेष जीवादिषु जीवपदार्थो ब्याख्यातः । अथाजीवपदार्थो विचारप्राप्तस्य संज्ञाभेदसंकीर्तनार्थमिदमुच्यते-- .
अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥1॥ 8527. 'काय'शब्दः शरीरे व्युत्पादितः । इहोपचारादध्यारोप्यते । कुत उपचारः ? पथा शरीरं पुद्गलद्रव्यप्रचयात्मकं तथा धर्मादिष्वपि प्रदेशप्रचयापेक्षया काया इव काया इति । अजीवाश्च ते कायाश्च अजीवकायाः "विशेषणं विशेष्येणेति" वृत्तिः । ननु च नीलोत्पलादिषु व्यभिचारे सति विशेषणविशेष्ययोगः । इहापि व्यभिचारयोगोऽस्ति । अजीवशब्दोऽकाये कालेऽपि वर्तते, कायोऽपि जीवे । किमर्थः कायशब्दः ? प्रदेशबहुत्वज्ञापनार्थः । धर्मादीनां प्रदेशा बहव इति । ननु च 'असंख्येयाः प्रवेशा धर्माधर्मकजीवानाम्' इत्यनेनैव प्रदेशबहुत्वं ज्ञापितम् । 'सत्यमिदम् । परं किन्त्वस्मिन्विधौ सति तदवधारणं विज्ञायते, असंख्येयाः प्रदेशा न संख्येया नाप्यनन्ता इति । कालस्य प्रदेशप्रचयाभावज्ञापनाथं च इह 'काय'ग्रहणम् । कालो वक्ष्यते । तस्य प्रदेशप्रतिषेधार्थमिह
8526. सम्यग्दर्शनके विषयरूपसे जो जीवादि पदार्थ कहे हैं उनमें से जीव पदार्थका व्याख्यान किया। अब अजीव पदार्थका व्याख्यान विचार प्राप्त है अत: उसकी संज्ञा और भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये अजीवकाय हैं ॥1॥
8527. व्युत्पत्तिसे काय शब्दका अर्थ शरीर है तो भी इन द्रव्योमें उपचारसे उसका आरोप किया है। शंका–उपचारका क्या कारण है ? समाधान—जिस प्रकार शरीर पुद्गल द्रव्यके प्रचयरूप होता है उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्य भी प्रदेशप्रचयकी अपेक्षा कायके समान होने से काय कहे गये हैं । अजीव और काय इनमें कर्मधारय समास है जो 'विशेषणं विशेष्येण' इस सूत्रसे हुआ है । शंका-नीलोत्पल इत्यादिमें नील और उत्पल इन दोनों का व्यभिचार देखा जाता है अत: वहाँ विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध किया गया है, किन्तु अजीवकायमें विशेषणविशेष्य सम्बन्ध करनेका क्या कारण है ? समाधान-अजीवकायका यहाँ भी व्यभिचार देखा जाता है क्योंकि अजीव शब्द कालमें भी रहता है जो कि काय नहीं है और काय शब्द जीवमें रहता है, अतः इस दोषके निवारण करनेके लिए यहाँ विशेषणविशेष्य सम्बन्ध किया है। शंका-काय शब्द किसलिए दिया है ? समाधान--प्रदेश बहत्वका ज्ञान करानेके लिए। धर्मादिक द्रव्योंके बढ़त प्रदेश हैं यह इससे जाना जाता है । शंका-आगे यह सूत्र आया है कि 'धर्म, अधर्म और एक जीवके असंख्यात प्रदेश हैं' इसीसे इनके बहुत प्रदेशोंका ज्ञान हो जाता है फिर यहाँ कायशब्दके देनेकी क्या आवश्यकता ? समाधान-यह ठीक है । तो भी इस कथनके होनेपर उस सूत्रसे प्रदेशोंके विषयमें यह निश्चय किया जाता है कि इन धर्मादिक द्रव्योंके प्रदेश असंख्यात हैं, न संख्यात हैं और न अनन्त । दूसरे काल द्रव्यमें प्रदेशोंका प्रचय नहीं है यह ज्ञान कराने के लिए इस सूत्रमें 'काय' पदका ग्रहण किया है। कालका आगे व्याख्यान करेंगे। उसके प्रदेशोंका निषेध करनेके लिए 1. जैनेन्द्र. 113148 । 2. सत्यं अस्मिन् ता, ना. । 3. कालप्रदेश- आ., दि. 1, दि. 2 ।
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[512 § 528
'काय' ग्रहणम् । यथाऽणोः प्रदेशमात्रत्वाद् द्वितीयादयोऽस्य प्रदेशा न सन्तीत्यप्रवेशोऽणुः, तथा कालपरमाणु रप्येक प्रदेशत्वादप्रदेश इति । तेषां धर्मादीनाम् 'अजीव' इति सामान्य संज्ञा जीवलक्षणाभावमुखेन प्रवृत्ता । 'धर्माधर्माकाशेपुद्गलाः' इति विशेषसंज्ञाः सामयिक्यः ।
8528. अत्राह, 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' इत्येवमादिषु द्रव्याण्युक्तानि कानि तानीत्युच्यते-
सर्वार्थसिद्धी
द्रव्यारि ||2||
8529. यथास्वं पर्यायेद्र्यन्ते द्रवन्ति वा तानि इति द्रव्याणि । द्रव्यत्वयोगाद् द्रव्यमिति चेत् ? न; उभयासिद्धेः । यथा दण्डदण्डिनोर्योगो भवति पृथसिद्धयोः, न च तथा द्रव्यद्रव्यत्वे पृथसिद्धे स्तः । यद्य पृथक् सिद्धयोरपि योगः स्यादाकाशकुसुमस्य प्रकृत' पुरुषस्य द्वितीयशिरसश्च योगः स्यादिति । अथ पृथक् सिद्धिरभ्युपगम्यते, द्रव्यत्वकल्पना निरर्थिका । गुणसमुदायो' द्रव्यमिति चेत् ? तत्रापि गुणानां समुदायस्य च भेदाभावे तद् व्यपदेशो नोपपद्यते । भेदाभ्युपगमे च पूर्वोक्त एव दोषः । ननु गुणान्द्रवन्ति' गुणैर्वा द्र्यन्त' इति विग्रहेऽपि स एव दोष इति चेत् ? न ; कथंचिद्यहाँ 'काय' शब्दका ग्रहण किया है। जिस प्रकार अणु एक प्रदेशरूप होनेके कारण उसके द्वितीय आदि प्रदेश नहीं होते इसलिए अणुको अप्रदेशी कहते हैं उसी प्रकार काल परमाणु भी एक प्रदेशरूप होनेके कारण अप्रदेशी है। धर्मादिक द्रव्योंमें जीवका लक्षण नहीं पाया जाता, इसलिए उनकी अजीव यह सामान्य संज्ञा है । तथा धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये उनकी विशेष संज्ञाएँ हैं जो कि यौगिक हैं ।
8528. 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' इत्यादि सूत्रोंमें द्रव्य कह आये हैं । वे कौन हैं यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ये धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल द्रव्य हैं ॥2॥
8529 द्रव्य शब्दमें 'दु' धातु है जिसका अर्थ प्राप्त करना होता है । इससे द्रव्य शब्दका व्युत्पत्तिरूप अर्थ इस प्रकार हुआ कि जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायोंके द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायों को प्राप्त होते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं । शंका-द्रव्यत्व नामकी एक जाति है उसके सम्बन्धसे द्रव्य कहना ठीक है । समाधान नहीं, क्योंकि इस तरह दोनों की सिद्धि नहीं होती । जिस प्रकार दण्ड और दण्डी ये दोनों पृथक् सिद्ध हैं अतः उनका सम्बन्ध बन जाता है उस प्रकार द्रव्य और द्रव्यत्व ये अलग-अलग सिद्ध नहीं हैं। यदि अलग-अलग सिद्ध न होनेपर भी इनका सम्बन्ध माना जाता है तो आकाश-कुसुम का और प्रकृत पुरुषके दूसरे सिरका भी सम्बन्ध मानना पड़ेगा । यदि इनकी पृथक् सिद्धि स्वीकार करते हो तो द्रव्यत्वका अलगसे मानना निष्फल है । गुणोंके समुदायको द्रव्य कहते हैं यदि ऐसा मानते हो तो यहाँ भी गुणोंका और समुदायका भेद नहीं रहनेपर पूर्वोक्त संज्ञा नहीं बन सकती है । यदि भेद माना जाता है तो द्रव्यत्व के सम्बन्धसे द्रव्य होता है इसमें जो दोष दे आये हैं वही दोष यहाँ भी प्राप्त होता है । शंका - जो गुणोंको प्राप्त हों या गुणोंके द्वारा प्राप्त हों उन्हें द्रव्य कहते हैं, द्रव्यका इस प्रकार विग्रह करनेपर भी वही दोष प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि कथंचित् भेद और कथंचित् अभेदके बन जानेसे द्रव्य इस संज्ञाकी सिद्धि हो जाती है। गुण और द्रव्य ये एक दूसरेको छोड़कर नहीं पाये 1. योऽस्य न मु । 2. धर्मोऽधर्म आकाशं पुद्गलाः इति आ., दि. 1, दि. 21 3. प्रकृतपुरुषद्वितीयआ., दि. 1, दि.2, ता । प्रकृतिपुरुषस्य द्वितीय मु । 4 गुणसंद्रावो द्रव्य- आ., दि. 1 दि. 2, ता., ना. । 5. सद्द्रव्यव्यप मु । 6. दूवति आ., दि. 1, दि. 2 । 7. दूयते आ., दि. 1, दि. 2 1
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- 5138531]
पंचमोऽध्यायः भेदाभेदोपपत्तेस्तव्यपदेशसिद्धिः । व्यतिरेकेणानुपलब्धेरभेवः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदाद् भेद इति । प्रकृता धर्मादयो बहवस्तत्सामानाधिकरण्याद् बहुत्वनिर्देशः । स्यादेतत्संख्यानुवृत्तिवत्पुंल्लिगानुबत्तिरपि प्राप्नोति ? नैष दोषः; आविष्टलिङ्गाः शब्दा न कदाचिल्लिङ्ग व्यभिचरन्ति । अतो धर्मादयो द्रव्याणि भवन्तीति । 8530. अनन्तरत्वाच्चतुर्णामेव द्रव्यव्यपदेशप्रसंगेऽध्यारोपणार्थमिदमुच्यते
जीवाश्च ॥3॥ 8531. 'जीव'शब्दो व्याख्यातार्थः । बहुत्वनिर्देशो व्याख्यातभेदप्रतिपत्त्यर्थः । 'च"शब्दः द्रव्यसंज्ञानुकर्षणार्थः जीवाश्च द्रव्याणीति । एवमेतानि वक्ष्यमाणेन कालेन सह षड् द्रव्याणि भवन्ति । ननु द्रव्यस्य लक्षणं वक्ष्यते 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इति । तल्लक्षणयोगाद्धर्मादीनां द्रव्य - व्यपदेशो भवति, नार्थः परिगणनेन ? परिगणनमवधारणार्थम् । तेनाम्यवादिपरिकल्पितानां पथिव्या दीनां निवत्तिः कृता भवति । कयम् ? पृथिव्यप्तेजोवायुमनांसि पुद्गलद्रव्येऽन्तर्भवन्ति; रूपरसगन्धस्पर्शवत्वात् । वायुमनसो रूपादियोगाभाव इति चेत् ? न; वायुस्तावद्रूपाविमान स्पर्शवत्वाघटादिवत् । चक्षुरादिकरणग्राह्यत्वाभावाद्रूपाद्यभाव इति चेत् ? न; परमाण्वादिजाते, इसलिए तो इनमें अभेद है । तथा संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन आदिकी अपेक्षा भेद होनेसे इनमें भेद है। प्रकृत धर्मादिक द्रव्य बहत हैं, इसलिए उनके साथ समानाधिकरण करनेके अभिप्रायसे 'द्रव्याणि' इस प्रकार बहवचनरूप निर्देश किया है। शंका-जिस प्रकार यहाँ संख्याकी अनुवृत्ति प्राप्त हुई है उसा प्रकार पुल्लिगको भी अनुवृत्ति प्राप्त होती है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि जिस शब्दका जा लिंग है वह कभो भो अपने लिंगका त्याग करके अन्य लिंगके द्वारा व्यवहृत नहीं होता, इसलिए 'धर्मादया द्रव्याणि भवन्ति' ऐसा सम्बन्ध यहाँ करना चाहिए।
8530. अव्यवहित होनेके कारण धर्मादिक चारको ही द्रव्य संज्ञा प्राप्त हुई, अतः अन्यका अध्यारोप करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
जीव भी द्रव्य हैं ॥3॥
5 531. जीव शब्दका व्याख्यान कर आये । सूत्रमें जो बहुवचन दिया है वह जीव द्रव्यके कहे गये भेदोंके दिखलानेके लिए दिया है। 'च' शब्द द्रव्य संज्ञाके खींचने के लिए दिया है जिससे 'जीव भी द्रव्य हैं' यह अर्थ फलित हो जाता है । इस प्रकार ये पाँच आगे कहे जानेवाले कालके साथ छह द्रव्य होते हैं। शंका--आगे 'गुणपर्ययवद द्रव्यम' इस सत्र-द्वारा द्रव्यका लक्षण कहेंगे; अतः लक्षणके सम्बन्धसे धर्मादिकको 'द्रव्य' संज्ञा प्राप्त हो जाती है फिर यहाँ उनकी अलगसे गिनतो करनेका कोई कारण नहीं ? समाधान-गिनतो निश्चय करने के लिए की है। इससे अन्यवादियों के द्वारा माने गये प्रथिवो आदि द्रव्यांका निराकरण हो जाता है। शंकाकैसे ? समाधान-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मन इनका पुद्गल द्रव्यमें अन्तर्भाव हो जाता है; क्योंकि ये रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाले होते हैं । शंका-बायु और मनमें रूपादिक नहीं हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि वायु रूपादिवाला है, स्पर्शवाला होनेसे, घटके समान । इस अनूमानके द्वारा वायुमें रूपादिकका सिद्धि होतो है । शंका-चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा वायुका ग्रहण नहीं होता, इसलिए उसमें रूपादिकका अभाव है ? समाधान नहीं; क्योंकि इस प्रकार 1.-चरन्ति, अनन्तरत्वात् ता., ना. । 2. च शब्दः संज्ञा--- मु.। 3. व्यत्वव्यप-~मु.। 4. 'पृथिव्याप स्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा भन इति व्याणि ।'-वै. सू. 1-1,5। 5. - त्त्वाच्चक्षुरिन्दूियवत् । वायु- मु., ता., ना.।
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204]
सपिसिटी
[5138531व्यतिप्रसङ्गः स्यात । आपो गन्धवत्यः; स्पर्शवत्त्वात्पथिवीवत् । तेजोऽपि रसगन्धवद ; रूपवत्त्वात तद्वदेव । मनोऽपि द्विविधं द्रव्यमनो भावमनश्चेति । तत्र भावमनो ज्ञानम् ; तस्य जीवगुणत्वादास्मन्यन्तर्भावः । द्रव्यमनश्च रूपादियोगात्पुद्गलद्रव्यविकारः । रूपादिवन्मनः, ज्ञानोपयोगकरणत्वा
चक्षुरिन्द्रियवत् । ननु अमूर्तेऽपि शब्दे ज्ञानोपयोग करणत्वदर्शनाद् व्यभिचारी हेतुरिति चेत् ?न; तस्य पौद्गलिकत्वान्मूर्तिमत्वोपपत्तेः । ननु यथा परमाणूनां रूपादिमत्कार्य दर्शनाद्रूपादिमत्त्वं न तथा वायुमनसो रूपादिसत्कार्य दृश्यते इति चेत् ? न; तेषामपि तदुपपत्तेः । सर्वेषां परमाणूनां सर्वरूपादिमत्कार्यत्वप्राप्तियोग्यत्वाभ्युपगमात् । न च केचित्पार्थिवादिजातिविशेषयुक्ताः परमाणवः सन्ति; जातिसंकरेणारम्भदर्शनात् । दिशोऽप्याकाशेऽन्तर्भावः, आदित्योदयाद्यपेक्षया आकाशप्रदेशपक्तिषु इत इदमिति व्यवहारोपपत्तेः ।
माननेपर परमाणु आदिमें अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् परमाणु आदिको भी चक्षु आदि इन्द्रियाँ नहीं ग्रहण करतीं, इसलिए उनमें भी रूपादिकका अभाव मानना पड़ेगा। इसी प्रकार जल गन्धवाला है, स्पर्शवाला होनेसे, पृथिवीके समान । अग्नि भी रस और गन्धवाली है, रूपवाली होनेसे, पृथिवीके समान । मन भी दो प्रकारका है—द्रव्यमन और भावमन। उनमें-से भावमन ज्ञानस्वरूप है और ज्ञान जीवका गुण है, इसलिए इसका आत्मामें अन्तर्भाव होता है। तथा द्रव्यमनमें रूपादिक पाये जाते हैं, अतः वह पुद्गलद्रव्यको पर्याय है। यथा-मन रूपादिवाला है, ज्ञानोपयोगका करण होनेसे, चक्षु इन्द्रियके समान । शंका-शब्द अमूर्त होते हुए भी उसमें ज्ञानोपयोगकी करणता देखी जाती है, अतः मनको रूपादिवाला सिद्ध करनेके लिए जो हेतु दिया है वह व्यभिचारी है ? समाधान नहीं; क्योंकि शब्द पौद्गलिक है, अतः उसमें मूर्तपना बन जाता है । शंका--जिस प्रकार परमाणुओंके रूपादि गुणवाले कार्य देखे जाते हैं अतः वे रूपादिवाले सिद्ध होते हैं उस प्रकार वायु और मनके रूपादि गुणवाले कार्य नहीं दिखाई देते ? समाधान---नहीं, क्योंकि वायु और मनके भी रूपादि गुणवाले कार्य सिद्ध हो जाते हैं; क्योंकि सब परमाणुओंमें सब रूपादि गुणवाले कार्योंके होनेकी योग्यता मानी है । कोई पार्थिव आदि भिन्न-भिन्न जातिके अलग-अलग परमाणु हैं, यह बात नहीं है; क्योंकि जातिका संकर होकर सब कार्योंका आरम्भ देखा जाता है। इसी प्रकार दिशाका भी आकाशमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि सूर्यके उदयादिककी अपेक्षा आकाश प्रदेशपंक्तियोंमें यहाँसे यह दिशा है इस प्रकारके व्यवहारकी उत्पत्ति होती है।
विशेषार्थ-जातिकी अपेक्षा ये जीव पुद्गलादि जितने पदार्थ हैं वे सब द्रव्य कहलाते हैं। द्रव्य इस शब्दमें दो अर्थ छिपे हुए हैं----द्रवणशीलता और ध्रुवता । जगत्का प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील होकर भी ध्रुव है, इसलिए उसे द्रव्य कहते हैं । आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थ अपने गणों और पर्यायोंका कभी भी उल्लंघन नहीं करता। उसके प्रवाहित होने की नियत धारा है जिसके आश्रयसे वह प्रवाहित होता रहता है । द्रव्य इस शब्दका उपयोग हमें जैन दर्शनके सिवा वैशेषिक दर्शनमें विशेष रुपसे व्यवहृत दिखाई देता है। वैशेषिकदर्शनमें गुण-गुणी, क्रिया-क्रियावान् और सामान्य-विशेषमें सर्वथा भेद माना गया है, इसलिए वह द्रव्यत्वके सम्बन्धसे द्रव्य होता है, द्रव्य शब्दका ऐसा अर्थ करता है, किन्त उसका यह अर्थ संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि द्रव्यत्व नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ अनुभवमें नहीं आता । इस दर्शनने द्रव्यके पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, 1. इति चेत्पर -- मु., आ. दि. 1, दि. 2 । 2. -योगकारणत्व-- मु । 3. --कार्यत्वदर्श- मु.। 4. दृश्यते म तेषा-- आ., दि. 1, दि. 21 5. तदुत्पत्त: मु.।
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---5158534] पंचमोऽध्यायः
1203 $ 532. उक्तानां द्रव्याणां विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥4 $533. नित्यं ध्रुवमित्यर्थः । निर्धवे त्यः' इति निष्पादितत्वात् । धर्मादीनि द्रव्यानि गतिहेतुत्वादिविशेषलक्षणद्रव्यार्थादेशादस्तित्वादिसामान्यलक्षणद्रव्यादेशाच्च कदाचिदपि न व्ययन्तीति नित्यानि । वक्ष्यते हि 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' इति । इयत्ताऽव्यभिचारादवस्थितानि । धर्माटीनि षडपि द्रव्याणि कदाचिदपि षडिति इयत्त्व ना।
डिति इयत्वं नातिवर्तन्ते । ततोऽवस्थितानीत्युच्यन्ते । न विद्यते रूपमेषामित्यरूपाणि, रूपप्रतिषेधे तत्सहचारिणां रसादीनामपि प्रतिषेधः । तेन अरूपाण्यमूर्तानीत्यर्थः ।
534. यथा सर्वेषां द्रव्याणां नित्यावस्थितानि' इत्येतत्साधारणं लक्षण प्राप्तं तथा पुद्गलानामपि अरूपित्वं प्राप्तम्, अतस्तदपवादार्थमाह
रूपिणः पुद्गलाः ॥5॥ मन, दिशा आदि अनेक भेद किये हैं, किन्तु विचार करनेपर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुका अन्तर्भाव पुद्गलमें हो जाता है। पुद्गलका स्वरूप आगे बतलानेवाले हैं । वहाँ उसे रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाला बतलाया है। पृथ्वी जलादि जो पदार्थ पहले कह आये हैं, उन सबमें ये स्पर्शादिक उपलब्ध होते हैं यह निर्विवाद है । मनके दो भेद हैं-द्रव्यमन और भावमन । उनमें से द्रव्यमनका अन्तर्भाव पुद्गलमें और भावमनका अन्तर्भाव जीवमें होता है। इसी प्रकार दिशा आकाशसे पृथक भूत पदार्थ नहीं है क्योंकि सूर्यके उदयादिकी अपेक्षा आकाशमें ही दिशा का व्यवहार होता है। इस प्रकार विचार करनेपर जैन दर्शनमें जो जीवादि पदार्थ गिनाये गये हैं वे ही द्रव्य ठहरते हैं अन्य नहीं, ऐसा सिद्ध होता है।
8532. अब उक्त द्रव्योंके विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंउक्त द्रव्य नित्य हैं, अवस्थित हैं और अरूपी हैं ॥4॥
8 533. नित्य शब्दका अर्थ ध्रुव है। 'नेधुंवे त्यः' इस वार्तिकके अनुसार 'नि' शब्दसे ध्रुव अर्थ में 'त्य' प्रत्यय लगाकर नित्य शब्द बना है। पर्यायाथिकनय को अपेक्षा गतिहेतुत्व आदि रूप विशेष लक्षणोंको ग्रहण करनेवाले और द्रव्याथिक लयकी अपेक्षा अस्तित्व आदि रूप सामान्य लक्षणको ग्रहण करनेवाले ये छहों द्रव्यकभी भी विनाशको प्राप्त नहीं होते, इसलिए निस्व हैं। 'तदभावाव्ययं नित्यम्' इस सूत्र द्वारा यही बात आगे कहनेवाले भी हैं । संख्याका कभी • व्यभिचार नहीं होता, इसलिए ये अवस्थित हैं। धर्मादिक छहों द्रव्य कभी भी छह इस संख्याका उल्लंघन नहीं करते, इसलिए ये अवस्थित कहे जाते हैं। इनमें रूप नहीं पाया जाता इसलिए अरूपी हैं । यहाँ केवल रूपका निषेध किया है, किन्तु रसादिक उसके सहचारी हैं अतः उनका भी निषेध हो जाता है । इससे अरूपीका अर्थ अमूर्त होता है।
6534. जिस प्रकार सब द्रव्योंका नित्य और अवस्थित यह साधारण लक्षण प्राप्त होता है उसी प्रकार पुद्गलोंमें अरूपीपना भी प्राप्त होता है, अतः इसका अपवाद करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पुद्गल रूपी हैं ॥5॥ 1.नि ध्रुवे नित्य इति आ., दि. 1, दि. 21 ने वेऽर्थे त्यः ता.। 2. 'त्यक्नेध्रुव इति वक्तठम्'-पा 4. 2. 104 वातिकम । नेवे-जैनेन्द्र. 3, 2, 82 वार्तिकम् । 3. --षेधेन तत्सह--सु.। 4. लक्षणं तथा अरुपित्वं पुद्गलानामपि प्राप्तम् मु.।
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206]
सर्वार्थसिद्धौ
[516 § 535
8535. रूपं मूर्तिरित्यर्थः । का मूर्तिः ? रूपादिसंस्थानपरिणामो मूर्तिः । रूपमेषामस्तीति रूपिणः । मूर्तिमन्त इत्यर्थः । अथवा रूपमिति गुणविशेषवचन - शब्दः । तदेषामस्तीति रूपिणः । रसाद्यग्रहणमिति चेत् ? न; तदविनाभावात्तदन्तर्भावः । 'पुद् गलाः' इति बहुवचनं भेदप्रतिपादनार्थम् । भिन्ना हि पुद्गलाः; स्कन्धपरमाणुभेदात् । तद्विकल्प उपरिष्टाद्वक्ष्यते । यदि प्रधानवदरूपित्वमेकत्वं चेष्टं स्यात्, विश्वरूप कार्यदर्शनविरोधः स्यात् ।
8536. आह, कि पुद्गलवद्धर्मादीन्यपि द्रव्याणि प्रत्येकं भिन्नानीत्यत्रोच्यते' आकाशादेकद्रव्यारि ||6||
8537. 'आ' अयमभिविध्यर्थः । सौत्रीमानुपूर्वी 'मासृत्येतदुक्तम् । तेन धर्माधर्माका - शानि गृह्यन्ते । 'एक' शब्दः संख्यावश्चनः । तेन द्रव्यं विशिष्यते, एकं द्रव्यं एकद्रव्यमिति । यद्येवं बहुवचनमयुक्तम् ? धर्माद्यपेक्षया बहुत्वसिद्धिर्भवति । ननु एकस्यानेकार्थप्रत्यायनशक्तियोगावेकैकमित्यस्तु, लघुत्वाद् । 'द्रव्य' ग्रहणमनर्थकम् ? ( सत्यम् ; 5 ) तथापि द्रव्यापेक्षया एकत्वख्यापनार्थं
8535. रूप और मूर्ति इनका एक अर्थ है । शंका- मूर्ति किसे कहते हैं ? समाधानरूपादिसंस्थान के परिणामको मूर्ति कहते हैं। जिनके रूप पाया जाता है वे रूपी कहलाते हैं । इसका अर्थ मूर्तिमान् है । अथवा, रूप यह गुणविशेषका वाची शब्द है । वह जिनके पाया जाता है वे रूपी कहलाते हैं । शंका- यहाँ रसादिकका ग्रहण नहीं किया है ? समाधान नहीं; क्योंकि रसादिक रूपके अविनाभावी हैं, इसलिए उनका अन्तर्भाव हो जाता है ।
पुद्गलोंके भेदोंका कथन करनेके लिए सूत्र में 'पुद्गला' यह बहुवचन दिया है । स्कन्ध और परमाणु के भेदसे पुद्गल अनेक प्रकारके हैं । पुद्गल के ये सब भेद आगे कहेंगे । यदि पुद्गलको प्रधानके समान एक और अरूपी माना जाय तो जो विश्वरूप कार्य दिखाई देता है उसके होनेमें विरोध आता है ।
8536. पुद्गल द्रव्यके समान क्या धर्मादिक प्रत्येक द्रव्य भी अनेक हैं ? अब इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आकाश तक एक-एक द्रव्य हैं ||6||
§ 537. इस सूत्र में 'आङ्' अभिविधि अर्थ में आया है। सूत्र सम्बन्धी आनुपूर्वीका अनुसरण करके यह कहा है । इससे धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनका ग्रहण होता है। एक शब्द संख्यावाची है और वह द्रव्यका विशेषण है । तात्पर्य यह है कि धर्म, अधर्म और आकाश ये एक-एक द्रव्य हैं। शंका-यदि ऐसा है तो सूत्र में 'एकद्रव्याणि' इस प्रकार बहुवचनका प्रकार करना अयुक्त है ? समाधान-धर्मादिक द्रव्योंकी अपेक्षा बहुवचन बन जाता है । शंका - एकमें अनेकके ज्ञान कराने की शक्ति होती है, इसलिए 'एकद्रव्याणि' के स्थानमें 'एकैकम्' इतना ही रहा आवे । इससे सूत्र छोटा हो जाता है । तथा 'द्रव्य' पदका ग्रहण करना भी निष्फल है ? समाधान-ये धर्मादिक द्रव्यको अपेक्षा एक है इस बातके बतलानेके लिए सूत्रमें 'द्रव्य' पदका ग्रहण किया है । तात्पर्य यह है कि यदि सूत्र में 'एकैकम्' इतना ही कहा जाता तो यह नहीं मालूम पड़ता कि ये धर्मादिक द्रव्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इनमें से किसकी अपेक्षा एक हैं, अतः सन्देह निवारण करनेके लिए 'एकद्रव्याणि' पद रखा है। इनमें से धर्म और अधर्म द्रव्यके क्षेत्र-की अपेक्षा असंख्यात विकल्प इष्ट होनेसे और भावकी अपेक्षा अनन्त विकल्प इष्ट होनेसे तथा
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1. शब्द: । तेषा आ., दि. 1, दि. 2 1 2. ' ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाभिविधौ च यः । एतमातं ङितं विद्याद् वाक्यस्मरयोरङित् । 3. पूर्वीमनुसृत्यै- मु. 4. -वति । एक- आ. दि. 1, दि- 2 1 5. र्थकं । तत्क्रियते दृष्या - ता ना. । -र्थकं । तज्ज्ञायते दूव्या- आ. दि. 1, दि. 2 ।
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-517 § 539]
पंचमोऽध्यायः
[207
ब्रध्यग्रहणम् । क्षेत्रभावा' द्यपेक्षया असंख्येयत्वानन्तत्वविकरूपस्येष्टत्वान्न जीवपुद्गलवदेषां बहुत्वमित्येतदनेन ख्याप्यते ।
8538. अधिकृतानामेव एकद्रव्याणां विशेषप्रतिपत्त्यर्थमिदमुच्यतेनिष्क्रियारि च ॥7॥
8539. उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया । तस्या fromraft निष्क्रियाणि । अत्र चोद्यते - धर्मादीनि द्रव्याणि यदि निष्क्रियाणि ततस्तेषामुत्पादो न भवेत् । क्रियापूर्वको हि घटादीनामुत्पादो दृष्टः । उत्पादाभावाच्च व्ययाभाव इति । अतः सर्वद्रव्याणामुत्पादादित्रि' तयकल्पनाव्याघात इति ? तन्न; किं कारणम् ? अन्यथोपपत्तेः । क्रियानिमितोत्पादाभावेऽप्येषां धर्मादीनामन्यथोत्पादः कल्प्यते । तद्यथा - द्विबिध उत्पादः - स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च । स्वनिमित्तस्तावदनन्तानामगुरुलघु गुणानामागम' प्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्धचा हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यवगाहन हेतुत्वात् क्षणे क्षणे तेषां भेदात्तद्धेतुत्वमपि भिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो विनाशश्च व्यवह्रियते । ननु यदि निष्क्रियाणि धर्मादीनि, जीवपुद्गलानां गत्यादिहेतुत्वं नोपपद्यते । जादीनि हि क्रियावन्ति मत्स्यादीनां गत्यादिनिमित्तानि दृष्टानीति ? नैष दोषः ; बलाधाननिआकाशके क्षेत्र और भाव दोनोंकी अपेक्षा अनन्त विकल्प इष्ट होनेसे ये जीव और पुद्गलोंके समान बहुत नहीं हैं इस प्रकार यह बात इस सूत्र में दिखायी गयी है ।
$ 538. अब अधिकार प्राप्त उन्हीं एक-एक द्रव्योंका विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
तथा निष्क्रिय हैं ॥7॥
8539 अन्तरंग और बहिरंग निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली जो पर्याय द्रव्यके एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्रमें प्राप्त करानेका कारण है वह क्रिया कहलाती है और जो इस प्रकारकी क्रिया से रहित हैं वे निष्क्रिय कहलाते हैं । शंका- यदि धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय हैं तो उनका उत्पाद नहीं बन सकता, क्योंकि घटादिकका क्रियापूर्वक ही उत्पाद देखा जाता है। और उत्पाद नहीं बनने से उनका व्यय नहीं बनता । अतः सब द्रव्य उत्पाद आदि तीन रूप होते हैं इस कल्पनाका व्याघात हो जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि इनमें उत्पाद आदिक तीन अन्य प्रकारसे बन जाते हैं । यद्यपि इन धर्मादिक द्रव्योंमें क्रियानिमित्तक उत्पाद नहीं है तो भी इनमें अन्य प्रकारसे उत्पाद माना गया है । यथा--उत्पाद दो प्रकारका है, स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद | स्वनिमित्तक यथा--- प्रत्येक द्रव्यमें आगम प्रमाणसे अनन्त अगुरुलघु गुण ( अविभाग प्रविच्छेद) स्वीकार किये गये हैं जिनका छह स्थानपतित वृद्धि और हानिके द्वारा वर्तन होता रहता है, अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभावसे होता है । इसी प्रकार परप्रत्यय का भी उत्पाद और व्यय होता हैं । यथा ये धर्मादिक द्रव्य क्रमसे अश्व आदिकी गति, स्थिति और अवगाहनमें कारण हैं । चूंकि इन गति आदिक में क्षण-क्षण में अन्तर पड़ता है इसीलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिए, इस प्रकार इन धर्मादिक द्रव्योंमें परप्रत्ययकी अपेक्षा उत्पाद और व्यय का व्यवहार किया जाता है। शंका- यदि धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय हैं तो ये जीव और पुद्गलोंकी गति आदिकके कारण नहीं हो सकते; क्योंकि जलादिक क्रियावान होकर ही मछली आदिकी गति आदिमें निमित्त देखे जाते हैं, अन्यथा नहीं ? समाधान1. - भावापेक्षया आ., ता., ना., दि. 1, दि. 2 1 2 - दादित्रय कल्प- मु.। 3. - गमप्रमाणादभ्यु- आ., दि. 1, दि. 2 ।
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208] सर्वार्थसिद्धी
[5188540मित्तत्वाच्चक्षुर्वत् । यथा रूपोपलब्धौ चक्षुनिमित्त मिति न व्याक्षिप्तमनस्कस्यापि भवति । अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियत्वेऽभ्युपगते जीवपुद्गलानां सक्रियत्वमर्थादापन्नम् । कालस्यापि सक्रियत्वमिति चेत् ? न; अनधिकारात् । अत एवासावेतैः सह नाधिक्रियते।।
$ 540. अजीवकाया इत्यत्र कायग्रहणेन प्रदेशास्तित्वमात्रं नितिं न त्वियत्तावधारिता प्रदेशानामतस्तन्निर्धारणार्थ
असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम् ॥8॥ 8541. संख्यामतोता असंख्येयाः । असंख्येयास्त्रिविधः-जघन्य उत्कृष्टोऽजघन्योत्कृष्टश्चेति।तत्रेहाजघन्योत्कृष्टासंख्येयः परिगृह्यते । प्रदिश्यन्त इति प्रदेशाः । वक्ष्यमाणलक्षणः परमाणुः स यावति क्षेत्र व्यवतिष्ठते स प्रदेश इति व्यवह्रियते। धर्माधर्मेकजीवास्तुल्यासंख्येयप्रदेशाः । तत्र धर्माधर्मो निष्क्रियौ लोकाकाशं व्याप्य स्थितौ । जीवस्तावत्प्रदेशोऽपि सन् संहरणविसर्पणस्वभावत्वात् कर्मनिवर्तितं शरीरमणु महद्वाऽधितिष्ठस्तावदवगाह्य वर्तते । यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मन्दरस्याधश्चित्रवज्रपटलमध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठन्ते । इतरे प्रदेशा ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते। यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि चक्षु इन्द्रियके समान ये बलाधान में निमित्तमात्र हैं । जैसे चक्षु इन्द्रिय रूपके ग्रहण करने में निमित्तमात्र है, इसलिए जिसका मन व्याक्षिप्त है उसके चक्षु इन्द्रियके रहते हुए भी रूपका ग्रहण नहीं होता। उसी प्रकार प्रकृतमें समझ लेना चाहिए। इस प्रकार अधिकार प्राप्त धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यको निष्क्रिय मान लेने पर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं यह प्रकरणसे अपने-आप प्राप्त हो जाता है । शंका-काल द्रव्य भी सक्रिय होगा?
नि-नहीं; क्योकि उसका यहाँ अधिकार नहीं है। इसलिए इन द्रव्यो के साथ उसका अधिकार नहीं किया है।
5540. 'अजीवकायाः' इत्यादि सत्रमें 'काय' पदके ग्रहण करनेसे प्रदेशोंका अस्तित्व मात्र जाना जाता है, प्रदेशोंकी संख्या नहीं मालूम होती, अत: उसका निर्धारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंधर्म, अधर्म और एक जीवके असंख्यात प्रदेश हैं ॥8॥
8541. जो संख्यासे परे हैं वे असंख्यात कहलाते हैं। असंख्यात तीन प्रकारका है--- जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट । उनमें से यहाँ अजघन्योत्कृष्ट असंख्यातका ग्रहण किया और "प्रदिश्यन्ते इति प्रदेशः' यह प्रदेश शब्दकी व्यत्पत्ति है। तात्पर्य यह है कि जिससे विकसित माणका संकेत मिलता है, उसे प्रदेश कहते हैं । परमाणुका लक्षण आगे कहेंगे । वह जितने क्षेत्रमें रहता है वह प्रदेश है ऐसा व्यवहार किया जाता है। धर्म, अधर्म और एक जीवके प्रदेशोंकी संख्या समान है । इनमें से धर्म और अधर्मद्रव्य निष्क्रिय हैं और लोकाकाशभरमें फैले हुए हैं। यद्यपि जीवके प्रदेश धर्म और अधर्म द्रव्यके बराबर ही हैं तो भी वह संकोच और विस्तारस्वभाववाला है, इसलिए कर्मके निमित्तसे छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है उतनी अवगाहनाका होकर रहता है। और केवलिसमुद्घातके समय जब यह लोकको व्यापता है उस समय जीवके मध्यके आठ प्रदेश मेरु पर्वतके नीचे चित्रा पथिवीके वज्रमय पटलके मध्यमें स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर, नीचे और तिरछे समस्त लोकको व्याप लेते हैं।
1. -निमित्तमपि न मु., ता., ना.।
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----51106545] पंचमोऽध्यायः
[209 8542. अथाकाशस्य कति प्रदेशा इत्यत आह
आकाशस्यानन्ता:1॥9॥ 8543. अविद्यमानोऽन्तो येषां ते अनन्ताः । के ? प्रदेशाः । कस्य ? आकाशस्य। पूर्ववदस्यापि प्रदेशकल्पनाऽवसेया।
8544. उक्तभमूर्तानां प्रदेशपरिमाणम् । इदानों मूर्तानां पुद्गलानां प्रदेशपरिमाणं निर्जातव्यमित्यत आह
संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥10॥ 8545. 'च' शब्दादनन्ताश्चेत्यनुकृष्यते। कस्यचित्पुद्गलद्रव्यस्य द्वयणुकादेः संख्येयाः प्रदेशाः कस्यचिदसंख्येया अनन्ताश्च । अनन्तानन्तोपसंख्यानमिति चेत् । न; अनन्तसामान्यात् । अनन्तप्रमाणं त्रिविधमुक्तं परोतानन्तं युक्तानन्तमनन्तानन्तं चेति। तत्सर्वमनन्तसामान्येन गृह्यते । स्यादेतदसंख्यातप्रदेशो लोकः अनन्तप्रदेशस्थानन्तानन्तप्रदेशस्य च स्कन्धस्याधिकरणमिति विरोधस्ततो नानन्त्यमिति? नैष दोषः; सूक्ष्मपरिणामावगाहनशक्तियोगात् । परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एककस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ता अवतिष्ठन्ते, अवगाहनशक्तिश्चैषामव्याहतास्ति । तस्मादेकस्मिन्नपि प्रदेशे अनन्तानन्तानामवस्थानं न विरध्यते।
8 542. अब आकाश द्रव्यके कितने प्रदेश हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- आकाशके अनन्त प्रदेश हैं ॥9॥
8543. जिनका अन्त नहीं है वे अनन्त कहलाते हैं ? शंका अनन्त क्या हैं ? समाधान प्रदेश । शंका-किसके ? समाधान---आकाशके । पहलेके समान इसके भी प्रदेशकी कल्पना जान लेनी चाहिए । अर्थात् जितने क्षेत्रमें एक परमाणु रहता है उसे प्रदेश कहते हैं। प्रदेशका यह अर्थ यहाँ जानना चाहिए।
8544. अमूर्त द्रव्योंके प्रदेश कहे । अब मूर्त पुद्गलोंके प्रदेशोंकी संख्या ज्ञातव्य है, अतः उसका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पुद्गलोंके संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं॥10॥
$ 545. सूत्रमें जो 'च' शब्द दिया है.उससे अनन्तकी अनुवृत्ति होती है । तात्पर्य यह है कि किसी द्वयणुक आदि पुद्गल द्रव्यके संख्यात प्रदेश होते हैं और किसीके असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश होते हैं। शंका-यहाँ अनन्तानन्तका उपसंख्यान करना चाहिए? समाधान नहीं, क्योंकि यहाँ अनन्त सामान्यका ग्रहण किया है । अनन्त प्रमाण तीन प्रकारका कहा है-परीतानन्त, यक्तानन्त और अनन्तानन्त । इसलिए इन सबका अनन्त सामान्यसे ग्रहण हो जाता है। शंका-लोक असंख्यात प्रदेशवाला है, इसलिए वह अनन्त प्रदेशवाले और अनन्तानन्त प्रदेशवाले स्कन्धका आधार है, इस बातके मानने में विरोध आता है, अतः पुद्गलके अनन्त प्रदेश नहीं बनते ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि सूक्ष्म परिणमन होनेसे और अवगाहन शक्तिके निमित्तसे अनन्त या अनन्तानन्त प्रदेशवाले पुद्गल स्कन्धोंका आकाश आधार हो जाता है। सूक्ष्मरूपसे परिणत हुए अनन्तानन्त परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेशमें ठहर जाते हैं । इनकी यह अवगाहन शक्ति व्याघात हित है, इसलिए आकाशक एक प्रदेशमें भी अनन्तानन्त परमाणुओंका अवस्थान विरोधको प्राप्त नहीं होता। 1. नन्ताः ॥9॥ लोकेऽलोके चाकाशं वर्तते । अवि- मु.। 2. च शन्देनानन्ता- मु. ता., ना.।
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210] सर्वार्थसिद्धौ
[5111 $ 546-. $ 546: 'पुद्गलानाम्' इत्यविशेषवचनात्परमाणोरपि प्रदेशवत्त्वप्रसंगे तत्प्रतिषेधार्थमाह
नारणोः ॥1॥ 6547. अणोः 'प्रदेशा न सन्ति' इति वाक्यशेषः । कुतो न सन्तीति चेत् ? प्रदेशमात्रत्वात । यथा आकाशप्रदेशस्यैकस्य प्रदेशभेदाभावादप्रदेशत्वमेवमणोरपि प्रदेशमात्रत्वात्प्रदेशभेवाभावः । किं च ततोऽल्पपरिमाणाभावात् । न ह्मणोरल्पीयानन्योऽस्ति, यतोऽस्य प्रदेशा भिधेरन् । 8548. एषामवधूतप्रदेशानां धर्मादीनामाधारप्रतिपत्त्यर्थमिदमुच्यते
लोकाकाशेऽवगाहः ॥12॥ 8549. उक्तानां धर्मादीनां द्रव्याणां लोकाकाशेऽवगाहो न बहिरित्यर्थः । यदि धर्मादीनां लोकाकाशमाधारः, आकाशस्य क आधार इति ? आकाशस्य नास्त्यन्य आधारः। स्वप्रतिष्ठ काशम् । यद्याकाशं स्वप्रतिष्ठम्: धर्मादीन्यपि स्वप्रतिष्ठान्येव । अथ धर्मादीनामन्य आधारः कल्प्यते, आकाशस्याप्यन्य आधार कल्प्यः । तथा सत्यनवस्थाप्रसङ्ग इति चेत् ? नैष दोषः, नाकाशादन्यदधिकपरिमाणं द्रव्यमस्ति यत्राकाशं स्थितमित्युच्यते । सर्वतोऽनन्तं हि तत् । धर्मादीनां पुनरधिकरणमाकाशमित्युच्यते व्यवहारनयवशात् । एवम्भूतनयापेक्षया तु सर्वाणि द्रव्याणि स्वप्रतिष्ठान्येव । तथा चोक्तम्, “क्व भवानास्ते । आत्मनि'' इति । धर्मादीनि लोकाकाशान्न बहिः सन्तीत्येतावदत्राधाराधेयकल्पनासाध्यं फलम् । ननु च लोके पूर्वोत्तरकालभाविनामाधाराधेयभावो
8546. पूर्व सूत्रमें 'पुद्गलानाम्' यह सामान्य वचन कहा है। इससे परमाणुके भी प्रदेशों का प्रसंग प्राप्त होता है, अतः उसका निषेध करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
परमाणुके प्रदेश नहीं होते ॥1॥
8547. परमाणके प्रदेश नहीं हैं, यहाँ 'सन्ति' यह वाक्यका शेष है। शंका-परमाणके प्रदेश क्यों नहीं होते ? समाधान-क्योंकि वह स्वयं एक प्रदेशमात्र है। जिस प्रकार एक आकाश प्रदेशमें प्रदेश-भेद नहीं होनेसे वह अप्रदेशी माना गया है उसी प्रकार अणु स्वयं एक प्रदेशरूप है इसलिए उसमें प्रदेशभेद नहीं होता । दूसरे अणुसे अल्प परिमाण नहीं पाया जाता। ऐसी कोई अन्य वस्तु नहीं जो परमाणुसे छोटी हो जिससे इसके प्रदेश भेदको प्राप्त होवें।
8548. इस प्रकार निश्चित प्रदेशवाले इन धर्मादिक द्रव्योंके आधारका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते है
इन धर्मादिक द्रव्योंका अवगाह लोकाकाशमें है ॥12॥
6549. उक्त धर्मादिक द्रव्योंका लोकाकाशमें अवगाह है बाहर नहीं, यह इस सूत्रका तात्पर्य है। शंका-यदि धर्मादिक द्रव्योंका लोकाकाश आधार है तो आकाशका क्या आधार है ? समाधान-आकाशका अन्य आधार नहीं है, क्योंकि आकाश स्वप्रतिष्ठ है।
का--यदि आकाश स्वप्रतिष्ठ है तो धर्मादिक द्रव्य भी स्वप्रतिष्ठ ही होने चाहिए। यदि धर्मादिक द्रव्योंका अन्य आधार माना जाता है तो आकाशका भी अन्य आधार मानना चाहिए। और ऐसा मानने पर अनवस्था दोष प्राप्त होता है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आकाशसे अधिक परिमाणवाला अन्य द्रव्य नहीं है जहाँ आकाश स्थित है यह कहा जाय। वह सब ओर से अनन्त है। परन्तु धर्मादिक द्रव्योंका आकाश अधिकरण है यह व्यवहारनयकी अपेक्षा कहा जाता है । एवंभूत नयकी अपेक्षा तो सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठ ही हैं । कहा भी है-आप कहाँ रहते हैं ? अपनेमें। धर्मादिक द्रव्य लोकाकाशके बाहर नहीं हैं, यहाँ आधार-आधेय कल्पनासे1. तत् । ततो धर्मा- ता., ना. मु. ।
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-~-5113 8551] पंचमोऽध्यायः
[21i दृष्टो यथा कुण्डे बदरादीनाम् । न तथाऽऽकाशं पूर्व धर्मादीन्युत्तरकालभावीनि; अतो व्यवहारनयापेक्षयाऽपि आधाराधेयकल्पनानुपपत्तिरिति ? नैष दोषः, युगपद्भाविनामपि आषाराधेयभावी दृश्यते । घटे रूपादयः शरीरे हस्तादय इति । लोक इत्युच्यते। को लोकः ? धर्माधर्मावनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोक इति । अधिकरणसाधनो घञ् । आकाशं द्विधा विभक्तं-लोकाकाशमलोकाकाशं चेति । लोक उक्तः । स यत्र तल्लोकाकाशम् । ततो बहिः सर्वतोऽनन्तमलोकाकाशम् ।लोकालोकविभागश्च धर्माधर्मास्तिकाय सद्भावासद्भावाद्विज्ञेयः । असति हि तस्मिन्धर्मास्तिकाये जीवपुद्गलानां गतिनियमहेत्वभावाद्विभागो न स्यात् । असति चाधर्मास्तिकाये स्थितेराश्रयनिमित्ताभावात् स्थितेरभावो लोकालोकविभागाभावो वा स्यात् । तस्मादुभयसद्भावासद्भावाल्लोकालोकविभागसिद्धिः। 8550. तत्रावध्रियमाणानामवस्थानभेदसंभवाद्विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
__ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥13॥ 8551. कृत्स्नवचनमशेषव्याप्तिप्रदर्शनार्थम् । अगारेऽस्थितो घट इति यथा तथा धर्माधर्मयोर्लोकाकाशेऽवगाहो न भवति । कि तहि ? कृत्स्ने तिलेषु तैलवदिति । अन्योन्यप्रदेशप्रवेशइतना ही फलितार्थ लिया गया है । शंका-लोकमें जो पूर्वोत्तर कालभावी होते हैं उन्हींका आधार-आधेयभाव देखा गया है । जैसे कि बेरोंका आधार कुण्ड होता है । उसीप्रकार आकाश पूर्वकालभावी हो और धर्मादिक द्रव्य पीछेसे उत्पन्न हुए हों, ऐसा तो है नहीं, अतः व्यवहारनयकी अपेक्षा भी आधार-आधेयकल्पना नहीं बनती ? समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क साथ होनेवाले पदार्थों में भी आधार-आधेयभाव देखा जाता है। यथा-घट में रूपादिक हैं। और शरीर में हाथ आदि हैं । अब लोकका स्वरूप कहते हैं । शंका-लोक किसे कहते हैं ? समाधान-जहाँ धर्मादिक द्रव्य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं । 'लोक' धातुसे अधिकरण अर्थमें 'घञ्' प्रत्यय करके लोक शब्द बना है। आकाश दो प्रकारका है- लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकका स्वरूप पहले कह आये हैं। वह जितने आकाशमें पाया जाता है लोकाकाश है और उससे बाहर सबसे अनन्त अलोकाकाश है। यह लोकालोकका विभाग धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षासे जानना चाहिए । अर्थात् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जहाँ तक पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और इससे बाहर अलोकाकाश है । यदि धर्मास्तिकायका सद्भाव न माना जाये तो जीव और पुद्गलोंकी गतिके नियमका हेतु न रहने से लोकालोकका विभग नहीं बनता। उसी प्रकार यदि अधर्मास्तिकायका सद्भाव न माना जाये तो स्थितिका निमित्त न रहने से जीव और पुद्गलों की स्थितिका अभाव होता है जिससे लोकालोकका विभाग नहीं बनता । अतः इन दोनों के सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा लोकालोकके विभाग की सिद्धि होती है।
8550. लोकाकाशमें जितने द्रव्य बतलाये हैं उनके अवस्थानमें भेद हो सकता है, इस लिए प्रत्येक द्रव्यके अवस्थान विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
धर्म और अधर्म द्रव्यका अवगाह समन लोकाकाशमें है॥13॥"
8551. सब लोकाकाशके साथ व्याप्तिके दिखलानेके लिए सूत्रमें 'कृत्स्न' पद रखा है। घरमें जिस प्रकार घट अवस्थित रहता उस प्रकार लोकाकाशमें धर्म और अधर्म द्रव्यका अवगाह नहीं है । किन्तु जिस प्रकार तिलमें तैल रहता है उस.प्रकार सब लोकाकाशमें धर्म 1. 'हलः' जैनेन्द्र , 2131118। 'हलश्च' पाणिनि, 3131121111 2. -कायसद्भावाद्वि- मु.। 3. -रभावः । तस्या अभावे लोका- मु., ता. ना.। 4. भयसद्भावाल्लोका- मु.।
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212] सर्वार्थसिद्धौ
[51148552 --- व्याघाताभावः अवगाहनशक्तियोगाद्वेदितव्यः ।
$ 552. अतो विपरीतानां मूतिमता मप्रदेशसंख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशानां पुद्गलानामवगाहविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥14॥ 8 553. एकः प्रदेश एकप्रदेशः । एकप्रदेश आदिर्येषां त इमे एकप्रदेशादयः । तेषु पुद्गलानामवगाहो भाज्यो विकल्प्यः । “अवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थ:''3 इति एकप्रदेशोऽपि गृह्यते । तद्यथा-एकस्मिन्नाकाशप्रदेशे परमाणोरवगाहः । द्वयोरेकत्रोभयत्र च बद्धयोरबद्धयोश्च । त्रयाणामप्येकत्र द्वयोस्त्रिषु च बद्धानामबद्धानां च । एवं संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशानां स्कन्धानामेकसंख्येयासंख्येयप्रदेशेषु लोकाकाशेऽवस्थानं प्रत्येतव्यम् । ननु युक्तं तावदमूर्तयोर्धर्माधर्मयोरेकत्राविरोधेनावरोध इति । मूतिमतां पुद्गलानां कथम् ? इत्यत्रोच्यते--अवगाहनस्वभावत्वात्सूक्ष्मपरिणामाच्च मूतिमतामप्यवगाहो न विरुध्यते एकापवरके अनेकदीपप्रकाशावस्थानवत् । आगमप्रामाण्याच्च तथाऽध्यवसेयम् । तदुक्तम्
"ओगाढगाढणिचिओ पुग्गलकाएहि सव्वदो लोगो ।
सुहुमेहिं बादरेहि अणंताणतेहिं विवहेहि ।।" और अधर्म द्रव्यका अवगाह है । यद्यपि ये सब द्रव्य एक जगह रहते हैं तो भी अवगाह शक्ति के निमित्तसे इनके प्रदेश परस्पर प्रविष्ट होकर व्याघातको नहीं प्राप्त होते।
8552. अब जो उक्त द्रव्योंसे विपरीत हैं और जो अप्रदेशी हैं या संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेशी हैं ऐसे मूर्तिमान् पुद्गलोंके अवगाह विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते है--
पुद्गलोंका अवगाह लोकाकाशके एक प्रदेश आदिमें विकल्पसे होता है 140
8553. एक और प्रदेश इन दोनोंका द्वन्द्व समास है। जिनके आदिमें एक प्रदेश है वे एक प्रदेश आदि कहलाते हैं। उनमें पुद्गलोंका अवगाह विकल्पसे है । यहाँ पर विग्रह अवयवके साथ है किन्तु समासार्थ समुदायरूप लिया गया है, इसलिए एक प्रदेशका भी ग्रहण होता है। खुलासा इस प्रकार है—आकाशके एक प्रदेश में एक परमाणुका अवगाह है । बन्धको प्राप्त हुए या खले हए दो परमाणुओका आकाशके एक प्रदेशमे या दो प्रदेशो में अवगाह है। बन्धको प्राप्त हुए या खुले हुए तीन परमाणुओंका आकाशके एक, दो या तीन प्रदेशोंमें अवगाह है । इसी प्रकार . संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशवाले स्कन्धोंका लोकाकाशके एक, संख्यात और असंख्यात प्रदेशोंमें अवगाह जानना चाहिए। शंका यह तो युक्त है कि धर्म और अधर्म द्रव्य अमूर्त हैं, इसलिए उनका एक जगह बिना विरोधके रहना बन जाता है, किन्तु पुद्गल मूर्त हैं इसलिए उनका बिना विरोधके एक जगह रहना कैसे बन सकता है ? समाधान-इनका अवगाहन स्वभाव है और सूक्ष्म रूपसे परिणमन हो जाता है, इसलिए एक ढक्कनमें जिस प्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश रह जाता है उसी प्रकार मूर्तमान् पुद्गलोंका एक जगह अवगाह विरोधको प्राप्त नहीं होता । तथा आगम प्रमाणसे यह बात जानी जाती है। कहा भी है--
'लोक सूक्ष्म और स्थूल अनन्तानन्त नाना प्रकारके पुद्गलकायोंसे चारों ओरसे खचाखच भरा है।' 1. मतामेकप्रदे- मु.। 2. एक एव प्रदेशः मु.। 3. पा. म. भा. 2, 2, 2, 24 । 4. पाणामेकत्र मु., ता.। 5. पंचत्यि. गा. 64।।
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-51168557 पंचमोऽध्यायः
__[213 8554. अथ जीवानां कथमवगाहनमित्यत्रोच्यते
असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥15॥ 8555. 'लोकाकाशे' इत्यनुवर्तते । तस्यासंख्येयभागीकृतस्यैको भागोऽसंख्येयभाग इत्युच्यते । स आदिर्येषां तेऽसंख्येयभागादयः । तेषु जीवानामवगाहो वेदितव्यः । तद्यथा-एकस्मिन्नसंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते । एवं द्वित्रिचतुरादिष्वपि असंख्येयभागेषु आ सर्वलोकादवगाहः प्रत्येतव्यः । नानाजीवानां तु सर्वलोक एव । यद्येकस्मिन्नसंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते, कथं द्रव्यप्रमाणेनानन्तानन्तो जीवराशिः सशरीरोऽवतिष्ठते लोकाकाशे ? सूक्ष्मबादरभेदादवस्थानं प्रत्येतव्यम् । बादरास्तावत्सप्रतिघातशरीराः । सूक्ष्मास्तु सशरीरा' अपि सूक्ष्मभावादेवैकनिगोदजीवावगाह्येऽपि प्रदेशे साधारणशरीरा अनन्तानन्ता वसन्ति । न ते परस्परेण बादरैश्च व्याहन्यन्त इति नास्त्यवगाहविरोधः ।।
556. अत्राह लोकाकाशतुल्यप्रदेश एकजीव इत्युक्तम्, तस्य कथं लोकस्यासंख्येयभागाविषु वृत्तिः । ननु सर्वलोकव्याप्त्यैव भवितव्यमित्यत्रोच्यते
प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥16॥ $ 557. अमूर्तस्वभावस्यात्मनोऽनादिबन्धं प्रत्येकत्वात् कथंचिन्मूर्ततां विभ्रतः कार्मणशरीर8554. अब जीवोंका अवगाह किस प्रकार है इस बातको अगले सूत्र में कहते हैंलोकाकाशके असंख्यातवें भाग आदिमें जीवोंका अवगाह है ॥15॥
8555. इस सूत्रमें 'लोकाकाशे' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। उसके असंख्यात भाग करके जो एक भाग प्राप्त हो वह असंख्यातवाँ भाग कहलाता है। वह जिनके आदिमें है वे सब असंख्यातवें भाग आदि हैं । उनमें जीवोंका अवगाह जानना चाहिए। वह इस प्रकार है-एक एक असंख्यातवें भागमे एक जीव रहता है। इस प्रकार दो, तीन ओर चार आदि असंख्यात भागों से लेकर सब लोकपर्यन्त एक जीवका अवगाह जानना चाहिए। किन्तु नाना जीवों अवगाह सब लोकमें ही होता है। शंका यदि लोकके एक असंख्यातवें भागमें एक जीव रहता है तो संख्याकी अपेक्षा अनन्तानन्त सशरीर जीवराशि लोकाकाशमें कैसे रह सकती है? समाधान-जीव दो प्रकारके हैं सूक्ष्म और बादर, अतः उनका लोकाकाश में अवस्थान बन जाता है। जो बादर जीव हैं उनका शरीर तो प्रतिघात सहित होता है किन्तु जो सक्षम हैं वे यद्यपि सशरीर हैं तो भी सूक्ष्म होनेके कारण एक निगोद जीव आकाशके जितने प्रदेशोंको अवगाहन करता है उतनेमें साधारण शरीरवाले अनन्तानन्त जीव रह जाते हैं। वे परस्परमें और बादरोंके साथ व्याघातको नहीं प्राप्त होते, इसलिए लोकाकाश में अनन्तानन्त जीवोंके अवगाहमें कोई विरोध नहीं आता।
6556. यहाँ पर शंकाकारका कहना है कि जब एक जीवके प्रदेश लोकाकाशके बराबर बतलाये हैं तो लोकके असंख्यातवें भाग आदिमें एक जीव कैसे रह सकता है, उसे तो सब लोक को व्याप्त कर ही रहना चाहिए ? अब इस शंकाका समाधान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
क्योंकि प्रदीपके समान जीवके प्रदेशोंका संकोच और विस्तार होने के कारण लोकाकाशके असंख्येयभागादिकमें जीवोंका अवगाह बन जाता है ॥16॥
8557. चूंकि आत्मा अमूर्त स्वभाव है तो भी अनादिकालीन बन्धके कारण एकपनेको 1. सशरीरत्वेऽपि आ., दि. 1, दि. 2। 2.-बगाहेऽपि मु. ।
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214] सर्वार्थसिद्धौ
[5117 $ 558वशान्महदणु च शरीरमधितिष्ठतस्तद्वशात्प्रदेशसंहरणविसर्पणस्वभावस्य तावत्प्रमाणतायां सत्यामसंख्येयभागादिषु वृत्तिरुपपद्यते, प्रदीपवत् । यथा निरावरणव्योमप्रदेशेऽनव धृतप्रकाशपरिमाणस्य प्रदीपस्य शरावमणिकापवरकाद्यावरणवशात्तत्परिमाणतेति । अत्राह धर्मादीनामन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्संकरे सति, एकत्वं प्राप्नोतीति ? तन्न; परस्परमत्यन्तसंश्लेषे सत्यपि स्वभावं न जहति। 'उक्तंच
"अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स ।
मेलंता वि य णिच्चं सगसब्भाव ण जहंति ।" 8558. यद्येवं धर्मादीनां स्वभावभेद उच्यतामित्यत आह--
गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ।।17।। 8559. देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः । तद्विपरीता स्थितिः । उपगृह्यत इत्युपग्रहः। गतिश्च स्थितिश्च गतिस्थिती । गतिस्थिती एव उपग्रही गतिस्थित्युपग्रहो । धर्माधर्मयोरिति कतुं निर्देशः । उपक्रियत इत्युपकारः । कः पुनरसौ ? गत्युपग्रहः स्थित्युपग्रहश्च । यद्येवं द्वित्वनिर्देशः प्राप्नोति । नैष दोषः; सामान्येन व्युत्पादितः शब्द उपात्तसंख्यः शब्दान्तरसंबन्धे सत्यपि न पूर्वोपात्ता संख्या जहाति । यथा-"साधोः कार्यं तपःश्रुते' इति । एतदुक्तं भवति-गतिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां गत्युपग्रहे कर्तव्ये धर्मास्तिकायः साधारणाश्रयो जलवन्मत्स्यगमने। तथा स्थितिपरिणामिनां प्राप्त होनेसे वह मूर्त हो रहा है और कार्मण शरीरके कारण वह छोटे-बड़े शरीरमें रहता है, इसलिए वह प्रदेशोंके संकोच और विस्तार स्वभाववाला है और इसलिए शरीरके अनुसार दीपकके समान उसका लोकके असंख्यातवें भाग आदिमें रहना बन जाता है। जिस प्रकार निरावरण आकाश-प्रदेशमें यद्यपि दीपकके प्रकाशके परिमाणका निश्चय नहीं होता तथापि वह सकोरा, ढक्कन, तथा आवरण करनेवाले दूसरे पदार्थोके आवरणके वशसे तत्परिमाण होता है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। शंका-धर्मादिक द्रव्योंके प्रदेशोंका परस्पर प्रवेश होनेके कारण संकर होनेसे अभेद प्राप्त होता है ? समाधान नहीं; क्योंकि परस्पर अत्यन्त संश्लेण सम्बन्ध हो जाने पर भी वे अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते; इसलिए उनमें अभेद नहीं होता । कहा भी है
'सब द्रव्य परस्पर प्रविष्ट हैं, एक दूसरेको अवकाश देते हैं, और सदा मिलकर रह रहे हैं तो भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते।'
8558. यदि ऐसा है तो धर्मादिक द्रव्योंका स्वभावभेद कहना चाहिए इस लिए आगेका सूत्र कहते हैं
गति और स्थितिमें निमित्त होना यह क्रमसे धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार है॥17॥
8559. एक स्थानसे दूसरे स्थानके प्राप्त करानेमें जो कारण है उसे गति कहते हैं। स्थितिका स्वरूप इससे उलटा है। उपग्रह शब्द उपकारका पर्यायवाची है जिसकी व्युत्पत्ति 'उपगृह्यते' है। गति और स्थिति इन दोनोंमें द्वन्द्व समास है। गति और स्थिति ही उपग्रह हैं, इसलिए 'गतिस्थित्युपग्रहो' यह सूत्रवचन कहा है । 'धर्माधर्मयोः' यह कर्ता अर्थमें षष्ठी निर्देश है । उपकारकी व्युत्पत्ति 'उपक्रियते' है । शंका-यह उपकार क्या है ? समाधान-गति उपग्रह और स्थिति उपग्रह यही उपकार है । शंका-यदि ऐसा है तो द्विवचनका निर्देश प्राप्त होता है ? समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सामान्यसे ग्रहण किया गया शब्द जिस संख्याको प्राप्त कर लेता है दूसरे शब्दके सम्बन्ध होनेपर भी वह उस संख्याको नहीं छोड़ता । जैसे 'साधोः 1. -देशेऽवबु- ता. ना.। 2. पंचत्थि. गा. 7। 3. -दितः उपात्त- ता., ना., मु.।
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--5117 § 559]
[215
जीवपुद्गलानां स्थित्युपग्रहे कर्तव्ये अधर्मास्तिकायः साधारणाश्रयः पृथिवीधातुरिवाश्वादिस्थिता'विति । ननु च 'उपग्रह' वचनमनर्थकम् 'उपकारः' इत्येवं सिद्धत्वात् । ' गतिस्थिती धर्माधर्मयोरुपकारः' इति ? नैष दोषः ; याथासंख्यनिवृत्त्यर्थम् 'उपग्रह' वचनम् । धर्माधर्मयोर्गतिस्थित्योश्च यथासंख्यं भवति, एवं जीवपुद्गलानां यथासंख्यं प्राप्नोति धर्मस्योपकारो जीवानां गतिः अधर्मस्योपकारः पुद्गलानां स्थितिरिति । तन्निवृत्त्यर्थमुपग्रहवचनं क्रियते । आह धर्माधर्मयोर्य उपकारः स आकाशस्य युक्तः; सर्वगतत्वादिति चेत् ? तदयुक्तम् ; तस्यान्योपकारसद्भावात् । सर्वेषां धर्मादीनां द्रव्याणामवगाहनं तत्प्रयोजनम् । एकस्यानेकप्रयोजनकल्पनायां लोकालोकविभागाभावः । भूमिजलादीन्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामिति चेत् ? न साधारणाश्रय इति विशिष्योक्तत्वात् । अनेककारणसाध्यत्वाच्चैकस्य कार्यस्य । तुल्यबलत्वात्तयोर्गतिस्थितिप्रतिबन्ध इति चेत् ? न; अप्रेरकत्वात् । अनुपलब्धेर्न तौ स्तः खरविषाणवदिति चेत् ? न; सर्व प्रवाद्यविप्रतिपसेः । सर्वे हि प्रवादिनः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षानर्थानभिवाञ्छन्ति । अस्मान्प्रति हेतोरसिद्धेश्च ।
1
पंचमोऽध्यायः
कार्यं तपः श्रुते' इस वाक्य में 'कार्यम्' एकवचन और 'तपः श्रुते द्विवचन है । यही बात प्रकृतमें जानना चाहिए । इस सूत्रका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार मछली के गमनमें जल साधारण निमित्त है उसी प्रकार गमन करते हुए जीव और पुद्गलोंके गमनमें धर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है । तथा जिस प्रकार घोड़ा आदिके ठहरनेमें पृथिवी साधारण निमित्त है उसी प्रकार ठहरनेवाले जीव और पुद्गलोंके ठहरनेमें अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है । शंका-सूत्र में 'उपग्रह' वचन निरर्थक है, क्योंकि 'उपकार' इसीसे काम चल जाता है । यथा - ' गतिस्थिती धर्माधर्मयोरुपकार: ' ? समाधान -- यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि यथाक्रमके निराकरण करनेके लिए 'उपग्रह' पद रखा है। जिस प्रकार धर्म और अधर्म के साथ गति और स्थितिका क्रम सम्बन्ध होता है उसी प्रकार जीव और पुद्गलोंका क्रमसे सम्बन्ध प्राप्त होता है । यथा-धर्म द्रव्यका उपकार जीवोंकी गति है और अधर्म द्रव्यका उपकार पुद्गलोंकी स्थिति है, अत: इसका निराकरण करनेके लिए सूत्रमें 'उपग्रह' पद रखा है। शंका-धर्म और अधर्म द्रव्यका जो उपकार है उसे आकाशका मान लेना युक्त है, क्योंकि आकाश सर्वगत है ? समाधान - यह कहना युक्त नहीं है; क्योंकि आकाशका अन्य उपकार है । सब धर्मादिक द्रव्यों को अवगाह्न देना आकाशकका प्रयोजन है। यदि एक द्रव्यके अनेक प्रयोजन माने जाते हैं तो लोकालोकके विभागका अभाव होता है, अतः धर्म और अधर्म द्रव्यका जो उपकार है वह आकाशका मानना युक्त नहीं । शंका- धर्म और अधर्म द्रव्यके जो प्रयोजन हैं पृथ्वी और जल आदिक हो उनके करने में समर्थ हैं, अतः धर्म और अधर्म द्रव्यका मानना ठीक नहीं ? समाधान- नहीं, क्योंकि धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थितिके साधारण कारण हैं यह विशेष रूपसे कहा है । तथा एक कार्य अनेक कारणोंसे होता हैं, इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्यका मानना ठीक है । शंका-धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य तुल्य बलवाले हैं, अतः गतिसे स्थितिका और स्थिति गतिका प्रतिबन्ध होना चाहिए ? समाधान – नहीं, क्योंकि ये अप्रेरक हैं । शंका- धर्म और अधर्म द्रव्य नहीं हैं, क्योंकि उनकी उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधेके सींग ? समाधान नहीं; क्योंकि इसमें सब वादियोंको विवाद नहीं है । तात्पर्य यह है कि जितने वादी हैं वे प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकारके पदार्थोंको स्वीकार करते हैं। इसलिए इनका अभाव नहीं किया जा सकता। दूसरे हम जैनोंके प्रति 'अनुपलब्धि' हेतु असिद्ध है, क्योंकि जिनके सातिशय प्रत्यक्ष ज्ञानरूपी नेत्र विद्यमान
1. इत्येव सिद्ध- ता । 2. प्रतिवाद्य ता, ना। 3. प्रतिवादिनः ता., ना. ।
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216] सर्वार्थसिद्धौ
[51188560सर्वनेने निरतिशयप्रत्यक्षज्ञानचक्षुषा धर्मादयः सर्वे उपलभ्यन्ते । तदुपदेशाच्छ श्रुतज्ञानिभिरपि ।
8560. अत्राह, यद्यतीन्द्रिययोर्धर्माधर्मयोरुपकारसंबन्धेनास्तित्वमवध्रियते, तदनन्तरमुद्दिष्टस्य नभसोऽतीन्द्रियस्याधिगमे क उपकार इत्युच्यते--
आकाशस्यावगाहः ॥18॥ 8561. 'उपकारः' इत्यनुवर्तते । जीवपुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाह आकाशस्योपकारो वेदितव्यः । आह, जीवपूदगलानां क्रियावतामवगाहिनामवकाशदानं युक्तम् । धर्मास्ति कायादयः पुननिष्क्रिया नित्यसंबन्धास्तेषां कथमवगाह इति चेत् ? न; उपचारतस्तत्सिद्धः। यथा गमनाभावेऽपि 'सर्वगतमाकाशम्' इत्युच्यते; सर्वत्र सद्भावात्, एवं धर्माधर्मावपि अवगाह क्रियाभावेऽपि सर्वत्र व्याप्तिदर्शनादवगाहिनावित्युपचर्येते । आह यद्यवकाशवानमस्य स्वभावो वज्राविभिलॊष्टादीनां भित्त्यादिभिर्गवादीनां च व्याघातो न प्राप्नोति । दृश्यते च व्याघातः। तस्मावस्यावकाशदानं हीयते इति ? नैष दोषः; वज्रलोष्टादीनां स्थूलानां परस्परव्याघात इति नास्यावकाशदानसामर्थ्य हीयते; तत्रावगाहिनामेव व्याघातात् । वज्रादयः पुनः स्थूलत्वात्परस्परं प्रत्यवकाशदानं कुर्वन्तीति नासावाकाशदोषः। ये खलु पुद्गलाः सूक्ष्मास्त' परस्परं प्रत्यवकाशदानं कवन्ति। यद्येवं नेदमाकाशस्यासाधारणं लक्षणम्; इतरेषामापि तत्सद्भावादिति ? तन्नः सर्वपदार्थानां हैं ऐसे सर्वज्ञ देव सब धर्मादिक द्रव्योंको प्रत्यक्ष जानते हैं और उनके उपदेशसे श्रुतज्ञानी भी जानते हैं।
8560. यदि अतीन्द्रिय धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकारके सम्बन्धसे अस्तित्व स्वीकार किया जाता है तो इनके अनन्तर जो अतीन्द्रिय आकाश द्रव्य कहा है, ऐसा कौन-सा उपकार है जिससे उसका ज्ञान होता है ? अब इसी बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अवकाश देना आकाशका उपकार है॥18॥
8561. इस सूत्रमें 'उपकार' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। अवगाहन करनेवाले जीव और पुद्गलोंको अवकाश देना आकाशका उपकार जानना चाहिए। शंका–अवगाहन स्वभाव वाले जीव और पुगद्ल क्रियावान् हैं इसलिए इनको अवकाश देना युक्त है परन्तु धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय और नित्य सम्बन्धवाले हैं, उनका अवगाह कैसे बन सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि उपचारसे इसकी सिद्ध होती है । जैसे गमन नहीं करने पर भी आकाश सर्वगत कहा जाता है, क्योंकि वह सर्वत्र पाया जाता है इसी प्रकार यद्यपि धर्म और अधर्म द्रव्यमें अवगाहरूप क्रिया नहीं पायी जाती तो भी लोकाकाशमें वे सर्वत्र व्याप्त हैं, अतः वे अवगाही हैं ऐसा: उपचार कर लिया जाता है। शंका-यदि अवकाश देना आकाशका स्वभाव है तो वज्रादिकसे लोढ़ा आदिकका और भीत आदिकसे गाय आदिका व्याघात नहीं प्राप्त होता है, किन्तु व्याघात तो देखा जाता है । इससे मालूम होता है कि अवकाश देना आकाशका स्वभाव नहीं ठहरता ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है,क्योंकि वज्र और लोढ़ा आदि स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए उनका आपसमें व्याघात होता है, अतः आकाशकी अवकाश देने रूप समार्थ्य नहीं नष्ट होती। यहाँ जो व्याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करनेवाले पदार्थोंका ही है। तात्पर्य यह है कि वज्रादिक स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए वे परस्पर अवकाश नहीं देते, यह कुछ आकाशका दोष नहीं है। हाँ, जो पुद्गल सूक्ष्म होते हैं वे परस्पर अवकाश देते हैं । शंका-यदि ऐसा है तो यह आकाशका 1. उपकार इति वर्तते आ., ता., ना.। 2. -स्तेऽपि परस्प- आ., दि. 1, दि. 2। 3. -क्षणमिति परे- आ., दि. 1, दि. 2 ।
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--5119 § 563]
पंचमोऽध्यायः
[217
साधारणावगाहनहेतुत्वमस्यासाधारणं लक्षणमिति नास्ति दोषः । अलोकाकाशे तद्भावादभाव इति चेत् ? न; स्वभावापरित्यागात् ।
8562. उक्त आकाशस्योपकारः । अथ तदनन्तरोद्दिष्टानां पुद्गलानां क उपकार इत्यत्रोच्यते-
शरीरवाङ मनः प्रारणापानाः पुद्गलानाम् ॥19॥
9563. इदमयुक्तं वर्तते । किमत्रायुक्तम् ? पुद्गलानां क उपकार इति परिप्रश्ने पुद्गलानां लक्षणमुच्यते; ' शरीरादीनि पुद्गलमयानीति ? नैतदयुक्तम्; पुद्गलानां लक्षणमुत्तरत्र वक्ष्यते । इदं तु जीवान् प्रति पुद्गलानामुपकारप्रतिपादनार्थमेवेति उपकारप्रकरणे उच्यते । शरीराप्युक्तानि । औदारिकादीनि सौक्ष्म्यावप्रत्यक्षाणि । तदुदयापादित' वृत्ती न्युपचयशरीराणि कानिचित्प्रत्यक्षाणि कानिचिदप्रत्यक्षाणि । एतेषां कारणभूतानि कर्माण्यपि शरीरग्रहणेन गृह्यन्ते । एतानि पौद्गलिकानीति कृत्वा जीवानामुपकारे पुद् गलाः प्रवर्तन्ते । स्यान्मतं कार्मणमपौद्गलिकम् ; अनाकारत्वाद्' । 'आकारवतां हि औदारिकादीनां पौद्गलिकत्वं युक्तमिति ? तन्न; तदपि पौद्गलिकमेव तद्विपाकस्य मूर्तिमत्संबन्धनिमित्तत्वात् । दृश्यते हि व्रीह्यादीनामुदकादिद्रव्यसंबन्धप्रापितपरिपाकानां पौद्गलिकत्वम् । तथा कार्मणमपि गुडकण्टकादिमूर्तिमद्रव्योपनिपाते सति विपच्यमानत्वात्पौद्
असाधारण लक्षण नहीं रहता, क्योंकि दूसरे पदार्थोंमें भी इसका सद्भाव पाया जाता है ? समाधान — नहीं क्योंकि, आकाश द्रव्य सब पदार्थोंको अवकाश देने में साधारण कारण है यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है । शंका- अलोकाकाशमें अवकाशदान रूप स्वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाशका स्वभाव नहीं है ? समाधाननहीं, क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव का त्याग नहीं करता ।
8562. आकाश द्रव्यका उपकार कहा। अब उसके अनन्तर कहे गये पुद्गलोंका वया उपकार है, यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
शरीर, वचन, मन और प्राणापान यह पुद्गलोंका उपकार है ।।19॥
8563. शंका - यह अयुक्त है। प्रतिशंका-क्या अयुक्त है ? शंका- पुद्गलोंका क्या उपकार है यह प्रश्न था पर उसके उत्तरमें 'शरीरादिक पुद्गलमय हैं' इस प्रकार पुद्गलों का लक्षण कहा जाता है ? समाधान- यह अयुक्त नहीं है, क्योंकि पुद्गलोंका लक्षण आगे कहा जायगा, यह सूत्र तो जीवोंके प्रति पुद्गलोंके उपकारका कथन करने के लिए ही आया है, अतः उपकार प्रकरण में ही यह सूत्र कहा है । औदारिक आदि पाँचों शरीरोंका कथन पहले कर आये हैं । वे सूक्ष्म होनेसे इन्द्रियगोचर नहीं हैं। किन्तु उनके उदयसे जो उपचय शरीर प्राप्त होते हैं उनमें से कुछ शरीर इन्द्रियगोचर हैं और कुछ इन्द्रियातीत हैं । इन पाँचों शरीरोंके कारणभूत जो कर्म हैं उनका भी शरीर पदके ग्रहण करनेसे ग्रहण हो जाता है । ये सब शरीर पौद्गलिक हैं ऐसा समझकर जीवोंका उपकार पुद्गल करते हैं यह कहा है। शंका- आकाशके समान कार्मण शरीरका कोई आकार नहीं पाया जाता, इसलिए उसे पौद्गलिक मानना युक्त नहीं है। हाँ, जो औदारिक आदिक शरीर आकारवाले हैं उनको पौद्गलिक मानना युक्त है ? समाधान - यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कार्मण शरीर भी पौद्गलिक ही है, क्योंकि उसका फल मूर्तिमान् पदार्थों के सम्बन्धसे होता है । यह तो स्पष्ट दिखाई देता है कि जलादिकके संबन्धसे पकनेवाले धान आदि
1. च्यते भवता शरी- मु. 1 ( तदुदयोपपादित) वृत्ती- मु.।
2. -रत्र स्पर्श रसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः इत्यत्र वक्ष्यते मुः । 3 -पादित4. -कारत्वादाकाशवत् । आकार- मु. ।
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218] सर्वार्थसिद्धौ
[51198 563 गलिकमित्यवसेयम् । वाग् द्विविधा--द्रव्यवाग् भाववागिति । तत्र भाववाक् तावद्वीर्यान्तरायमतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभनिमित्तत्वात् पौद्गलिकी । तदभावे तद्वत्त्यभावात् । तत्सामोपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणाः पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति द्रव्यवागपि पौद्गलिकी; श्रोत्रेन्द्रियविषयत्वात् । इतरेन्द्रियविषया कस्मान्न भवति । तद्ग्रहणायोग्यत्वात् । घ्राणग्राह्य गन्धद्रव्ये रसाद्यनुपलब्धिवत् । अमूर्ता वागिति चेत् ? न; मूर्तिमद्ग्रहणावरोधव्याघाताभिभवादिदर्शनान्मूर्तिमत्त्वसिद्धेः । मनो द्विविधां द्रव्यमनो भावमनश्चेति । भावमनस्तावल्लब्ध्युपयोगलक्षणं पुद्गलावलम्बनत्वात् पौद्गलिकम् । द्रव्यमनश्च, ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभप्रत्यया गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकाः पुद्गला मनस्त्वेन परिणता इति पौद्गलिकम् । कश्चिदाह मनो द्रव्यान्तरं रूपादिपरिणामरहितमणुमात्रं तस्य पौद्गलिकत्वमयुक्तमिति ? तदयुक्तम् । कयम् ? उच्यते-तदिन्द्रियेणात्मना च संबद्धं वा स्यादसंबद्धं वा । यद्यसंबद्धम्, तन्नात्मन उपकारकं भवितुमर्हति इन्द्रियस्य च साचिव्यं न करोति । अथ संबद्धम्, एकस्मिन् प्रदेशे संबद्धं सत्तदणु इतरेषु प्रदेशेषु उपकारं न कुर्यात् । अदृष्टवशादस्य अलातचक्रवत्परिभ्रमणमिति चेत् । न; तत्सामर्थ्याभावात् । अमूर्तस्यात्मनो निष्क्रियस्यादृष्टो गुणः, स निष्क्रियः सन्नन्यत्र क्रियारम्भे न समर्थः । दृष्टो हि वायुद्रव्यविशेषः पौद्गलिक हैं । उसी प्रकार कार्मण शरीर भी गुड़ और काँटे आदि मूर्तिमान् पदार्थों के मिलने पर फल देते हैं, इससे ज्ञात होता है कि कार्मण शरीर भी पौद्गलिक हैं । वचन दो प्रकार का है-- द्रव्यवचन और भाववचन। इनमें-से भाववचन वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण तथा श्रुतज्ञानावरण कर्मोंके क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके निमित्तसे होता है, इसलिए वह पौद्गलिक है, क्योंकि पुद्गलोंके अभावमें भाववचनका सद्भाव नहीं पाया जाता। चूंकि इस प्रकारकी सामर्थ्यसे युक्त क्रियावाले आत्माके द्वारा प्रेरित हो कर पुद्गल वचनरूपसे परिणमन करते हैं, इसलिए द्रव्य वचन भी पौद्गलिक हैं। दूसरे द्रव्य वचन श्रोत्र इन्द्रियके विषय हैं, इससे भी ज्ञात होता है कि वे पौद्गलिक हैं । शंका-वचन इतर इन्द्रियोंके विषय क्यों नहीं होते ? समाधान-घ्राण इन्द्रिय गन्धको ग्रहण करती है उससे जिस प्रकार रसादिककी उपलब्धि नहीं होती उसी प्रकार इतर इन्द्रियोंमें वचनके ग्रहण करनेकी योग्यता नहीं है । शंका-वचन अमूर्त हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि वचनोंका मूत इन्द्रियोक द्वारा ग्रहण हाता है, वे मूत भोत आदिक द्वारा रुक जाते है, प्रतिकूल वायू आदिके द्वारा उनका व्याघात देखा जाता है तथा अन्य कारणोंसे उनका अभिभव आदि देखा जाता है। इससे शब्द मूर्त सिद्ध होते हैं। मन दो प्रकारका है--द्रव्यमन और भावमन । लब्धि और उपयोगलक्षण भावमन पुद्गलोंके आलम्बनसे होता है, इसलिए पौद्गलिक है । तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांग नामकर्मके निमित्तसे जो पुद्गल गुण-दोषका विचार और स्मरण आदि उपयोगके सम्मुख हुए आत्माके उपकारक हैं वे ही मनरूपसे परिणत होते हैं, अतः द्रव्यमन भी पौद्गलिक है । शंका-मन एक स्वतन्त्र द्रव्य है । वह रूपादिरूप परिणमनसे रहित है और अणुमात्र है, इसलिए उसे पौद्गलिक मानना अयुक्त है। समाधान-शंकाकारका इस प्रकार कहना अयुक्त है । खुलासा इस प्रकार है-वह मन आत्मा और इन्द्रियसे सम्बद्ध है या असम्बद्ध । यदि असम्बद्ध है. तो वह आत्माका उपकारक नहीं हो सकता और इन्द्रियोंकी सहायता भी नहीं कर सकता। यदि सम्बद्ध है तो जिस प्रदेशमें वह अण मन सम्बद्ध है उस प्रदेशको छोड़ कर इतर प्रदेशोंका उपकार नहीं कर सकता । शंका–अदृष्ट नामका एक गुण है उसके वशसे वह मन अलातचक्रके समान सब प्रदेशोंमें घूमता रहता है ? समाधान नहीं, क्योंकि अदृष्ट नामके गुणमें इस प्रकारकी सामर्थ्य नहीं पायी जाती। यतः अमूर्त और निष्क्रिय
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-5120 8 565] पंचमोऽध्यायः
[219 क्रियावान्स्पर्शवान्प्राप्त वनस्पती परिस्पन्दहेतुस्तद्विपरीतलक्षणश्चायमिति क्रियाहेतुत्वाभावः । वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामोदयापेक्षिणात्मना उक्स्यमानः कोष्ठयो वायुरुच्छवासलक्षणः प्राण इत्युच्यते। तनवात्मना बाह.यो वायुरभ्यन्तराक्रियमाणो निःश्वासलक्षणोडपान इत्याख्यायते । एवं तावप्यात्मानुग्राहिणी; जीवितहेतुत्वात् । तेषां मनःप्राणापानानां मूर्तिमत्त्वमवसेयम् । कुतः ? मूर्तिमद्भिः प्रतिघातादिदर्शनात् । प्रतिभयहेतुभिरशनिपाताविभिर्मनसः प्रतिघातो दृश्यते । सुरादिभिश्चाभिभवः । “हस्ततलपटादिभिरास्यसंवरणात्प्राणापानयोः प्रतिघात उपलभ्यते । श्लेष्मणा चाभिभवः । न चामूर्तस्य मूर्तिमद्भिरभिघातादयः स्युः । अत एवात्मास्तित्वसिद्धिः । यथा यन्त्रप्रतिमाचेष्टितं प्रयोक्तुरस्तित्वं गमयति तथा प्राणापानादिकर्मापि क्रियावन्तमात्मानं साधयति । 8564. किमेतावानेव पुद्गलकृत उपकार आहोस्विदन्योऽप्यस्तीत्यत आह
सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥20॥ $ 565. सदसāद्योदयेऽन्तरङ्गहेतौ सति बाहयद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशावुत्पद्यमानः प्रीतिपरितापरूपः परिणामः सुखदुःखमित्याख्यायते। भवधारणकारणायुराख्यकर्मोदयाद् भवआत्माका अदृष्ट गुण है । अतः यह गुण भी निष्क्रिय है, इसलिए अन्यत्र क्रियाका आरम्भ करनेमें असमर्थ है। देखा जाता है कि वायू नामक द्रव्य विशेष स्वयं क्रियावाला और स्पर्शवाला होकर ही वनस्पतिमें परिस्पन्दका कारण होता है, परन्तु यह अदृष्ट उससे विपरीत लक्षणवाला है, इस लिए यह क्रियाका हेतु नहीं हो सकता। वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणके क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मके उदयकी अपेक्षा रखनेवाला आत्मा कोष्ठगत जिस वायुको बाहर निकालता है उच्छवासलक्षण उस वायुको प्राण कहते हैं। तथा वही आत्मा बाहरी जिस वायुको भीतर करता है निःश्वासलक्षण उस वायुको अपान कहते हैं । इस प्रकार ये प्राण और अपान भी आत्माका उपकार करते हैं, क्योंकि इनसे आत्मा जीवित रहता है। ये मन, प्राण और अपान मूर्त हैं, क्योंकि दूसरे मूर्तपदार्थोके द्वारा इनका प्रतिघात आदि देखा जाता है। जैसे-प्रतिभय पैदा करनेवाले बिजलीपात आदिके द्वारा मनका प्रतिघात होता है और सुरा आदिके द्वारा अभिभव । तथा हस्ततल और वस्त्र आदिके द्वारा मुखके ढक लेनेसे प्राण और अपानका प्रतिघात उपलब्ध होता है और कफके द्वारा अभिभव । परन्तु अमूर्तका मूर्त पदार्थों के द्वारा अभिघात आदि नहीं हो सकता, इससे प्रतीत होता है कि ये सब मूर्त हैं । तथा इसीसे आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि होती है। जैसे यन्त्रप्रतिमाकी चेष्टाएं अपने प्रयोक्ताके अस्तित्वका ज्ञान कराती हैं उसी प्रकार प्राण और अपान आदि रूप कार्य भी क्रिया वाले आत्माके अस्तित्वके साधक हैं।
8564. क्या पुद्गलोंका इतना ही उपकार है या और भी उपकार है, इस बातके बतलाने के लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
सुख, दुःख जीवित और मरण ये भी पुद्गलोंके उपकार हैं। 20॥
$565. साता और असाताके उदयरूप अन्तरंग हेतुके रहते हुए बाह्य द्रव्यादिके परिपाकके निमित्तसे जो प्रीति और परितापरूप परिणाम उत्पन्न होते हैं वे सुख और दुःख कहे जाते
1. प्राप्तः वन- आ., दि. 1, दि. 2, ता., ना.। 2. पेक्षेणा- आ., दि. 1, दि. 21 3. कुतः। प्रतिषा- ' ता.। 4. हस्ततलपुटादि- ता., ना. मु.। 5. -वेद्येऽन्त- मु.।
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220}
सर्वार्षसिद्धौ
[51218566स्थितिमादधानस्य जीवस्य पूर्वोक्तप्राणापानक्रियाविशेषाव्युच्छेदो जीवितमित्युच्यते । तदुच्छेदो मरणम् । एतानि सुखादीनि जीवस्य पुद्गलकृत उपकारः'; मूर्तिमद्धेतुसंनिधाने सति तदुत्पत्तेः । उपकाराषिकारात् 'उपग्रह वचनमनर्थकम् ? नानर्थकम् । स्वोपग्रहप्रदर्शनार्थमिदम् । पुद्गलानां पुगलकृत उपकार इति । तद्यथा-कास्यादीनां भस्मादिभिर्जलादीनां कतकादिभिरयःप्रभृती'नामुदकादिभिरुपकार. क्रियते । 'च'शब्दः किमर्थः ? समुच्चयार्थः । अन्योऽपि पुद्गलकृत उपकारोउस्तीति समुच्चीयते । यथा शरीराणि एवं चक्षुरादीनीन्द्रियाण्यपीति । 8566. एवमाद्यमजीवकृतमुपकारं प्रदर्य जीवकृतोपकारप्रदर्शनार्थमाह
परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥21॥ 8567. 'परस्पर'शब्दः कर्मव्यतिहारे वर्तते। कर्मव्यतिहारश्च क्रियाव्यतिहारः । परस्परस्योपग्रहः परस्परोपप्रहः । जीवानामुपकारः । कः पुनरसौ ? स्वामी भृत्यः, आचार्यः शिष्यः, इत्येवमादिभावेन वृत्तिः परस्परोपग्रहः । स्वामी तावद्वित्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते । 'भत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिषेधेन च । आचार्य उभयलोकफलप्रदोपदेशदर्शनेन तदुपदेशविहितक्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते । शिष्या अपि तदानुकूल्यवृत्त्या आचार्याणाम् । हैं। पर्यायके धारण करनेमें कारणभूत आयुकर्मके उदयसे भवस्थितिको धारण करनेवाले जीवके पूर्वोक्त प्राण और अपानरूप क्रिया विशेष का विच्छेद नहीं होना जीवित है । तथा उसका उच्छेद मरण है । ये सुखादिक जीवके पुद्गलकृत उपकार हैं; क्योंकि मर्त कारणोंके रहने पर ही इनकी उत्पत्ति होती है। शंका-उपकारका प्रकरण होनेसे सूत्रमें उपग्रह शब्दका प्रयोग करना निष्फल है ? समाधान-निष्फल नहीं है, क्योंकि स्वत:के उपकारके दिखलानेके लिए सूत्रमें उपग्रह शब्दका प्रयोग किया है । पुद्गलोंका भी पुद्गलकृत उपकार होता है। यथाकांसे आदिका राख आदिके द्वारा, जल आदिका कतकं आदिके द्वारा और लौह आदिका जल आदिके द्वारा उपकार किया जाता है । शंका-सूत्रमें 'च' शब्द किस लिए दिया है ? समाधान --समुच्चयके लिए । पुद्गलकृत और भी उपकार हैं इसके समुच्चयके लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया है । जिस प्रकार गरीर आदिक पुद्गलकृत उपकार हैं उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी पुद्गलकृत उपकार हैं।
8566. इस प्रकार पहले अजीवकृत उपकारको दिखलाकर अब जीवकृत उपकारके दिखलानेके लिए आगैका सूत्र कहते हैं
परस्पर निमित्त होना यह जीवोंका उपकार है ॥21॥
8567. परस्पर यह शब्द कर्म व्यतिहार अर्थ में रहता है । और कर्मव्यतिहारका अर्थ क्रियाव्यतिहार है। परस्परका उपग्रह परस्परोपग्रह है। यह जीवोंका उपकार है । शंकावह क्या है ? समाधान--स्वामी और सेवक तथा आचार्य और शिष्य इत्यादि रूपसे वर्तन करना परस्परोपग्रह है। स्वामी तो धन आदि देकर सेवकका उपकार करता है और सेवक हित का कथन करके तथा अहितका निषेध करके स्वामीका उपकार करता है । आचार्य दोनों लोक में सुखदायी उपदेश-द्वारा तथा उस उपदेशके अनुसार क्रियामें लगाकर शिष्योंका उपकार करता है और शिष्य भी आचार्यके अनुकूल प्रवृत्ति करके आचार्यका उपकार करते हैं। शंका-उपकारका अधिकार है, इसलिए सूत्रमें फिर से 'उपग्रह' शब्द किसलिए दिया है ? समाधान-पिछले 1. कारः । कुतः । मूर्ति- मु., आ. । 2. -याणां कृतोप- आ. ।
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-51218567]
पंचमोऽध्यायः उपकाराधिकारे पुनः 'उपग्रह' वचनं किमर्थम् ? पूर्वोक्तसुखाविचतुष्टयप्रदर्शनार्थ पुनः 'उपग्रह वचन क्रियते । सुखादीन्यपि जीवानां जीवकृत उपकार इति । सूत्रमें जो सुखादिक चार कह आये है उनके दिखलानेके लिए फिरसे 'उपग्रह' शब्द दिया है । तात्पर्य यह है कि सुखादिक भी जीवोंके जीवकृत उपकार हैं।
विशेषार्थ-यहाँ उपकार के प्रकरणमें कौन द्रव्य अन्यका क्या उपकार करता है इस बातका निर्देश किया गया है, इसलिए विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या अन्य द्रव्य अपने भिन्न दूसरे द्रव्यका भला-बुरा कुछ कर सकता है। यदि कर सकता है तो यह मान लिया जाय कि जैन-. दर्शनमें ईश्वरवादका निषेध क्यों किया गया है ? यह तो मानी हुई बात है कि एक द्रव्यके जो गुण और पर्याय होते हैं वे उसे छोड़कर अन्य द्रव्यमें प्रविष्ट नहीं होते। इसलिए एक द्रव्य अपने से भिन्न दूसरेका उपकार करता है यह विचारणीय हो जाता है। जिन दर्शनोंने ईश्वरवादको स्वीकार किया है वे प्रत्येक कार्य के प्रेरक रूपसे ईश्वरको निमित्त कारण मामते हैं । उनका कहना है कि यह प्राणी अज्ञ है, अपने सुख-दुःखका स्वामी नहीं है। ईश्वरकी प्रेरणावश स्वर्ग जाता है या नरक । इसमें स्वर्ग और नरक आदि गतियोंकी प्राप्ति जीवको होती है यह बात स्वीकार की गयी है, तथापि उनकी प्राप्तिमें ईश्वरका पूरा हाथ रहता है। अगर ईश्वर चाहे तो जीवको इन गतियों में आनेसे बचा भी सकता है। इसी अभिप्रायसे एक द्रव्यको अन्य द्रव्यक उपकारक माना है तब तो ईश्वर वादका निषेध करना न करनेके बराबर होता है और यदि इस उपकार प्रकरणका कोई भिन्न अभिप्राय है तो उनका दार्शनिक विश्लेषण होना अत्यावश्यक है। आगे संक्षेपमें इसी बातपर प्रकाश डाला जाता है
लोकमें जितने द्रव्य हैं वे सब अपने-अपने गुण और पर्यायोंको लिये हुए हैं। द्रव्यदृष्टिसे वे अनन्त काल पहले जैसे थे आज भी वैसे ही हैं और आगे भी वैसे ही बने रहेंगे। किन्तु पर्यायदष्टिसे वे सदा परिवर्तनशील हैं। उनका यह परिवर्तन द्रव्यको मर्यादाके भीतर ही होता है। प्रत्येक द्रव्यका यह स्वभाव है। इसलिए प्रत्येक द्रव्यमें जो भी परिणाम होता है वह अपनीअपनी योग्यतानुसार ही होता है । संसारी जीव पुद्गल द्रव्यसे बँधा हुआ है यह भी अपनी योग्यताके कारण ही कालान्तरमें मुक्त होता है यह भी अपनी योग्यतानुसार ही। तथापि प्रत्येक द्रव्यके इस योग्यतानुसार कार्यके होने में बाह्य पदार्थ निमित्त माना जाता है। जैसे बालक में पढ़नेकी योग्यता है, इसलिए उसे अध्यापक व पुस्तक आदिका निमित्त मिलने पर वह पढ़कर विद्वान् बनता है, इसलिए ये अध्यापक आदि उसके निमित्त हैं । पर तत्त्वतः विचार करने पर ज्ञात होता है कि यहाँ कुछ अध्यापक या पुस्तक आदिने बालककी आत्मामें बद्धि नहीं उत्पन्न कर दी । यदि इन बाह्य पदार्थोमें बुद्धि उत्पन्न करनेकी योग्यता होती तो जितने बालक उस अध्यापकके पास पढ़ते हैं उन सबमें वह बुद्धि उत्पन्न कर सकता था। पर देखा जाता है कि कोई मुर्ख रहता है, कोई अल्पज्ञानी हो पाता है और कोई महाज्ञानी हो जाता है। एक ओर तो अध्यापकके बिना बालक पढ़ नहीं पाता और दूसरी ओर यदि बालकमें बुद्धिके प्रादुर्भाव होनेकी योग्यता नहीं है तो अध्यापकके लाख चेष्टा करने पर भी वह मूर्ख बना रहता है। इससे ज्ञात होता है कि कार्यकी उत्पत्तिमें अध्यापक निमित्त तो है परं वह परमार्थसे प्रेस्क नहीं। ईश्वरकी मान्यतामें प्रेरकतापर बल दिया गया है और यहाँ उपकार प्रकरणमें बाह्य निमित्तको तो स्वीकार किया गया है पर उसे परमार्थ से प्रेरक नहीं माना है। यहाँ उपकार प्रकरणके ग्रथित करनेका यही अभिप्राय है। 1. क्रियते । आह यद्यवश्यं ता., ना.।
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222] सर्वार्थसिद्धौ
[51228568568. आह, यद्यवश्यं सतोपकारिगा भवितव्यम् ; संश्च कालोऽभिमतस्तस्य क उपकार इत्यत्रोच्यते
वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ॥22॥ 8569. वृत्तेणिजतन्तात्कर्मणि भावे वा युटि स्त्रीलिंगे वर्तनेति भवति । वर्त्यते' वर्तनमात्रं या वर्तना इति । धर्मादीनां द्रव्याणां स्वपर्यायनिर्वृत्ति प्रति स्वात्मनैव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तद्वत्त्यभावात्तत्प्रवर्तनोपलक्षितः काल इति कृत्वा वर्तना कालस्योपकारः । को णिजर्थः ? वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता कालः । यद्येवं कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति । यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति ? नैष दोषः; निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृव्यपदेशो दृष्टः । यथा "कारीषोऽग्निरध्यापयति । एवं कालस्य हेतुकर्तृता । स कथं काल इत्यवसीयते ? समयादीनां क्रियाविशेषाणां समयादिभिनिर्वय॑मानानां च पाकादीनां समयः पाक इत्येवमादि स्वसंज्ञारूढिसद्भावेऽपि समयः कालः ओदनपाकः काल इति अध्यारोप्यमाणः कालव्यपदेशस्तव्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति । कुतः ? गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् । द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवृत्तिधर्मान्तरोपजननरूपः अपरिस्पन्दात्मकः परिणामः । जीवस्य क्रोधादिः, पुद्गलस्य वर्णादिः । धर्माधर्माकाशानामगुरुलघु
8568. यदि ऐसा है कि जो है उसे अवश्य उपकारी होना चाहिए तो काल भी सद्रूप माना गया है इसलिए उसका क्या उपकार है, इसी बातके बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं।
वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये कालके उपकार हैं ॥22॥
8569. णिजन्त वृत्ति धातुसे कर्म या भावमें 'युट्' प्रत्ययके करनेपर स्त्रीलिंगमें वर्तना शब्द बनता है जिसकी व्युत्पत्ति वर्त्यते या वर्तनमात्रम् होती है। यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्यायके उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी उनकी वृत्ति बाह्य सहकारी कारणके बिना नहीं हो सकती, इसलिए उसे प्रवर्तानेवाला काल है ऐसा मान कर वर्तना कालका उपकार कहा है। शंका-णिजर्थ क्या है ? समाधानद्रव्यकी पर्याय बदलती है और उसे बदलानेवाला काल है। शंका-यदि ऐसा है तो काल क्रियावान द्रव्य प्राप्त होता है? जैसे शिष्य पढता है और उपाध्याय पढ़ाता है। (यहाँ उपाध्याय क्रियावान द्रव्य है।) समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निमित्त मात्रमें भी हेतुकर्ता रूप व्यपदेश देखा जाता है। जैसे कंडेकी अग्नि पढ़ाती है। यहाँ कंडेकी अग्नि निमित्तमात्र है उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है। शंका-वह काल
कैसे जाना जाता है ! समाधान-समयादिक क्रियाविशषोका और समयादिकके द्वारा होने वाले पाक आदिककी समय, पाक इत्यादि रूपसे अपनी अपनी रौढ़िक संज्ञाके रहते हुए भी उसमें जो समय काल, ओदनपाक काल इत्यादि रूपसे काल संज्ञाका अध्यारोप होता है वह उस संज्ञाके निमित्तभत मुख्यकालके अस्तित्वका ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्यकी अपेक्षा रखता है । एक धर्मकी निवृत्ति करके दूसरे धर्मके पैदा करने रूप और परिस्पन्दसे रहित द्रव्यकी जो पर्याय है उसे परिणाम कहते हैं । यथा जीवके क्रोधादि और पुद्गलके वर्णादि । इसी प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यमें परिणाम होता है जो अगुरुलघु गुणों (अविभाग1. -य॑ते वर्तते वर्तन- मु. 2. कारीषाग्नि- आ.। 3. 'हेतुनिर्देशश्च निमित्तमात्रे. भिक्षादिषु दर्शनात् । हेतुनिर्देशश्च निमित्तमात्रे द्रष्टव्यः । यावद् ब्रूयानिमित्त कारणमिति तावद्धेतुरिति । कि प्रयोजनम् ? भिक्षादिषु दर्शनात् । भिक्षादिष्वपि णिज्दश्यते भिक्षा वासयन्ति कारीषोऽग्निरध्यापयति इति ।- पा. म. भा. 3, 1, 2, 261 4.-दिष्वसंज्ञा- मु.। 5. पाककाल: मु.।
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--5123 8570] पंचमोऽध्यायः
[223 गुणवृद्धिहानिकृतः । क्रिया परिस्पन्दात्मिका । सा द्विविधा; प्रायोगिकवैस्रसिकभेदात् । तत्र प्रायोगिकी शकटादीनाम्, वैस्खसिको मेघादीनाम् । परत्वापरत्वे क्षेत्रकृते कालकृते च स्तः । तत्र 'कालोपकारप्रकरणात्कालकृते गृह्यते । त एते तनादय उपकाराः कालस्यास्तित्वं गमयन्ति । ननु 'वर्तना' ग्रहणमेवास्तु, तद्भदाः परिणामादयस्तेषां पृथग्ग्रहणमनर्थकम् ? नानर्थकम् ; कालद्वयसूचनार्थत्वात्प्रपञ्चस्य । कालो हि द्विविधः परमार्थकालो व्यवहारकालश्च । परमार्थकालो वर्तनालक्षणः । परिणामादिलक्षणो व्यवहारकालः। अन्येन परिच्छिन्नः अन्यस्य परिच्छेदहेतुः क्रियाविशेषः काल इति व्यवह्रियते । स त्रिधा व्यवतिष्ठते-भूतो वर्तमानो भविष्यन्निति । तत्र परमार्थकाले कालव्यपदेशो मुख्यः। भूतादिव्यपदेशो गौणः । व्यवहारकाले भूतादिव्यपदेशो मुख्यः। कालव्यपदेशो गौणः; क्रियावद्व्यापेक्षत्वात्कालकृतत्वाच्च । अत्राह, धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवकालानामुपकारा उक्ताः । लक्षणं चोक्तम् 'उपयोगो लक्षणम् इत्येवमादि। पुद्गलानां नु सामान्यलक्षणभुक्तम् 'अजीवकायाः' इति । विशेषलक्षणं नोक्तम् । तत्किमित्यत्रोच्यते
स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥23॥ 8570. स्पृश्यते स्पर्शनमात्रं वा स्पर्शः। सोऽष्टविधः; मृदुकठिनगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षभेदात् । रस्यते रसनमात्रं वा रसः। स पञ्चविधः; तिक्ताम्लकटुकमधुरकषायभेदात् । प्रतिच्छेदों) की वृद्धि और हानिसे उत्पन्न होता है । द्रव्यमें जो परिस्पन्दरूप परिणमन होता है उसे क्रिया कहते हैं । प्रायोगिक और वैस्रसिकके भेदसे वह दो प्रकारकी है। उनमें से गाड़ी आदि की प्रायोगिक क्रिया है और मेधादिकको वैससिकी। परत्व और अपरत्व दो प्रकारका है-- क्षेत्रकृत और कालकृत । प्रकृतमें कालकृत उपकारका प्रकरण है, इसलिए कालकृत परत्व और अपरत्व लिये गये हैं। ये सब वर्तनादिक उपकार कालके अस्तित्वका ज्ञान कराते हैं। शंका-- सूत्रमें केवल वर्तना पदका ग्रहण करना पर्याप्त है। परिणाम आदिक उसके भेद हैं, अतः उनका अलंगसे ग्रहण करना निष्फल है । समाधान-परिणाम आदिकका अलगसे ग्रहण करना निष्फल नहीं है, क्योंकि दो प्रकारके कालके सूचन करनेके लिए इतना विस्तारसे कथन किया है। काल दो प्रकारका है...परमार्थ काल और व्यवहारकाल । इनमें-से परमार्थ काल वर्तना लक्षणवाला है और परिणाम आदि लक्षणवाला व्यवहार काल है। तात्पर्य यह है कि जो क्रिया विशेष अन्यसे परिच्छिन्न होकर अन्यके परिच्छेिदका हेतु है उसमें काल इस प्रकारका व्यवहार किया गया है। वह काल तीन प्रकारका है-भूत, वर्तमान और भविष्यत् । उनमें से परमार्थ कालमें काल यह संज्ञा मुख्य है और भतादिक व्यपदेश गौण है। तथा व्यवहार काल में भतादिकरूप संज्ञा मुख्य है और काल संज्ञा गौण है, क्योंकि इस प्रकारका व्यवहार क्रिया वाले द्रव्यकी अपेक्षासे होता है तथा कालका कार्य है । यहाँ पर शंकाकार कहता है कि धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और काल द्रव्यका उपकार कहा तथा, 'उपयोगो लक्षणम्' इत्यादि सूत्र द्वारा इनका लक्षण भी कहा । इसी प्रकार 'अजीवकाया' इत्यादि सूत्र द्वारा पुद्गलोंका सामान्य लक्षण भी कहा, किन्तु पुद्गलोंका विशेष लक्षण नहीं कहा, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं---
स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले पुद्गल होते हैं ॥23॥
8570. जो स्पर्श किया जाता है उसे या स्पर्शनमात्रको स्पर्श कहते हैं । कोमल, कठोर, भारी, हल्का, ठंडा, गरम, स्निग्ध और रूक्षके भेदसे वह आठ प्रकारका है। जो स्वाद रूप होता
1. -त्मिका । परत्वापरत्वे ता.। 2. कालोपकरणा- मु.। 3. -मुवतं विशेष- आ., दि. 1, दि. 2।
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224] सर्वार्थसिद्धी
[5124 6 571गन्ध्यते गन्धनमात्र वा गन्धः । स द्वेषा; सुरभिरसुरभि रिति । वय॑ते वर्णनमात्र वा वर्णः। स पञ्चविषः; कृष्णनीलपीतशुक्ललोहितभेदात् । त एते मूलभेदाः प्रत्येकं संख्येयासंख्येयानन्तभेदास्थ भवन्ति । स्पर्शश्च रसश्च गन्धश्च वर्णश्च स्पर्शरसगन्धवस्त एतेषां सन्तोति शरसगन्धवर्गबन्त इति । नित्ययोगे मतुनिर्देशः । यथा क्षीरिणो न्यग्रोधा इति । मनु बसपिणः पुद्गला इत्यत्र पुद्गलानां रूपवस्वमुक्तं तदविनाभाबिनश्च रसादयस्तत्रैव परिगृहोता इति व्याख्यातं तस्मात्तेनैक घुमलानां रूपादिभस्वसिद्धः सूत्रमिदमनर्थकमिति ? नेष रोषः; "मित्यायस्थितान्यरूपाणि' इत्यत्र धर्मादीनां नित्यत्वादिनिरूपणेन पुद्गलानामरूपित्वप्रसंगे तरपाकरणाचं तदुक्तम् । इदं तु तेगा स्वरूपविशेषप्रतिपत्यर्थमुच्यते।
8571. अवशिष्टपुद्गलविकारप्रतिपत्त्यर्वमिदमुच्यतेशब्दबन्धसौक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमम्छासातपोद्योतवन्तश्च ॥24॥
8572. शब्दो द्विविधः भाषालक्षणो विपरीतश्चेति । भाषालक्षणो द्विविधः-साक्षरोऽनक्षरश्चेति । अक्षरीकृतः शास्त्राभिव्यञ्जकः संस्कृतविपरीतभेदादार्यम्लेच्छव्यवहारहेतुः । अनक्षरात्मको द्वीन्द्रियादीनातिशयज्ञानस्वरूपप्रतिपादनहेतुः । स एष सर्वः प्रायोगिकः । अभाषात्मको है या स्वादमात्रको रस कहते हैं। तीता, खट्टा, कड आ, मीठा और कसैलाके भेदसे वह पाँच प्रकारका है । जो सूंघा जाता है या सूंघनेमात्रको गन्ध कहते हैं । सुगन्ध और दुर्गन्धके भेदसे वह दो प्रकारका है। जिसका कोई वर्ण है या वर्णमात्रको वर्ण कहते हैं । काला, नीला, पीला, सफेद और लालके भेदसे वह पांच प्रकारका है। ये स्पर्श आदिके पल भेद हैं। वैसे प्रत्येकके संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं । इस प्रकार ये स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण जिनमें पाये जाते हैं वे स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले कहे जाते हैं। इनका पुद्गल द्रव्यसे सदा सम्बन्ध है यह बतलाने के लिए 'मतुप, प्रत्यय किया है। जैसे 'क्षीरिणो न्यग्रोधाः' । यहाँ न्यग्रोध वृक्षमें दूधका सदा सम्बन्ध बतलानेके लिए 'णिनी' प्रत्यय किया है--उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। शंका-'रूपिणः पुद्गलाः' इस सूत्रमें पुद्गलोंको रूपवाला बतला आये हैं । और रसादिक वहीं रहते हैं जहाँ रूप पाया जाता है; क्योंकि इनका परस्परमें सहचर नामका अविनाभाव सम्बन्ध है इसलिए रूपके ग्रहण करनेसे रसादिका ग्रहण हो ही जाता है यह भी पहले बतला आये हैं. इसलिए उसी सूत्रके बलसे पुद्गल रूपादिवाला सिद्ध हो जाता है अतः यह सूत्र निष्फल है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इस स्त्रमें धर्मादिक द्रव्योंका नित्य आदि रूपसे निरूपण किया है इससे पुद्गलोंको अरूपित्व प्राप्त हुआ, अत: इस दोष के दूर करनेके लिए 'रूपिणः पुद्गलाः' यह सूत्र कहा है । परन्तु यह सूत्र पुद्गलोंके स्वरूप विशेषका ज्ञान कराने के लिए कहा है।
8571. अब पुद्गलोंकी शेष रहीं पर्यायोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
तथा वे शब्द, बन्ध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योतवाले होते हैं ॥24॥
8572. भाषारूप शब्द और अभाषारूप शब्द इस प्रकार शब्दोंके दो भेद हैं। भाषात्मक शब्द दो प्रकारके हैं---साक्षर और अनक्षर । जिसमें शास्त्र रचे जाते हैं और जिससे आर्य और म्लेच्छोंका व्यवहार चलता है ऐसे संस्कृत शब्द और इससे विपरीत शब्द ये सब साक्षर शब्द हैं। जिससे उनके सातिशय ज्ञानके स्वरूपका पता लगता है ऐसे दो इन्द्रिय आदि जीवोंके शब्द अनक्षरात्मक शब्द हैं । ये दोनों प्रकारके शब्द प्रायोगिक हैं । अभाषात्मक शब्द दो प्रकारके हैं1. सुरभिदुरभि- आ. दि. 1, दि. 2 । 2. -वन्निर्देशः मु. । मन्निर्देश: ना. ।
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-~-5124 5572] पंचमोऽध्यायः
[225 द्विविषः प्रायोगिको वैनसिकश्चेति । वैससिको वलाहकादिप्रभवः । प्रायोगिकश्चतुर्धा, ततविततघनसौषिरभेदात् । तत्र चर्मतनननिमित्तः पुष्करभेरीदर्दुरादिप्रभवस्ततः । तन्त्रीकृतवीणासुघोषादिसमुद्धवो विततः। तालघण्टालालनाद्य भिघातजो घनः । वंशशंखादिनिमित्तः सौषिरः। बन्धो विविधः--बससिकः प्रायोगिकश्च । पुरुषप्रयोगानपेक्षो वैनसिकः । तद्यथा-स्निग्धरूक्षत्वगुणनिमित्तो विधुदुल्काजलधाराग्नीन्द्रधनुरादिविषयः । पुरुषप्रयोगनिमित्तः प्रायोगिकः अजीवविषयो जीवाजीवविषयश्चेति द्विधा भिन्नः । तत्राजीवविषयो जतुकाष्ठादिलक्षणः। जीवाजीवविषयः कर्मनोकर्मबन्धः। सौक्षम्यं द्विविधं----अन्त्यमापेक्षिकं च। तत्रान्त्यं परमाणनाम। आपेक्षिकं विल्वामलकबदरादीनामा स्थौल्यमपि द्विविधमन्त्यमापेक्षिकं चेति । तत्रान्त्यं जगद्वयापिनि महास्कन्धे । आपेक्षिक बदरामलकविल्वतालादिषु । संस्थानमाकृतिः। तद् द्विविधम्--इत्थंलक्षणमनित्थंलक्षणं चेति । वृत्तत्र्यनचतुरस्रायतपरिमण्डलादीनामित्थंलक्षणम् । अतोऽन्यन्मेघादीनां संस्थानमनेकविधमित्थमिदमिति निरूपणाभावादनित्वंलक्षणम् । भेदाः षोढा; उत्करचूर्णखण्डचूणिकाप्रतराणुचटनविकल्पात् । तत्रोत्करः काष्ठादीनां करपत्रादिभिरुत्करणम् । चूर्णो यवगोधूमादीनां सक्तुकणिकादिः। खण्डो घटादाना कपालशंकरादिः। चूणिका माषमूदगादीनाम । प्रतरोऽभ्रपटलादीनाम। अणुचटनं सन्तप्तायःपिण्डादिषु अयोधनादिभिरभिहन्यमानेषु स्फुलिङ्गनिर्गमः । तमो दृष्टिप्रतिबन्ध
प्रायोगिक और वैससिक । मेघ आदि के निमित्तसे जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे वैरसिक शब्द हैं। तथा तत, वितत, धन और सौषिरके भेदसे प्रायोगिक शब्द चार प्रकारके हैं। चमड़ेसे मढ़ हए पुष्कर, भेरी और दर्दु रसे जो शब्द उत्पन्न होता है वह तत शब्द है। ताँतवाले वीणा और सुघोष आदिसे जो शब्द उत्पन्न होता है वह वितत शब्द है । ताल, घण्टा और लालन आदिके ताड़नसे जो शब्द उत्पन्न होता है वह धन शब्द है तथा बांसुरी और शंख आदिके फूकनेसे जो शब्द उत्पन्न होता है वह सौषिर शब्द है । बन्धके दो भेद हैं-वैससिक और प्रायोगिक । जिसमें पुरुषका प्रयोग अपेक्षित नहीं है वह वैनसिक बन्ध है। जैसे, स्निग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे होनेवाला बिजली, उल्का, मेघ, अग्नि और इन्द्रधनुष आदिका विषयभूत बन्ध वैससिक बन्ध है । और जो बन्ध पुरुषके प्रयोगके निमित्तसे होता है वह प्रायोगिक बन्ध है । इसके दो भेद हैंअजीवसम्बन्धी और जीवाजोवसम्बन्धी । लाख और लकड़ो आदिका अजीवसम्बन्धी प्रायोगिक बन्ध है। तथा कर्म और नोकर्मका जो जीवसे बन्ध होता है वह जीवाजीवसम्बन्धी प्रायोगिक बन्ध है । सूक्ष्मताके दो भेद हैं-अन्त्य और आपेक्षिक । परमाणुओंमें अन्त्य सूक्ष्मत्व है। तथा बेल, आँवला और बेर आदिमें आपेक्षिक सूक्ष्मत्व है। स्थौल्य भी दो प्रकारका है-अन्त्य और आपेक्षिक । जगव्यापी महास्कंधमें अन्त्य स्थौल्य है। तथा बेर, आंवला और बेल आदिमें आपेक्षिक स्थौल्य है। संस्थानका अर्थ आकृति है। इसके दो भेद हैं-इत्थंलक्षण और अनित्थंलक्षण । जिसके विषयमें 'यह संस्थान इस प्रकारका है' यह निर्देश किया जा सके वह इत्थंलक्षण संस्थान वत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण, आयत और परिमण्डल आदि ये सब इत्थंलक्षण संस्थान हैं। तथा इससे अतिरिक्त मेघ आदिके आकार जो कि अनेक प्रकारके हैं और जिनके विषयमें यह इस प्रकारका है यह नहीं कहा जा सकता वह अनित्थंलक्षण संस्थान है । भेदके छह भेद हैं-उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूर्णिका, प्रतर और अणुचटन । करोंत आदिसे जो लकड़ी आदि को चीरा जाता है वह उत्कर नामका भेद है। जौ और गेहूँ आदिका जो सत्तू और कनक आदि बनता है वह चूर्ण नामका भेद है। घट आदिके जो कपाल और शर्करा आदि टुकड़े होते हैं वह खण्ड नामका भेद है। उड़द और मूग आदिका जो खण्ड किया जाता है वह चूर्णिका नामका भेद है। मेघके जो अलग-अलग पटल आदि होते हैं वह प्रतर नामका भेद है। तपाये हुए लोहेके गोले आदिको घन
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226] सर्वार्थसिद्धौ
[51256 573कारणं प्रकाशविरोधि । छाया प्रकाशावरणनिमित्ता। सा द्वेधा-वर्णादिविकारपरिणता प्रतिबिम्बमात्रात्मिका चेति । आतप आदित्यादिनिमित्त उष्णप्रकाशलक्षणः । उद्योतश्चन्द्रमणिखद्योतादि-. प्रभवः प्रकाशः। त एते शब्दादयः पुद्गलद्रव्यविकाराः। त एषां सन्तीति शब्दबन्धसौक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तः पुदगला इत्यभिसंबध्यते। 'च'शब्देन नोदनाभिघातादयः पुद्गलपरिणामा आगमे प्रसिद्धाः समुच्चीयन्ते । 6 573. उक्तानां पुद्गलानां भेदप्रदर्शनार्थमाह
अरावः स्कन्धाश्च ॥25॥ 8574. प्रदेशमात्रभाविस्पर्शादिपर्यायप्रसवसामर्थ्यनाण्यन्ते शब्द्यन्त इत्यणवः । सौम्यादात्मादय आत्ममध्या आत्मान्ताश्च ॥ उक्तं च----
"अत्तादि अत्तमझं अत्तंत व इंदिये गेज्झं ।
जं दव्वं अविभागी तं परमाणु विआणाहि ।।'' ___ स्थूलभावेन ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापारस्कन्धनात्स्कन्धा इति संज्ञायन्ते । रूढौ क्रिया क्वचित्सती उपलक्षणत्वेनाश्रीयते इति ग्रहणादिव्यापारायोग्येष्वपि द्वयणुकादिषु स्कन्धाख्या प्रवर्तते । अनन्तभेदा अपि पुद्गला अणुजात्या स्कन्धजात्या च द्वैविध्यमापद्यमानाः सर्वे गृहयन्त इति
आदिसे पीटने पर जो फलंगे निकलते हैं वह अणचटन नामका भेद है। जिससे दष्टिमें प्रतिबन्ध होता है और जो प्रकाशका विरोधी है वह तम कहलाता है। प्रकाशको रोकनेवाले पदार्थोके निमित्तसे जो पैदा होती है वह छाया कहलाती है। उसके दो भेद हैं--एक तो वर्णादिके विकार रूपसे परिणत हई और दूसरी प्रतिबिम्बरूप । जो सर्यके निमित्तसे उष्ण प्रकाश होता है उसे आतप कहते हैं। तथा चन्द्रमणि और जुगुन आदिके निमित्तसे जो प्रकाश पैदा होता है उसे उद्योत कहते हैं । ये सब शब्दादिक पुद्गल द्रव्यके विकार (पर्याय) हैं । इसीलिए सूत्रमें पुद्गलको इन शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योतवाला कहा है । सूत्र में दिये हुए 'च' शब्द से नोदन अभिघात आदिक जो पुद्गलकी पर्याय आगममें प्रसिद्ध हैं उनका संग्रह करना चाहिए।
$ 573. अब पूर्वोक्त पुद्गलोंके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंपुद्गल के दो भेद हैं-अणु और स्कन्ध ॥25॥
8574. एक प्रदेशमें होनेवाले स्पर्शादि पर्यायको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य रूपसे जो 'अण्यन्ते' अर्थात् कहे जाते हैं वे अणु कहलाते हैं । तात्पर्य यह है कि अणु एकप्रदेशी होनेसे सबसे
छोटा होता है इसलिए वह अणु कहलाता है। यह इतना सूक्ष्म होता है जिससे वही आदि है, । 'वही मध्य है और वही अन्त है। कहा भी है
'जिसका आदि, मध्य और अन्त एक है, और जिसे इन्द्रियाँ नहीं ग्रहण कर सकतीं ऐसा जो विभाग रहित द्रव्य है उसे परमाणु समझो।
जिनमें स्थूल रूपसे पकड़ना, रखना आदि व्यापारका स्कन्धन अर्थात् संघटना होती है वे स्कन्ध कहे जाते हैं । रूढिमें क्रिया कहीं पर होती हुई उपलक्षणरूपसे वह सर्वत्र ली जाती है, इसलिए ग्रहण आदि व्यापारके अयोग्य द्वयणुक आदिक में भी स्कन्ध संज्ञा प्रवृत्त होती है । पुद्गलोंके अनन्त भेद हैं तो भी वे सब अणुजाति और स्कन्धजातिके भेदसे दो प्रकारके हैं । 1. नि. सा., गा. 261
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-5126 $ 576] पंचमोऽध्यायः
[227 तज्जात्याधारानन्तभेदसंसूचनार्थ बहुवचनं क्रियते । अणवः स्कन्धा इति भेदाभिधानं पूर्वोक्त
। स्पशरसगन्धवर्णवन्तोऽणवः । स्कन्धाः पुनः शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्यो नन्तश्च स्पर्शादिमन्तश्चेति ।
8575. आह, किमेषां पुद्गलानामणुस्कन्धलक्षणः परिणामोऽनादिरुत आदिमानित्युच्यते । स खलुत्पत्तिमत्त्वादादिमान्प्रतिज्ञायते । यद्येवं तस्मादभिधीयतां कस्मान्निमित्तादुत्पद्यन्त इति । तत्र स्कन्धानां तावदुत्पत्तिहेतुप्रतिपादनार्थमुच्यते--
मेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते ॥26॥ 8576. संघातानां द्वितयनिमित्तवशाद्विदारणं भेदः। पृथग्भूतानामेकत्वापत्तिः संघातः । ननु च द्वित्वाद् द्विवचनेन भवितव्यम् । बहुवचननिर्देशस्त्रित'यसंग्रहार्थः । भेदात्संघाताद् भेदसंघाताभ्यां च उत्पद्यन्त इति । तद्यथा-द्वयोः परमाण्वोः संघाताद् द्विप्रदेशः स्कन्ध उत्पद्यते । द्विप्रदेशस्याणोश्च त्रयाणां वा अणूनां संघातात्त्रिप्रदेशः। द्वयोद्विप्रदेशयोस्त्रिप्रदेशस्याणोश्च चतुर्णा वा अणूनां संघाताच्चतुःप्रदेशः । एवं संख्येयासंख्येयानन्तानामनन्तानन्तानां च संघातात्तावत्प्रदेशः । एषामेव भेदात्तावद् द्विप्रदेशपर्यन्ताः स्कन्धा उत्पद्यन्ते । एवं भेदसंघाताभ्याइस प्रकार पुद्गलोंकी इन दोनों जातियोंके आधारभूत अनन्त भेदोंके सूचन करनेके लिए सूत्र में बहुवचनका निर्देश किया है । यद्यपि सूत्रमें अणु और स्कन्ध इन दोनों पदोंको समसित रखा जा सकता था तब भी ऐसा न करके 'अणवः स्कन्धाः ' इस प्रकार भेद रूपसे जो कथन किया है वह इस सूत्रसे पहले कहे गये दो सूत्रोंके साथ अलग अलग सम्बन्ध बतलानेके लिए किया है । जिससे यह ज्ञात हो कि अणु स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले हैं परन्तु स्कन्ध शब्द, बन्ध, सौक्षम्य, स्थौल्य संस्थान, भेद, छाया, आतप और उद्योतवाले हैं तथा स्पर्शादिवाले भी हैं।
575. इन पुद्गलोंका अणु और स्कन्धरूप परिणाम होना अनादि है या सादि ? वह उत्पन्न होता है इसलिए सादि है । यदि ऐसा है तो उस निमित्तका कथन करो जिससे अणु और स्कन्ध ये भेद उत्पन्न होते हैं। इसलिए पहले स्कन्धोंकी उत्पत्तिके हेतुका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
भेदसे, संघातसे तथा भेद और संघात दोनोंसे स्कन्ध उत्पन्न होते हैं ॥26॥
8576 अन्तरंग और बहिरंग इन दोनों प्रकारके निमित्तोंसे संघातोंके विदारण करनेको भेद कहते हैं । तथा पृथग्भूत हुए पदार्थों के एकरूप हो जानेको संघात कहते हैं। शंका--भेद और संघात दो हैं, इसलिए सूत्रमें द्विवचन होना चाहिए ? समाधान-तीनका संग्रह करनेके लिए सूत्रमें बहुवचनका निर्देश किया है । जिससे यह अर्थ सम्पन्न होता है कि भेदसे, संघातसे तथा भेद और संघात इन दोनोंसे स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । खुलासा इस प्रकार है-दो परमाणुओंके संघातसे दो प्रदेशवाला स्कन्ध उत्पन्न होता है। दो प्रदेशवाले स्कन्ध और अणुके संघातसे या तीन अणुओंके संघातसे तीन प्रदेशवाला स्कन्ध उत्पन्न होता है। दो प्रदेशवाले दो स्कन्धोंके संघातसे, तीन प्रदेशवाले स्कन्ध और अणुके संघातसे या चार अणुओंके संघातसे चार प्रदेशवाला स्कन्ध उत्पन्न होता है। इस प्रकार संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त अणुओंके संघातसे उतने उतने प्रदेशोंवाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। तथा इन्हीं संख्यात आदि परमाणुवाले स्कन्धोंके भेदसे दो प्रदेशवाले स्कन्ध तक स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार एक समयमें होनेवाले भेद 1. तृतीय- मु.। 2. -ख्येयानन्तानां च संघा- ता., ना.। 3. भेदाद्विप्रदे- ता., आ., दि. 1, दि. 2 ।
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2281 सर्वार्थसिद्धौ
[5127 8 577मेकसमयिकाभ्यां द्विप्रदेशादयः स्कन्धा उत्पद्यन्ते । अन्यतो भेदेनान्यस्य संघातेनेति । एवं स्कन्धानामुत्पत्तिहेतुरुक्तः । $ 577. अणोरुत्पत्तिहेतुप्रदर्शनार्थमाह--
भेदादणुः ॥27॥ 8 578. "सिद्ध विधिरारभ्यमाणो नियमार्थो भवति ।” अणोरुत्पत्ति दादेव, न संघातान्नापि भेदसंघाताभ्यामिति ।
6579. आह, संघातादेव स्कन्धानामात्मलाभे सिद्धे भेदसंघातग्रहणमनर्थकमिति तद्ग्रहणप्रयोजनप्रतिपादनार्थमिदमुच्यते--
भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः ॥28॥ 8580. अनन्तानन्तपरमाणुसमुदयनिष्पाद्योऽपि कश्चिच्चाक्षुषः कश्चिदचाक्षुषः। तत्र योऽचाक्षुषः स कथं चाक्षुषो भवतीति चेकुच्यते-भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः । न भेदादिति । कात्रोपपत्तिरिति चेत् ? ब्रमः सूक्ष्मपरिणामस्य स्कन्धस्य भेदे सौक्षम्यापरित्यागादचाक्षुषत्वमेव । सौम्यपरिणतः पुनरपरः सत्यपि तद्भेदेऽन्यसंघातान्तरसंयोगात्सोक्षम्यपरिणामोपरमे स्थौल्योत्पत्तो चाक्षुषो भवति । और संघात इन दोनोंसे दो प्रदेशवाले आदि स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । तात्पर्य यह है कि जब अन्य स्कन्ध से भेद होता है और अन्यका संघात, तब एक साथ भेद और संघात इन दोनोंसे भी स्कन्धकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार स्कन्धोंकी उत्पत्तिका कारण कहा।
8 577. अब अणुकी उत्पत्तिके हेतुको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंभेदसे अणु उत्पन्न होता है ॥27॥
8 578. कोई विधि सिद्ध हो, फिर भी यदि उसका आरम्भ किया जाता है तो वह नियम के लिए होती है । तात्पर्य यह है कि अणु भेदसे होता है यद्यपि यह सिद्ध है फिर भी
दणुः' इस सूत्रके निर्माण करनेसे यह नियम फलित होता है कि अणुकी उत्पत्ति भेदसे ही होती है । न संघातसे होती है और न भेद और संघात इन दोनोंसे ही होती है।
579. जब संघातसे ही स्कन्धोंकी उत्पत्ति होती है तब सूत्र में भेद और संघात इन दोनों पदोंका ग्रहण करना निष्फल है ? अतः इन दोनों पदोंके ग्रहण करनेका क्या प्रयोजन है इसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
भेद और संघातसे चाक्षुष स्कन्ध बनता है ॥28॥
8580. अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायसे निष्पन्न होकर भी कोई स्कन्ध चाक्षुष. होता है और कोई अचाक्षुष । उसमें जो अचाक्षुष स्कन्ध है वह चाक्षुष कैसे होता है इसी बातके बतलाने के लिए यह कहा है कि भेद और संघातसे चाक्षुष स्कन्ध होता है, केवल भेदसे नहीं, यह इस सूत्रका अभिप्राय है । शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान—आगे उसी कारणको बतलाते हैं-सूक्ष्मपरिणामवाले स्कन्धका भेद होनेपर वह अपनी सूक्ष्मताको नहीं छोड़ता इसलिए उसमें अचाक्षुषपना ही रहता है । एक दूसरा सूक्ष्मपरिणामवाला स्कन्ध है जिसका यद्यपि भेद हुआ तथापि उसका दूसरे संघातसे संयोग हो गया अतः सूक्ष्मपना निकलकर उसमें स्थूलपने की उत्पत्ति हो जाती है और इसलिए वह चाक्षुष हो जाता है। 1. 'सिद्ध सत्यारम्भो नियमार्थः' न्यायसंग्रहः ।
'भेदाद
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- 51308584]
पंचमोऽध्यायः
[229
$ 581. आह, धर्मादीनां द्रव्याणां विशेषलक्षणान्युक्तानि, सामान्यलक्षणं नोक्तम्, तद्वक्तव्यम् । उच्यते
सद् द्रव्यलक्षणम् ||291
8582. यत्सत्तद् द्रव्यमित्यर्थः ।
8583. यद्येवं तदेव तावद्वक्तव्यं किं सत् । इत्यत आह-
उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् ॥30॥
8584. चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत' उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद: मृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । तथा पूर्वभावविगमनं व्ययः । यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतेः । अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोक्याभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः । ध्रुवस्य भावः कर्म वा धौव्यम् । यथा मृत्पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः । तैरुत्पादव्ययप्रौव्यैर्युक्तं उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति । आह, भेदे सति युक्तशब्दो दृष्टः । यथा दण्डेन युक्तो देवदत्त इति । तथा सति तेषां त्रयाणां तैर्युक्तस्य द्रव्यस्य चाभावः प्राप्नोति ? नैष दोषः; अभेदेऽपि कथंचिद् भेदनयापेक्षया युक्तशब्दो दृष्टः । यथा सारयुक्तः स्तम्भ इति । तथा सति तेषामविनाभावात्सद्व्यपदेशो युक्तः । समाधिवचनो वा युक्तशब्दः । युक्तः समाहितस्तदात्मक इत्यर्थः । उत्पादव्यय
$ 581. धर्मादिक द्रव्यके विशेष लक्षण कहे, सामान्य लक्षण नहीं कहा, जो कहना चाहिए इसलिए सूत्र द्वारा सामान्य लक्षण कहते हैं
द्रव्यका लक्षण सत् है ॥29॥
8 582. जो सत् है वह द्रव्य है यह इस सूत्रका भाव है ।
8583. यदि ऐसा है तो यही कहिए कि सत् क्या है ? इसलिए आगेका सूत्र कहते हैंजो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंसे युक्त अर्थात् इन तीनोंरूप है वह सत् है ॥30॥
।
8584. द्रव्य दो हैं-चेतन और अचेतन । वे अपनी जातिको तो कभी नहीं छोड़ते फिर भी उनकी अन्तरंग और बहिरंग निमित्तके वशसे प्रति समय जो नवीन अवस्थाकी प्राप्ति होती है उसे उत्पाद कहते हैं । जैसे मिट्टी के पिण्डकी घट पर्याय । तथा पूर्व अवस्थाके त्यागको व्यय कहते हैं । जैसे घटकी उत्पत्ति होनेपर पिण्डरूप आकारका त्याग तथा जो अनादिकालीन पारिणामिक स्वभाव है उसका व्यय और उदय नहीं होता किन्तु वह 'ध्रुवति' अर्थात् स्थिर रहता है इसलिए उसे ध्रुव कहते हैं । तथा इस ध्रुवका भाव या कर्म ध्रौव्य कहलाता है । जैसे मिट्टी के पिण्ड और घटादि अवस्थाओंमें मिट्टीका अन्वय बना रहता है। इस प्रकार इन उत्पाद, व्यय और धौव्यसे जो युक्त है वह सत् | शंका - भेदके रहते हुए युक्त शब्द देखा जाता है । जैसे दण्डसे युक्त देवदत्त । यहाँ दण्ड और देवदत्तमें भेद है प्रकृतमें भी यदि ऐसा मान लिया जाय तो उन तीनोंका और उन तीनोंसे युक्त द्रव्यका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान —यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि अभेदमें भी कथंचित् भेदग्राही नयकी अपेक्षा युक्त शब्दका प्रयोग देखा जाता है । जैसे सार युक्त स्तम्भ । ऐसी हालतमें उन तीनोंका परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध होने से यहाँ युक्त शब्दका प्रयोग करना युक्त है । अथवा यह युक्त शब्द समाधिवाची है । भाव यह है कि युक्त, समाहित और तदात्मक ये तीनों एकार्थवाची शब्द हैं जिससे 'सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त है' इसका भाव 'सत् उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक है' यह होता है । उक्त कथन 1. -जहत निमित- आ., दि. 1, दि. 21 2. प्रोव्ययुक्तं सदिति
मु. . ।
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230] सर्वार्थसिद्धौ
[51318585प्रौव्ययुक्तं सत् उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकमिति यावत् । एतदुक्तं भवति–उत्पादादीनि द्रव्यस्य लक्षणानि । द्रव्यं लक्ष्यम् । तत्र पर्यायाथिकनयापेक्षया परस्परतो द्रव्याच्चान्तरभावः । द्रव्याथिकनयापेक्षया व्यतिरेकेणानुपलब्धेरनर्थान्तरभावः । इति लक्ष्यलक्षणभावसिद्धिः। 8585. आह 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इत्युक्तं तत्र न ज्ञायते किं नित्यमित्यत आह
तभावाव्ययं नित्यम् ॥31॥ 8586. 'तद्भावः' इत्युच्यते । कस्तभावः ? प्रत्यभिज्ञानहेतुता । तदेवेदमिति स्मरणं
का तात्पर्य यह है कि उत्पाद आदि द्रव्यके लक्षण हैं और द्रव्य लक्ष्य है। यदि इनका पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा विचार करते हैं तो ये आपसमें और द्रव्यसे पृथक् पृथक् हैं और यदि द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा विचार करते हैं तो ये पथक पृथक् उपलब्ध नहीं होनेसे अभिन्न हैं। इस प्रकार इनमें और द्रव्यमें लक्ष्य-लक्षणभावकी सिद्धि होती है।
विशेषार्थ-यहाँ द्रव्यका लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव बतलाया है। उभय निमित्तवश अपनी जातिका त्याग किये बिना नवीन पर्यायकी प्राप्ति उत्पाद है, पूर्व पर्यायका त्याग व्यय है, और अनादि पारिणामिक स्वभावरूप अन्वयका बना रहना ध्रौव्य है। उदाहरणार्थ-- कोयला जलकर राख हो जाता है, इसमें पुद्गलकी कोयलारूप पर्यायका व्यय हुआ है और क्षार रूप पर्यायका उत्पाद हुआ है, किन्तु दोनों अवस्थाओंमें पुद्गल द्रव्यका अस्तित्व बना रहता है। पुदगलपनेका कभी भी नाश नहीं होता यही उसकी ध्रवता है। आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थ परिवर्तनशील है और उसमें यह परिवर्तन प्रति समय होता रहता है । जैसे दूध कुछ समय बाद दही रूपसे परिणम जाता है और फिर दहीका मट्ठा बना लिया जाता है, यहाँ यद्यपि दूधसे दही और दहीसे मट्ठा ये तीन भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ हुई हैं पर हैं ये तीनों एक गोरसकी ही । इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्यमें अवस्था भेदके होनेपर भी उसका अन्वय पाया जाता है, इसलिए वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त सिद्ध होता है। यह प्रत्येक द्रव्यका सामान्य स्वभाव है। अब प्रश्न यह होता है कि प्रत्येक द्रव्य एक साथ तीनरूप कैसे हो सकता है। कदाचित् कालभेदसे उसे उत्पाद और व्ययरूप मान भी लिया जाय, क्योंकि जिसका उत्पाद होता है उसका कालान्तर में नाश अवश्य होता है । तथापि वह ऐसी अवस्थामें ध्रौव्यरूप नहीं हो सकता, क्योंकि जिसका उत्पाद और व्यय होता है उसे ध्राव्य स्वभाव मानने में विरोध आता है। समाधान यह है कि अवस्थाभेदसे द्रव्यमें ये तीनों धर्म माने गये हैं । जिस समय द्रव्यकी पूर्व अवस्था नाशको प्राप्त होती है उसी समय उसकी नयी अवस्था उत्पन्न होती है फिर भी उसका त्रैकालिक अन्वय स्वभाव बना रहता है। इसी बातको आचार्य समन्तभद्रने इन शब्दोंमें व्यक्त किया है-'घटका इच्छुक उसका नाश होने पर दुखी होता है, मुकुटका इच्छुक उसका उत्पाद होनेपर हर्षित होता है और स्वर्णका इच्छुक न दुखी होता है न हर्षित होता है, वह मध्यस्थ रहता है।' एक ही समयमें यह शोक, प्रमोद और मध्यस्थभाव बिना कारणके नहीं हो सकता, इससे प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुत है यह सिद्ध होता है।
8585. 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' यह सूत्र कह आये हैं । वहाँ यह नहीं ज्ञात होता कि नित्य क्या है, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
उसके भावसे (अपनी जातिसे) च्युत न होना नित्य है ॥3॥
6 586. अब तद्भाव इस पदका खुलासा करते हैं । शंका-'तद्भाव' क्या वस्तु है ? 1. -दादीनि त्रीणि द्रव्य --मु.। 2. लक्ष्यम् । तत्पर्या- मु., आ., दि. 1 ।
.
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--5132 $588] पंचमोऽध्यायः
[231 प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान्न भवतीति योऽस्य हेतुः सतद्भावः। भवनं भावः । तस्य भावस्तद्भावः । येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते। यद्यत्यन्तनिरोधोऽभिनवप्रादुर्भावमात्रमेव वा स्यात्ततः स्मरणानुपपत्तिः। तदधीनो लोकसंव्यवहारो विरुध्यते । ततस्तदभावेनाव्ययं तद्भावाव्ययं नित्यमिति निश्चीयते। तत् तु कथंचिद्वेदितव्यम्। सर्वथा नित्यत्वे अन्यथाभावाभावात्संसारतद्विनिवृत्तिकारणप्रक्रियाविरोधः स्यात् ।।
8587. ननु इदमेव विरुद्धं तदेव नित्यं तदेवानित्यमिति । यदि नित्यं व्ययोदयाभावादनित्यताव्याघातः । अशानित्यमेव स्थित्यभावान्नित्यताव्याघात इति ? नैतद्विरुद्धम् । कुतः--
अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥32॥ 8588. अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत् । तद्विपरीतमपितम् । प्रयोजनाभावात् सतोऽप्यविवक्षा भवतीत्युपसर्जनीभूतमर्पितमित्युच्यते । अर्पितं चार्पितं चापितानपिते । ताभ्यां सिद्धरपितानर्पितसिद्धेर्नास्ति विरोधः । तद्यथा--एकस्य देवदत्तस्य पिता पुत्रो भ्राता भागिनेय इत्येवमादयः समाधान--जो प्रत्यभिज्ञानका कारण है वह तद्भाव है, 'वही यह है' इस प्रकारके स्मरणको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । वह अकस्मात् तो होता नहीं, इसलिए जो इसका कारण है वही तद्भाव है। इसकी निरुक्ति 'भवनं भावः, तस्य भावः तदभावः' इस प्रकार होती है । तात्पर्य यह है कि पहले जिसरूप वस्तुको देखा है उसी रूप उसके पुनः होनेसे 'यह वही है' इस प्रकारका प्रत्यभि-. ज्ञान होता है। यदि पूर्व वस्तुका सर्वथा नाश हो जाय या सर्वथा नयी वस्तुका उत्पाद माना जाय तो इससे स्मरणकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और स्मरणकी उत्पत्ति न हो सकनेसे स्मरणके आधीन जितना लोकसंव्यवहार चालू है वह सब विरोधको प्राप्त होता है, इसलिए जिस वस्तुका जो भाव है उस रूपसे च्युत न होना तद्भावाव्यय अर्थात् नित्य है ऐसा निश्चित होता है। परन्तु इसे कथंचित् जानना चाहिए। यदि सर्वथा नित्यता मान ली जाय तो परिणमनका सर्वथा
प्राप्त होता है और ऐसा होनेसे संसार और इसकी निवृत्तिके कारणरूप प्रक्रियाका विरोध प्राप्त होता है।
8587. शंका-उसीको नित्य कहना और उसीको अनित्य कहना यही विरुद्ध है। यदि नित्य है तो उसका व्यय और उत्पाद न होनेसे उसमें अनित्यता नहीं बनती। और यदि अनित्य है तो स्थितिका अभाव होनेसे नित्यताका व्याघात होता है ? समाधान-नित्यता और अनित्यताका एक साथ रहना विरुद्ध नहीं है, क्योंकि---
मुख्यता और गौणताको अपेक्षा एक वस्तुमें विरोधी मालूम पड़नेवाले दो धर्मोकी सिद्धि होती है ॥32॥
8588. वस्तु अनेकान्तात्मक है । प्रयोजनके अनुसार उसके किसी एक धर्मको विवक्षासे जब प्रधानता प्राप्त होती है तो वह अपित या उपनीत कहलाता है और प्रयोजनके अभावमें जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अनर्पित कहलाता है । तात्पर्य यह है कि किसी वस्तु या धर्मके रहते हए भी उसकी विवक्षा नहीं होती, इसलिए जो गौण हो जाता वह अनर्पित कहलाता है। इन दोनोंका 'अनपितं च अपितं च' इस प्रकार द्वन्द्व समास है। इन दोनोंकी अपेक्षा एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मोकी सिद्धि होती है, इसलिए कोई विरोध नहीं है। खुलासा इस 1. तदभावः । तस्य मु.। 2. -त्यन्तविरोधो मु.। 3. -नाव्ययं नित्य- मु.। 4. विवक्षाया- आ., दि. 1, दि. 2। 5. भ्राता माता भाग- मु.।
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सर्वार्थसिद्धौ
[5133 § 589
संबन्धा जनकत्वजन्यत्वादिनिमित्ता न विरुध्यन्ते ; अर्पणाभेदात् । पुत्रापेक्षया पिता, पित्रपेक्षया पुत्र इत्येवमादिः । तथा द्रव्यमपि सामान्यार्पणया नित्यम्, विशेषार्पणयानित्यमिति नास्ति विरोधः । तौ च सामान्यविशेषौ कथंचिद् भेदाभेदाभ्यां व्यवहारहेतु भवतः ।
8589. अत्राह, सतोऽनेकनयव्यवहारतन्त्रत्वात् उपपन्ना भेदसंघातेभ्यः सतां 'स्कन्धात्मनोत्पत्तिः । इदं तु संदिग्धम्, किं संघातः संयोगादेव द्वयणुकादिलक्षणो भवति, उत कश्चिद्विशेषोऽवनियत इति ? उच्यते, 'सति संयोगे बन्धादेकत्वपरिणामात्मकात्संघातो निष्पद्यते । यद्येवमिदमुच्यतां, कुतो नु खलु पुद्गलजात्यपरित्यागे' संयोगे च सति भवति केषांचिद् बन्धोऽन्येषां च नेति ? उच्यते, यस्मात्तेषां पुद्गलात्माविशेषेऽप्यनन्तपर्यायाणां परस्परविलक्षणपरिणामादाहितसामर्थ्याद्भवन्प्रतीतः -
स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥ 330
$ 590. बाह्याभ्यन्तरकारणवशात् स्नेहपर्यायाविर्भावात् स्निह्यते' स्मेति स्निग्धः । तथा रूक्षणाद्रक्षः । स्निग्धश्च रूक्षश्च स्निग्धरुक्षौ । तयोर्भावः स्निग्धरूक्षत्वम् । स्निग्धत्वं चिक्कणगुणलक्षणः पर्यायः । तद्विपरीतपरिणामो रूक्षत्वम् । 'स्निग्धरूक्षत्वात्' इति हेतुनिर्देश: । तत्कृतो
प्रकार है -- जैसे देवदत्तके पिता, पुत्र, भाई और भान्जे इसी प्रकार और भी जनकत्व और जम्यत्व आदिके निमित्तसे होने वाले सम्बन्ध विरोधको प्राप्त नहीं होते । जब जिस धर्मकी प्रधानता होती है उस समय उसमें वह धर्म माना जाता है। उदाहरणार्थ- पुत्रकी अपेक्षा वह पिता है और पिताकी अपेक्षा वह पुत्र है आदि । उसी प्रकार द्रव्य भी सामान्यकी अपेक्षा नित्य है और विशेषकी अपेक्षा अनित्य है, इसलिए कोई विरोध नहीं है । वे सामान्य और विशेष कथंचित् भेद और अभदकी अपेक्षा ही व्यवहारके कारण होते हैं ।
8589. शंका - सत् अनेक प्रकारके नयके व्यवहारके आधीन होनेसे भेद, संघात और भेद-संघातसे स्कन्धोंकी उत्पत्ति भले ही बन जावे परन्तु यह संदिग्ध है कि द्वयणुक आदि लक्षणवाला संघात संयोगसे ही होता है या उसमें और कोई विशेषता है ? समाधान-संयोगके होनेपर एकत्व परिणमन रूप बन्धसे संघातकी उत्पत्ति होती है । शंका-यदि ऐसा है तो यह बतलाइए कि सब पुद्गलजाति होकर भी उनका संयोग होनेपर किन्हींका बन्ध होता है और किन्हींका नहीं होता, इसका क्या कारण है ? समाधान—चूँकि वे सब जातिसे पुद्गल हैं तो भी उनकी जो अनन्त पर्यायें हैं उनका परस्पर विलक्षण परिणमन होता है, इसलिए उससे जो सामर्थ्य उत्पन्न होती है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि-
स्निग्धत्व और रूक्षत्वसे बन्ध होता है ॥33॥
8 590. बाह्य और आभ्यन्तर कारणसे जो स्नेह पर्याय उत्पन्न होती है उससे पुद्गल स्निग्ध कहलाता है । इसकी व्युत्पत्ति 'स्निह्यते स्मेति स्निग्ध:' होगी । तथा रूखापनके कारण पुद्गल रूक्ष कहा जाता है । स्निग्ध पुद्गलका धर्म स्निग्धत्व है और रूक्ष पुद्गलका धर्म रुक्षत्व है। पुद्गलकी चिकने गुणरूप जो पर्याय है वह स्निग्धत्व है और इससे जो विपरीत परिणमन है वह रूक्षत्व है । सूत्रमें 'स्निग्धरूक्षत्वात्' इस प्रकार हेतुपरक निर्देश किया है । तात्पर्य यह है कि
1. स्कन्धानामेवोत्प - दि. 1, दि. 2, आ. । 2. - कुतोऽत्र खलु दि. 1, दि. 2 1 3 -त्यागे सति मु. । 4. - ह्यतेऽस्मिन्निति मु.
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-5135 § 593]
पंचमोऽध्यायः
[233
बन्धो द्वद्यणुकादिपरिणामः । द्वयोः स्निग्धरुक्षयोरण्वोः परस्परश्लेषलक्षणे बन्धे सति द्वणुक स्कन्धो भवति । एवं संख्ये या संख्येयानन्तप्रदेशः स्कन्धो योज्यः । तत्र स्नेहगुण एकद्वित्रिचतुः संख्ये या संख्येयानन्त विकल्पः । तथा रूक्षगुणोऽपि । तद्गुणाः परमाणवः सन्ति । यथा तोयाजागोमहिष्युष्ट्रीक्षीरघृतेषु स्नेहगुणः प्रकर्षाप्रकर्षेण प्रवर्तते । पांशुकणिकाशर्करादिषु च रूक्षगुणो वृष्टः । तथा परमाणुष्वपि स्निग्धरूक्षगुणयोवृत्तिः प्रकर्षाप्रकर्षेणानुमीयते ।
9591. स्निग्धरूक्षत्वगुणनिमित्ते बन्धे अविशेषेण प्रसक्ते अनिष्टगुर्णानवृत्त्यर्थमाह-न जघन्यगुणानाम् ॥34॥
$ 592. जघन्यो निकृष्टः । गुणो भागः । जघन्यो गुणो येषां ते जघन्यगुणाः । तेषां जघन्यगुणानां नास्ति बन्धः । तद्यथा - एकगुणस्निग्धस्यैकगुणस्निग्धेन द्वयादिसंख्ये या संख्ये यानन्तगुणस्निग्धेन वा नास्ति बन्धः । तस्यैवैकगुणस्निग्धस्य एकगुणरूक्षेण द्वयादिसंख्येयासंख्येयानन्तगुणरूक्षेण वा नास्ति बन्धः । तथा एकगुणरूक्षस्यापि योज्यमिति ।
$ 593. एतौ जघन्यगुणस्निग्धरूक्षौ वर्जयित्वा अन्येषां स्निग्धानां रूक्षाणां च परस्परेण बन्धो भवतीत्यविशेषेण प्रसंगे तत्रापि प्रतिषेधविषयख्यापनार्थमाह-गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥35॥
•
aणुक आदि लक्षणवाला जो बन्ध होता है वह इनका कार्य है। स्निग्ध और रूक्ष गुणवाले दो परमाणुओंका परस्पर संश्लेषलक्षण बन्ध होनेपर द्वयणुक नामका स्कन्ध बनता है । इसी प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशवाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । स्निग्ध गुणके एक, दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद हैं । इसी प्रकार रूक्ष गुणके भी एक, दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद हैं । और इन गुणवाले परमाणु होते हैं । जिस प्रकार जल तथा बकरी, गाय, भैंस, और ऊँटके दूध और घीमें उत्तरोत्तर अधिक रूपसे स्नेह गुण रहता है तथा पांशु, कणिका और शर्करा आदिमें उत्तरोत्तर न्यूनरूपसे रूक्ष गुण रहता है उसी प्रकार परमाणुओं में भी न्यूनाधिकरूपसे स्निग्ध और रूक्ष गुणका अनुमान होता है ।
8 591. स्निग्धत्व और रूक्षत्व गुणके निमित्तसे सामान्यसे बन्धके प्राप्त होनेपर बन्धमें अप्रयोजनीय गुणके निराकरण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं.
जघन्य गुणवाले पुद्गलोंका बन्ध नहीं होता ॥34॥
§ 592. यहाँ जघन्य शब्दका अर्थ निकृष्ट है और गुण शब्दका अर्थ भाग है । जिनमें जघन्य गुण होता है अर्थात् जिनका शक्त्यंश निकृष्ट होता है वे जघन्य गुणवाले कहलाते हैं । उन जघन्य गुणवालोंका बन्ध नहीं होता । यथा - एक स्निग्ध शक्त्यंशवालेका एक स्निग्ध शक्त्यंशवाले के साथ या दो से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त शक्त्यंशवालोंके साथ बन्ध नहीं होता। उसी प्रकार एक स्निग्ध शक्त्यंशवालेका एक रूक्ष शक्त्यंशवालेके साथ या दोसे लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त रूक्षशक्त्यंशवालोंके साथ बन्ध नहीं होता । उसी प्रकार एक रूक्ष शक्त्यंशवालेकी भी योजना करनी चाहिए ।
8593. इन जघन्य स्निग्ध और रूक्ष शक्त्यंशवालोंके सिवा अन्य स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलोंका परस्पर बन्ध सामान्य रीतिसे प्राप्त हुआ, इसलिए इनमें भी जो बन्धयोग्य नहीं हैं वे प्रतिषेधके विषय हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
गुणोंकी समानता होने पर तुल्यजातिवालोंका बन्ध नहीं होता ॥35॥
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234] सर्वार्थसिद्धौ
[5136 $594$ 594. 'सदृश'ग्रहणं तुल्यजातीयसंप्रत्ययार्थम् । 'गुणसाम्य'ग्रहणं तुल्यभागसंप्रत्ययार्थम् । एतदुक्तं भवति–द्विगुणस्निग्धानां द्विगुणरूक्षेः त्रिगुणस्निग्धानां द्विगुणरूक्षः द्विगुणस्निग्धानां द्विगुणस्निग्धैः द्विगुणरूक्षाणां द्विगुणरूक्षश्चैत्येवमादिषु नास्ति बन्ध इति । यद्येवं 'सदृश'ग्रहणं किमर्थम् ? गुणवैषम्ये सदृशानामपि बन्धप्रतिपत्त्यर्थं 'सदृश'ग्रहणं क्रियते।
8595. अतो विषमगुणानां तुल्यजातीयानामतुल्यजातीयानां चानियमेन बन्धप्रसक्तौ' इष्टार्थसंप्रत्ययार्थमिदमुच्यते
दृयधिकादिगुणानां तु ॥36॥ 8596. द्वाभ्यां गुणाभ्यामधिको द्वयधिकः । कः पुनरसौ ? चतुर्गुणः। 'आदि'शब्दः प्रकारार्थः । कः पुनरसौ प्रकारः ? द्वयधिकता। तेन पञ्चगणादीनां संप्रत्ययो न भवति । तेन द्वयधिकादिगुणानां तुल्यजातीयानामतुल्यजातीयानां च बन्ध उक्तो भवति नेतरेषाम् । तद्यथाद्विगुणस्निग्धस्य परमाणोरेकगुणस्निग्धेन द्विगुणस्निग्धेन त्रिगुणस्निग्धेन वा नास्ति बन्धः । चतुर्गुणस्निग्धेन पुनरस्ति बन्धः । तस्यैव पुनद्विगुणस्निग्धस्य पञ्चगुणसिनग्धेन षट् सप्ताष्टसंख्येयानन्तगणस्निग्धेन वा बन्धो नास्ति। एवं त्रिगुणस्निग्धस्य पञ्चगणस्निग्धन बन्धोऽस्ति । शेषः पूर्वोत्तरं भवति। चतुर्गुणस्निग्धस्य षड्गुणस्निग्धेनास्ति बन्धः। शेषैः पूर्वोत्तर
8594. तुल्य जातिवालोंका ज्ञान करानेके लिए सदृश पदका ग्रहण किया है । तुल्य शक्त्यंशोंका ज्ञान करानेके लिए 'गुणसाम्य' पदका ग्रहण किया है । तात्पर्य यह है कि दो स्निग्ध शक्त्यंशवालोंका दो रूक्ष शक्त्यंशवालोंके साथ, तीन स्निग्ध शक्त्यंवालोंका तीन रूक्ष शक्त्यंशवालोंके साथ, दो स्निग्ध शक्त्यंशवालोंका दो स्निग्ध शक्त्यंशवालोंके साथ. दो रूक्ष शक्त्यशवालोंका दो रूक्ष शक्त्यंशवालोंके साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए। शंका-यदि ऐसा है तो सूत्रमें 'सदृश' पद किसलिए ग्रहण किया है ? समाधान--शक्त्यंशोंकी असमानताके रहते हुए बन्ध होता है इसका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें सदृश पद ग्रहण किया है।
8595. इस पूर्वोक्त कथनसे समानजातीय या असमानजातीय विषम शक्त्यंशवालोंका अनियमसे बन्ध प्राप्त हुआ, अतः इष्ट अर्थका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
दो अधिक आदि शक्त्यंशवालोंका तो बन्ध होता है ॥360
8596. जिसमें दो शक्त्यंश अधिक हों उसे द्वयधिक कहते हैं । शंका-वह द्वयधिक कौन हुआ ? समाधान—चार शक्त्यंशवाला । सूत्रमें आदि शब्द प्रकारवाची है। शंका-वह प्रकार रूप अर्थ क्या है ? समाधानद्वयधिकपना । इससे पाँच शक्त्यंश आदिका ज्ञान नहीं होता। तथा इससे यह भी तात्पर्य निकल आता है कि समानजातीय या असमानजातीय दो अधिक आदि शक्त्यंशवालोंका बन्ध होता है दूसरोंका नहीं। जैसे दो स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणका एक स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणु के साथ, दो स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणु के साथ और तीन स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। हाँ, चार स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणुके साथ अवश्य बन्ध होता है । तथा उसी दो स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणुका पाँच स्निग्ध शक्त्यंवाले परमाणु के साथ, इसी प्रकार छह, सात, आठ,संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्निग्ध शक्त्यंश वाले परमाणुके साथ बन्ध नहीं होता । इसी प्रकार तीन स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणुका पाँच स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणु के साथ बन्ध होता है। किन्तु आगे-पीछेके शेष स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणुके साथ बन्ध नहीं होता । चार स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणुका छह स्निग्ध शक्त्यंश वाले 1. --सक्तो विशिष्टा मु. ।
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-5137 § 598]
1235
र्नास्ति । एवं शेषेष्वपि योज्यः । तथा द्विगुणरूक्षस्य एकद्वित्रिगुणरूक्षैर्नास्ति बन्धः । चतुर्गुणरूक्षेण त्वस्ति बन्धः । तस्यैव द्विगुणरूक्षस्य पञ्चगुणरूक्षादिभिरुत्तरंर्नास्ति बन्धः । एवं त्रिगुणरूक्षादीनामपि द्विगुणाधिकैर्बन्धो योज्यः । एवं भिन्नजातीयेष्वपि योज्यः । उक्तं च
पंचमोऽध्यायः
“णिद्धस्स णिद्धेण दुराधिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराधिएण । गिद्धस्स लुक्खेण हवेइ बंधो जहण्णवज्जो विसमे समे वा । "
'तु' शब्दो विशेषणार्थः । प्रतिषेधं व्यावर्तयति बन्धं च विशेषयति । 8597. किमर्थमधिकगुणविषयो बन्धो व्याख्यातो न समगुणविषय इत्यत आहबन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ॥37॥
8598. अधिकाराद् 'गुण' शब्द : संबध्यते । अधिकगुणावधिकाविति । भावान्तरापादनं पारिणामिकत्वं क्लिन्नगुडवत् । यथा क्लिन्नो गुडोऽधिकमधुररसः परीतानां रेण्वादीनां स्वगुणा'पादनात् पारिणामिकः । तथान्योऽप्यधिकगुणः अल्पीयसः पारिणामिक इति कृत्वा द्विगुणादिस्तिग्धरूक्षस्य चतुर्गुणादिस्निग्धरूक्षः पारिणामिको भवति । ततः पूर्वावस्थाप्रच्यवनपूर्वकं तार्तोयिकमवस्थान्तरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते । इतरथा हि शुक्ल कृष्णतन्तुवत् संयोगे सत्यप्यपारिणामि
परमाणु के साथ बन्ध होता है किन्तु आगे पीछेके शेष स्निग्ध शक्त्यंशवाले परमाणुके साथ बन्ध नहीं होता । इसी प्रकार यह क्रम आगे भी जानना चाहिए। तथा दो रूक्ष शक्त्यंशवाले परमाणुका एक, दो और तीन रूक्ष शक्त्यंशवाले परमाणुके साथ बन्ध नहीं होता । हाँ, चार रूक्ष शक्त्यंश वाले परमाणु के साथ अवश्य बन्ध होता है। उसी दो रूक्ष शक्त्यंशवाले परमाणुका आगे के पाँच आदि रूक्ष शक्त्यंशवाले परमाणुओंके साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार तीन आदि रूक्ष शक्त्यंशवाले परमाणुओंका भी दो अधिक शक्त्यंशवाले परमाणुओंके साथ बन्ध जान लेना चाहिए । समान जातीय परमाणुओंमें बन्धकां जो क्रम बतलाया है विजातीय परमाणुओं में भी बन्धका वही क्रम जानना चाहिए। कहा भी है- 'स्निग्धका दो अधिक शक्त्यंशवाले स्निग्धके साथ बन्ध होता है । रूक्षका दो अधिक शक्त्यंशवाले रूक्षके साथ बन्ध होता है । तथा स्निग्धका रूक्षके साथ इसी नियमसे बन्ध होता है । किन्तु जघन्य शक्त्यंशवालेका बन्ध सर्वथा वर्जनीय है ।' सूत्रमें 'तु' पद विशेषणपरक है जिससे बन्धके प्रतिषेधका निवारण और बन्धका विधान होता है ।
8 597. अधिक गुणवालेके साथ बन्ध होता है ऐसा क्यों कहा, समगुणवालेके साथ बन्ध होता है ऐसा क्यों नहीं कहा ? अब इसी बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
बन्ध होते समय दो अधिक गुणवाला परिणमन करानेवाला होता है ॥37॥
8 598. 'गुण' शब्दका अधिकार चला आ रहा है, इसलिए इस सूत्र में उनका सम्बन्ध होता है, जिससे 'अधिक' पदसे 'अधिकगुणौ' अर्थका ग्रहण हो जाता है। गीले गुडके समान एक अवस्थासे दूसरी अवस्थाको प्राप्त कराना पारिमाणिक कहलाता है। जैसे अधिक मीठे रसवाला गीला गुड उस पर पड़ी हुई धूलिको अपने गुणरूपसे परिणमानेके कारण पारिणामिक होता है उसी प्रकार अधिक गुणवाला अन्य भी अल्प गुणवालेका पारिणामिक होता है । इस व्यवस्थाके अनुसार दो शक्त्यंश आदि वाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणुका चार शक्त्यंश आदि वाला स्निग्ध या रूक्ष परमाणु पारिणामिक होता है । इससे पूर्व अवस्थाओंका त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है । अतः उनमें एकरूपता आ जाती है । अन्यथा सफेद और काले तन्तुके समान संयोगके होनेसे भी पारिणामिक न होनेसे सब अलग-अलग ही स्थित 1. गुणोत्पाद- मु. दि. 2 ता.
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236] सर्वार्थसिदौ
[5137 $ 598 कत्वात्सर्व विविक्तरूपेणवावतिष्ठेत । उक्तेन विधिना बन्धे पुनः सति ज्ञानावरणादीनां कर्मणां त्रित्सागरोपमकोटीकोटचादिस्थितिरुपपन्न भवति । रहेगा। परन्तु उक्त विधिसे बन्धके होनेपर ज्ञानावरणादि कर्मोंकी तीस कोडाकोडी सागरोपम आदि स्थिति बन जाती है।
'विशेषार्थ-यहाँ एक परमाणु आदिका अन्य परमाणु आदिके साथ बन्ध कैसे होता है इसका विचार किया गया है । रूक्ष और स्निग्ध ये विरोधी गुण हैं। जिसमें स्निग्ध गुण होता है उसमें रूक्षगुण नहीं होता और जिसमें रूक्ष गुण होता है उसमें स्निग्ध गुण नहीं होता। ये गुण ही बन्धके कारण होते हैं । किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि रूक्ष और स्निग्ध गुणका सद्भावमात्र बन्धका कारण है, क्योंकि ऐसा माननेपर एक भी पुद्गल परमाणु बन्ध के विना नहीं रह सकता, इसलिए यहाँपर विधिनिषेध-द्वारा बतलाया गया है कि किन पुदगल परमाणुओं आदिका परस्परमें बन्ध होता है और किनका नहीं होता है। जो स्निग्ध और रूक्ष गुण जघन्य शक्त्यंश लिये हुए होते हैं उन पुद्गल-पाणुओंका वन्ध नहीं होता। इसी प्रकार गुणकी समानताके होनेपर सदशोंका भी बंध नहीं होता किन्तु द्वयधिक गुणवाले पुद्गलपरमाणु आदिका ही द्वियहीन गुणवाले पुद्गलपरमाणुआदि के साथ वध होता है । ऐसा बन्ध स्निग्ध गुणवालेका स्निग्ध गुणवालेके सांथ, रूक्ष गुणवालेका रूक्ष गुणवाले के साथ और स्निग्ध गुणवालेका रूक्ष गुण वालेके साथ होता है यह नियम है । इसके अनुसार यह व्यवस्था फलित होती है
क्रमांक
गुणांश
सदृशबन्ध
| विसदृशवन्ध
नहीं
नहीं
जघन्य+जघन्य जघन्य एकादि अधिक जघन्येतर+समजघन्येतर जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर ।
जघन्येतर+द्वयधिक जघन्येतर 6 । जघन्येतर+त्र्यादिअधिकजघन्येतर
नहीं नहीं नहीं नहीं
नहीं
नहीं
तत्त्वार्थसूत्रमें निर्दिष्ट यह बन्ध-व्यवस्था प्रवचनसारका अनुसरण करती है । प्रवचनसार में भी इसी प्रकारसे बन्ध व्यवस्थाका निर्देश किया गया है, किन्तु षट्खण्डागमके वर्गणाखण्डमें कही गयी बन्ध व्यवस्था इससे कुछ भिन्न है जिसका ठीक तरहसे परिज्ञान होनेके लिए आगे कोष्ठक दिया जाता है
क्रमांक
गुणांश
सदृशबन्ध
विसदृशबन्ध
नहीं
जघन्य+जघन्य जघन्य+एकादिअधिक जघन्येतर+समजघन्येतर जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर |
जघन्येतर+यधिक जघन्येतर 6 | जघन्येतर+यादि अधिकजघन्येतर
नहीं नहीं नहीं नहीं
low ares
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[237
-51388 600]
पंचमोऽध्यायः $ 599. 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति द्रव्यलक्षणमुक्तं पुनरपरेण प्रकारेण द्रग्यलक्षणप्रतिपादनार्थमाह---
गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ॥38॥ 8600. गुणाश्च पर्ययाश्च गुणपर्ययाः । तेऽस्य सन्तीति गुणपर्ययवद् द्रव्यम् । अत्र मतोरुस्पत्तावुक्त. एव समाधिः, कथंचिद् भेदोपपतैरिति । के गुणाः के पर्यायाः ? अन्वयिनो गुणा व्यतिरेकिणः पर्यायाः । उभयरुपेतं द्रव्यमिति । उक्तं च
"गुण इदि दव्वविहाणं दव्वविकारो हि पज्जवो भणिदो।
तेहि अणूणं दव्वं अजुदपसिद्ध हवे णिच्चं ॥” इति एतदुक्तं भवति, द्रव्यं द्रव्यान्तराद् येन विशिष्यते स गुणः। तेन हि तद् द्रव्यं विधीयते । असति तस्मिन् द्रव्यसंकरप्रसङ्गः स्यात् । तद्यथा--जीवः पुद्गलादिभ्यो ज्ञानादिभिर्गुणविशिष्यते, पुद्गलादयश्च रूपादिभिः । ततश्चाविशेषे संकरः स्यात् । ततः सामान्यापेक्षया अन्वयिनो ज्ञानादयो जीवस्य गुणाः पुद्गलादीनां च रूपादयः। तेषां विकारा विशेषात्मना भिद्यमानाः पर्यायाः। घटज्ञानं पटज्ञानं क्रोधो मानो गन्धो वर्णस्तोत्रो मन्द इत्येवमादयः। तेभ्योऽन्यत्वं कथंचिदापद्यमानः समुदायो द्रव्यव्यपदेशभाक् । यदि हि सर्वथा समुदायोऽनर्थान्तरभूत एव स्यात् सर्वाभावः स्यात् । तद्यथा-परस्परविलक्षणानां समुदाये सति एकानान्तरभावात् समुदायस्य सर्वाभावः
8599. 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इस प्रकार द्रव्यका लक्षण कहा किन्तु अब अन्य प्रकारसे द्रव्यके लक्षणका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
गुण और पर्यायवाला द्रव्य है ॥38॥
8600. जिसमें गुण और पर्याय दोनों हैं वह गुण-पर्यायवाला कहलाता है और वही द्रव्य है। यहाँ 'मतूप' प्रत्ययका प्रयोग कैसे बनता है इस विषय में पहले समाधान कर आये हैं। तात्पर्य यह है कि द्रव्यका गुण और पर्यायोंसे कथंचित् भेद है इसलिए यहाँ 'मतुप्' प्रत्ययका प्रयोग बन जाता है । शंका-गुण किन्हें कहते हैं और पर्याय किन्हें कहते हैं ? समाधान-गुण अन्वयी होते हैं और पर्याय व्यतिरेकी । तथा इन दोनोंसे युक्त द्रव्य होता है। कहा भी है-'द्रव्य में भेद करनेवाले धर्मको गुण और द्रव्यके विकारको पर्याय कहते हैं। द्रव्य इन दोनोंसे युक्त होता है । तथा वह अयुतसिद्ध और नित्य होता है।' तात्पर्य यह है कि जिससे एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे जुदा होता है वह गुण है । इसी गुणके द्वारा उस द्रव्यका अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि भेदक गुण न हो तो द्रव्योंमें सांकर्य हो जाय । खुलासा इस प्रकार है
जीव द्रव्य पुद्गलादिक द्रव्योंसे ज्ञानादि गुणोंके द्वारा भेदको प्राप्त होता है और पुद्गलादिक द्रव्य भी अपने रूपादि गुणोंके द्वारा भेदको प्राप्त होते हैं। यदि ज्ञानादि गुणोंके कारण विशेषता न मानी जाय तो सांकर्य प्राप्त होता है। इसलिए सामान्यकी अपेक्षा जो अन्वयी ज्ञानादि हैं वे जीवके गुण हैं और रूपादिक पुद्गलादिकके गुण हैं। तथा इनके विकार विशेष रूपसे भेदको प्राप्त होते हैं इसलिए वे पर्याय कहलाते हैं। जैसे घटज्ञान, पटज्ञान, क्रोध, मान, गन्ध, वर्ण, तीव्र और मन्द आदिक । तथा जो इनसे कथंचित् भिन्न है और समुदाय रूप है वह द्रव्य कहलाता है। यदि समुदायको सर्वथा अभिन्न मान लिया जाय तो सबका अभाव प्राप्त प्रसंगात् । तद्य-ता., ना. ।
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238]
सर्वार्थसिद्धी
[$139 § 601परस्परतोऽर्थान्तरभूतत्वात् । यदिदं रूपं तस्मादर्थान्तरभूता रसादयः । ततः समुदायोऽनर्थान्तरभूतः । यश्च रसादिम्योऽर्थान्तरभूताद्रूपादनर्थान्तरभूतः समुदायः स कथं रसादिम्योऽयन्तरभूतो न भवेत् । ततश्च रूपमात्रं समुदायः प्रसक्तः । न चैकं रूपं समुदायो भवितुमर्हति । ततः समुदायाभावः । समुदायाभावाच्च तदनर्थान्तरभूतानां समुदायिनामप्यभाव इति सर्वाभावः । एवं रसादिsafe योज्यम् । तस्मात्समुदायमिच्छता कथंचिदर्थान्तरभाव एषितव्यः ।
§ 601. उक्तानां द्रव्याणां लक्षणनिर्देशात्तद्विषय एव द्रव्याध्यवसाये प्रसक्ते अनुक्तद्रव्यसंसूचनार्थमाह
कालश्च ॥39॥
1
होता है । खुलासा इस प्रकार है- परस्पर विलक्षण धर्मोंका समुदाय होनेपर यदि उसे एक और अभिन्न माना जाय तो समुदायका और सबका अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि वे धर्म परस्पर भिन्न हैं । जो यह रूप है उससे रसादिक भिन्न हैं । अब यदि इनका समुदाय अभिन्न माना जाता है तो रसादिकसे भिन्न जो रूप है और उससे अभिन्न जो समुदाय है वह रसादिकसे भिन्न कैसे नहीं होगा अर्थात् अवश्य होगा । और इस प्रकार समुदाय रूपमात्र प्राप्त होता है । परन्तु एक रूप गुण समुदाय हो नहीं सकता इसलिए समुदायका अभाव प्राप्त होता है और समुदायका अभाव हो जानेसे उससे अभिन्न समुदायियों का भी अभाव होता है । इस प्रकार समुदाय और समुदाय सबका अभाव हो जाता है । जिस प्रकार रूप की अपेक्षा कथन किया उसी प्रकार सादिककी अपेक्षा भी कथन करना चाहिए। इसलिए यदि समुदाय स्वीकार किया जाता है तो वह कथंचित् अभिन्न ही मानना चाहिए ।
विशेषार्थ –— पहले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त द्रव्य होता है यह कह आये हैं । यहाँ प्रकारान्तरसे द्रव्यका लक्षण कहा गया है । इसमें द्रव्यको गुणपर्यायवाला बतलाया गया है। बात यह कि प्रत्येक द्रव्य अनन्त गुणोंका और क्रमसे होनेवाली उनकी पर्यायोंका पिण्डमात्र हैं । सर्वत्र गुणोंको अन्वयी और पर्यायोंको व्यतिरेकी बतलाया गया है। इसका अर्थ यह है कि जिनसे धारा में एकरूपता बनी रहती है वे गुण कहलाते हैं और जिनसे उसमें भेद प्रतीत होता है वे पर्याय कहलाते हैं । जीवमें ज्ञानादिककी धाराका, पुद्गलमें रूप रसादिको धाराका, धर्मद्रव्यमें गतिहेतुत्वकी धाराका, अधर्मद्रव्यमें स्थितिहेतुत्वकी धाराका, आकाशमें अवगाहन हेतुत्वकी धारा का और काल द्रव्यमें वर्तनाका कभी विच्छेद नहीं होता, इसलिए वे ज्ञानादिक उस उस द्रव्यके गुण हैं किन्तु वे गुण सदाकाल एकरूप नहीं रहते। जो नित्य द्रव्योंके गुण हैं उन्हें यदि छोड़ भी दिया जाय तो भी जीव और पुद्गलोंके गुणोंमें प्रतिसमय स्पष्टतया परिणाम लक्षित होता है । उदाहरणार्थ - जीवका ज्ञानगुण संसार अवस्थामें कभी मतिज्ञानरूप होता है और कभी श्रुतज्ञान रूप । इसीलिए ये मतिज्ञानादि ज्ञानगुणकी पर्याय हैं । इसी प्रकार अन्य गुणोंमें भी जान लेना चाहिए । द्रव्य सदा इन गुणरूप पर्यायों में रहता है, इसलिए वह गुणपर्यायवाला कहा गया है । फिर भी गुण और पर्यायको द्रव्यसे सर्वथा भिन्न न जानना चाहिए। वे दोनों मिलकर द्रव्यकी आत्मा हैं । इसका अभिप्राय यह है कि गुण और पर्यायको छोड़कर द्रव्य कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं । § 601. पूर्वोक्त द्रव्योंके लक्षणका निर्देश करनेसे यह प्राप्त हुआ कि जो उस लक्षणका विषय है - वही द्रव्य हैं, अतः अभी तक जिस द्रव्यका कथन नहीं किया उसकी सूचना करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
काल भी द्रव्य है ॥39॥
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-5139 6 602] पंचमोऽध्यायः
[239 8602. किम् ? 'द्रव्यम्' इति वाक्यशेषः । कतः ? तल्लक्षणोपेतत्वात् । द्विविधं लक्षणमुक्तम्--'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इति च । तदुभयं लक्षणं कालस्य विद्यते । तद्यथा-ध्रौव्यं तावत्कालस्य स्वप्रत्ययं स्वभावव्यवस्थानात् । व्ययोदयौ परप्रत्ययौ, अगुरुलघुगुणवृद्धिहान्यपेक्षया स्वप्रत्ययौ च । तथा गुणा अपि कालस्य साधारणासाधारणरूपाः सन्ति । तत्रासाधारणो वर्तनाहेतुत्वम्, साधारणाश्चाचेतनत्वामूर्तत्वसूक्ष्मत्वागुरुलगुत्वादयः । पर्याथाश्च व्ययोत्पादलक्षणा योज्याः । तस्माद् द्विप्रकारलक्षणोपेतत्वादाकाशादिवत्कालस्य द्रव्यत्वं सिद्धम् । तस्यास्तित्वलिंग धर्मादिवद् व्याख्यातम् 'वर्तनालक्षणः कालः' इति । ननु किमर्थमयं कालः पृथगुच्यते । यत्रैव धर्मादय उक्तास्तत्रैवायमपि वक्तव्यः 'अजीयकाया धर्माधर्माकाशकालपुद्गलाः' इति । नवं शङ्क्यम् । तत्रोद्देशे सति कायत्वमस्य स्यात् । नेष्यते च मुख्योपचारप्रदेशप्रचयकल्पनाभावात् । धर्मादीनां तावन्मुख्यप्रदेशप्रय उक्तः 'असंख्येयाः प्रदेशाः' इत्येवमादिना । अणोरप्येकप्रदेशस्य पूर्वोत्तरभाव प्रज्ञापननयापेक्षयोपचारकल्पनया प्रदेशप्रचय उक्तः । कालस्य
नर्देधापि प्रदेशप्रचयकल्पना नास्तीत्यकायत्वम । अपि च तत्र पाठे निष्क्रियाणि च इत्यत्र धर्मादीनामाकाशान्तानां निष्क्रियत्वे प्रतिपादिते इतरेषां जीवपुद्गलानां सक्रियत्वप्राप्तिवत्कालस्यापि सक्रियत्वं स्यात । अथाकाशात्प्राक्काल उहिश्येत । तन्न; 'आ आकाशादेकद्रव्याणि' इत्येकद्रव्य
8602. शंका-क्या है ? समाधान-'द्रव्य है' इतना वाक्य शेष है। शंका-काल द्रव्य क्यों है ? समाधान-क्योंकि इसमें द्रव्यका लक्षण पाया जाता है। जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से यूक्त है वह सत् है तथा जो गुण और पयायवाला है वह द्रव्य है। इस प्रकार द्रव्यका दो प्रकारसे लक्षण कहा है। वे दोनों ही लक्षण कालमें पाये जाते हैं । खुलासा इस प्रकार है-कालमें ध्रुवता स्वनिमित्तक है, क्योंकि उससे अपने स्वभाव की व्यवस्था होती है । व्यय और उत्पाद परनिमित्तक हैं, और अगुरुलघु गुणोंकी हानि और वृद्धिकी अपेक्षा स्वनिमित्तक भी हैं। तथा कालके साधारण और असाधारण रूप दो प्रकारके गुण भी हैं। उनमें से असाधारण गुण वर्तनाहेतुत्व है और साधारण गुण अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व और अगुरुलघुत्व आदिक हैं। इसी प्रकार व्यय और उत्पादरूप पर्याय भी घटित कर लेना चाहिए। इसलिए कालमें जब द्रव्यके दोनों लक्षण पाये जाते हैं तो वह आकाशादिके समान स्वतन्त्र द्रव्य है यह सिद्ध होता है। धर्मादिक द्रव्यके समान इसके अस्तित्वके कारण का व्याख्यान किया ही है कि 'कालका लक्षण वर्तना है।' शंका-काल द्रव्यको अलगसे क्यों कहा? जहाँ धर्मादिक द्रव्योंका कथन किया है वहीं पर इसका कथन करना था, जिससे प्रथम सूत्रका रूप यही होता--'अजीवकाया धर्माधर्माकाशकालपुद्गलाः' समाधान—इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ पर यदि इसका कथन करते तो इसे कायपना प्राप्त होता । परन्तु काल द्रव्य कायवान् नहीं कहा है, क्योंकि इसमें मुख्य और उपचार दोनों प्रकारसे प्रदेशप्रचयकी कल्पनाका अभाव है। धर्मादिक द्रव्योंका तो 'असंख्येयाः प्रदेशाः' इत्यादिक सूत्रों द्वारा मुख्यरूपसे प्रदेशप्रचय कहा है। उसी प्रकार एक प्रदेशवाले अणुका भी पूर्वोत्तरभाव प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उपचारकल्पनासे प्रदेशप्रचय कहा है, परन्तु कालके दोनों प्रकारसे प्रदेशप्रचयकी कल्पना नहीं बनती, इसलिए वह अकाय है। दूसरे, यदि प्रथम सूत्र में कालका पाठ रखते हैं तो 'निष्क्रियाणि च' इस सूत्रमें धर्मसे लेकर आकाश तक के द्रव्योंको निष्क्रिय कहनेपर जैसे जीव और पुदगलोंको सक्रियत्व प्राप्त होता है वैसे ही काल द्रव्यको भी सक्रियत्व प्राप्त होता । शंका-इस.दोषको दूर करनेके लिए आकाशसे पहले कालको रख दिया जाय ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि 'आकाश तक एक द्रव्य है' इस सूत्र वचनके 1. इति । किमर्थ- मु.। 2. -तरप्रशा- मु.। 3. -पुद्गलादीनां मु.। 4. -श्यते । आ आका- आ., दि. 1
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2401 सर्वार्थसिद्धी
[5139 8602त्वमस्य स्यात् । तस्मात्पृथगिह कालोद्देशः क्रियते । अनेकद्रव्यत्वे सति किमस्य प्रमाणम् । लोकाकाशस्य यावन्तः प्रदेशास्तावन्तः कालाणवो निष्क्रियाः। एककाकाशप्रदेशे एककवृत्त्या लोकं व्याप्य व्यवस्थिताः। उक्तं च--
"लोगागासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्कक्का।
रयणाण रासीविव ते कालाणू मुणेयव्वा ॥" रूपादिगुणविरहादमूर्ताः। अनुसार यदि कालको आकाशके पहले रखते हैं तो उसे एक द्रव्यत्व प्राप्त होता है। ये सब दोष न रहें, इसलिए कालका अलगसे कथन किया है। शंका--काल अनेक द्रव्य हैं इसमें क्या प्रमाण है ? समाधान-लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं उतने कालाणु हैं और वे निष्क्रिय हैं। तात्पर्य यह है कि लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर एक-एक कालाणु अवस्थित है। कहा भी है'लोकाकाशके एक-एक प्रदेश पर जो रत्नोंकी राशिके समान अवस्थित हैं उन्हें कालाणु जानो।' ये कालाणु रूपादि गुणोंसे रहित होनेके कारण अमूर्त हैं।
विशेषार्थ---पहले पाँच द्रव्योंके अस्तित्वकी चर्चा कर आये हैं । यहाँ छठा द्रव्य काल है इसका विचार किया जा रहा है। काल द्रव्य है या नहीं इस विषयमें श्वेताम्बर परम्परामें दो मत मिलते हैं। एक मत तो कालको द्रव्यरूपसे स्वीकार करता है और दूसरा मत कालको स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता । इस दूसरे मतके अनुसार सूर्यादिके निमित्तसे जो दिन-रात, घड़ीघण्टा, पल-विपल आदि रूप काल अनुभवमें आता है वह सब पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है। किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि इन जीव पुद्गल आदि द्रव्योंका परिणमन किसके निमित्तसे होता है ? यदि कहा जाय कि उत्पन्न होना, व्यय होना और ध्रुव रहना यह प्रत्येक द्रव्यका स्वभाव है। इसके लिए अन्य निमित्तके माननेकी क्या आवश्यकता ? तो इस प्रश्नपर यह तर्क होता है कि यदि इस तरह सर्वथा स्वभावसे ही प्रत्येक द्रव्यका परिणमन माना जाता है तो गति. स्थिति और अवगाहको भी सर्वथा स्वभावसे मान लेने में क्या आपत्ति है। और ऐसी हालतमें केवल जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ही अवशिष्ट रहते हैं, शेष द्रव्योंका अभाव प्राप्त होता है, इतना ही क्यों, जीव और पुद्गलका तथा पुद्गल और पुद्गलका बन्ध भी सर्वथा स्वाभाविक मानना पड़ता है। निमित्त-नैमित्तिक भावके माननेकी कोई आवश्यकता ही नहीं रहती और ऐसी अवस्थामें मुक्त जीव भी स्वभावसे बँधने लगेगा तथा संसारी जीव भी बिना प्रयत्नके कभी भी मुक्त हो जायगा। यदि कहा जाय कि गति, स्थिति आदि कार्य हैं और जितने भी कार्य होते हैं वे निमित्त और उपादान इन दो के मिलने पर ही होते हैं, इसलिए गति, स्थिति और अवगाहनरूप कार्योंके निमित्तरूपसे धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यका अस्तित्व स्वीकार किया जाता है तो प्रत्येक द्रव्यके परिणमनरूपसे काल द्रव्यके अस्तित्वके स्वीकार करने में क्या हानि है अर्थात् कुछ भी नहीं। इस प्रकार विचार करनेपर काल द्रव्यका अस्तित्व सिद्ध होता है।
फिर भी यह काल द्रव्य जीव आदि अन्य द्रव्योंके समान न तो असंख्यातप्रदेशी है और न अनन्तप्रदेशी है किन्तु लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं उतने काल द्रव्य हैं और प्रत्येक कालद्रव्य लोकाकाशके एक-एक प्रदेश पर अवस्थित है । खुलासा इस प्रकार है- .
चप दो प्रकारका है—तिर्यक्प्रचय और ऊर्ध्वप्रचय । प्रदेशोंके प्रचयको तिर्यक्प्रचय कहते हैं और नानिमित्तक पर्यायप्रचयको ऊर्ध्वप्रचय कहते हैं । आकाश अवस्थित अनन्तप्रदेशवाला होनेरो, ध और अधर्म अवस्थित असंख्यात प्रदेशवाला होनेसे, जीव असंख्यात प्रदेशवाला होनेसे
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-51408604] पंचमोऽध्यायः
[241 8603. वर्तनालक्षणस्य मुख्यस्य कालस्य प्रमाणमुक्तम् । परिणामादिगम्यस्य व्यवहारकालस्य किं प्रमाणमित्यत इदमुच्यते
सोऽनन्तसमयः ॥4॥ 8604. साम्प्रतिकस्यैकसमयिकत्वेऽपि अतीता अनागताश्च समया अनन्ता इति कृत्वा 'अनन्तसमयः' इत्युच्यते । अथवा मुख्यस्यैव कालस्य प्रमाणावधारणार्थमिदमुच्यते। अनन्तपर्यायऔर पुद्गल बन्धकी अपेक्षा अनेक प्रदेशरूप शक्तिसे युक्त होनेके कारण इनका प्रदेशप्रचय बन जाता है, किन्तु कालद्रव्य शक्ति और व्यक्ति दोनों रूपसे एक प्रदेशरूप होनेके कारण उसमें पदेशप्रचय नहीं बनता । ऊर्ध्वप्रचय सब द्रव्योंका होता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि अन्य पाँच द्रव्योंमें समयनिमित्तक पर्यायप्रचयरूप ऊर्ध्वप्रचय होता है और कालद्रव्यमें मात्र समयप्रचय रूप ऊर्ध्वप्रचय होता है, क्योंकि अन्य द्रव्योंके परिणमनमें काल द्रव्य निमित्त है और काल द्रव्यके अपने परिणमनमें अन्य कोई निमित्त नहीं है। वही उपादान है। जिस प्रकार वह अन्य द्रव्योंके परिणमनमें निमित्त होता है उसी प्रकार अपने परिणमनमें भी निमित्त होता है । जिस प्रकार अन्य द्रव्य अपने-अपने उपादानके अनुसार परिणमन करते हैं उसी प्रकार काल द्रव्य भी अपने उपादान के अनुसार परिणमन करता है।
इस प्रकार यद्यपि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूपसे तथा गुण और पर्यायरूपसे काल द्रव्यके अस्तित्वकी सिद्धि हो जाती है पर वह अखण्ड एकप्रदेशी है यह सिद्ध नहीं होता, इसलिए आगे इसी बातका विचार करते हैं
एक पुद्गल परमाणु मन्दगतिसे एक आकाश प्रदेशसे दूसरे आकाश प्रदेश पर जाता है और इसमें कुछ समय भी लगता है। यदि विचार कर देखा जाय तो ज्ञात होगा कि यह समय ही काल द्रव्यकी पर्याय है जो कि अतिसूक्ष्म होनेसे निरंश है । यदि कालद्रव्यको लोकाकाशके बराबर अखण्ड और एक माना जाता है तो इस अखण्ड समय पर्यायकी निष्पत्ति नहीं होती, क्योंकि पुद्गल परमाणु जब एक कालाणको छोड़कर दूसरे कालाणुके प्रति गमन करता है तब वहाँ दोनों कालाणु पृथक्-पृथक् होनेसे समयका भेद बन जाता है। और यदि एक अखण्ड लोकके बराबर कालद्रव्य होवे तो समय पर्यायकी सिद्धि किस तरह हो सकती है ? यदि कहा जाय कि कालद्रव्य लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है, उसके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशके प्रति जानेपर समय पर्यायको सिद्धि हो जायगी तो इसका समाधान यह है कि ऐसा मानने पर एक अखण्डद्रव्यके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशपर जाने पर समय पर्यायका भेद नहीं बनता। इसलिए समय पर्यायमें भेद सिद्ध करनेके लिए काल द्रव्यको अणरूपमें स्वीकार कर लिया गया है। इस प्रकार काल द्रव्य क्या है और वह एक प्रदेशी कैसे है इस बातका विचार किया।
8603. वर्तना लक्षणवाले मुख्य कालका प्रमाण कहा । परन्तु परिणाम आदिके द्वारा जानने योग्य व्यवहार कालका क्या प्रमाण है ? इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वह अनन्त समयवाला है।40॥
8604. यद्यपि वर्तमान काल एक समयवाला है तो भी अतीत और अनागत अनन्त समय हैं ऐसा मानकर कालको अनन्त समयवाला कहा है । अथवा मुख्य कालका निश्चय करनेके लिए यह सूत्र कहा है । तात्पर्य यह है कि अनन्त पर्यायें वर्तना गुणके निमित्तसे होती हैं, इस
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242]
सर्वार्थसिद्धौ
[5141 8605वर्तनाहेतुत्वादेकोऽपि कालाणुरनन्त इत्युपचर्यते । समयः पुनः परमनिरुद्धः कालांशस्तत्प्रचविशेष आवलिकादिरवगन्तव्यः। 8605. आह गुणपर्ययवद् द्रव्यमित्युक्तं तत्र के गुणा इत्यत्रोच्यते
__ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥1॥ $606. द्रव्यमाश्रयो येषां ते द्रव्याश्रयाः । निष्क्रान्ता गुणेभ्यो निर्गुणाः। एवमुभयलक्षणोपेता गुणा इति । 'निर्गुणाः' इति विशेषणं द्वचणुकादिनिवृत्त्यर्थम् । तान्यपि हि कारणभूतपरमाणुद्रव्याश्रयाणि गुणवन्ति तु तस्मात् 'निर्गुणाः' इति विशेषणात्तानि नित्तितानि भवन्ति। ननु पर्याया अपि घटसंस्थानादयो द्रव्याश्रया निर्गुणाश्च, तेषामपि गुणत्वं प्राप्नोति । 'द्रव्याश्रयाः' इति वचनात् 'नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते ये' ते गुणा इति विशेषात्पर्याया निवतिता भवन्ति। ते हि कादाचित्का इति।
लिए एक कालाणुको भी उपचारसे अनन्त कहा है। परन्तु समय अत्यन्त सूक्ष्म कालांश है और उसके समुदायकी आवलि आदि जानना चाहिए।
विशेषार्थ-समय शब्द द्रव्य और पर्याय दोनों अर्थों में व्यवहृत होता है । यहाँ पर्यायरूप अर्थ लिया गया है। इससे व्यवहार काल और निश्चय काल दोनों की सिद्धि होती है। एक-एक समयका समुच्चय होकर जो आवलि, पल आदि कालका व्यवहार होता है वह व्यवहारकाल है और यह समय-पर्याय बिना पर्यायीके नहीं हो सकती, इससे निश्चय कालका ज्ञान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
8605. 'गुण और पर्यायवाला द्रव्य है' यह पहले कह आये हैं । अब गुण क्या है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
जो निरन्तर द्रव्यमें रहते हैं और गुणरहित हैं वे गुण हैं ॥41॥
8606. जिनके रहनेका आश्रय द्रव्य है वे द्रव्याश्रय कहलाते हैं और जो गुणोंसे रहित हैं वे निर्गुण कहे जाते हैं। इस प्रकार इन दोनों लक्षणोंसे युक्त गुण होते हैं। सूत्रमें 'निर्गुणाः' यह विशेषण व्यणुक आदिके निराकरण करनेके लिए दिया है । वे भी अपने कारणभूत परमाणु द्रव्यके आश्रयसे रहते हैं और गुणवाले हैं, इसलिए 'निर्गुणाः' इस विशेषणसे उनका निषेध किया गया है । शंका-घटसंस्थान आदि जितनी पर्याय हैं वे सब द्रव्यके आश्रयसे रहती हैं और निर्गुण होती हैं अतः गुणके उक्त लक्षणके अनुसार उन्हें भी गुणत्व प्राप्त होता है ? समाधानसूत्र में जो 'द्रव्याश्रयाः' विशेषण है उसका यह अभिप्राय है कि जो सदा द्रव्यके आश्रयसे रहते हैं वे गुण हैं । इस प्रकार ‘सदा' विशेषण लगानेसे पर्यायोंका निषेध हो जाता है अर्थात् गुणका लक्षण पर्यायोंमें नहीं जाता है; क्योंकि पर्याय कादाचित्क होती हैं।
विशेषार्थ---पहले गुण और पर्यायवाला द्रव्य है यह कह आये हैं । यहाँ गुणके स्वरूपका विचार किया गया है। जब कि द्रव्यको गुण और पर्यायवाला बतलाया है तब इसीसे स्पष्ट है कि गुण द्रव्यके आश्रयसे रहते हैं अर्थात द्रव्य आधार है और गण आधेय है। पर इससे आधार और आधेयमें दही और कुण्डके समान सर्वथा भेदपक्षका ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुण द्रव्यके आश्रयसे रहते हुए भी वे उससे कथंचित् अभिन्न हैं । जैसे-तैल तिलके सब अवयवोंमें व्याप्त होकर रहता है वैसे ही प्रत्येक गुण द्रव्यके सभी अवयवोंमें समान रूपसे व्याप्त होकर रहता है, पर इससे व्यणुक आदिमें भी यह लक्षण घटित हो जाता है क्योंकि द्वयणुक आदि भी 1. -निकृष्ट; कालां- दि. 1। 2. -र्तन्ते गुणा मु.। 3. विशेषणत्वात्पर्यायश्च निव. मु.।
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[243
-5142 $ 608]
पंचमोऽध्यायः $ 607. असकृत् 'परिणाम' शब्द उक्तः । तस्य कोऽर्थ इति प्रश्ने उत्तरमाह
तद्भावः परिणामः ॥42॥ $ 608. अपवा गुणा द्रव्यादर्यान्तरभूता इति केषांचिद्दर्शनं तनिक भवतोऽभिमतम् । न इत्याह यद्यपि कथंचिद् व्यपदेशादिभेदहेत्व'पेक्षया द्रव्यादन्ये, तथापि तवव्यतिरेकात्तत्परिणामाच्च नान्ये । यद्येवं स उच्यतां कः परिणाम इति । तन्निश्चयार्थमिदमुच्यते-धर्मादीनि द्रव्याणि येनात्मना भवन्ति स तद्भावस्तत्त्वं परिणाम इति आख्यायते । स द्विविधोनादिरादिमांश्च । तत्रानादिर्धर्मादीनां गत्युपग्रहादिः सामान्यापेक्षया । स एवादिमांश्च भवति विशेषापेक्षया इति।
इति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धिसंज्ञिकायां पंचमोऽध्यायः ।
अपने आधारभूत परमाणु द्रव्यके आश्रयसे रहते हैं । अतएव जो स्वयं विशेष रहित हों वे गुण हैं यह कहा है । ऐसा नियम है कि जैसे द्रव्यमें गुण पाये जाते हैं वैसे गुणमें अन्य गुण नहीं रहते। अतएव गुण स्वयं विशेष रहित रहते हैं, इस प्रकार यद्यपि जो द्रव्यके आश्रयसे रहते हैं और स्वयं विशेष रहित हैं वे गुण है, गुणका इतना लक्षण फलित हो जाता है पर यह पर्यायोंमें भी पाया हैं। क्योंकि वे भी द्रव्यके आश्रयसे रहती हैं और स्वयं विशेषरहित होती हैं । इसलिए इस अतिव्याप्ति दोषका निराकरण करनेके लिए जो द्रव्यके आश्रयसे रहते हैं इसका अर्थ-जो द्रव्यके आश्रयसे सदा रहते हैं, इतना समझना चाहिए । इस प्रकार गुणोंके स्वरूपका विचार किया। गुणका एक नाम विशेष भी है। जिनके निमित्तसे एक द्रव्य अन्य द्रव्यसे भेद को व्याप्त हों वे विशेष अर्थात् गुण हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ऐसे गुण प्रत्येक द्रव्यमें अनन्त होते हैं। उनमें कुछ सामान्य होते हैं और कुछ विशेष । जो एकाधिक द्रव्योंमें उपलब्ध होते हैं वे सामान्यगुण कहलाते हैं और जो प्रत्येक द्रव्यकी विशेषताको व्यक्त करते हैं वे विशेषगुण कहलाते हैं।
$607. परिणाम शब्दका अनेक बार उल्लेख किया; परन्तु उसका क्या तात्पर्य है ऐसा प्रश्न होनेपर अगले सूत्र द्वारा इसीका उत्तर देते हैं
उसका होना अर्थात प्रति समय बदलते रहना परिणाम है॥421
6 608. अथवा गुण द्रव्यसे अलग हैं यह किन्हींका मत है। वह क्या आपके (जैन) मतमें स्वीकार है ? नहीं, इसलिए कहते हैं कि संज्ञा आदिके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले भेदके कारण गुण द्रव्यसे कथंचित् भिन्न हैं तो भी वे द्रव्यसे भिन्न नहीं पाये जाते हैं और द्रव्यके परिणाम हैं इसलिए भिन्न नहीं भी हैं । यदि ऐसा है तो वह बात कहिए जिससे परिणामका स्वरूप ज्ञात हो । बस इसी बातका निश्चय करनेके लिए कहते हैं--धर्मादिक द्रव्य जिस रूपसे होते हैं वह तद्भाव या तत्त्व है और इसे ही परिणाम कहते हैं । वह दो प्रकारका है-अनादि और सादि । उनमें से धर्मादिक द्रव्यके जो गत्युपग्रहादिक होते हैं वे सामान्यकी अपेक्षा अनादि हैं और विशेषकी अपेक्षा सादि हैं।
. इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थवृत्तिमें पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ।
1. हेतुत्वापेक्ष- मु.।
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अथ षष्ठोध्यायः 8609. आह, अजीवपदार्थो व्याख्यातः । इदानीं तदनन्तरोद्देशभागास्रवपदार्थो व्याख्येय इति ततस्तत्प्रसिद्धयर्थमिदमुच्यते
कायवाल मनाकर्म योगः ॥ 8610, कायादयः शब्दा व्याख्याताः । कर्म क्रिया इत्यनान्तरम् । कायवाङ्मनसां कर्म कायवाङ्मनःकर्म योग इत्याल्यायते। आत्मप्रवेशपरिस्पन्दो योगः। स निमित्तभेदात्रिधा भिद्यते । काययोगो वाम्योगो मनोयोग इति । तद्यथा-वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे सति
औदारिकाविसप्तविधकायवर्गणान्यतमालम्बनापेक्ष आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः काययोगः। शरीरनामकर्मोक्यापावितवारवर्गणालम्बने सति वीर्यान्तरायमत्यक्षराचावरणक्षयोपशमापादिताम्यन्तर
लब्धिसांनिध्ये वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योगः। अभ्यन्तरवीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमात्मकमनोलम्धिसंनिषाने बाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने च सति मनःपरिमामाभिमुखस्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोगः । भयेऽपि त्रिविषवर्गणापेक्षः सयोगकेवलिन मात्मप्रवेशपरिस्पन्दो योगो वेवितव्यः।
8611. आह, अभ्युपेमः आहितविध्यक्रियो याग इति। प्रकृत इदाना निदिश्यतां
8609. जीव और अजीवका व्याख्यान किया। अब उसके बाद आस्रव पदार्थका व्याख्यान क्रम प्राप्त है । अतः उसे स्पष्ट करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
काय, वचन और मनकी क्रिया योग है ॥1॥
8610. काय आदि शब्दोंका व्याख्यान पहले कर आये हैं । कर्म और क्रिया ये एकार्थवाचो नाम हैं । काय, वचन और मनकी क्रियाको योग कहते हैं यह इसका तात्पर्य है । आत्माके प्रदेशोंका परिस्पन्द–हलन चलन योग है । वह निमित्तोंके भेदसे तीन प्रकारका है-काययोग, वचनयोग और मनोयोग । खुलासा इस प्रकार है-वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमके होनेपर औदारिक आदि सात प्रकारकी कायवर्गणाओंमें-से किसी एक प्रकारकी वर्गणाओंके आलम्बनसे होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्द काययोग कहलाता है। शरीर नामकर्मके उदयसे प्राप्त हई वचन-वर्गणाओंका आलम्बन होनेपर तथा वीर्यान्तराय और मत्यक्षरादि आवरणके क्षयोपशमसे प्राप्त हई भीतरी वचनलब्धिके मिलनेपर वचनरूप पर्यायके सन्मुख हुए आत्माके होनेवाला प्रदेश-परिस्पन्द वचनयोग कहलाता है। वीर्यान्तराय और नो-इन्द्रियावरणके क्षयोपशमरूप आन्तरिक मनोलब्धिके होनेपर तथा बाहरी निमित्तभूत मनोवर्गणाओंका आलम्बन मिलनेपर मनरूप पर्यायके सन्मुख हुए आत्माके होनेवाला प्रदेश-परिस्पन्द मनोयोग कहलाता है । वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्मके क्षय हो जानेपर भी सयोगकेवलीके जो तीन प्रकारकी वर्गणाओंकी अपेक्षा आत्मप्रदेश-परिस्पन्द होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिए।
8611. हम तो स्वीकार करते हैं कि तीन प्रकारकी क्रिया योग है । अब यह बतलाइए 1. अथाजीवप- म.। आह जीवाजीवप- ता., ना.। इत्यजीवप- दि. 2। 2. आत्मन: प्रदे- आ. दि. 1. दि. 2। 3. अभ्युपगत आदि- मु.।
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-613 § 615
किलक्षण आत्रव इत्युच्यते । योऽयं योगशब्दाभिधेयः संसारिणः पुरुषस्य -
स आस्रवः ॥2॥
षष्ठोऽध्यायः
8612. यथा सरस्सलिलावाहिद्वारं तदास्रवकारणत्वाद् आस्त्रव इत्याख्यायते तथा योगप्रणालिकया आत्मनः कर्म आस्रवतीति योग आस्रव इति व्यपदेशमर्हति ।
613. आह कर्मद्विविधं पुण्यं पापं चेति । तस्य किमविशेषेण योग आस्रवहेतुराहोस्विदस्तिकश्चित्प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते
[245
शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ||3||
$ 614. कः शुभो योगः को वा अशुभः । प्राणातिपातादत्तादानमैथुनादिरशुभः काययोगः । अनृतभाषणपरुषासभ्यवचनादिरशुभो वाग्योगः । वधचिन्तनेर्ष्यासूयादिरशुभो मनोयोगः । ततो विपरीतः शुभः । कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् । शुभपरिणामनिर्वृ त्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृतश्चाशुभः । न पुनः शुभाशुभकर्मकारणत्वेन । यद्येवमुच्यते शुभयोग एव न स्यात्, शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुत्वाभ्युपगमात् । पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् । तत्सद्वेद्यादि । पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम् । तदसद्वेद्यादि ।
$ 615. आह किमयमात्रवः सर्वसंसारिणां समानफलारम्भ हेतुराहोस्वित्कश्चिदस्ति प्रति
कि आस्रवका क्या लक्षण है ? संसारी जीवके जो यह योग शब्दका वाच्य कहा हैवही आस्रव है ॥2॥
8612. जिस प्रकार तालाब में जल लानेका दरवाजा जलके आनेका कारण होनेसे आस्रव कहलाता है उसी प्रकार आत्माके साथ बंधनेके लिए कर्म योगरूपी नालीके द्वारा आते हैं, इसलिए योग आस्रव संज्ञाको प्राप्त होता है ।
8613. कर्म दो प्रकारका है- पुण्य और पाप, इसलिए क्या योग सामान्यरूपसे उसके आस्रवका कारण है या कोई विशेषता है ? इसी बात के बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
शुभयोग पुण्यका और अशुभयोग पापका आस्रव है ||3||
8614. शंका-शुभ योग क्या है और अशुभ योग क्या है ? समाधान - हिंसा, चोरी, और मैथुन आदिक अशुभ काययोग है । असत्य वचन, कठोर वचन और असभ्य वचन आदि अशुभ वचनयोग हैं । मारनेका विचार, ईर्ष्या और डाह आदि अशुभ मनोयोग है। तथा इनसे. विपरीत शुभकाय योग, शुभ वचनयोग और शुभ मनोयोग है । शंका- योगके शुभ और अशुभ ये भेद किस कारण से हैं ? समाधान - जो योग शुभ परिणामोंके निमित्तसे होता है वह शुभ योग है और जो योग अशुभ परिणामोंके निमित्तसे होता है वह अशुभ योग है । शायद कोई यह माने कि शुभ और अशुभ कर्मका कारण होनेसे शुभ और अशुभ योग होता है सो बात नहीं है; क्योंकि यदि इस प्रकार इनका लक्षण कहा जाता है तो शुभयोग ही नहीं हो सकता, क्योंकि शुभयोगको भी ज्ञानावरणादि कर्मोंके बन्धका कारण माना है । इसलिए शुभ और अशुभ योगका जो लक्षण यहाँ पर किया है वही सही है । जो आत्माको पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है वह पुण्य है, जैसे सातावेदनीय आदि । तथा जो आत्माको शुभसे बचाता है वह पाप है; जैसे असातावेदनीय आदि ।
8615. क्या यह आस्रव सब संसारी जीवोंके समान फलको पैदा करता है या कोई 1. आस्रवणहेतु- मु., ता., ना. । 2. पापम् । असद्वे - मु. 3. संसारिसमा आ., ता., ना. संसारसमादि. 2 ।
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246] सर्वार्थसिद्धी
[6148 -616 विशेष इत्यत्रोच्यते
सकषायाकषाययोः सांपरायिकर्यापथयोः ॥4॥ 8616. स्वामिभेदादास्रवभेदः । स्वामिनी द्वौ सकषायोऽकषायश्चेति । कषायः क्रोधादिः। कषाय इव कषायः । कः उपमार्थः । यथा कवायो नयग्रोधादिः श्लेषहेतुस्तथा क्रोधादिरप्यात्मनः कर्मश्लेषहेतुत्वात् कषाय इव कषाय इत्युच्यते । सह कषायेण वर्तत इति सकषायः। न विद्यते कषायो यस्येत्यकषायः। सकषायश्चाकषायश्च सकषायाकषायो तयोः सकषायाकषाययो। संपरायः संसारः तत्प्रयोजनं कर्म सांपराधिकम् । ईरणमीर्या योगो गतिरित्यर्थः । तदारकं कर्म ईर्यापथम् । सांपरायिकं च ईर्यापथं च सांपरायिकर्यापथे। तयोः सांपरायिकर्यापथयोः । यथासंख्यमभिसंबन्धः सकषायस्यात्मनो मिथ्यादृष्टयादेः सांपरायिकस्य कर्मण आस्रवो भवति । अकषायस्य उपशान्तकषायादेरीर्यापथस्य कर्मण आस्रवो भवति ।
$ 617. आदावुद्दिष्टस्यास्रवस्य भेदप्रतिपादनार्थमाहइन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य मेदाः॥5॥
8618. अत्र इन्द्रियादीनां पंचादिभिर्यथासंख्यमभिसंबन्धो वेदितव्यः । इन्द्रियाणि पंच । विशेषता है? अब इसी बात बतलानेके लिए आगेका सत्र कहते हैं
कषायसहित और कषायरहित आत्माका योग क्रमसे साम्परायिक और ईर्यापथ कर्मके आस्रवरूप है ॥4॥
8616. स्वामीके भेदसे आस्रवमें भेद है। स्वामी दो प्रकारके हैं-कषायसहित और कषायरहित । क्रोधादिक कषाय कहलाते हैं । कषायके समान होनेसे कषाय कहलाता है। उपमारूप अर्थ क्या है ? जिस प्रकार नैयग्रोध आदि कषाय श्लेषका कारण है उसी प्रकार आत्माका क्रोधादि रूप कषाय भी कर्मों के श्लेषका कारण है इसलिए कषायके समान यह कषाय है ऐसा कहते हैं। जिसके कषाय है वह सकषाय जीव है और जिसके कषाय नहीं है वह अकषाय जीव है। यहाँ इन दोनों पदोंका पहले 'सकषायश्च अकषायश्चेति सकषायाकषायौ' इस प्रकार द्वन्द्व समास करके अनन्तर स्वामित्व दिखलानेके लिए षष्ठीका द्विवचन दिया है। सम्पराय संसारका पर्यायवाची है । जो कर्म संसारका प्रयोजक है वह साम्परायिक कर्म है। ईर्याकी व्युत्पत्ति 'ईरणं' होगी। योगका अर्थ गति है। जो कर्म इसके द्वारा प्राप्त होता है वह ईर्यापथ कर्म है। यहाँ इन दोनों पदोंका पहले ‘साम्परायिकं च ईर्यापथं च साम्परायिकेर्यापथे' इस प्रकार द्वन्द्व समास करके तदनन्तर सम्बन्ध दिखलानेके लिए षष्ठीका द्विवचन दिया है। सकषायके साथ साम्परायिक शब्दका और अकषायके साथ ईर्यापथ शब्दका यथाक्रम सम्बन्ध है । जिससे यह अर्थ हुआ कि मिथ्यादृष्टि आदि कषायसहित जीवके साम्परायिक कर्मका आस्रव होता है । तथा उपशान्त कषाय आदि कषाय रहित जीवके ईर्यापथ कर्मका आस्रव होता है।
8617. आदिमें कहे गये आस्रवके भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पूर्वके अर्थात् साम्परायिक कर्मास्रवके इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रियारूप भेव हैं जो क्रमसे पाँच, चार, पाँच और पच्चीस हैं ॥5॥
8618. यहाँ इन्द्रिय आदिका पाँच आदिके साथ क्रमसे सम्बन्ध जानना चाहिए । यथा 1. –दृष्टः साम्प- मु.।
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-615 $ 618]
षष्ठोऽध्यायः
[247
चत्वारः कषायाः। पञ्चावतानि । पञ्चविंशतिः क्रिया इति। तत्र पञ्चेन्द्रियाणि स्पर्शनादीन्युक्तानि। चत्वारः कषायाः क्रोधादयः। पञ्चावतानि प्राणव्यपरोपणादोनि वक्ष्यन्ते । पञ्चविंशतिः क्रिया उच्यन्ते-चैत्यगुरुप्रवचनपूजादिलक्षणा सम्यक्त्ववर्धनी-क्रिया सम्यक्त्वक्रिया । अन्यदेवतास्तवनादिरूपा मिथ्यात्वहेतुकी प्रवृत्तिमिथ्यात्वक्रिया। गमनागमनादिप्रवर्तनं कायादिभिः प्रयोगक्रिया। संयतस्य सतः अविरति प्रत्याभिमुख्यं समादानक्रिया। ईर्यापथनिमित्तर्यापथक्रिया। ता एताः पञ्च क्रियाः। क्रोधावेशात्प्रादोषिको क्रिया। प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः कायिको क्रिया। हिंसोपकरणादानाधिकरणिकी क्रिया। दुःखोत्पत्तितन्त्रत्वात्पारितापिकी क्रिया। आयुरिन्द्रियबलोच्छ्वासनिःश्वासप्राणानां वियोगकरणात्प्राणातिपातिकी क्रिया। ता एताः पञ्च क्रियाः। रागार्दीकृतत्वात्प्रमादिनो रमणीयरूपालोकनाभिप्रायो दर्शनक्रिया। प्रमादवशात्स्पष्टव्यसंचेतनानुबन्धः स्पर्शनक्रिया। अपूर्वाधिकरणोत्पादनात्प्रात्ययिको क्रिया। स्त्रीपुरुषपशुसम्पातिदेशेऽन्तमलोत्सर्गकरणं समन्तानुपातक्रिया। अप्रमृष्टादृष्टभूमौ कायादिनिक्षेपोऽनाभोगक्रिया । ता एताः पञ्च क्रियाः। यां परेण निर्वा' क्रियां स्वयं करोति सा स्वहस्तक्रिया। पापादानादिप्रवृत्तिविशेषाभ्यनुज्ञानं निसर्गक्रिया। पराचरितसावधादिप्रकाशनं विदारणक्रिया। यथोक्तामाज्ञामावश्यकादिषु चारित्रमोहोदयात्कर्तुमशक्नुवतोऽन्यथाप्ररूपणादाज्ञाव्यापादिको क्रिया । शाठ्यालस्याभ्यां प्रवचनोपदिष्टविधिकर्तव्यतानादरोऽनाकाङ्क्षक्रिया। ता एताः पञ्च क्रियाः। छेदनभेदनवि शसनादि
इन्द्रियाँ पाँच हैं, कषाय चार हैं, अव्रत पाँच हैं और क्रिया पच्चीस हैं। इनमें से स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियोंका कथन पहले कर आये हैं । क्रोधादि चार कषाय हैं और हिंसा आदि पाँच अव्रत आगे कहेंगे । पच्चीस क्रियाओंका वर्णन यहाँ करते हैं-चैत्य, गुरु और शास्त्रकी पूजा आदिरूप सम्यक्त्वको बढ़ानेवाली सम्यक्त्वक्रिया है। मिथ्यात्वके उदयसे जो अन्यदेवताके स्तवन आदि रूप क्रिया होती है वह मिथ्यात्व क्रिया है। शरीर आदि द्वारा गमनागमन आदिरूप प्रवृत्ति प्रयोगक्रिया है । संयतका अविरतिके सम्मुख होना समादान क्रिया है। ईर्यापथकी कारणभूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं । क्रोधके आवेशसे प्रादोषिकी क्रिया होती है। दुष्ट भाव युक्त होकर उद्यम करना कायिकी क्रिया है। हिंसाके साधनोंको ग्रहण करना आधिकरणिकी क्रिया है। जो दुःखकी उत्पत्तिका कारण है वह पारितापिकी क्रिया है। आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छवास रूप प्राणोंका वियोग करनेवाली प्राणातिपातिकी क्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं । रागवश स्नेहसिक्त होनेके कारण प्रमादीका रमणीय रूपके देखनेका अभिप्राय दर्शनक्रिया है। प्रमादवश स्पर्श करने लायक सचेतन पदार्थका अनुबन्ध स्पर्शन क्रिया है। नये अधिकर उत्पन्न करना प्रात्ययिकी क्रिया है। स्त्री, पुरुष और पशओंके जाने, आने, उठने और बैठनेके स्थानमें भीतरी मलका त्याग करना समन्तानुपात क्रिया है। प्रमार्जन और अवलोकन नहीं की गयी भूमिपर शरीर आदिका रखना अनाभोग क्रिया है । ये पांच क्रिया हैं। जो क्रिया दूसरों द्वारा करनेकी हो उसे स्वयं कर लेना स्वहस्तक्रिया है। पापादान आदिरूप प्रवृत्ति विशेषके लिए सम्मति देना निसर्ग क्रिया है। दूसरेने जो सावद्यकार्य किया हो उसे प्रकाशित करना विदारणक्रिया है। चारित्रमोहनीयके उदयसे आवश्यक आदिके विषयमें शास्त्रोक्त आज्ञाको न पाल सकनेके कारण अन्यथा निरूपण करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है। धूर्तता और आलस्यके कारण शास्त्रमें उपदेशी गयी विधि करनेका अनादर अनाकांक्षक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं।
1.-शतिक्रिया म.। 2. हेतुका कर्मप्रव-दि. 1, दि. 2, आ.। 3. क्रिया । सत्त्वदुःखो-- ता., ना., मु.। 4. बलप्राणानां-- मु.। 5.-श्यकादिचारि- मु.। 6. विसर्जनादि-- आ., दि. 1, दि. 2।
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248] सर्वार्थसिद्धी
[6168 619 क्रियापरत्वमन्येन वारम्भे क्रियमाणे प्रहर्षः प्रारम्भक्रिया। परिग्रहाविनाशार्था पारिबाहिकी क्रिया।
शनादिष निकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया। अन्यं मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्ट प्रशंसादिभिर्दढयति यथा साधु करोषोति सा मिथ्यादर्शनक्रिया। संयमघातिकर्मोदयवशादनिवृत्तिरप्रत्याख्यानक्रिया । ता एताः पञ्च क्रियाः । समुदिताः पञ्चविंशतिक्रियाः । एतानीन्द्रियादीनि कार्यकारणभेदाभेदमापद्यमानानि सांपरायिकस्य कर्मण आस्रवद्वाराणि भवन्ति ।
8619. अत्राह, योगत्रयस्य सर्वात्मकार्यत्वात्सर्वेषां संसारिणां साधारणः, ततो बन्धफलानुभवनं प्रत्यविशेष इत्यत्रोच्यते-नैतदेवम् । यस्मात् सत्यपि प्रत्यात्मसंभवे तेषां जीवपरिभ्योऽनन्तविकल्पेभ्यो विशेषोऽभ्यनुज्ञायते कथमिति चेदुच्यते
तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणबीर्यविशेषेभ्यस्तविशेषः ॥6॥
8620: बाह्याभ्यन्तरहेतूदीरणवशादुद्रिक्तः परिणामस्तीनः । तद्विपरीतो मन्दः । अयं प्राणी मया हन्तव्य इति ज्ञात्वा प्रवृत्तितिमित्युच्यते । मदात्प्रमादाद्वानवबुध्य प्रवृत्तिरज्ञातम् । अधिक्रियन्तेऽस्मिन्नर्था इत्यधिकरणं द्रव्यमित्यर्थः । द्रव्यस्थ स्वशक्तिविशेषो वीर्यम् । भावशब्दः प्रत्येक परिसमाप्यते-तीव्रभावो मन्दभाव इत्यादिः । एतेभ्यस्तस्थालवस्य विशेषो भवति । कारणभेदाद्धि कार्यभेद इति ।
छेदना, भेदना और मारना आदि क्रिया में स्वयं तत्पर रहना और दुसरेके करनेपर हर्षित होना प्रारम्भ क्रिया है। परिग्रहका नाश न हो इसलिए जो क्रिया की जाती है वह पारिग्राहिकी क्रिया है। ज्ञान, दर्शन आदिके विषयमें छल करना मायाक्रिया है। मिथ्यादर्शनके साधनोंसे युक्त पुरुषको प्रशंसा आदिके द्वारा दृढ़ करना कि 'तू ठीक करता है' मिथ्यादर्शन क्रिया है। संयमका घात करनेवाले कर्मके उदयसे त्यागरूप परिणामोंका न होना अप्रत्याख्यानक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। ये सब मिलकर पच्चीस क्रियाएँ होती हैं। कार्य-कारणके भेदसे अलग-अलग भेदको प्राप्त होकर ये इन्द्रियादिक साम्परायिक कर्मके आस्वके द्वार हैं।
8619. शंका-तीनों योग सब आत्माओंके कार्य हैं, इसलिए वे सब संसारी जीवोंके समान रूपसे प्राप्त होते हैं, इसलिए कर्मबन्धके फलके अनुभवके प्रति समानता प्राप्त होनी चाहिए ? समाधान- यह बात ऐसी नहीं है, क्योंकि यद्यपि योग प्रत्येक आत्माके होता है, परन्तु जीवोंके परिणामोंके अनन्त भेद हैं, इसलिए कर्मवन्धके फलके अनुभवको विशेषता माननो पड़तो है। शंका--किस प्रकार ? समाधान--अब अगले सूत्रद्वारा इसी बातका समाधान करते हैं
तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्यविशेषके भेदसे उसकी (आस्रवको) विशेषता होती है ॥6॥
6 620. बाह्य और आभ्यन्तर हेतुकी उदीरणाके कारण जो आवेगयुक्त परिणाम होता है वह तीव्र भाव है । मन्द भाव इससे उलटा है । इस प्राणीका मुझे हनन करना चाहिए इस प्रकार जानकर प्रवृत्ति करना ज्ञात भाव है। मद या प्रमादके कारण बिना जाने प्रवृत्ति करना अज्ञात भाव है। जिसमें पदार्थ रखे जाते हैं वह अधिकरण है। यहाँ अधिकरणसे द्रव्यका ग्रहण किया है। द्रव्यकी अपनी शक्तिविशेष वीर्य है । सूत्र में जो भाव शब्द आया है वह सब शब्दोंके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा-तीव्रभाव, मन्दभाव इत्यादि । इन सब कारणोंसे आश्रवमें विशेषता आ जाती है, क्योंकि कारणके भेदसे कार्य में भेद होता है। 1. दर्शनकरण- ता., ना., मु.। 2. --रणस्य ततो मु.। 3. प्राणी हन्त- मु., ता., ना.। 4. वा क्रिय-- म.।
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-618 § 624]
[ 249
§ 621. अत्राह, अधिकरणमुक्तम्', तत्स्वरूपमनिर्ज्ञातमतस्तदुच्यतामिति । तत्र भेवप्रतिपादनद्वारेणाधिकरणस्वरूपनिर्ज्ञानार्थमाह
षष्ठोऽध्यायः
श्रधिकरणं जीवाजीवाः ||7||
8622. उक्तलक्षणा जीवाजीवाः । यद्युक्तलक्षणाः पुनर्वचनं किमर्थम् ? अधिकरणविशेषज्ञापनार्थं पुनर्वचनम् । जीवाजीवा अधिकरणमित्ययं विशेषो ज्ञापयितव्य' इति । कः पुनरसौ ? हिसाद्युपकरणभाव इति । स्यादेतन्मूलपदार्थयोद्वित्वाज्जीवाजीवाविति द्विवचनं न्यायप्राप्तमिति । तन्न, पर्यायाणामधिकरणत्वात् । येन केनचित्पर्यायेण विशिष्टं द्रव्यमधिकरणम्, न सामान्यमिति बहुवचनं कृतम् । जीवाजीवा अधिकरणं कस्य ? आस्त्रवस्येति । अर्थवशादभिसंबन्धो भवति । $ 623. तत्र जीवाधिकरणभेदप्रतिपत्यर्थमाह
श्राद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेष स्त्रिस्त्रि स्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥8॥
8624. प्राणव्यपरोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः संरम्भः । साधनसमभ्यासीकरणं समारम्भः प्रक्रम आरम्भः । 'योग' शब्दो व्याख्यातार्थः । कृतवचनं स्वातन्त्र्यप्रतिपत्त्यर्थम् । कारिताभिधानं परप्रयोगापेक्षम् । अनुमतशब्दः प्रयोजकस्य मानसपरिणामप्रदर्शनार्थः । अभिहितलक्षणाः
8621. पूर्व सूत्र में 'अधिकरण' पद आया है पर उसका स्वरूप अज्ञात है, इसलिए वह कहना चाहिए ? अब उसके भेदोंके कथन द्वारा उसके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अधिकरण जीव और अजीवरूप हैं || 7 ||
$ 622. जीव और अजीवके लक्षण पहले कह आये हैं । शंका- यदि इनके लक्षण पहले कह आये हैं तो फिरसे इनका उल्लेख किस लिए किया ? समाधान - अधिकरण विशेषका ज्ञान कराने के लिए फिरसे इनका उल्लेख किया है, जिससे जीव और अजीव अधिकरण हैं यह विशेष जताया जा सके । शंका- वह कौन है ? समाधान - हिंसादि उपकरणभाव । शंका-मूल पदार्थ दो हैं इसलिए 'जीवाजीवा' इस प्रकार सूत्रमें द्विवचन रखना न्यायप्राप्त है ? समाधान - यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उनकी पर्यायोंको अधिकरण माना है । तात्पर्य यह है कि किसी एक पर्याय से युक्त द्रव्य अधिकरण होता है, केवल द्रव्य नहीं, इसलिए सूत्रमें बहुवचन रखा है। जीव और अजीव किसके अधिकरण हैं ? आस्रवके । इस प्रकार प्रयोजनके अनुसार यहाँ आस्रव पदका सम्बन्ध होता हैं ।
8623. अब जीवाधिकरणके भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते है
पहला जीवाधिकरण संरम्भ, समारम्भ और आरम्भके भेद से तीन प्रकारका, योगोंके भेदसे तीन प्रकारका; कृत, कारित और अनुमतके भेदसे तीन प्रकारका तथा कषायोंके भेदसे चार प्रकारका होता हुआ परस्पर मिलानेसे एक सौ आठ प्रकारका है ॥ 8 ॥
8624. प्रमादी जीवका प्राणोंकी हिंसा आदिकार्य में प्रयत्नशील होना संरम्भ है । साधनोंका जुटाना समारम्भ है । कार्य करने लगना आरम्भ है । योग शब्दका व्याख्यान पहले कर आये हैं । कर्ताकी कार्यविषयक स्वतन्त्रता दिखलाने के लिए सूत्रमें 'कृत' वचन रखा है । कार्य में दूसरे1. -करणमित्युक्तम् मु. ता. 1 2. -तव्य इत्यर्थः । कः मु. । 3 - जीवा इति मु., दि. 21
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250]
सर्वार्थसिद्धौ
[619 § 625
कषायाः क्रोधादयः । विशिष्यतेऽर्थोऽयन्तरादिति विशेषः । स प्रत्येकमभिसंबध्यते - संरम्भविशेषः समारम्भविशेष इत्यादि । आद्यं जीवाधिकरणमेतविशेषः 'भिद्यते' इति वाक्यशेषः । एते चत्वारः सुजन्तास्त्र्यादिशब्दा यथाक्रममभिसंबध्यन्ते - संरम्भसमारम्भारम्भास्त्रयः, योगास्त्रयः, कृतकारितानुमतास्त्रयः, कषायाश्चत्वार इति । एतेषां गणनाभ्यावृत्तिः सुचा द्योत्यते । एकश इति वीप्सानिर्देशः । एकैकं व्यादीन् भेदान् नयेदित्यर्थः । यद्यथा - क्रोधकृत काय संरम्भः मानकृतकाय संरम्भः मायाकृतकायसंरम्भः लोभकृतकायसंरम्भः क्रोधकारितकायसंरम्भः मानका रितकायसंरम्भः मायाकारितका संरम्भः लोभकारितकायसंरम्भः क्रोधानुमतकायसंरम्भः मानानुमतकायसंरम्भः मायानुमतकाय संरम्भः लोभानुमतकायसंरम्भश्चेति द्वादशधा कायसंरम्भः । एवं वाग्योगे मनोयोगे च द्वादशधा संरम्भः । त एते संपिण्डिताः षट्त्रिंशत्, तथा समारम्भा अपि षट्त्रिंशत्, आरम्भा अपि षट्त्रिंशत् । एते संपिण्डिता जीवाधिकरणात्रवभेदा अष्टोत्तरशतसंख्याः संभवन्ति । 'च' शब्दोऽनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनकषायभेद कृतान्तर्भेदसमुच्चयार्थः । 8625. परस्याजीवाधिकरणस्य भेदप्रतिपत्त्यर्थमाह-
निर्वर्तनानिक्षेप संयोगनिसर्गाद्विचतुद्वित्रिभेदाः परम् ॥9॥
8626. निर्वर्त्यत इति निर्वर्तना निष्पादना । निक्षिप्यत इति निक्षेपः स्थापना । संयुज्यते इति संयोगो मिश्रीकृतम् । निसृज्यत इति निसर्गः प्रवर्तनम् । एते द्वयादिभिर्यथाक्रममभिसंबध्यन्ते-
प्रयोगको अपेक्षा दिखलानेके लिए 'कारित' वचन रखा है । तथा प्रयोजकके मानस परिणामको दिखलानेके लिए अनुमत शब्द रखा हैं । क्रोधादि कषायोंके लक्षण कहे जा चुके हैं । जिससे एक अर्थ दूसरे अर्थसे विशेषताको प्राप्त हो वह विशेष है । इसे प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए यथा संरम्भविशेष समारम्भविशेष आदि । यहाँ 'भिद्यते' यह वाक्यशेष है जिससे यह अर्थ होता है कि पहला जीवाधिकरण इन विशेषताओंसे भेदको प्राप्त होता है । सुच् प्रत्ययान्त ये चारों 'तीन' आदि शब्द क्रमसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं । यथा-संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ ये तीन; योग तीन; कृत, कारित और अनुमत ये तीन और कषाय चार। इनके गणनाकी पुनरावृत्ति 'सुच' प्रत्यय-द्वारा प्रकट की गयी है । 'एकशः' यह वीप्सा में निर्देश है । तात्पर्य यह है कि तीन आदि भेदोंको प्रत्येकके प्रति लगा लेना चाहिए। जैसे क्रोधकृतकायसंरम्भ, मानकृतकायसंरम्भ, मायाकृतकायसंरम्भ, लोभकृतकायसंरम्भ, क्रोधकारितकायसंरम्भ, मानकारितकाय़संरम्भ, मायाकारितकायसंरम्भ, लोभकारितकायसंरम्भ, क्रोधानुमतकायसंरम्भ, मानानुमतकायसंरम्भ, मायानुमतकायसंरम्भ, लोभानुमतकायसंरम्भ। इसप्रकार कायसंरम्भ बारह प्रकारका है । इसीप्रकार वचनयोग और मनोयोगकी अपेक्षा संरम्भ बारह-बारह प्रकारका है । ये सब मिला कर छत्तीस भेद होते हैं । इसी प्रकार समारम्भ और आरम्भके भी छत्तीस - छत्तीस भेद होते हैं। ये सब मिल कर जीवाधिकरणके 108 भेद होते हैं । 'च' शब्द अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनरूप कषायोंके अवान्तर भेदोंका समुच्चय करनेके लिए दिया है । 8625. अब दूसरे अजीवाधिकरणके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-पर अर्थात् अजीवाधिकरण क्रमसे दो, चार, दो और तीन भेदवाले निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्गरूप है ||9||
8626. निर्वर्तनाका अर्थ निष्पादना अर्थात् रचना है । निक्षेपका अर्थ स्थापना अर्थात् रखना है। संयोगका अर्थ मिश्रित करना अर्थात् मिलाना है और निसर्गका अर्थ प्रवर्तन है । ये 1. त्र्यादिभेदान् आ., दि. 1, दि. 21 2. ऐते पिण्डि - मु. | 3. जीवस्याधि-- मु.
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-61108628] षष्ठोऽध्यायः
[251 निर्वर्तना विभेदा निक्षेपश्चतुर्भेदः संयोगो द्विभेदः निसर्गस्त्रिभेद इति । त एते भेदा अजीवाधिकरणस्य वेदितव्याः । परवचनमनर्थकम्, पूर्वसूत्रे आद्यमिति वचनादिदमवशिष्टायं भवतीति । नानर्थकम् । अन्यार्थः परशब्दः । संरम्भादिभ्योऽन्यानि निर्वर्तनादीनि । इतरथा हि निर्वर्तनादीनामात्मपरिणामसद्भावाज्जीवाधिकरणविकल्पा एवेति विज्ञायेत । निर्वर्तनाधिकरणं द्विविधं मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणमुत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणं चेति । तत्र मूलगुणनिर्वर्तनं पञ्चविषम्, शरीरवाङ्मनःप्राणापानाश्च । 'उत्तरगुणनिर्वर्तनं काष्ठपुस्तचित्रकर्मादि । निक्षेपश्चतुर्विधः अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं दुःप्रमष्टनिक्षेपाधिकरणं सहसानिक्षेपाधिकरणमनाभोगनिक्षेपाधिकरणं चेति। निसर्गस्त्रिविधः-कायनिसर्गाधिकरणं वाग्निसर्गाधिकरणं मनोनिसर्गाधिकरणं चेति ।
5627. उक्तः सामान्येन कर्मास्रवभेदः । इदानी कर्मविशेषात्रवभेदो वक्तव्यः। तस्मिन् वक्तव्ये आद्ययोनिदर्शनावरणयोरास्रवभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह
तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥10॥
8628. तत्त्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कीर्तने कृते कस्यचिदनभिव्याहरतः अंतःपैशुन्यपरिणामः प्रदोषः । कुतश्चित्कारणान्नास्ति न वेद्मोत्यादि ज्ञानस्य व्यपलपनं निह्नवः । कुतश्चित्कारणाद् भावितमपि विज्ञानं दानाहमपि यतो न दीयते तन्मात्सर्यम् । ज्ञानव्यवच्छेदकरणमन्तरायः। कायेन क्रमसे दो आदि शब्दोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त होते हैं । यथा-निर्वर्तना दो प्रकारकी है। निक्षेप चार प्रकारका है । संयोग दो प्रकारका है । निसर्ग तीन प्रकारका है। ये सब अजीवाधिकरणके भेद हैं । शंका--सूत्रमें 'पर' वचन निरर्थक है; क्योंकि पिछले सूत्रमें 'आद्य' वचन दिया है जिससे यह ज्ञात होता है कि यह शेषके लिए है । समाधान-अनर्थक नहीं है क्योंकि यहाँ 'पर' शब्दका अन्य अर्थ है जिससे यह ज्ञात होता है कि निर्वर्तना आदिक संरम्भ आदिकसे अन्य हैं। यदि पर शब्द न दिया जाय तो निर्वर्तना आदि आत्माके परिणाम हैं ऐसा हो जानेसे ये जीवाधिकरणके भेद समझे जायेंगे । निर्वर्तनाधिकरण दो प्रकारका है—मूलगुण निर्वर्तनाधिकरण और उत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरण । उनमें-से मूलगुण निवर्तनाधिकरण पाँच प्रकारका है-शरीर, वचन, मन, प्राण और अपान । तथा काष्ठकर्म, पुस्तकर्म और चित्रकर्म आदि उत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरण हैं । निक्षेप चार प्रकारका है-अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और अनाभोगनिक्षेपाधिकरण । संयोग दो प्रकारका है-भक्तपानसंयोगाधिकरण और उपकरणसंयोगाधिकरण । निसर्ग तीन प्रकारका है-कायनिसर्गाधिकरण, वचननिसर्गाधिकरण और मननिसर्गाधिकरण।
8627. सामान्यसे कर्मास्रवके भेद कहे। इस समय अलग-अलग कर्मोके आस्रवके भेदोंका कथन करना चाहिए। उसमें सर्वप्रथम प्रारम्भके ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ज्ञान और दर्शनके विषयमें प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात ये. ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रव हैं ॥10॥
8628. तत्त्वज्ञान मोक्षका साधन है उसका गुणगान करने पर उस समय नहीं बोलनेवालेके जो भीतर पैशुन्यरूप परिणाम होता है वह प्रदोष है । किसी कारणसे 'ऐसा नहीं है, मैं नहीं जानता' ऐसा कहकर ज्ञानका अपलाप करना निह्नव है। विज्ञानका अभ्यास किया है वह 1, भूलं पञ्च- आ., दि. 1, दि. 2 । 2. उत्तरं काष्ठ- आ. दि. 1, दि. 2 ।
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252] सर्वार्थसिद्धी
[61118 629वाचा च परप्रकाश्यज्ञानस्य वर्जनमासादनम् । प्रशस्तज्ञानदूषणमुपधातः । आसावनमेवेति चेत् ? सतो ज्ञानस्य विनयप्रदानादिगुणकीर्तनाननुष्ठानमासादनम् । उपघातस्तु ज्ञानमज्ञानमेवेति ज्ञाननाशाभिप्रायः । इत्यनयोरयं भेदः । 'तत्'शब्देन ज्ञानदर्शनयोः प्रतिनिर्देशः क्रियते। कथं पुनरप्रकृतयोरनिर्दिष्टयोस्तच्छब्देन परामर्शः कर्तुं शक्यः ? प्रश्नापेक्षया। ज्ञानदर्शनावरणयोः क आस्रव इति प्रश्ने कृते तदपेक्षया तच्छब्दो ज्ञानदर्शने प्रतिनिर्दिशति । एतेन ज्ञानदर्शनवत्सु तत्साधनेषु च प्रदोषादयो योज्याः; तन्निमित्तत्वात् । त एते ज्ञानदर्शनावरणयोरास्रवहेतवः। एककारणसाध्यस्य कार्यस्यानेकस्य दर्शनात तुल्येऽपि प्रदोषादौ ज्ञानर्शनावरणास्त्रवसिद्धिः। अथवा विषयभेदादास्रवभेदः । ज्ञानविषयाः प्रदोषादयो ज्ञानावरणस्य । दर्शनविषयाः प्रदोषादयो दर्शनावरणस्येति।
8629. यथानयोः कर्मप्रकृत्योरानवभेदास्तथा--- दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य ॥
8630. पीडालक्षणः परिणामो दुःखम् । अनुग्राहकसंबन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः शोकः । परिवादादिनिमित्तादाविलान्तःकरणस्य तीव्रानुशयस्तापः । परितापजाताश्रुपातप्रचुरविप्रलापादिभिर्व्यक्तक्रन्दनमाक्रन्दनम् । आयुरिन्द्रियबलप्राणवियोगकरणं वधः । संक्लेशपरिणामावलम्बन वेने योग्य भी है तो जिस कारणसे वह नहीं दिया जाता है वह मात्सर्य है। ज्ञानका विच्छेद करना अन्तराय हैं । दूसरा कोई ज्ञानका प्रकाश कर रहा हो तब शरीर या वचनसे उसका निषेध करना आसादन है। प्रशंसनीय ज्ञानमें दूषण लगाना उपघात है । शंका–उपघातका जो लक्षण किया है उससे वह आसादन ही ज्ञात होता है ? समाधान-प्रशस्त ज्ञानकी विनय न करना, उसकी अच्छाईकी प्रशंसा न करना आदि आसादन है। परन्तु ज्ञानको अज्ञान समझकर ज्ञानके नाशका इरादा रखना उपघात है इस प्रकार इन दोनों में अन्तर है। सत्रमें 'तत्' पद ज्ञान और दर्शनका निर्देश करनेके लिए दिया है । शंका–ज्ञान और दर्शन अप्रकृत हैं, तथा उनका निर्देश भी नहीं किया है, फिर यहाँ 'तत्'शब्दके द्वारा उनका ज्ञान कैसे हो सकता है ? समाधानप्रश्नैकी अपेक्षा अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरणका क्या आस्रव है ऐसा प्रश्न करनेपर उसकी अपेक्षा 'तत' शब्द ज्ञान और दर्शनका निर्देश करता है। इससे यह अभिप्राय निकला कि ज्ञान और दर्शनवालोंके विषयमें तथा उनके साधनोंके विषयमें प्रदोषादिककी योजना करनी चाहिए, क्योंकि ये उनके निमित्तसे होते हैं । ये प्रदोषादिक ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मके आस्रवके कारण हैं । एक कारणसे भी अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं, इसलिए प्रदोषादिकके एक समान रहते हुए भी इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनोंका आस्रव सिद्ध होता है। अथवा विषयके भेदसे आस्रवमे भेद होता है। ज्ञानसम्बन्धी प्रदोषादिक ज्ञानावरणके आस्रव हैं और दर्शनसम्बन्धी प्रदोषादिक दर्शनावरणके आस्रव हैं।
8629. जिस प्रकार इन दोनों कर्मोंका आस्रव अनेक प्रकारका है उसी प्रकार
अपनेमें, दूसरेमें या दोनोंमें विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असाता वेदनीय कर्मके आस्रव हैं ॥1॥
8630. पीड़ारूप आत्माका परिणाम दुःख है । उपकार करनेवालेका सम्बन्ध टूट जानेपर जो विकलता होती है वह शोक है । अपवाद आदिके निमित्तसे मनके खिन्न होनेपर जो तीव्र अनुशय-संताप होता है वह ताप है । परितापके कारण जो आँसू गिरनेके साथ विलाप आदि 1. -लम्बनं स्वपरा- आ., दि. 1, दि. 2।
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-61118 630] - षष्ठोऽध्यायः
[253 गुणस्मरणानुकीर्तनपूर्वकं स्वपरानुग्रहाभिलाषविषयमनुकम्पाप्रचुरं रोदनं परिदेवनम् । ननु च शोकादीनां दुःखविशेषत्वाद् दुःखग्रहणमेवास्तु ? सत्यमेवम् ; तथापि कतिपयविशेषप्रतिपादनेन दुःखजात्य'नुविधानं क्रियते । यथा गौरित्युक्ते अनिर्माते विशेषे तत्प्रतिपादनार्थं खण्डमुण्डकृष्णशुक्लाजुपादानं क्रियते तथा दुःखविषयास्रवासंख्येयलोकभेदसंभवाद् दुःखमित्युक्ते विशेषानिर्जानात्कतिपयविशेषनिर्देशेन तद्विशेषप्रतिपत्तिः क्रियते। तान्येतानि दुःखादीनि 'क्रोधाद्यावेशादात्मस्थानि भवन्ति परस्थान्युभयस्थानि च । एतानि सर्वाण्यसद्वेद्यास्रवकारणानि वेदितव्यानि। अत्र चोद्यते--यदि दुःखादीन्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वद्यास्रवनिमित्तानि, किमर्थमार्हतः केशलुञ्चनानशनातपस्थानादीनि दुःखनिमित्तान्यास्थीयन्ते परेषु च प्रतिपाद्यन्ते इति ? नैष दोषः-अन्तरङ्गक्रोधाद्यावेशपूर्वकाणि दुःखादीन्यसद्वेद्यास्रवनिमित्तानोति विशेष्योक्तत्वात् । यथा कस्यचिद् भिषजः परमकरुणाशस्य निःशल्यस्य संयतस्योपरि गण्डं पाटयतो दुःखहेतुत्वे सत्यपि न पापबन्धो बाह्यनिमित्तमात्रादेव भवति । एवं संसारविषयमहादुःखादुद्विग्नस्य भिक्षोस्तन्निवृत्त्युपायं प्रति समाहितमनस्कस्य शास्त्रविहिते कर्मणि प्रवर्तमानस्य संक्लेशपरिणामाभावाद् दुःखनिमित्तत्वे सत्यपि न पापबन्धः। उक्तं च--
"न दुःखं न सुखं यद्वद्धतुदृष्टश्चिकित्सिते। चिकित्सायां तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ।।
होता है, उससे खुलकर रोना आक्रन्दन है । आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वासका जुदा कर देना वध है । संक्लेशरूप परिणामोंके होनेपर गुणोंका स्मरण और प्रशंसा करते हुए अपने और
उपकारकी अभिलाषासे करुणाजनक रोना परिदेवन है। शंका-शोकादिक दुःखके भेद हैं, इसलिए दुःखका ग्रहण करना पर्याप्त है ? समाधान-यह कहना सही है तो भी यहाँ कुछ भेदोंका कथन करके दुःखकी जातियाँ दिखलायी हैं । जैसे गौ ऐसा कहनेपर अवान्तर भेदोंका ज्ञान नहीं होता, इसलिए खांडी, मुडी, काली, सफेद आदि विशेषण दिये जाते हैं उसी प्रकार दुःखविषयक आस्रव असंख्यात लोकप्रमाण संभव हैं । परन्तु दुःख इतना कहनेपर सब भेदोंका ज्ञान नहीं होता अतएव कुछ भेदोंका उल्लेख करके उनको पृथक-पृथक् जान लिया जाता है। क्रोधादिकके आवेशवश ये दुःखादिक कभी अपनेमें होते हैं, कभी दूसरोंमें होते हैं और कभी दोनोंमें होते हैं । ये सब असाता वेदनीयके आस्रवके कारण जानने चाहिए । शंका-यदि अपनेमें, परमें या दोनोंमें स्थित दुःखादिक असातावेदनीयके आस्रवके कारण हैं तो अरिहंतके मतको माननेवाले मनुष्य दुःखको पैदा करनेवाले केशलोंच, अनशन और आतपस्थान (आतापनयोग) आदिमें क्यों विश्वास करते हैं और दूसरोंको इनका उपदेश क्यों देते हैं ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि अन्तरंगमें क्रोधादिकके आवेशसे जो दुःखादिक पैदा होते हैं वे असातावेदनीयके आस्रवके कारण हैं इतना यहाँ विशेष कहा है । जैसे अत्यन्त दयालु किसी वैद्यके फोड़ेकी चीर-फाड़ और मरहमपट्टी करते समय निःशल्य संयतको दुःख देनेमें निमित्त होनेपर भी केवल बाह्य निमित्त मात्रसे पापबन्ध नहीं होता उसी प्रकार जो भिक्षु संसार-सम्बन्धी दुःखसे उद्विग्न है और जिसका मन उसके दूर करनेके उपायोंमें लगा हुआ है उसके शास्त्रविहित कर्ममें प्रवृत्ति करते समय संक्लेशरूप परिणामोंके नहीं होनेसे पापबन्ध नहीं होता। कहा भी है-"जिस प्रकार चिकित्साके साधन न स्वयं दुःखरूप देखे जाते हैं और न सुखरूप, किन्तु जो चिकित्सामें 1. --जात्यन्तरविधा-- मु.। 2. क्रोधावेशा- मु.।
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254]
सर्वार्थसिद्धौ
न दुःखं न सुखं तद्धेतुर्मोक्षस्य साधने ।
मोक्षोपाये तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ॥
8 631. उक्ता असद्वेद्यात्रवहेतवः । सद्वेद्यस्य पुनः के इत्यत्रोच्यतेभूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्यस्य ॥12॥
8632. तासु तासु गतिषु कर्मोदयवशाद्भवन्तीति भूतानि प्राणिन इत्यर्थः । व्रतान्यहिंसादीनि वक्ष्यन्ते, तद्वन्तो व्रतिनः । ते द्विविधाः । अगारं प्रति निवृत्तौत्सुक्याः संयताः गृहिणश्च संयतासंयताः । अनुग्रहार्द्रीकृतचेतसः परपीडामात्मस्थामिवं कुर्वतोऽनुकम्पनमनुकम्पा । भूतेषु व्रतिषु चानुकम्पा भूतव्रत्यनुकम्पा । परानुग्रहबुद्ध्या स्वस्यातिसर्जनं वानम् । संसारकारणविनिवृत्त प्रत्यागू र्णोऽक्षीणाशयः सराग इत्युच्यते । प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेविरतिः संयमः । सरागस्व संयम सरागोवा संयमः सरागसंयमः । 'आदि' -शब्देन संयमासंयमाकामनिर्ज राबालतपोऽनुरोधः । योगः समाधिः सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादीनां योगो भूतवत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः । क्रोधादिनिवृत्तिः क्षान्तिः । लोभप्रकाराणामुपरमः शौचम् । 'इति' शब्दः प्रकारार्थः । के पुनस्ते प्रकाराः । अर्हत्पूजाकरण' तत्परता बालवृद्धतपस्विवैयावृत्त्यावयः ।
[6112 § 631
लग रहा है उसे दुःख भी होता है और सुख भी । उसी प्रकार मोक्ष-साधनके जो हेतु हैं वे स्वयं दुखरूप हैं और न सुखरूप किन्तु जो मोक्षमार्गपर आरूढ़ है उसे दुःख भी होता है और सुख भी ।"
8 631. असातावेदनीयके आस्रवके कारण कहे, परन्तु सातावेदनीयके आस्रवके कारण कौन हैं ? इसी बात को बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
भूत- अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान और सरागसंयम आदि का योग तथा क्षान्ति और शौच ये सातावेदनीय कर्मके आस्रव हैं ॥12॥
§ 632. जो कर्मोदयके कारण विविध गतियों में होते हैं वे भूत कहलाते हैं । भूत यह • प्राणीका पर्यायवाची शब्द है । अहिंसादिक व्रतोंका वर्णन आगे करेंगे। जो उनसे युक्त हैं वे व्रती कहलाते हैं । वे दो प्रकारके हैं—पहले वे जो घरसे निवृत्त होकर संयत हो गये हैं और दूसरे गृहस्थ संयतासंयत । अनुग्रहसे दयार्द्र चित्तवालेके दूसरेकी पीड़ाको अपनी ही माननेका जो भाव होता है उसे अनुकम्पा कहते हैं । सब प्राणियोंपर अनुकम्पा रखना भूतानुकम्पा है और व्रतियोंपर अनुकम्पा रखना व्रत्यनुकम्पा है । दूसरेका उपकार हो इस बुद्धिसे अपनी वस्तुका अर्पण करना दान है । जो संसारके कारणोंके त्यागके प्रति उत्सुक है, परन्तु जिसके अभी रागके संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं वह सराग कहलाता है । प्राणी और इन्द्रियोंके विषय में अशुभ प्रवृत्तिके त्यागको संयम कहते हैं। सरागका संयम या रागसहित संयम सरागसंयम कहलाता है । सूत्रमें सरागसंयमके आगे दिये गये आदि पदसे संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतपका ग्रहण होता है । योग, समाधि और सम्यक्प्रणिधान ये एकार्थवाची नाम हैं। पहले जो भूतानुकम्पा, व्रत्यनुकम्पा, दान और सरागसंयम 'आदि' कहे हैं इनका योग अर्थात् इनमें भले प्रकार मन लगाना भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोग है । क्रोधादि दोषोंका निराकरण करना क्षान्ति है । तथा लोभके प्रकारोंका त्याग करना शौच है । सूत्रमें आया हुआ 'इति' शब्द प्रकारवाची है । वे प्रकार हैं ? अरहंतकी पूजा करने में तत्परता तथा बाल और बृद्ध तपस्वियोंकी वैयावृत्त्य आदि
1. करणपरता- मु.
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-6114 § 636]
षष्ठोऽध्यायः
[255
'भूत' ग्रहणात् सिद्धे 'व्रत' ग्रहणं तद्विषयानुकम्पाप्राधान्यख्यापनार्थम् । त एते सद्वेयस्यास्रवा ज्ञेयाः । 8633. अथ तदनन्तरोद्देशभाजो मोहस्यास्रवहेतौ वक्तव्ये तद्भेदस्य दर्शनमोहस्यास्त्रवहेतुप्रतिपादनार्थमिदमुच्यते
केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादी दर्शन मोहस्य 111311
$ 634. निरावरणज्ञानाः केवलिनः । तदुपदिष्टं बुद्ध्यतिशयद्धयुक्तगणधरानुस्मृतं ग्रन्थरचनं श्रुतं भवति । रत्नत्रयोपेतः श्रमणगणः संघः । अहिंसालक्षणस्तदागमदेशितो धर्मः । देवाश्चतुणिकाया उक्ताः । गुणवत्सु महत्सु असद्भूतदोषोद्भावनमवर्णवादः । एतेष्ववर्णवादो दर्शन मोहस्यास्रवहेतुः । कवलाभ्यवहारजीविनः केवलिन इत्येवमादि वचनं केवलिनामवर्णवादः । मांसभक्षणाद्यनवद्याभिधानं । श्रुतावर्णवादः । शूद्रत्वाशुचित्वाद्याविर्भावनं संघावर्णवाद: । जिनोपदिष्टो धर्मो निर्गुणस्तदुपसेविनो ये ते चासुरा भविष्यन्तीत्येवमाद्य भिधानं धर्मावर्णवादः । रामांसोपसेवाद्याघोषणं देवावर्णवादः ।
$ 635. द्वितीयस्य मोहस्यास्त्रवभेदप्रतिपादनार्थमाह
कषायोदयात्तीव्रपरिणामचारित्रमोहस्य ||14|
§ 636. कषाया उक्ताः । उदयो विपाकः । कषायाणामुदयात्तीत्र परिणामश्चारित्रमोहस्या
करना वे प्रकार हैं । यद्यपि भूतपदके ग्रहण करनेसे व्रतियोंका ग्रहण हो जाता है तो भी व्रती - विषयक अनुकम्पाकी प्रधानता दिखलाने के लिए सूत्रमें 'व्रती' पदको अलग से ग्रहण किया है। ये सब सातावेदनीयके आस्रव जानने चाहिए ।
8633. अब इसके बाद मोहनीयके आस्रवके कारणोंका कथन करना क्रमप्राप्त है । उसमें भी पहले उसके प्रथम भेद दर्शन मोहनीयके आस्रवके कारणोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्मका आस्रव है ॥13
8634. जिनका ज्ञान आवरण रहित है वे केवली कहलाते हैं | अतिशय बुद्धिवाले गणधरदेव उनके उपदेशोंका स्मरण करके जो ग्रन्थोंकी रचना करते हैं वह श्रुत कहलाता है। रत्नत्रयसे 'युक्त श्रमणोंका समुदाय 'संघ कहलाता है। सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित आगम में उपदिष्ट अहिंसा ही धर्म है । चार निकायवाले देवोंका कथन पहले कर आये हैं । गुणवाले बड़े पुरुषोंमें जो दोष नहीं है उनका उनमें उद्भावन करना अवर्णवाद है । इन केवली आदिके विषय में किया गया अवर्णवाद दर्शनमोहनीयके आस्रवका कारण है । यथा केवली कवलाहारसे जीते हैं इत्यादि रूपसे कथन करना के वलियोंका अवर्णवाद है । शास्त्रमें मांसभक्षण आदिको निर्दोष कहा है इत्यादि रूपसे कथन करना श्रुतका अवर्णवाद है । ये शूद्र हैं, अशुचि हैं, इत्यादि रूपसे अपवाद करना संघका अवर्णवाद है । जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट धर्म में कोई सार नहीं, जो इसका सेवन करते हैं वे असुर होंगे इस प्रकार कथन करना धर्मका अवर्णवाद है । देव सुरा और मांस आदिका सेवन करते हैं इस प्रकारका कथन करना देवोंका अवर्णवाद है ।
8635. अब मोहनीयका दूसरा भेद जो चारित्र मोहनीय है उसके आस्रवके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
कषायके उदयसे होनेवाला तीव्र आत्मपरिणाम चारित्रमोहनीयका आस्रव है ॥14॥
§ 636. कषायोंका व्याख्यान पहले कर आये हैं । विपाकको उदय कहते हैं । कषायों के 1. - णाद्यभिधानं
ना । 2. -त्येवमभि- म्. ।
मु.
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256]
[6115 § 637
स्रवो वेदितव्यः । तत्र स्वपरकषायोत्पादनं तपस्विजनवृत्तदूषणं संक्लिष्टलिङ्गव्रतधारणादिः कषायवेदनीयस्यास्त्र वः । सद्धर्मोपहसनदीनातिहास' कन्दर्पोपहासबहुविप्रलापोपहासशीलतादिर्हास्यवेदनीयस्य । विचित्रक्रीडन परताव्रतशीला रुच्यादिः रतिवेदनीयस्य । परारतिप्रादुर्भावनर तिविनाशनपापशीलसंसर्गादिः अरतिवेदनीयस्य । स्वशोकोत्पादन परशोकप्लुताभिनन्दनादिः शोकवेदनीयस्य । स्वभयपरिणामपरभयोत्पादनादिर्भय वेदनीयस्य । कुशलक्रियाचारजुगुप्सापरिवादशीलत्वादिर्जुगुप्सावेदनीयस्य | अलीकाभिधायितातिसंधानपरत्वपररन्ध्र 'प्रेक्षित्व प्रवृद्धरागादिः स्त्रीवेदनीयस्य । स्तोकको धानुत्सुकत्वस्वदार संतोषादिः पुंवेदनीयस्य । प्रचुरकषायागुह्येन्द्रियव्यपरोपणपराङ्गनावस्कन्दादिर्नपुंसक वेदनीयस्य ।
सर्वार्थसिद्धौ
8637. निर्दिष्टो मोहनीयस्यास्त्रवभेदः । इदानीं तदनन्तरनिर्दिष्टस्यायुष' आस्रवहेतौ वक्तव्ये आद्यस्य नियतकालपरिपाकस्यायुषः कारणप्रदर्शनार्थमिदमुच्यते
बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥15॥
8638. आरम्भः प्राणिपीडाहेतुर्व्यापारः । ममेदंबुद्धिलक्षणः परिग्रहः । आरम्माश्च परिग्रहाश्च आरम्भपरिग्रहाः । बहव आरम्भपरिग्रहा यस्य स बह्वारम्भपरिग्रहः । तस्य भावो
उदयसे जो आत्माका तीव्र परिणाम होता है वह चारित्रमोहनीयका आस्रव जानना चाहिए । स्वयं कषाय करना, दूसरोंमें कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजनोंके चारित्रमें दूषण लगाना, संक्लेशको पैदा करनेवाले लिंग (वेष) और व्रतको धारण करना आदि कषायवेदनीयके आस्रव हैं । सत्य धर्मका उपहास करना, दीन मनुष्यकी दिल्लगी उड़ाना, कुत्सित रागको बढ़ानेवाला हँसी मजाक करना, बहुत बकने और हँसने की आदत रखना आदि हास्यवेदनीयके आस्रव हैं । नाना प्रकारकी क्रीड़ाओंमें लगे रहना, व्रत और शीलके पालन करनेमें रुचि न रखना आदि रतिवेदनीयके आस्रव हैं । दूसरोंमें अरति उत्पन्न हो और रतिका विनाश हो ऐसी प्रवृत्ति करना और पापी लोगोंकी संगति करना आदि अरतिवेदनीयके आस्रव हैं। स्वयं शोकातुर होना, दूसरोंSh शोकको बढ़ाना तथा ऐसे मनुष्योंका अभिनन्दन करना आदि शोकवेदनीयके आस्रव हैं । भयरूप अपना परिणाम और दूसरेको भय पैदा करना आदि भयवेदनीयके आस्रवके कारण हैं । सुखकर क्रिया और सुखकर आचारसे घृणा करना और अपवाद करने में रुचि रखना आदि जुगुप्सावेदनीयके आस्रव हैं। असत्य बोलने की आदत, अतिसन्धानपरता, दूसरे के छिद्र ढूंढ़ना और बढ़ा हुआ राग आदि स्त्रीवेदनीयके आस्रव हैं । क्रोधका अल्प होना, ईर्ष्या नहीं करना, अपनी स्त्री में सन्तोष करना आदि पुरुषवेदनीयके आस्रव हैं । प्रचुर मात्रामें कषाय करना, गुप्त इन्द्रियोंका विनाश करना और परस्त्री से बलात्कार करना आदि नपुंसक वेदनीयके आस्रव हैं । 8637. मोहनीयके आस्रवके भेदोंका कथन किया। इसके बाद आयुकर्मके आस्रव के कारणोंका कथन क्रमप्राप्त है । उसमें भी पहले जिसका नियत काल तक फल मिलता है उस आयु आवके कारण दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं—
बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहपनेका भाव नारकायुका आस्रव है ||150
8638. प्राणियोंको दुख पहुँचानेवाली प्रवृत्ति करना आरम्भ है । यह वस्तु मेरी है इस प्रकारका संकल्प रखना परिग्रह है। जिसके बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह हो वह बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह वाला कहलाता है और उसका भाव बह्वारम्भपरिग्रहत्व है । हिंसा आदि 1. नातिहासबहु-- मु. 2. --त्पादनं परशोकाविष्करणं शोक-- ता. । 3. --रत्वं पररन्ध्रापे - मु. । --रत्वं रन्ध्रापे- आ. । 4. -- नास्कन्दा-- मु. 5. निर्दिष्टस्यायुषः कारण- मु. 1
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-6118 8 644] षष्ठोऽध्यायः
1257 बह्वारम्मपरिग्रहत्वम् । हिसादिक्रूरकर्माजस्रप्रवर्तनपरस्वहरवषयातिगृद्धिकृष्णलेश्याभिजातरौद्रध्यानमरणकालतादिलक्षणो नारकस्यायुष आस्रवो भवति । 8639. आह, उक्तो नारकस्यायुष आस्रवः । तैर्यग्योनस्येदानों वक्तव्य इत्यत्रोच्यते
__ माया तैर्यग्योनस्य ॥16॥ 8640, चारित्रमोहकर्मविशेषस्योदयादाविर्भूत आत्मनः कुटिलभावो माया निकृतिः तैर्यग्योनस्यायुष आस्रवो वेदितव्यः । तत्प्रपञ्चो मिथ्यात्वोपेतधर्मदेशना निःशीलतातिसंधानप्रियता नीलकापोतलेश्यार्तध्यानमरणकालतादिः ।
8641. आह, व्याख्यातस्तैर्यग्योनस्यायुष आस्रवः । इदानीं मानुषस्यायुषः को हेतुरित्यत्रोच्यते
अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥17॥ 8642. नारकायुरास्रवो व्याख्यातः । तद्विपरीतो मानुषस्यायुष इति संक्षेपः । तद्व्यासः-- विनीतस्वभावः प्रकृतिभद्रता प्रगुणव्यवहारता तनुकषायत्वं मरणकालासंक्लेशतादिः। 8643. किमेतावानेव मानुषस्यायुष आस्रव इत्यत्रोच्यते
स्वभावमार्दवं च ॥18॥ 8644. मृदोर्भावो मार्दवम् । स्वभावेन मार्दवं स्वभावमार्दवम् । उपदेशानपेक्षमित्यर्थः । कर कार्योंमें निरन्तर प्रवृत्ति, दूसरेके धनका अपहरण, इन्द्रियोंके विषयोंमें अत्यन्त आसक्ति तथा मरनेके समय कृष्ण लेश्या और रौद्रध्यान आदिका होना नरकायुके आस्रव हैं।
8639. नरकायुका आस्रव कहा। अब तिर्यंचायुका आसव कहना चाहिए, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैंमाया तियंचायुका आस्रव है ।।16।।
8640. माया नामक चारित्रमोहनीयके उदयसे जो आत्मामें कुटिल भाव पैदा होता है वह माया है। इसका दूसरा नाम निकृति है । इसे तिर्यंचायुका आस्रव जानना चाहिए। इसका विस्तारसे खुलासा-धर्मोपदेशमें मिथ्या बातोंको मिलाकर उनका प्रचार करना, शीलरहित जीवन बिताना, अतिसंधानप्रियता, तथा मरणके समय नील व कापोत लेश्या और आर्तध्यानका होना आदि तिर्यंचायुके आस्रव हैं।
$641. तिथंचायुके आस्रव कहे । अब मनुष्यायुका क्या आस्रव है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अल्प आरम्भ और अल्प परिप्रहपनेका भाव मनुष्यायुके आस्रव हैं ॥17॥
8642. नरकायुका आस्रव पहले कह आये हैं । उससे विपरीत भाव मनुष्यायुका आस्रव है। संक्षेपमें यह इस सत्रका अभिप्राय है। उसका विस्तारसे खलासा-स्वभावका विन भद्र प्रकृतिका होना, सरल व्यवहार करना, अल्प कषायका होना तथा मरणके समय संक्लेशरूप परिणतिका नहीं होना आदि मनुष्यायुके आस्रव हैं।
643. क्या मनुष्यायुका आस्रव इतना ही है या और भी है। इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
स्वभावकी मृदुता भी मनुष्यायुका आस्रव है ॥18॥
8644. मृदुका भाव मार्दव है। स्वभावसे मार्दव स्वभाव मार्दव है। आशय यह है कि किसीके समझाये-बुझाये मृदुता अपने जीवनमें उतरी हुई हो इसमें किसीके उपदेशकी आवश्यकता
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258] सर्वार्थसिद्धौ
[61198645 एतदपि मानुषस्यायुष आस्रवः । पृथग्योगकरणं किमर्थम् ? उत्तरार्थम्, देवायुष आलवोऽयमपि यथा स्यात् । 8645. किमेतदेव द्वितीयं मानुषस्यास्रवः ? न; इत्युच्यते--
निश्शीलवतत्वं च सर्वेषाम् ॥19॥ 8646. 'च'शब्दोऽधिकृतसमुच्ययार्थः । अल्पारम्भपरिग्रहत्वं च निःशीलव्रतत्वं च। शीलानि च वतानि च शीलवतानि तानि वक्ष्यन्ते । निष्क्रान्तः शीलवतेभ्यो निःशीलवतः। तस्य भावो निःशीलवतत्वम् । 'सर्वेषां ग्रहणं सकलायुरास्त्रवप्रतिपत्त्यर्थम् । किं देवायुषोऽपि भवति ? सत्यम्, भवति भोगभूमिजापेक्षया।।
8647. अथ चतुर्थस्यायुषः क आस्रव इत्यत्रोच्यतेसरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य ॥20॥
8648. सरागसंयमः संयमासंयमश्च व्याख्यातौ । अकामनिर्जरा अकामश्चारकनिरोषबन्धनबद्धेषु क्षुत्तृष्णानिरोधब्रह्मचर्यभूशय्यामलधारणपरितापादिः। अकामेन निर्जरा अकामनिर्जरा । बालतपो मिथ्यादर्शनोपेत मनुपायकायक्लेशप्रचुरं निकृतिबहुलव्रतधारणम् । तान्येतानि देवस्यायुष आस्रवहेतवो वेदितव्याः। न पड़े। यह भी मनुष्यायुका आस्रव है । शंका-इस सूत्रको अलगसे क्यों बनाया ? समाधान - स्वभावकी मृदुता देवायुका भी आस्रव है इस बातके बतलानेके लिए इस सूत्रको अलगसे बनाया है।
___8645. क्या ये दो ही मनुष्यायुके आस्रव हैं ? नहीं, किन्तु और भी हैं। इसी बातको बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं -- शीलरहित और व्रतरहित होना सब आयुओंका आस्रव है॥19॥
8646. सूत्रमें जो 'च' शब्द है वह अधिकार प्राप्त आस्रवोंके समुच्चय करनेके लिए है। इससे यह अर्थ निकलता है कि अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रहरूप भाव तथा शील और व्रतरहित होना सब आयुओंके आस्रव हैं । शील और व्रतोंका स्वरूप आगे कहनेवाले हैं। इनसे रहित जीवका जो भाव होता है उससे सब आयुओंका आस्रव होता है यह इस सूत्रका भाव है। यहाँ सब आयुओंका आसव इष्ट है यह दिखलानेके लिए सूत्रमें सर्वेषाम्' पदको ग्रहण किया है। शंका-क्या शील और व्रतरहितपना देवायुका भी आस्रव है ? समाधान हाँ, भोगभूमियाँ प्राणियोंकी अपेक्षा शील और व्रतरहितपना देवायुका भी आस्रव है।
6 647. अब चौथी आयुका क्या आस्रव है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंसरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायुके आस्रव हैं 1200
8648. सरागसंयम और संयमासंयमका व्याख्यान पहले कर आये हैं। चारकमें रोक रखनेपर या रस्सी आदिसे बाँध रखनेपर जो भूख प्यास सहनी पड़ती है, ब्रह्मचर्य पालना पड़ता है, भूमिपर सोना पड़ता है, मलमूत्रको रोकना पड़ता है और संताप आदि होता है यह सब अकाम है और इससे जो निर्जरा होती है वह अकामनिर्जरा है । मिथ्यात्वके कारण मोक्षमार्गमें उपयोगी न पड़नेवाले अनुपाय कायक्लेशबहुल मायासे व्रतोंका धारण करना बालतप है । ये सब देवायुके आस्रवके कारण जानने चाहिए। 1. आस्रवोऽपि मु.। 2. द्वितीयं मु.। 3. व्रतानि वक्ष्य-- मु.। 4. --पेतमनुकम्पाकाय- ता., ना. ।
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259
-6122 8652]
षष्ठोऽध्यायः 8649. किमेतावानेव देवस्यायुष आस्रवः । नेत्याह
सम्यक्त्वं च ॥21॥ 8650. किम् ? वैवस्यायुष आस्रव इत्यनुवर्तते। अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेषगतिः। कुतः। पृथक्करणात् । यद्येवम्, पूर्वसूत्रे, उक्त आस्रवविधिरविशेषेण प्रसक्तः तेन सरागसंयमसंयमासंयमावपि भवनवास्याद्यायुष आस्रवौ प्राप्नुतः । नैष दोषः; सम्यक्त्वाभावे सति तद्वचपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रान्तर्भवति।
8651. आयुषोऽनन्तरमुद्दिष्टस्य नाम्न आस्रवविधौ वक्तव्ये, तत्राशुभनाम्न आस्रवप्रतिपत्त्यर्थमाह
योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥22॥ 8652. योगस्त्रिप्रकारो व्याख्यातः। तस्य वक्रता कौटिल्यम् । विसंवादनमन्यथाप्रवर्तनम् । ननु च नार्थभेवः, योगवऋतैवान्यथाप्रवर्तनम् ? सत्यमेवमेतत्-स्वगता योगवतेत्युच्यते । परगतं विसंवादनम् । सम्यगम्युदयनिःश्रेयसार्थासु क्रियासु प्रवर्तमानमन्यं तद्विपरीतकायवाङ्मनोभिविसंवावयति मैवं कार्पोरेवं कुर्वोति । एतदुभयमशुभनामकर्मासवकारणं वेदितव्यम् । 'च'शम्वेन मिथ्यादर्शनपैशुन्यास्थिरचित्तताकूटमानतुलाकरणपरनिन्दात्मप्रशंसादिः समुच्चीयते।
86 49. क्या देवायुका आस्रव इतना ही है या और भी है ? अब इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
सम्यक्त्व भी देवायुका आस्रव है ॥21॥
8650. शंका-किस कारणसे । समाधान-अलग सूत्र बनानेसे । शंका-यदि ऐसा है तो पूर्व सूत्रमें जो विधान किया है वह सामान्यरूपसे प्राप्त होता है और इससे सरागसंयम और संयमासंयम ये भवनवासी आदिकी आयुके भी आस्रव हैं यह प्राप्त होता है ? समाधान यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि सम्यक्त्वके अभावमें सरागसंयम और संयमासंयम नहीं होते, इसलिए उन दोनोंका यहीं अन्तर्भाव होता है । अर्थात् ये भी सौधर्मादि देवायुके आस्रव हैं; क्योंकि ये सम्यक्त्वके होनेपर ही होते हैं।
8651. आयुके बाद नामके आस्रवका कथन क्रमप्राप्त है। उसमें भी पहले अशुभ नामके आस्रवका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं।
योगवक्रता और विसंवाद ये अशुभ नाम कर्मके आस्रव हैं ॥22॥
6652. तीन प्रकारके योगका व्याख्यान पहले कर आये हैं। इसकी कुटिलता योगवता है। अन्यथा प्रवृत्ति करना विसंवाद है । शंका-इस तरह इनमें अर्थभेद नहीं प्राप्त होता; क्योंकि योगवत्रता और अन्यथा प्रवृत्ति करना एक ही बात है ? समाधान—यह कहना सही है तब भी स्वगत योगवक्रता कही जाती है और परगत विसंवादन । जो स्वर्ग और मोक्षके योग्य समीचीन क्रियाओंका आचरण कर रहा है उसे उसके विपरीत मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिद्वारा रोकना कि ऐसा मत करो ऐसा करो विसंवादन है। इस प्रकार ये दोनों एक नहीं हैं किन्तु अलग-अलग हैं। ये दोनों अशुभ नामकर्मके आस्रवके कारण जानने चाहिए। सूत्रमें आये हुए 'च' पदसे मिथ्यादर्शन, चुगलखोरी, चित्तका स्थिर न रहना, मापने और तौलनेके बाँट घट-बढ़ रखना, दूसरोंकी निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना आदि आस्रवोंका समुच्चय होता है।
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दिन
260] सर्वार्थसिद्धी
[61238-653 $ 653. अथ शुभनामकर्मणः क आस्रव इत्यत्रोच्यते
___ तद्विपरीतं शुभस्य ॥23 8654. कायवाङ्मनसामृजुत्वमविसंवादनं च तद्विपरीतम् । 'च'शब्देन समुच्चितस्य च विपरीतं ग्राह्यम् । धार्मिकदर्शनसंभ्रमसद्भावोपनयनसंसरणभीरताप्रमाववर्जनादिः। तदेतच्छभनामकर्मास्रवकारणं वेदितव्यम्।
8655. आह किमेतावानेव शुभनाम्न आलवविधिरुत कश्चिदस्ति प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते-यदिदं तीर्थकरनामकर्मानन्तानुपमप्रभावमचिन्त्यविभूतिविशेषकारणं त्रैलोक्यविजयकरं तस्यास्रवविधिविशेषोऽस्तीति । यद्येवमुच्यतां के तस्यास्रवः । इत्यत इदमारभ्यते
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्त्यकररणमहदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहारिणर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥24॥
$ 656.जिनेन भगवताहत्परमेष्ठिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थलक्षणे मोक्षवमनि रुचिदर्शनविशुद्धिः प्रागुक्तलक्षणा । तस्या अष्टावङ्गानि निश्शङ्कितत्वं निःकाक्षिता विचिकित्साविरहता अमढदृष्टिता उपब्रहणं स्थितीकरणं वात्सल्यं प्रभावनं चेति । सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षमार्येषु तत्साधनेषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार आदरो विनयस्तेन संपन्नता विनयसंपन्नता। अहिंसाविषु व्रतेषु तत्प्रतिपाल
$ 653. अब शुभ नामकर्मका आस्रव क्या है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं।
उससे विपरीत अर्थात् योगको सरलता और अविसंवाद ये शुभनामकर्मके आलव हैं॥23॥
8654. काय, वचन और मनकी सरलता तथा अविसंवाद ये उससे विपरीत हैं। उसी प्रकार पूर्व सूत्रकी व्यवस्था करते हुए 'च' शब्दसे जिनका समुच्चय किया गया है उनके विपरीत आस्रवोंका ग्रहण करना चाहिए। जैसे-धार्मिक पुरुषों व स्थानोंका दर्शन करना, आदर सत्कार करना, सद्भाव रखना, उपनयन, संसारसे डरना और प्रमादका त्याग करना आदि । ये सब शुभ नामकर्मके आस्रवके कारण हैं।
8655. शंका-क्या इतनी ही शभ नामकर्मकी आस्रवविधि हैं या और भी कोई विशेषता है ? समाधान--जो यह अनन्त और अनुपम प्रभाववाला, अचिन्त्य विभूति विशेषका कारण और तीन लोककी विजय करनेवाला तीर्थंकर नामकर्म है उसके आस्रवमें विशेषता है, अतः अगले सूत्र द्वारा उसीका कथन करते हैं
दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील और व्रतोंका अतिचार रहित पालन करना, ज्ञानमें सतत उपयोग, सतत संवेग, शक्तिके अनुसार त्याग, शक्तिके अनुसार तप, साधु-समाधि, वैयावृत्त्य करना, अरिहंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभवित, आवश्यक कियाओंको न छोड़ना, मोक्षमार्गको प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये तीर्थकर नामकर्मके आस्रव हैं ॥24॥
६ 656. (1) जिन भगवान् अरिहंत परमेष्ठी द्वारा कहे हुए निर्ग्रन्थ स्वरूप मोक्षमार्ग- . पर रुचि रखना दर्शनविशुद्धि है । इसका विशेष लक्षण पहले कह आये हैं। उसके आठ अंग हैंनिःशंकितत्व, निःकांक्षिता, निविचिकित्सितत्व, अमूढदृष्टिता, उपबृहण, स्थितीकरण, वात्सल्य
और प्रभावना । (2) सम्यग्जानादि मोक्षमार्ग और उनके साधन गुरु आदिके प्रति अपने योग्य 1. --मोक्षसाधनेषु तत्-- मु.।
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-6125 §.657]
षष्ठोऽध्यायः
[261
नार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शीलेषु निरवद्या वृत्तिः शीलव्रतेऽवनतीचारः । जीवादिपदार्थस्वतत्त्वविषये सम्यग्ज्ञाने नित्यं युक्तता अभीक्ष्णज्ञानोपयोगः । संसारदुःखान्नित्यभीरता संवेगः । त्यागो दानम् । तत्त्रिविधम्- आहारदानमभयदानं ज्ञानदानं चेति । तच्छक्तितो यथाविधि प्रयुज्यमानं त्याग इत्युच्यते । अनिगूहितवीर्यस्य मार्गाविरोधि कायक्लेशस्तपः । यथा भाण्डागारे दहने समुत्थिते तत्प्रशमनमनुष्ठीयते बहूपकारत्वात्तथाने कव्रतशील समृद्धस्य मुनेस्तपसः कुतश्चित्प्रत्यूहे समुपस्थिते तत्संधारणं समाधिः । गुणवद्दुःखोपनिपाते निरवद्येन विधिना तदपहरणं वैयावृत्त्यम् । अहंदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः । षण्णामावश्यकक्रियाणां यथाकालं प्रवर्तनमावश्यकपरिहाणिः । ज्ञानतपोदान जिन पूजा विधिना धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावना । वत्से धेनुवत्सघर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वम् । तान्येतानि षोडशकारणानि सम्यग्भाव्यमानानि व्यस्तानि च तीर्थंकर नामकर्मास्वकारणानि प्रत्येतव्यानि ।
8657. इदानों नामास्त्रवाभिधानानन्तरं गोत्रात्रवे वक्तव्ये सति नोचैर्गोत्रस्यास्त्रवविधा - नार्थमिदमाह -
परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्थ ||25|
आचरणद्वारा आदर सत्कार करना विनय है और इससे युक्त होना विनयसम्पन्नता है । (3) अहिंसादिक व्रत हैं और इनके पालन करनेके लिए कोधादिकका त्याग करना शील है । इन दोनोंके पालन करनेमें निर्दोष प्रवृत्ति रखना शीलव्रतानतिचार है । ( 4 ) जीवादि पदार्थरूप स्वतत्त्वविषयक सम्यग्ज्ञानमें निरन्तर लगे रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है । (5) संसारके दुःखोंसे निरन्तर डरते रहना संवेग है । ( 6 ) त्यांग दान है। वह तीन प्रकारका है-आहारदान, अभयदान और ज्ञानदान । उसे शक्तिके अनुसार विधिपूर्वक देना यथाशक्ति त्याग है । ( 7 ) शक्तिको न छिपाकर मोक्षमार्गके अनुकूल शरीरको क्लेश देना यथाशक्ति तप है । ( 8 ) जैसे भांडारमें आग लग जानेपर बहुत उपकारी होनेसे आगको शान्त किया जाता है उसी प्रकार अनेक प्रकारके व्रत और शीलोंसे समृद्ध मुनिके तप करते हुए किसी कारणसे विघ्नके उत्पन्न होनेपर उसका संधारण करना - शान्त करना साधुसमाधि है । (9) गुणी पुरुषके दुःख में आ पड़नेपर निर्दोष विधिसे उसका दुःख दूर करना वैयावृत्य है । (10-13 ) अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन इनमें भावोंकी विशुद्धिके साथ अनुराग रखना अरिहंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति है। ( 14 ) छह आवश्यक क्रियाओंका यथा समय करना आवश्यकापरिहाणि है । (15) ज्ञान, तप, दान और जिनपूजा इनके द्वारा धर्मका प्रकाश करना मार्गप्रभावना है । ( 16 ) जैसे गाय बछड़ेपर स्नेह रखती है उसी प्रकार साधर्मियोंपर स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व है । ये सब सोलह कारण हैं। यदि अलग-अलग इनका भले प्रकार चिन्तन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकर्मके आसवके कारण होते हैं और समुदायरूपसे सबका भले प्रकार चिन्तन किया जाता है तो भी ये तीर्थकर नामकर्मके आस्रवके कारण जानने चाहिए ।
§ 657. नामकर्मके आसूवोंका कथन करनेके बाद अब गोत्रकर्मके आस्रवोंका कथन क्रमप्राप्त है । उसमें भी पहले नीच गोत्रके आसूवोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं—परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन ये नीचगोत्रके आलव हैं || 2500
1. -चार्यबहु- मु. 2. तपोजिन - मु. ।
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262]
सर्वार्थसिद्धौ
[6126 6 6588658. 'तथ्यस्य वातथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनं प्रति इच्छा निन्दा । गुणोद्भावनाभिप्रायः प्रशंसा । यथासंख्य मभिसंबन्धः-परनिन्दा आत्मप्रशंसेति । प्रतिबन्धकहेतुसंनिधाने सति अनुभूतवृत्तिता अनाविर्भाव उच्छादनम् । प्रतिबन्धकाभावे प्रकाशवृत्तिता उद्भावनम् । अत्रापि च यथाक्रममभिसंबन्धः--सद्गुणोच्छादनमसद्गुणोद्भावनमिति । तान्येतानि नोचैर्गोत्रस्यास्रवकारणानि वेदितव्यानि। 8659. अथोच्चर्गोत्रस्य क आस्रवविधिरत्रोच्यते
तद्विपर्ययो नीचैवृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥26॥ 8660. 'तत्'इत्यनेन प्रत्यासत्ते चैगोत्रस्यासवः प्रतिनिदिश्यते। अन्येन प्रकारेण वृत्तिविपर्ययः । तस्य विपर्ययस्तद्विपर्ययः । कः पुनरसौ विपर्ययः? आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, सद्गुणोद्भावनमसद्गुणोच्छादनं च । गुणोत्कृष्टेषु विनयेनावनतिर्नीचैवृत्तिः। विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्तत्कृतमदविरहोऽनहंकारतानुत्सेकः । तान्येतान्युत्तरस्योच्चैर्गोत्रस्यास्रवकारणानि भवन्ति । 8661. अथ गोत्रानन्तरमुद्दिष्टस्यान्तरायस्य क आस्रव इत्युच्यते
विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥27॥ 8662. दानादीन्युक्तानि 'दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च' इत्यत्र । तेषां विहननं
8658. सच्चे या झूठे दोषको प्रकट करनेकी इच्छा निन्दा है। गुणोंके प्रकट करनेका भाव प्रशंसा है। पर और आत्मा शब्दके साथ इनका क्रमसे सम्बन्ध होता है । यथा परनिन्दा और आत्मप्रशंसाहै। रोकनेवाले कारणोंके रहनेपर प्रकट नहीं करनेकी वृत्ति होना उच्छादन है और रोकनेवाले कारणोंका अभाव होनेपर प्रकट करनेकी वृत्ति होना उद्भावन है। यहाँ भी क्रमसे सम्बन्ध होता है। यथा--सद्गुणोच्छादन और असद्गुणोद्भावन । इन सब का नीच गोत्रके आसवके कारण जानना चाहिए।
8659. अब उच्च गोत्रके आस्रवके कारण क्या हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणोंका उद्भावन और असद्गुणोंका उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्च गोत्रके आस्रव हैं ॥2॥
$ 660. इसके पहले नीच गोत्रके आस्रवोंका उल्लेख कर आये हैं, अतः 'तत्' इस पदसे उनका ग्रहण होता है । अन्य प्रकारसे वृत्ति होना विपर्यय है । नीच गोत्रका जो आस्रव कहा है उससे विपर्यय तद्विपर्यय है। शंका-वे विपरीत कारण कौन हैं ? समाधान-आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, सद्गुणोंका उद्भावन और असद्गुणोंका उच्छादन । जो गुणोंमें उत्कृष्ट हैं उनके विनयसे नम्र रहना नीचैर्वृत्ति है । ज्ञानादिकी अपेक्षा श्रेष्ठ होते हुए भी उसका मद न करना अर्थात् अहंकार रहित होना अनुत्सेक है। ये उत्तर अर्थात् उच्च गोत्रके आस्रवके कारण हैं।
8661. अब गोत्रके बाद क्रम प्राप्त अन्तराय कर्मका क्या आस्रव है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
दानादिकमें विघ्न डालना अन्तराय कर्मका आस्रव है ॥27॥
8662. 'दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च' इस सूत्रकी व्याख्या करते समय दानादिकका 1. तथ्यस्य वा दो-- मु.। 2. -संख्यमिति सम्ब- आ, दि. 1, दि. 2। 3. -भावेन प्रकाश- मु.। 4. -गोत्रास्रवः आ, दि. 1, दि. 21 5. -अनेन मु.।
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--6127 8 662] षष्ठोऽध्यायः
[263 विघ्नः । विघ्नस्य करणं विघ्नकरणमन्तरायस्यास्रवविधिर्वेदितव्यः । अत्र चोद्यते--तत्प्रदोषनिह्नयादयो ज्ञानदर्शनावरणादीनां प्रतिनियता आस्रवतवो वणिताः, किं ते प्रतिनियतज्ञानावरणाद्यानवहेतव एव उताविशेषेणेति। यदि प्रतिनियतज्ञानावरणाद्यास्रवहेतव एव, आगमविरोषः प्रसज्यते । आगमे हि सप्त कर्माणि आयुर्वया॑नि प्रतिक्षणं युगपदास्रवन्तीत्युक्तम् । तद्विरोषः स्यात् । अथाविशेषेण आस्रवहेतवो विशेषनिर्देशो न युक्त इति ?अत्रोच्यते-यद्यपि तत्प्रदोषादिभिर्जानावरणादीनां सर्वासां कर्मप्रकृतीनां प्रदेशबन्धनियमो नास्ति, तथाप्यनुभागनियमहेतुत्वेन तत्प्रदोषनिह्नवादयो विभाज्यन्ते।
इति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धि संज्ञिकायां षष्ठोऽध्यायः ।।6।।
व्याख्यान कर आये हैं। उनका नाश करना विघ्न है । और इस विघ्नका करना अन्तराय कर्मका आस्रव जानना चाहिए । शंका-तत्प्रदोष और निह्नव आदिक ज्ञानावरण और दर्शनावरण आदि कर्मोके प्रतिनियत आस्रवके कारण कहे तो क्या वे ज्ञानावरण और दर्शनावरण आदि प्रतिनियत कर्मोके आस्रवके कारण हैं या सामान्यसे सभी कर्मोंके आस्रवके कारण हैं ? यदि ज्ञानावरणादिक प्रतिनियत कर्मोके कारण हैं तो आगमसे विरोध प्राप्त होता है, क्योंकि आयुके सिवा शेष सात कर्मोंका प्रति समय आस्रव होता है ऐसा आगममें कहा है, अतः इससे विरोध होता है। और यदि सामान्यसे सब कर्मोके आस्रवके कारण हैं ऐसा माना जाता है तो इस प्रकार विशेष रूपसे कथन करना युक्त नहीं ठहरता ? समाधान-यद्यपि तत्प्रदोष आदिसे ज्ञानावरणादि सब कर्म प्रकृतियोंका प्रदेश बन्ध होता है ऐसा नियम नहीं है तो भी वे प्रतिनियत अनुभागबन्धके हेतु हैं, इसलिए तत्प्रदोष, निह्नव आदिका अलग-अलग कथन किया है।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थवृत्तिमें छठा अध्याय समाप्त हुआ।।6।।
1.-हेतुविशेष- आ., ता. ना. दि. 1, दि. 2।
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अथ सप्तमोऽध्यायः
$ 663. आसूत्रपदार्थो व्याख्यातः । तत्प्रारम्भकाले एवोक्तं 'शुभः पुण्यस्थ' इति तत्सामाम्पेनोक्तम् । तद्विशेषप्रतिपत्त्ययं कः पुनः शुभ इत्युक्ते इदमुच्यते
हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्' ulu
$ 664. 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्येवमादिभिः सूत्रैहसादयो निर्देश्यन्ते । तेभ्यो विरमणं विरतिव्रतमित्युच्यते । व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः, इदं कर्तव्यमिदं न कर्तव्यमिति वा । ननु च हिसादयः परिणामविशेषा अध्रुवाः, कथं तेषाम' पादानत्वमुच्यते ? बुद्धयपाये ध्रुवत्वविवक्षोपपत्तेः । यथा धर्माद्विरमतीत्यत्र य एष मनुष्यः संभिन्नबुद्धिः स पश्यति दुष्करो धर्मः, फलं चास्य श्रद्धामात्रगम्यमिति स' बुद्धचा संप्राप्य निवर्तते । एवमिहापि य' एव मनुष्यः प्रेक्षापूर्वकारी स पश्यति य एते हिंसादयः परिणामास्ते पापहेतवः । पापकर्माणि प्रवर्तमानान् जनानिहैव राजानो दण्डयन्ति परत्र च दुःखमाप्नुवन्तीति स' बुद्धया सप्राप्य निवर्तते । ततो बुद्धचा ध्रुवत्वविवक्षोपपत्तेरपादानत्वं युक्तम् । 'विरति शब्दः प्रत्येकं परिसमाप्यते हिंसाया विरतिः
ठु 663. आस्रव पदार्थका व्याख्यान करते समय उसके आरम्भ में 'शुभः पुण्यस्य' यह कहा है पर वह सामान्यरूपसे ही कहा है, अत: विशेषरूपसे उसका ज्ञान करानेके लिए शुभ क्या है ऐसा पूछने पर आगेका सूत्र कहते हैं
हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे विरत होना व्रत है ॥1॥
§ 664. 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्यादि सूत्रों द्वारा हिंसादिका जो स्वरूप आगे कहेंगे उनसे विरत होना व्रत कहलाता है । प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह व्रत है । या 'यह करने योग्य है और यह नहीं करने योग्य हैं इस प्रकार नियम करना व्रत है । शंका- हिंसा आदिक परिणाम विशेष ध्रुव अर्थात् सदा काल स्थिर नहीं रहते इसलिए उनका अपादान कारकमें प्रयोग कैसे बन सकता है ? समाधान- बुद्धिपूर्वक त्यागमें ध्रुवपनेकी विवक्षा बन जानेसे अपादान कारकका प्रयोग बन जाता है । जैसे 'धर्मसे विरत होता है' यहाँ जो यह धर्मसे विमुख बुद्धिवाला मनुष्य है वह विचार करता है कि 'धर्म दुष्कर है और उसका फल श्रद्धामात्रगम्य है' इस प्रकार वह बुद्धिसे समझ कर धर्मसे विरत हो जाता है। इसी प्रकार यहाँ भी जो यह मनुष्य विचारपूर्वक काम करनेवाला है वह विचार करता है कि जो ये हिंसादिक परिणाम हैं वे पापके कारण हैं और जो पाप कार्यमें प्रवृत्त होते हैं उन्हें इसी भवमें राजा लोग दण्ड देते हैं और वे पापाचारी परलोकमें दुःख उठाते हैं, इस प्रकार वह बुद्धिसे समझ कर हिंसादिकसे विरत हो जाता है । इसलिए बुद्धिसे ध्रुवत्वपनेकी विवक्षा बन जानेसे अपादान कारकका प्रयोग करना उचित है । विरति शब्दको प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए । यथा 1. 'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । पा. यो. सू. 2, 301 2. 'अभिसन्धिकृता निरतिविषयाचोम्याद्वतं भवति । रत्न. 3,401 3. 'ध्रुवमपायेऽपादानम् -पा. 1, 4, 24 । 4. 'धर्माद्विरमति X x एव मनुष्यः संभिन्नबुद्धिर्भवति स पश्यति । - पा. म. भा. 1, 4, 3, 24 1 5. स्वबुद्धया भु. 'स बुद्धया निवर्तते' - पा. म. भा. 1, 4, 3, 24 1 6. य एष मनुष्यः प्रक्षापूर्वकारी भवति स पश्यति ।' - मा. म. भा. 1, 4, 3, 24। 7. वन्तीति स्वबुद्धया मु., वा. ना. ।
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--712 § 666]
सप्तमोऽध्यायः
[265
अनुताद्वितिरित्येवमादि । तत्र अहिंसाव्रतमांदी क्रियते प्रधानत्वात् । सत्यादीनि हि तत्परिपालनार्थानि सस्यस्य वृतिपरिक्षेपवत् । सर्वसावद्यनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एकं व्रतं, तदेव छेदोपस्थापनापेक्षया पञ्चविधमिहोच्यते । ननु च अस्य व्रतस्यास्रवहेतुत्वमनुपपन्नं संवर हेतुष्वन्तर्भावात् । संवरतवो वक्ष्यन्ते गुप्तिसमित्यादयः । तत्र दशविधे धर्मे संयमे वा व्रतानामन्तर्भाव इति ? नैष दोषः ; तत्र संवरो निवृत्तिलक्षणो वक्ष्यते । प्रवृत्तिश्चात्र दृश्यते'; हिंसानृतादत्तादानादिपरित्यागे हिंसासत्यवचन दत्तादानादिक्रियाप्रतीतेः गुप्त्यादिसंवरपरिकर्मत्वाच्च । व्रतेषु हि कृतपरिकर्मा साधुः सुखेन संवरं करोतीति ततः पृथक्त्वेनोपदेशः क्रियते । ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं तदिहोपसंख्यातव्यम् ? न; भावनास्वन्तर्भावात् । अहिंसावतभावना हि वक्ष्यन्ते । तत्र आलोकितपानभोजनभावना कार्येति ।
8665. तस्य पञ्चतयस्य व्रतस्य भेदप्रतिपत्त्यर्थमाहदेश सर्वतोऽणुमहती ॥2॥
$ 666. देश एकदेशः । सर्वः सकलः । देशश्च सर्वश्च देशसत्रौं ताभ्यां देशसर्वतः । 'विरतिः' इत्यनुवर्तते । अणु च महच्चाणुमहती । व्रताभिसंबन्धान्नपुंसकलिङ्गनिर्देशः । यथासंख्यमभिहिंसासे विरति, असत्यसे विरति आदि । इन पाँच व्रतोंमें अहिंसा व्रतको प्रारम्भमें रखा है क्योंकि वह सब में मुख्य है । धान्यके खेत के लिए जैसे उसके चारों ओर काँटोंका घेरा होता है उसी प्रकार सत्यादिक सभी व्रत उसकी रक्षाके लिए हैं । सब पापोंसे निवृत्त होनेरूप सामायिककी अपेक्षा एक व्रत है । वही व्रत छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा पाँच प्रकारका है और उन्हींका यहाँ कथन किया है । शंका- यह व्रत आस्रवका कारण है यह बात नहीं बनती, क्योंकि संवरके कारणों में इनका अन्तर्भाव होता है। आगे गुप्ति, समिति इत्यादि संवरके कारण कहनेवाले हैं । वहाँ दस प्रकारके धर्मोमें एक संयम नामका धर्म बतलाया है उसमें व्रतोंका अन्तर्भाव होता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहाँ निवृत्तिरूप संवरका कथन करेंगे और यहाँ प्रवृत्ति देखी जाती है, क्योंकि हिंसा, असत्य और अदत्तादान आदिका त्याग करने पर अहिंसा, सत्यवचन और दी हुई वस्तुका ग्रहण आदि रूप क्रिया देखी जाती है । दूसरे ये व्रत गुप्ति आदि रूप संव
अंग हैं। जिस साधने व्रतोंकी मर्यादा कर ली है वह सुखपूर्वक संवर करता है, इसलिए व्रतोंका अलगसे उपदेश दिया है । शंका - रात्रिभोजनविरमण नाम छठा अणुव्रत है उसकी यहाँ परिगणना करनी थी ? समाधान नहीं, क्योंकि उसका भावनाओंमें अन्नर्भाव हो जाता है । आगे अहिंसा व्रतकी भावनाएँ कहेंगे । उनमें एक आलोकितपानभोजन नामकी भावना है उसमें रात्रिभोजनविरमण नामक व्रतका अन्तर्भाव जाता है ।
8665. उस पाँच प्रकारके व्रतके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंहिंसादिकसे एकदेश निवृत्त होना अणुव्रत है और सब प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत
11211
§ 666. देश शब्दका अर्थ एकदेश है और सर्व शब्दका अर्थ सकल है । सूत्रमें देश और सर्व शब्दका द्वन्द्व समास करके तसि प्रत्यय करके 'देशसर्वतः' पद बनाया है । इस सूत्र में विरति शब्दक अनुवृत्ति पूर्व सूत्रसे होती है । यहाँ अणु और महत् शब्दका द्वन्द्व समास होकर 'अणुमहती' पद बना है । व्रत शब्द नपुंसक लिंग है, इसलिए 'अणुमहती यह नपुंसक लिंगपरक निर्देश किया है । इनका सम्बन्ध क्रमसे होता है । यथा- - एकदेश निवृत्त होना अणुव्रत है और
1. दृश्यते हिंसानृतादत्तादानादिक्रिया -- मु. । 2. --यन्ते । आलो.- आ., दि. 1, दि. 2 1 3. 'एते जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ।' पा. यो. सू. 2, 31
1
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2661
सर्वार्थसिद्धी
[713 § 672
संबध्यते । वेशतो विरतिरणुव्रतं सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति द्विधा भिद्यते प्रत्येकं व्रतम् । एतानि मानि भावितानि वरौषधवद्यत्नवते' दुःखनिवृत्तिनिमित्तानि भवन्ति ।
8667. किमर्थं कथं वा भावनं तेषामित्यत्रोच्यते
तत्स्थैर्यार्थं भावनाः पञ्च पञ्च ॥3॥
8 668. तेषां व्रतानां स्थिरीकरणायैकैकस्य व्रतस्य पञ्च पञ्च भावना वेदितव्याः । "येवमाद्यस्याहिंसावृतस्य भावनाः का इत्यत्रोच्यते
वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥4॥
$ 669. वाग्गुप्तिः मनोगुप्तिः ईर्यासमितिः आदाननिक्षेपणसमितिः आलोकितपानभोजन1. रत्येताः पञ्चाहिंसावृतस्य भावनाः ।
8 670. अथ द्वितीयस्य व्रतस्य का इत्यत्रोच्यते-
क्रोध लोभ भीरुत्व हास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचीभाषणं च पञ्च ॥5॥
§ 671. क्रोधप्रत्याख्यानं लोभप्रत्याख्यानं भीरुत्वप्रत्याख्यानं हास्यप्रत्याख्यानम् अनुवीचीभाषणं चेत्येताः पञ्च भावनाः सत्यव्रतस्य ज्ञेयाः । अनुवीची भाषणं निरवद्यानुभाषणमित्यर्थः । 8672. इदानीं तृतीयस्य व्रतस्य का भावना इत्यत्राहशून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरण भैक्ष शुद्धिसधर्माविसंवादाः पञ्च ॥16॥
सब प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत है इस प्रकार अहिंसादि प्रत्येक व्रत दो प्रकारके हैं । प्रयत्नशील जो पुरुष उत्तम ओषधिके समान इन व्रतोंका सेवन करता है उसके दुःखों का नाश होता है । 8667. इन व्रतोंकी किसलिए और किस प्रकार भावना करनी चाहिए, अब इसी बातको बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं—
उन व्रतोंको स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रतको पाँच पाँच भावनाएँ हैं ॥3॥
8668. उन व्रतोंको स्थिर करनेके लिए एक एक व्रतकी पाँच पाँच भावनाएँ जाननी चाहिए। यदि ऐसा है तो प्रथम अहिंसा व्रतकी भावनाएँ कौन-सी हैं ? अब इस बातको बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदान निक्षेपणसमिति और आलोकितपान- भोजन ये अहिंसावती पाँच भावनाएँ हैं || 4 ||
8669. वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकित - पानभोजन ये अहिंसा व्रतकी पाँच भावनाएँ हैं ।
8670. अब दूसरे व्रतकी भावनाएँ कौनसी हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंक्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण ये सत्य व्रतको पाँच भावनाएँ हैं ||5
8671. क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण ये सत्य व्रतकी पाँच भावनाएँ हैं । अनुवीचीभाषणका अर्थ निर्दोष भाषण है । § 672. अब तीसरे व्रतकी कौनसी भावनाएँ हैं, यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र
कहते हैं
शून्यागारावास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्षशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये raौर्य व्रतको पाँच भावनाएँ हैं ॥6॥
1. वरौषधवत् दुःख-- आ
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सप्तमोऽध्यायः
--718 § 678]
[267
8673. शून्यागारेषु गिरिगुहातरुकोटरादिष्वावासः । परकीयेषु च विमोचितेष्वावासः । परेषामुपरोधकरणम् । आचारशास्त्रमार्गेण भैक्षशुद्धिः । ममेदं तवेदमिति सधर्मभिरविसंवादः । इत्येताः पञ्चादत्तादानविरमणवू तस्य भावनाः ।
8674. अथेदानीं ब्रह्मचर्यव्रतस्य भावना वक्तव्या इत्यत्राहस्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्ट रसस्वशरीर
संस्कारत्यागाः पञ्च ॥7॥
$ 675. त्यागशब्दः प्रत्येकं परिसमाप्यते । स्त्रीरागकथाश्रवणत्यागः तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणत्यागः पूर्वरतानुस्मरणत्यागः वृष्येष्टर सत्यागः स्वशरीरसंस्कार त्यागश्चेति चतुर्थवृतस्य भावनाः पञ्च विज्ञेयाः ।
§ 676. अथ पञ्चमवृतस्य भावनाः का इत्यत्रोच्यते
मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषय रागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥ 8 ॥
8677. पञ्चानामिन्द्रियाणां स्पर्शनादीनामिष्टानिष्टेषु विषयेषूपनिपतितेषु' स्पर्शादिषु रागवर्जनानि पञ्च आकिंचन्यस्य व्रतस्य भावना: प्रत्येतव्याः ।
$ 678. किंचान्यद्यथामीषां वृतानां द्रढिमार्थं भावनाः प्रतीयन्ते तद्विपश्चिद् द्भिरिति भावनोपदेशः, तथा तदर्थं तद्विरोधिष्वपीत्याह
8673. पर्वतकी गुफा और वृक्षका कोटर आदि शून्यागार हैं इनमें रहना शून्यागारावास है । दूसरों द्वारा छोड़े हुए मकान आदिमें रहना विमोचितावास है । दूसरों को ठहरनेसे नहीं रोकना परोपरोधाकरण है । आचार शास्त्रमें बतलायी हुई विधि के अनुसार भिक्षा लेना भैक्षशुद्धि है। 'यह मेरा है यह तेरा है' इस प्रकार सर्धामियोंसे विसंवाद नहीं करना सधर्माविसंवाद है । ये अदत्तादानविरमण व्रतकी पाँच भावनाएँ हैं ।
8674. अब इस समय ब्रह्मचर्य व्रतकी पाँच भावनाओंका कथन करना चाहिए; इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
स्त्रियोंमें रागको पैदा करनेवाली कथाके सुननेका त्याग, स्त्रियोंके मनोहर अंगोंको देखनेका त्याग, पूर्व भोगोंके स्मरणका त्याग, गरिष्ठ और इष्ट रसका त्याग तथा अपने शरीरके संस्कारका त्याग ये ब्रह्मचर्य व्रतकी पाँच भावनाएँ हैं ॥7॥
8 675. त्याग शब्दको प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए । यथा - स्त्रीरागकथा - श्रवणत्याग, तन्मनोहरांग निरीक्षणत्याग, पूर्वरतानुस्मरणत्याग, वृष्येष्टरसत्याग और स्वशरीरसंस्कारत्याग ये ब्रह्मचर्य व्रतकी भावनाएँ हैं ।
8676. अब पाँचवें व्रतकी कौनसी भावनाएँ हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंमनोज्ञ और अमनोज्ञ इन्द्रियोंके विषयोंमें क्रमसे राग और द्वेषका त्याग करना ये अपरग्रहवृतकी पाँच भावनाएं हैं ॥8 ॥
8677. स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियोंके इष्ट और अनिष्ट स्पर्श आदिक पाँच विषयोंके प्राप्त होने पर राग और द्वेषका त्याग करना ये आकिंचन्य व्रतकी पाँच भावनाएं जाननी चाहिए । § 678. जिस प्रकार इन व्रतोंकी दृढ़ता के लिए भावनाएँ प्रतीत होती हैं, इसलिए भावनाओंका उपदेश दिया है उसी प्रकार विद्वान् पुरुषोंको वृतोंकी दृढ़ताके लिए विरोधी भावोंके विषय में क्या करना चाहिए ? यह बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
1. येषूपरिपतितेषु आ. दि. 1, दि. 21
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सर्वार्थसिद्धौ
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥9॥
8679 अभ्युदयनिःश्रेयसार्थानां क्रियाणां विनाशक: 1 प्रयोगोऽपायः । अवद्यं गहम् । अपायश्चावद्यं चापायावद्यं तयोर्दर्शनमपायावद्यदर्शनं भावयितव्यम् । क्व ? इहामुत्र च । केषु ? हिंसादिषु । कथमिति चेदुच्यते-हिंसायां तावत्, हिंस्रो हि नित्योद्वेजनीयः सततानुबद्धर्वरश्च इह च वधबन्धपरिक्लेशादीन् प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गति गर्हितश्च भवतीति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् । तथा अनृतवादी अश्रद्धेयो भवति इहैव च जिह्वाच्छेदादीन् प्रतिलभते मिष्याम्याल्यानदुःखितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यो बहूनि व्यसनान्यवाप्नोति प्रेत्य चाशुभां गति गर्हितश्च भवतीति अनूतवचनादुपरमः श्रेयान् । तथा स्तेनः परद्रव्याहरणासक्तः सर्वस्योद्वेजनीयो भवति । इहैव चाभिघातवधबन्धहस्तपादकर्णनासोत्त रौष्ठच्छेदनभेदन सर्वस्वहरणादीन् प्रतिलभते प्र ेत्य चाशुभां गत गर्हितश्च भवतीति स्तेयाद् व्युपरतिः श्रेयसी । तथा अब्रह्मचारी मदविमोक्षान्तचितो वनगज इव वासितावञ्चितो विवशो बधबन्धन परिक्लेशाननुभवति मोहाभिभूतत्वाच्च कार्या - कार्यानभिज्ञो न किचित्कुशलमाचरति पराङ्गनालिङ्गनस ङ्गकृतरतिश्चेहैव वैरानुबन्धनो लिगच्छेदनवधबन्धसर्वस्वहरणादीनपायान् प्राप्नोति प्र ेत्य चाशुभां गतिमश्नुते गर्हितश्च भवति बतो
हिंसादिक पाँच दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवधका दर्शन भावने योग्य
268]
1191
$ 679. स्वर्ग और मोक्षकी प्रयोजक क्रियाओंका विनाश करनेवाली प्रवृत्ति अपाय है । अद्यका अर्थ गर्ह्य है । अपाय और अवद्य इन दोनोंके दर्शन की भावना करनी चाहिए। शंकाकहाँ ? समाधान - इस लोक और परलोकमें। शंका - किनमें ? समाधान - हिंसादि पाँच दोषोंमें । शंका- कैसे ? समाधान - हिंसा में यथा - हिंसक निरन्तर उद्व ेजनीय है, वह सदा वैरको बाँधे रहता है । इस लोक में वध, बन्ध और क्लेश आदिको प्राप्त होता है तथा प्ररलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इस लिए हिंसाका त्याग श्रेयस्कर है । असत्यवादीका कोई श्रद्धान नहीं करता । वह इस लोकमें जिह्वाछेद आदि दुःखों को प्राप्त होता है तथा असत्य बोलने से दुःखी हुए अतएव जिन्होंने वैर बाँध लिया है उनसे बहुत प्रकारकी आपत्तियों को और परलोक में अशुभ गतिको प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए असत्य वचनका त्याग श्रेयस्कर है । तथा परद्रव्यका अपहरण करनेवाले चोरका सब तिरस्कार करते हैं। इस लोकमें वह ताड़ना, मारना, बाँधना तथा हाथ, पैर, कान नाक, ऊपरके ओठका छेदना, भेदना और सर्वस्वहरण आदि दुःखोंको और परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए चोरीका त्याग श्रेयस्कर है। तथा जो अब्रह्मचारी है उसका चित्त मदसे भ्रमता रहता है। जिस प्रकार वनका हाथी हथिनीसे जुदा कर दिया जाता है और विवश होकर उसे वध, बन्धन और क्लेश आदि दुःखोंको भोगना पड़ता है ठीक यही अवस्था अब्रह्मचारीकी होती है। मोहसे अभिभूत होनेके कारण वह कार्य और अकार्यके विवेकसे रहित होकर कुछ भी उचित आचरण नहीं करता । परस्त्रीके आलिंगन और संसर्ग में ही इसको रति रहती है, इसलिए यह वैको बढ़ानेवाले लिंगका छेदा जाना, मारा जाना, बाँधा आना और सर्वस्वका अपहरण किया जाना आदि दुःखोंको और परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है तथा गर्हित भी होता है, इसलिए अब्रह्मका त्याग आत्महितकारी है । जिस प्रकार पक्षी मांसके टुकड़ेको प्राप्त करके उसको चाहनेवाले दूसरे पक्षियोंके द्वारा पराभूत होता है उसी प्रकार परिग्रहवाला भी इसी 1. - शकप्रयो - मु.
[719 § 679
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-7110 6 682] सप्तमोऽध्यायः
[269 विरतिरात्महिता । तथा परिग्रहवान् शकुनिरिव गृहीतमांसखण्डोऽन्येषां तदथिनां पतत्त्रिणामिहैव तकरादीनामभिभवनीयो भवति तदर्जनरक्षणप्रक्षयकृतांश्च दोषान् बहूनवाप्नोति न चास्य तृप्तिर्भवति इन्धनैरिवाग्नेः लोभाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानपेक्षो भवति प्रेत्य चाशुभां गतिमास्कन्दते लुब्धोऽयमिति गहितश्च भवतीति तद्विरमणं श्रेयः । एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम्। $ 680. हिंसादिषु भावनान्तरप्रतिपादनार्थमाह- .
दुःखमेव वा ॥10॥ 8681. हिंसादयो दुःखमेवेति भावयितव्याः। कथं हिंसादयो दुःखम् ? दुःखकारणत्वात् । यथा “अन्नं वै प्राणा:' इति । कारणस्य कारणत्वाद्वा । यथा “धनं प्राणा:” इति । धनकारणमन्नपानकारणाः प्राणा इति। तथा हिंसादयोऽसवेद्यकर्मकारणम् । असद्यकर्म च दुःख . कारणमिति दुःखकारणे दुःखकारणकारणे वा दुःखोपचारः । तदेते' दुःखमेवेति भावनं परात्मसाक्षिकमवगन्तव्यम् । ननु च तत्सर्वं न दुःखमेव; विषयरतिसुखसद्भावात् ? 'न तत्सुखम् । वेदनाप्रतीकारत्वात्कच्छकण्डूयनवत् ।।
8682. पुनरपि भावनान्तरमाहलोकमें उसको चाहनेवाले चोर आदिके द्वारा पराभूत होता है । तथा उसके अर्जन, रक्षण और नाशसे होनेवाले अनेक दोषोंको प्राप्त होता है। जैसे ईधनसे अग्निकी तृप्ति नहीं होती वैसे ही इसकी कितने ही परिग्रहसे कभी भी तृप्ति नहीं होती। यह लोभातिरेकके कारण कार्य और अकार्यका विवेक नहीं करता, परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है । तथा यह लोभी है इस प्रकारसे इसका तिरस्कार भी होता है, इसलिए परिग्रहका त्याग श्रेयस्कर है । इस प्रकार हिंसा आदि दोषोंमें अपाय और अवद्यके दर्शनको भावना करनी चाहिए।
8680. अब हिंसा आदि दोषोंमें दूसरी भावनाका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अथवा हिंसादिक दुःख ही हैं ऐसी भावना करनी चाहिए ॥10॥
8681. हिंसादिक दुःख ही हैं ऐसा चिन्तन करना चाहिए। शंका-हिंसादिक दु:ख कैसे हैं ? समाधान-दु:खके कारण होनेसे । यथा-'अन्न ही प्राण हैं।' अन्न प्राणधारणका कारण है पर कारणमें कार्यका उपचार करके जिस प्रकार अन्नको ही प्राण कहते हैं । या कारणका कारण होनेसे हिंसादिक दुःख हैं । यथा-'धन हो प्राण हैं ।' यहाँ अन्नपानका कारण धन है और प्राणका कारण अन्नपान है, इसलिए जिस प्रकार धनको प्राण कहते हैं उसी प्रकार हिंसादिक असाता वेदनीय कर्मके कारण हैं और असाता वेदनीय दुःखका कारण है, इसलिए दुःखके कारण या दुःखके कारणके कारण हिंसादिकमें दुःखका उपचार है । ये हिंसादिक दुःख ही हैं इस प्रकार अपनी और दूसरोंकी साक्षीपूर्वक भावना करनी चाहिए। शंका-ये हिंसादिक सबके सब केवल दुःख ही हैं यह बात नहीं है, क्योंकि विषयोंके सेवनमें सुख उपलब्ध होता है ? समाधान-विषयोंके सेवन से जो सुखाभास होता है वह सुख नहीं है, किन्तु दादको खुजलानेके समान केवल वेदनाका प्रतिकारमात्र है।
8682. और भी अन्य भावना करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं1. तदेते दुःखमेवेति भावनं परमात्ससा- आ.। तदेतत् दुःखमेवेति भावनं परात्मसा-- मु.। तदेते दुःखमेवेति भावनं परत्रात्मसा-- ता.। 2. ननु च सर्व दुःखमेव ता.। 3. भावनार्थमाह आ, वि. 1, दि. 2 ।
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270] सर्वार्थसिद्धौ
[71118683मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥1॥
8683. परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री। वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भवितरागः प्रमोदः । दीनानुग्रहभावः कारुण्यम् । रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थ्यम् । दुष्कर्मविपाकवशान्नानायोनिषु सीदन्तीति सत्त्वा जीवाः । सम्यग्ज्ञानादिभिः प्रकृष्टा गुणाधिकाः । असāद्योदयापादितक्लेशाः क्लिश्यमानाः । तत्त्वार्थश्रवणग्रहणाभ्यामसंपादितगुणा अविनेयाः। एतेषु सत्त्वादिषु यथासंख्यं मैत्र्यादीनि भावयितव्यानि । सर्वसत्त्वेषु मैत्री, गुणाधिकेषु प्रमोदः, क्लिश्यमानेषु कारुण्यम्, अविनेयेषु माध्यस्थ्यमिति । एवं भावयतः पूर्णान्याहंसादीनि व्रतानि भवन्ति । 8684. पुनरपि भावनान्तरमाह--
"जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥12॥ 8685. जगत्स्वभावस्तावदनादिरनिधनो वेत्रासनझल्लरीमदंगनिभः। अत्र जीवा अनादिसंसारेऽनन्तकालं न नायोनिषु दुःखं भोज भोजं पर्यटन्ति । न चात्र किचिन्नियतमस्ति । जलबुद्बुदोपमं जीवितम्, विद्युन्मेघादिविकारचपला भोगसंपद इति । एवमादिजगत्स्वभावचिन्तनात्संसारात्संवेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता दुःखहेतुत्व निःसारता अशुचित्वमिति । एवमादि
प्राणीमात्रमें मैत्री, गुणाधिकोंमें प्रमोद, क्लिश्यमानोंमें करुणा वृत्ति और अविनेयोंमें माध्यस्थ्य भावना करनी चाहिए ॥1॥
8683. दूसरोंको दुःख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है । मुखकी प्रसन्नता आदिके द्वारा भीतर भक्ति और अनुरागका व्यक्त होना प्रमोद है। दोनों पर दयाभाव रखना कारुण्य है। रागद्वेषपूर्वक पक्षपातका न करना माध्यस्थ्य है। बरे कर्मोके फलसे जो नाना योनियों में जन्मते और मरते हैं वे सत्त्व हैं। सत्त्व यह जीवका पर्यायवाची नाम है। जो सम्यग्ज्ञानादि गुणोंमें बढ़ चढ़े हैं वे गुणाधिक कहलाते हैं । असातावेदनीयके उदयसे जो दु:खी हैं वे क्लिश्यमान कहलाते हैं। जिनमें जीवादि पदार्थोंको सुनने और ग्रहण करनेका गुण नहीं हैं वे अविनेय कहलाते हैं। इन सत्त्व आदिकमें क्रमसे मैत्री आदिकी भावना करनी चाहिए। जो सब जीवोंमें मैत्री, गुणाधिकोंमें प्रमोद, क्लिश्यमानोंमें कारुण्य और अविनेयोंमें माध्यस्थ्य भावकी भावना करता है उसके अहिंसा आदि व्रत पूर्णताको प्राप्त होते हैं।
8684. अब फिर भी और भावनाके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
संवेग और वैराग्यके लिए जगत्के स्वभाव और शरीरके स्वभावकी भावना करनी चाहिए ॥12॥
8685. जगत्का स्वभाव यथा—यह जगत् अनादि है, अनिधन है, वेत्रासन, झल्लरी और मृदंगके समान है। इस अनादि संसारमें जीव अनन्त काल तक नाना योनियोंमें दु:खोंको पुनः पुनः भोगते हुए भ्रमण करते हैं। इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है । जीवन जलके बुलबुलेके समान है । और भोग-सम्पदाएं बिजली और इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं-इत्यादि रूपसे जगत्के स्वभावका चिन्तन करनेसे संसारसे संवेग-भय होता है। कायका स्वभाव यथा-यह शरीर अनित्य है, दुःखका कारण है, निःसार है और अशुचि है इत्यादि। इस प्रकार कायके 1. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनतश्चित्तप्रसादनम् ।' पा. यो. सू. 1, 33 । 2. शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा पररसंसर्गः।- पा. यो. सू. 2,40।
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---7113 $ 687] सप्तमोऽध्यायः
[271 कायस्वभावचिन्तनाद्विषयरागनिवृत्तेर्वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावौ भावयितव्यो।
8686. अत्राह; उक्तं भवता हिंसादिनिवृत्तिव्रतमिति, तत्र न जानीमः के हिंसादयः क्रियाविशेषा इत्यत्रोच्यते । युगपद्वक्तुमशक्यत्वात्तल्लक्षणनिर्देशस्य क्रमप्रसंगे यासावादी चोदिता सैव तावदुच्यते
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥13॥ 8 687. प्रमादः सकषायत्वं तद्वानात्मपरिणामः प्रमत्तः। प्रमत्तस्य योगः प्रमत्तयोगः, तस्मात्प्रमत्तयोगात् इन्द्रियादयो दशप्राणास्तेषां यथासंभवं व्यपरोपणं वियोगकरणं हिसेत्यभिधीयते । सा प्राणिनो दुःखहेतुत्वादधर्महेतुः । 'प्रमत्तयोगात्' इति विशेषणं केवलं प्राणव्यपरोपणं नाधर्मायेति ज्ञापनार्थम् । उक्तं च--
वियोजयति चासुभिर्न च बघेन संयुज्यते ॥” इति ।। उक्तं च
"उच्चालिदम्हि पादे इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे । आवादे [धे] ज्ज कुलिंगो मरेज्ज तज्जोगमासेज्ज ।। ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिदो समए।
मुच्छापरिग्गहो त्ति य अज्झप्पपमाणदो भणिदो ॥" ननु च प्राणव्यपरोपणाभावेऽपि प्रमत्तयोगमात्रादेव हिंसेष्यते । उक्तं चस्वभावका चिन्तन करनेसे विषयोंसे आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है । अत: जगत् और कायके स्वभावकी भावना करनी चाहिए।
8686. यहाँ पर शंकाकार कहता है कि आपने यह तो बतलाया कि हिंसादिकसे निवृत्त होना व्रत है । परन्तु वहाँ यह न जान सके कि हिंसादिक क्रियाविशेष क्या हैं ? इसलिए यहाँ कहते हैं । तथापि उन सबका एक साथ कथन करना अशक्य है, किन्तु उनका लक्षण क्रमसे ही कहा जा सकता है, अत: प्रारम्भमें जिसका उल्लेख किया है उसीका स्वरूप बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
प्रमत्तयोगसे प्राणोंका वध करना हिंसा है ॥13॥
8687. प्रमाद कषाय सहित अवस्थाको कहते हैं और इस प्रमादसे युक्त जो आत्माका परिणाम होता है वह प्रमत्त कहलाता है । तथा प्रमत्तका योग प्रमत्तयोग है। इसके सम्बन्धसे इन्द्रियादि दस प्राणोंका यथासम्भव व्यपरोपण अर्थात् वियोग करना हिंसा कही जाती है। इससे
को दुःख होता है, इसलिए वह अधर्मका कारण है। केवल प्राणोंका वियोग करनेसे अधर्म नहीं होता है यह बतलानेके लिए सूत्रमें 'प्रमत्तयोगसे' यह पद दिया है। कहा भी है
'यह प्राणी दूसरेको प्राणोंसे वियुक्त करता है तो भी उसे हिंसा नहीं लगती।' और भी कहा है
ईर्यासमितिसे युक्त साधुके अपने पैरके उठाने पर चलनेके स्थानमें यदि कोई क्षुद्र प्राणी उनके पैरसे दब जाय और उसके सम्बन्धसे मर जाय तो भी उस निमित्तसे थोड़ा भी बन्ध आगममें नहीं कहा है, क्योंकि जैसे अध्यात्म दृष्टिसे मूर्छाको ही परिग्रह कहा है वैसे यहाँ भी रागादि परिणामको हिंसा कहा है।'
शंका-प्राणोंका विनाश न होने पर भी केवल प्रमत्तयोंगसे ही हिंसा कही जाती है । कहा भी है
1. भगवता मु., ता., ना.। 2. सिद्ध. द्वा. 3,16। 3. प्रवचन. क्षे,3,16। 4. प्रवचन. क्षे.3,171.
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272]
सर्वार्थसिद्धी
[71148688-- "मरदु व जियदुव जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामित्तण समिदस्स ।।" नैष दोषः । अत्रापि प्राणव्यपरोपणमस्ति भावलक्षणम् । तथा चोक्तम --
"स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् ।
पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ।।" 8688. आह अभिहितलक्षणा हिंसा । तदनन्तरोद्दिष्टमनृतं किलक्षणमित्यत्रोच्यते--
असदभिधानमनृतम् ॥14॥ 8 689. सच्छन्दः प्रशंसावाची । सदसदप्रशस्तमिति यावत् । सतोऽर्थस्याभिधानमसदभिधानमनृतम् । ऋतं सत्यं, न ऋतमनृतम्। किं पुनरप्रशस्तम् ? प्राणिपीडाकरं यत्तदप्रशस्तं विद्यमानार्थविषयं वा अविद्यमानार्थविषयं वा । उक्तं च प्रागेवाहिसाव तपरिपालनार्थमितरद्वतम् इति । तस्माद्धिसाकर वचोऽन्तमिति निश्चेयम् । 8 690. अथानृतानन्तरमुद्दिष्टं यत्स्तेयं तस्य किं लक्षामत्यत आह----
अदत्तादानं स्तेयम् ॥15॥ 8691. आदानं ग्रहणमदत्तस्यादानमदत्तादानं स्तेयमित्युच्यते । यद्येवं कर्मनोकर्मग्रहणमपि स्तेयं प्राप्नोति; अन्येनादत्तत्वात् ? नैष दोषः, दानादाने यत्र संभवतस्तत्रैव स्तेयव्यवहारः।
'जीव मर जाय या जीता रहे तो भी यत्नाचारसे रहित पुरुषके नियमसे हिंसा होती है और जो यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है, हिंसाके हो जाने पर भी उसे बन्ध नहीं होता ॥' ।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ भी भावरूप प्राणोंका नाश है ही । कहा भी है
'प्रमादसे युक्त आत्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है इसके बाद दूसरे प्राणियोंका बध होवे या मत होवे।
868 8. हिंसाका लक्षण कहा । अब उसके बाद असत्यका लक्षण बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
असत् बोलना अनृत है ॥15॥
8689. सत् शब्द प्रशंसावाची है । जो सत् नहीं वह असत् है । असत्का अर्थ अप्रशस्त है । तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ नहीं है उसका कथन करना अनृत-असत्य कहलाता है। ऋतका अर्थ सत्य है और जो ऋत--सत्य नहीं है वह अनृत है । शंका-अप्रशस्त किसे कहते हैं ? समाधान--जिससे प्राणियोंको पीड़ा होती है उसे अप्रशस्त कहते हैं। भले ही वह चाहे विद्यमान पदार्थको विषय करता हो या चाहे अविद्यमान पदार्थको विषय करता हो । यह पहले ही कहा है कि शेष व्रत अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिए हैं। इसलिए जिससे हिंसा हो वह वचन अनृत है ऐसा निश्चय करना चाहिए।
$690. असत्यके वाद जो स्तेय कहा है उसका क्या लक्षण है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
बिना दी हुई वस्तुका लेना स्तेय है ॥15॥
8691. आदान शब्दका अर्थ ग्रहण है। बिना दी हुई वस्तुका लेना अदत्तादान है और यही स्तेय-चोरी कहलाता है । शंका-यदि स्तेयका पूर्वोक्त अर्थ किया जाता है तो कर्म और 1, वचन. 317। 2. तत्रापि आ. दि. 1, दि. 2। 3. --हिंसाप्रतिपाल-- मु.। 4. कर्मवचो मु. ।
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-71168 693] सप्तमोऽध्यायः
[273 कुतः । 'अदत्त' ग्रहणसामर्थ्यात् । एवमपि भिक्षोामनगरादिषु भ्रमणकाले रथ्याद्वारादिप्रवेशाददत्तादानं प्राप्नोति ? नैष दोषः; सामान्येन मुक्तत्वात् । तथाहि----अयं भिक्षुः पिहितद्वारादिषु न प्रविशति अमुक्तत्वात् । अथवा 'प्रमत्तयोगात्' इत्यनुवर्तते । प्रमत्तयोगाददत्तादानं यत् तत्स्तेयमित्युच्यते । न च रथ्यादि प्रविशतः प्रमत्तयोगोऽस्ति । तेनैतदुक्तं भवति, यत्र संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयं भवति बाह्यवस्तुनो' ग्रहणे चाग्रहणे च। 8692. अथ चतुर्थमब्रह्म किलक्षणमित्यत्रोच्यते
मैथुनमब्रह्म ॥16॥ 8693. स्त्रीपुसयोश्चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोः परस्परस्पर्शनं प्रति इच्छा मिथुनम् । मिथुनस्य कर्म मैथुनमित्युच्यते । न सर्व कर्म । कुतः ? लोके शास्त्रे च तथा प्रसिद्धः । लोके तावदागोपालादिप्रसिद्ध स्त्रीपुस-योः रागपरिणामनिमित्तं चेष्टितं मैथुनमिति । शास्त्रेऽपि "अश्ववृष भयोमैथुनेच्छायाम्" इत्येवमादिषु तदेव गृह्यते । अपि च 'प्रमत्तयोगात्' इत्यनुवर्तते तेन स्त्रीपुंसमिथुनविषयं रतिसुखार्थ चेष्टितं मैथुनमिति गृह्यते, न सर्वम् । अहिंसादयो गुणा नोकर्मका ग्रहण करना भी स्तेय ठहरता है, क्योंकि ये किसीके द्वारा दिये नहीं जाते ? समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जहाँ देना और लेना सम्भव है वहीं स्तेयका व्यवहार होता है । शंका-यह अर्थ किस शब्दसे फलित होता है ? समाधान-सूत्रमें जो 'अदत्त' पदका ग्रहण किया है उससे ज्ञात होता है कि जहाँ देना लेना सम्भव है वहीं स्तेयका व्यवहार होता है। शंका-स्तेयका उक्त अर्थ करने पर भी भिक्षुके ग्राम नगरादिकमें भ्रमण करते समय गली, कूचाके दरवाजा आदिमें प्रवेश करने पर बिना दो हुई वस्तुका ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान -यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि वे गलो, कूचाके दरवाजा आदि सबके लिए खुले हैं । यह भिक्षु जिनमें किवाड़ आदि लगे हैं उन दरवाजा आदिमें प्रवेश नहीं करता, क्योंकि वे सबके लिए खुले नहीं हैं । अथवा, 'प्रमत्तयोगात्' इस पदकी अनुवृत्ति होती है जिससे यह अर्थ होता है कि प्रमत्तके योगसे बिना दो हुई वस्तुका ग्रहण करना स्तेय है । गली कूचा आदिमें प्रवेश करनेवाले भिक्षुके प्रमत्तयोग तो है नहीं, इसलिए वैसा करते हुए स्तेयका दोष नहीं लगता। इस सब कथनका यह अभिप्राय है कि बाह्य वस्तु ली जाय या न ली जाय किन्तु जहाँ संक्लेशरूप परिणामके साथ प्रवृत्ति होती है वहाँ स्तेय है।
8692. अब चौथा जो अब्रह्म है उसका क्या लक्षण है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मैथुन अब्रह्म है॥16॥
8693. चारित्रमोहनीयका उदय होनेपर राग परिणामसे युक्त स्त्री और पुरुषके जो एक दूसरेको स्पर्श करने की इच्छा होती है वह मिथुन कहलाता है और इसका कार्य मैथुन कहा जाता है । सब कार्य मैथुन नहीं कहलाता क्योंकि लोक में और शास्त्रमें इसी अर्थ में मैथुन शब्दकी प्रसिद्धि है । लोकमें बाल-गोपाल आदि तक यह प्रसिद्ध है कि स्त्री-पुरुषकी रागपरिणामके निमित्तसे होनेवाली चेष्टा मैथुन है। शास्त्रमें भी 'घोड़ा और बैलकी मैथुनेच्छा होनेपर' इत्यादि वाक्योंमें यही अर्थ लिया जाता है। दूसरे 'प्रमत्तयोगात्' इस पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिए रतिजन्य सुखके लिए स्त्री-पुरुषकी मिथुनविषयक जो चेष्टा होती है वही मैथुनरूपसे ग्रहण किया 1. -वस्तुनो ग्रहणे च आ.। 2.-पुसराग- मु.। 3. पा. सू. 711151 इत्यत्र वार्तिकम् । 4.-दयो पर्मा य- मु.।
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274] सर्वार्थसिद्धौ
171178294यस्मिन् परिपाल्यमाने बृहन्ति वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्म । न ब्रह्म अब्रह्म इति । किं तत् ? मैनुनम् । तत्र हिसादयो दोषाः पुष्यन्ति.। यस्मान्मथुनसेवनप्रवणः स्थास्नूश्चरिष्णून् प्राणिनो हिनस्ति मृषावादमाचष्टे अदत्तमादत्ते अचेतनमितरं च परिग्रहं गृह्णाति। 6694. अथ पञ्चमस्य परिग्रहस्य कि लक्षणमित्यत आह
मूर्छा परिग्रहः ॥17॥ 8695. मूच्र्छत्युच्यते । का मूर्छा ? बाह्यानां गोमहिषमणिमुक्ताफलादीनां चेतनाचेतनानामाभ्यन्तराणां च रागादीनामुपधीनां संरक्षणार्जनसंस्कारादिलक्षणाव्यावृत्तिर्मुर्छा । ननु च लोके वातादिप्रकोपविशेषस्य मूर्छ ति प्रसिद्धिरस्ति तद्ग्रहणं कस्मान्न भवति ? सत्यमेवमेतत् मच्छिरयं मोहसामान्ये वर्तते । “सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते'' इत्युक्ते विशेष व्यवस्थितः परिगृह्यते; परिग्रहप्रकरणात् । एवमपि बाह्यस्य परिग्रहत्वं न प्राप्नोति; आध्यात्मिकस्य संग्रहात् ? सत्यमेवमेतत् ; प्रधानत्वादभ्यन्तर एव संगृहीतः । असत्यपि बाह्य ममेदमिति संकल्पबान् सपरिग्रह एव भवति । अथ बाहयः परिग्रहो न भवत्येव, भवति च मूच्र्छाकारणत्वात् यदि ममेदमिति संकल्पः परिग्रहः; संज्ञानाद्यपि परिग्रहः प्राप्नोति, तदपि हि ममेदमिति संकल्प्यते रागादिपरिणामवत् ? नैष दोषः; 'प्रमत्तयोगात्' इत्यनुवर्तते । ततो ज्ञानदर्शनचारित्रवतोऽप्रमतस्य जाता है, सब नहीं । अहिंसादिक गुण जिसके पालन करनेपर बढ़ते हैं वह ब्रह्म कहलाता है और जो इससे रहित है वह अब्रह्म है । शंका-अब्रह्म क्या है ? समाधान-मैथुन । मैथुनमें हिंसादिक दोष पुष्ट होते हैं, क्योकि जो मथुनके सेवनम दक्ष है वह चर और अचर सब प्रकार के प्राणियोकी हिंसा करता है, झूठ बोलता है, बिना दो हुई वस्तु लेता है तथा चेतन और अचेतन दोनों प्रकारके परिग्रहको स्वीकार करता है।
8694. अब पाँचवाँ जो परिग्रह है उसका क्या लक्षण है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मूच्र्छा परिग्रह है ॥17॥
8695. अब मूर्छाका स्वरूप कहते हैं । शंका–मूर्छा क्या है ? समाधान गाय, भैंस, मणि और मोती आदि चेतन अचेतन बाह्य उपधिका तथा रागादिरूप अभ्यन्तर उपधिका संरक्षण अर्जन और संस्कार आदिरूप व्यापार ही मूर्छा है। शंका-लोकमें वातादि प्रकोपविशेषका नाम मूर्छा है ऐसी प्रसिद्धि है, इसलिए यहाँ इस मूर्छाका ग्रहण क्यों नहीं किया जाता ? समाधान—यह कहना सत्य है तथापि मूर्च्छ धातुका सामान्य अर्थ मोह है और सामान्य शब्द तद्गत विशेषोंमें ही रहते हैं ऐसा मान लेने पर यहाँ मूर्छाका विशेष अर्थ ही लिया गया है, क्योंकि यहाँ परिग्रहका प्रकरण है । शंका--मूर्छाका यह अर्थ लेने पर भी बाह्य वस्तुको परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता, क्योंकि मूर्छा इस शब्दसे आभ्यन्तर परिग्रहका संग्रह होता है । समाधान--यह कहना सही है; क्योंकि प्रधान होने से आभ्यन्तरका ही संग्रह किया है । यह स्पष्ट ही है कि बाह्य परिग्रहके न रहने पर भी 'यह मेरा है' ऐसा संकल्पवाला पुरुष परिग्रहसहित ही होता है। शंका-यदि बाह्य पदार्थ परिग्रह नहीं ही है और यदि मूर्छाका कारण होनेसे 'यह मेरा है' इस प्रकारका संकल्प ही परिग्रह है तो ज्ञानादिक भी परिग्रह ठहरते हैं, क्योंकि रागादि परिणामोंके समान ज्ञानादिक में भी 'यह मेरा है' इस प्रकारका संकल्प होता है ? समाधान-यह 1. अब्रह्म । किं मु.। 2 सचेतनमितरच्च मु.। 3. --च्यते । केयं मूर्छा मु. आ., दि. 1, दि. 2 । 4. --मुक्तादी --मु., ता.। 5. -- तनानां च रागा-- मु.। 6. --गृह्यते । एवमपि ता., ना.। 7. संगृह्यते । असत्यपि मु.। 8. --ग्रहो भवति मु.। 9. --तते । ज्ञान-- आ., दि. 1, दि. 2।
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-71188697] सप्तमोऽध्यायः
[275 मोहाभावान्न मूर्छास्तीति निष्परिग्रहत्वं सिद्धम् । किंच तेषां ज्ञानादीनामहेयत्वादात्मस्वभावस्वावपरिग्रहत्वम् । रागादयः पुनः कर्मोदयतन्त्रा इति अनात्मस्वभावत्वाद्धयाः। ततस्तेषु संकल्प: परिग्रह इति युज्यते । तन्मूलाः सर्वे दोषाः । ममेदमिति हि सति संकल्पे संरक्षणादयः संजायन्ते । तत्र च हिंसावश्यंभाविनी। तदर्थमनतं जल्पति । चौयं वा आचरति । मैथने च कर्मणि प्रयतते । तत्प्रभवा नरकादिषु दुःखप्रकाराः ।
8696. एवमुक्तेन प्रकारेण हिंसादिदोषशिनोहिंसादिगुणाहितचेतसः परमप्रयत्नस्या हिंसादीनि प्रतानि यस्य सन्ति सः---
निश्शल्यो व्रती ॥18॥ 8697. शृणाति हिनस्तीति शल्यम् । शरीरानुप्रवेशि काण्डादिप्रहरणं शल्यमिव शल्यं, यथा तत प्राणिनो बाधाकरं तया शारीरमानसबाधाहेतृत्वात्कर्मोदयविकारः शल्यमित्यपचर्यते । तत् त्रिविधम्-मायाशल्यं निदानशल्यं मिथ्यादर्शनशल्यमिति । माया निकृतिर्वञ्चना। निदानं विषयभोगाकाङ्क्षा । मिथ्यादर्शनमतत्त्वश्रद्धानम् । एतस्मास्त्रिविधाच्छल्यान्निष्क्रान्तो निश्शल्यो वती इत्यच्यते । अत्र चोद्यते-शल्याभावान्निःशल्यो व्रताभिसंबन्धाद व्रती, न निश्शल्यत्वाद व्रती भवितुमर्हति । न हि देवदत्तो दण्डसंबन्धाच्छत्री भवतीति ? अत्रोच्यते-उभविशेषणविशिष्टकोई दोष नहीं है; क्योंकि 'प्रमत्तयोगात्' इस पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिए जो ज्ञान, दर्शन और चारित्रवाला होकर प्रमादरहित है उसके मोहका अभाव होनसे मूर्छा नहीं है, अतएव परिग्रहरहितपना सिद्ध होता है। दूसरे वे ज्ञानादिक अहेय हैं और आत्माके स्वभाव हैं,
लए उनमें परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता । परन्तु रागादिक तो कमांक उदयसे होते हैं, अत: वे आत्माका स्वभाव न होनेसे हेय हैं इसलिए उनमें होनेवाला संकल्प परिग्रह है यह बात बन जाती है । सब दोष परिग्रहमूलक ही होते हैं। यह मेरा है' इस प्रकारके संकल्पके होनेपर संरक्षण आदिरूप भाव होते हैं। और इसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन कर्ममें प्रवृत्त होता है । नरकादिकमें जितने दुःख हैं वे सब इससे उत्पन्न होते हैं।
8696. इस प्रकार उक्त विधिसे जो हिंसादिमें दोषोंका दर्शन करता है, जिसका चित्त अहिंसादि गुणोंमें लगा रहता है और जो अत्यन्त प्रयत्नशील है वह यदि अहिंसादि व्रतोंको पाले तो किस संज्ञाको प्राप्त होता है इसी बातका खुलासा करनेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
जो शल्यरहित है वह व्रती है ॥18॥
8697. 'शृणाति हिनस्ति इति शल्यम्' यह शल्य शब्दकी व्युत्पत्ति है । शल्यका अर्थ है पीड़ा देनेवाली वस्तु । जब शरीरमें काँटा आदि चुभ जाता है तो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीडाकर भाव है वह शल्य शब्दसे लिया गया है। जिस प्रकार काँटा आदि शल्य प्राणियोंको बाधाकर होती है उसी प्रकार शरीर और मनसम्बन्धी बाधाका कारण होनेसे कर्मोदयजनित विकारमें भी शल्यका उपचार कर लेते हैं अर्थात् उसे भी शल्य कहते हैं। वह शल्य तीन प्रकारकी है—माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्यादर्शन शल्य। माया, निकृति और वंचना अर्थात् ठगनेकी वृत्ति यह माया शल्य है। भोगोंकी लालसा निदान शल्य है और अतत्त्वोंका श्रद्धान मिथ्यादर्शन शल्य है। इन तीन शल्योंसे जो रहित है वही निःशल्य व्रती कहा जाता है। शंका-शल्यके न होनेसे निःशल्य होता है और व्रतोंके धारण करनेसे व्रती होता है । शल्य1. चौर्य चाचरति ता.। 2. एवमुक्तक्रमेण हिंसा- ता.। 3. --प्रहरणं । तच्छल्य मु.। 4. तथा शरीरमु.। 5. -विशिष्टत्वात् मु.।
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276]
सर्वार्थसिद्धी
[7119 § 698
स्येष्टत्वात् । न हिंसाद्युपरति' मात्र व्रताभिसंबन्धाद् व्रतो भवत्यन्तरेण शल्याभावम् । सति शल्यापगमे व्रतसंबन्धाद् व्रती विवक्षितो यथा बहुक्षीरघृतो गोमानिति व्यपदिश्यते । बहुक्षीरघृताभावात्सतीष्वपि गोषु न गोमांस्तथा सशत्यत्वात्सत्स्वपि व्रतेषु न वृती । यस्तु निःशल्यः स व्रती । $ 698 तस्य भेदप्रतिपत्त्यर्थमाह
गार्यनगारश्च ॥19॥
8699. प्रतिश्रयाथिभिः अंग्यते इति अगारं वेश्म, तद्वानगारी । न विद्यते अगारमस्येत्य नगरः । द्विविधो वृती अगारी अनगारश्च । ननु चात्र विपर्ययोऽपि प्राप्नोति शून्यागारदेवकुलाडावासस्य मुनेरगारित्वम् अनिवृत्तविषयतृष्णस्य कुतश्चित्कारणाद् गृहं विमुच्य वने वसतोऽनगरत्वं च प्राप्नोतीति' ? नैष दोषः; भावागारस्य विवक्षितत्वात् । चारित्रमोहोदये सत्यगारसंबन्धं प्रत्यनिवृत्तः परिणामो भावागारमित्युच्यते । स यस्यास्त्यसावगारी वने वसन्नपि । गृहे वसन्नपि तदभावादनगार इति च भवति । ननु चागारिणो वृतित्वं न प्राप्नोति; असकलवूतत्वात् ? नैष दोषः ; नैगमादिनयापेक्षया अगारिणोऽपि वृतित्वमुपपद्यते नगरावासवत् । यथा गृहे अपवरके वा वसन्नपि नगरावास इत्युच्येत तथा असकलवृतोऽपि नैगमसंग्रहव्यवहारनयापेक्षया व्रतीति
+ रहित होनेसे व्रती नहीं हो सकता । उदाहरणार्थं देवदत्तके हाथमें लाठी होनेपर वह छत्री नहीं हो सकता ? समाधान - व्रती होनेके लिए दोनों विशेषणोंसे युक्त होना आवश्यक है, यदि किसीने शल्योंका त्याग नहीं किया और केवल हिंसादि दोषोंको छोड़ दिया तो वह वृती नहीं हो सकता । यहाँ ऐसा व्रती इष्ट है जिसने शल्योंका त्याग करके व्रतोंको स्वीकार किया है। जैसे जिसके यहाँ बहुत घी दूध होता है वह गायवाला कहा जाता है । यदि उसके घी दूध नहीं होता और गायें हैं तो वह गायवाला नहीं कहलाता, उसी प्रकार जो सशल्य है व्रतोंके होनेपर भी वह व्रती नहीं हो सकता । किन्तु जो निःशल्य है वह व्रती है ।
8698. अब उसके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उसके अगारी और अनागार ये दो भेद हैं ॥19॥
8 699. आश्रय चाहनेवाले जिसे अंगीकार करते हैं वह अगार है । अगारका अर्थ वेश्म अर्थात् घर है । जिसके घर है वह अगारी है । और जिसके घर नहीं है वह अनगार है इस तरह व्रती दो प्रकारका है—अगारी और अनगार । शंका- अभी अगारी और अनगारका जो लक्षण कहा है उससे विपरीत अर्थ भी प्राप्त होता है, क्योंकि पूर्वोक्त लक्षणके अनुसार जो मुनि शून्य घर और देवकुलमें निवास करते हैं वे अगारी हो जायेंगे और विषयतृष्णाका त्याग किये बिना जो किसी कारणसे घरको छोड़कर वनमें रहने लगे हैं वे अनगार हो जायेंगे ? समाधानयह कोई दोष नहीं है; क्योंकि यहाँपर भावागार विवक्षित है । चारित्र मोहनीयका उदय होने पर जो परिणाम घरसे निवृत्त नहीं है वह भावागार कहा जाता है । वह जिसके है वह वनमें निवास करते हुए भी अगारी है और जिसके इस प्रकारका परिणाम नहीं है वह घरमें रहते हुए भी अनगार है। शंका-अगारी व्रती नहीं हो सकता, क्योंकि उसके पूर्ण व्रत नहीं है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि नैगम आदि नयोंकी अपेक्षा नगरावासके समान अगारीके भी व्रतीपना बन जाता है । जैसे कोई घरमें या झोपड़ी में रहता है तो भी 'मैं नगरमें रहता हूँ' यह कहा जाता उसी प्रकार जिसके पूरे व्रत नहीं है वह नैगम, संग्रह और व्यवहारनयकी 1, --मात्रसम्ब-- मु.। 2. प्नोति नैष आ., दि. 1, दि. 21 3 वृत्तिपरि- आ., दि 1, दि. 2 ।
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आह
-7121 $ 702] सप्तमोऽध्यायः
[277 व्यपदिश्यते।
8700. अत्राह कि हिंसादीनामन्यतमस्माद्यः प्रतिनिवृत्तः स खल्वगारोवती ? नैवम् । कि तहि ? पंचतय्या अपि विरतेवकल्येन विवक्षित इत्युच्यते --
अणुव्रतोऽगारी ॥20॥ . 8701. 'अणु'शब्दोऽल्पवचनः । अणूनि वृतान्यस्य अणुव्रतोऽगारीत्युच्यते। कयमस्य भूतानामणुत्वम् ? सर्वसावद्यनिवृत्त्यसंभवात् । कुतस्ता सौ निवृत्तः ? त्रसप्राणिव्यपरोपणान्निवृत्तः अंगारीत्याद्यमणुयहम् । स्नेहमोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्रामविनाश वा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनान्निवृत्तो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । अन्यपीडाकरं पार्थिवभयादिवशादवश्यं परित्यक्तमपि यदवत्तं ततः प्रतिनिवृत्तादरः श्रावक इति तृतीयमणुव्रतम् । उपात्ताया अनुपात्तायाश्च परांगनायाः संगान्निवृत्तरतिगृहोति चतुर्थमणुव्रतम् । धनधान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृतपरिच्छेदो गृहीति पंचममणुवतम् ।
$702. आह अपरित्यक्तागारस्य किमेतावानेव विशेष आहोस्विदस्ति कश्चिदन्योऽपीत्यत दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथि
संविभागवतसंपन्नश्च ॥21॥ अपेक्षा व्रतो कहा जाता है।
8700, शंका-जो हिंसादिकमें-से किसी एकसे निवृत्त है वह क्या अगारी व्रती है ? समाधान-ऐसा नहीं है। शंका --तो क्या है ? समाधान--जिसके एक देशसे पाँचों प्रकारको विरति है वह अगारी है यह अर्थ यहाँ विवक्षित है । अब इसी बातको बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अणुव्रतोंका धारी अगारी है ॥20॥
$ 701. अणु शब्द अल्पवाची है। जिसके व्रत अणु अर्थात् अल्प हैं वह अणुव्रतवाला अगारी कहा जाता है। शंका-अगारीके व्रत अल्प कैसे होते हैं ? समाधान-अगारीके पूरे हिंसादि दोषोंका त्याग सम्भव नहीं है इसलिए उसके व्रत अल्प होते हैं । शंका-तो यह किससे निवृत्त हुआ है ? समाधान--यह त्रस जीवोंकी हिंसासे निवृत्त है; इसलिए उसके पहला अहिंसा अणुवत होता है । गृहस्थ स्नेह और मोहादिकके वशसे गृहविनाश और ग्रामविनाशके कारण असत्य वचनसे निवृत्त है, इसलिए उसके दूसरा सत्याणुव्रत होता है । श्रावक राजाके भय आदिके कारण दुसरेको पीडाकारी जानकर बिना दी हुई वस्तुको लेना यद्यपि अवश्य छोड़ देता है तो भी बिना दी हुई वस्तुके लेनेसे उसकी प्रीति घट जाती है, इसलिए उसके तीसरा अचौर्याणुव्रत होता है। गृहस्थके स्वीकार की हुई या बिना स्वीकार को हुई परस्त्रीका संग करनेसे रति हट जाती है, इसलिए उसके परस्त्रीत्याग नामका चौथा अणुव्रत होता है । तथा गृहस्थ धन, धान्य और क्षेत्र आदिका स्वेच्छासे परिमाण कर लेता है, इसलिए उसके पाँचवाँ परिग्रहपरिमाण अणुव्रत होता है।
8702. गृहस्थको क्या इतनी ही विशेषता है कि और भी विशेषता है, अब यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वह दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिकवत, प्रोषधोपवासवत, उपभोगपरिभोगपरिमाणत और अतिथिसंविभागवत इन व्रतोंसे भी सम्पन्न होता है ॥21॥ 1, -करपार्थिव-- मु.।
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278]
सर्वार्थसिद्धौ
- [71218 --703 $ 703. 'विरति'शब्दः प्रत्येक परिसमाप्यते । दिग्विरतिः देशविरतिः अनर्थदण्डविरतिरिति एतानि त्रीणि गुणवतानि; 'वत'शब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् । तथा सामायिकवतं प्रोषधोपवासवतं उपभोगपरिभोगपरिमाणवतं अतिथिसंविभागवतं एतानि चत्वारि शिक्षा
तानि । एतैव तैः संपन्नो गही विरताविरत इत्युच्यते । तद्यथा-दिक्प्राच्यादिः तत्र प्रसिद्धरभिज्ञानरवधिं कृत्वा नियमनं दिग्विरतिवतम् । ततो बहिस्त्रसस्थावरव्यपरोपणनिवृत्तेर्महा' व्रतत्वमवसे यम । तत्र लाभे सत्यपि परिणामस्य निवृत्तेर्लोभनिरासश्च कृतो भवति । ग्रामादीनामवधूतपरिमाणः प्रदेशो देशः । ततो बहिनिवृत्तिर्देशविरतिवृतम् । पूर्वबहिर्महावतत्वं यवस्थाप्यम् । असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदण्डः । ततो विरतिरनर्थदण्डविरतिः । अनर्थदण्डः पंचविधः-अपध्यानं पापोपदेशः प्रमादाचरितं हिंसाप्रदानं अशुभश्रुतिरिति । तत्र परेषां जयपराजयवधबन्धनाङ्गच्छेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम् ।' तिर्यक्क्लेशवाणिज्यप्राणिवधकारम्भादिषु पापसंयुक्तं वचनं पापोपदेशः। प्रयोजनमन्तरेण वृक्षाविच्छेदन भूमिकुट्टनसलिलसेचनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम् । विषकण्टकशस्त्राग्निरज्जुकशादण्डा
8703. विरति शब्द प्रत्येक शब्दपर लागू होता है । यथा-दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति । ये तीन गुणवृत हैं, क्योंकि व्रत शब्दका हर एकके साथ सम्बन्ध है। तथा सामायिकवत, प्रोषधोपवासव्रत, उपभोगपरिभोगपरिमाणवत और अतिथिसंविभागवत ये चार है। इस प्रकार इन व्रतोंसे जो सम्पन्न हैं वह गृही विरताविरत कहा जाता है । खुलासा इस प्रकार है-जो पूर्वादि दिशाएँ हैं उनमें प्रसिद्ध चिह्नोंके द्वारा मर्यादा करके नियम करना दिग्विरतिव्रत है। उस मर्यादाके बाहर त्रस और स्थावर हिंसाका त्याग हो जानेसे उतने अंशमें महाव्रत होता है । मर्यादाके बाहर लाभ होते हुए भी उसमें परिणाम न रहनेके कारण लोभका त्याग हो जाता है। ग्रामादिककी निश्चित मर्यादारूप प्रदेश देश कहलाता है। उससे बाहर जाने का त्याग कर देना देशविरतिव्रत है। यहाँ भी पहलेके समान मर्यादाके बाहर महाव्रत होता है। उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पापका कारण है वह अनर्थदण्ड है। इससे विरत होना अनर्थदण्डविरतिवृत है। अनर्थदण्ड पाँच प्रकारका है-अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और अशुभश्रुति । दूसरोंका जय, पराजय, मारना, बाँधना, अंगोंका छेदना और धनका अपहरण आदि कैसे होवे इस प्रकार मनसे विचार करना अपध्यान नामका अनर्थदण्ड है। तिर्यंचोंको क्लेश पहुँचानेवाले, वणिजका प्रसार करनेवाले और प्राणियोंकी हिंसाके कारणभूत आरम्भ आदिके विषय में पापबहुल वचन बोलना पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड है। बिना प्रयोजनके वृक्षादिका छेदना, भूमिका कूटना, पानीका सींचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नामका अनर्थदण्ड है। विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक और लकड़ी आदि हिंसाके उपकरणोंका प्रदान करना हिंसाप्रदान नामका अनर्थदण्ड है । हिंसा और राग आदिको बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओंका सूनना और उनकी शिक्षा देना अशुभश्रति नामका अनर्थदण्ड है। 'सम' उपसर्गका 1. वतम् । इत्येते--म.। 2. सीमन्तानां परतः स्थलेतरपंचपापसंत्यागात् । देशावकाशिकेन च महाबतानि प्रसाध्यन्ते ।।'-- रत्न. 3,5। 3. --माणप्रदेशो मु.। 4. 'पापोपदेशहिमादानापध्यानदुःथतीः पंच। प्राहः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ॥'-- रत्न. 3, 51 5. -च्छेदस्वहर-- आ.। च्छेदसर्वस्वहर-- दि. 1, दि. 2। 6. 'वधबन्धच्छे दादे?षाद्रागाच्च परकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशामने विशदाः ।।' --रत्न. 3,32। 7. --ध्यानम् । प्राणिवधक-- आ., दि. 1, दि. 2। 8. तिर्यकक्लेशवाणिज्याहिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम् । कथाप्रसंगप्रसव: स्मर्तव्य: पाप उपदेशः ।।' --रत्न. 3,30। 9. 'क्षितिसलिलदहनपवनारम्मं विफलं वनस्पतिच्छेदम् । सरणं सारणमपि च प्रसादचर्यां प्रभाषन्ते ॥' --रत्न. 3,34 ।
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-7121 $ 703] सप्तमोऽध्यायः
[279 दिहिंसोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम् । हिंसारागादिप्रवर्धनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृतिरशुभश्रुतिः। समेकीभावे' वर्तते । तद्यथा संगतं घृतं संगतं तेलमित्युच्यते एकीभूतमिति गम्यते । एकत्वेन अयनं गमनं समयः, समय एव सामायिकं, समयः प्रयोजनमस्येति वा विगृह्य सामायिकम् । इयति देशे एतावति काले इत्यवधारिते सामायिके स्थितस्य महाव्रतत्वं पूर्ववद्वेदितव्यम् । कुतः ? अणु. स्थूलकृतहिंसादिनिवृत्तेः । संयमप्रसंग इति चेत् ? न; तद्घातिकर्मोदयसद्भावात् । महावृतत्वाभाव इति चेत् ? तन्न; उपचाराद् राजकुले सर्वगतचैत्राभिधानवत् । प्रोषधशब्दः पर्णपर्यायवाची। शब्दादिग्रहणं प्रति निवृत्तौत्सुक्यानि पंचाणीन्द्रियाण्युपेत्य तस्मिन् वसन्तीत्युपवासः । चतुर्विधा. हारपरित्याग इत्यर्थः । प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवासः । स्व शरीरसंस्कारकारणस्नानगन्धमाल्या. भरणादिविरहितः शुचाववकाशे साधुनिवासे चैत्यालये स्वप्रोषधोपवासगृहे वा धर्मकथाश्रवणश्रावणचिन्तनविहितान्तःकरणः सन्नुपरसेन्निरारम्भः श्रावकः । उपभोगोऽशनपानगन्धमाल्यादिः । परिभोग आच्छादनप्रावरणालंकारशयनासनगृहयानवाहनादिः तयोः परिमाणमुपभोगपरिभोगपरि माणम् । मधु' मांसं मद्यं च सदा परिहर्तव्यं त्रसधातान्निवृत्तचेतसा । 'केतक्यर्जुनपुष्पादीनि शृङ्गवेरमूलकादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुघाताल्पफलत्वात् । अर्थ एकरूप है। जैसे 'घी संगत है, तेल संगत है' जब यह कहा जाता है तब संगतका अर्थ एकीभूत होता है। सामायिक मल शब्द समय है। इसके दो अवयव हैं सम और अय। समका अर्थ कहा ही है और अयका अर्थ गमन है । समुदायार्थ एकरूप हो जाना समय है और समय ही सामायिक है । अथवा समय अर्थात एकरूप हो जाना ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है। इतने देशमें और इतने काल तक इस प्रकार निश्चित की गयी सामायिकमें स्थित पुरुषके पहलेके समान महाव्रत जानना चाहिए, क्योंकि इसके सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकारके हिंसा आदि पापोंका त्याग हो जाता है । शंका -यदि ऐसा है तो सामायिकमें स्थित हुए पुरुषके सकलसंयमका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि इसके संयमका घात करनेवाले कर्मोका उदय पाया जाता है। शंका -तो फिर इसके महाव्रतका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि जैसे राजकलमें चैत्रको सर्वगत उपचारमे कहा जाता है उसी प्रकार इसके महाव्रत उपचारसे जानना चाहिए। प्रोषधका अर्थ पर्व है और पाँचों इन्द्रियोंके शब्दादि विषयोंके त्यागपूर्वक उसमें निवास करना उपवास है। अर्थात चार प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास है। तथा प्रोषधके दिनोंमें जो उपवास किया जाता है उसे प्रोषधोपवास कहते हैं। प्रोषधोपवासी श्रावकको अपने शरीरके संस्कारके कारण स्नान, गन्ध, माला और आभरण आदिका त्याग करके किसी पवित्र स्थानमें, स रहने के स्थानमें, चैत्यालयमें या अपने प्रोषधोपवासके लिए नियत किये गये घरमें, धर्मकथाके सुनने, सुनाने और चिन्तन करने में मनको लगाकर उपवासपूर्वक निवास करना चाहिए और सब प्रकारका आरम्भ छोड़ देना चाहिए। भोजन, पान, गन्ध और माला आदि उपभोग कहलाते हैं तथा ओढना-बिछाना, अलंकार, शयन, आसन, घर, 1. "तद्य दा तावदेतार्थीभाव: सामर्थ्यन्तदैवं विग्रहः करिष्यते--संगतार्थ: समर्थः सृष्टार्थः समर्थ इति । तद्यथा संगतं घृतं संगत तैलमित्युच्यते एकीभूतमिति गम्यते ।' --पा. म. भा. 2,1,1,।। 2. चतुराहारविसर्जनमुपवासः ।' -रत्न. 4,19। 3. 'पंचानां पापानामलंक्रियारम्भगन्धपप्पाणाम् । स्नानांजननस्यानामुपवासे परिहृति कुर्यात् ।। धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः ।।' --रएन. 4-17,18। 4. 'सहतिपरिहरणार्थ क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहतये । मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातः ।।' रत्न. 3,38। 5. अल्पफलबहुविघातान्मूलकमााणि शृगवेराणि । नवनीतनिम्बसुम कैतकमित्येवमहेयम् ।।' --रत्न. 3,391
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2801
सर्वार्थसिद्धौ
[7122 § 704
यानवाह 'नाभरणादिव्वेतावदे वेष्ट मतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टान्निवर्तनं कर्तव्यं कालनियमेन यावज्जीवं वा यथाशक्ति । संयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः । अथवा नास्य तिथिरस्तोत्यतिथिः अनियतकालागमन इत्यर्थः । अतिथये संविभागोऽतिथिसंविभागः । स चतुविधः; भिक्षोपकरणौषधप्रतिश्रयभेदात् । मोक्षार्थमभ्युद्यतायातिथये संयमपरायणाय शुद्धाय शुद्धचेतसा निरवद्या भिक्षा देया । धर्मोपकरणानि च सम्यग्दर्शनाद्युपबृंहणानि दातव्यानि । औषधमपि योग्यमुपयोजनीयम् । प्रतिश्रयश्च परमधर्मश्रद्धया प्रतिपादयितव्य इति । 'द' शब्दो वक्ष्यमाणगृहस्थधर्मसमुच्चयार्थः । $ 704. कः पुनरसौ
मारणान्तिकों सल्लेखनां जोषिता ॥22॥
$ 705. स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इन्द्रियाणां बलानां च कारणवशात्संक्षयो मरणम् । 'अन्त' ग्रहणं तद्भवमरणप्रतिपत्त्यर्थम् । मरणमन्तो मरणान्तः । स प्रयोजनमस्येति मारणान्तिकी । सम्यक्कायकषाय लेखना सल्लेखना । कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापन• क्रमेण सम्यग्लेखना सहलेखना । तां मारणान्तिकों सल्लेखनां जोषिता सेविता गृहीत्यभि
• यान और वाहन आदि परिभोग कहलाते हैं । इनका परिमाण करना उपभोग - परिभोग- परिमाण व्रत है । जिसका चित्त त्रसहिंसासे निवृत्त है उसे सदाके लिए मधु, मांस और मदिराका त्याग कर देना चाहिए । जो बहुत जन्तुओं की उत्पत्तिके आधार हैं और जिन्हें अनन्तकाय कहते हैं ऐसे केतकी के फूल और अर्जुनके फूल आदि तथा अदरख और मूली आदिका त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि इनके सेवन में फल कम और घात बहुत जीवोंका है। तथा यान, वाहन और आभरण आदि में हमारे लिए इतना ही इष्ट है शेष सब अनिष्ट है इस प्रकारका विचार करके कुछ कालके लिए या जीवन भर के लिए शक्त्यनुसार जो अपने लिए अनिष्ट हो उसका त्याग कर देना चाहिए ।
संयमका विनाश न हो इस विधिसे जो चलता है वह अतिथि है या जिसके आनेकी कोई तिथि नहीं उसे अतिथि कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिसके आनेका कोई काल निश्चित नहीं है उसे अतिथि कहते हैं । इस अतिथिके लिए विभाग करना अतिथिसंविभाग है । वह चार प्रकारका है - भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय अर्थात् रहनेका स्थान । जो मोक्ष के लिए बद्धकक्ष है, संयम पालन करनेमें तत्पर है और शुद्ध है उस अतिथिके लिए शुद्ध मनसे निर्दोष भिक्षा देनी चाहिए । सम्यग्दर्शन आदिके बढ़ानेवाले धर्मोपकरण देने चाहिए। योग्य औषधकी करनी चाहिए तथा परम धर्म में श्रद्धापूर्वक निवास स्थान भी देना चाहिए । सूत्रमें जो 'च' शब्द है वह आगे कहे जानेवाले गृहस्थधर्म के संग्रह करनेके लिए दिया है ।
8 704. वह और क्या होता है
तथा वह मारणान्तिक संलेखनाका प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला होता है ||22|| 8705. अपने परिणामोंसे प्राप्त हुई आयुका, इन्द्रियोंका और मन, वचन, काय इन तीन बलोंका कारण विशेषके मिलने पर नाश होना मरण है । उसी भवके मरणका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें मरण शब्द के साथ अन्त पदको ग्रहण किया है। मरण यही अन्त मरणान्त है और जिसका यह मरणान्त ही प्रयोजन है वह मारणान्तिकी कहलाती है । अच्छे प्रकारसे काय और कष़ायका लेखन करना अर्थात् कृष करना सल्लेखना है । अर्थात् बाहरी शरीरका और भीतरी 1. 'यदनिष्टं तद्वृतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् ।' - रत्न 3,40 2. -- हापनया क्रमे - आ., fa. 1, at. I
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[281
-7122 8705]
सप्तमोऽध्यायः संबध्यते । ननु च विस्पष्टार्थ सेवितेत्येवं वक्तव्यम् ? न; अर्थविशेषोपपत्तेः । न केवलमिह से परिगृह्यते । कि तहि ? प्रीत्यर्थोऽपि । यस्मादसत्यां प्रीतौ बलान्न सल्लेखना कार्यते। सत्या हि प्रीतो स्वयमेव करोति । स्यान्मतमात्मवधः प्राप्नोति; स्वाभिसन्धिपूर्वकायुरादिनिवृत्तेः ? भष
:: अप्रमत्तत्वात। 'प्रमत्तयोगात्प्राणध्यपरोपणं हिसा' इत्युक्तम । न चास्य प्रमादयोगीसि । कुतः । रागाद्यभावात् । रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशास्त्राधुपकरणप्रयोगवशादास्मानं मतः स्वघातो भवति । न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति ततो नात्मवलदोषः । उक्तं च--
"रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्तं ति देिसिदं समये।
तेसिं चे उप्पत्ती हिंसेति जिणेहि णिद्दिट्ठा ।" कि च मरणस्यानिष्टत्वाद्यथा वणिजो विविधपण्यदानादानसंचयपरस्य स्वगहविनाशोऽनिष्टः। तद्विनाशकारणे च कुतश्चिदुपस्थिते यथाशक्ति परिहरति । दुष्परिहारे च पण्यविनाशो यथा न. भवति तथा यतते । एवं गृहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसंचये प्रवर्तमानः तदाश्रयस्य न पातमभिवांछति। कषायोंका, उत्तरोत्तर काय और कषायको पुष्ट करनेवाले कारणोंको घटाते हुए, भले प्रकारसे लेखन करना अर्थात् कृष करना सल्लेखना है । मरणके अन्तमें होने वाली इस सल्लेखनाको प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला गृहस्थ होता है यह इस सूत्रका तात्पर्य है। शंका--सहज तरीकैसे अर्थका स्पष्टीकरण हो इसके लिए सूत्रमें 'जोषिता' इसके स्थानमें 'सेविता' कहना ठीक है। समाधान-नहीं; क्योंकि 'जोषिता' क्रियाके रखनेसे उससे अर्थ-विशेष ध्वनित हो जाता है। यहाँ केवल 'सेवन करना' अर्थ नहीं लिया गया है किन्तु प्रीति रूप अर्थ भी लिया गया है, क्योंकि प्रीतिके न रहने पर बलपूर्वक सल्लेखना नहीं करायी जाती । किन्तु प्रीतिके रहने पर जीव स्वयं हो सल्लेखना करता है। तात्पर्य यह है कि 'प्रीतिपूर्वक सेवन करना' यह अर्थ 'जोषिता' क्रियासे निकल आता है 'सेविता' से नहीं, अत: सूत्रमें 'जोषिता' क्रिया रखी है। शंका-चू कि सल्लेखनामें अपने अभिप्रायसे आयु आदिका त्याग किया जाता है, इसलिए यह आत्मघात हुआ ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सल्लेखनामें प्रमादका अभाव । 'प्रमत्तयोगसे प्राणोंका वध करना हिंसा है' यह पहले कहा जा चुका है। परन्तु इसके प्रमाद नहीं है, क्योंकि इसके रागादिक नहीं पाये जाते। राग, द्वेष और मोहसे युक्त होकर जो विष और शस्त्र आदि उपकरणोंका प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है उसे आत्मघातका दोष प्राप्त होता है। परन्तु सल्लेखनाको प्राप्त हुए जीवके रागादिक तो हैं नहीं, इसलिए इसे आत्मघातका दोष नहीं प्राप्त होता । कहा भी है. "शास्त्रमें यह उपदेश है कि रागादिका नहीं उत्पन्न होना अहिंसा है। तथा जिनदेवने उनकी उत्पत्तिको हिंसा कहा है ॥" . दूसरे, मरण किसी को भी इष्ट नहीं है। जैसे नाना प्रकारकी विक्रय वस्तुओंके देन, लेन और संचयमें लगे हुए किसी व्यापारीको अपने घरका नाश होना इष्ट नहीं है । फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाशके कारण आ उपस्थित हों तो यथाशक्ति वह उनको दूर करता है । इतने पर भी यदि वे दूर न हो सकें तो जिससे विक्रय वस्तुओंका नाश न हो ऐसा प्रयत्न करता है उसी प्रकार पण्यस्थानीय व्रत और शीलके संचयमें जुटा हुआ गृहस्थ भी उनके आधारभूत आयु आदिका पतन नहीं चाहता । यदा कदाचित् उनके विनाशके कारण उत्पन्न हो जाय तो जिससे अपने गुणोमें बाधा नहीं पड़े इस प्रकार उनको दूर करनेका प्रयत्न करता है। इतने पर भी यदि वे दूर 1. ति भासिदं स- मु.। 2. -शक्ति च परि- मु.।
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282] सर्वार्थसिद्धौ
[7123 $ 706तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति । दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत् ।
8706. अत्राह, 'निःशल्यो वती' इत्युक्तं तत्र च तृतीयं शल्यं मिथ्यादर्शनम् । ततः सम्यग्दृष्टिना वृतिना' निःशल्येन भवितव्यमित्युक्तम् । तत्सम्यग्दर्शनं किं सापवादं निरपवादमिति । उच्यते-कस्यचिन्मोहनीयावस्थाविशेषात्कदाचिदिमे भवन्त्यपवादाःशङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ॥23॥
8707. निःशंकितत्वादयो व्याख्याताः 'दर्शनविशुद्धिः' इत्यत्र । तत्प्रतिपक्षभूताः शंकादयो वेदितव्याः। अथ प्रशंसासंस्तवयोः को विशेषः ? मनसा मिथ्यादृष्टानचारित्रगुणोद्भावन प्रशंसा, भूताभूतगुणोद्भाववचनं संस्तव इत्ययमनयोर्भेदः । ननु च सम्यग्दर्शनमष्टाङ्गमुक्तं तस्यातिचाररप्यष्टभिर्भवितव्यम् । नैष दोषः; व्रतशीलेषु पंच पंचातिचारा इत्युत्तरत्र विवक्षुणाचार्येण प्रशंसासंस्तवयोरितरानतिचारानन्तर्भाव्य पंचैवातिचारा उक्ताः।
8708. आह, सम्यग्दृष्टेरतिचारा उक्ताः । किमेवं वृतशीलेष्वपि भवन्तीति ? ओमित्युक्त्वा तदतिचारसंख्यानिर्देशार्थमाह
व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।।24।।
न हों तो जिससे अपने गुणोंका नाश न हो इस प्रकार प्रयत्न करता है, इसलिए इसके आत्मघात नबमका दोष कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता है।
8706. यहाँ पर शंकाकार कहता है कि व्रती निःशल्य होता है ऐसा कहा है और वहाँ तीसरी शल्य मिथ्यादर्शन है। इसलिए सम्यग्दृष्टि व्रतीको निःशल्य होना चाहिए यह उसका अभिप्राय है, तो अब यह बतलाइए कि वह सम्यग्दर्शन सापवाद होता है या निरपवाद होता है ? अब इसका समाधान करते हैं-किसी जीवके मोहनीयकी अवस्था विशेषके कारण ये अपवाद होते हैं
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दृष्टि के पाँच अतिचार हैं ।।23।।
६707. 'दर्शनविशुद्धिः' इत्यादि सूत्रका व्याख्यान करते समय निःशंकितत्व आदिका व्याख्यान किया। ये शंकादिक उनके प्रतिपक्षभूत जानना चाहिए । शंका-प्रशंसा और संस्तवमें क्या अन्तर है ? समाधान-मिथ्यादृष्टिके ज्ञान और चारित्र गुणोंका मनसे उद्भावन करना प्रशंसा है और मिथ्यादृष्टि में जो गुण हैं या जो गुण नहीं हैं इन दोनोंका सद्भाव बतलाते हुए कथन करना संस्तव है, इस प्रकार यह दोनोंमें अन्तर है। शंका-सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे हैं, इसलिए उसके अतिचार भी आठ ही होने चाहिए। समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आगे आचार्य व्रतों और शीलोंके पाँच-पाँच अतिचार कहनेवाले हैं, इसलिए अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव इन दो अतिचारोंमें शेष अतिचारोंका अन्तर्भाव करके सम्यग्दृष्टिके पाँच ही अतिचार कहे हैं।
8708. सम्यग्दृष्टिके अतिचार कहे, क्या इसी प्रकार व्रत और शीलोंके भी अतिचार होते हैं ? हाँ, यह कह कर अब उन अतिचारोंको संख्याका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
व्रतों और शीलोंमें पाँच पाँच अतिचार हैं जो क्रमसे इस प्रकार हैं ॥24॥ 1 तिना भवि-- आ., दि., 1, दि. 2 ।
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-7126 § 712]
सप्तमोऽध्यायः
[283
8709. व्रतानि च शीलानि च व्रतशीलानि तेषु व्रतशीलेषु । शोलग्रहणमनर्थकम् ; व्रतग्रहणेनैव सिद्धेः ? नानर्थकम् ; विशेषज्ञापनार्थं व्रतपरिरक्षणार्थं शीलमिति दिग्विरत्यादीनीह 'शील' ग्रहणेन गृह्यन्ते ।
$ 710. अगार्यधिकारादगारिणो वृतशीलेषु पंच पंचातिचारा वक्ष्यमाणा यथाक्रमं वेदितव्याः । तद्यथा - आद्यस्य तावदहंसावृतस्य --
बन्धवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ॥ 25 ॥
8711. अभिमतदेशगतिनिरोधहेतुबंन्धः । दण्डकशावे त्रादिभिरभिघातः प्राणिनां वधः, न प्राणव्यपरोपणम् ततः प्रागेवास्य विनिवृत्तत्वात् । कर्णनासिकादीनामवयवानामपनयनं छेदः । न्याय्यभारादतिरिक्तवाहनमतिभारारोपणम् । गवादीनां क्षुत्पिपासाबाधाकरणमन्नपाननिरोधः । एते पंचाहिंसाणुव्रतस्यातिचाराः ।
मिथ्योपदेश रहो भ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥26॥
712. अभ्युदयनिःश्रेयसार्थेषु क्रियाविशेषेषु अन्यस्यान्यथा प्रवर्तनमतिसंधाषनं वा मिथ्योपदेशः । यत्स्त्रीपुंसाभ्यामेकान्तेऽनुष्ठितस्य क्रियाविशेषस्य प्रकाशनं तद्रहोभ्याख्यानं वेदितव्यम् । अन्येनानुक्त' मननुष्ठितं यत्किचित्परप्रयोगवशादेवं तेनोक्तमनुष्ठितमिति वचनानिमित्तं
8709. शील और व्रत इन शब्दोंका कर्मधारय समास होकर व्रतशील पद बना है । उनमें अर्थात् व्रत-शीलोंमें । शंका- सूत्रमें शील पदका ग्रहण करना निष्फल है, क्योंकि व्रत पदके ग्रहण करनेसे ही उसकी सिद्धि हो जाती है ? समाधान — सूत्रमें शील पदका ग्रहण करना निष्फल नहीं है, क्योंकि विशेषका ज्ञान करानेके लिए और व्रतोंकी रक्षा करनेके लिए शील है, इसलिए यहाँ शील पदके ग्रहण करनेसे दिग्विरति आदि लिये जाते हैं ।
§ 710. यहाँ गृहस्थका प्रकरण है, इसलिए गृहस्थ के व्रतों और शीलोंके आगे कहे जानेवाले क्रमसे पाँच पाँच अतिचार जानने चाहिए जो इस प्रकार हैं । उसमें भी पहले प्रथम अहिंसा व्रत अतिचार बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
बन्ध, वध, छेद, अतिभारका आरोपण और अन्नपानका निरोध ये अहिंसा अणुव्रतके पाँच अतिचार हैं ॥25॥
8711. किसीको अपने इष्ट स्थानमें जानेसे रोकनेके कारणको बन्ध कहते हैं। डंडा, चाबुक और बेंत आदि प्राणियोंको मारना वधे है । यहाँ वधका अर्थ प्राणोंका वियोग करना नहीं लिया है, क्योंकि अतिचारके पहले ही हिंसाका त्याग कर दिया जाता है। कान और नाक आदि अवयवों का भेदना छेद है । उचित भारसे अतिरिक्त भारका लादना अतिभारारोपण है। गौ आदिके भूखप्यास में बाधाकर अन्नपानका रोकना अन्नपाननिरोध है । ये पाँच अहिंसाणुव्रत के अतिचार हैं ।
मिथ्योपदेश, रहो भ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमंत्रभेद ये सत्याणुवृतके पाँच अतिचार हैं ॥26॥
8712. अभ्युदय और मोक्षकी कारणभूत क्रियाओंमें किसी दूसरेको विपरीत मार्गसे लगा देना या मिथ्या वचनों द्वारा दूसरोंको ठगना मिथ्योपदेश है । स्त्री और पुरुष द्वारा एकान्तमें किये गये आचरण विशेषका प्रकट कर देना रहोभ्याख्यान है । दूसरेने न तो कुछ कहा और न 1. शुक्तं यत्किं मु ।
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284] सर्वार्थसिद्धौ
[71278713लेखनं कूटलेखक्रिया । हिरण्यादेव्यस्य निक्षेप्तुविस्मृतसंख्याल्पसंख्येयमाददानस्यैवमित्यनुज्ञावचनं न्यासापहारः । अर्थप्रकरणाङ्गविकारभ्र विक्षेपादिभिः पराकूतमुपलभ्य तदाविष्करणमसूयाविनिमित्तं यत्तत्साकारमन्त्रभेद इति कथ्यते । त एते सत्याणुव्रतस्य पंचातिचारा बोद्धव्याः। स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपक
व्यवहाराः ॥27॥ 8713. मुष्णन्तं स्वयमेव वा प्रयुङ्क्तेऽन्येन वा प्रयोजयति प्रयुक्तमनुमन्यते वा यतः स स्तेनप्रयोगः । अप्रयुक्तेनानुमतेन च चौरेणानीतस्य ग्रहणं तदाहृतादानम् । उचितन्यायादन्येन प्रकारेण दानग्रहणमतिक्रमः । विरुद्धं राज्यं विरुद्धराज्यं विरुद्धराज्येऽतिक्रमः विरुद्धराज्यातिक्रमः । तत्र ह्यल्पमूल्यलभ्यानि महाया॑णि द्रव्याणीति प्रयत्नः । प्रस्थादि मानम्, तुलाद्युन्मानम् । एतेन न्यूनेनान्यस्मै देयमधिकेनात्मनो ग्राह्यमित्येवमादिकूटप्रयोगो होनाधिकमानोन्मानम् । कृत्रिमैहिरण्यादिभिर्वञ्चनापूर्वको व्यवहारः प्रतिरूपकव्यवहारः । त एते पञ्चादत्तादानाणुव्रतस्यातिचाराः। परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडाकाम
तीव्राभिनिवेशाः ॥28॥ 8714. कन्यादानं विवाहः । परस्य विवाहः परविवाहः। परविवाहस्य करणं परविवाहकुछ किया तो भी अन्य किसीकी प्रेरणासे उसने ऐसा कहा है और ऐसा किया है इस प्रकार छलसे लिखना कूटलेखक्रिया है । धरोहरमें चाँदी आदिको रखनेवाला कोई उसकी संख्या भूलकर यदि उसे कमती लेने लगा तो 'ठीक है' इस प्रकार स्वीकार करना न्यासापहार है। अर्थवश, प्रकरणवश, शरीरके विकारवश या भ्र क्षेप आदिके कारण दूसरेके अभिप्रायको जान कर डाहसे उसका प्रकट कर देना साकारमन्त्रभेद है। इस प्रकार ये सत्याणुव्रतके पाँच अतिचार जानने चाहिए।
स्तनप्रयोग, स्तेन आहृतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिक मानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार ये अचौर्य अणुव्रतके पाँच अतिचार हैं ॥27॥
8713. किसीको चोरीके लिए स्वयं प्रेरित करना, या दूसरेके द्वारा प्रेरित कराना या प्रयुक्त हुए की अनुमोदना करना स्तेनप्रयोग है । अपने द्वारा अप्रयुक्त असम्मत चोरके द्वारा लायी हुई वस्तुका ले लेना तदाहृतादान है। यहाँ न्यायमार्गको छोड़ कर अन्य प्रकारसे वस्तु ली गयी है इसलिए अतिचार है । विरुद्ध जो राज्य वह विरुद्धराज्य है। राज्योंमें किसी प्रकारका विरोध होने पर मर्यादाका न पालना विरुद्धराज्यातिक्रम है । यदि वहाँ अल्प मूल्य में वस्तुएँ मिल गयीं तो उन्हें महंगा बेचनेका प्रयत्न करना विरुद्धराज्यातिकम है। मानपदसे प्रस्थ आदि मापने के बाट लिये जाते हैं और उन्मानपदसे तराजू आदि तौलनेके वाट लिये जाते हैं। कमती मापतौलसे दूसरेको देना और बढ़ती माप-तौलसे स्वयं लेना इत्यादि कुटिलतासे लेन-देन करना होनाधिकमानोन्मान है। बनावटी चाँदी आदिसे कपटपूर्वक व्यवहार करना प्रतिरूपक व्यवहार है,। इस प्रकार ये अदत्तादान अणुव्रतके पाँच अतिचार हैं।
परविवाहकरण, इत्वरिकापरिगृहीतागमन, इत्वारिका-अपरिगृहीतागमन, अनङ्गक्रीड़ा और कामतीव्राभिनिवेश ये स्वदारसन्तोष अणुव्रतके पाँच अतिचार हैं ॥28॥
8714. कन्याका ग्रहण करना विवाह है। किसी अन्यका विवाह परविवाह है और 1. भ्रू निक्षेपणादि -मु.।
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---7129 § 716]
सप्तमोऽध्यायः
[285
करणम् । परपुरुषानेति गच्छतीत्येवंशीला' इत्वरी । कुत्सिता इत्वरी कुत्सायां क इत्वरिका । या एकपुरुषभ का सा परिगृहीता । या गणिकात्वेन पु'उत्तलीत्वेन वा परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता । परिगृहीता चापरिगृहीता च परिगृहीतापरिगृहीते । इत्यरिकेच ते परिगृहीतापरिगृहीते च इत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीते, तयोर्गमने इत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमने । अंग प्रजननं योनिश्च ततोऽन्यत्र क्रीडा अनङ्गकीडा | कामस्य प्रवृद्धः परिणामः कामतीवाभिनिवेशः । त एते पंच स्वदार संतोषव्रतस्थातिचाराः ।
क्षेत्र वास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ||29||
6 715. क्षेत्रं सस्याधिकरणम् । वास्तु अगारम् । हिरणं रूप्यादिव्यवहारतन्त्रम् । सुवर्ण प्रतीतम् । धनं गवादि । धान्यं व्रीह्यादि । दासीद सं भृत्यस्त्रीषु सवर्गः । कुप्यं क्षौमकार्पासकौशेयचन्दनादि । क्षेत्रं च वास्तु च क्षेत्रवास्तु, हिरण्यं च सुवर्णं च हिरण्यसुवर्णम् धनं च धान्यं च धनधान्यम्, दासी च दासश्च दासीदासम् । क्षेत्रस्तु च हिरण्यसुवर्णं च धनधान्यं च दासीदास च कुप्यं च क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यानि । एतावानेव परिग्रहो मम नान्य इति परिच्छिन्नाणुप्रमाणात्क्षेत्रवास्त्वादिविष्यादतिरेका अतिलोभवशात्प्रमाणातिक्रमा इति प्रत्याख्यायन्ते । त एते परिग्रहपरिमाणव्रतस्थातिचाराः ।
$ 716. उक्ता व्रतानामतिचाराः शीलानामतिचारा वक्ष्यन्ते । तद्यथा
इसका करना परविवाह करण है। जिसका स्वभाव अन्य पुरुषोंके पास जाना-आना है वह इत्वरी कहलाती है । इत्वरी अर्थात् अभिसारिका । इसमें भी जो अत्यन्त आचरट होती है वह इत्रका कहलाती है । यहाँ कुत्सित अर्थ में 'क' प्रत्यय होकर इत्वरिका शब्द बना है। जिसका कोई एक पुरुष भर्ता है वह परिगृहीता कहलाती है । तथा जो वेश्या या व्यभिचारिणी होनेसे दूसरे पुरुषोंके पास जाती आती रहती है और जिसका कोई पुरुष स्वामी नहीं है वह अपरिगृहीता कहलाती है। परिगृहीता इत्वरिकाका गमन करना इत्वरिकापरिगृहीतागमन है और अपरिगृहीता इत्वरिकाका गमन करना इत्वरिका अपरिगृहीतागमन है । यहाँ अंग शब्दका अर्थ प्रजनन और योनि है। तथा इनके सिवा अन्यत्र क्रीडा करना अनंगक्रीडा है । कामविषयक बढ़ा हुआ परिणाम कामतीव्राभिनिवेश है। ये स्वदारसन्तोष अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं ।
क्षेत्र और वास्तुके प्रमाणका अतिक्रम, हिरण्य और सुवर्ण के प्रमाणका अतिक्रम, धन और धान्यके प्रमाणका अतिक्रम दासी और दासके प्रमाणका अतिक्रम तथा कुप्यके प्रमाणका अतिक्रम ये परिग्रहपरिमाण अणुवृतके पाँच अतिचार हैं ॥29॥
$ 715. धान्य पैदा करनेका आधारभूत स्थान क्षेत्र है। मकान वास्तु है । जिससे रूप्य आदिका व्यवहार होता है वह हिरण्य है। सुवर्णका अर्थ स्पष्ट है । धनसे गाय आदि लिये जाते हैं । धान्यसे व्रीहि आदि लिये जाते हैं। नौकर स्त्री पुरुष मिलकर दासी दास कहलाते हैं । रेशम, कपास, और कोसाके वस्त्र तथा चन्दन आदि कुप्य कहलाते हैं । क्षेत्र - वास्तु, हिरण्य- सुवर्ण, धन-धान्य, दासो- दास और कुप्य इनके विषय में मेरा इतना ही परिग्रह है इससे अधिक नहीं ऐसा प्रमाण निश्चित करके लोभवश क्षेत्रवास्तु आदिके प्रमाणको बढ़ा लेना प्रमाणातिक्रम है। इस प्रकार ये परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं ।
$ 716. व्रतोंके अतिचार कहे । अव शीलोंके अतिचार कहते हैं जो इस प्रकार हैं -
1. शीला इत्वरी कुत्सा-- मु., ता. 2. च्छिन्नात्प्रमा- मु. ।
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286] सर्वार्थसिद्धौ
[71308717ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥30॥ $ 717. परिमितस्य दिगवधेरतिलंघनमतिक्रमः । स समासतस्त्रिविधः---
ऊर्ध्वातिक्रमः अधोऽति'क्रमस्तिर्यगतिक्रमश्चेति । तत्र पर्वताद्यारोहणादू तिक्रमः । कूपावतरणादेरधोऽतिक्रमः । बिलप्रवेशादेस्तिर्यगतिक्रमः । परिगृहीताया दिशो लोभावेशादाधिक्याभिसन्धिः क्षेत्रवृद्धिः । स 'षोऽतिक्रमः प्रमादान्मोहाद्व्यासंगाद्वा भवतीत्यवसेयः । अननुस्मरणं स्मृत्यन्तराधानम् । त एते दिग्विरमणस्यातिचाराः।
आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥31॥ 8718. आत्मना संकल्पिते देशे स्थितस्य प्रयोजनवशात्किचिदानयेत्याज्ञापनमानयनम् । एवं कुविति नियोगः प्रेष्यप्रयोगः। व्यापारकरान्पुरषान्प्रत्यभ्युत्कासिकादिकरणं शब्दानुपातः । स्त्रविग्रहदर्शनं रूपानुपातः । लोष्टादिनिपातः पुद्गलक्षेपः । त एते देशविरमणस्य पञ्चातिचाराः। कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥32॥
8 719. रागोद्रेकात्प्रहासमिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोगः कन्दर्पः । तदेवोभयं परत्र दुष्टकायकर्मप्रयुक्तं कौत्कुच्यम् । धाष्टर्यप्राय यत्कि बनानर्थकं बहुप्रला पित्वं मौखर्यम् । असमीक्ष्य प्रयोजनमाधिक्येन करणमसमीक्ष्याधिकरणम् । यावताऽर्थेनोपभोगपरिभोगौ सोऽर्थस्ततोऽन्यस्याधिक्य
ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये दिग्विरतिव्रतके पांच अतिचार हैं ॥30॥
8717. दिशाकी जो मर्यादा निश्चित की हो उसका उल्लंघन करना अतिक्रम है। वह संक्षेपसे तीन प्रकारका है-ऊर्ध्वातिक्रम. अधोऽतिक्रम और तिर्यगतिक्रम । इनमेंसे मर्यादाके बाहर पर्वतादिक पर चढ़नेसे ऊर्ध्वातिक्रम होता है, कुआँ आदिमें उतरने आदिसे अधोऽतिक्रम होता है और बिल आदिमें घुसनेसे तिर्यगतिक्रम होता है। लोभके कारण मर्यादा की हुई दिशाके बढ़ानेका अभिप्राय रखना क्षेत्रवृद्धि है। यह व्यतिक्रम प्रमादसे, मोहसे या व्यासंगसे होता है। मर्यादाका स्मरण न रखना स्मृत्यन्तराधान है। ये दिग्विरमण व्रतके पाँच अतिचार हैं।
आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप ये देशविरति व्रतके पाँच अतिचार हैं ॥31॥
8718. अपने द्वारा संकल्पित देशमें ठहरे हुए पुरुषको प्रयोजनवश किसी वस्तुको लानेकी आज्ञा करना आनयन है । ऐसा करो इस प्रकार काममें लगाना प्रेष्यप्रयोग है। जो पुरुष किसी उद्योगमें जुटे हैं उन्हें उद्देश्य कर खाँसना आदि शब्दानुपात है। उन्हीं पुरुषोंको अपने शरीरको दिखलाना रूपानुपात है । ढला आदिका फेंकना पुद्गलक्षेप है । इस प्रकार देशविरमण व्रतके पाँच अतिचार हैं।
... कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य ये अनर्थदण्डविरति व्रतके पाँच अतिचार हैं ॥32॥
719. रागभावकी तीव्रतावश हास्यमिश्रित असभ्य वचन बोलना कन्दर्प है। परिहास और असभ्यवचन इन दोनोंके साथ दूसरेके लिए शारीरिक कुचेष्टाएं करना कौत्कुच्य है। धीठताको लिये हुए निःसार कुछ भी बहुत बकवास करना मौखर्य है । प्रयोजनका विचार किये बिना मर्यादाके बाहर अधिक काम करना असमीक्ष्याधिकरण है । उपभोग परिभोगके लिए जितनी 1. अधोऽतिक्रमः विलप्र-- मु.। 2. मोहाद्यासङ्गा-मु.। 3. नयेदित्या-- आ., दि. 1, दि. 2। 4. -प्रायं बहु- आ., दि. 1, दि. 2 । 5. --प्रलपितं मौ- मु. ।
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---71346721] सप्तमोऽध्यायः
[287 मानर्थक्यम् । त एते पञ्चानर्थदण्डविरतेरतिचाराः।
योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥33॥ 8720. योगो व्याख्यातस्त्रिविधः। तस्य दुष्ट प्रणिधानं योगदुष्प्रणिधानम्-कायदुष्प्रणिधानं वाग्दुष्प्रणिधानं मनोदुष्प्रणिधानमिति। अनादरोऽनुत्साहः । अनैकाग्रय स्मृत्यनुपस्थानम् । त एते पञ्च सामायिकस्यातिक्रमाः।
अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥34॥
8721. जन्तवः सन्ति न सन्ति वेति प्रत्यवेक्षणं चक्षुर्व्यापारः। मृदुनोपकरणेन यत्क्रियते प्रयोजनं तत्प्रमाजितम् । तदुभयं प्रतिषेधविशिष्टमुत्सर्गादिभिस्त्रिभिरभिसंबध्यते-अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग इत्येवमादि । तत्र अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितायां भूमौ मूत्रपुरीषोत्सर्गः अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गः। अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितस्याहंदाचार्यपूजोपकरणस्य गंधमाल्यधूपादेरात्मपरिधानाधर्थस्य च वस्त्रादेरादानमप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादानम् । अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितस्य प्रावरणादेः संस्तरस्योपक्रमणं अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमणम् । क्षुददितत्वादावश्यकेष्वनादरोऽनुत्साहः । स्मुत्यनुपस्थानं व्याख्यातम् । त एते पञ्च प्रोषधोपवासस्यातिचाराः। वस्तुकी आवश्यकता है वह अर्थ है उससे अतिरिक्त अधिक वस्तु रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है। इस प्रकार ये अनर्थदण्डविरति व्रतके पाँच अतिचार हैं।
काययोगदुष्प्रणिधान, वचनयोगदुष्प्रणिधान, मनोयोगदुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृतिका अनुपस्थान ये सामायिक व्रतके पाँच अतिचार हैं ॥33॥
8720 तीन प्रकारके योगका व्याख्यान किया जा चुका है। उसका बुरी तरहसे प्रयोग करना योगदुष्प्रणिधान है जो तीन प्रकारका है-कायदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान और मनोदुष्प्रणिधान । उत्साहका न होना अनुत्साह है और वही अनादर है। तथा एकाग्रताका न स्मृत्यनुपस्थान है। इस प्रकार ये सामायिक व्रतके पाँच अतिचार हैं।
अप्रत्यवेक्षित अप्रमाजित भूमिमें उत्सर्ग अप्रत्यवेक्षित अप्रमाजित वस्तुका आदान, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित सस्तरका उपक्रमण, अनादर और स्मृतिका अनुपस्थान ये प्रोषधोपवास वृतके पाँच अतिचार हैं ॥34॥
8721. जीव हैं या नहीं हैं इस प्रकार आँखसे देखना प्रत्यवेक्षण कहलाता है और कोमल उपकरणसे जो प्रयोजन साधा जाता है वह प्रमाणित कहलाता है । निषेधयुक्त इन दोनों पंदोंका उत्सर्ग आदि अगले तीन पदोंसे सम्बन्ध होता है। यथा—अप्रत्यवेक्षिनाप्रमार्जितोत्सर्ग आदि । बिना देखी और बिना प्रमाणित भूमिमें मल-मूत्रका त्याग करना अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग है । अरहंत और आचार्यको पूजाके उपकरण, गन्ध, माला और धूप आदिको तथा अपने ओढ़ने आदिके वस्त्रादि पदार्थोंको बिना देखे और बिना परिमार्जन किये हुए ले लेना अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादान है। बिना देखे और बिना परिमार्जन किये हुए प्रावरण आदि संस्तरका बिछाना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण है । भूखसे पीड़ित होनेके कारण आवश्यक कार्यों में अनुत्साहित होना अनादर है । स्मृत्यनुपस्थानका व्याख्यान पहले किया ही है। इस प्रकार ये प्रोषधोपवास व्रतके पाँच अतिचार हैं।
1. दुःप्रणि-- मु.। 2. --दिभिरभि-- मु.। 3. --माजितभूमौ आ., दि., 1, दि. 2 ।
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288 सर्वार्थसिद्धौ
[7135 $ 722सचित्तसंबन्धसंमिश्राभिषवदुष्पक्वाहाराः ॥35॥ 8 722. सह चित्तेन वर्तते इति सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् । तदुपलिष्टः संबन्धः। तद्व्यतिकीर्णः संमिश्रः । कथं पुनरस्य सचित्तादिषु प्रवृत्तिः ? प्रमादसंमोहाभ्याम् । द्रवो वृष्यो वाभिषवः । असम्यक्पयो दुष्पक्वः । एतैराहारो विशेष्यते-सचित्ताहारः संबन्धाहारः संमिश्राहारोऽभिषवाहारो दुष्पक्वाहार इति । त एते पञ्च भोगोपभोगपरिसंख्यानस्यातिचाराः।
सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ।।36।।
$723. सचित्ते पद्मपत्रादौ निक्षेपः सचित्तनिक्षेपः । अपिधानमावरणम् । सचित्तेनैव संबध्यते सचित्तापिवानमिति । अन्यदातृदेयार्पणं परव्यपदेशः । प्रयच्छतोऽन्यादराभावोऽन्यदातगुण सहनं वा मात्सर्यम् । अकाले भोजन कालातिक्रमः । त एते पञ्चातिथिसंविभागशीलातिचाराः ।
जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानबन्धनिदानानि ॥37॥
8724. आशंसनमाशंसा आकाङ्क्षणमित्यर्थः । जीवितं च मरणं च जीवितमरणम्, जीवितमरणस्या से जीवितमरणाशंसे । पूर्वसुहृत्सहपांसुक्रीडनाद्यनुस्मरणं मित्रानुरागः । अनुभूत
सचित्ताहार, सम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार, अभिषवाहार और दुःपक्वाहार ये उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रतके पाँच अतिचार हैं ॥35॥
8722. जो चित्त सहित है वह सचित्त कहलाता है । सचित्तसे चेतना सहित द्रव्य लिया जाता है। इससे सम्बन्धको प्राप्त हुआ द्रव्य सम्बन्धाहार है । और इससे मिश्रित द्रव्य सम्मिश्र है। शंका---यह गृहस्थ सचित्तादिकमें प्रवृत्ति किस कारणसे करता है ? समाधान-प्रमाद और सम्मोहके कारण । द्रव, वृष्य और अभिषव इनका एक अर्थ है । जो ठीक तरहसे नहीं पका है वह दुःपक्व है। ये पाँचों शब्द आहारके विशेषण हैं या इनसे आहार पाँच प्रकारका हो जाता है। यथा-सचित्ताहार, सम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार, अभिषवाहार और दुःपक्वाहार ये सब भोगोपभोपरिसंख्यान व्रतके पाँच अतिचार हैं।
सचित्तनिक्षेप, सचित्तापिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम ये अतिथिसंविभाग व्रतके पाँच अतिचार हैं ।।36॥
8723. सचित्त कमलपत्र आदिमें रखना सचित्तनिक्षेप है । अपिधानका अर्थ ढाँकना है। इस शब्दको भी सचित्त शब्दसे जोड़ लेना चाहिए, जिससे सचित्त कमलपत्र आदिसे ढाँकना यह अर्थ फलित होता है। इस दानकी वस्तुका दाता अन्य है यह कहकर देना परव्यपदेश है। दान करते हुए भी आदरका न होना या दूसरे दाताके गुणोंको न सह सकना मात्सर्य है। भिक्षाकाल के सिवा दूसरा काल अकाल है और उसमें भोजन कराना कालातिक्रम है। ये सब अतिथिसंविभाग शीलव्रतके पाँच अतिचार हैं।
जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये सल्लेखनाके पांच अतिचार हैं ॥37॥
8724. आशसाका अर्थ चाहना है। जीनेकी चाह करना जीविताशंसा है और मरनेकी चाह करना मरणाशंसा है। पहले मित्रोंके साथ पांसुक्रीडन आदि नाना प्रकारको क्रीड़ाएँ की रहीं उनका स्मरण करना मित्रानुराग है । अनुभवमें आये हुए विविध सुखोंका पुनः पुनः 1. -त्तिः स्यात् । प्रमा- मु.।
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-7139 § 728]
सप्तमोऽध्यायः
[289
प्रीतिविशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्धः । भोगाकाङ्क्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मिंस्तेनेति वा निदानम् । त एते पञ्च सल्लेखनाया अतिचाराः ।
8725. अत्राह उनं भवता' तीर्थकरत्वकारणकर्मास्रवनिर्देशे 'शक्तितस्त्यागतपसी' इति, पुनश्चोक्तं शीलविधाने 'अतिथिसंविभाग' इति । तस्य दानस्य लक्षणमनिर्ज्ञातं तदुच्यतामित्यत आह---
अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥38॥
8726. स्वपरोपकारोऽनुग्रहः । स्वोपकारः पुण्यसंचयः; परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धिः । 'स्व' शब्दो धनपर्यायवचनः । अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गस्त्यागो दानं वेदितव्यम् ।
8727. अत्राह-उक्तं दानं तत्किमविशिष्टफलमाहोस्विदस्ति कश्चित्प्रतिविशेष इत्यत
आह
विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ||39 ||
8728. प्रतिग्रहादिक्रमो विधिः । विशेषो गुणकृतः । तस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धः क्रियते-विधिविशेषो द्रव्यविशेषो दातृ विशेषः पात्रविशेष इति । तत्र विधिविशेषः प्रतिग्रहादिष्वादरानादरकृतो भेदः । तपःस्वाध्यायपरिवृद्धि हेतुत्वादिद्रव्यविशेषः । अनसूयाविषादादिर्दातृ विशेषः ।
स्मरण करना सुखानुबन्ध है । भोगाकांक्षासे जिसमें या जिसके कारण चित्त नियमसे दिया जाता है वह निदान है । ये सब सल्लेखना के पाँच अतिचार हैं ।
8725. तीर्थंकर पदके कारणभूत कर्मके आस्रवका कथन करते समय शक्तिपूर्वक त्याग और तप कहा; पुनः शीलोंका कथन करते समय अतिथिसंविभागव्रत कहा परन्तु दानका लक्षण अभीतक ज्ञात नहीं हुआ, इसलिए दानका स्वरूप बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अनुग्रहके लिए अपनी वस्तुका त्याग करना दान है ॥38॥
$ 726. स्वयं अपना और दूसरेका उपकार करना अनुग्रह है। दान देने से पुण्यका संचय होता है यह अपना उपकार है तथा जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यग्ज्ञान आदिकी वृद्धि होती है यह परका उपकार है । सूत्रमें आये हुए स्वशब्दका अर्थ धन है। तात्पर्य यह है कि अतुग्रहके लिए जो धनका अतिसर्ग अर्थात् त्याग किया जाता है वह दान है ऐसा जानना चाहिए । 8727. दानका स्वरूप कहा तब भी उसका फल एक-सा होता है या उसमें कुछ विशेषता है, यह बतलाने के लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
विधि, देय वस्तु, दाता और पात्रकी विशेषतासे उसकी विशेषता है ॥39॥
8728. प्रतिग्रह आदि करनेका जो क्रम वह विधि है । विशेषता गुणसे आती है । इस विशेष शब्दको विधि आदि प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा - विधिविशेष, द्रव्यविशेष, दाताविशेष और पात्रविशेष । प्रतिग्रह आदिकमें आदर और अनादर होनेसे जो भेद होता है वह विधिविशेष है। जिससे तप और स्वाध्याय आदिकी वृद्धि होती है वह द्रव्यविशेष है । अनसूया और विषाद आदिका न होना दाताकी विशेषता है। तथा मोक्षके कारणभूत गुणोंसे युक्त रहना पात्रकी विशेषता है । जैसे पृथिवी आदिमें विशेषता होनेसे उससे उत्पन्न हुए 1. भगवता मु., ता. ।
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290] सर्वार्थसिद्धौ
[71398728मोक्षकारमगुणस्योपः पात्रविशेषः । ततश्च पुण्यफलविशषः क्षित्यादि विशेषाद् बीजफलविशेषवत् ।
इति तत्त्वार्थवत्तौ सर्वार्थसिद्धि संज्ञिकायां सप्तमोऽध्यायः ।।7।।
बीजमें विशेषता आ जाती है वैसे ही विधि आदिककी विशेषतासे दानसे प्राप्त होनेवाले पुण्य फलमें विशेषता आ जाती है।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थवृत्तिमें सातवाँ अध्याय समाप्त हुआ 11711
1. क्षेत्रादि- मु.।
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अथाष्टमोऽध्यायः 8729. व्याख्यात आस्रवपदार्थः । तदनन्तरोद्देशभाग्बन्धपदार्थ इदानी व्याख्येयः। तस्मिव्याख्येये सति पूर्व बन्धहेतूपन्यासः क्रियते; तत्पूर्वकत्वाद् बन्धस्येति--
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥॥ 8730. मिथ्यादर्शनादय उक्ताः । क्व ? मिथ्यादर्शनं तावदुक्तम्, 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' इत्यत्र तत्प्रतिपक्षभूतम्, आस्रवविधाने च क्रियासु व्याख्यातं मिथ्यादर्शनक्रियेति । विरतिरुक्ता । तत्प्रतिपक्षभूता अविरति ह्या । आज्ञाब्यापादनक्रिया अनाकाङ्क्षाक्रियेत्यनयोः प्रमादस्यान्तर्भावः । स च प्रमादः कुशलेष्वनादरः । कषायाः क्रोधादयः अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाः प्रोक्ताः। क्व ? 'इन्द्रियकषाया' इत्यत्रैव। योगाः कायादिविकल्पाः प्रोक्ताः। क्व ? 'कायवाड्मनःकर्म योगः' इत्यत्र ।
731. मिथ्यादर्शनं द्विविधम् ; नैसर्गिक परोपदेशपूर्वकं च । तत्र परोपदेशमन्तरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकम् । परोपदेशनिमित्तं चतुविधम् ; क्रियाक्रियावाद्यज्ञानिक वनयिकविकल्पात् । अथवा पञ्चविधं मिथ्यादर्शनम् --एकान्तमिथ्यादर्शनं विपरीतमिथ्यादर्शनं संशयमिथ्यादर्शन वै यकमिथ्यादर्शनम् अज्ञानिकमिथ्यावर्शनं
6729. आस्रव पदार्थका व्याख्यान किया । अब उसके बाद कहे गये बन्ध पदार्थका व्याख्यान करना चाहिए। उसका व्याख्यान करते हुए पहले बन्धके कारणोंका निर्देश करते हैं, क्योंकि बन्ध तत्पूर्वक होता है
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धके हेतु हैं ॥1॥
8730. मिथ्यादर्शन आदिका व्याख्यान पहले किया जा चुका है। शंका-इनका व्याख्यान पहले कहाँ किया है ? 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' इस सूत्रमें सम्यग्दर्शनका व्याख्यान किया है। मिथ्यादर्शन उसका उलटा है, अत: इससे उसका भी व्याख्यान हो जाता है। या आस्रवका कथन करते समय पच्चीस क्रियाओंमें मिथ्यादर्शनक्रियाके समय उसका व्याख्यान किया है । विरतिका व्याख्यान पहले कर आये हैं। उसकी उलटी अविरति लेनी चाहिए। प्रमादका अन्तर्भाव आज्ञाव्यापादनक्रिया और अनाकांक्षाक्रिया इन दोनोंमें हो जाता है। अच्छे कार्योंके करने में आदरभावका न होना प्रमाद है। कषाय क्रोधादिक हैं जो अन्ततानुबन्धी, अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान और संज्वलनके भेदसे अनेक प्रकारकी हैं। इनका भी पहले कथन कर आये हैं। शंका. कहाँ पर ? समाधान—'इन्द्रियकषाया' इत्यादि सूत्रका व्याख्यान करते समय। तथा कायादिके भेदसे तीन प्रकारके योगका आख्यान भी पहले कर आये हैं। शंका-कहाँ पर? समाधान'कायवाङ मनःकर्म योगः' इस सूत्रमें।
8731. मिथ्यादर्शन दो प्रकारका है-नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । इनमेसे जो परोपदेशके बिना मिथ्यादर्शन कर्मके उदयसे जीवादि पदार्थोंका अश्रद्धानरूप भाव होता है वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है । तथा परोपदेशके निमित्तसे होनेवाला मिथ्यादर्शन चार प्रकारका है-क्रिय.. वादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयि : । अथवा मिथ्यादर्शन पाँच प्रकारका है-एकान्त 1. श्रद्धानं इत्यत्र आ., दि. 1, दि. 2। 2. -शानिर्व- मु.। 3. अज्ञानमिध्या-- मु.।
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292] सर्वार्थसिद्धौ
[811 $ 732-- चेति । तत्र इदमेव इत्थमेवेति धमिधर्मयोरभिनिवेश एकान्तः । “पुरुष एवेदं सर्वम्' इति वा नित्य एव वा अनित्य एवेति । सग्रन्थो निर्ग्रन्थः, केवली कवलाहारी, स्त्री सिध्यतीत्येवमादिः विपर्ययः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि कि मोक्षमार्गः स्याद्वा न वेत्यन्तरपक्षापरिग्रहः संशयः। सर्वदेवतानां सर्वसमयानां च समदर्शनं वैनयिकम् । हिताहितपरीक्षाविरहोऽज्ञानिकत्वम् । उक्तं च
"असिदिसदं किरियाणं अक्किरियाणं तह य होइ चुलसीदी।
सत्तट्ठमण्णाणोण वेणइयाणं तु बत्तीसं ।" 8732. अविरतिदिशविधाः; षटकायषट्करणविषयभेदात् । षोडश कषाया नव नोकषायास्तेषामोषभेदो न भेद इति पंचविंशतिः कषायाः । चत्वारो मनोयोगाश्चत्वारो वाग्योगाः पञ्च काययोगा इति त्रयोदशविकल्पो योगः। आहारककाययोगाहारकमिश्रकाययोगयोः प्रमत्तसंयते संभवात्पञ्चदशापि भवन्ति । प्रमादोऽनेकविधः'; शुद्धयष्टकोत्तमक्षमादिविषयभेदात् । त एते पञ्च बन्धहेतवः सपस्ता व्यस्ताश्च भवन्ति । तद्यथा--मिथ्यादृष्टः पंचापि समुदिता बन्धहेतवो भवन्ति । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्य मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टीनामविरत्यादयश्चत्वारः । संयतासंयतस्याविरतिविरतिमिश्रा प्रमादकषाययोगाश्च । प्रमत्तसंयतस्य प्रमादकषाययोगाः । मिथ्यादर्शन, विपरीतमिथ्यादर्शन, संशयमिथ्यादर्शन, वैनयिकमिथ्यादर्शन और अज्ञानिक मिथ्यादर्शन । यही है, इसी प्रकारका है इस प्रकार धर्म और धर्मीमें एकान्तरूप अभिप्राय रखना एकान्त मिथ्यादर्शन है। जैसे यह सब जग परब्रह्मरूप ही है, या सब पदार्थ अनित्य ही हैं या नित्य ही हैं । सग्रन्थको निर्ग्रन्थ मानना, केवलीको कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपर्यय मिथ्यादर्शन है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर क्या मोक्षमार्ग है या नहीं इस प्रकार किसो एक पक्षको स्वीकार नहीं करना संशय मिथ्यादर्शन है। सब देवता और सब मतोंको एक समान मानना वैनयिक मिथ्यादर्शन है। हिताहितकी परीक्षासे रहित होना अज्ञानिक मिथ्यादर्शन है । कहा भी है--"क्रियावादियोंके एकसौ अस्सी, अक्रियावादियोंके चौरासी, अज्ञानियोंके सड़सठ और वैनयिकोंके बत्तीस भेद हैं।
6732. छहकायके जीवोंकी दया न करनेसे और छह इन्द्रियोंके विषयभेदसे अविरति बारह प्रकारकी है। सोलह कषाय और नौ नोकषाय ये पच्चीस कषाय हैं। यद्यपि कषायोंसे नोकषायोंमें थोड़ा भेद है पर वह यहाँ विवक्षित नहीं है, इसलिए सबको कषाय कहा है । चार मनोयोग, चार वचनयोग और पाँच काययोग ये योगके तेरह भेद हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें आहारक ऋद्धिधारी मुनिके आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोग भी सम्भव हैं इस प्रकार योग पन्द्रह भी होते हैं । शुद्धयष्टक और उत्तम क्षमा आदि विषयक भेदसे प्रमाद अनेक प्रकारका है । इस प्रकार ये मिथ्यादर्शन आदि पाँचों मिलकर या पृथक्-पृथक् बन्धके हेतु हैं। स्पष्टीकरण इस प्रकार है-----मिथ्यादष्टि जीवके पाँचों ही मिलकर बन्धके हेतु हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि के अविरति आदि चार बन्धके हेतु हैं । संयतासंयतके विरति और अविरति ये दोनों मिश्ररूप तथा प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धके हेतु हैं । प्रमत्तसंयतके प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बन्धके हेतु हैं । अप्रमत्तसंयत आदि चारके 1. इति वा नित्यमेवेति मु, दि 1, दि. 2, आ.। 2. गो. कर्म., गा. 8761 3. --याणं च होइ मू. । 4. सत्तच्छण्णा--म. 5. --षायाः ईषद्म- दि. 1, दि. 2, आ.। 6. --दश भवन्ति आ., दि. 1, दि. 2 । 7. -नेकविधः पंचसमितित्रिगुप्तिशुद्धय- मु., आ., दि. 1, दि. 2। 8. --भेदात् । शुद्धयष्टकस्यार्थः भावकायविनयेर्यापथभिक्षाप्रतिष्ठापनशयनासनवाक्यशुद्धयोऽष्टी दशलक्षणो धर्मश्च । त एते मु., आ., दि. 1, दि. 21
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--812 8 734] अष्टमोऽध्यायः
[293 अप्रमत्तादीनां चतुर्णा योगकषायो। उपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगकेवलिनामेक एव योगः। अयोगकेवलिनो न बन्धहेतुः। 8733. उक्ता बन्धहेतवः । इदानी बन्धो वक्तव्य इत्यत आह--
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ॥2॥ 8734. सह कषायेण वर्तत इति सकषायः । सकषायस्य भावः सकषात्वम् । तस्मात्सकषायत्वादिति । पुनर्हेतुनिर्देशः1 जठराग्न्याशयानुरूपाहारग्रहणवत्तीव्रमन्दमध्यमकषायाशयानुरूपस्थित्यनुभवविशेषप्रतिपत्त्यर्थम् । अमूतिरहस्त आत्मा कथं कर्मादत्त इति चोदितः सन् 'जीव' इत्याह । जीवनाज्जीवः प्राणधारणादायुःसंबन्धान्नायुविरहादिति । 'कर्मयोग्यान्' इति लघुनिर्देशात्सिद्धे 'कर्मणो योग्यान्' इति पृथग्विभक्त्युच्चारणं वाक्यान्तरज्ञापनार्थम् । कि पुनस्तद्वाक्यान्तरम? कर्मणो जीवः सकषायो भवतीत्येकं वाक्यम् । एतदुक्तं भवति-'कर्मणः' इति हेतुनिर्देशः कर्मणो हेतो वः सकषायो भवति, नाकर्मस्य कषायलेपोऽस्ति । ततो जीवकर्मणोरनादिसंबन्ध इत्युक्तं भवति । तेनामूर्तो जीवो मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यते इति चोद्यमपाकृतं भवति । इतरथा हि बन्धस्यादिमत्त्वे आत्यन्तिकों शुद्धि दधतः सिद्धस्येव बन्धाभावः प्रसज्येत। द्वितीय वाक्यं 'कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते' इति । अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति पूर्वहेतुसंबन्धं त्यक्त्वा षष्ठीसंबन्धमुपैति 'कर्मणो योग्यान्' इति । 'पुद्गल'वचनं कर्मणस्तादात्म्यख्यापनार्थम् । योग और कषाय ये दो बन्धके हेतु हैं। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली इनके एक योग ही बन्धका हेतु है । अयोगकेवलीके बन्धका हेतु नहीं है।
8733. बन्धके हेतु कहे । अब बन्धका कथन करना चाहिए इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं--
कषाय सहित होनेसे जीव कर्मके योग्य पुदगलोंको ग्रहण करता है वह बन्ध है ॥2॥
8734. कषायके साथ रहता है इसलिए सकषाय कहलाता है और सकषायका भाव सकषायत्व है। इससे अर्थात् सकषाय होनेसे । यह हेतुनिर्देश है । जिस प्रकार जठराग्निके अनुरूप आहारका ग्रहण होता है उसी प्रकार तीव्र, मन्द और मध्यम कषायाशयके अनुरूप ही स्थिति और अनुभाग होता है । इस प्रकार इस विशेषताका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें 'सकषायत्वात्' इस पदद्वारा पुनः हेतुका निर्देश किया है। अमूर्ति और बिना हाथवाला आत्मा कर्मोको कैसे ग्रहण करता है इस प्रश्नका उत्तर देनेके अभिप्रायसे सूत्रमें 'जीव' पद कहा है। जीव शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-जीवनाज्जीवः-जो जीता है अर्थात् जो प्राणोंको धारण करता है, जिसके आयुका सद्भाव है, आयुका अभाव नहीं है वह जीव है। सूत्रमें 'कर्मयोग्यान्' इस प्रकार लघु निर्देश करनेसे काम चल जाता फिर भी 'कर्मणो योग्यान्' इस प्रकार पृथक् विभक्तिका उच्चारण वाक्यान्तरका ज्ञान करानेके लिए किया है । वह वाक्यान्तर क्या है ? 'कर्मणो जीवः सकषायो भवति' यह एक वाक्य है । इसका यह अभिप्राय है कि 'कर्मण:' यह हेतुपरक निर्देश है जिसका अर्थ है कि कर्मके कारण जीव कषायसहित होता है। कर्मरहित जीवके कषायका लेप नहीं होता। इससे जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध है यह कथन निष्पन्न होता है। और इससे अमर्त जीव मूर्त कर्मके साथ कैसे बँधता है इस प्रश्नका निराकरण हो जाता है। अन्यथा बन्धको सादि मानने पर आत्यन्तिक शुद्धिको धारण करनेवाले सिद्ध जीवके समान संसारी जीवके बन्धका अभाव प्राप्त होता है। 'कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते' यह दूसरा वाक्य है, क्योंकि अर्थके अनुसार विभक्ति बदल जाती है इसलिए पहले जो हेत्वर्थमें विभक्ति थो वह अब 'कर्मणो 1. -निर्देशः किमर्थम् ? जठ- मु., दि. 1 1 2. -त्यर्थः । ...त आत्मा ता., ना.। 3. -नार्थम् । अत आत्म-आ.।
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294] सर्वार्थसिद्धी
1813 8735तेनात्मगुणोऽदृष्टो निराकृतो भवति; तस्य संसारहेतुत्वानुपपत्तेः । 'आदत्ते' इति हेतुहेतुमद्भाषख्यापनार्थम् । अतो मिथ्यादर्शनाद्यावेशादा कृतस्यात्मनः सर्वतो योगविशेषातेषां सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहितामनन्तानन्तप्रदेशानां पुद्गलानां कर्मभावयोग्यानामविभागेनोपश्लेषो बन्ध इत्याख्यायते । यथा भाजनविशेष प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामस्तथा पुदगला. नामप्यात्मनि स्थितानां योगकषायवशात्कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः। 'सः'वचनमन्यनिवृत्त्यर्थम् । स एष बन्धो नान्योऽस्तीति । तेन गुणगुणिबन्धो निवतितो भवति । कर्मादिसाधनो बन्ध'-शब्दो व्याख्येयः । 8735. आह किमयं बन्ध एकरूप एव, आहोस्वित्प्रकारा अप्यस्य सन्तीत्यत इदमुच्यते
प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः ॥3॥ 8736. प्रकृतिः स्वभावः । निम्बस्य का प्रकृतिः ? तिक्तता। गुडस्य का प्रकृतिः ? मधुरता। तथा ज्ञानावरणस्य का प्रकृतिः ? अर्थानवगमः । दर्शनावरणस्य का प्रकृतिः ? अर्थानालोयोग्यान्' इस प्रकार षष्ठी अर्थको प्राप्त होती है। सूत्रमें 'पुद्गल' पद कर्म के साथ तादात्म्य दिखलानेके लिए दिया है। इससे अदृष्ट आत्माका गुण है इस बातका निराकरण हो जाता है. क्योंकि उसे आत्माका गुण मानने पर वह संसारका कारण नहीं बन सकता। सूत्रमें 'आदते' । पद हेतुहेतुमद्भावका ख्यापन करने के लिए दिया है। इससे मिथ्यादर्शन आदिके अभिनिवेशवश गीले किये गये आत्माके सब अवस्थाओंमें योग विशेषसे उन सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाही अनन्तानन्त कर्मभावको प्राप्त होने योग्य पुद्गलोंका उपश्लेष होना बन्ध है यह कहा गया है। जिस प्रकार पात्रविशेष में प्रक्षिप्त हुए विविध रसवाले बीज, फूल और फलोंका मदिरारूपसे परिणमन होता है उसी प्रकार आत्मामें स्थित हुए पुद्गलोंका भी योग और कषायके निमित्तसे कर्मरूपसे परिणमन जानना चाहिए। सूत्रमें 'सः' पद अन्यका निराकरण करनेके लिए दिया है कि यह बन्ध है अन्य नहीं। इससे गुणगुणीबन्धका निराकरण हो जाता है । यहाँ 'बन्ध' शब्दका कर्मादि साधनमें व्याख्यान कर लेना चाहिए।
विशेषार्थ---इस सूत्र में मुख्यरूपसे बन्धकी व्याख्या की गयी है । जीव द्रव्यका स्वतन्त्र अस्तित्व होते हए भी अनादि कालसे वह कर्मोंके अधीन हो रहा है जिससे उसे नर नारक आदि नाना गतियोंमें परिभ्रमण करना पड़ता हैं । प्रश्न यह है कि जीव कर्मोंके अधीन क्यों होता है और उन कर्मोंका स्वरूप क्या है ? प्रकृत सूत्र में इन दोनों प्रश्नोंका समर्पक उत्तर दिया गया है। सूत्रमें बतलाया गया है कि कर्मोंके कारण जीव कषायाविष्ट होता है और इससे उसके कर्मके योग्य पुद्गलोंका उपश्लेष होता है। यही बन्ध है । इससे दो बातें फलित होती हैं। प्रथम तो
ह कि कर्मके निमित्तसे जीवमें अशुद्धता आती है और इस अशुद्धताके कारण कर्मका बन्ध होता है और दूसरी यह कि जीव और कर्मका यह बन्ध परम्परासे अनादि है । इस प्रकार बन्ध क्या है और वह किस कारणसे होता है यह बात इस सूत्रसे जानी जाती है ।
8735. यह बन्ध क्या एक है या इसके भेद हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उसके प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश ये चार भेद हैं ॥3॥
8736. प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है। जिस प्रकार नीमकी क्या प्रकृति है ? कड़ आपन । गडकी क्या प्रकृति है ? मीठापन । उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मकी क्या प्रकृति है ? अर्थका
1. -शेषे शिप्ता -मु.।
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-813 $ 736] अष्टमोऽध्यायः
1295 कनम् । वेद्यस्य सदसल्लक्षणस्य सुखदुःखसंवेदनम् । दर्शनमोहस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानम् । चारित्रमोहस्यासंयमः । आयुषो भवधारणम् । नाम्नो नारकादिनामकरणम् । गोत्रस्योच्चर्नीच:स्थानसंशब्दनम् । अन्तरायस्य दानादिविघ्नकरणम् । तदेवलक्षणं कार्य प्रक्रियते प्रभवत्यस्या इति प्रकृतिः। तत्स्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः। यया-अजागोमहिष्यादिक्षीराणां माधुर्यस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः । तया ज्ञानावरणादीनामर्यावगमादिस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिः । तद्रसविशेषोऽनुभवः यथा-अजागोमहिण्यादिक्षीराणां तीव्रमन्दादिभावेन रसविशेषः । तया कर्मपुद्गलानां स्वगतसामग्रंविशेषोऽनुभवः । इयत्तावधारणं प्रदेशः । कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं प्रदेशः । 'विधि-शब्दः प्रकारवचनः । त एते प्रकृत्यादयश्चत्वारस्तस्य बन्धस्थ प्रकाराः। तत्र योगनिमित्तौ प्रकृतिप्रदेशौ । कषायनिमित्तौ स्थित्यनुभवौ। तत्प्रकर्षाप्रकर्षभेदात्तद्बंधविचित्रभावः । तथा चोक्तम्
"जोगा पयडि-पएसा ठिदिअणुभागा कसायदो कुणदि ।
अपरिणदुच्छिण्णेसु य बंधट्ठिदिकारणं णत्थि ।।" ज्ञान न होना । दर्शनावरण कर्मकी क्या प्रकृति है ? अर्थका आलोकन नहीं होना । सुख-दुःखका संवेदन कराना साता और असाता वेदनीयकी प्रकृति है। तत्त्वार्थका श्रद्धान न होने देना दर्शनमोहकी प्रकृति है। असंयमभाव चारित्रमोहकी प्रकृति है। भवधारण आयू कर्मकी प्रकृति है। नारक आदि नामकरण नामकर्मकी प्रकृति है। उच्च और नीच स्थानका सशब्दन गोत्र कमक प्रकृति है तथा दानादिमें विघ्न करना अन्तराय कर्मकी प्रकृति है। इस प्रकारका कार्य किया जाता है अर्थात् जिससे होता है वह प्रकृति है। जिसका जो स्वभाव है उससे च्युत न होना स्थिति है। जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस आदिके दूधका माधुर्यस्वभावसे च्युत न होना स्थिति है उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मोंका अर्थका ज्ञान न होने देना आदि स्वभावसे च्युत न होना स्थिति है। इन कर्मोके रसविशेषका नाम अनुभव है। जिस प्रकार बकरी, गाय और भंस आदिके दूधका अलग-अलग तीव्र मन्द आदि रूपसे रसविशेष होता है उसी प्रकार कर्म पुद्गलोंका अलग अलग स्वगत सामर्थ्य विशेष अनुभव है। तथा इयत्ताका अवधारण करना प्रदेश है। अर्थात् कर्मरूपसे परिणत पुद्गलस्कन्धोंके परमाणुओंको जानकारी करके निदचय करना प्रदेशबन्ध है । 'विधि' शब्द प्रकारवाची है। ये प्रकृति आदिक चार उस बन्धके प्रकार हैं। इनमें से योगके निमित्तसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होता है तथा कषायके निमित्तसे स्थितिबन्ध और अनुभवबन्ध होता है। योग और कषायमें जैसा प्रकर्षाप्रकर्षभेद होता है उसके अनसार बन्ध भी नाना प्रकारका होता है। कहा भी है-'यह जीव योगसे प्रकृति और प्रदेश बन्धको तथा कषायसे स्थिति और अनुभाग बन्धको करता है। किन्तु जो जीव योग और कषायरूप से परिणत नहीं है और जिनके योग और कषायका उच्छेद हो गया है उनके कर्मबन्धकी स्थितिका कारण नहीं पाया जाता।'
विशेषार्थ इस सत्रमें बन्धके चार भेदोंका निर्देश किया है। साम्परायिक आस्रवसे जो भी कर्म बंधता है उसे हम इन चार रूपोंमें देखते हैं । बँधे हुए कर्मका स्वभाव क्या है, स्थिति कितनी है, अपने स्वभावानुसार वह न्यूनाधिक कितना काम करेगा और आत्मासे कितने प्रमाणमें व किस रूपमें वह बन्धको प्राप्त होता है। यही वे चार प्रकार हैं । कर्मके इन चार प्रकारोंकी हीनाधिकता के मुख्य कारण दो हैं--योग और कषाय । योगके निमित्तसे प्रकृतिबन्ध के साथ कमअधिक प्रदेशबन्ध होता है तथा कषायके निमित्तसे कम अधिक स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध 1, मूला. 31471 पंचसं. 4,507 । गो. क., गा. 257 ।
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296] सर्वार्थसिद्धौ
[814 8737$ 737. तत्राद्यस्य प्रकृतिबन्धस्य भेदप्रदर्शनार्थमाहआद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥4॥
8738. आद्यः प्रकृतिबन्धो ज्ञानावरणाद्यष्टविकल्पो वेदितव्यः । आवृणोत्यावियतेऽनेनेति वा आवरणम् । तत्प्रत्येकमभिसंबध्यते-ज्ञानावरणं दर्शनावरणमिति । वेदयति वेद्यत इति वा वेदनीयम । मोहयति मोहयतेऽनेनेति वा मोहनीयम् । एत्यनेन नारकादिभवमित्यायुः । नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम । उच्चै!चैश्च गूयते शब्द्यत इति वा गोत्रम्। दातदेयादीनामन्तरं मध्यमेतीत्यन्तरायः । एकेनात्मपरिणामेनादीयमानाः पुद्गला ज्ञानावरणानेकभेदं प्रतिपद्यन्ते सकृ दुपभुक्तान्नपरिसरुधिरादिवत् ।। होता है। इसका अर्थ है कि जहाँ योग और कषाय नहीं है वहाँ कर्मबन्ध भी नहीं है । कषाय दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है । ग्यारहवें गुणस्थानमें जीव कषायरूपसे परिणत नहीं होता और बारहवे गुणस्थानमें उसका उच्छेद अर्थात् अभाव है, इसलिए इस जीवके स्थितिबन्ध और अनुभागवन्ध दसवें गुणस्थान तक ही होता है । आगे ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें यद्यपि सातावेदनीयका बन्ध होता है पर वहाँ कषाय न होनेसे उसका प्रकृति और प्रदेशबन्ध ही होता है । यहाँ प्रश्न होता है कि यदि इन गुणस्थानोंमें सातावेदनीयका बिना स्थितिके बन्ध होता है तो उसका आत्माके साथ अवस्थान कैसे होगा और यदि बिना अनुभागसे बन्ध होता है तो उसका विपाक सातारूप कैसे होगा? समाधान यह है कि इन गुणस्थानोंमें ईर्यापथ आस्रव होनेसे कर्म आते हैं और चले जाते हैं। उनका दो, तीन आदि समय तक अवस्थान नहीं होता। इसलिए तो यहाँ स्थितिबन्धका निषेध किया है और अनुभाग भी कषायके निमित्तसे प्राप्त होने वाले अनुभागसे यहाँ प्राप्त होनेवाला अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है, इसलिए यहाँ कषायके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले अनुभागबन्धका भी निषेध किया है। योग तेरहवें और कषाय दसवें गणस्थान तक होता है, इसलिए स्थिति और अनुभागबन्ध दसवें तक और प्रकृतिबन्ध और प्रदेशवन्ध तेरहवें होते हैं । अयोगिकेवली गुणस्थानमें योगका अभाव है इसलिए वहाँ किसी प्रकारका भी बन्ध नहीं होता । इस प्रकार यहाँ बन्धके भेद और उनके कारणोंका विचार किया।
8737. अब प्रकृतिवन्धके भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पहला अर्थात् प्रकृतिबन्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप है ॥4॥
6738. आदिका प्रकृतिबन्ध ज्ञानावरणादि आठ प्रकारका जानना चाहिए । जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है। वह प्रत्येकके साथ सम्बन्धको प्राप्त होता है यथा-ज्ञानावरण और दर्शनावरण । जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा वेदा जाता है वह वेदनीय कर्म है । जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कर्म है। जिसके द्वारा नारक आदि भवको जाता है वह आयुकर्म है। जो आत्माको नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है वह नामकर्म है। जिसके द्वारा जीव उच्च नीच गूयते अर्थात् कहा जाता है वह गोत्र कर्म है । जो दाता और देय आदिका अन्तर करता है अर्थात् बीच में आता है वह गोत्र कर्म है । एक बार खाये गये अन्नका जिस प्रकार रस, रुधिर आदि रूपसे अनेक प्रकारका परिणमन होता है उसी प्रकार एक आत्म-परिणामके द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गल ज्ञानावरण आदि अनेक भेदोंको प्राप्त होते हैं। 1. मुह्यते इति मु । 2. -दुपयुक्ता- आ., दि. 1, दि. 2 ता., ना. ।
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-816 § 742]
अष्टमोऽध्यायः
[297
8 739. आह, उक्तो मूलप्रकृतिबन्धोऽष्टविधः । इदानीमुत्तरप्रकृतिबन्धो वक्तव्य इत्यत
आह
पञ्चनवद्यष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥5॥
$ 740 द्वितीयग्रहणमिह कर्तव्यं द्वितीय उत्तरप्रकृतिबन्ध एवंविकल्प इति ? न कर्तव्यम् ; पारिशेष्यात्सिद्धेः । आद्यो मूलप्रकृतिबन्धोऽष्टविकल्प उक्तः । ततः पारिशेष्यादयमुत्तरप्रकृतिविकल्पविधिर्भवति । 'भेद'शब्दः पञ्चादिभिर्यथाक्रममभिसंबध्यते - पञ्चभेदं ज्ञानावरणीयं नवभेवं दर्शनावरणीयं द्विभेवं वेदनीयं अष्टाविंशतिभेदं मोहनीयं चतुर्भेदमायुः द्विचत्वारिंशद्भेदं नाम द्विभेवं गोत्रं पंचभेदोऽन्तराय इति ।
8741. यदि ज्ञानावरणं पंचभेदं तत्प्रतिपत्तिरुच्यतामित्यत आह
मतिश्रुतावधि मन:पर्ययकेवलानाम् ||6||
8742. मत्यादीनि ज्ञानानि व्याख्यातानि । तेषामावृतेरावरणभेदो भवतीति पंचोत्तरप्रकृतयो वेदितव्याः । अत्र चोद्यते--अभव्यस्य मन:पर्ययज्ञानशक्तिः केवलज्ञानशक्तिश्च स्याद्वा न वा । यदि स्यात् तस्याभव्यत्वाभावः । अथ नास्ति तत्रावरणद्वयकल्पना व्यर्थेति ? उच्यतेआदेशवचनान्न दोषः । द्रव्यार्थादेशान्सनः पर्यय केवलज्ञानशक्ति संभवः । पर्यायार्थादेशात्तच्छक्त्यभावः । यद्येवं भव्यभव्यविकल्पो नोपपद्यते ; उभयत्र तच्छक्तिसद्भावात् ? न शक्तिभावाभावा
8.739. मूल प्रकृतिबन्ध आठ प्रकारका कहा । अब उत्तर प्रकृतिबन्धका कथन करते हैं-आठ मूल प्रकृतियोंके अनुक्रमसे पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, ब्यालीस, दो और पाँच भेद हैं ॥5॥
8740. शंका - यहाँ द्वितीय पदका ग्रहण करना चाहिए, जिससे मालूम पड़े कि द्वितीय उत्तर प्रकृतिबन्ध इतने प्रकारका है ? समाधान नहीं करना चाहिए, क्योंकि पारिशेष्य न्यायसे उसकी सिद्धि हो जाती है। आदिका मूल प्रकृतिबन्ध आठ प्रकारका कह आये हैं, इसलिए पारिशेष्य न्याय से ये उत्तर प्रकृतिबन्धके भेद समझने चाहिए । भेद शब्द पाँच आदि शब्दोंके साथ यथाक्रमसे सम्बन्धको प्राप्त होता है । यथा- पाँच भेदनाला ज्ञानावरण, नौ भेदवाला दर्शनावरण, दो भेदवाला वेदनीय, अट्ठाईस भेदवाला मह, चार भेदवाला आयु, ब्यालीस भेदवाला नाम, दो भेदवाला गोत्र और पाँच भेदवाला अन्तरा ।
$ 741. यदि ज्ञानावरण कर्म पाँच प्रकारका है, तो उसका ज्ञान कराना है, अत: आगेका सूत्र कहते हैं
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इनको आवरण करनेवाले कर्म पाँच ज्ञानावरण हैं ॥6॥
742. मति आदि ज्ञानोंका व्याख्यान कर आये हैं। उनका आवरण करनेसे आवरणों में भेद होता है, इसलिए ज्ञानावरण कर्मकी पाँच उत्तर प्रकृतियाँ जानना चाहिए। शंका-अभव्य जीवके मन:पर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति होती है या नहीं होती। यदि होती है तो उसके अभव्यपना नहीं बनता । यदि नहीं होती है तो उसके उक्त दो आवरण- कर्मोंकी कल्पना करना व्यर्थ है ? समाधान - आदेश वचन होनेसे कोई दोष नहीं है । अभव्य के द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान शक्ति पायी जाती है पर पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा उसके उसका
1. मूलः प्रकु - मु.
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298] सर्वार्थसिद्धौ
[8178 743पेक्षयों भव्याभव्यविकल्प इत्युच्यते । कुतस्तहि ? व्यक्तिसद्भावासद्भावापेक्षया । सम्यग्दर्शनादिभिव्यक्तिर्यस्य भविष्यति स भव्यः । यस्य तु न भविष्यति सोऽभव्य इति । कनकेतरपाषाणवत् ।
8743. आह, उक्तो ज्ञानावरणोत्तरप्रकृतिविकल्पः । इदानी दर्शनावरणस्य वक्तव्य इत्यत आहचक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ॥7॥
8744. चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानामिति दर्शनावरणापेक्षया भेदनिर्देशः-चक्षुर्वर्शनावरणमचक्षुर्दर्शनावरणमवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणमिति । मदखेदक्लमविनोदनार्थः स्वापो निद्रा। अभाव है । शंका -यदि ऐसा है तो भव्याभव्य विकल्प नहीं बन सकता है क्योंकि दोनोंके मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान शक्ति पायी जाती है ? समाधान --शक्तिके सदभाव और असदभावकी अपेक्षा भव्याभव्य विकल्प नहीं कहा गया है। शंका-तो किस आधारसे यह विकल्प कहा गया है ? समाधान व्यक्तिकी सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा यह विकल्प कहा गया है। जिसके कनक पाषाण और इतर पाषाणकी तरह सम्यग्दर्शनादि रूपसे व्यक्ति होगी वह भव्य है और जिसके नहीं होगी वह अभव्य है।
विशेषार्थ--यहाँ ज्ञानावरण कर्मके पाँच उत्तर-भेदोंका निर्देश किया गया है। मूलमें ज्ञान एक है। उसके ये पाँच भेद आवरणकी विशेषतासे प्राप्त होते हैं । धवला टीकामें इस विषयका स्पष्टीकरण करने के लिए सूर्य और मेघपटलका उदाहरण दिया गया है। वहाँ बतलाया है कि जिस प्रकार अति सघन मेघपटल सूर्यको आच्छादित करते हैं तो भी अतिमन्द सूर्य किरणें मेघपटलमेंसे प्रस्फुटित होती रहती हैं उसी प्रकार केवलज्ञानावरण कर्मके आवृत होनेपर भी कुछ न कुछ ज्ञानांश प्रस्फुटित होता रहता है और उसीको आवृत करनेसे चार उत्तर आवरण कर्म प्राप्त होते हैं । इस प्रकार कुल ज्ञानावरण कर्म पाँच हैं जो भव्य और अभव्य दोनोंके पाये जाते हैं। शास्त्रमें भव्य और अभव्य संज्ञा बन्ध विशेषकी अपेक्षा से दी गयी है। जीवके ये भेद इसी अपेक्षासे जानने चाहिए। इन भेदोंका अन्य कोई निमित्त नहीं है । बन्ध दो प्रकारका होता है—एक बन्ध वह जो सन्तानकी अपेक्षा अनादि अनन्त होता है और दसरा वह जो अनादि सान्त होता है। जिन जीवोंके कर्मका अनादि-अनन्त बन्ध होता है वे अभव्य कहलाते हैं और जिनके अनादिसान्त बन्ध होता है वे भव्य माने गये हैं। इसलिए शक्ति सब जीवोंके एक-सी होकर भी उसके व्यक्त होने में अन्तर हो जाता है। शास्त्रमें इस भेदको समझानेके लिए कनकपाषाण और अन्धापाषाण उदाहरणरूपसे उपस्थित किये गये हैं सो इस दृष्टान्तसे भी उक्त कथनकी ही पुष्टि होती है । इस प्रकार ज्ञानावर
की ही पुष्टि होती है। इस प्रकार ज्ञानावरण कर्मके पाँच भेद क्यों हैं इस बातका खुलासा किया।
8743. ज्ञानावरण कर्मके उत्तर प्रकृतिविकल्प कहे। अब दर्शनावरण कर्मके कहने चाहिए, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इन चारोंके चार आवरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पाँच निद्रादिक ऐसे नौ दर्शनावरण हैं ॥7॥
8744. चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलका दर्शनावरणकी अपेक्षा भेदनिर्देश किया है; यथा-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण । मद, खेद 1. --नादिर्व्यक्ति-- आ., दि. 1, दि. 2, ता. ।
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--818 $746] अष्टमोऽध्याया
[299 तस्या उपर्युपरि वृत्तिनिद्रानिद्रा । या क्रियात्मानं प्रचलयति सा प्रचला शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगात्रविक्रियासूचिका। सैव पुनःपुनरावर्तमाना' प्रचलाप्रचला। स्वप्ने यया वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगृद्धिः । स्त्यायतेरनेकार्थत्वात्स्वप्नार्थ इह गृहयते, गद्धरपि दीप्तिः । स्त्याने स्वप्ने गद्धयति दीप्यते यदुदयादात्मा रौद्रं बहकर्म करोति सा स्त्यानगद्धिः । इह निद्रादिभिदर्शनावरणं सामानाधिकरण्येनाभिसंबध्यते-निद्रादर्शनावरणं निद्रानिद्रादर्शनावरणमित्यादि। 8745. तृतीयस्याः प्रकृतेरुत्तरप्रकृतिप्रतिपादनार्थमाह--
सदसवेद्ये ॥8॥ 8746. यदुदयाद्देवादिगतिषु शारीरमानससुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम्'। प्रशस्तं वेद्यं सद्वैद्यमिति। यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यमिति । और परिश्रमजन्य थकावटको दूर करनेके लिए नींद लेना निद्रा है । इसकी उत्तरोत्तर प्रवृत्ति होना निद्रानिद्रा है । जो शोक, श्रम और मद आदिके कारण उत्पन्न हुई है और जो बैठे हुए प्राणीके भी नेत्र, गात्रकी विक्रियाकी सूचक है ऐसी जो क्रिया आत्माको चलायमान करती है वह प्रचला है । तथा उसकी पुनः-पुन: आवृत्ति होना प्रचलाप्रचला है। जिसके निमित्तसे स्वप्नमें वीर्यविशेषका आविर्भाव होता है वह स्त्यानगृद्धि है । 'स्त्यायति' धातुके अनेक अर्थ हैं। उनमेंसे यहाँ स्वप्न अर्थ लिया है और 'गृद्धि' दीप्यते जो स्वप्नमें प्रदीप्त होती है वह 'स्त्यानगृद्धि' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-'स्त्याने स्वप्ने' गद्धयति धातुका दीप्ति अर्थ लिया गया है। अर्थात जिसके उदयसे रौद्र बहु कर्म करता है वह स्त्यानगृद्धि है । यहाँ निद्रादि पदोंके साथ दर्शनावरण पदका समानाधिकरणरूपसे सम्बन्ध होता है यथा-निद्रादर्शनावरण, निद्रानिद्रादर्शनावरण आदि।
विशेषार्थ--यहाँ दर्शनावरण कर्मके नौ भेद गिनाये हैं । दर्शनके कुल भेद चार हैं उनकी अपेक्षा प्रारम्भके चार भेद गिनाये हैं । निद्रादिक सामान्य आवरण कर्म हैं पर संसारी जीवके पहले दर्शनोपयोग होता है और ये निद्रादिक उस उपयोगमें बाधक हैं इसलिए इन निद्रा आदि पाँच कर्मोंकी दर्शनावरणके भेदोंमें परिगणना की जाती है। इससे दर्शनावरण कर्मके नौ भेद सिद्ध होते हैं।
8745. तृतीय प्रकृतिकी उत्तर प्रकृतियोंको बतलाने के लिए कहते हैं'सद्वेद्य और असवेद्य ये दो वेदनीय हैं ॥8॥
8746. जिसके उदयसे देवादि गतियोंमें शरीर और मनसम्बन्धी सुखकी प्राप्ति होती है वह सद्वद्य है। प्रशस्त वेद्यका नाम सद्वद्य है। जिसके फलस्वरूप अनेक प्रकारके दुःख मिलते हैं वह असह्यद्य है। अप्रशस्त वेद्यका नाम असदद्य है।
विशेषार्थ-यहाँ वेदनीय कर्मके दो भेद गिनाये हैं । यह जीवविपाकी कर्म है। जीवका साता और असातारूप परिणाम इसके उदयके निमित्तसे होता है। अन्य बाह्य सामग्रीको इसका फल कहा है पर वह उपचार कथन है । वस्तुतः बाह्य सामग्री साता और असाताके उदयमें निमित्त है, इसलिए बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति वेदनीय कर्मका फल उपचारसे माना जा सकता है। देवगति. नरकगति और भोगभूमिमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिका कारण तत्तत्पर्यायकी लेश्या है और कर्मभूमिमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके अनेक कारण हैं । इस प्रकार वेदनीय कर्मके दो भेद और उनका कार्य जानना चाहिए। . 1:-वय॑माना आ., दि. 1, दि. 2। 2. स्वप्नेऽपि यया मु., आ., दि. 1, दि. 21
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300] सर्वार्थसिद्धौ.
[819 8 747$ 747. चतुर्थ्याः प्रकृतेरुत्तरप्रकृतिविकल्पनिदर्शनार्थमाहदर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुन्न
पुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलन
विकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः ॥9॥ 8748. दर्शनादयश्चत्वारः ज्यादयोऽपि । तत्र यथासंख्येन संबन्धो भवति-दर्शनमोहनीयं त्रिभेदम्, चारित्रमोहनीयं द्विभेदम्, अकषायवेदनीयं नवविधम्, कषायवेदनीयं षोडशविधमिति ।
8749. तत्र दर्शनमोहनीयं त्रिभेदम्- सम्यक्वं मिथ्यात्वं तदुभयमिति । तद् बन्धं प्रत्येक भूत्वा सत्कर्मापेक्षया त्रिधा व्यवतिष्ठते । तत्र यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ्मुखस्तत्त्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुको हिताहितविचारासमर्थो मिथ्यादृष्टिर्भवति तन्मिथ्यात्वम् । तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं यदौदासीन्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वेदयमानः पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते। तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात्क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत्सामिशुद्धस्वरसं तदुभयमित्याख्यायते सम्यमिथ्यात्वमिति यावत् । यस्योदयादात्मनोऽर्धशुद्धमदकोद्रवौ दनोपयोगापादितमिश्रपरिणामवदुभयात्मको भवति परिणामः ।
8747. अब चौथी मूल प्रकृतिके उत्तर प्रकृति विकल्प दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, अकषायवेदनीय और कषाय वेदनीय इनके क्रमसे तीन, दो, नौ और सोलह भेद हैं। सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और तदुभय ये तीन दर्शनमोहनीय हैं। अकषायवेदनीय और कषायवेदनीय ये दो चारित्र-मोहनीय हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद और नपुसकवेद ये नौ अकषायवेदनीय हैं। तथा अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन ये प्रत्येक क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे सोलह कषायवेदनीय हैं ॥9॥
8748. दर्शन आदिक चार हैं और तीन आदिक भी चार हैं । वहाँ इनका यथाक्रमसे सम्बन्ध होता है। यथा--दर्शनमोहनीय तीन प्रकारका है, चारित्रमोहनीय दो प्रकारका है, अकषायवेदनीय नौ प्रकारका है और कषायवेदनीय सोलह प्रकारका है।
8749. उनमें से दर्शनमोहनीयके तीन भेद ये हैं--सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और तदुभय। वह वन्धकी अपेक्षा एक होकर सत्कर्मकी अपेक्षा तीन प्रकारका है। इन तीनोंमें-से जिसके उदयसे यह जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्गसे विमुख, तत्त्वार्थोके श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहितका विचार करनेमें असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है। वही मिथ्यात्व जब शभ परिणामोंके कारण अपने स्वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीनरूपसे अवस्थित रहकर आत्माके श्रद्धानको नहीं रोकता है तब सम्यक्त्व है। इसका वेदन करनेवाला पुरुष सम्यग्दष्टि कहा जाता है । वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेषके कारण क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदोंके समान अर्धशुद्ध स्वरसवाला होनेपर तदुभय कहा जाता है। इसीका दूसरा नाम सम्यग्मिथ्यात्व है । इसके उदयसे अर्धशुद्ध मदशक्तिवाले कोदों और ओदनके उपयोगसे प्राप्त हुए मिश्र परिणामके समान उभयात्मक परिणाम होता है।
1. --त्र्यादयोऽपि चत्वारः । तत्र मु., ता., ना.। 2. --कोद्रवोपयो-- म. ।
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-8198751] अष्टमोऽध्यायः
[301 8750. चारित्रमोहनीयं द्विधा; अकषायकवायभेदात् । ईषदर्थे नजः प्रयोगादीषत्कषापोऽकषाय इति । अकषायवेदनीयं नवविधम् । कुतः । हास्यादिभेदात् । यस्योदयाद्धास्याविर्भावस्तद्धास्यम् । यदुदया'देशादिष्वौत्सुक्यं सा रतिः । अरतिस्तद्विपरीता। यद्विपाकाच्छोचनं स शोकः । यदुदयादुद्वेगस्तद्भयम् । यदुदयादात्मदोष संवरणं 'परदोषाविष्करणं सा जुगुप्सा । यदुदयात्स्त्रैणाभावान्प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः । यस्योदयात्पौंस्नान्भावानास्कन्दति स पुवेदः । यदयान्नासकाभावानुपव्रजति स नपुसकवेदः ।
$751. कषायवेदनीयं षोडशविधम् । कुतः। अनन्तानुबन्ध्यादिविकल्पात् । तद्यथाकषायाः क्रोधमानमायालोभाः। तेषां चतस्रोऽवस्थाः --अनन्तानुबन्धिनोऽप्रत्याख्यानावरणाः प्रत्याख्यानावरणाः संज्वलनाश्चेति । अनन्तसंसारकारणत्वान्मिभ्यादर्शनमनन्तम । तदनुबन्धिनोऽनन्तानुबन्धिनः कोषमानमायालोभाः। यदुदयाद्दे विरति संयमासंयमाख्यामल्पामपि कतुं न शक्नोति ते देशप्रत्याख्यानमावृण्वन्तोऽप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाः । यदुदयाद्विति कृत्स्नां संयमाख्यां न शक्नोति कतुं ते कृत्स्नं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाः । समेकीभावे वर्तते । संयमेन सहावस्थानादेकोभूय ज्वलन्ति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलनाः क्रोधमानमायालोभाः । त एते समुदिताः सन्तः षोडश कषाया भवन्ति ।
$ 750. चारित्रमोहनीय दो प्रकारका है.---अकषायवेदनीय और कषायवेदनीय । यहाँ ईषद् अर्थात् किंचित् अर्थ में 'न' का प्रयोग होनेसे किंचित् कषायको अकषाय कहा है। हास्य आदिके भेदसे अकषायवेदनोयके नौ भेद हैं । जिसके उदयसे हँसी आती है वह हास्य है । जिसके उदयसे देश आदिमें उत्सुकता होती है वह रति है । अरति इससे विपरीत है। जिसके उदयसे शोक होता है वह शोक है। जिसके उदयसे उद्वेग होता है वह भय है। जिसके उदयसे आत्मदोषोंका संवरण और परदोषोंका आविष्करण होता है वह जुगुप्सा है। जिसके उदयसे स्त्रीसम्बंधी भावोंको प्राप्त होता है वह स्त्रीवेद है। जिसके उदयसे पुरुषसम्बन्धी भावोंको प्राप्त होता है वह पुवेद है और जिसके उदयसे नपुसकसम्बन्धी भावोंको प्राप्त होता है वह नपु सकवेद है।
8751. अनन्तानबन्धी आदिके विकल्पसे कषायवेदनीयके सोलह भेद हैं। यथा--क्रोध, मान, माया और लोभ ये कषाय हैं। इनकी चार अवस्थाएँ हैं--अन्ततानुबन्धी,अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन। अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है तथा जो कषाय उसके अर्थात् अनन्तके अनुबन्धी हैं वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ हैं। जिनके उदयसे जिसका दूसरा नाम संयमासंयम है ऐसी देश विरतिको यह जीव स्वल्प भी करनेमें समर्थ नहीं होता है वे देशप्रत्याख्यानको आवृत करनेवाले अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया और लोभ हैं। जिनके उदयसे संयम नामवाली परिपूर्ण विरतिको यह जीव करने में समर्थ नहीं होता है वे सकल प्रत्याख्यानको आवृत करनेवाले प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ हैं। 'सं' एकीभाव अर्थमें रहता है । संयमके साथ अवस्थान होने में एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात् चमकते हैं या जिनके सद्भावमें संयम चमकता रहता है वे संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । ये सब मिलकर सोलह कषाय होते हैं।
विशेषार्थ-मोहनीय कर्मके दो भेद हैं..दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । जो समीचीन दर्शन अर्थात् तत्त्वरुचिके होने में बाधक कर्म है वह दर्शनमोहनीय है और जो समीचीन श्रद्धा के अनुकूल चारित्रके होनेमें बाधक कर्म है वह चारित्रमोहनीय है। दर्शनमोहनीयके मिथ्यात्व 1. -दयाद्विषयादि-- म., ता., ना.। 2. --अन्यदोषस्याधारणं दि. 1, दि. 2। अन्यदोषाविष्करणं सा-। 3. -दयास्त्रीणां भावा- आ., दि. 1, दि. 21 4. --देकीभूता ज्व-- आ, दि. 1, दि. 2, म.।
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302]
सर्वार्थसिद्धौ
[8198751
आदिक तीन भेद हैं। मिथ्यात्व समीचीन दर्शनका प्रतिपक्ष कर्म है। यह जीव अनादि कालसे मिथ्यादृष्टि हो रहा है। इसे योग्य द्रव्यादिकका निमित्त मिलनेपर ही समीचीन दर्शनका श्रद्धान होता है। सर्वप्रथम यह श्रद्धान इसके प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व कर्मके उपशमसे ही होता है । साधारणतः संसार में रहनेका काल जब अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण शेष रहता है तब यह होता है
पहले नहीं होता । इतने कालके शेष रहने पर होना ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है। इससे भी कम कालके शेष रहने पर यह हो सकता है । इसका नाम प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनका अर्थ है समीचीन दर्शन । जैनदर्शनके अनुसार व्यक्ति-स्वातन्त्र्यकी प्राणप्रतिष्ठा करनेवाला और आत्मदर्शन करानेवाला दर्शन समीचीन दर्शन माना गया है । जब इस प्रकारका सम्यग्दर्शन होता है तब इस दर्शनका प्रतिपक्षभूत कर्म तीन भागोंमें विभक्त हो जाता है । जिनके नाम मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृतिमिथ्यात्व होते हैं । प्रथमका वही काम है। दसरा और तीसरा अपने नामानुसार काम करते हैं । अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व मिश्र परिणामके होने में निमित्त होता है और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व समीचीन दर्शनरूप परिणामको सदोष बनाने में निमित्त होता है। इस प्रकार एक मिथ्यात्व कर्म सम्यक्त्वका निमित्त पाकर तीन भागों में विभक्त हो जाता है, इसलिए बन्धकी अपेक्षा दर्शनमोहनीय एक होकर भी सत्ताकी अपेक्षा वह तीन प्रकारका माना गया है । मोहनीयका दूसरा भेद चारित्रमोहनीय है । व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी प्राणप्रतिष्ठा करनेवाला दर्शन ही सम्यग्दर्शन है यह हम पहले बतला आये हैं । अत: हमारा इस दर्शनके अनुरूप जो आचार होता है वही सदाचार माना जा सकता है, अन्य नहीं। यही कारण है कि जैनदर्शनके अनुसार स्वावलम्बनके अनुरूप आचारको ही सदाचार कहा गया है । इसी सदाचारका दूसरा नाम सच्चारित्र है । जो कर्म इस सच्चारित्रके होने में बाधक होता है उसे ही आगममें चारित्रमोहनीय कहा है । इसके मूल भेद दो हैं-कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय । अकषायवेदनोय देशघाति कर्म होनेसे यह सम्यक् चारित्रकी प्राप्तिमें बाधक नहीं है। कषायवेदनीयक चार भद है। उनमें-से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ व्यक्तिस्वातव्यके अनुरूप स्वावलम्बनकी धाराका जीवनमें महत्त्व प्रस्थापित नहीं होने देता। इसीसे इसे अनन्त अर्थात् संसारका कारण कहा हैं । व्यक्तिस्वातन्त्र्य और स्वावलम्बनका अविनाभाव सम्बन्ध है। जीवन में व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी श्रद्धा होनेपर स्वावलम्बनका महत्त्व अपने आप समझमें आने लगता है। यह नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति अपने जीवनमें व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी श्रद्धा तो करे पर उसकी प्राप्तिके लिए जीवनको परावलम्बी बनाये रखनेकी ओर उसका झकाव हो। यही कारण है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कको अनन्तका अनबन्धी माना गया है। इस प्रकार जीवनमें व्यक्तिस्वातन्य और तदनुरूप स्वावलम्बनके प्रति अभिरुचि हो जानेपर व्यक्ति पूर्ण स्वावलम्बी बननेके लिए उद्यत होता है । किन्तु अनादिकालीन परतन्त्रताओंका वह युगपत् त्याग नहीं कर सकता, इसलिए जैसी-जैसी अन्त:शुद्धि होती जाती है तदनुरूप वह स्वावलम्बी बनता जाता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि व्यक्तिके जीवन में व्यक्तिस्वातन्त्र्य और उसके मार्ग स्वावलम्बनके प्रति पूर्ण श्रद्धाके होनेपर भी वह उसे जीवनमें उतारने में अपनेको असमर्थ पाता है। इसका कारण जहाँ जीवनकी भीतरी कमजोरी माना गया है वहाँ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इस दशाके बनाये रखनेमें निमित्त हैं । यही कारण है कि इन कषायोंको आंशिक स्वावलम्बनका बाधक कहा है। और पूर्ण स्वावलम्बनमें बाधक कारण प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ माने गये हैं। संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ स्वावलम्बनके आचरणको सदोष तो करते हैं पर बाधक नहीं हो पाते। इस प्रकार मोहनीय और उसके अवान्तर भेदोंका क्या कार्य है इसका यहाँ संक्षेपमें विचार किया।
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-81118755] अष्टमोऽध्यायः
[303 $ 752. मोहनीयानन्तरोदेशभाज आयुष उत्तरप्रकृतिनिपिनार्थमाह
नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥10॥ $ 753. नारकादिषु भवसंबन्धेनायुषो व्यपदेश: क्रियते । नरकेषु भवं नारकमायुः, तिर्यग्योनिषु भवं तैर्यग्योनम्, मानुषेषु भवं मानुषम्, देवेषु भव दैवमिति । नरकेषु तीब्रशीतोष्णवेदनेषु यन्निमित्तं दीर्घजीवन तन्नारकम् । एवं शेषेष्वपि ।
$ 754. आयुश्चतुर्विषं व्याख्यातम् । तदनन्तरमुद्दिष्टं यन्नामकर्म तदुत्तरप्रकृतिनिर्णयार्थमाह
गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशःकीतिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ।
8755. यदुदयादात्मा भवान्तरं गच्छति सा गतिः । सा चतुर्विधा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिमनुष्यगतिर्देव'गतिश्चेति । यन्निमित्त आत्मनो नारको भावस्तन्नरकगतिनाम । एवं शेषेष्वपि योज्यम् । तासु नरकादिगतिष्वव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतोऽर्थात्मा जातिः। तन्निमित्तं जाति
8752. मोहनीयके अनन्तर उद्देशभाक आयु कर्मको उत्तर प्रकृतियोंका विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
नरकायु, तियंचायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार आयु हैं॥10॥
8753. नारक आदि गतियोंमें भवके सम्बन्धसे आयुकर्मका नामकरण किया जाता है। यथा-नरकोंमें होनेवाली नारक आयु है, तिर्यग्योनिवालोमें होनेवाली तैर्यग्योन आयु है, मनुष्योंमें होनेवाली मानुष आयु है और देवोंमें होनेवाली देवायु है। तीव्र शीत और उष्ण वेदनावाले नरकोंमें जिसके निमित्तसे दीर्घ जीवन होता है वह नारक आयु है। इसी प्रकार शेष आयुओंमें भी जानना चाहिए।
विशेषार्थ---दस प्राणोंमें आयु प्राण मुख्य है। यह जीवित रहनेका सर्वोत्कृष्ट निमित्त माना गया है। इसके सद्भावमें प्राणीका जीवन है और इसके अभावमें वह मरा हुआ माना जाता है। अन्नादिक तो आयुको कायम रखने में सहकारीमात्र हैं। भवधारण करनेका मुख्य कारण आयुकर्म ही है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
8754. चार प्रकारके आयुका व्याख्यान किया। इसके अनन्तर जो नामकर्म कहा गया है उसकी उत्तर प्रकृतियोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास और विहायोगति तथा प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोंके साथ अर्थात् साधारण शरीर और प्रत्येक शरीर, स्थावर और त्रस, दुर्भग और सुभग, दुःस्वर और सुस्वर, अशुभ और शुभ, बादर और सूक्ष्म, अपर्याप्त और पर्याप्त, अस्थिर और स्थिर, अनादेय और आदेय, अयशःकोति और यशःकीर्ति एवं तीर्थकरत्व ये ब्यालीस नामकर्मके भेद हैं॥11॥
8755. जिसके उदयसे आत्मा भवान्तरको जाता है वह गति है । वह चार प्रकारकी है-नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति । जिसका निमित्त पाकर आत्माका नारक भाव होता है वह नरकगति नामकर्म है । इसी प्रकार शेष गतियोंमें भी योजना करनी चाहिए। 1. --गतिर्देवगतिर्मनुष्यगतिश्चेति मु.। 2. योज्यन्ते । तासु आ.।
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304 j
सर्वार्थसिद्धौ
I
[8!11 § 755नाम । तत्पञ्चविधम् – एकेन्द्रियजातिनाम हीन्द्रियजातिनाम त्रीन्द्रियजातिनाम चतुरिन्द्रियजातिनाम पञ्चेन्द्रियजातिनाम चेति । यदुदयादात्मा एकेन्द्रिय इति शब्द्यते तदेकेन्द्रियज तिनाम । एवं शेषेष्वपि योज्यम् | यदुदयादात्मनः शरीरनिवृत्तिस्तच्छरीरनाम । तत्पञ्चविधम्-औदारिकशरीरनाम वैक्रियिकशरीरनाम आहारकशरीरनाम तैजसशरीरनाम कार्मणशरीरनाम चेति । तेषां विशेषो व्याख्यातः । यदुदयादङ्गोपाङ्गविवेकस्तदङ्गोपाङ्गनाम । तत् त्रिविधम् औदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम आहारकशरीराङ्गोपांगनाम चेति । यन्निमित्तात्परिनिष्पत्तिस्तन्निर्माणम् । तद् द्विविधं स्थान निर्माण प्रमाणनिर्माणं चेति । तज्जातिनामोदयापेक्षंचक्षुरादीनां स्थानं प्रमाणं च निर्वर्तयति । निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणम् । शरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तानां पुद्गलानामन्योन्यत्र देशसंश्लेषणं यतो भवति तद्द्बन्धननाम । यदुदयादौदारिकादिशरीराणां विवरविरहितान्योऽन्यत्र देशा नुप्रवेशेन एकत्वापादनं भवति सत्संघातनाम । यदुदयादौदारिकादिशरीराकृतिनिवृतिर्भवति तत्संस्थाननाम । तत् षोढा विभज्यते - समचतुरस्रसंस्थाननाम न्यग्रोधपरिमण्डलसस्थाननाम स्वातिसंस्थाननाम कुब्जसंस्थाननाम वामनसंस्थाननाम हुण्डसंस्थाननाम चेति । यस्योदयादस्थिबन्धनविशेषो भवति तत्संहनननाम । तत् षड्विधम्-वन्त्रर्षभनाराचसंहनननाम वज्रनाराचसंहनननाम नाराचसंहनननाम अर्धनाराचसंहनननाम कीलि' का संहनननाम असंप्राप्ता पाटिकासंहनननाम चेति । यस्योदयात्स्पर्श प्रादुर्भावस्तत्स्पर्शनाम । तदष्टविधम्उन नरकादि गतियों में जिस अव्यभिवारी सादृश्यसे एकपने रूप अर्थ की प्राप्ति होती है वह जाति है । और इसका निमित्त जाति नामकर्म है । वह पाँच प्रकारका है- एकेन्द्रिय जाति नामकर्म द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म, त्रीन्द्रिय जाति नामकर्म, चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म और पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म । जिसके उदयसे आत्मा एकेन्द्रिय कहा जाता है वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म है । इसी प्रकार शेष जातियोंमें भी योजना करनी चाहिए। जिसके उदयसे आत्माके शरीरकी रचना होती है वह शरीर नामकर्म है । वह पाँच प्रकारका है- औदारिक शरीर नामकर्म, जैविक शरीर नामकर्म, आहारक शरीर नामकर्म, तैजस शरीर नामकर्म और कार्मण शरीर नामकर्म । इनका विशेष व्याख्यान पहले कर आये हैं। जिसके उदयसे अंगोपांगका भेद होता है वह अंगोपांग नामकर्म है । वह तीन प्रकारका - औदारिक शरीर अंगोपांग नामकर्म, वैयिक शरीर अंगोपांग नामकर्म और आहारक शरीर अंगोपांग नामकर्म । जिसके निमित्तसे परिनिष्पत्ति अर्थात् रचना होती है वह निर्माण नामकर्म है। वह दो प्रकारका है—स्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण । वह जाति नामकर्मके उदयका अवलम्बन लेकर चक्षु आदि अवयवोंके स्थान और प्रमाण की रचना करता है । निर्माण शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणम्' जिसके द्वारा रचना की जाती है वह निर्माण कहलाता है । शरीर नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुए पुद्गलोंका अन्योन्य प्रदेश संश्लेष जिसके निमित्तसे होता है वह बन्धन नामकर्म है । जिसके उदयसे औदारिक आदि शरीरोंकी छिद्र रहित होकर परस्पर प्रदेशों के अनुप्रवेश द्वारा एकरूपता आती है वह संघात नामकर्म है । जिसके उदयसे औदारिक आदि शरीरोंकी आकृति बनती है वह संस्थान नामकर्म है। वह छह प्रकारका है - समचतुरस्त्रसंस्थान नामकर्म, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान नामकर्म, स्वातिसंस्थान नामकर्म कुब्जकसंस्थान नामकर्म, वामन संस्थान नामकर्म और हुण्डसंस्थान नामकर्म। जिसके उदयसे अस्थियोंका बंधन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है । वह छह प्रकारका है-वज्रर्पभनाराच संहनन नामकर्म, वज्रनाराचसंहनन नामकर्म, नाराचसंहनन नामकर्म, अर्धनाराचसंहनन नामकर्म, कीलिकासंहनन नामकर्म, और असम्प्राप्ता1. कीलितसं - भु । कीलस-- दि. 2 । 2. -- प्राप्तासृपा - आ., दि. 1, दि. 2 ।
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-81118755] अष्टमोऽध्यायः
[305 कर्कशनाम मदुनाम गुरुनाम लघुनाम स्निग्धनाम रूक्षनाम शीतनाम उष्णनाम चेति । यन्निमित्तो रसविकल्पस्तद्रसनाम । तत्पञ्चविधम्-तिक्तनाम कटुकनाम कषायनाम आम्लनाम मधुरनाम चेति । यदुदयप्रभवो गन्धस्तद्गन्धनाम । तद्विविधम्-सुरभिगन्धनाम असुरभिगन्धनाम चेति । यद्धेतुको वर्णविभागस्तद्वर्णनाम । तत्पंचविधम्-कृष्णवर्णनाम नीलवर्णनाम रक्तवर्णनाम हारिद्र वर्णनाम शुक्लवर्णनाम चेति । पूर्वशरीराकाराविनाशो यस्योदयाद् भवति तदानुपूर्व्यनाम। तच्चतुर्विधम् -नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपर्व्यनाम देवगतिप्रायोग्यानपर्व्यनाम चेति । यस्योदयादयःपिण्डवद गुरुत्वान्नाधः पतति न चार्क तूलवल्लघुत्वादूवं गच्छति तदगुरुलघुनाम । यस्योदयात्स्वयंकृतोद्बन्धन मरुप्रपतनादिनिमित्त उपघातो भवति तदुपघातनाम । यन्निमित्तः परशस्त्रादेाघातस्तत्परघातनाम । यदुदयान्निर्वृत्तमातपनं तदातपनाम । तदादित्ये वर्तते। यन्निमित्तमुद्योतनं तदुद्योतनाम । तच्चन्द्रखद्योतादिषु वर्तते । यद्धतुरुच्छवासस्तदुच्छ्वासनाम । विहाय आकाशम् । तत्र गतिनिर्वर्तकं तद्विहायोगतिनाम। तद्विविधम-प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् । शरीरनामकमोदयान्निवत्यमानं शरीरमेकात्मोपभोगकारणं यतो भवति तत्प्रत्येकशरीरनाम। बहनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणं शरीरं यतो भवति तत्साधारणशरीरनाम । यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत्त्रसनाम् । यन्निमित्त एकेन्द्रियेषु प्रादुर्भावसपाटिकासंहनन नामकर्म । जिसके उदयसे स्पर्शकी उत्पत्ति होती है वह स्पर्श नामकर्म है। वह आठ प्रकारका है-कर्कश नामकर्म, मदु नामकर्म, गुरु नामकर्म, लघ नामकर्म, स्निग्ध नामकर्म, रूक्ष नामकर्म, शीत नामकर्म और उष्ण नामकर्म । जिसके उदयसे रसमें भेद होता है वह रस नामकर्म है । वह पाँच प्रकारका है-तिक्त नामकर्म, कटु नामकर्म, कषाय नामकर्म, आम्ल नामकर्म और मधुर नामकर्म । जिसके उदयसे गंधकी उत्पत्ति होती है वह गंध नामकर्म है । वह दो प्रकारका है--सुरभिगन्ध नामकर्म और असुरभिगन्ध नामकर्म । जिसके निमित्तसे वर्ण में विभाग होता है वह वर्ण नामकर्म है । वह पाँच प्रकारका है-कृष्णवर्ण नामकर्म, नीलवर्ण नामकर्म, रक्तवर्ण नामकर्म, हारिद्रवर्ण नामकर्म और शुक्लवर्ण नामकर्म । जिसके उदयसे पूर्व शरीरके आकारका विनाश नहीं होता है वह आनुपूर्व्य नामकर्म है । वह चार प्रकारका है--नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म । जिसके उदयसे लोहेके पिण्डके समान गुरु होनेसे न तो नीचे गिरता है
और न अर्कतूलके समान लघु होनेसे ऊपर जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है। जिसके उदयसे स्वयंकृत उद्बन्धन और मरुस्थल में गिरना आदि निमित्तक उपघात होता है वह उपघात नामकर्म है। जिसके उदयसे परशस्त्रादिकका निमित्त पाकर व्याघात होता है वह परघात नामकर्म है। जिसके उदयसे शरीरमें आतपकी रचना होती है वह आतप नामकर्म है। वह सूर्यबिम्बमें होता है। जिसके निमित्तसे शरीरमें उद्योत होता है वह उद्योत नामकर्म है । वह चन्द्रबिम्ब और जगुन् आदिमें होता है । जिसके निमित्तसे उच्छ्वास होता है वह उच्छ्वास नामकर्म है। विहायस्का अर्थ आकाश है । उसमें गतिका निर्वर्तक कर्म विहायोगति नामकर्म है । प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे वह दो प्रकारका है। शरीर नामकर्मके उदयसे रचा जानेवाला जो शरीर जिसके निमित्तसे एक आत्माके उपभोगका कारण होता है वह प्रत्येकशरोर नामकर्म हैं । बहुत आत्माओंके उपभोगका हेतुरूपसे साधारण शरीर जिसके निमित्तसे होता है वह साधारणशरीर नामकर्म है। जिसके उदयसे द्वीन्द्रियादिकमें जन्म होता है वह त्रस नामकर्म है। जिसके निमित्तसे एकेन्द्रियोंमें उत्पत्ति होती है वह स्थावर नामकर्म है। जिसके उदयसे अन्यजनप्रीतिकर अवस्था 1. --नाम दुरभिगन्ध- आ., दि. 1, दि. 2। 2. हरिद्वणं- मु.। 3. मरुत्प्र- मु. ।
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306] सर्वार्थसिद्धौ
[81118755स्तत्स्थावरनाम । यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत्सुभगनाम । यदुदयाद्रूपादिगुणोपेतोऽप्यप्रीतिकरस्त दुर्भगनाम । यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत्सुस्वरनाम । तद्विपरीतं दुःस्वरनाम। यदुदयाद्रमणीयत्वं तच्छभनाम। तद्विपरीतमशभनाम। सक्षमशरीरनिर्वर्तकं सक्ष्मनाम। अन्यबाधाकरशरीरकारणं बादरनाम। यदुदयादाहारादिपर्याप्तिनिर्वृत्तिः तत्पर्याप्तिनाम । तत् षड्विधम्आहारपर्याप्तिनाम शरीरपर्याप्तिनाम इन्द्रियपर्याप्तिनाम प्राणापानपर्याप्तिनाम भाषापर्याप्तिनाम मनःपर्याप्तिनाम चेति । षड्विधपर्याप्त्यभावहेतुरपर्याप्तिनाम । स्थिरभावस्य निर्वर्तकं स्थिरनाम। तद्विपरीतमस्थिरनाम । प्रभोपेतशरीरकारणमादेयनाम । निष्प्रभशरीरकारणमनादेयनाम । पुण्य गुणख्यापनकारणं यशःकीर्तिनाम । तत्प्रत्यनीकफलमयशःकीतिनाम । आर्हन्त्यकारणं तीर्थकरत्वनाम। होती है वह सुभग नामकर्म । जिसके उदयसे रूपादि गुणोंसे युक्त होकर भी अप्रीतिकर अवस्था होती है वह दुर्भग नामकर्म है। जिसके निमित्तसे मनोज्ञ स्वरकी रचना होती है वह सुस्वर नामकर्म है । इससे विपरीत दुःस्वर नामकर्म है । जिसके उदयसे रमणीय होता है वह शुभ नामकर्म है। इससे विपरीत अशुभ नामकर्म है । सूक्ष्म शरीरका निवर्तक कर्म सूक्ष्म नामकर्म है। अन्य बाधाकर शरीरका निर्वर्तक कर्म बादर नामकर्म है।
जिसके उदयसे आहार आदि पर्याप्तियोंकी रचना होती है वह पर्याप्ति नामकर्म है। वह छह प्रकारका है-आहारपर्याप्ति नामकर्म, शरीरपर्याप्ति नामकर्म, इन्द्रियपर्याप्ति नामकर्म, प्राणापानपर्याप्ति नामकर्म, भाषापर्याप्ति नामकर्म और मनःपर्याप्ति नामकर्म । जो छह प्रकारकी पर्याप्तियोंके अभावका हेतु है वह अपर्याप्ति नामकर्म है । स्थिरभावका निर्वर्तक कर्म स्थिर नामकर्म है। इससे विपरीत अस्थिर नामकर्म है । प्रभायुक्त शरीरका कारण आदेय नामकर्म है । निष्प्रभ शरीरका कारण अनादेय नामकर्म है । पुण्य गुणोंकी प्रसिद्धिका कारण यशःकीति नामकर्म है । इससे विपरीत फलवाला अयशःकीति नामकर्म है। आर्हन्त्यका कारण तीर्थकर नामकर्म है।
विशेषार्थ-यहाँ नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियों के कार्योंकी चर्चा की गयी है। मूल कर्म आठ हैं। उनमें से सात कर्म जीवविपाकी माने गये हैं । नामकर्म जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी दोनों प्रकारका है । जिन कर्मोंका विपाक जीवमें होता है वे जीवविपाकी हैं और जिनका विपाक शरीरादि पुद्गल में होता है वे पुद्गल विपाकी हैं । यह इनका शब्दार्थ है। इसे ध्यानमें रखते हए इनके अर्थकी विस्तत चर्चा करना आवश्यक है। साधारणत:सभी कर्मजीवके मोह, रास द्वेष आदि परिणामोंका निमित्त पाकर बँधते हैं अतः उन का विपाक जीवमें ही होता है। अर्थात् उनके उदयका निमित्त पाकर जीवमें तत्तत्प्रकारक योग्यताएं आती हैं। फिर भी कर्मोंके जीवविपाकी, पुद्गल विपाकी, क्षेत्रविपाकी और भवविपाको ऐसे भेद करनेका क्या कारण है यही बात यहाँ देखनी है । जीवका संसार जीव और पुद्गल इन दोके मेलसे होता है । वहाँ रहते हुए वह विविध गतियोंमें जन्म लेता है, मरता है और उनके अनरूप नाना शरीरोंको धारण करता है। यह सब अकारण नहीं हो सकता, इसलिए इनकी प्राप्तिके निमित्तभूत नाना प्रकारके कर्म माने जाते हैं। जिनको शास्त्रमें भवविपाकी कहा है वे उस उस पर्यायमें अवस्थाविशेष के कारण होनेसे उस संज्ञाको प्राप्त होते हैं। जिनको क्षेत्रविपाकी कहा है वे एक गतिसे दूसरी गतिके लिए जाते समय अन्तरालमें जीवका आकार बनाये रखते हैं। जिन्हें पुद्गलविपाकी कहा है वे नाना प्रकारके शरीर और भोगक्षम इन्द्रियोंकी प्राप्तिमें सहायक होते हैं और जो जीवविपाकी कहे हैं वे जीवके विविध प्रकारके परिणाम और उसकी विविध अवस्थाओंके होनेमें सहायता करते
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-8112 8757] अष्टमोऽध्यायः
[307 $ 756. उक्तो नामकर्मण उत्तरप्रकृतिभेदः। तदनन्तरोद्देशभाजो गोत्रस्य प्रकृतिभेदो व्याख्यायते
उच्चर्नीचैश्च ॥12॥ 8757. गोत्रं द्विविधम्-उच्चैर्गोत्रं नीचर्गोत्रमिति । यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम् । यदुदयाद्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचर्गोत्रम् । हैं और भवके अवस्थानके कारण भवविपाकी कर्म हैं।
इस प्रकार कार्यभेदसे कर्मोको इन चार भागोंमें विभक्त किया गया है। वस्तुत: सभी कर्म जीवकी उस उस कर्मके नामानुरूप योग्यताके होने में सहायता करते हैं और उस उस योग्यतासे युक्त जीव तदनुरूप कार्य करता है। उदाहरणार्थ-औदारिक शरीर नामकर्मके उदयका निमित्त पाकर जीवमें ऐसी योग्यता उत्पन्न होती है जिससे वह योगद्वारा शरीर निर्माणके लिए औदारिक वर्गणाओंको ही ग्रहण करता है, अन्य वर्गणाओंको नहीं। वज्रर्षभनाराचसंहनन और समचतुरस्रसंस्थान नामकर्मके उदयका निमित्त पाकर जीवमें ऐसी योग्यता उत्पन्न होती है जिससे वह ग्रहण की गयी औदारिक वर्गणाओंको उस रूपसे परिणमाता है । प्रश्न यह है कि पुद्गलविपाकी कर्मोके उदयको निमित्त पाकर यदि जीवमें कर्मोंके नामानुरूप योग्यता उत्पन्न होती है तो फिर इन्हें पुद्गलविपाकी कर्म क्यों कहते हैं ? क्या ये कर्म जीवको माध्यम बनाकर ही अपना काम करते हैं ? इनका जो काम है वह यदि सीधा माना जाय तो क्या आपत्ति है ? उत्तर यह है कि जब तक जीवको औदारिक आदि नोकर्मवर्गणा का निमित्त नहीं मिलता है तब तक पुद्गलविपाकी कर्म अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होते हैं। इनका विपाक पुद्गलों का निमित्त पाकर होता है इसलिए इन्हें पुद्गलविपाकी कहते हैं । उदाहरणार्थ-कोई एक जीव दो मोड़ा लेकर यदि जन्म लेता है तो उसके प्रथम और द्वितीय विग्रहके समय शरीर आदि पुद्गल विपाकी प्रकृतियोंका उदय नहीं होता है। तीसरे समयमें जब वह नवीन शरीरको ग्रहण करता है तभी उसके इन प्रकृतियोंका उदय होता है। इस प्रकार विचार करनेसे ज्ञात होता है कि शरीर आदि नामकर्मकी प्रकृतियोंकी पुद्गलविपाकी संज्ञा क्यों है । इसी प्रकार भवविपाकी और क्षेत्रविपाकी प्रकृतियोंके सम्बन्धमें भी स्पष्ट जानना चाहिए। भवकी कारणभूत जो आयूकर्मकी प्रकृतियाँ हैं और जिनका उदय तत्तत् भव तक ही सीमित है इसीसे इनकी भवविपाकी संज्ञा है। क्षेत्रविपाकी प्रकृतियाँ मरणके बाद दूसरे भवके अन्तरालवर्ती क्षेत्रमें अपना काम करती हैं, इसलिए इनकी क्षेत्रविपाको संज्ञा है । यद्यपि बाह्य सुपुत्रादिके निमित्तसे सातादि जीवविपाकी प्रकृतियोंका भी उदय देखा जाता है पर ये बाह्यनिमित्त उनके उदयसे अविनाभावी कारण नहीं हैं। कदाचित् इन बाह्य निमित्तोंके रहते हुए भी उनसे प्रतिकूल प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है और कदाचित इन निमित्तोंके अभाव में भी उनका उदय देखा जाता है, इसलिए बाह्य निमित्तोंकी प्रधानता न होनेसे सातादि प्रकृतियोंकी जीवविपाकी संज्ञा है। इस प्रकार सब कर्मप्रकृतियाँ कितने भागोंमें बटी हुई हैं और उनकी जीवविपाकी आदि संज्ञा होनेका क्या कारण है इसका विचार किया।
6756. नामकर्मके उत्तर प्रकृतिविकल्प कहे । इसके बाद कहने योग्य गोत्रकर्म के प्रकृतिविकल्पोंका व्याख्यान करते हैं
उच्चगोत्र और नीचगोत्र ये दो गोत्रकर्म हैं ॥12॥
8757. गोत्रकर्म दो प्रकारका है-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । जिसके उदयसे लोकपूजित कुलोंमें जन्म होता है वह उच्चगोत्र है । जिसके उदयसे गर्हित कुलोंमें जन्म होता है वह नीचगोत्र है। 1. जन्मकारणं तदु- आ., दि. 1, दि. 21 2. जन्मकारणं तन्नी-- आ. दि., 1, दि. 2 ।
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308]
सर्वार्थसिद्धौ
$ 758. अष्टम्याः कर्मप्रकृतेरुत्तरप्रकृतिनिर्देशार्थमाह
दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥13॥
8759. अन्तरायापेक्षया भेदनिर्देशः क्रियते – दानस्यान्तरायो लाभस्यान्तराय इत्यादि । दानादिपरिणामव्याघातहेतुत्वात्तद्व्यपदेशः । यदुदयाद्दातुकामोऽपि न प्रयच्छति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते, उपभोक्तुमभिवाञ्छन्नपि नोपभुङ्क्ते, उत्साहितुकामोऽपि नोत्सहते त एते पञ्चान्तरायस्य भेदाः ।
8760. व्याख्याताः प्रकृतिबन्धविकल्पाः । इदानीं स्थितिबन्धविकल्पो वक्तव्यः । सा स्थितिद्विविधा उत्कृष्टा जघन्या च । तत्र यासां कर्मप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिः समाना तन्निर्देशार्थमुच्यते
विशेषार्थ - ऐसा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है कि जिसके उच्चगोत्र का उदय होता है वह ऐसे माता पिता के यहाँ जन्म लेता है जहाँ सदाचारकी प्रवृत्ति हो या उस ओर झुकाव हो या ऐसी प्रवृत्ति वाले व्यक्तियोंके साथ सम्पर्क हो । और जिसके नीचगोत्र कर्मका उदय होता है वह विरुद्ध प्रवृत्तिवाले माता पिताके यहाँ जन्म लेता है। कुल, गोत्र, सन्तान और परम्परा इनका एक अर्थ है । परम्परा दो प्रकारसे चलती है एक पुत्र, पौत्र, प्रपौत्रमूलक परम्परा और दूसरी आचार-विचारमूलक परम्परा । यहाँ दूसरी प्रकारकी परम्परा ली गयी है । गोत्रका सम्बन्ध शरीर या रक्तसे न होकर जीवके आचार-विचारसे है । गोत्रकर्मको जीवविपाकी कहनेका कारण भी यही है । इस प्रकार गोत्रकर्म, उसके भेद और उनके स्वरूपका संक्षेपमें विचार किया ।
8758. आठवीं कर्म प्रकृतिको उत्तर प्रकृतियोंका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र
कहते हैं
[8113 § 758
दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इनके पाँच अन्तराय हैं ॥13॥
8759. यहाँ अन्तरायकी अपेक्षा भेदनिर्देश किया है। यथा-दानका अन्तराय, लाभका अन्तराय इत्यादि । इन्हें दानादि परिणामके व्याघातका कारण होनेसे यह संज्ञा मिली है । जिनके उदयसे देनेकी इच्छा करता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करनेकी इच्छा रखता हुआ भी नहीं प्राप्त करता है, भोगनेकी इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता है, उपभोग करनेकी इच्छा करता हुआ भी उपभोग नहीं ले सकता है और उत्साहित होनेकी इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है इस प्रकार ये पाँच अन्तरायके भेद हैं ।
विशेषार्थं जीवकी दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ हैं । अन्तरायकर्म इन पाँच जीवभावोंकी अभिव्यक्ति में बाधक कारण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । कहीं-कहीं अन्तराय कर्मके क्षय व क्षयोपशमका फल बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति कहा गया है पर वह उपचार कथन है । तत्त्वतः बाह्य सामग्री पर है । उसकी प्राप्ति जीवविपाकी अन्तराय कर्मके क्षय व क्षयोपशमका फल कहना उपचारकथन है । परमें स्वका भाव मिथ्यात्वका फल है और उसका स्वीकार कषायका फल है ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।
8760. प्रकृतिबन्धके भेद कहे। इस समय स्थितिबन्धके भेद कहने चाहिए। वह स्थिति दो प्रकारकी है— उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थिति । उनमें जिन कर्मप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति समान है उनका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
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[309
-81168 764]
अष्टमोऽध्यायः पादितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥14॥
8761. मध्येऽन्ते वा तिसृणां ग्रहणं माभूदिति 'आदितः' इत्युच्यते । 'अन्तरायस्य' इति वचनं व्यवहितग्रहणार्थम् । सागरोपममुक्तपरिमाणम् । कोटीनां कोटयः कोटीकोटयः। पर उत्कष्टेत्यर्थः। एतदुक्तं भवति-ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणामत्कष्टा स्थितिस्त्रिशस्सागरोपमकोटीकोटय इति । सा कस्य भवति ? मिथ्यादृष्टः संजिनः पंचेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य । अन्येषामागमात्संप्रत्ययः कर्तव्यः । $762. मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिप्रतिपत्त्यर्थमाह
सप्ततिर्मोहनीयस्य ।।.5॥ 8763. 'सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः' इत्यनुवर्तते । इयमपि परा स्थितिमिथ्यादृष्टः संज्ञिनः पंचेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्यावसेया । इतरेषां यथागममवगमः कर्तव्यः । 8764. नामगोत्रयोरुत्कृष्टस्थितिप्रतिपत्त्यर्थमाह
विशतिर्नामगोत्रयोः ।।16।। आदिको तीन प्रकृतियाँ अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय तथा अन्तराय इन चारकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम है ॥14॥
8761. बीचमें या अन्तमें तीन का ग्रहण न होवे इसलिए सूत्रमें 'आदितः' पद कहा है । अन्तरायकर्मका पाठ प्रारम्भके तीन कर्मोके पाठसे व्यवहित है उसका ग्रहण करनेके लिए, 'अन्तरायस्य' वचन दिया है। सागरोपमका परिमाण पहले कह आये हैं। कोटियोंकी कोटि कोटाकोटि कहलाती है। पर शब्द उत्कृष्ट वाची है । उक्त कथनका यह अभिप्राय है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम होती है। शंका-यह उत्कृष्ट स्थिति किसे प्राप्त होती है ? समाधान-मिथ्यादृष्टि, संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक जीवको प्राप्त होती है । अन्य जीवोंके आगमसे देखकर ज्ञान कर लेना चाहिए।
विशेषार्थ-कर्मोकी स्थिति तीन प्रकारसे प्राप्त होती है-बन्धसे, संक्रमसे और सत्त्वसे। यहाँपर बन्धकी अपेक्षा उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति बतलायी गयी है । अतितीव्र संक्लेश परिणामोंसे मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मकी तीस कोटाकोटि सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बाँधता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
8762. मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंमोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटि सागरोपम है ॥15॥
8763. इस सूत्र में 'सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः' पदको अनुवृत्ति होती है। यह भी उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके जानना चाहिए। इतर जीवोंके आगमके अनुसार ज्ञान कर लेना चाहिए।
8764. नाम और गोत्रकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
नाम और गोत्रको उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटि सागरोपम है ॥16॥ 1. आदित उच्य-- आ., दि. 1, दि. 2। 2. - सेया। अन्येषां यथागममवगमः कर्तव्म: आ., दि. 1। -सेया । इतरेषां यथागममवगन्तव्यम् ?
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310] सर्वार्थसिद्धौ
[81178765765. 'सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः' इत्यनुवर्तते। इयमप्युत्कृष्टा स्थितिमिथ्यादृष्टः संज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकस्य । इतरेषां यथागममवयोव्या। 8766. अथायुषः कोत्कृष्टा स्थितिरित्युच्यते
त्रस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥17॥ 767. पुनः 'सागरोपम'ग्रहणं कोटीकोटीनिवृत्त्यर्थम् । 'परा स्थितिः' इत्यनुवर्तते । इयमपि पूर्वोक्तस्यैव । शेषाणामागमतोऽवसेया।
६768. उक्तोत्कृष्टा स्थितिः । इदानों जघन्या स्थितिर्वक्तव्या। तत्र समानजघन्यस्थितीः पंच प्रकृतीरवस्थाप्य तिसृणां जघन्यस्थितिप्रतिपत्त्यर्थ सूत्रद्वयमुपन्यस्यते लध्वर्थम्--
अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य ॥18॥ 8769. अपरा जघन्या इत्यर्थः । वेदनीयस्य द्वादश मुहूर्ताः।
नामगोत्रयोरष्टौ ॥19॥ 8770. 'मुहूर्ता' इत्यनुवर्तते । 'अपरा स्थितिः' इति च । 8771. अवस्थापितप्रकृतिजघन्यस्थितिप्रतिपादनार्थमाह
8765. 'सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः' पदकी अनुवृत्ति होती है । यह भी उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके जानना चाहिए। इतर जीवोंके आगमके अनुसार जान लेना चाहिए।
8766. अब आयु कर्मको उत्कृष्ट स्थिति क्या है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आयुकी उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम है ॥17॥
8767. इस सूत्र में पुन: 'सागरोपम' पदका ग्रहण कोटाकोटी पदकी निवृत्तिके लिए दिया है । यहाँ 'परा स्थिति:' पदकी अनुवृत्ति होती है। यह भी पूर्वोक्त जीवके होती है। शेष जीवोंके आगमसे जान लेना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ टीकामें आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मिथ्यादृष्टि कहा है । सो यह इस अभिप्रायसे कहा है कि मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव भी नरकायु बन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंके होने पर नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है। इसका यह अभिप्राय नहीं कि अन्य गुणस्थानवालेके आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता। देवायुका तैंतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सकल संयमके धारी सम्यग्दृष्टिके ही होता है। पर टीकाकारने यहाँ उसके कहनेकी विवक्षा नहीं की।
6768. उत्कृष्ट स्थिति कही । अब जघन्य स्थिति कहनी चाहिए। उसमें समान जघन्य स्थितिवाली पाँच प्रकृतियोंको स्थगित करके थोड़े में कहनेके अभिप्रायसे तीन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका ज्ञान करानेके लिए दो सूत्र कहते हैं
वेदनीय को जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है ॥18॥ 8769. अपरा अर्थात् जघन्य । यह वेदनीयकी बारह मुहूर्त है। नाम और गोत्रकी जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है ॥19॥ 8770. यहाँ 'मुहूर्ता' पदकी अनुवृत्ति होती है और 'अपरा स्थिति: पदकी भी।
8771. अब स्थगित की गयी प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
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अष्टमोऽध्यायः
शेषाणामन्तर्मुहूर्ता ॥20॥
8772. शेषाणां पञ्चानां प्रकृतीनामन्तर्मुहूर्तापरा स्थितिः । ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणां जघन्या स्थितिः सूक्ष्मसांपराये, मोहनीयस्य अनिवृत्तिबादरसांपराये | आयुषः संख्ये यवर्षायुष्षु' तिर्यक्षु मनुष्येषु च ।
8773. आह, उभयी स्थितिरभिहिता । ज्ञानावरणादीनाम् अथानुभवः किंलक्षण इत्यत
-8121 § 775]
आह
विपाकोऽनुभवः ॥21॥
8774. विशिष्टो नानाविधो वा पाको विपाकः । पूर्वोक्तकषायतीव्रमन्दादिभावात्रवविशेषाद्विशिष्टः पाको विपाकः । अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभवभावलक्षणनिमित्तभेदजनितवैश्वरूपयो नानाविधः पाको विपाकः । असावनुभव इत्याख्यायते । शुभपरिणामानां प्रकर्ष भावाच्छ भप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवः अशुभप्रकृतीनां निकृष्टः । अशुभपरिणामानां प्रकर्षभावादशुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवः शुभप्रकृतीनां निकृष्टः । स एवं प्रत्ययवशादुपात्तोऽनुभवो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च । सर्वासां मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनैवानुभवः । उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमुखेनापि भवति आयुर्दर्शनचारित्रमोहवर्जानाम् । न हि नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्वा विपच्यते । नापि दर्शनमोहरचारित्रमोहमुखेन, चारित्रमोहो वा दर्शनमोहमुखेन ।
$ 775. आह अभ्युपेमः प्रागुपचितनानाप्रकारकर्मविपाकोऽनुभवः । इदं तु न विजानीमः
[311
बाकी पांच कर्मोकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है ॥20॥
8772. शेष पाँच प्रकृतियोंकी अन्तर्मुहूर्त जघन्य स्थिति है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकी जघन्य स्थिति सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में मोहनीयकी जघन्य स्थिति अनिवृत्ति बादरसाम्पराय गुणस्थानमें और आयुकी जघन्य स्थिति संख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों और मनुष्यों में प्राप्त होती है ।
$ 773. दोनों प्रकारकी स्थिति कही । अब ज्ञानावरणादिकके अनुभवका क्या स्वरूप है इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
विपाक अर्थात् विविध प्रकारके फल देनेकी शक्तिका पड़ना ही अनुभव है ॥21॥
8774. विशिष्ट या नाना प्रकारके पाकका नाम विपाक है। पूर्वोक्त कषायके तीव्र, मन्द आदिरूप भावास्रवके भेदसे विशिष्ट पाकका होना विपाक | अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावलक्षण निमित्तभेदसे उत्पन्न हुआ वैश्वरूप नाना प्रकारका पाक विपाक है। इसी को अनुभव कहते हैं । शुभ परिमाणोंके प्रकर्षभाव के कारण शुभ प्रकृतियोंका प्रकृष्ट अनुभव होता है और अशुभ प्रकृतियोंका निकृष्ट अनुभव होता है । तथा अशुभ परिणामोंके प्रकर्षभावके कारण अशुभ प्रकृतियोंका प्रकृष्ट अनुभव होता है और शुभ प्रकृतियोंका निकृष्ट अनुभव होता है । इस प्रकार कारणवशसे प्राप्त हुआ वह अनुभव दो प्रकारसे प्रवृत्त होता है-स्वमुखऔर परमुखसे । सब मूल प्रकृतियोंका अनुभव स्वमुखसे ही प्रवृत होता है। आयु, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके सिवा तुल्यजातीय उत्तरप्रकृतियोंका अनुभव परमुखसे भी प्रवृत्त होता है। नरकायुके मुखसे तिर्यंचायु या मनुष्यायुका विपाक नहीं होता । और दर्शनमोह चारित्रमोहरूपसे और चारित्रमोह दर्शनमोहरूपसे विपाकको नहीं प्राप्त होता ।
8775. शंका- पहले संचित हुए नाना प्रकारके कर्मोंका विपाक अनुभव है यह हम 1. - पुष्कति-- मु. 1
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3121 सर्वार्थसिद्धौ
[8122 8776किमयं प्रसंख्यातोऽप्रसंख्यातः ? इत्यत्रोच्यते प्रसंख्यातोऽनुभूयत इति ब्रू महे । कुतः ? यतः
स यथानाम ।।220 8776. ज्ञानावरणस्य फलं ज्ञानाभावो दर्शनावरणस्यापि फलं दर्शनशक्त्युपरोध इत्येवमाद्यन्वर्थसंज्ञानिर्देशात्सर्वासां कर्मप्रकृतीनां सविकल्पानामनुभवसंप्रत्ययो जायते ।
8777. आह, यदि विपाकोऽनुभवः प्रतिज्ञायते, तत्कर्मानुभूतं सत् किमाभरणवदतिष्ठते आहोस्विन्निष्पीतसारं प्रच्यवते ? इत्यत्रोच्यते ----
ततश्च निर्जरा ॥23॥ 8778. पीडानुग्रहावात्मने प्रदायाभ्यवहृतौदनादिविकारवत्पूर्वस्थितिक्षयादवस्थानाभावात्कर्मणो निवृत्तिनिर्जरा । सा द्विप्रकारा--विपाकजा इतरा च । तत्र चतुर्गतावनेकजातिविशेषावधूणिते संसारमहार्णवे चिरं परिभ्रमतः शुभाशुभस्य कर्मणः क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा । यत्कर्माप्राप्तविपाककालमोपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्णं बलादुदोर्योदयावलि प्रवेश्य वेद्यते आम्रपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा । 'च'शब्दो निमित्तान्तरसमुच्चयार्थः । 'तपसा निर्जरा
स्वीकार करते हैं किन्तु यह नहीं जानते कि क्या यह प्रसंख्यात होता है या अप्रसंख्यात होता है ? समाधान हम कहते हैं कि यह प्रसंख्यात अनुभवमें आता है। शंका-किस कारणसे । समाधान-यत:
वह जि. कर्मका जैसा नाम है उसके अनुरूप होता है ।।220
8776. ज्ञानावरणका फल ज्ञानका अभाव करना है । दर्शनावरणका भी फल दर्शनशक्तिका उपरोध करना है इत्यादि रूपसे सब कर्मों की सार्थक संज्ञाका निर्देश किया है अतएव अपने अवान्तर भेदसहित उनमें किसका क्या अनुभव है इसका ज्ञान हो जाता है।
8777. यदि विपाकका नाम अनुभव है ऐसा स्वीकार करते हो तो अनुभूत होने पर वह कर्म आभरणके समान अवस्थित रहता है या फल भोग लेनेके बाद वह झर जाता है ? इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--- - इसके बाद निर्जरा होती है ॥23॥
8778. जिस प्रकार भात आदिका मल निवृत्त होकर निर्जीण हो जाता है उसी प्रकार आत्माको भला-बुरा फल देकर पूर्व प्राप्त स्थितिका नाश हो जानेसे स्थिति न रहनेके कारण कर्मको निवृत्तिका होना निर्जरा है। वह दो प्रकारकी है-विपाकजा और अविपाकजा। उसमें अनेक जाति विशेषरूपी भंवर युक्त चार गतिरूपी संसार महासमुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण करनेवाले इस जीवके क्रमसे परिपाक कालको प्राप्त हुए और अनुभवोदयावलिरूपी सोतेमें प्रविष्ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्मका फल देकर जो निवृत्ति होती है वह विपाकजा निर्जरा है। तथा आम और पनस को औपक्रमिक क्रियाविशेषके द्वारा जिस प्रकार अकालमें पका लेते हैं उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी नहीं प्राप्त हुआ है फिर भी औपक्रमिक क्रियाविशेषकी सामर्थ्यसे उदयावलिके बाहर स्थित जो कर्म बलपूर्वक उदीरणाद्वारा उदयावलिमें प्रविष्ट कराके अनुभवा जाता है वह अविपाकजा निर्जरा है। सूत्रमें 'च' शब्द अन्य निमित्तका समुच्चय करनेके लिए दिया है। 'तपसा निर्जरा च' यह आगे कहेंगे, इसलिए 'च' शब्दके देनेका यह प्रयोजन है कि पूर्वोक्त प्रकारसे निर्जरा होती है और अन्य प्रकारसे भी। शंका-यहाँ निर्जराका उल्लेख 1. --णस्य फलं मु.। 2. भूतं किमा -मु.। 3. --गणिते आ., दि. 1, दि. 2 ।
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-81238778] अष्टमोऽध्यायः
[313 च' इति वक्ष्यते ततश्च भवति अन्यतश्चेति सूत्रार्थो योजितः । किमर्थमिह निर्जरानिर्देशः क्रियते, संवरात्परा निर्देष्टव्या उद्देशवत् ? लघ्वर्थमिह वचनम् । तत्र हि पाठे 'विपाकोऽनुभवः' इति पुनरनुवादः कर्तव्यः स्यात् । किसलिए किया है, क्योंकि उद्देश्यके अनुसार उसका संवरके बाद उल्लेख करना ठीक होता ? समाधान-थोड़ेमें बोध करानेके लिए यहाँ निर्जराका उल्लेख किया है । संवरके बाद पाठ देने पर 'विपाकोऽनुभवः' इसका फिरसे अनुवाद करना पड़ता।
विशेषार्थ--अनुभव, अनुभाग या फलदानशक्ति इनका एक ही अर्थ है । कर्मका बन्ध होते समय जिस कर्मकी जो प्रकुति होती है उसके अनुरूप उसे फलदानशक्ति प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ-ज्ञानावरणकी ज्ञानको आवृत करनेकी प्रकृति है, इसलिए इसे इसीके अनुरूप फलदान शक्ति प्राप्त होती है। प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है और अनुभवका अर्थ है उस स्वभावके अनुरूप उसे भोगना। साधारणत: यहाँ यह कहा जा सकता है कि यदि प्रकृति और अनुभवका यही अर्थ है तो इन्हें अलग-अलग मानना उचित नहीं है, क्योंकि जिस कर्मकी जैसी प्रकृति होगी उसके अनुरूप उसका भोग सुतरां सिद्ध है। इसलिए प्रकृतिबन्ध और अनुभवबन्ध ये दो स्वतन्त्र सिद्ध नहीं होते, किन्तु अनुभवबन्धका अन्तर्भाव प्रकृतिबन्धमें ही हो जाता है । यदि कहा जाय कि ज्ञानावरण आदि रूपसे कर्मकी प्रकृति फलदानशक्तिके निमित्तसे होती है, इसलिए प्रकृतिबन्धमें अनुभवबन्धका अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता सो इसका यह समाधान है कि जबकि प्रकृतिबन्धका कारण योग है और अनुभवबन्धकी हीनाधिकताका कारण कषाय है तब फिर फलदान शक्तिके निमित्तसे कर्मकी प्रकृति बनती है यह कैसे माना जा सकता है। थोड़ी देरको यह मान भी लिया जाय तब भी यह प्रश्न खड़ा रहता है कि प्रकृतिबन्ध और अनुभवबन्धको अलग अलग क्यों माना गया है और उनके अलग अलग माननेके योग और कषाय दो स्वतन्त्र कारण क्यों बतलाये गये हैं। सूत्रकारने बन्धके चार भेद करके भी विपाक अर्थात् कर्मभोगको अनुभव कहा है और उसे प्रकृतिके अनुरूप बतलाया है । इससे तो यही सिद्ध होता है कि वस्तुतः ये दो नहीं हैं, किन्तु बन्ध समयकी अपेक्षा जिसका नाम प्रकृति है उदयकाल की अपेक्षा उसे ही अनुभव कहते हैं ? समाधान यह है कि कर्मबन्धके समय कर्मका विविधरूपसे विभाग योगके निमित्तसे ही होता है और विभागको प्राप्त हुए कर्मोमें हीनाधिक फलदानशक्ति का प्राप्त होना कषायके निमित्तसे होता है, इसलिए ये दोनों स्वतन्त्र माने गये हैं। यद्यपि यह ठीक है कि बिना शक्तिके किसी कर्मकी प्रकृति नहीं बन सकती। स्वतन्त्र प्रकति कहनेसे उसकी शक्तिका बोध हो ही जाता है, फिर भी ऐसी शक्तिकी एक सीमा होती है। उसका उल्लंघन कर जो न्यूनाधिक शक्ति पायो जाती है उसीका बोध कराना अनुभागबन्धका काम है। उदाहरणार्थ ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें सातावेदनीयका प्रकृतिबन्ध होता है और यह प्रकृतिबन्ध एक नियत मर्यादामें अनुभागको लिये ही होता है, फिर भी यहाँ अनुभागबन्धका निषेध किया गया है सो इसका कारण यह है कि जो अनुभाग सकषाय अवस्थामें सातावेदनीयका प्राप्त होता था वह यहाँ प्राप्त नहीं होता है। सकषाय अवस्थामें प्राप्त होनेवाले जघन्य अनुभागसे भी यह अनन्तवें भागमात्र होता है। इतना कम अनुभाग सकषाय अवस्थामें नहीं प्राप्त हो सकता। इससे प्रकृतिबन्धसे अनुभागबन्धके अलग कहनेकी उपयोगिता सिद्ध हो जाती है। तात्पर्य यह है कि प्रकृतिबन्धमें कर्मभेद को स्वीकार करके भी न्यूनाधिक फलदान शक्ति नहीं स्वीकार की गयी है, किन्तु अनुभागबन्धमें इसका और इसके कारणका स्वतन्त्र रूपसे विचार किया जाता है, इसलिए प्रकृतिबन्ध और उसका कारण स्वतन्त्र है तथा अनुभागबन्ध और
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314] सर्वार्थसिद्धौ
[8123 6 7798779. आह अभिहितोऽनुभवबन्धः । इदानी प्रदेशबन्धो वक्तव्यः। तस्मिश्च वक्तव्ये सति इमे निर्देष्टव्याः-किहेतवः कदा कुतः किस्वभावाः कस्मिन् किपरिमाणाश्चेति ? तदर्थमिदं क्रमेण परिगृहीतप्रश्नापेक्षभेदं सूत्र प्रणीयतेउसका कारण स्वतन्त्र है यह निश्चित होता है । अब रही सूत्रकारके विपाकको अनुभव कहनेकी बात सो इस कथनमें भी यही अभिप्राय छिपा हआ है। सब जीवोंका विपाक एक प्रकारका नहीं होता, वह न्यूनाधिक देखा जाता है और विपाककी यह न्यूनाधिकता अकारण नहीं हो सकती। यही कारण है कि सूत्रकार अनुभवबन्धकी स्वतन्त्र परिगणना करते हैं और उसकी पुष्टि विपाकके द्वारा दिखलाते हैं । इस प्रकार अनुभवबन्ध क्या है और उसे स्वतन्त्र क्यों कहा इसका विचार किया।
फिर भी यह अनुभाग बन्धकालमें जैसा प्राप्त होता है एकान्ततः वैसा ही नहीं बना रहता है। अपने अवस्थान कालके भीतर वह बदल भी जाता है और नहीं भी बदलता है। बदलनेसे. इसकी तीन अवस्थाएँ होती हैं--संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण । संक्रमण अवान्तर प्रकृतियोंमें होता है, मूल प्रकृतियोंमें नहीं होता। उसमें भी आयुकर्मको अवान्तर प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता और दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीय रूपसे तथा चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयरूपसे संक्रमण नहीं होता। संक्रमणके चार भेद हैं—प्रकतिसंक्रमण, स्थितिसंक्रमण, अनु भागसंक्रमण और प्रदेशसंक्रमण । जहाँ प्रकृतिसंक्रमण और प्रदेशसंक्रमणकी मुख्यता होती है वहाँ वह संक्रमण शब्द द्वारा सम्बोधित किया जाता है और जहाँ मात्र स्थितिसंक्रमण अनुभागसंक्रमण होता है वहाँ वह उत्कर्षण और अपकर्षण शब्द द्वारा सम्बोधित किया जाता है। बन्धकालमें जो स्थिति और अनुभाग प्राप्त होता है उसमें कमी होना अपकर्षण है और घटी हुई स्थिति व अनुभागमें वृद्धि होना उत्कर्षण है । इस प्रकार विविध अवस्थाओंमें-से गुजरते हुए उदयकालमें जो अनुभाग रहता है उसका परिपाक होता है । अनुदय अवस्थाको प्राप्त प्रकृतियोंका परिपाक उदय अवस्थाको प्राप्त सजातीय प्रकृतिरूपसे होता है । इसके विषयमें यह नियम है कि उदयवाली प्रकृतियोंका फल स्वमुखसे मिलता है और अनुदयवाली प्रकृतियोंका फल परमुखसे मिलता है। उदाहरणार्थ -साताका उदय रहने पर उसका भोग सातारूपसे ही होता है, किन्त तब असाता स्तिबक संक्रमण द्वारा सातारूपसे परिणमन करती रहती है, इसलिए इसका उदय परमुखसे होता है । उदय कालके एक समय पहले अनुदयरूप प्रकृतिके निषेकका उदयको प्राप्त हुई प्रकृतिरूपसे परिणम जाना स्तिबुक संक्रमण है। जो प्रकृतियाँ जिस कालमें उदयमें नहीं होती हैं, किन्तु सत्तारूपसे विद्यमान रहती हैं उन सबका प्रति समय इसी प्रकार परिणमन होता रहता है।
घाति और अघातिके भेदसे अनुभाग दो प्रकारका होता है । लता, दारु, अस्थि और शैल यह चार प्रकारका घाति प्रकृतियोंका अनुभाग है । अघःति प्रकृतियोंके पुण्य और पाप ऐसे दो भेद हैं । पुण्य प्रकृतियोंका अनुभाग गुड़, खाँड़, शर्करा और अमृत इन चार भागोंमें बँटा हुआ है तथा निम्ब, कांजीर, विष और हलाहल यह चार प्रकारका पाप प्रकृतियोंका अनुभाग है। इस प्रकार सामान्यरूपसे अनुभागबन्धका विचार किया।
8779. अनुभवबन्धका कथन किया ! अब प्रदेशबन्धका कथन करना है। उसका कथन करते समय इतनी बातें निर्देश करने योग्य हैं-प्रदेशबन्धका हेतु क्या है, वह कब होता है, उसका निमित्त क्या है, उसका स्वभाव क्या है, वह किसमें होता है और उसका परिणमन क्या इस प्रकार क्रमसे इन प्रश्नोंको लक्ष्यमें रखकर आगेका सूत्र कहते हैं
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-8124 8780] अष्टमोऽध्यायः
[315 नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः
सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥24॥ 8780. नाम्नः प्रत्यया नामप्रत्ययाः 'नाम' इति सर्वाः कर्मप्रकृतयोऽभिधीयन्ते ; 'स यथानाम' इति वचनात् । अनेन हेतुभाव उक्तः । सर्वेषु भवेषु सर्वतः 'दृश्यन्ते अन्यतोऽपि' इति तसि कृते सर्वतः । अनेन कालोपादानं इति कृतम् । एकैकस्य हि जीवस्यातिक्रान्ता अनन्ता भवा आगामिनः संख्येया असंख्येया अनन्तानन्ता वा भवन्तीति । योगविशेषानिमित्तात्कर्मभावेन पुद्गला आदीयन्त इति निमित्तविशेषनिर्देशः कृतो भवति । 'सूक्ष्म' आदिग्रहणं कर्मग्रहणयोग्यपुद्गलस्वभावानुवर्तनार्थम्, ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः सूक्ष्मा न स्थूला इति । 'एकक्षेत्रावगाह'वचनं क्षेत्रान्तरनिवृत्त्यर्थम् । "स्थिताः' इति वचनं क्रियान्तरनिवृत्त्यर्थम्, स्थिता न गच्छन्त इति । 'सर्वात्मप्रदेशेषु' इति वचनमाधारनिर्देशार्थ नैकप्रदेशादिषु कर्मप्रदेशा दर्तन्ते । क्व तहि ? ऊर्ध्वमस्तिर्यक् च सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु व्याप्य स्थिता इति । 'अनन्तानन्तप्रदेश'वचनं परिमाणान्तरव्यपोहार्थम्, न संख्येया न चासंख्येया नाप्यनन्ता इति । ते खलु पुद्गलस्कन्धा अभव्यानन्तगुणाः सिद्धानन्तभागप्रमितप्रदेशा घनामुलस्यासंख्येयभागक्षेत्रावगाहिन एकद्वित्रिचतुःसंख्येयसमयस्थितिकाः पञ्चवर्णपञ्चरस-द्विगन्ध-चतःस्पर्शस्वभावा अष्टविधकर्मप्रकृतियोग्या योगवशादात्मनात्मसाक्रियन्ते। इति प्रदेश-बन्धः समासतो वेदितव्यः ।
कर्म प्रकृतियोंके कारणभूत प्रति समय योगविशेषसे सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही और स्थित अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु सब आत्मप्रदेशोंमें (सम्बन्धको प्राप्त) होते हैं ॥24॥
8780. नामप्रत्यया:-नामके कारणभूत कर्मपरमाणु नामप्रत्यय कहलाते हैं। 'नाम' इस पद द्वारा सब कर्मप्रकृतियाँ कही जाती हैं । जिसकी पुष्टि ‘स यथानाम' इस सूत्रवचनसे होती है। इस पदद्वारा हेतुका कथन किया गया है। सर्वतः-प्रदेशबन्ध सब भवोंमें होता है। 'सर्वेषु भतेषु इति सर्वत:' यह इसकी व्युत्पत्ति है । सर्व शब्दसे 'दृश्यन्तेऽन्यतोऽपि' इस सूत्र द्वारा तसि प्रत्यय करनेपर सर्वत: पद बनता है । इस पदद्वारा कालका ग्रहण किया गया है। एक-एक जीवके व्यतीत हए अनन्तानन्त भव होते हैं और आगामी संख्यात, असंख्यात व अनन्तानन्त भव होते हैं। योगविशेषात-योगविशेषरूप निमित्तसे कर्मरूप पूदगल ग्रहण किये जाते हैं। इस पद द्वारा निमित्तविशेषका निर्देश किया गया है । कर्मरूपसे ग्रहण योग्य पुद्गलोंका स्वभाव दिखलानेके लिए सूक्ष्म आदि पदका ग्रहण किया है । ग्रहणयोग्य पुद्गल सूक्ष्म होते हैं स्थूल नहीं होते। क्षेत्रान्तरका निराकरण करने के लिए 'एकक्षेत्रावगाह' वचन दिया है। क्रियान्तरकी निवत्तिके लिए 'स्थिता:' वचन दिया है । ग्रहणयोग्य पुद्गल स्थित होते हैं गमन करते हुए नहीं। आधारनिर्देश करनेके लिए 'सर्वात्मप्रदेशेषु' वचन दिया है । एकप्रदेश आदिमें कर्मप्रदेश नहीं रहते । फिर कहाँ रहते हैं ? ऊपर, नीचे, तिरछे सब आत्मप्रदेशोंमें व्याप्त होकर स्थित होते हैं। दूसरे परिमाणका वारण करनेके लिए अनन्तानन्तप्रदेश बचन दिया है। ये न संख्यात होते हैं, न असंख्यात होते हैं और न अनन्त होते हैं । अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण संख्यावाले, घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रकी अवगाहनावाले, एक, दो, तीन, चार, संख्यात और असंख्यात समयकी स्थितिवाले तथा पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और चार स्पर्शवाले वे आठ प्रकारकी कर्मप्रकृतियोंके योग्य कर्मस्कन्ध योगविशेषसे आत्माद्वारा आत्मसात् किये जाते हैं। इस प्रकार संक्षेपमें प्रदेशबन्ध जानना चाहिए। 1. --क्रान्ता अनन्तातन्ता भवाः ता., ना.। 2. --असंख्येया अनन्ता वा ता., ना.। 3. वशादात्मसा- आ,।
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316] सर्वार्थसिद्धौ
[8125 83818781. आह; बन्धपदार्थान्तरं पुण्यपापोपसंख्यानं चोदितं तद्बन्धेऽन्तर्भूतमिति प्रत्याख्यातम् । तत्रेदं वक्तव्यं कोऽत्र पुण्यबन्धः कः पापबन्ध इति। तत्र 'पुण्यप्रकृतिपरिगणनार्थमिदमारभ्यते
__ सद्वद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥25॥ 8782. शुभं प्रशस्तमिति यावत् । तदुत्तरैः प्रत्येकमभिसंबध्यते शुभमायुः शुभं नाम शुभं गोत्रमिति । शुभायुस्त्रितयं तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्देवायुरिति । शुभनाम सप्तत्रिशद्विकल्पम् । तद्यथामनुष्यगतिर्देवगतिः पंचेन्द्रियजाति पंच शरीराणि त्रीण्यङ्गोपाङ्गानि समचतुरस्रसंस्थानं वज्रर्षभनाराचसंहननं प्रशस्तवर्णरसगन्धस्पर्शा मनुष्यदेवगत्यानुपूर्व्यद्वयमगुरुलघुपरघातोच्छ्वासातपोद्योतप्रशस्तविहायोगतयस्त्रसबादरपर्याप्तिप्रत्येकशरीरस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेययशःकीर्तयो निर्माणं तीर्थकरनाम चेति । शुभमेकमुच्चैर्गोत्रं, सद्वैद्यमिति । एता द्वाचत्वारिंशत्प्रकृतयः 'पुण्य' संज्ञाः।
विशेषार्थ-इस सूत्रमें प्रदेशबन्धका विचार किया गया है। जो पुद्गल परमाणु कर्मरूपसे ग्रहण किये जाते हैं वे ज्ञानावरण आदि आठ या सात प्रकारसे परिणमन करते हैं । उनका ग्रहण संसार अवस्थामें सदा होता रहता है। ग्रहणका मुख्य कारण योग हैं । वे सूक्ष्म होते हैं। जिस क्षेत्र में आत्मा स्थित होता है उसी क्षेत्रके कर्मपरमाणओंका ग्रहण होता है. अन्यका नई भी स्थित कर्मपरमाणुओंका ही ग्रहण होता है, अन्यका नहीं । ग्रहण किये गये कर्मपरमाणु आत्माके सब प्रदेशों में स्थित रहते हैं और वे अनन्तानन्त होते हैं यह इस सूत्रका भाव है । इससे प्रदेशवन्धकी सामान्य रूपरेखा और उसके कारणका ज्ञान हो जाता है।
8781. बन्ध पदार्थके अनन्तर पुण्य और पापकी गणना की है और उसका बन्धमें अन्तर्भाव किया है, इसलिए यहाँ यह बतलाना चाहिए कि पुण्यबन्ध क्या है और पापबन्ध क्या है। उसमें सर्वप्रथम पूण्य प्रकृतियोंको परिगणना करने के लिए यह सत्र आरम्भ करते हैं
साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं ।।2511
8782. शुभका अर्थ प्रशस्त है । यह आगेके प्रत्येक पदके साथ सम्बन्धको प्राप्त होता है । यथा-शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र । शुभ आयु तीन हैं-तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । शुभ नामके सैंतीस भेद हैं । यथा--मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण, प्रशस्त रस, प्रशस्त गन्ध और प्रशस्त स्पर्श, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वी ये दो, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप. उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त. प्रत्येकशरीर. स्थिर. शभ. सभग. सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर । एक उच्च गोत्र शुभ है और सातावेदनीय ये वयालीस प्रकृतियाँ पुण्यसंज्ञक हैं।
विशेषार्थ-यहाँ बयालीस पुण्य प्रकृतियाँ गिनायी हैं। प्रशस्त परिणामोंसे जिनमें अधिक अनुभाग प्राप्त होता है वे पुण्य प्रकृतियां हैं। यह लक्षण इन प्रकृतियोंमें घटित होता है इसलिए ये पुण्य प्रकृतियाँ मानी गयी हैं । बन्धकी अपेक्षा कुल प्रकृतियाँ 120 परिगणित की जाती हैं। इसी अपेक्षासे यहाँ बयालीस संख्या निर्दिष्ट की गयी है। यहाँ वर्णादिकके अवान्तर भेद बीस न गिना कर कुल चार भेद गिनाये हैं । तत्त्वार्थभाष्यकार आचार्य गृद्ध पिच्छने सम्यक्त्वप्रकृति, हास्य रति और पुरुषवेद इन चारकी भी पुण्यप्रकृतियोंमें परिगणना की है। तथा वीरसेन स्वामीने जयधवला टीकामें भी इन्हें पुण्यप्रकृतियाँ सिद्ध किया है। इस प्रकार कुल पुण्यप्रकृतियाँ कितनी हैं इसका निर्देश किया। 1. पुण्यबन्धप्रक- मु.।।
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अष्टमोऽध्यायः
अतोऽन्यत्पापम् ॥26॥
8783. अस्मात्पुण्यसंज्ञिकर्म प्रकृतिसमूहादन्यत्कर्म 'पापम्' इत्युच्यते । तद् द्वयशीतिविधम् । तद्यथा - ज्ञानावरणस्य प्रकृतयः पंच दर्शनावरणस्य नव मोहनीयस्य षड्वंशतिः पंचान्तरायस्य नरकगतितिर्यग्गती चतस्रो जातयः पंच संस्थानानि पंच संहननान्यप्रशस्तवर्णरसगन्धस्पर्शा नरकगतितिर्यग्गत्यानुपूर्व्यद्वयमुपघाताप्रशस्त विहायोगतिस्थावर सूक्ष्मापर्याप्तिसाधारणशरीरास्थि राशुभदुभंगदुःस्वरानादेयायशः कीर्तयश्चेति नामप्रकृतयश्चतुस्त्रिशत् । असद्वेद्यं नरकायुनचंर्गोत्रमिति । एवं व्याख्यातः सप्रपञ्चो बन्धपदार्थः । अवधिमनः पर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाणगम्यस्तदुपदिष्टागमानुमेयः ।
इति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धि संज्ञिकायामष्टमोऽध्यायः समाप्तः ॥8॥
-8126 § 783]
इनके सिवा शेष सब प्रकृतियाँ पापरूप हैं ॥26॥
§ 783. इस पुण्यसंज्ञावाले कर्मप्रकृतिसमूहसे जो भिन्न कर्मसमूह है वह पापरूप का जाता है । वह बयासी प्रकारका है । यथा-ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरणकी नौ प्रकृतियाँ, मोहनीयको छब्बीस प्रकृतियाँ, अन्तरायकी पाँच प्रकृतियाँ, नरकगति, तिर्यंचगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्ण, अप्रशस्त रस, अप्रशस्त गन्ध और अप्रशस्त स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी और तिर्यग्गत्यानुपूर्वी ये दो, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और अयश:
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ये नामकर्मको चौंतीस प्रकृतियाँ, असाता वेदनीय, नरकायु और नीच गोत्र । इस प्रकार विस्तार के साथ बन्ध पदार्थका व्याख्यान किया । यह अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाणगम्य है और इन ज्ञानवाले जीवों द्वारा उपदिष्ट आगमसे अनुमेय है ।
विशेषार्थ - यहाँ पाप प्रकृतियाँ कौन-कौन हैं इनका नाम निर्देश किया गया है । अप्रशस्त परिणामोंके निमित्तसे जिनमें अधिक अनुभाग प्राप्त होता है वे पाप प्रकृतियाँ हैं । यहाँ पाप प्रकृतियाँ कुल बयासी गिनायी हैं । पाँच बन्धन और संघात इनका पाँच शरीरोंमें अन्तर्भाव हो जाता है तथा मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय ये दो बन्ध प्रकृतियाँ नहीं हैं । और वर्णादि बीस प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी । यही कारण है कि इन्हें पुण्य प्रकृतियों में भी गिनाया है और पाप प्रकृतियों में भी । इस प्रकार कुल बयासी पाप प्रकृतियाँ होती हैं जिनका नामनिर्देश टीका में किया ही है ।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धिसंज्ञक तत्त्वार्थवृत्तिमें आठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ||8||
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साथ नवमोऽध्यायः
$ 784. बन्धपदार्थो निर्दिष्ट: । इदानी तदनन्तरोद्देशभाजः संवरस्य निर्देशः प्राप्तकाल इत्यत इदमाह
आस्रवनिरोधः संवरः ॥1॥ 8785. अभिनवकर्मादानहेतुरास्रवो व्याख्यातः । तस्य निरोधः संवर इत्युच्यते। स द्विविधो भावसंवरो द्रव्यसंवरश्चेति । तत्र संसारनिमित्तक्रियानिवृत्तिर्भावसंवरः। तन्निरोधे तत्पूर्वकर्मपुदगलादानविच्छेदो द्रव्यसंवरः ।।
8786. इदं विचार्यते--कस्मिन् गुणस्थाने कस्य संवर इति ? अत्र उच्यते--मिथ्यादर्शनकर्मोदयवशीकृत आत्मा मिथ्यावृष्टिः । तत्र मिथ्यादर्शनप्राधान्येन यत्कर्म आस्रवति सग्निरोधाच्छेषे सासादनसम्यग्दृष्ट्यादौ तत्संवरो भवति । कि पुनस्तत् ? भिय्यात्वनपुसकवेदनरकायुर्नरकगत्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिहुण्डसंस्थानासंप्राप्तासृपाटिकासंहनननरकगतिप्रायोग्यानुपूर्ध्यातपस्थावरसूक्ष्मापर्याप्तकसाधारणशरीरसंज्ञकषोडशप्रकृतिलक्षणम् ।
8787. असंयमस्त्रिविधः; अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानोदयविकल्पात् । तत्प्रत्ययस्य कर्मणस्तदभावे संवरोवसे यः। तद्यथा--निदानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानगृध्यनन्तानुबन्धिकोधमानमायालोभस्त्रीवेदतिर्यगायुस्तिर्यग्गतिचतुःसंस्थानचतुःसंहननतिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्योद्यो
8784. बन्ध पदार्थका निर्देश किया। इस समय उसके बाद कहने योग्य संवर पदार्थके निर्देशका समय आ गया है, इसलिए यह सूत्र कहते हैं---
आस्रवका निरोध संवर है॥॥
8785. नतन कर्म के ग्रहणमें हेतुरूप आत्रकका व्याख्यान किया। उसका निरोध होना संवर है । वह दो प्रकारका है--भाव संवर और द्रव्य संबर। संसारकी निमित्तभूत कियाकी निवृत्ति होना भावसंवर है और इसका (संगारकी निमित्तभूत क्रियाका) निरोध होनेपर तत्पूर्वक होनेवाले कर्म-पूदगलोंके ग्रहणका विच्छेद होना द्रव्यसंवर है।
8786. अब इस वानका विचार करना है कि किस गुणस्थानमें किस कर्मप्रकृतिका संवर होता है, इसलिए इसी बातको आगे कहते हैं --जो आत्मा मिथ्यादर्शन कर्मके उदयके आधीन है वह मिथ्यादृष्टि है। इसके मिथ्यादर्शनकी प्रधानतासे जिस कर्मका आस्रव होता है उसका मिथ्या दर्शनके अभावमें शेष रहे सासादनसम्यग्दृष्टि आदिमें संवर होता है । वह कर्म कौन है ? मिथ्यात्व, नपुसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय जाति, डीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्नक और साधारणशरीर यह सोलह प्रकृतिरूप कर्म हैं।
8787. असंयमके तीन भेद हैं--अनन्तानवन्धीका उदय, अप्रत्याख्यानावरणका उदय और प्रत्याख्यानावरणका उदय । इसलिए इसके निमित्तसे जिस कर्मका आस्रव होता है उसका इसके अभावमें संबर जानना चाहिए । यथा--अनन्तानबन्धी कषायके उदयसे होनेवाले असंयमकी मुख्यतासे आस्रवको प्राप्त होनेवाली निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, 1 तनिरोधेन तत्पू-- ता., ना.। 2. इति । उच्य-- मु.।
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-811 § 787]
ता प्रशस्त विहायोगतिदुभंगदुः स्वरानादेयनीचैर्गोत्रसंज्ञिकानां पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनन्तानुबन्धिकषायोदयकृतासंयम प्रधानास्रवाणामेकेन्द्रियादयः सासादनसम्यग्दृष्टचन्ता बन्धकाः । तदभावे तासामुत्तरत्र संवरः । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधमानमायालोभमनुष्यायुर्मनुष्यगत्यौदारिकशरीरतनङ्गोपाङ्ग वर्षभनाराचसंहननमनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम्नां दशानां प्रकृतीनामप्रत्याख्यानकषायोदयकृता संयम हे दुकानामेकेन्द्रियादयोऽसंयतसम्यग्दृष्ट यन्ता बंधकाः । तदभावादूर्ध्वं तासां संवरः । सम्यङ् मिथ्यात्वगुणेनायुर्न बध्यते । प्रत्याख्यानावरण क्रोधमानमायालोभानां चतसृणां प्रकृतीनां प्रत्याख्यान कषायोदयकारणासंयमास्त्रवाणामेकेन्द्रियप्रभृतयः संयतासंयतावसाना बन्धकाः । तदभावादुपरिष्टात्तासां संवरः । प्रमादोपनीतस्य तदभावे निरोधः । प्रमादेनोपनीतस्य कर्मणः प्रमत्त
दूध्वं तदभावान्निरोधः प्रत्येतव्यः । किं पुनस्तत् । असद्वेद्यारतिशोकास्थिराशुभायशः कीर्ति★ विकल्पम् । देवायुर्बन्धारम्भस्य प्रमाद एव हेतुरप्रमादोऽपि तत्प्रत्यासन्नः । तदूर्ध्वं तस्य संवरः । कषाय एवास्रवो यस्य कर्मणो न प्रमादादिः तस्य तन्निरोधे निरासोऽवसेयः । स च कषायः प्रमादादिविरहितस्तीव्र मध्यमजघन्यभावेन त्रिषु गुणस्थानेषु व्यवस्थितः । तत्रापूर्वकरणस्यादौ संख्येयभागे द्वे कर्मप्रकृती निद्राप्रचले बध्येते । तत ऊर्ध्वं संख्येयभागे त्रिंशत् प्रकृतयो देवगतिपञ्चेन्द्रियजातिवैऋियिकाहारकतै जसकार्मणशरीरसमचतुरस्त्रसंस्थानवैक्रियिकाहारकशरीरांगोपांगवर्णगंधरसस्पर्श
नवमोऽध्यायः
तिर्यंचगति, मध्यके चार संस्थान, मध्यके चार संहनन, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इन पच्चीस प्रकृतियोंका एकेन्द्रियसे लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके जीव बन्ध करते हैं, अतः अनन्तानुबन्धीके उदयसे होनेवाले असंयमके अभाव में आगे इनका संवर होता है । अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होनेवाले असंयमकी मुख्यतासे आस्रवको प्राप्त होनेवाली अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण मान, अप्रत्याख्यानावरण माया, अप्रत्याख्यानावरण लोभ; मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी इन दश प्रकृतियों का एकेन्द्रियोंसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके जीव बन्ध करते हैं, अत: अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होनेवाले असंयमका अभाव होनेपर आगे इनका संवर होता है । सम्यग्मिथ्यात्व गुणके होनेपर आयुकर्मका बन्ध नहीं होता यहाँ इतनी विशेष बात है । प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होनेवाले असंयमसे आस्रवको प्राप्त होनेवाली प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियोंका एकेन्द्रियोंसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के जीव बन्ध करते हैं, अतः प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होनेवाले असंयमके अभाव में आगे इनका संवर होता है । प्रमादके निमित्तसे आस्रवको प्राप्त होनेवाले कर्मका उसके अभाव में संवर होता है । जो कर्म प्रमाद के निमित्तसे आस्रवको प्राप्त होता है उसका प्रमत्तसंयत गुणस्थानके "आगे प्रमाद न रहनेके कारण संवर जानना चाहिए। वह कर्म कौन है ? असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्तिरूप प्रकृतियोंके भेदसे वह कर्म छह प्रकारका है । देवायुके बन्धका आरम्भ प्रमादहेतुक भी होता है और उसके नजदीकका अप्रमादहेतुक भी, अतः इसका अभाव होनेपर आगे उसका संवर जानना चाहिए। जिस कर्मका मात्र कषायके निमित्तसे आस्रव होता है प्रमादादिकके निमित्तसे नहीं उसका कषायका अभाव होनेपर संवर जानना चाहिए । प्रमादादिकके अभाव में होनेवाला वह कषाय तीव्र, मध्यम और जघन्यरूपसे तीन गुणस्थानों में अवस्थित है । उनमेंसे अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रारम्भिक संख्येय भागमें निद्रा और प्रचला ये दो कर्मप्रकृतियाँ बन्धको प्राप्त होती हैं। इससे आगे संख्येय भागमें देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शासेर कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान,
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320] सर्वार्थसिद्धौ
[912 6 788देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकशरीरस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेयनिर्माणतीर्थकराख्या बध्यन्ते । तस्यैव चरमसमये चतस्रः प्रकृतयो हास्यरतिभयजुगुप्सासंज्ञा बन्धमुपयान्ति। ता एतास्तीवकषायास्रवास्तदभावानिद्दिष्टाद्भागादूर्व संवियन्ते। अनिवृत्तिबादरसांपरायस्यादिसमयादारभ्य संख्येयेष भागेषु पुवेदक्रोधसंज्वलनौ बध्येते । तत ऊर्ध्वं शेषेषु संख्येयेषु भागेषु मान संज्वलनमायासंज्वलनौ बन्धमुपगच्छतः । तस्यैव चरमसमये लोभसंज्वलनो बन्धमेति । ता एताः प्रकृतयो मध्यमकषायास्रवास्तदभावे निर्दिष्टस्य भागस्योपरिष्टात्संवरमाप्नुवन्ति । पञ्चानां ज्ञानावरणानां चतुर्णा दर्शनावरणानां यशःकीर्तेरुच्चर्गोत्रस्य पञ्चानामन्तरायाणां च मन्दकषायात्रवाणां सूक्ष्मसांपरायो बन्धकः । तदभावादुत्तरत्र' तेषां संवरः । केवलेनैव योगेन सद्वेद्यस्योपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगानां बन्धो भवति। तदभावादयोगकेवलिनस्तस्य संवरो भवति ।। 8788. उक्तः संवरस्तद्धेतु प्रतिपादनार्थमाह
स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः ॥2॥ वैक्रियिक शरीर अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परधात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर ये तीस प्रकृतियाँ बन्धको प्राप्त होती हैं। तथा इसी गुणस्थानके अन्तिम समयमें हास्य, रति, भय और जुगुप्सा ये चार प्रकृतियाँ बन्धको प्राप्त होती हैं। ये तीव्र कषायसे आस्रवको प्राप्त होनेवाली प्रकतियाँ हैं, इसलिए तीव्र कषायका उत्तरोत्तर अभाव होनेसे विवक्षित भागके आगे उनका संवर होता है । अनिवृत्ति बादर साम्परायके प्रथम समयसे लेकर उसके संख्यात भागोंमें पुवेद और क्रोध संज्वलनका बन्ध होता है। इससे आगे शेष रहे संख्यात भागोंमें मान संज्वलन और माया संज्वलन ये दो प्रकृतियाँ बन्धको प्राप्त होती हैं और उसीके अन्तिम समयमें लोभ संज्वलन बन्धको प्राप्त होती है। इन प्रकृतियोंका मध्यम कषायके निमित्तसे आस्रव होता है, अतएव मध्यम कषायका उत्तरोत्तर अभाव होनेपर विवक्षित भागके आगे उनका संवर होता है ।मन्द कषाय के निमित्तसे आस्रवको प्राप्त होनेवाली पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन सोलह प्रकृतियोंका सूक्ष्मसाम्पराय जीव बन्ध करता है, अतः मन्द कषायका अभाव होनेसे आगे इनका संवर होता है । केवल योगके निमित्तसे आस्रवको प्राप्त होनेवाली साता वेदनोयका उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली जीवोंके बंध होता है। योगका अभाव हो जानेसे अयोगकेवलीके उसका संवर होता है ।
विशेषार्थ-संवर जीवनमें नये दोष और दोषोंके कारण एकत्रित न होने देनेका मार्ग है। संवरके होनेपर ही संचित हुए दोषों व उनके कारणोंका परिमार्जन किया जा सकता है और तभी मुक्ति-लाभ होता है । साधारणत: वे दोष और उनके कारण क्या हैं यहाँ इनकी गुणस्थानक्रमसे विस्तृत चर्चा की गयी है। प्राणीमात्रको इन्हें समझकर संवरके मार्गमें लगना चाहिए यह उक्त कथनका भाव है।
8788. संवरका कथन किया । अब उसके हेतुओंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते है
वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्रसे होता है ॥2॥ 1. मानमाया- मु.। 2. -भावात्तदु- मु.। 3. तद्भेदप्रति- मु.।
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-9138791] नवमोऽध्यायः
[321 6789. यतः संसारकारणादात्मनो गोपनं भवति सा गुप्तिः । प्राणिपीडापरिहारायं सम्यगयनं समितिः । इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्मः। शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा । सुवादिवेदनोत्पत्तो कर्मनिर्जरार्थं सहनं परिषहः । परिषहस्य जयः परिषहजयः। चारित्रशब्द आदिसूत्रे व्याख्यातार्थः । एतेषां गुप्त्यादीनां संवरणक्रियायाः साधकतमत्वात् करणनिर्देशः । संवरोऽधिकृतोऽपि 'म' इति तच्छब्देन परामुश्यते गुप्त्यादिभिः साक्षात्संबन्धनार्थः । किं प्रयोजनम् ? अवधारणार्थम् । स एष संवरो गुप्त्यादिभिरेव नान्ये नोपायेनेति । तेन तीर्थाभिषेकदीक्षाशीर्षाप-4 हारदेवताराधनादयो निवर्तिता भवन्ति; रागद्वेषमोहोपात्तस्य कर्मणोऽन्यथा निवृत्त्यभावात् । 8 790. संवरनिर्जराहेतुविशेषप्रतिपादनार्थमाह
तपसा निर्जरा च ॥3॥ 8 791. तपो धर्मेऽन्तर्भूतमपि पृथगुच्यते उभयसाधनत्वख्यापनार्थ संवरं प्रति प्राधान्यप्रतिपावनाचनन च सपोऽभ्युदयांगमिष्टं देवेन्द्रादिस्थानप्राप्तिहेतत्वाभ्युपगमात', मिर्जरांगं स्यादिति ? नैष दोषः; एकस्यानेककार्यदर्शनादग्निवत् । यथाग्निरेकोऽपि विक्लेदन
8789. जिसके बलसे संसारके कारणोंसे आत्माका गोपन अर्थात् रक्षा होती है वह गुप्ति है । प्राणिपीड़ाका परिहार करनेके लिए भले प्रकार आना-जाना, उठाना-धरना, ग्रहण करना व मोचन करना समिति है। जो इष्ट स्थानमें धरता है वह धर्म है । शरीरादिकके स्वभावका बार बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। क्षुधादि वेदनाके होनेपर कर्मोकी निर्जरा करने के लिए उसे सह लेना परिषह है और परिषहका जीतना परिषहजय है। चारित्र शब्दका प्रथम सूत्र में व्याख्यान कर आये हैं। ये गुप्ति आदिक संवररूप क्रियाके अत्यन्त सहकारी हैं, अतएव सूत्रमें इनका करण रूपसे निर्देश किया है । संवरका अधिकार है तथापि गुप्ति आदिकके साथ साक्षात् सम्बन्ध दिखलानेके लिए इस सूत्रमें उसका 'सः' इस पदके द्वारा निर्देश किया है । शंका-इसका क्या प्रयोजन है ? समाधान-अवधारण करना इसका प्रयोजन है। यथा-वह संवर गुप्ति आदिक द्वारा ही हो सकता है, अन्य उपायसे नहीं हो सकता। इस कथनसे तीर्थ यात्रा करना, अभिषेक करना, दीक्षा लेना, उपहार स्वरूप सिरको अर्पण करना और देवताकी आराधना करना आदिका निराकरण हो जाता है, क्योंकि राग, द्वेष और मोहके निमित्तसे ग्रहण किये गये कर्मका अन्यथा अभाव नहीं किया जा सकता।
8790. अब संवर और निर्जराके हेतु विशेषका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंसपसे निर्जरा होती है और संवर भी होता है ॥3॥
$ 791. तपका धर्ममें अन्तर्भाव होता है फिर भी वह संवर और निर्जरा इन दोनोंका कारण हैं और संवरका प्रमुख कारण है यह बतलानेके लिए उसका अलगसे कथन किया है। शंका-तपको अभ्युदयका कारण मानना इष्ट है, क्योंकि वह देवेन्द्र आदि स्थान विशेषकी प्राप्तिके हेतुरूपसे स्वीकार किया गया है, इसलिए वह निर्जराका कारण कैसे हो सकता है?
धान-यद कोई दोष नहीं है. क्योंकि अग्निके समान एक होते हुए भी इसके अनेक कार्य देखे जाते हैं । जैसे अग्नि एक है तो भी उसके विक्लेदन, भस्म और अंगार आदि अनेक कार्य 1. 'संसारदुःलतः सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे ।' रत्न. पृ. 250 । 2. --संबन्धार्थः । प्रयो-- मु.। 3. --मार्थः । समु.। 4. 'शीर्षोपहारादिभिरात्मदुःखैर्देवान् किलाराध्य सुखाभिवृद्धाः । सिद्धयन्ति दोषापचयानपेक्षा युक्तं च तेषां त्वमृषिनं येषाम् ॥' युक्त्यनु. श्लो. 39। 5.-मात्, कथं मु.। 6. --कोऽपि क्लेदभस्मसाभवादिप- मा.। -कोऽपि विक्लेदभस्मसादभावादिप्र- दि.21-कोऽपि पवनविक्लेदभस्मसाभावादिप्र-दि. 1।
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322]
सर्वार्थसिद्धौ
[914 $ 792भस्मांगारादिप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपोऽभ्युदयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोधः । $ 792. संवरहेतु'ष्वादावुद्दिष्टाया गुप्तेः स्वरूपप्रतिपत्त्यर्थमाह
सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥4॥ 8 793. योगो व्याख्यातः 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' इत्यत्र । तस्य स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवर्तनं निग्रहः। विषयसुखाभिलाषार्थ प्रवृत्तिनिषेधार्थं सम्यग्विशेषणम् । तस्मात् सम्यग्विशेषणविशिष्टात् संक्लेशाप्रादुर्भावपरात्कायादियोगनिरोधे सति तन्निमित्तं कर्म नास्रवतीति संवरप्रसिद्धिरवगन्तव्या । सा त्रितयी कायगुप्तिर्वाग्गुप्तिर्मनोगुप्तिरिति । 8794. तत्राशक्तस्य मुनेनिरवद्यप्रवृत्तिख्यापनार्थमाह
ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ।।5।। 8795. 'सम्यग्' इत्यनुवर्तते । तेनेर्यादयो विशेष्यन्ते । सम्यगीर्या सम्यग्भाषा सम्यगेषणा सम्यगादाननिक्षेपौ सम्यगुत्सर्ग इति । सा एताः पञ्च समितयो विदितजीवस्थानादिविधेर्मुनेः प्राणिपोडापरिहाराभ्युपाया वेदितव्याः। तथा प्रवर्तमानस्यासंयमपरिणामनिमित्तकर्मास्रवात्संवरो भवति।
$ 796. तृतीयस्य संवरहेतोर्धर्मस्य भेदप्रतिपत्त्यर्थमाहउपलब्ध होते हैं वैसे ही तप अभ्युदय और कर्मक्षय इन दोनोंका हेतु है ऐसा होने में क्या विरोध है।
8792. गुप्तिका संवरके हेतुओंके प्रारम्भमें निर्देश किया है, अत: उसके स्वरूपका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
योगोंका सम्यक् प्रकारसे निग्रह करना गुप्ति है ॥4॥
$ 793. 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' इस सूत्र में योगका व्याख्यान कर आये हैं। उसकी स्वच्छन्द प्रवृत्ति का बन्द होना निग्रह है। विषय-सुखकी अभिलाषाके लिए की जानेवाली प्रवृत्तिका निषेध करनेसे लिए 'सम्यक्' विशेषण दिया है। इस सम्यक् विशेषण युक्त संक्लेशको नहीं उत्पन्न होने देनेरूप योगनिग्रहसे कायादि योगोंका निरोध होने पर तन्निमित्तक कर्म आस्रव नहीं होता है, इसलिए संवरकी प्रसिद्धि जान लेना चाहिए। वह गुप्ति तीन प्रकारकी है—कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति।।
8794. अब गुप्तिके पालन करने में अशक्त मुनिके निर्दोष प्रवृत्तिकी प्रसिद्धिके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं ॥5॥
8795. यहाँ 'सम्यक्' इस पदकी अनुवृत्ति होती हैं। उससे ईर्यादिक विशेष्यपनेको प्राप्त होते हैं-सम्यगीर्या, सम्यग्भाषा, सम्यगेषणा, सम्यगादाननिक्षेप और सम्यगुत्सर्ग। इस प्रकार कही गयी ये पाँच समितियाँ जीवस्थानादि विधिको जाननेवाले मुनिके प्राणियोंकी पीडाको दूर करनेके उपाय जानने चाहिए। इस प्रकारसे प्रवृत्ति करनेवालेके असंयमरूप परिणामोंके निमित्तसे जो कर्मोंका आस्रव होता है उसका संवर होता है।
8796. तीसरा संवरका हेतु धर्म है। उसके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं1. --हेतुत्वादा--! 2. --षार्थवृत्तिनियमनार्थं सम्य- ता. ना.। 3. इति वर्तते ता.।
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-916 8797] नवमोऽध्यायः
1323 उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥6॥
8 797. किमर्थमिदमुच्यते ? आद्यं प्रवृत्तिनिग्रहार्थम्, तत्रासमर्थानां प्रवृत्त्युपायप्रदर्शनार्थ द्वितीयम् । इदं पुनर्दशविधधर्माख्यानं समितिषु प्रवर्तमानस्य प्रमादपरिहारार्थ वेदितव्यम् । शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थ परकुलान्युपगच्छतो भिक्षोर्दुष्टजनाक्रोशप्रहसनावज्ञाताडनशरीरव्यापादनादीनां संनिधाने कालुष्यानुत्पत्तिः क्षमा । जात्यादिमदावेशादभिमानाभावो मार्दव माननिहरणम । योगस्यावक्रता आर्जवम् । प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृत्तिः शौचम् । सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधु वचनं सत्यमित्युच्यते । ननु चैतद् भाषासमितावन्तर्भवति ? नैष दोषः; समिती प्रवर्तमानो मुनिः साधुष्वसाधुषु च भाषाव्यवहारं कुर्वन् हितं मितं च ब्रूयात् अन्यथा रागादनर्थदण्डदोषः स्यादिति वाक्समितिरित्यर्थः । इह पुनः संतः प्रव्रजितास्तद्भक्ता वा तेषु साधु सत्यं ज्ञानचारित्र शिक्षणादिषु बह्वपि कर्तव्यमित्यनुज्ञायते धर्मोपबृहणार्थम् । समितिषु वर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारस्संयमः । कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः । तदुतरत्र वक्ष्यमाणं द्वादशविकल्पमवसेयम् । संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्यागः । उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराकिंचन्यम् । नास्य' किंचनास्तीकिंचनः तस्य भावः कर्म वा आकिंवन्यम् । अनुभूताङ्गनास्मरणकथाश्रवण
उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य यह दस प्रकारका धर्म है ॥6॥
8797. शंका-यह किसलिए कहा है ? समाधान-संवरका प्रथम कारण प्रवत्तिका निग्रह करने के लिए कहा है। जो वैसा करने में असमर्थ है उन्हें प्रवृत्तिका उपाय दिखलानेके लिए दूसरा कारण कहा है। किन्तु यह दश प्रकारके धर्मका कथन समितियोंमें प्रवृत्ति करनेवालेके प्रमादका परिहार करनेके लिए कहा है। शरीरकी स्थितिके कारणकी खोज करनेके लिए पर कुलोंमें जाते हुए भिक्षुको दुष्ट जन गाली-गलौज करते हैं, उपहास करते हैं, तिरस्कार करते हैं, मारते-पीटते हैं और शरीरको तोड़ते-मरोड़ते हैं तो भी उनके कलुषताका उत्पन्न न होना क्षमा है। जाति आदि मदोंके आवेशवश होनेवाले अभिमानका अभाव करना मार्दव है। मार्दवका अर्थ है मानका नाश करना। योगोंका वक्र न होना आर्जव है। प्रकर्षप्राप्त लोभका त्याग करना शौच है। अच्छे पुरुषोंके साथ साधु वचन बोलना सत्य है । शंका-इसका भाषासमितिमें अन्तर्भाव होता है ? समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि समितिके अनुसार प्रवृत्ति करनेवाला मनि साध और असाध दोनों प्रकारके मनुष्योंमें भाषाव्यवहार करता हआ हितकारी परिमित वचन बोले. अन्यथा राग होनेसे अनर्थदण्डका दोष लगता है यह वचनसमितिका अभिप्राय है। किन्तु सत्य धर्मके अनुसार प्रवृत्ति करनेवाला मुनि सज्जन पुरुष, दीक्षित या उनके भक्तोंमें साध सत्य वचन बोलता हुआ भी ज्ञान चारित्रके शिक्षण आदिके निमित्तसे बहुविध कर्तव्योंकी सूचना देता है और यह सब धर्मकी अभिवृद्धिके अभिप्रायसे करता है, इसलिए सत्य धर्मका भाषासमितिमें अन्तर्भाव नहीं होता। समितियोंमें प्रवृत्ति करनेवाले मुनि के उनका परिपालन करनेके लिए जो प्राणियोंका और इन्द्रियोंका परिहार होता है वह संयम है । कर्मक्षयके लिए जो तपा जाता है वह तप है । वह आगे कहा जानेवाला बारह प्रकारका जानना चाहिए। संयतके योग्य ज्ञानादिका दान करना त्याग है। जो शरीरादिक उपात्त हैं उनमें भी संस्कारका त्याग करनेके लिए 'यह मेरा है' इस प्रकारके अभिप्रायका त्याग करना आकिंचन्य है । जिसका कुछ नहीं है वह अकिंचन है और उसका भाव या कर्म आकिंचन्य है। अनुभूत स्त्रीका स्मरण न करनेसे, स्त्री1. --ख्यानं प्रवर्त- ता.। 2. --न्युपयतो भिक्षो ता.। 3. --रित्रलक्षणा-- म.। 4. --नास्ति किंचनास्याकि-- मु., दि. 1, दि. 2।।
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324] सर्वार्थसिद्धौ
[9178 798स्त्रीसंसक्तशयनासनादिवर्जनाद् ब्रह्मचर्य परिपूर्णमवतिष्ठते । स्वतन्त्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थो वा 'गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यम् । दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् । तान्येवं भाव्यमानानि धर्मव्यपदेशभाजिस्वगुणप्रतिपक्षदोषसद्भावनाप्रणिहितानि संवरकारणानि भवन्ति ।
8798. आह, क्रोधाद्यनुत्पत्तिः क्षमादिविशेषप्रत्यनीकालम्बनादित्युक्तम् । तत्र कस्मात्क्षमादीनयमवलम्बते नान्यथा प्रवर्तत इत्युच्यते । यस्मात्तप्तायःपिण्डवत्क्षमादिपरिणतेनात्महितैषिणा कर्तव्याः -- अनित्याशरणसंसारकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वा
ख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥7॥ $ 799. इमानि शरीरेन्द्रियविषयोपभोगद्रव्याणि समुदयरूपाणि जलबुबुद्वदनवस्थितस्वभावानि गर्भादिष्ववस्थाविशेषेषु सदोपलभ्यमानसंयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यता मन्यते । न किंचित्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिन्तनमनित्यतानुप्रेक्षा । एवं ह्यस्य भव्यस्य चिन्तयतस्तेष्वभिष्वङ्गाभावाद् भक्तोज्झितगन्धमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपातो नोत्पद्यते।
8800. यथा-मृगशावस्यैकान्ते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रणाभिभूतस्य न विषयक कथाके सुनने का त्याग करनेसे और स्त्रीसे सटकर सोने व बैठनेका त्याग करनेसे परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है। अथवा स्वतन्त्र वृत्तिका त्याग करनेके लिए गुरुकूलमें निवास करना ब्रह्मचर्य है। दिखाई देनेवाले प्रयोजनका निषेध करनेके लिए क्षमादिके पहले उत्तम विशेषण दिया है। इस प्रकार जोवन में उतारे गये और स्वगुण तथा प्रतिपक्षभूत दोषोंके सदभावमें यह लाभ और यह हानि है इस तरहकी भावनासे प्राप्त हुए ये धर्मसंज्ञावाले उत्तम क्षमादिक संवरके कारण होते हैं।
5798. क्षमादि विशेष और उनके उलटे कारणोंका अवलम्बन आदि करनेसे क्रोधादिकी उत्पत्ति नहीं होती है यह पहले कह आये हैं । उसमें किस कारणसे यह जीव क्षमादिकका अवलम्बन लेता है, अन्यथा प्रवृत्ति नहीं करता है इसका कथन करते हैं । यत: तपाये हुए लोहेके गोलेके समान क्षमादिरूपसे परिणत हुए आत्महितैषीको करने योग्य
अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्वका बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं ॥7॥
6799. ये समुदायरूप शरीर, इन्द्रियविषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य जलके बुलबुलेके समान अनवस्थित स्वभाववाले हैं तथा गर्भादि अवस्थाविशेषोंमें सदा प्राप्त होनेवाले । संयोगोंसे विपरीत स्वभाववाले हैं । मोहवश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यताका अनुभव करता है पर वस्तुतः आत्माके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगस्वभावके सिवा इस संसारमें अन्य कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस भव्यके उन शरीरादिमें आसक्तिका अभाव होनेसे भोगकर छोड़े हुए गन्ध और माला आदिके समान वियोग कालमें भी सन्ताप नहीं होता है।
6800. जिस प्रकार एकान्तमें क्षुधित और मांसके लोभी बलवान् व्याघ्र के द्वारा दबोचे गये मृगशावकके लिए कुछ भी शरण नहीं होता उसी प्रकार जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधि आदि 1. -कुलावासो मु., ता.। 2. ह्यस्य चिन्त- मु., ता. ।
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-917 $ 802] नवमोऽध्यायः
[325 किंचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तोः शरणं न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते । यत्नेन संचिता अर्या अपि न भवान्तरमनुगच्छन्ति । संविभक्तसुखदुःखाः सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायन्ते। बान्धवाः समुदिताश्च रुजा परीतं न परिपालयन्ति । अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति । मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम् । तस्माद् भवव्यसनसंकटे धर्म एव शरणं । सुहवर्थोऽप्यनपायी, नायकिंचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्याध्यवस्यतो नित्यमशरणोऽस्मीति भृशमुद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेषु ममत्वविगमो भवति । भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव मार्गे प्रयत्नो भवति।
8801. कर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः । स पुरस्तात्पञ्चविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्मयन्त्र-- प्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति । माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति । स्वामी भूत्वा दासो भवति । दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति । नट इव रङ्ग । अथवा किं बहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवमादि संसारस्वभावचिन्तनं संसारानुप्रेक्षा । एवं हस्य भावयतः संसारदुःखभयाद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति । निविण्णश्च संसारप्रहाणाय प्रयतते।
$ 802. जन्मजरामरणावृत्ति महादुःखानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वः परो वा दुःखोंके मध्यमें परिभ्रमण करनेवाले जीवका कुछ भी शरण नहीं है । परिपुष्ट हुआ शरीर ही भोजनके प्रति सहायक है, दुःखोंके प्राप्त होनेपर नहीं । यत्नसे संचित किया हुआ धन भी
तरमें साथ नहीं जाता। जिन्होंने सख और दुःखको समानरूपसे बाँट लिया है ऐसे मित्र भी मरणके समय रक्षा नहीं कर सकते । मिलकर बन्धुजन भी रोगसे व्याप्त इस जीवकी रक्षा करने में असमर्थ होते हैं । यदि सुचरित धर्म हो तो वह ही दुःखरूपी महासमुद्र में तरनेका उपाय हो सकता है । मृत्युसे ले जानेवाले इस जीवके सहस्रनयन आदि भी शरण नहीं है, इसलिए संसार विपत्तिरूप स्थानमें धर्म ही शरण है । वही मित्र है और वही कभी भी न छूटनेवाला अर्थ है, अन्य कुछ शरण नहीं है इस प्रकारकी भावना करना अशरणानुप्रेक्षा है। इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीवके 'मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होनेके कारण संसारके कारणभूत पदार्थोंमें ममता नहीं रहती और वह भगवान् अरहंत सर्वज्ञ प्रणीत मार्गमें ही प्रयत्नशील होता है।
801. कर्मके विपाकके वशसे आत्माको भवान्तरकी प्राप्ति होना संसार है। उसका पहले पाँच प्रकारके परिवर्तनरूपसे व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटिलाखसे व्याप्त इस संसारमें परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयन्त्रसे प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या और लड़की होता है । स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है । जिस प्रकार रंगस्थलमें नट नाना रूप धारण करता है उस प्रकार यह होता है । अथवा बहुत कहनेसे क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूपसे संसारके स्वभावका चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए संसारके दुःखके भयसे उद्विग्न हुए इसके संसारसे निर्वेद होता है और निविण्ण होकर संसारका नाश करनेके लिए प्रयत्न करता है।
__8802. 'जन्म, जरा और मरणकी आवृत्तिरूप महादुःखका अनुभवन करनेके लिए अकेला 1. संचितोऽर्थोऽपि न भवान्तरमनुगच्छति मु.। 2. ममत्वनिरासो भव- आ., दि. 1, दि. 2. मु., ना.। 3. मार्गे प्रतिपन्नो भव-आ., दि. 1, दि. 2, मु.। 4. -यन्त्रानप्रेरितः। 5. प्रतियतते मु.। 6. -मरणानुवृत्ति-मु.।
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326] सर्वार्थसिद्धौ
[917 $ 803विद्यते । एक एव जायेऽहम् । एक एव म्रिये । न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति । बन्धुमित्राणि स्मशानं नातिवर्तन्ते । धर्म एव मे सहायः सदा अनपायोति चिन्तनमेकत्वानुप्रेक्षा । एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति । परजनेषु च द्वेषानुबन्धो नोपजायते । ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते।।
803. शरीरादन्यत्वचिन्तनमन्यत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्योऽहमैन्द्रियकं शरीर मतीन्द्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाघन्तवच्छरीरमनाद्यनन्तोऽहम । बहनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः । स एवाहमन्यस्तेभ्य इत्येवं मे किमङ्ग, पुनर्बाह्य भ्यः परिग्रहेभ्यः इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते । ततस्तत्वज्ञानभावनापूर्वके वैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखस्या वाप्तिर्भवति ।
8804. शरीरमिदमत्यन्ताशुचियोनि' शुक्रशोणिताशुचिसंवधितमवस्करववशुचिभाजनं त्वङ्मावप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यन्दिस्रोतोबिलमङ्गारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयति । स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहतुमस्य । सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकी शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतो भावनमशुचित्वानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य मैं हो हूँ, न कोई मेरा स्व है और न पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ और अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन व्याधि, जरा और मरण आदि दु:खोंको दूर नहीं करता। बन्धु
और मित्र श्मशानसे आगे नहीं जाते । धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदा काल सहायक है।' इस प्रकार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीवके स्वजनोंमें प्रीतिका अनुबन्ध नहीं होता और परजनोंमें द्वषका अनुबन्ध नहीं होता, इसलिए नि:संगताको प्राप्त होकर मोक्षके लिए ही प्रयत्न करता है।
8803. शरीरसे अन्यत्वका चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है-यथा बन्धके प्रति अभेद होनेपर भी लक्षणके भेदसे 'मैं' अन्य हूँ। शरीर ऐन्द्रियिक है, मैं अतीन्द्रिय हूं। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर आदि-अन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ। संसारमें परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये । उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीरसे भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स ! मैं बाह्य पदार्थोंसे भिन्न होऊँ तो इसमें क्या आश्चर्य ? इस प्रकार मनको समाधान युक्त करनेवाले शरीरादिकमें स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञानकी भावनापूर्वक वैराग्यका प्रकर्ष होनेपर आत्यन्तिक मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है।
804. यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थोंका योनि है। शुक्र और शोणितरूप अशुचि पदार्थोंसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है, शौचगृहके समान अशुचि पदार्थोंका भाजन है। त्वचामात्रसे आच्छादित है। अति दुर्गन्ध रसको बहानेवाला झरना है । अंगारके समान अपने आश्रयमें आये हुए पदार्थको भी शीघ्र ही नष्ट करता है । स्नान, अनुलेपन, धूपका मालिश और सुगन्धिमाला आदिके द्वारा भी इसकी अशुचिताको दूर कर सकना शक्य नहीं है, किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदिक जीवकी आत्यन्तिक शुद्धिको प्रकट करते हैं । इस प्रकार वास्तविकरूपसे चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इसके शरीरसे निर्वेद 1. जायेऽहम् । एक ता.। 2. स्मशानात् नाति-- ता.। 3.-मनिन्द्रियो मु., दि. 1, दि. 2, ता.। 4. --स्याप्तिर्भ- मु.। 5. --न्ताशुचिशुक्रशोणितयोन्यशुचिसं- मु.। --न्ताशुचिपूतिशुक्रमोणितसं -दि. 1। -ताशुचिशुक्रशोणितसं-- दि. 2 ।
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-9178807] नवमोऽध्यायः
[327 संस्मरतः शरीरनिर्वेदो भवति । निविण्णश्च जन्मोदधितरणाय चित्तं समाधत्ते ।
805. आस्रवसंवरनिर्जराः पूर्वोक्ता अपि इहोपन्यस्यन्ते तद्गतगुणदोषभावनार्थम् । तद्यथा—आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषाया व्रतादयः। तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शनादीनि वनगजवायसपन्नगपतङ्गहरिणादीन् व्यवसनार्णवमवगाहयन्ति तथा कषायादयोऽपीह वधबन्धापयशःपरिक्लेशादीन् जनयन्ति । अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वलितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमास्रवदोषानुचिन्तनमास्त्रवानुप्रेक्षा । एवं ह्यस्य चिन्तयतः क्षमादिषु श्रेयस्त्वबुद्धिर्न प्रच्यवते । सर्व एते आस्रवदोषाः कूर्मवत्संवृतात्मनो न भवन्ति।
$806. यथा महार्णवे नावो "विवरपिधानेऽसति क्रमात् सतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यंभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशान्तरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयःप्रतिबन्ध इति संवरगुणानुचिन्तनं संवरानु प्रेक्षा। एवं ह्यस्य चिन्तयतः संवरे नित्योयुक्तता भवति । ततश्च निःश्रेयसपदप्राप्तिरिति।
8807. निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम् । सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्व कुशलमूला चेति । तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा । परिषहजये कृते कुशलमूला सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति । इत्येवं निर्जराया गुणदोषभावनं निर्जरानुप्रेक्षा । एवं ह्यस्यानुहोता है और निविण्ण होकर जन्मोदधिको तरनेके लिए चित्तको लगाता है।
805. आस्रव, संवर और निर्जराका कथन पहले कर आये हैं तथापि उनके गुण और दोषोंका विचार करनेके लिए यहाँ उनका फिरसे उपन्यास किया गया है। यथा-आस्रव इस लोक और परलोकमें दु.खदायी है। महानदीके प्रवाहके वेगके समान तीक्ष्ण हैं तथा इन्द्रिय, कषाय और अव्रतरूप हैं। उनमें से स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदिको दुःख रूप समुद्रमें अवगाहन कराती हैं । कषाय आदिक भी इस लोकमें वध, बन्ध अपशय और क्लेशादिक दुःखोंको उत्पन्न करते हैं, तथा परलोकमें नाना प्रकारके दुःखोंसे प्रज्वलित नाना गतियोंमें परिभ्रमण कराते हैं । इस प्रकार आस्रवके दोषोंका चिन्तन करना आस्रवानप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीवके क्षमादिकमें कल्याणरूप बुद्धिका त्याग नहीं होता है, तथा कछुएके समान जिसने अपनी आत्माको संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रवके दोष नहीं होते हैं।
8806. जिस प्रकार महार्णवमें नावके छिद्रके नहीं ढके रहनेपर क्रमसे झिरे हुए जलसे व्याप्त होनेपर उसके आश्रयसे बैठे हुए मनुष्योंका विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्रके ढंके रहने पर निरुपद्रवरूपसे अभिलषित देशान्तरका प्राप्त होना अवश्यम्भावी है उसी प्रकार कर्मागमके द्वारके ढंके होनेपर कल्याणका प्रतिबन्ध नहीं होता। इस प्रकार संवरके गुणोंका चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीवके संवरमें निरन्तर उद्युक्तता होती है और इससे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है।
8807. वेदना विपाकका नाम निर्जरा है यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकारकी हैअबद्धिपर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियोंमें कर्मफलके विपाकसे जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है वह अकुशलानुबन्धा है । तथा परीषहके जीतनेपर जो निर्जरा होती है वह कूशलमला निर्जरा है । वह शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा होती है । इस प्रकार निर्जराके गुणदोषका 1. तद्गुण- मु.। 2. --बन्धपरि- मु., ता.। 3. --तासु भ्रम-- मु.। 4. विवरापिधाने सति मु. । 5. --पाकजा इत्यु- मु.।
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328] सर्वार्थसिद्धौ
[917 8808स्मरतः कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति ।
8808. लोकसंस्थानादिविधियाख्यातः समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधियाख्यातः । तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा । एवं ह्यस्याध्य. वस्यतस्तत्त्वज्ञान विशुद्धिर्भवति।
6809. एकस्मिन्निगोतशरीरे जीवाः सिद्धानामनन्तगुणाः । एवं सर्वलोको निरन्तरं निचितः स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुकासमुद्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा । तत्र च विकलेन्द्रियाणां भूयिष्ठत्वात्पञ्चेन्द्रियता गुणेषु कृतज्ञतेव कृच्छलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु सत्सु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरासदः । तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुत्पतिर्दग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा । तल्लाभे च देशकुलेन्द्रियसंपन्नीरोगत्वान्युत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि । सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलम्भो यदि न स्याद् व्यर्थ जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम् । तमेवं कृच्छलभ्यं धर्ममवाप्य विषयसुखे रञ्जनं भस्मार्थचन्दनदहनमिव विफलम् । विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षणः समाधि?रवापः। तस्मिन् संति बोधिलाभः फलवान् भवतीति चिन्तनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य भावयतो बोधि प्राप्य चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इसकी कर्मनिर्जराके लिए प्रवृत्ति होती है।
8608. लोक संस्थान आदिकी विधि पहले कह आये हैं । अर्थात् चारों ओरसे अनन्त अलोकाकाशके बहुमध्यदेशमें स्थित लोकके संस्थान आदिकी विधि पहले कह जाये हैं। उसके स्वभावका अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है । इस प्रकार विचार करनेवाले इसके तत्त्वज्ञानकी विशुद्धि होती है।
$ 809. एक निगोदशरीरमें सिद्धोंसे अनन्तगुणे जीव हैं। इस प्रकार स्थावर जीवोंसे सब लोक निरन्तर भरा हुआ है । अतः इस लोकमें त्रस पर्यायका प्राप्त होना इतना दुर्लभ है जितना कि बालुकाके समुद्र में पड़ी हुई वज़सिकताकी कणिकाका प्राप्त होना दुर्लभ होता है। उसमें भी विकलेन्द्रिय जीवोंकी बहुलता होनेके कारण गुणोंमें जिस प्रकार कृतज्ञता गुणका प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्यायका प्राप्त होना दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचोंकी बहुलता होती है, इसलिए जिस प्रकार चौपथपर रत्नराशिका प्राप्त होना अति कठिन है उसी प्रकार मनुष्य पर्यायका प्राप्त होना भी अति कठिन है। और मनुष्य पर्यायके मिलनेके बाद उसके च्युत हो जानेपर पुनः उसकी उत्पत्ति होना इतना कठिन है जितना कि जले हुए वृक्षके पुद्गलोंका पुनः उस वृक्ष पर्यायरूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कूल, इन्द्रियसम्पत और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जानेपर भी यदि समीचीन धर्मकी प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्यजन्मका प्राप्त होना व्यर्थ है । इस प्रकार अतिकठिनतासे प्राप्त होने योग्य उस धर्मको प्राप्त कर विषयसुखमें रममाण होना भस्मके लिए चन्दनको जलानेके समान निष्फल है। कदाचित् विषयसुखसे विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तपकी भावना, धर्मकी प्रभावना और सुखपूर्वक मरणरूप समाधिका प्राप्त होना अति दुर्लभ है। इसके होनेपर ही बोधिलाभ सफल है ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीवके बोधिको प्राप्त कर कभी भी I. तमेव कृ.- आ., दि 1, दि. 2 ।
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-9186 813] नवमोऽध्यायः
[329 प्रमादो न कदाचिदपि भवति ।
8810. अयं जिनोपदिष्टो धर्मो हिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयमूलः । अमावलो ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानी नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतालम्बनः । अस्यालाभादनादिसंसारे जीवाः परिभ्रमन्ति दुष्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवन्तः । अस्य पुनः प्रतिलम्भे विविवाभ्युदयप्राप्तिपूर्विका निःश्रेयसोपलब्धिनियतेति चिन्तनं धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा । एवं ह्यस्य चिन्तयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्लो भवति ।
811. एवमनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षासंनिधाने उत्तमक्षमादिधारणान्महान् संवरो भवति । मध्ये 'अनुप्रेक्षा'वचनमुभयार्थम् । अनुप्रेक्षाः हि भावयन्नुत्तमक्षमादींश्च प्रतिपालयति परीषहांश्च जेतुमुत्सहते । 8812. के पुनस्ते परिषहाः किमयं वा ते सहान्त इतीदमाह--
मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषोढव्याः परीषहाः ॥8॥ 8813. संवरस्य प्रकृतत्वात्तेन मार्गो विशिष्यते । संवरमार्ग इति । तदच्यवनाथ निर्जरार्थ च परिषोढव्याः परीषहाः। क्षुत्पिपासादिसहनं कुर्वन्तः जिनोपदिष्टान्मार्गावप्रच्यवमानास्तन्मार्गपरिक्रमणपरिचयेन कर्मागमद्वारं संवृण्वन्त औपक्रमिकं कर्मफलमनुभवन्तः क्रमेण निर्जीर्णकर्माणो मोक्षमाप्नुवन्ति। प्रमाद नहीं होता।
8810. जिनेन्द्रदेवने यह जो अहिंसालक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्यसे रक्षित है, उपशमकी उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है। इसकी प्राप्ति नहीं होनेसे दुष्कर्म विपाकसे जायमान दुःखको अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करते हैं। परन्तु इसका लाभ होने पर नाना प्रकारके अभ्युदयोंकी प्राप्तिपूर्वक मोक्षको प्राप्ति होना निश्चित है ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीवके धर्मानुरागवश उसकी प्राप्तिके लिए सदा यत्न होता है।
8811. इस प्रकार अनित्यादि अनुप्रेक्षाओंका सान्निध्य मिलने पर उत्तमक्षमादिके धारण करनेसे महान् संवर होता है । अनुप्रेक्षा दोनोंका निमित्त है इसलिए 'अनुप्रेक्षा' वचन मध्यमें दिया है । अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करता हुआ यह जोव उत्तमक्षमादिका ठीक तरहसे पालन करता है और परीषहोंको जीतनेके लिए उत्साहित होता है।
8812. वे परीषह कौन-कौन हैं और वे किसलिए सहन किये जाते हैं, यह बतलानेके लिए यह सूत्र कहते हैं
मार्गसे च्युत न होनेके लिए और कोको निर्जरा करनेके लिए जो सहन करने योग्य हो वे परीषह हैं ॥8॥
6813. संवरका प्रकरण होनेसे वह मार्गका विशेषण है, इसलिए सूत्रमें आये हुए ‘मार्ग' पदसे संवरमार्गका ग्रहण करना चाहिए । उससे च्युत न होने के लिए और निर्जराके लिए सहन करने योग्य परीषह होते हैं । क्षुधा, पिपासा आदिको सहन करनेवाले, जिनदेवके द्वारा कहे हुए मार्गसे नहीं च्युत होनेवाले, मार्गके सतत अभ्यासरूप परिचयके द्वारा कर्मागमद्वारको संवृत करनेवाले तथा औपक्रमिक कर्मफलको अनुभव करनेवाले क्रमसे कर्मोकी निर्जरा करके मोक्षको प्राप्त होते हैं। 1. सदा कृतप्रति- ता.। 2. वा सह्य- मु.।
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3305
सर्वार्थसिद्धौ
[9198814F814. तत्स्वरूपसंख्यासंप्रतिपत्त्यर्थमाहक्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचना
लाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥9॥
8815. क्षुदादयो वेदनाविशेषा द्वाविंशतिः। एतेषां सहनं मोक्षार्थिना कर्तव्यम् । तद्यथा-भिक्षोनिरवद्याहारगवेषिणस्तदलाभे ईषल्लाभे च अनिवृत्तवेदनस्याकाले अदेशे च भिक्षां प्रति निवृत्तेच्छस्यावश्यकपरिहाणि मनागप्यसहमानस्य स्वाध्यायध्यानभावनापरस्य बहुकृत्वः स्वकृतपरकृतानशनावमौदर्यस्य नीरसाहारस्य संतप्तभ्राष्ट्रपतितजलबिन्दुकतिपयवत्सहसा परिशुष्कपानस्योदोर्णक्षुद्वेदनस्यापि सतो भिक्षालाभादलाभमधिकगुणं मन्यमानस्य क्षुद्बाधां प्रत्यचिन्तनं क्षुद्विजयः।
8816. जलस्नानावगाहनपरिषेकपरित्यागिनः पतत्रिवदनियतासनावसथस्यातिलवण. स्निग्धरूक्षविरुद्धाहारग्रेष्मातपपित्तज्वरानशनादिभिरदीर्णा शरीरेन्द्रियोन्माथिनी पिपासां प्रत्यनाद्रियमाणप्रतीकारस्य पिपासानलशिखां धृतिनवमृद्घटपूरितशीतलसुगन्धिसमाधिवारिणा प्रशसयतः पिपासासहन प्रशस्यते।
8817. परित्यक्तप्रच्छादनस्य पक्षिवदनवधारितालयस्य वृक्षमूलपथिशिलातलादिषु
8814. अब उन परीषहोंके स्वरूप और संख्याका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, याचना, अलाभ, रोग, तणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन नामवाले परीषह हैं ॥9॥
815. क्षुधादिक वेदनाविशेष बाईस हैं। मोक्षार्थी पुरुषको इनको सहन करना चाहिए। यथा--जो भिक्षु निर्दोष आहारका शोध करता है, जो भिक्षा के नहीं मिलने पर या अल्पमात्रामें मिलने पर क्षधावेदनाको नहीं प्राप्त होता, अकालमें या अदेशमें जिसे भिक्षा लेनेकी इच्छा नहीं होती, आवश्यकोंकी हानिको जो थोड़ा भी सहन नहीं करता, जो स्वाध्याय और ध्यानभावनामें तत्पर रहता है, जिसने बहत बार स्वकृत और परकृत अनशन व अवमौदर्य तप किया है, जो नीरस आहारको लेता है, अत्यन्त गरम भांडमें गिरी हुई जल की कतिपय बूंदोंके समान जिसका गला सूख गया है और क्षुधावेदनाको उदीरणा होनेपर भी जो भिक्षालाभकी अपेक्षा उसके अलाभको अधिक गुणकारो मानता है उसका क्षुधाजन्य बाधाका चिन्तन नहीं करना क्षुधापरीषहजय है।
8816. जिसने जलसे स्नान करने, उसमें अवगाहन करने और उससे सिंचन करनेका त्याग कर दिया है, जिसका पक्षोके समान आसन और आवास नियत नहीं है, जो अतिखारे, अतिस्निग्ध और अतिरूक्ष प्रकृति विरुद्ध आहार, ग्रीष्मकालीन आतप, पित्तज्वर और अनशन आदिके कारण उत्पन्न हुई तथा शरीर और इन्द्रियोंको मथनेवाली पिपासाका प्रतीकार करने में आदरभाव नहीं रखता और जो पिपासारूपी अग्निशिखाको सन्तोषरूपी नूतन मिट्टीके घड़े ने भरे हुए शीतल सुगन्धि समाधिरूपी जलसे शान्त कर रहा है उसके पिपासाजय प्रशंसाके योग्य है।
8817. जिसने आवरणका त्याग कर दिया है, पक्षीके समान जिसका आवास निश्चित 1. --रस्य तप्त- मु.।
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[331
--9198 821]
नवमोऽध्यायः हिमानीपतनशीतलानिल'संपाते तत्प्रतिकारप्राप्ति प्रति निवृत्तेच्छस्य पूर्वानुभूतशीतप्रतिकारहेतुवस्तूनामस्मरतो ज्ञानभावनागर्भागारे वसतः शीतवेदनासहनं परिकीर्त्यते ।।
818. निवाते निर्जले ग्रीष्मरविकिरणपरिशुष्कपतितपर्णव्यपेतच्छायातरुण्यटव्यन्तरे यदच्छयोपनिपतितस्यानशनाद्यभ्यन्तरसाधनोत्पादितदाहस्य दवाग्निदाहपरुषवातातपजनितगलतालुशोषस्य तत्प्रतीकारहेतून् बहूननुभूतानचिन्तयतः प्राणिपीडापरिहारावहितचेतसश्चारित्ररक्षण. मुष्णसहनमित्युपवर्ण्यते।
$819. 'दंशमशक' ग्रहणमुपलक्षणम् । यथा “काकेभ्यो रक्ष्यतां सपिः' इति उपघातकोप लक्षणं काकग्रहणं, तेन वंशमशकमक्षिकापिशुकपुत्तिकामत्कुणकीटपिपीलिकावृश्चिकादयो गृह्यन्ते । तत्कृतां बाधामप्रतीकारां सहमानस्य तेषां बाधां त्रिधाप्यकुर्वाणस्य निर्वाणप्राप्तिमात्रसंकल्पप्रावरणस्य तद्वदनासहनं दंशमशकपरिषहक्षमेत्युच्यते ।
$ 820. जातरूपवन्निष्कलंकजातरूपधारणमशक्यप्रार्थनीयं याचनरक्षहिंसनादिदोषविनिर्मुक्तं निष्परिग्रहत्वान्निर्वाणप्राप्ति प्रत्येकं साधनमनन्यबाधनं नान्यं बिभ्रतो मनोविक्रियाविप्लुतिविरहात् स्त्रीरूपाण्यत्यन्ताशुचिकुणपरूपेण भावयतो रात्रिन्दिवं ब्रह्मचर्यमखण्डमातिष्ठमानस्याचेलवतधारणमनवद्यमवगन्तव्यम।
__8821. संयतस्येन्द्रियेष्टविषयसंबन्धं प्रति निरुत्सुकस्य गीतनृत्यवादित्रादिविरहितेषु नहीं हैं, वृक्षमूल, चौपथ और शिलातल आदिपर निवास करते हुए बर्फके गिरने पर और शीतल हवाका झोंका आनेपर उसका प्रतीकार करनेको इच्छासे जो निवृत्ति है, पहले अनुभव किये गये शीतके प्रतीकारके हेतुभूत वस्तुओंका जो स्मरण नहीं करता और जो ज्ञानभावनारूपी गर्भागारमें निवास करता है उसके शीतवेदनाजय प्रशंसाके योग्य है।
6818. निर्वात और निर्जल तथा ग्रीष्मकालीन सूर्य की किरणोंसे सूख कर पत्तोंके गिर जानेसे छायारहित वृक्षोंसे युक्त ऐसे वनके मध्य जो अपनी इच्छानुसार प्राप्त हुआ है, अनशन आदि आभ्य न्तर साधनवश जिसे दाह उत्पन्न हुई है, दवाग्निजन्य दाह, अतिकठोर वायु और आतपके कारण जिसे गले और तालुमें शोष उत्पन्न हुआ है, जो उसके प्रतीकारके बहुत-से अनुभूत हेतुओंको जानता हुआ भी उनका चिन्तन नहीं करता है तथा जिसका प्राणियोंकी पीडाके परिहारमें चित्त लगा हुआ है उस साधुके चारित्रके रक्षणरूप उष्णपरीषहजय कही जाती है।
8819. सूत्रमें 'दंशमशक' पदका ग्रहण उपलक्षण है। जैसे 'कौओंसे घीको रक्षा करनी चाहिए' यहाँ 'काक' पदका ग्रहण उपचातक जितने जोव हैं उनका उपलक्षण है, इसलिए 'दंशमशक' पदसे दंशमशक, मक्खी, पिस्सू, छोटी मक्खी, खटमल, कीट, चींटी और बिच्छु आदिका ग्रहण होता है। जो इनके द्वारा की गयी बाधाको विना प्रतीकार किये सहन करता है, मन वचन और कायसे उन्हें बाधा नहीं पहुंचाता है और निर्वाणकी प्राप्तिमात्र संकल्प ही जिसका ओढ़ना है उसके उनकी वेदनाको सह लेना दशमशक परीषहजय कहा जाता है।
8820. बालकके स्वरूपके समान जो निष्कलंक जातरूपको धारण करनेरूप है, जिसका याचना करनेसे प्राप्त होना अशक्य है, जो याचना, रक्षा करना और हिंसा आदि दोषोंसे रहित है, जो निष्परिग्रहरूप होनेसे निर्वाण प्राप्तिका एक-अनन्य साधन है और जो दिन-रात अखण्ड ब्रह्मचर्यको धारण करता है उसके निर्दोष अचेलव्रत धारण जानना चाहिए।
$ 821. जो संयत इन्द्रियोंके इष्ट विषयसम्बन्धके प्रति निरुत्सुक है, जो गीत, नृत्य और 1, --शीतानिल- आ., दि. 1, दि. 2। 2. - ग्रहणं दंशमशकोपलक्षणं । यथा आ. दि. 1, दि. 2, ता.। 3. उपघातोप-- मु.। 4. -शक्यमप्रार्थ्य-- ता., ना., दि. 2, आ. ।
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332] सर्वार्थसिद्धौ
[919 $ 822शून्यागारवेवकुलतरकोटरशिलागुहादिषु स्वाध्यायध्यानभावनारतिमास्कन्दतो दृष्टश्रुतानुभूतर. तिस्मरणतत्कथाश्रवणकामशरप्रवेशनिर्विवरहृदयस्य प्राणिषु सदा सदयस्यारतिपरिषहजयोऽवसेयः।
8822. एकान्तेष्वारामभवनादिप्रदेशेषु नवयौवनमदविभ्रममदिरापानप्रमत्तासु प्रमदासु बाधमानासु कूर्मवत्संवृतेन्द्रियविकारस्य ललितस्मितमृदुकथितसविलासवीक्षणप्रहसनमवमन्थर'. गमनमन्मथशरव्यापारविफलीकरणस्य स्त्रीबाधापरिषहसहनमवगन्तम् ।
8823. दीर्घकालमुषितगुरुकुलब्रह्मचर्यस्याधिगतबन्धमोक्षपदार्थतत्त्वस्य संयमायतनभक्तिहेतोर्देशान्तरातिथेर्गुरुणाभ्यनुज्ञातस्य पवनवन्निःसंगतामङ्गीकुर्वतो बहुशोऽनशनावमौदर्यवत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागादिबाधापरिक्लान्तकायस्य देशकालप्रमाणापेतमध्वगमन संयमविरोधि परिहरतो निराकृतपादावरणस्य परुषशर्कराकण्टकादिव्य धनजातचरणखेवस्थापि सतः पूर्वोचितयानवाहनादिगमनमस्मरतो यथाकालमावश्यकापरिहाणिमास्कन्वतश्चर्यापरिषहसहनमवसेयम।
6824. स्मशानोद्यानशून्यायतनगिरिगुहागह्वरादिष्वनभ्यस्तपूर्वेषु निवसत आदित्यप्रकाश स्वेन्द्रियज्ञानपरीक्षितप्रदेशे कृतनियमक्रियस्य निषद्यां नियमितकालामास्थितवतः सिंहव्यावादित्र आदिसे रहित शून्यघर, देवकुल, तरुकोटर और शिलागुफा आदिमें स्वाध्याय, ध्यान और भावनामें लीन है, पहले देखे हुए, सुने हुए और अनुभव किये हुए विषयभोगके स्मरण, विषयभोग सम्बन्धी कथाके श्रवण और कामशर प्रवेशके लिए जिसका हृदय निश्छिद्र है और जो प्राणियोंके ऊपर सदाकाल सदय है उसके अरतिपरीषहजय जानना चाहिए।
8822. एकान्त ऐसे बगीचा और भवन आदि स्थानों में नवयौवन, मदविभ्रम और मदिरापानसे प्रमत्त हुई स्त्रियोंके द्वारा बाधा पहुंचाने पर कछुएके समान जिसने इन्द्रिय और हृदयके विकारको रोक लिया है तथा जिसने मन्द मुस्कान, कोमल सम्भाषण, तिरछी नजरोंसे देखना, हँसना, मदभरी धीमी चालसे चलना, और कामवाण मारना आदिको विफल कर दिया है उसके स्त्रीबाधापरीषहजय जानना चाहिए।
6823. जिसने दीर्घकाल तक गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्यको धारण किया है, जिसने बन्धमोक्ष पदार्थोंके स्वरूपको जान लिया है, संयमके आयतन शरीरको भोजन देनेके लिए जो देशान्तरका अतिथि बना है, गुरुके द्वारा जिसे स्वीकृति मिली है, जो वायुके समान निःसंगताको स्वीकार करता है, बहत बार अनशन, अवमौदर्य, वत्तिपरिसंख्यान और रसपरित्याग आदि जन्य बाधाके कारण जिसका शरीर परिक्लान्त है, देश और कालके प्रमाणसे रहित तथा संयमविरोधी मार्गगमनका जिसने परिहार कर दिया है, जिसने खड़ाऊँ आदिका त्याग कर दिया है, तीक्ष्ण कंकड़ और काँटे आदिके बिंधनेसे चरणोंमें खेदके उत्पन्न होनेपर भी पहले योग्य यान और वाहन आदिसे गमन करनेका जो स्मरण नहीं करता है तथा जो यथाकाल आवश्यकोंका परिपूर्ण परिपालन करता है उसके चर्यापरोषहजय जानना चाहिए।
$ 824. जिनमें पहले रहनेका अभ्यास नहीं किया है ऐसे श्मशान, उद्यान, शून्यघर गिरिगुफा और गह्वर आदिमें जो निवास करता है, आदित्यके प्रकाश और स्वेन्द्रिय ज्ञानसे परीक्षित प्रदेशमें जिसने नियक्रिया की है. जो नियतकाल निषद्या लगाकर बैठता है.
ह और व्याघ्र आदिकी नानाप्रकारकी भीषण ध्वनिके सुनने से जिसे किसी प्रकारका भय नहीं होता, चार 1. 'सुदपरिचिदाणभूदा सव्वस्य वि कामभोगबंधकहा।' .-समयप्रा. गा. 4। 2. संहृते-- मु. । 3. पदमन्थर- म.। 4. --करणचरणस्य आ., दि. 1, दि. 2। 5. --परिक्रान्त- मु.। 6. --व्यथन- मु., दि. 1, दि. 2। 7. प्रतिष आदित्यस्येन्द्रियज्ञानप्रकाशपरीक्षितप्रदेशे इति पाठः। 8. --देशे प्रकृत- मु.।
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-9198827] नवमोऽध्यायः
[333 घ्रादिविविधभीषणध्वनिश्रवणान्निवृत्तभयस्य चतुविधोपसर्गसहनादप्रच्युतमोक्षमार्गस्य वीरासनोत्कुटिकाधासनादविचलितविग्रहस्य तत्कृतबाधान्सहनं निषद्यापरिषह विजय इति निश्चीयते।
8825. स्वाध्यायध्यानाध्वश्रमपरिखेदितस्य मौहूतिकी खरविषमप्रचुरशर्कराकपालसंकटा तिशीतोष्णेषु भूमिप्रदेशेषु निद्रामनुभवतो यथाकृतकपाश्र्वदण्डायितादिशायिनः प्राणिबाधापरिहाराय पतितदारुवद् व्यपगतासुवद परिवर्तमानस्य ज्ञान भावनावहितचेतसोऽनुष्ठितव्यन्तरादिविविधोपसर्गावप्यचलिर्तावग्रहस्यानियमितकाला तत्कृतबाधां क्षममाणस्य शय्या परिषहक्षमा कम्यते।
8826. मिथ्यादर्शनोदृक्तामर्षपरुषावज्ञानिन्दासभ्यवचनानि क्रोधाग्निशिखाप्रवर्धनानि निशृण्वतोऽपि तदर्थेष्वसमाहितचेतसः सहसा तत्प्रतीकारं कर्तुमपि शक्नुवतः पापकर्मविपाकमभिचिन्तयतस्तान्याकर्ण्य तपश्चरणभावनापरस्य कषायविषलवमात्रस्याप्यनवकाशमात्महृदयं कुर्वत आक्रोशपरिषहसहनमवधार्यते।।
8827. निशितविशसनमुशलमुद्गराद्रिप्रहरणताडनादिभिर्व्यापाद्यमानशरीरस्य व्यापादकेषु मनागपि मनोविकारमकुर्वतो मम पुराकृतदुष्कर्मफलमिदमिमे वराकाः किं कुर्वन्ति, शरीरमिवं जलबुर्बुद्वद्विशरणस्वभावं व्यसनकारणमेतैर्बाबाध्यते, संज्ञानदर्शनचारित्राणि मम न केनप्रकारके उपसर्गके सहन करनेसे जो मोक्षमार्गसे च्युत नहीं हुआ है तथा वीरासन और उत्कुटिका आदि आसनके लगानेसे जिसका शरीर चलायमान नहीं हुआ है उसके निषद्याकृत बाधाका सहन करना निषद्यापरीषहजय निश्चित होता है।
8825. स्वाध्याय, ध्यान और अध्वश्रमके कारण थककर जो कठोर, विषम तथा प्रचुरमात्रामें कंकड़ और खपरोंके टुकड़ों से व्याप्त ऐसे अतिशीत तथा अत्युष्ण भूमिप्रदेशोंमें एक मुहूर्तप्रमाण निद्राका अनुभव करता है, जो यथाकृत एक पार्श्व भागसे या दण्डायित आदिरूपसे शयन करता है, करवट लेनेसे प्राणियोंको होनेवाली बाधाका निवारण करने के लिए जो गिरे हए लकड़ीके कुन्देके समान या मुर्दाके समान करवट नहीं बदलता, जिसका चित्त ज्ञानभावनामें
व्यन्तरादिके द्वारा किये गये नाना प्रकारके उपसर्गोसे भी जिसका शरीर चलायमान नहीं होता और जो अनियतकालिक तत्कृत बाधाको सहन करता है उसके शय्यापरीषहजय कहा जाता है।
826. मिथ्यादर्शनके उद्रेकसे कहे गये जो क्रोधाग्निकी शिखाको बढ़ाते हैं ऐसे क्रोधरूप, कठोर, अवज्ञाकर, निन्दारूप और असभ्य वचनोंको सुनते हुए भी जिसका उनके विषयमें चित्त नहीं जाता है, यद्यपि तत्काल उनका प्रतीकार करनेमें समर्थ है फिर भी यह सब पापकर्मका विपाक है इस तरह जो चिन्तन करता है, जो उन शब्दोंको सुनकर तपश्चरणकी भावनामें तत्पर रहता है और जो कषायविषके लेशमात्रको भी अपने हृदयमें अवकाश नहीं देता उसके आक्रोशपरीषहसहन निश्चित होता है।
6827. तीक्ष्ण तलवार, मूसर और मुद्गर आदि अस्त्रोंके द्वारा ताड़न और पीड़न आदिसे जिसका शरीर तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है तथापि मारनेवालोंपर जो लेशमात्र भी मनमें विकार नहीं लाता, यह मेरे पहले किये गये दुष्कर्मका फल है, ये बेचारे क्या कर सकते हैं, यह शरीर जलके बुलबुलेके समान विशरण-स्वभाव है, दुःखके कारणको ही ये अतिशय बाधा पहँचाते हैं, मेरे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रको कोई नष्ट नहीं कर सकता इस प्रकार जो 1.-संकटादिशी--म,। 2. --पतिततरुदण्डव-- ता.। 3. --तासूवपरि-- म.। 4. ज्ञानपरिभावना-म.।। 5. -नानि शृण्व-- मु., दि. 11 2.-मेतैयाबा-- म. ।
लगा
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334] सर्वार्थसिद्धी
[919 $ 828चिदुपहन्यन्ते इति चिन्तयतो वासितक्षणचन्दनानुलेपनसमदशिनो वघपरिषहक्षमा मन्यते।
8828. बाह्याभ्यन्तरतपोऽनुष्ठानपरस्य तद्भावनावशेन निस्सारीकृतमूर्तेः पटुतपनतापनिष्पीतसारतरोरिव विरहितच्छायस्य त्वगस्थिशिराजालमात्रतनुयन्त्रस्य प्राणात्यये सत्यप्याहारबसतिभेषजादीनि दीनाभिधानमुखवंवाङ्गसंज्ञादिभिरयाचमानस्य भिक्षाकालेऽपि विधुदुद्योतवद् दुरुपलक्ष्यमूर्तेर्याचनापरिषहसहनमवसीयते।
6829. वायुवदसङ्गादनेकदेशचारिणोऽभ्युपगतंककालसंभोजनस्य वाचंयमस्य तत्समितस्य वा सकृत्स्वतनुदर्शनमात्रतन्त्रस्य पाणिपुटमात्रपात्रस्य बहुषु दिवसेषु बहुषु च गृहेष भिक्षामनवाप्याप्यसंक्लिष्टचेतसो दातृविशेषपरीक्षानिरुत्सुकस्य लाभादप्यलाभो मे परमं तप इति संतुष्टस्यालाभविजयोऽवसेयः।।
830. सर्वाशुचिनिधानमिदमनित्यमपरित्राणमिति शरीरे निःसंकल्पत्वाद्विगतसंस्कारस्य गुणरत्नभाण्डसंचयप्रवर्धनसंरक्षण संधारणकारणत्वादभ्युपगतस्थितिविधानस्याक्षम्रक्षणवद वणानुलेपनवद्वा बहूपकारमाहारमभ्युपगच्छतो विरुद्वाहारपानसेवनवैषम्यजनितवातादिविकाररोगस्य युगपदनेकशतसंख्यव्याधिप्रकोपे सत्यपि तद्वशतितां विजहतो जल्लोषधिप्राप्त्याद्यनेकतपोविशेषद्धियोगे सत्यपि शरीरनिस्स्पृहत्वात्तत्प्रतिकारानपेक्षिणो रोगपरिषहसहनमवगन्तव्यम् । विचार करता है वह बसूलासे छीलने और चन्दनसे लेप करने में समदर्शी होता है, इसलिए उसके वधपरीषहजय माना जाता है।
6 828. जो बाह्य और आभ्यंतर तपके अनुष्ठान करनेमें तत्पर है, जिसने तपकी भावनाके कारण अपने शरीरको सुखा डाला है, जिसका तीक्ष्ण सूर्यके तापके कारण सार व छाया रहित वृक्षके समान त्वचा, अस्थि और शिराजालमात्र से युक्त शरीरयन्त्र रह गया है, जो प्राणीका वियोग होनेपर भी आहार, वसति और दवाई आदिकी दीन शब्द कहकर, मुखकी विवर्णता दिखाकर व संज्ञा आदिके द्वारा याचना नहीं करता तथा भिक्षाके समय भी जिसकी मूर्ति बिजलीकी चमकके समान दुरुपलक्ष्य रहती है ऐसे साधुके याचना परीषहजय जानना चाहिए।
8829. वायुके समान निःसंग होनसे जो अनेक देशोंमें विचरण करता है, जिसने दिनमें एक कालके भोजनको स्वीकार किया है, जो मौन रहता है या भाषासमितिका पालन करता है, एक बार अपने शरीरको दिखलानामात्र जिसका सिद्धान्त है, पाणिपुट ही जिसका पात्र है, बहुत दिन तक या बहुत घरोंमें भिक्षाके नहीं प्राप्त होनेपर भी जिसका चित्त संक्लेशसे रहित है, दाताविशेषको परीक्षा करने में जो निरुत्सुक है तथा लाभसे भी अलाभ मेरे लिए परम तप है इस प्रकार जो सन्तुष्ट है उसके अलाभ परीषहजय जानना चाहिए।
8830. यह सब प्रकारके अशुचि पदार्थोंका आश्रय है, यह अनित्य है और परित्राणसे रहित है इस प्रकार इस शरीरमें संकल्परहित होनेसे जो विगतसंस्कार है, गुणरूपी रत्नोंके पात्रके संचय, वर्धन, संरक्षण और संधारणका कारण होनेसे जिसने शरीरकी स्थितिविधानको भले प्रकार स्वीकार किया है, धुरको ओंगन लगानेके समान या व्रणपर लेप करनेके समान जो बहुत उपकारवाले आहारको स्वीकार करता है, विरुद्ध आहार-पानके सेवनरूप विषमतासे जिसके वातादि विकार रोग उत्पन्न हुए हैं, एक साथ सैकड़ों व्याधियोंका प्रकोप होनेपर भी जो उनके आधीन नहीं हुआ है तथा तपोविशेषसे जल्लौषधि की प्राप्ति आदि अनेक ऋद्धियोंका सम्बन्ध होनेपर भी शरीरसे निस्पृह होनेके कारण जो उनके प्रतीकारकी अपेक्षा नहीं करता उसके रोगपरीषहसहन जानना चाहिए। 1. प्राणवियोगे सत्य- मु.। 2 . तत्समस्य वा आ., दि. 1, दि. 2। 3. - सेषु च मु.। 4. रक्षणकार.. आ., दि 2, ता. ।
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- 9198 834] नवमोऽध्यायः
[335 5831. तुणग्रहणमुपलक्षणं कस्यचिद्व्यधनदुःखकारणस्य । तेन शुष्कतृणपरुषशर्कराकण्टकनिशितमृत्तिकाशूलादिव्य धनकृतपादवेदनाप्राप्तौ सत्यां तत्राप्रणिहितचेतसश्चर्याशय्यानिषद्यासु प्राणिपीडापरिहारे नित्यमप्रमत्तचेतसस्तृणादिस्पर्शबाधापरिषहविजयो वेदितव्यः ।
6832. अप्कायिकजन्तुपीडापरिहारायामरणादस्नानव्रतधारिणः पीरविकिरणप्रतापजनितप्रस्वे वाक्तपवनानीतपांसुनिचयस्य सिध्मकच्छूददूदीर्णकण्डूयायामुत्पन्नायामपि कण्डूयनविमर्दनसंघट्टनविजितमूर्तेः स्वगतमलोपचय परगतमलापचययोरसंकल्पितमनसः 'सज्ज्ञानचारित्रविमलसलिलप्रक्षालनेन कर्ममलपंक निराकरणाय नित्यमुद्यतमतेर्मलपीडासहनमाख्यायते ।
6833. सत्कारः पूजाप्रशंसात्मकः । पुरस्कारो नाम क्रियारम्भादिष्वग्रतः करणमामंत्रणं वा, तत्रानादरो' मयि क्रियते । चिरोषितब्रह्मचर्यस्य महातपस्विनः स्वपरसमयनिर्णज्ञस्य बहुकृत्वः परवादिविजयिनः प्रणामभक्तिसंभ्रमासनप्रदानादीनि मे न कश्चित्करोति । मिथ्यादृष्टय एवातीव भक्तिमन्तः किचिदजानन्तमपि सर्वज्ञसंभावनया संमान्य स्वसमयप्रभावनं कुर्वन्ति । व्यन्तरादयः पुरा अत्युग्रतपसां प्रत्यग्रपूजां निवर्तयन्तीति मिथ्या श्रुतिर्यदि न स्यादिदानी कस्मान्मादृशां न कुर्वन्तीति दुष्प्रणिधानविरहितचित्तस्य सत्कारपुरस्कारपरिषहविजय इति विज्ञायते।
6834. अङ्गापूर्वप्रकीर्णकविशारदस्य शब्दन्यायाध्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तावितरे
6831. जो कोई विंधनेरूप दुःखका कारण है उसका 'तृण' पदका ग्रहण उपलक्षण है। इसलिए सूखा तिनका, कठोर कंकड़, काँटा, तीक्ष्ण मिट्टी और शल आदिके विधनेसे पैरोंमें वेदनाके होनेपर उसमें जिसका चित्त उपयुक्त नहीं है तथा चर्या, शय्या और निषद्यामें प्राणिपीडाका परिहार करनेके लिए जिसका चित्त निरन्तर प्रमादरहित है उसके तृणस्पर्शादि बाधापरीषहजय जानना चाहिए।
8832. अप्कायिक जीवोंकी पीडाका परिहार करनेके लिए जिसने मरणपर्यन्त अस्नानव्रत स्वीकार किया है, तीक्ष्ण सूर्यको किरणोंके तापसे उत्पन्न हुए पसोनामें जिसके पवनके द्वारा लाया गया धूलिसंचय चिपक गया है, सिध्म, खाज और दादके होनेसे खुजलीके होनेपर भी जो खजलाने, मर्दन करने और दूसरे पदार्थसे घिसनेरूप क्रियासे रहित है, स्वगत मलका उपचय और सम्यक्चारित्ररूपी विमल जलके प्रक्षालन द्वारा जो कर्ममलपंकको दूर करनेके लिए निरन्तर उद्यतमति है उसके मलपीडासन कहा गया है।
8833. सत्कारका अर्थ पूजा-प्रशंसा है । तथा क्रिया-आरम्भ आदिकमें आगे करना या आमन्त्रण देना पुरस्कार है । इस विषयमें यह मेरा अनादर करता है। चिरकालसे मैंने ब्रह्मचर्यका पालन किया है, मैं महातपस्वी हूँ, स्वसमय और परसमयका निर्णयज्ञ हूँ, मैंने बहुत बार परवादियोंको जीता है तो भी कोई मुझे प्रणाम और भक्ति नहीं करता और उत्साहसे आसन नहीं देता, मिथ्यादृष्टि ही अत्यन्त भक्तिवाले होते हैं, कुछ नहीं जाननेवालेको भी सर्वज्ञ समझ कर आदर सत्कार करके अपने समयको प्रभावना करते हैं, व्यन्तरादिक पहले अत्यन्त उग्र तप करने वालोंकी प्रत्यग्र पूजा रचते थे यह यदि मिथ्या श्रुति नहीं है तो इस समय वे हमारे समान तपस्वियोंकी क्यों नहीं करते हैं इस प्रकार खोटे अभिप्रायसे जिसका चित्त रहित है उसके सत्कारपुरस्कारपरीषहजय जानना चाहिए।
8834, मैं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रोंमें विशारद हूँ तथा शब्दशास्त्र, न्यायशास्त्र 1. -व्यथन-- मु.। 2. --स्वेदात्तपव- मु.। 3. -लोपचयगत-- मु.। 4. संज्ञान- मु.। 5. पंकजालनिरा- मु.। 6. -स्यायते । केशलुञ्चसंस्काराभ्यामुत्पन्नखेदसहन मलसामान्यसहनेऽन्तर्भवतीति न पृथगुक्तम् । सत्कार:- मु.। 7.-दरोऽपि क्रि- मु.। 8. स्वशासनप्रभा- ता.। 9. --जयः प्रतिज्ञा- मु.।
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336] सर्वार्थसिद्धौ
[919 8 835भास्करप्रभाभिभूतखद्योतोद्योतवन्नितरां नावभासन्त इति विज्ञानमदनिरासः प्रज्ञापरिषहजयः प्रत्येतव्यः।
8835. अज्ञोऽयं न वेत्ति पशुसम इत्येवमाद्यविक्षेपवचनं सहमानस्य परमदुश्चरतपोऽनुष्ठायिनो नित्यमप्रमत्तचेतसो मेऽद्यापि ज्ञानातिशयो नोत्पद्यत इति अनभिसंदधतोऽज्ञानपरिषहजयोऽवगन्तव्यः ।
8836. परमवैराग्यभावनाशुद्धहृदयस्य विदितसकलपदार्थतत्त्वस्याहदायतनसाधुधर्मपूजकस्य चिरन्तनप्रत्र जितस्याद्यापि मे ज्ञानातिशयो नोत्पद्यते । महोपवासाद्यनुष्ठायिनां प्रातिहार्यविशेषाः प्रादुरभूवन्निति प्रलापमात्रमनथिकेयं प्रव्रज्या। विफलं व्रतपरिपालनमित्येवमसमावधानस्य दर्शनविशुद्धियोगाददर्शनपरिषहसहनमवसातव्यम् ।
6837. एवं परिषहान् असंकल्पोपस्थितान् सहमानस्यासंक्लिष्टचेतसो रागादिपरिणामास्रवनिरोधान्महान् संवरो भवति ।
6838. आह, किमिमे परिषहाः सर्वे संसारमहाटवीमतिक्रमितुमभ्युद्यतमभिद्रवन्ति उत कश्चित्प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते--अमी व्याख्यातलक्षणाः क्षुदादयश्चारित्रान्तराणि प्रति भाज्याः। नियमेन पुनरनयोः प्रत्येतव्याः
और अध्यात्मशास्त्रमें निपुण हूँ। मेरे आगे दूसरे जन सूर्यकी प्रभासे अभिभूत हुए खद्योतके उद्योतके समान बिलकुल नहीं सुशोभित होते हैं इस प्रकार विज्ञानमदका निरास होना प्रज्ञापरीषहजय जानना चाहिए।
6 835. यह मूर्ख है, कुछ नहीं जानता है, पशुके समान है इत्यादि तिरस्कारके वचनों को मैं सहन करता हूँ, मैंने परम दुश्चर तपका अनुष्ठान किया है, मेरा चित्त निरन्तर अप्रमत्त रहता है, तो भी मेरे अभी तक भी ज्ञानका अतिशय नहीं उत्पन्न हुआ है इस प्रकार विचार नहीं करनेवालेके अज्ञानपरीषजय जानना चाहिए।
836. परम वैराग्यकी भावनासे मेरा हृदय शुद्ध है, मैंने समस्त पदार्थोंके रहस्यको जान लिया है, मैं अरहन्त, आयतन, साधु और धर्मका उपासक हूँ, चिरकालसे मैं प्रव्रजित हूँ तो भी मेरे अभी ज्ञानातिशय नहीं उत्पन्न हुआ है । महोपवास आदिका अनुष्ठान करनेवालोंके प्रातिहार्य विशेष उत्पन्न हुए यह प्रलापमात्र है, यह प्रव्रज्या अनर्थक है, व्रतोंका पालन करना निरर्थक है इत्यादि बातोंका दर्शनविशुद्धिके योगसे मनमें नहीं विचार करनेवालेके अदर्शनपरिषहसहन जानना चाहिए।
8837. इस प्रकार जो संकल्पके बिना उपस्थित हुए परीषहोंको सहन करता है और जिसका चित्त संक्लेश रहित है उसके रागादि परिणामोंके आस्रवका निरोध होनेसे महान् संवर होता है।
6838. संसाररूपी महा अटवीको उल्लंघन करनेके लिए उद्यत हुए पुरुषोंको क्या ये सब परीषह प्राप्त होती हैं या कोई विशेषता है इसलिए यहाँ कहते हैं-जिनके लक्षण कह आये हैं ऐसे ये क्षुधादिक परीषह अलग-अलग चारित्रके प्रति विकल्पसे होते हैं । उसमें भी इन दोनोंमें नियमसे जानने योग्य--
1. -धवक्षेप-- मु.। -द्यविक्षेप- दि. 1,2।
2. मेऽद्यत्वेपि विज्ञा-मु.। 3.-षहान् सह- मु. ।
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-91116841] नवमोऽध्यायः
[337 सूक्ष्म सांपराय छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥10॥ 8 839. क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशय्यावधालाभरोगतृणस्पर्शमलप्रज्ञाज्ञानानि । 'चतुर्वश' इति वचनादन्येषां परिषहाणामभावो वेदितव्यः। आह युक्तं तावद्वीतरागच्छद्मस्थे मोहनीयाभावात् तत्कृतवक्ष्यमाणाष्टपरिषहाभावाच्चतुर्दशनियमवचनम् । सूक्ष्मसांपराये तु मोहो
दभावात 'चतुर्दश' इति नियमो नोपपद्यत इति? तदयक्तम; सन्मात्रत्वात । तत्र हि केवलो लोभसंज्वलनकषायोदयः सोऽप्यतिसूक्ष्मः । ततो वीतरागछद्मस्थकल्पत्वात् 'चतुर्दश' इति नियमस्तत्रापि युज्यते । ननु मोहोवयसहायाभावान्मन्दोदयत्वाच्च क्षुदादिवेदनाभावात्तस्सहनकृतपरिषहव्यपदेशो न युक्तिमवतरति । तन्न ? किं कारणम् । शक्तिमात्रस्य विवक्षितत्वात् । सर्वार्थसिद्धिवेवस्य सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यव्यपदेशवत् ।
840. आह, यदि शरीरवत्यात्मनि परिषहसंनिधानं प्रतिज्ञायते अथ भवति उत्पन्नकेवलजाने कर्मचतुष्टयफलानुभवनवशतिनि कियन्त उपनिपतन्तीत्यत्रोच्यते । तस्मिन्पुनः
___एकादश जिने ॥11॥ 8841. निरस्तघातिकर्मचतुष्टये जिने वेदनीयसद्भावात्तदाश्रया एकादशपरिषहाः संति। ननु च मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्तः ? सत्यमेवमेतत्
सूक्ष्मसाम्पराय और छद्मस्थवीतरागके चौवह परीषह सम्भव हैं॥10॥
8 839. क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान ये चौदह परीषह हैं । सूत्रमें आये हुए 'चतुर्दश' इस वचनसे अन्य परीषहोंका अभाव जानना चाहिए । शंका-वीतरागछद्मस्थके मोहनीयके अभावसे तत्कृत आगे कहे जानेवाले आठ परीषहोंका अभाव होनेसे चौदह परीषहोंके नियमका वचन तो युक्त है, परन्तु सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयका उदय होनेसे चौदह परोषह होते हैं यह नियम नहीं बनता। समाधान-यह कहना अयुक्त है, क्योंकि वहाँ मोहनीय का सद्भाव है। वहाँ पर केवल लोभसंज्वलन कषायका उदय होता है और वह भी अतिसूक्ष्म होता है, इसलिए वीतराग छद्मस्थके समान होनेसे सूक्ष्मसाम्परायमें चौदह परीषह होते हैं यह नियम वहाँ भी बन जाता है । शंकाइन स्थानोंमें मोहके उदयकी सहायता नहीं होनेसे और मन्द उदय होनेसे क्षुधादि वेदनाका अभाव है इसलिए इनके कार्यरूपसे 'परीषह' संज्ञा युक्तिको नहीं प्राप्त होती । समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ शक्तिमात्र विवक्षित है । जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवके सातवीं पृथ्वीके गमनके सामर्थ्यका निर्देश करते हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए।
8840. यदि शरीरवाले आत्मामें परीषहोंके सन्निधानकी प्रतिज्ञा की जाती है तो केवलज्ञानको प्राप्त और चार कर्मोके फलके अनुभवके वशवर्ती भगवान्के कितने परीषह प्राप्त होते हैं इसलिए यहाँ कहते हैं। उनमें तो
जिन में ग्यारह परीषह सम्भव हैं ॥11॥
8841. जिन्होंने चार घातिया कर्मोंका नाश कर दिया है ऐसे जिन भगवान्में वेदनीयकर्मका सद्भाव होनेसे तन्निमित्तक ग्यारह परीषह होते हैं। शंका-मोहनीयके उदयकी सहायता 1.देयणीयभवाए ए पन्नानाणा उ आइमे । अट्ठमंमि अलाभोत्थो छउमत्थे चोद्दस ॥'-पञ्चसं.द्वा.4, गा. 221 2. मुद्रितप्रती मोहनीयाभावाद्वक्ष्यमाणनाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्कारादर्शनानि उत्कृताष्टति पाठः । लिखितप्रतिषु च तथैव । परं नासो सम्यक् प्रतिभाति संशोधितपाठस्तु तत्त्वार्थवार्तिकपाठानुसारी इति सोऽत्र योजितः। 3. केवललोभ- मु.। 4. 'खुप्पिवासुण्हसीयाणि सेज्जा रोगो वहो मलो। तणफासो चरीया य दंसेक्कारस जोगिसु ॥' --पंचसं. द्वा. 4, गा., 22। 5. ननु मोह-मु.।
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338] सर्वार्थसिद्धौ
[91118 841वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसभावापेक्षया परिषहोपचारः क्रियते, निरवशेषनिरस्तज्ञानातिशये चिन्तानिरोधाभावेऽपि तत्फलकर्मनिहरणफलापेक्षया ध्यानोपचारवत् । अथवा-एकादश जिने 'न संति' इति वाक्यशेषः कल्पनीयः; सोपस्कारत्वात्सूत्राणाम् । “कल्प्यो हि वाक्यशेषो वाक्यं च वक्तर्यधीनम्" इत्युपगमात् । मोहोदयसहायीकृतक्षुदादि वेदनाभावात् 'न सन्ति' इति वाक्यशेषः । न होनेसे क्षुधादि वेदनाके न होनेपर परीषह संज्ञा युक्त नहीं है । समाधान--यह कथन सत्य ही है तथापि वेदनाका अभाव होनेपर भी द्रव्यकमके सदभावकी अपेक्षासे यहाँ परीषहोंका उपचार किया जाता है। जिस प्रकार समस्त ज्ञानावरणके नाश हो जानेपर एक साथ समस्त पदार्थोके रहस्यको प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानातिशयके होनेपर चिन्ता-निरोधका अभाव होनेपर भी कर्मोंके नाश रूप उसके फलकी अपेक्षा ध्यानका उपचार किया जाता है उसी प्रकार यहाँ परीपहोंका उपचारसे कथन जानना चाहिए, अथवा जिन भगवान् में ग्यारह परीषह नहीं हैं' इतना वाक्यशेष कल्पित कर लेना चाहिए क्योंकि सूत्र उपस्कारसहित होते हैं । 'वाक्य शेषकी कल्पना करनी चाहिए और वाक्य वक्ताके अधीन होता है' ऐसा स्वीकार भी किया गया है। मोहके उदयकी सहायतासे होनेवाली क्षुधादि वेदनाओंका अभाव होनेसे 'नहीं हैं' यह वाक्यशेष उपन्यस्त किया गया है।
विशेषार्थ-जिन भगवान्के असाता वेदनीयका उदय होता है और यह क्षुधादि वेदनाका कारण है इसलिए यहाँ जिन भगवानके कारणकी दष्टिसे क्षधादि ग्यारह परीषह कहे जाते हैं । पर क्या सचमुच में जिन भगवान् के क्षुधादि ग्यारह परीषह होते हैं यह एक प्रश्न है जिसका समाधान टीकामें दो प्रकारसे किया है। पहले तो जिन भगवान् के क्षुधादि परीषहोंके होनेके कारणके सद्भावकी अपेक्षा उनके उपचारसे अस्तित्वका निर्देश किया है पर कार्यरूपमें क्षुधादि ग्यारह परीषह जिन भगवान के नहीं होते इसलिए इस दृष्टि से 'न सन्ति' इस वाक्यशेषकी योजना कर वहाँ उनका निषेध किया है। अब यहाँ यह देखना है कि जिन भगवान्के क्षुधादि ग्यारह परीषह नहीं होते यह कैसे समझा जाय । वे इस काल में पाये तो जाते नहीं, इसलिए प्रत्यक्ष देखकर तो यह जाना नहीं जा सकता । एक मात्र आगमको पुष्ट करनेवाली युक्तियाँ ही शेष रहती हैं जिनके अवलम्बनसे यह बात समझो जा सकती है, अत: यहाँ उन्हीका निर्देश करते हैं---
1. केवली जिन के शरीरमें निगोद और त्रस जीव नहीं रहते। उनका क्षीणमोह गुणस्थान में अभाव होकर वे परम औदारिक शरीरके धारी होते हैं। अत: भूख, प्यास और रोगादिकका कारण नहीं रहनेसे उन्हें भूख, प्यास और रोगादिककी बाधा नहीं होती। देवोंके शरीरमें इन जीवोंके न होनेसे जो विशेषता होती है उससे अनन्तगुणी विशेषता इनके शरीरमें उत्पन्न हो जाती है । 2. श्रेणि आरोहण करने पर प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग उत्तरोत्तर अमन्तगुणा बढ़ता जाता है और अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग प्रति समय अनन्तगुणा हीन होता जाता है। इसलिए तेरहवें गुणस्थानमें होनेवाला असाता प्रकृतिका उदय इतना बलवान् नहीं होता जिससे उसे क्षुधादि कार्योंका सूचक माना जा सके। 3. असाताकी उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है, आगे नहीं होती, इसलिए उदीरणाके अभावमें वेदनीय कर्म क्षुधादिरूप कार्यका वेदन करानेमें असमर्थ है। जब कि केवली जिन के शरीरको पानी और भोजनकी ही आवश्यकता नहीं रहती तब इनके न मिलनेसे जो क्षुधा और तृषा होती है वह उनके हो ही कैसे सकती है। 1. 'कल्प्यो हि वाक्यशेषो वाक्यं वक्तर्वधीनं हि' --पा. म. भा. 1, 1, 8 । 2. -भावात् । आह मु.।
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-9112 8 843] नवमोऽध्यायः
[339 8 842. आह, यदि सूक्ष्मसांपरायादिषु व्यस्ताः परिषहाः अथ समस्ताः ताः क्वेति
'बादरसांपराये सर्वे ॥12॥ 8843. सांपरायः कषायः । बादरः सांपरायो यस्य स बादरसांपराय इति । नेवं गुणस्थानविशेषग्रहणम् । कि तहि ? अर्थनिर्देशः । तेन प्रमत्तादीनां संयतानां ग्रहणम्। तेषु हि अक्षीणकषायदोषत्वात्सर्वे संभवन्ति । कस्मिन् पुनश्चारित्रे सर्वेषां संभवः ? सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसंयमेषु प्रत्येकं सर्वेषां संभवः ।
वेदनीय कर्मका कार्य कुछ शरीरमें पानी तत्त्व और भोजन तत्त्वका अभाव करना नहीं है। वास्तव में इनका अभाव अन्य कारणोंसे होता है। हाँ, इनका अभाव होनेपर इनकी पूर्ति के लिए जो वेदना होती है वह वेदनीय कर्मका काम है। सो जब कि केवली जिन के शरीरको उनकी आवश्यकता ही नहीं रहती, तब वेदनीयके निमित्तसे तज्जनित वेदना कैसे हो सकती है ? अर्थात नहीं हो सकती । 4. केवली जिन के साताका आस्रव सदाकाल होनेसे उसकी निर्जरा भी सदाकाल होती रहती है, इसलिए जिस कालमें असाताका उदय होता है उस कालमें केवल उसका ही उदय नहीं होता, किन्तु उससे अनन्तगुणी शक्तिवाले साताके साथ वह उदयमें आता है। माना कि उस समय उसका स्वमुखेन उदय है पर वह प्रति समय बँधनेवाले साता कर्मपरमाणुओं की निर्जराके साथ ही होता है, इसलिए असाताका उदय वहाँ क्षुधादिरूप वेदनाका कारण नहीं हो सकता। 5. सूख-दुःखका वेदन वेदनीय कर्मका कार्य होने पर भी वह मोहनीयकी सहायतासे ही होता है। यतः केवली जिन के मोहनीयका अभाव होता है, अत: वहाँ क्षधादिरूप वेदनाओंका सद्भाव मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। इन प्रमाणोंसे निश्चित होता है कि केवली जिन के क्षुधादि ग्यारह परीषह नहीं होते।
6842. कहते हैं-यदि सूक्ष्मसाम्पराय आदि में अलग-अलग परीषह होते हैं तो मिलकर वे कहाँ होते हैं, यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
बादरसाम्परायमें सब परीषह सम्भव हैं ॥12॥
8 843. साम्पराय कषायको कहते हैं । जिसके साम्पराय बादर होता है वह बादरसाम्पराय कहलाता है। यह गुणस्थान विशेषका ग्रहण नहीं है । तो क्या है ? सार्थकनिर्देश है। इससे प्रमत्त आदिक संयतोंका ग्रहण होता है। इनमें कषाय और दोषोंके अथवा कषायदोषके क्षीण न होनेसे सब परीषह सम्भव हैं। शंका-तो किस चारित्रमें सब परीषह सम्भव हैं ? समाधानसामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धिसंयम इनमेंसे प्रत्येकमें सब परीषह सम्भव हैं।
विशेषार्थ-बादरसाम्पराय अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थानका दूसरा नाम है। नौंवें गुणस्थान तक स्थूल कषायका सद्भाव होता है, इसलिए अन्तदीपक न्यायसे इस गुणस्थानका
म भी बादरसाम्पराय है। यहाँ 'बादरसाम्पराय' पदसे इस गुणस्थानका ग्रहण न हो, इसीलिए टोकामें इसका निषेध किया है, क्योंकि बादरसाम्परायमें तो बाईस परीषह सम्भव हैं, बादरसाम्पराय नामक नौवें गुणस्थानमें नहीं । कारण कि इस गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयका उदय नहीं होता । दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं। उनमेंसे सम्यक्त्वमोहनीयका उदय सातवें गुणस्थान तक ही सम्भव है, क्योंकि यहीं तक वेदक सम्यक्त्व होता है, इसलिए यहाँ पर बादर1. समस्ताः क्वेति मु.। 2. 'निसेज्जा जायणाकोसो अरई इत्थिनग्गया । सक्कारो दंसणं मोहा बावीसा चेव रागिसु ॥' -पंचसं. द्वा. 4, गा. 23 1 3. अक्षीणाशयत्वात्सर्वे- आ., दि. 1, 2, ता.। 4 --संयमेष्वन्यतमे सर्वे- मु. ता.।
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340] सर्वार्थसिद्धौ
[91148844844. आह, गृहीतमेतत्परिषहाणां स्थानविशेषावधारणम्, इदं तु न विद्मः कस्याः प्रकृतेः कः कार्य इत्यत्रोच्यते
ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥13॥ 8845. इदमयुक्तं वर्तते। किमत्रायुक्तम् ? ज्ञानावरणे सत्यज्ञानपरिषह उपपद्यते, प्रजापरिवहः पुनस्तदपाये भवतीति कथं ज्ञानावरणे स्यात् ? इत्यत्रोच्यते-सायोपशमिको प्रज्ञा अन्यस्मिन् ज्ञानावरणे सति मंदं जनयति न सकलावरणक्षये इति ज्ञानावरणे सतीत्युपपद्यते। 8846. पुनरपरयोः परिषहयोः प्रकृतिविशेषनिर्देशार्थमाह
दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥14॥ 6847. यथासंख्यमभिसंबन्धः । दर्शनमोहे अदर्शनपरिषहो, लाभान्तराये अलाभपरिषह इति। साम्पराय अर्थात् स्थूल कषायमें सब परीषह सम्भव हैं यही अर्थ लेना चाहिए।
6844. कहते हैं-इन परीषहोंके स्थानविशेषका अवधारण किया, किन्तु हम यह नहीं जानते कि किस प्रकृतिका क्या कार्य है इसलिए यहाँपर कहते हैं
ज्ञानावरणके सद्भावमें प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होते हैं ॥13॥
$ 845. शंका--यह अयुक्त है ? प्रतिशंका-यहाँ क्या अयुक्त है। शंका-माना कि ज्ञानावरणके होनेपर अज्ञान परीषह उत्पन्न होता है, परन्तु प्रज्ञा परीषह उसके अभावमें होता हैं, इसलिए वह ज्ञानावरणके सद्भावमें कैसे हो सकता है ? समाधान--यहाँ कहते हैं-क्षायोपशमिकी प्रज्ञा अन्य ज्ञानावरणके होनेपर मदको उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञानावरणके क्षय होने पर नहीं, इसलिए ज्ञानावरणके होनेपर प्रज्ञा परीषह होती है यह कथन बन जाता है। - विशेषार्थ-विकल्पका अर्थ श्रुतज्ञान है, इसलिए जहाँ तक श्रुतज्ञान होता है वहां तक 'मैं अधिक जानता हूँ, यह कुछ भी नहीं जानता' ऐसा विकल्प देखा जाता है। यद्यपि इस प्रकारका विकल्प करनेवाले व्यक्तिको अधिक ज्ञानका लाभ ज्ञानावरण कर्मके प्रकृष्ट क्षयोपशमसे होता है तथापि जबतक क्षायोपशमिक ज्ञान होता है तभी तक यह विकल्प होता है और क्षायोपशमिक ज्ञान उदयसापेक्ष होता है, इसलिए यहाँ पर इस प्रकारके विकल्पका मुख्य कारण ज्ञानावरण कर्म का उदय कहा है । बहुतसे जोवोंको मोहका उदय रहते हुए भी ऐसा भाव होता है कि 'मैं महाप्राज्ञ हूँ, मेरी बराबरी करनेवाला अन्य कोई नहीं ।' पर यहाँ मोहके उदयसे होनेवाले इस भावका ग्रहण नहीं किया है। यहाँ तो अपनी अज्ञानतावश जो अल्पज्ञानको महाज्ञान माननेका विकल्प होता है उसीका ग्रहण किया है। इस प्रकार ज्ञानावरणके सदभावमें प्रज्ञा और अज्ञान दो परीषह होते हैं यह निश्चित होता है।
846..पुनः अन्य दो परीषहोंको प्रकृति विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
दर्शनमोह और अन्तरायके सद्भावमें क्रमसे अदर्शन और अलाभ परीषह होते हैं. ॥14॥
6 847. इस सूत्रमें 'यथासंख्य' पदका सम्बन्ध होता है । दर्शनमोहके सद्भावमें अदर्शन परोषह होता है और लाभान्तरायके सद्भावमें अलाभ परीषह होता है।
_ विशेषार्थ-दर्शनमोहसे यहाँ सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति ली गयी है। इसका उदय रहते हुए चल, मल और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते हैं । सम्यक्त्वके रहते हुए भी आप्त, आगम और पदार्थोके विषयमें नाना विकल्प होना चल दोष है । जिस प्रकार जलके स्वस्थ होते हुए भी उसमें वायुके निमित्तसे तरंगमाला उठा करती है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष यद्यपि अपने
परोषह होता है
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-9115 § 848]
नवमोऽध्यायः
आह, aura मोहनीयभेदे एकः परिषहः अथ द्वितीयस्मिन् कति भवन्तीत्यत्रोच्यतेचारित्रमोहे नाग्न्या रतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः ।।15। $ 848. 'वेदोदयादिनिमित्तत्वान्नाग्न्यादिपरिषहाणां मोहोदयनिमित्तत्वं प्रतिपद्यामहे । निषद्यापरिषहस्य कथम् ? तत्रापि प्राणिपीडापरिहारार्थत्वात् । मोहोदये सति प्राणिपीडापरिणामः संजायत इति ।
स्वरूपमें स्थित रहता है तथापि सम्यक्त्व मोहनीयके उदयसे आप्त, आगम और पदार्थोंके विषय में उसकी बुद्धि चलायमान होती रहती है । यही चल दोष है । मलका अर्थ मैल है । शंकादि दोषोंके निमित्तसे सम्यग्दर्शनका मलिन होना मल दोष है । यह भी सम्यक्त्व मोहनीयके उदयमें
है । तथा गाढा अर्थ स्थिर न रहना है । सम्यग्दृष्टि जीव लौकिक प्रयोजनवश कदाचित् तत्त्वसे चलायमान होने लगता है । उदाहरणार्थ - अन्य अन्यका कर्ता नहीं होता यह • सिद्धान्त है और सम्यग्दृष्टि इसे भली प्रकार जानता है, पर रागवश वह इस सिद्धान्त पर स्थिर नहीं रह पाता । कदाचित् वह पारमार्थिक कार्यको भी लौकिकप्रयोजनका प्रयोजक मान बैठता है । इस प्रकार सम्यक्त्व मोहनीयके उदयसे ये तीन दोष होते हैं । ये तीनों एक हैं फिर भी भिन्नभिन्न अभिप्रायकी दृष्टिसे यहाँ इन्हें पृथक्-पृथक् रूपसे परिगणित किया है । प्रकृतमें इसी दोषको ध्यान में रखकर अदर्शन परीषहका निर्देश किया है । यह दर्शनमोहनीयके उदयसे होता है, इसलिए इसे दर्शनमोहनीयका कार्य कहा है । भोजनादि पदार्थोंका न प्राप्त होना अन्य बात है पर भोजनादि पदार्थों के न मिलने पर जिसके 'अलाभ' परिणाम होता है उसका वह परिणाम लाभान्तराय कर्मका कार्य होनेसे अलाभको लाभान्तराय कर्मका कार्य कहा है । परके लाभको स्वका लाभ मानना मिथ्यात्व दर्शनमोहनीयका कार्य है, इसलिए यहाँ इसकी विवक्षा नहीं है । यहाँ तो अलाभ परिणाम किसके उदयमें होता है इतना ही विचार किया है । इसप्रकार अदर्शनभाव मोहनीय कर्मका और अलाभभाव लाभान्तराय कर्मका कार्य है यह निश्चित होता है ।
कहते हैं--यदि आदिके मोहनीयके भेदके होनेपर एक परीषह होता है तो दूसरे भेदके होने पर कितने परीषह होते हैं, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
चारित्रमोहके सद्भावमें नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कारपुरस्कार परीषह होते हैं ॥15॥
8848. शंका - नाग्न्यादि परीषह पुवेदोदय आदिके निमित्तसे होते हैं, इसलिए मोहोदयको उनका निमित्त कहते हैं पर निषद्यापरीषह मोहोदय के निमित्तसे कैसे होता है ? समाधान - उसमें भी प्राणिपीड़ाके परिहारको मुख्यता होनेसे वह मोहोदयनिमित्तक माना गया है, क्योंकि मोहोदय होनेपर प्राणिपीड़ारूप परिणाम होता है ।
विशेषार्थ -आगे चर्या और शय्याको वेदनीयनिमित्तक कहा है और यहाँ निषद्याको मोहनीयनिमित्तक । ये तोनों परीषह एक श्रेणीके I । फिर क्या कारण है कि इनमें से निषद्याको महोदय निमित्तक कहा है। यदि चर्या और शय्या परीषह वेदनीयनिमित्तक होते हैं तो इसे वेदनीयनिमित्तक क्यों नहीं माना जाता । यह एक प्रश्न है जिसका उत्तर टीकामें दिया है । वहाँ बतलाया है कि प्राणिपीड़ारूप परिणाम मोहोदय से होता है और निषद्याप रीषहजय में इस प्रकारके परिणामपर विजय पानेकी मुख्यता है । यही कारण है कि निषद्याको चारित्रमोहनिमित्तक माना है। माना कि इस विवक्षासे चर्या और शय्या परीषहको भी मोहोदयनिमित्तक मान सकते थे पर वहाँ कण्टकादिकके निमित्तसे होनेवाली वेदनाकी मुख्यता करके उक्त दोनों परीषह वेदनीयनिमित्तक कहें हैं । तात्पर्य यह है कि चर्या, शय्या और निषद्या इनमें प्राणिपीड़ा और
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342] सर्वार्थसिद्धी
[9116 8498849. अवशिष्टपरिषहप्रकृतिविशेषप्रतिपादनार्थमाह
वेदनीये शेषाः ॥16॥ 8850. उक्ता एकादश परिषहाः । तेभ्योऽन्ये शेषाः वेदनीये सति 'भवन्ति' इति वाक्यशेषः । के पुनस्ते ? क्षुत्पिपासाशीतोष्णवंशमशकचर्याशय्यावधरोगतृणस्पर्शमलपरिषहाः।
8851. आह, व्याख्यातनिमित्तलक्षणविकल्पाः प्रत्यात्मनि प्रादुर्भवन्तः कति युगपदवतिष्ठन्त इत्यत्रोच्यते
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नकोनविंशतः ॥17॥ 8852. आङभिविध्यर्थः । तेन एकोनविंशतिरपि क्वचित् युगपत्संभवतीत्यवगम्यते । तत्कथम? इति चेदच्यते-शीतोष्णपरिषहयोरेकः शय्यानिषद्याचर्याणां चान्यतम एव भवति एकस्मिन्नात्मनि । कृतः? विरोधात् । तत्त्रयाणामपगमे युगपदेकात्मनीतरेषां संभवादेकोनविंशतिविकल्पा बोद्धव्याः । ननु प्रज्ञाज्ञानयोरपि विरोधाधुगपदसंभवः ? श्रुतज्ञानापेक्षया प्रज्ञापरिषहः कण्टकादिनिमित्तक वेदना ये दोनों कार्य सम्भव हैं । इसलिए इन दोनों कार्योंका परिज्ञान कराने के लिए निषद्याको मोहनिमित्तक और शेष दोको. वेदनीयनिमित्तक कहा है।
849. अब अवशिष्ट परीषहोंकी प्रकृति विशेषका कथन करनेकेलिए आगेका सूत्र कहते हैं
बाकीके सब परीषह वेदनीयके सद्भावमें होते हैं ॥16॥
8850 ग्यारह परीषह पहले कह आये हैं। उनसे अन्य शेष परीषह हैं। वे वेदनीयके सदभाव में होते हैं। यहाँ 'भवन्ति' यह वाक्यशेष है। शंका-वे कौन-कौन हैं ? समाधान-क्षधा, पिपासा, शीत. उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मलपरीषह।
विशेषार्थ-शरीरमें भोजनका कम होना, पानीका कम होना, कण्ठका सूखना, ऋतुमें ठण्डी या गरमीका होना, डांस-मच्छरका काटना, गमन व शयन करते समय कण्टक आदिका चुभना, किसीके द्वारा मारना, गाली-गलौज करना, शरीरमें रोगका होना, तिनका आदिका चुभना और शरीरमें मलका जमा होना आदि अपने-अपने कारणोंसे होते हैं। इनका कारण वेदनीय कर्मका उदय नहीं है पर इन कामोंके होने पर भूखकी वेदना होती है, प्यास लगती है आदि वह वेदनीय कर्मका कार्य है । ऐसा यहाँ अभिप्राय समझना चाहिए। . 851. कहते हैं, परीषहों के निमित्त, लक्षण और भेद कहे । प्रत्येक आत्मामें उत्पन्न होते हुए वे एक साथ कितने हो सकते हैं, इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
एक साथ एक आत्मामें एकसे लेकर उन्नीस तक परीषह विकल्पसे हो सकते हैं ॥17॥
8852. यहाँ 'आङ्' अभिविधि अर्थ में आया है। इससे किसी एक आत्मा में एक साथ उन्नीस भी सम्भव हैं यह ज्ञात होता है। शंका-यह कैसे ? समावान-एक आत्मामें शीत और उष्ण परीषहोंमें-से कोई एक तथा शय्या, निषद्या और चर्या इनमें से कोई एक परीषह ही होते हैं, क्योंकि शीत और उष्ण इन दोनोंके तथा शय्या, निषद्या और चर्या इन तीनोंके एक साथ होने में विरोध आता है। इन तीनोंके निकाल देनेपर एक साथ एक आत्मामें इतर परीषह सम्भव होनेसे वे सब मिलकर उन्नीस परीषह जानना चाहिए । शंका-प्रज्ञा और अज्ञान परीषहमें भी विरोध है, इसलिए इन दोनों का एक साथ होना असम्भव है ? समाधान- एक साथ एक आत्मामें श्रुत1.--चर्याणामन्यतम मु.। 2. कल्पो बोद्धव्यो । ननु आ., दि. 2।
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9118 § 854]
नवमोऽध्यायः
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अवधिज्ञाना' द्यभावापेक्षया अज्ञानपरिषह इति नास्ति विरोधः ।
8853. आह, उक्ता गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयाः संवर हेतवः पञ्च । संव रहेतुचारित्रसंज्ञो वक्तव्य इति तद्भेदप्रदर्शनार्थमुच्यते-
सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्म सांप राययथाख्यातमिति
चारित्रम् ॥18॥
$ 854. अत्र चोद्यते - दशविधे धर्मे संयम उक्तः स एव चारित्रमिति पुनर्ग्रहणमनर्थकमिति ? नानर्थकम् ; धर्मेऽन्तर्भूतमपि चारित्रमन्ते गृह्यते मोक्षप्राप्तेः साक्षात्कारणमिति ज्ञापनार्थम् । सामायिकमुक्तम् । क्व ? 'दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक - ' इत्यत्र । तद् द्विविधं नियत कालमनियतकालं च । स्वाध्यायादि नियतकालम् । ईर्यापथाद्यनियतकालम् । प्रमादकृतानर्थ प्रबन्धविलोपे सम्यक्प्रतिक्रिया छेदोपस्थापना विकल्पनिवृत्तिर्वा । परिहरणं परिहारः प्राणिवधन्निवृत्तिः । तेन विशिष्टा शुद्धिर्य स्मिस्तत्परिहारविशुद्धिचारित्रम् । अतिसूक्ष्मकषायत्वात्सूक्ष्मसांपरायचारित्रम् । मोहनीयस्य निरवशेषस्योपशमात्क्षयाच्च आत्मस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं अथाख्यात चारित्रमित्याख्यायते । पूर्वचारित्रानुष्ठायिभिराख्यातं न तत्प्राप्तं प्राङ्मोहक्षयोपशमाभ्यामित्यथाख्यातम् । अथशब्दस्यानन्त' र्यार्थ वृत्तित्वान्निरवशेषमोहक्षयोपशमानन्तरमाविर्भवतीत्यर्थः ' ।
ज्ञानकी अपेक्षा प्रज्ञा परीषह और अवधिज्ञान आदिके अभावकी अपेक्षा अज्ञान परीषह रह सकते हैं, इसलिए कोई विरोध नहीं है ।
8853. कहते हैं, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषहजय ये पाँच संवरके हेतु कहे । अब चारित्रसंज्ञक संवरका हेतु कहना चाहिए, इसलिए उसके भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और ययाख्यात यह पाँच प्रकारका चारित्र है ॥18॥
8854. शंका- दश प्रकारके धर्म में संयमका कथन कर आये हैं और वह ही चारित्र है, इसलिए उसका फिरसे ग्रहण करना निरर्थक है ? समाधान - निरर्थक नहीं है, क्योंकि धर्ममें अन्तर्भाव होनेपर भी चारित्र मोक्ष प्राप्तिका साक्षात् कारण है यह दिखलानेके लिए उसका अन्तमें ग्रहण किया है। सामायिकका कथन पहले कर आये हैं । शंका- कहाँ पर ? समाधान'दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक' - इस सूत्रका व्याख्यान करते समय । वह दो प्रकारका हैनियतकाल और अनियतकाल । स्वाध्याय आदि नियतकाल सामायिक है और ईर्यापथ आदि अनियतकाल सामायिक है । प्रमादकृत अनर्थप्रबन्धका अर्थात् हिंसादि अव्रतोंके अनुष्ठानका विलोप अर्थात् सर्वथा त्याग करनेपर जो भले प्रकार प्रतिक्रिया अर्थात् पुनः व्रतोंका ग्रहण होत है वह छेदोपस्थापना चारित्र है । अथवा विकल्पोंकी निवृत्तिका नाम छेदोपस्थापनाचारित्र है प्राणिवधसे निवृत्तिको परिहार कहते हैं। इससे युक्त शुद्धि जिस चारित्र में होती है वह परिहारविशुद्धि चारित्र है । जिस चारित्रमें कषाय अतिसूक्ष्म हो जाता है वह सूक्ष्मसाम्परायचारित्र है। समस्त मोहनीय कर्मके उपशम या क्षयसे जैसा आत्माका स्वभाव है उस अवस्थास्वरूप अपेक्षा लक्षण जो चारित्र होता है वह अथाख्यातचारित्र कहा जाता है। पूर्व चारित्रका अनुष्ठान करने वालोंने जिसका कथन किया है पर मोहनीय के क्षय या उपशम होनेके पहले जिसे प्राप्त नहीं किया, 1. -- ज्ञानापेक्षया मु. 1 2. कालंच । प्रमा-- ता. । 3. -- नन्तरार्थवर्ति-- मु., ता. । 4. त्यर्थः । तथा-- मु., ता., ना. ।
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344)
सर्वार्थसिद्धों
[9118 § 855
'ययाख्यातम्' इति वा ययात्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात् । 'इति' शब्दः परिसमाप्तौ द्रष्टव्यः । ततो यथाख्यातचारित्रात्सकलकर्मक्षयपरिसमाप्तिर्भवतीति ज्ञाप्यते । सामायिकादीनामानुपूर्व्यवचनमुत्तरोत्तरगुणप्रकर्ष ' ख्यापनार्थं क्रियते ।
8855. आह, उक्तं चारित्रम् । तदनन्तरमुद्दिष्टं यत् 'तपसा निर्जरा च' इति तस्येदानीं इसलिए उसे अथाख्यात कहते हैं । 'अथ' शब्द 'अनन्तर' अर्थवर्ती होनेसे समस्त मोहनीय कर्मके क्षय या उपशमके अनन्तर वह आविर्भूत होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अथवा इस चारित्रका एक नाम यथाख्यात भी है । जिस प्रकार आत्माका स्वभाव अवस्थित है उसी प्रकार यह कहा गया है, इसलिए इसे यथाख्यात कहते हैं । सूत्रमें आया हुआ 'इति' शब्द परिसमाप्ति अर्थ में जानना चाहिए। इसलिए इससे यथाख्यात चारित्र से समस्त कर्मोके क्षयकी परिसमाप्ति होती है यह जाना जाता है । उत्तरोत्तर गुणोंके प्रकर्षका ख्यापन करनेके लिए सामायिक, छेदोस्थापना इत्यादि क्रमसे इनका नामनिर्देश किया है ।
विशेषार्थ-चारित्र यह एक प्रकारका होकर भी उसके पाँच भेद विवक्षाविशेषसे किये गये हैं । सामायिक में सर्वसावद्यकी निवृत्तिरूप परिणाम की मुख्यता है । छेदोपस्थापना में चारित्र लगनेवाले दोषोंके परिमार्जनकी मुख्यता है । परिहारविशुद्धि चारित्र ऐसे संयतके होता है ज तीस वर्षतक गृहस्थ अवस्था में सुखपूर्वक बिताकर संयत होनेपर तीर्थंकर पादमूलकी परिचर्या करते हुए आठ वर्ष तक प्रत्याख्यानपूर्व का अध्ययन करता है। यह जन्तुओंकी रक्षा कैसे करनी चाहिए, वे किस द्रव्यके निमित्तसे किस क्षेत्र और किस कालमें विशेषतः उत्पन्न होते हैं, जीवोंकी योनि और जन्म कितने प्रकार के होते हैं इत्यादि बातोंको भले प्रकार जानता है । यह प्रमादरहित, महाबलशाली, कर्मोकी महानिर्जरा करनेवाला और अति 'दुष्कर चर्याका अनुष्ठान करनेवाला होता है । तथा यह तीनों संध्याकालोंको छोड़कर दो कोस गमन करनेवाला होता है । इन सब कारणों से इस संयतके ऐसो सामर्थ्य उत्पन्न होती है जिसके बलसे यह अन्य जीवोंको बाधा पहुँचाये बिना चर्या करनेमें समर्थ होता है। सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्रका अर्थ स्पष्ट ही है । इस प्रकार विवक्षाभेदसे एक चारित्र पाँच प्रकारका कहा गया है ।
इनसे से सामायिक और छेदोपस्थापनाकी जघन्य विशुद्धिलब्धि सबसे अल्प होती है । इससे परिहारविशुद्धि चारित्रकी जघन्य विशुद्धिलब्धि अनन्तगुणी होती है। इससे इसीकी उत्कृष्ट विशुद्धिलब्धि अनन्तगुणी होती है। इससे सामायिक और छेदोपस्थापनाकी उत्कृष्ट विशुद्धिलब्धि अनन्तगुणी होती है। इससे सूक्ष्मसाम्पराय चारित्रकी जघन्य विशुद्धिलब्धि अनन्तगुणी होती हैं । इससे इसकी उत्कृष्ट विशुद्धिलब्धि अनन्तगुणी होती है । इससे यथाख्यात चारित्रकी विशुद्धिलब्धि एक प्रकारकी होकर भी अनन्तगुणी होती है। यही कारण है कि सूत्रमें सामायिक छेदोपस्थापना इत्यादि क्रमसे इन पाँचोंका नाम निर्देश किया है। पहले दस प्रकारके धर्मका निर्देश करते समय संयमधर्म कह आये हैं, इसलिए चारित्रका अन्तर्भाव उसमें हो जानेके कारण यहाँ इसका अलग से कथन करनेकी आवश्यकता नहीं होती है फिर भी समस्त कर्मका क्षय चारित्रसे होता है यह दिखलानेके लिए यहाँ चारित्रका पृथक्रूपसे व्याख्यान किया है ।
8855. कहते हैं, चारित्रका कथन किया। संवरके हेतुओंका निर्देश करनेके बाद 'तपसा निर्जरा च' यह सूत्र कहा है, इसलिए यहाँ तपका विधान करना चाहिए, अतः यहाँ 1. - कर्षज्ञापनार्थम् मु. 1
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-91198 857] नवमोऽध्यायः
[345 तपसो विधानं कर्तव्यमित्यत्रोच्यते । तद् द्विविधं बाह्यमाभ्यन्तरं च । तत्प्रत्येकं षड्विधम् । तत्र बाहाभेवप्रतिपत्त्यर्थमाह। अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा
बाह्य तपः ॥19॥ ६856. दृष्टफलानपेक्षं संयमप्रसिद्धिरागोच्छेदकर्मविनाशध्यानागमावाप्त्यर्थमनशनम् । संयमप्रजागरदोषप्रशमसंतोषस्वाध्यायादिसूखसिदध्यर्थमवमौदर्यम । भिक्षाथिनो मुनेरेकागारादिविषयः संकल्पः चिन्तावरोधो वृत्तिपरिसंख्यानमाशानिवृत्त्यर्थमवगन्तव्यम् । इन्द्रियदर्पनिग्रहनिद्राविजयस्वाध्यायसुखसिध्या द्यर्थो घृतादिवृष्यरसपरित्यागश्चतुर्थं तपः । शून्यागाराविष विविक्तेषु जन्तुपीडाविरहितेषु संयतस्य शय्यासनमाबाधात्ययब्रह्मचर्यस्वाध्यायध्यानादिप्रसिद्ध्यर्य कर्तव्यमिति पंचमं तपः। आतपस्थानं वृक्षमूलनिवासो निरावरणशयनं बहुविधप्रतिमास्थानमित्येवमाविः कायक्लेशः तत् षष्ठं तपः। तत्किमर्थम् ? देहदुःखतितिक्षासुखानभिष्वङ्गप्रवचनप्रभावनाद्यर्थम् । परिषहस्यास्य च को विशेषः ? यदृच्छयोपनिपतितः परिषहः। स्वयंकृतः कायक्लेशः। बाह्यत्वमस्य कुतः ? बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् ।
8857. आभ्यन्तरतपोभेदप्रदर्शनार्थमाहकहते हैं-वह दो प्रकारका है-बाह्य और आभ्यन्तर । उसमें भी यह प्रत्येक छह प्रकारका है। उनमें से पहले बाह्य तपके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकारका बाह्य तप है॥19॥
8856. दृष्टफल मन्त्र साधना आदिकी अपेक्षा किये बिना संयमकी सिद्धि, रागका उच्छेद, कर्मोंका विनाश, ध्यान और आगमकी प्राप्तिके लिए अनशन तप किया जाता है। संयमको जागृत रखने, दोषोंके प्रशम करने, सन्तोष और स्वाध्याय आदिकी सुखपूर्वक सिद्धिके लिए अवमौदर्य तप किया जाता है । भिक्षाके इच्छुक मुनिका एक घर आदि विषयक संकल्प अर्थात् चिन्ताका अवरोध करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है । आशाकी निवृत्ति इसका फल जानना चाहिए। इन्द्रियोंके दर्पका निग्रह करनेके लिए, निद्रापर विजय पानेके लिए और सुखपूर्वक स्वाध्यायकी सिद्धिके लिए घृतादि गरिष्ठ रसका त्याग करना चौथा तप है । एकान्त, जन्तुओंकी पीड़ासे रहित शून्य घर आदिमें निर्बाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदिकी प्रसिद्धिके लिए संयतको शय्यासन लगाना चाहिए। यह पाँचवाँ तप है । आतापनयोग, वृक्षके मूलमें निवास, निरावरण शयन और नाना प्रकारके प्रतिमास्थान इत्यादि करना कायक्लेश है. यह बात है। यह किसलिए किया जाता है ? यह देह-दुःखको सहन करनेके लिए, सुखविषयक आसक्तिको कम करनेके लिए और प्रवचनकी प्रभावना करनेके लिए किया जाता है। शंका-परीषह और कायक्लेशमें क्या अन्तर है ? समाधान-अपने आप प्राप्त हुआ परीषह और स्वयं किया गया कायक्लेश है, यही इन दोनोंमें अन्तर है । शंका-इस तपको बाह्य क्यों कहते हैं ? समापान-यह बाह्य-द्रव्यके आलम्बनसे होता है और दूसरोंके देखनेमें आता है, इसलिए इसे बाह्य तप कहते हैं।
6857. अब आभ्यन्तर तपके भेदोंको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं1.-गरणदोष-आ., दि. 1, दि. 2, ना.। 2. --विषयसंकल्पचित्ताव-- ता., मु.। -विषयः संकल्पचिन्तावदि. 1, दि. 21 3. सिद्धयर्थो मु., दि. 2। 4. --क्लेशः षष्ठं मु. ता.।
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346] सर्वार्थसिद्धौ
[9120 $ 858-- प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥20॥
8858. कथमस्याभ्यन्तरत्वम् ? मनोनियमनार्थत्वात् । प्रमावदोषपरिहारःप्रायश्चित्तम् । पूज्येष्वादरो विनयः । कायचेष्टया द्रव्यान्तरेण चोपासनं वैयावृत्त्यम् । ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः । आत्मात्मीयसंकल्पत्यागो व्युत्सर्गः। चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम् । 8859. तभेदप्रतिपादनार्थमाह
नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदा यथाक्रमं प्रारध्यानात् ॥21॥ 8860. 'यथाक्रमम्' इति वचनान्नवभेदं प्रायश्चितम्, विनयश्चतुर्विधः, वैयावृत्त्यं दशविधम्, स्वाध्यायः पञ्चविधः, द्विभेदो व्युत्सर्ग इत्यभिसंबध्यते । 'प्राग्ध्यानात्' इति वचनं ध्यानस्य बहुवक्तव्यत्वात्पश्चाद्वक्ष्यत इति।
8861. आद्यस्य भेदस्वरूपनिर्ज्ञानार्थमाह
पालोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥22॥
8862. तत्र गुरवे प्रमादनिवेदनं दशदोषविजितमालोचनम् । मिथ्यादुष्कृताभिधानादभिव्यक्तप्रतिक्रियं प्रतिक्रमणम् । [तदुभय] संसर्गे सति विशोधनात्तदुभयम् । संसक्तान्नपानोप
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह प्रकारका आभ्यन्तर तप है ॥20॥
8858. शंका-इसे आभ्यन्तर तप क्यों कहते हैं ? समाधान-मनका नियमन करनेवाला होनेसे इसे आभ्यन्तर तप कहते हैं । प्रमादजन्य दोषका परिहार करना प्रायश्चित्त तप है। पूज्य पुरुषोंका आदर करना विनय तप है । शरीरकी चेष्टा या दूसरे द्रव्यद्वारा उपासना करना वैयावृत्त्य तप है। आलस्यका त्यागकर ज्ञानकी आराधना करना स्वाध्याय तप है। अहंकार और ममकाररूप संकल्पका त्याग करना व्युत्सर्ग तप है, तथा चित्तके विक्षेपका त्याग करना ध्यान तप है।
8859. अब इनके भेदोंको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंध्यानसे पूर्वके आभ्यन्तर तपोंके अनुक्रमसे नौ, चार, दश, पांच और दो भेद है ॥21॥
8860. सूत्रमें 'यथाक्रमम्' यह वचन दिया है। इससे प्रायश्चित्त नौ प्रकारका है, विनय चार प्रकारका है, वैयावृत्त्य दश प्रकारका है, स्वाध्याय पाँच प्रकारका है और व्युत्सर्ग दो प्रकारका है ऐसा सम्बन्ध होता है । सूत्रमें-'प्राग्ध्यानात्' यह वचन दिया है, क्योंकि ध्यानके विषयमें बहुत कुछ कहना है, इसलिए उसका आगे कथन करेंगे।
861. अब पहले आभ्यन्तर तपके भेदोंके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
____ आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना यह नव प्रकारका प्रायश्चित्त है ॥22॥
8862. गुरुके समक्ष दश दोषोंको टालकर अपने प्रमादका निवेदन करना आलोचना है। 'मेरा दोष मिथ्या हो' गुरुसे ऐसा निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण है । आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनोंका संसर्ग होनेपर दोषोंका शोधन होनेसे तदुभय प्रायश्चित्त है । संसक्त हुए अन्न, पान और उपकरण आदिका विभाग करना विवेक प्रायश्चित्त है। 1. --रेण वोप- ता.। 2. द्विविधो व्युत्स- । 3. -लोचनम् । आकपिय अणुमाणिय जं दिळं बादर च सुहम च । छह सद्दाउलियं बहजण अव्वत्त सस्सेवि ।। इति दश दोषाः। मिथ्या- मु.।
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-9122 8862] नवमोऽध्यायः
[347 करणादिविभजनं विवेकः । कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः । अनशनावमौदर्यादिलक्षणं तपः । दिवसपक्षमासादिना प्रव्रज्याहापनं छेदः । पक्षमासादिविभागेन दूरतः परिवर्जन परिहारः। पुनर्दीक्षाप्रापवमुपल्यापना। कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है । अनशन, अवमौदर्य आदि करना तप प्रायश्चित्त है। दिवस, पक्ष और महीना आदिकी प्रव्रज्याका छेद करना छेदप्रायश्चित्त है । पक्ष, महीना आदिके विभागसे संघसे दूर रखकर त्याग करना परिहारप्रायश्चित्त है। पुनः दीक्षाका प्राप्त करना उपस्थापना प्रायश्चित्त है।
विशेषार्थ-यहाँ प्रायश्चित्तके नौ भेद गिनाये हैं। प्रायः शब्दका अर्थ साधुलोक है। उसका जिस कर्ममें चित्त होता है वह प्रायश्चित्त कहलाता है। अथवा प्रायः शब्दका अर्थ अपराध है और चित्त शब्दका अर्थ शुद्धि है, इसलिए प्रायश्चित्तका अर्थ अपराधोंका शोधन करना होता है। ये ही वे नौ भेद हैं जिनके द्वारा साधु दोषोंका परिमार्जन करता है। पहला भेद आलोचना है । आलोचना इन दश दोषोंसे रहित होकर की जाती है । दश दोष यथा-उपकरण देनेपर मुझे लघु प्रायश्चित्त देंगे ऐसा विचारकर उपकरण प्रदान करना यह प्रथम आलोचना दोष है । मैं प्रकृतिसे दुर्बल हूँ, ग्लान हूँ, उपवास आदि नहीं कर सकता। यदि लघु प्रायश्चित्त दें तो दोष कहूँगा ऐसा कहना दूसरा दोष है । अन्य अदृष्ट (गुप्त) दोषोंको छिपा कर प्रकाशमें आये हुए दोषका निवेदन करना तीसरा मायाचार दोष है । आलस्यवश या प्रमादवश अपने अपराधोंकी जानकारी प्राप्त करनेमें निरुत्सुक होनेपर स्थूल दोष कहना चौथा दोष है । महा दुश्चर प्रायश्चित्तके भयसे महादोष छिपा कर उससे हलके दोषका ज्ञान कराना पांचर्चा दोष है। व्रतमें इस प्रकार दोष लगनेपर हमें क्या प्रायश्चित्त करना पड़ेगा इस विधिसे गुरुकी उपासना करना छठा दोष है.। पाक्षिक और चातुर्मासिक आदि क्रिया कर्मके समय बहुत साधुओं द्वारा किये जानेवाले आलोचनाजन्य शब्दोंसे प्रदेशके व्याप्त होनेपर पूर्व दोष कहना सातवां दोष है। गुरुद्वारा दिया हुआ प्रायश्चित्त क्या युक्त है, आगममें इसका विधान है या नहीं इस प्रकारकी शंका अन्य साधके समक्ष प्रकट करना आठवाँ दोष है। किसी प्रयोजनवश अपने समान साधुके समक्ष दोष कह कर प्रायश्चित्त लेना नौवाँ दोष है। इस विधि से लिया हुआ बड़ासे बड़ा प्रायश्चित्त भी फलदायक नहीं होता। मेरा दोष इसके अपराधके समान है। इसे यह भी जानता है। इसे जो प्रायश्चित्त मिलेगा वह मुझे भी यूक्त है इस प्रकार अपने दोषको छिपाना दसवाँ दोष है।
___ अन्यत्र इन दश दोषोंके आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी ये नाम आये हैं। प्रायश्चित्तका दूसरा भेद प्रतिक्रमण है। मेरा दोष मिथ्या हो ऐसा निवेदन करना प्रतिक्रमण है । यह शिष्य करता है और गुरुके द्वारा जो आलोचनापूर्वक प्रतिक्रमण किया जाता है वह तदुभय कहलाता है । यह प्रायश्चित्तका तीसरा भेद है। आगे के प्रायश्चित्तोंके जिनके जो नाम हैं तदनुसार उनका स्वरूप है । यहाँ प्रायश्चित्त के ये नौ भेद कहे हैं, किन्तु मुलाचारमें इसके आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्यूत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान इस प्रकार दस भेद किये हैं । टीकाकारने इनका स्पष्टीकरण करते समय मूलका वही अर्थ किया है जो यहाँ उपस्थापनाका किया गया है । तथा मानसिक दोषके होनेपर उसके परिमार्जनके लिए मेरा दोष मिथ्या हो ऐसा अभिव्यक्त करनेको श्रद्धान नामका प्रायश्चित्त बतलाया है।
1.-मासादीनां प्रव-मु.। 2. परिवर्जनीयं परि-
आ.।
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348] सर्वार्थसिद्धौ
[9123 6 8638863. विनयविकल्पप्रतिपत्त्यर्थमाह
ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः॥23॥ 8864. 'विनयः' इत्यधिकारेणाभिसंबन्धः क्रियते । ज्ञानविनयो वर्शनविनयश्चारित्रविनय उपचारविनयश्चेति । सबहमानं मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणाविर्तानविनयः। शंकाविदोषविरहितं तत्त्वार्थश्रद्धानं दर्शनविनयः । तद्वतश्चारित्रे समाहितचित्तता चारित्रविनयः । प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनाञ्जलिकरणादिरुपचारविनयः । परोक्षेष्वपि कायवाङ्मनोऽभिरंजलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः ।
8865. वैयावृत्त्यभेदप्रतिपादनार्थमाह
आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम् ॥24॥
8866. वैयावृत्त्यं दशधा भिद्यते । कुतः ? विषयभेदात् । आचार्यवैयावृत्त्यमुपाध्यायवैयावृत्त्यमित्यादि । तत्र आचरन्ति तस्माद् व्रतानीत्याचार्यः। मोक्षार्थ शास्त्रमुपेत्य तस्मावधीयत इत्युपाध्यायः । महोपवासाद्यनुष्ठायी तपस्वी। शिक्षाशीलः शैक्षः। रजादिक्लिष्टशरीरो ग्लानः । गणः स्थविरसंततिः । दीक्षकाचार्य शिष्यसंस्त्यायः कुलम् । चातुर्वर्ण श्रमणनिवहः संघः। चिरप्रत्रजितः साधुः। मनोज्ञो लोकसंमतः । तेषां व्याधिपरिषहमिथ्यात्वाद्युपनिपाते कायचेष्टया द्रव्या
६ 863. विनयके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय यह चार प्रकारका विनय है ॥23॥
8 864. अधिकारके अनुसार 'विनय' इस पदका सम्बन्ध होता है—ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय । बहत आदरके साथ मोक्षके लिए ज्ञानका ग्रहण करना, उसका अभ्यास करना और स्मरण करना आदि ज्ञानविनय है। शंकादि दोषोंसे रहित तत्त्वार्थका श्रद्धान करना दर्शनविनय है । सम्यग्दृष्टिका चारित्रमें चित्तका लगना चारित्रविनय है तथा आचार्य आदिकके समक्ष आनेपर खड़े हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार करना आदि उपचारविनय है तथा उनके परोक्षमें भी काय, वचन और मनसे नमस्कार करना, उनके गुणोंका कीर्तन करना और स्मरण करना आदि उपचारविनय है।
8865. अब वैयावृत्त्यके,भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इनको वैयावत्यके भेदसे वैयावत्य दश प्रकारका है॥24॥
8866. वैयावृत्त्यके दश भेद हैं, क्योंकि उसका विषय दश प्रकारका है। यथा--आचार्यवैयावृत्त्य और उपाध्याय-वैयावृत्त्य आदि । जिसके निमित्तसे व्रतोंका आचरण करते हैं वह आचार्य कहलाता है । मोक्षके लिए पास जाकर जिससे शास्त्र पढ़ते हैं वह उपाध्याय कहलाता है। महोपवास आदिका अनुष्ठान करनेवाला तपस्वी कहलाता है। शिक्षाशील शैक्ष कहलाता है। रोग आदिसे क्लान्त शरीरवाला ग्लान कहलाता है । स्थविरोंकी सन्ततिको गण कहते हैं । दीक्षकाचार्यके शिष्यसमुदायको कुल कहते हैं । चार वर्णके श्रमणोंके समुदायको संघ कहते हैं । चिरकालसे प्रवजितको साधु कहते हैं । लोकसम्मत साधुको मनोज्ञ कहते हैं। इन्हें व्याधि होनेपर, परीषहके होनेपर व मिथ्यात्व आदिके प्राप्त होनेपर शरीरकी चेष्टा द्वारा या अन्य द्रव्यद्वारा 1. तत्त्वतश्चा - मु.. 2. --रन्ति सस्या-- आ., दि. 1, दि. 2, ता., ना.। 3. 'उपेत्याधीयते तस्मादु. पाध्यायः।' -पा. म, भा. 3, 3, 111 4. --संस्त्ययः मु.। 5. चातुर्वर्ण्यश्र- मु.।
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-91268 870] नवमोऽध्यायः
[349 न्तरेण वा तत्प्रतीकारो वैयावृत्त्यं समाध्या धानविचिकित्साभावप्रवचनवात्सल्याद्यभिव्यक्त्यर्थम् । 5867. स्वाध्यायविकल्पविज्ञानार्थमाह
वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ।।25।। 8868. निरवद्यग्रन्थार्थोभयप्रदानं वाचना । संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा परानुयोगः प्रच्छना । अधिगतार्थस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा। घोषशद्धं परिवर्तनमाम्नायः । धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेशः । स एष पञ्चविधः स्वाध्यायः किमर्थः ? प्रज्ञातिशयः प्रशस्ताध्यवसायः परमसंवेगस्तपोवृद्धिरतिचारविशुद्धिरित्येवमाद्यर्थः । 8869. व्युत्सर्गभेदनिर्जानार्थमाह -
___ बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ॥26॥ 8870. व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्यागः। स द्विविधः-बाह्योपधित्यागोऽभ्यन्तरोपधित्यागश्चेति । अनुपात्तं वास्तुधनधान्यादि बाह्योपधिः । क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यन्तरोपधिः कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वाभ्यन्तरोपधित्याग इत्युच्यते। स किमर्थः ? निस्सङ्गत्वनिर्भयत्वजीविताशाव्युदासाद्यर्थः। उनका प्रतीकार करना वैयावृत्त्य तप हैं । यह समाधिकी प्राप्ति, विचिकित्साका अभाव और प्रवचनवात्सल्यकी अभिव्यक्तिके लिए किया जाता है।
8867. स्वाध्यायके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश यह पाँच प्रकारका स्वाध्याय है ॥25॥
8868. ग्रन्थ, अर्थ और दोनोंका निर्दोष प्रदान करना वाचना है। संशयका उच्छेद करनेके लिए अथवा निश्चित बलको पुष्ट करनेके लिए प्रश्न करना प्रच्छना है । जाने हुए अर्थका मदमें अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। उच्चारणकी शुद्धिपूर्वक पाठको पुन:-पुनः दुहराना आम्नाय है और धर्मकथा आदिका अनुष्ठान करना धर्मोपदेश है । शंका-यह पूर्वोक्त पाँच प्रकारका स्वाध्याय किसलिए किया जाता है ? समाधान-प्रज्ञामें अतिशय लानेके लिए, अध्यवसायको प्रशस्त करनेके लिए, परम संवेगके लिए, तपमें वृद्धि करनेके लिए और अतीचारोंमें विशुद्धि लाने आदिके लिए किया जाता है।
8869. अब व्युत्सर्ग तपके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंबाह्य और अभ्यन्तर उपधिका त्याग यह दो प्रकारका व्युत्सर्ग है ॥26॥
6870. व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है जिसका अर्थ त्याग होता है। वह दो प्रकारका है बाह्य उपधित्याग और अभ्यन्तर उपधित्याग। आत्मासे एकत्वको नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु, धन और धान्य आदि बाह्य उपधि है और क्रोधादिरूप आत्मभाव अभ्यन्तर उपधि है। तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक कायका त्याग करना भी अभ्यन्तर उपधि त्याग कहा जाता है। यह निःसंगता, निर्भयता और जीविताशाका व्युदास आदि करनेके लिए किया जाता है।
विशेषार्थ--यहाँ यह प्रश्न होता है कि जब कि पाँच महाव्रतोंमें परिग्रहत्यागका उपदेश दिया है, दश धर्मोंमें त्याग धर्मका उपदेश दिया है तथा नौ प्रकारके प्रायश्चित्तोंमें व्युसर्ग नामका प्रायश्चित्त अलगसे कहा है ऐसी अवस्थामें पुनः व्युत्सर्ग तपका अलगसे कथन करना कोई मायने नहीं रखता, क्योंकि इस प्रकार एक ही तत्त्वका पुनः-पुनः कथन करनेसे पुनरुक्त दोष आता है। समाधान यह है कि पांच महाव्रतोंमें जो परिग्रह-त्याग महाव्रत है उसमें गृहस्थसम्बन्धी उपधिके 1. -माध्यायान-- मु.। 2. --व्यक्तार्थम् आ., दि. 1, दि. 2, ना. ।
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350] सर्वार्थसिद्धी
[9127 88718871. यद् बहुवक्तव्यं ध्यानमिति पृथग्व्यवस्थापितं तस्येदानी भेदाभिधानं प्राप्तकालम् । तदुल्लङ्घ्य तस्य प्रयोक्तस्वरूपकालनिरिणार्थमुच्यते
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ।।27।
8872. आद्यं त्रितयं संहननमुत्तमं वज्रर्षभनाराचसंहननं वज्रनाराचसंहननं नाराचसंहननमिति । तत्त्रितयमपि ध्वानस्य साधनं भवति । मोक्षस्य तु आद्यमेव । तदुत्तमं संहननं यस्य सोऽयमुत्तमसंहननः, तस्योत्तमसंहननस्येति । अनेन प्रयोक्तृनिर्देशः कृतः । अग्रं मुखम् । एकमप्रमस्येत्येकानः । नानार्थावलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवती, तस्या अन्याशेषमुखेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्नने नियम एकाग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते । अनेन ध्यानस्वरूपमुक्तं भवति । मुहूर्त इति कालपरिमाणम् । अन्तर्गतो मुहूर्तोऽन्तर्मुहूर्तः। 'आ अन्तर्मुहूर्तात्' इत्यनेन कालावधिः कृतः । ततः परं दुर्धरत्वादेकाग्रचिन्तायाः । चिन्ताया निरोधो यदि ध्यानं, निरोधश्चाभावः, तेन ध्यानमसत्खरविषाणवस्पात? नैष दोषः; अन्यचिन्तानिवत्त्यपेक्षयासदिति चोच्यते. स्वविषयाकारप्रवत्तेः सतिति च; अभावस्य भावान्तरत्वाद् हेत्वङ्गत्वादिभिरभावस्य वस्तुधर्मत्वसिद्धेश्च । अथवा नायं भावसाधनः, निरोधनं निरोध इति । किं तहि ? कर्मसाधनः, 'निरुध्यत इति निरोधः । चिन्ता चासो त्यागकी मुख्यता है। त्यागधर्ममें आहारादि विषयक आसक्तिके कम करनेकी मुख्यता है, व्युत्सर्ग प्रायश्चित्तमें परिग्रह त्याग धर्म में लगनेवाले दोषके परिमार्जनकी मुख्यता है, और व्युत्सर्ग तपमें
तेका आदि बाह्य व मनोविकार तथा शरीर आदि अभ्यन्तर उपधिमें आसक्तिके त्यागको मुख्यता है, इसलिए पुनरुक्त दोष नहीं आता।
6871. जो बहुवक्तव्य ध्यान पृथक स्थापित कर आये हैं उसके भेदोंका कथन करना इस समय प्राप्तकाल है तथापि उसे उल्लंघन करके इस समय ध्यानके प्रयोक्ता, स्वरूप और कालका निर्धारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उत्तम संहननवालेका एक विषयमें चित्तवृत्तिका रोकना ध्यान है जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है ॥27॥
8872. आदिके वज्रर्षभनाराचसंहनन, वज्रनाराचसंहनन और नाराचसंहनन ये तीन संहनन उत्तम हैं । ये तीनों ही ध्यानके साधन हैं । मोक्षका साधन तो प्रथम ही है। जिसके ये उत्तम संहनन होते हैं वह उत्तम संहननवाला कहलाता है उस उत्तम संहननवालेके । यहाँ इस पदद्वारा प्रयोक्ताका निर्देश किया है । 'अग्र' पदका अर्थ मुख है। जिसका एक अग्र होता है वह एकाग्र कहलाता है। नाना पदार्थोंका अवलम्बन लेनेसे चिन्ता परिस्पन्दवती होती है। उसे अन्य अशेष मुखोंसे लौटाकर एक अग्र अर्थात् एक विषयमें नियमित करना एकाग्रचिन्तानिरोध कहलाता है । इस द्वारा ध्यानका स्वरूप कहा गया है। मुहूर्त यह कालका विवक्षित परिमाण है। जो मुहूर्तके भीतर होता है वह अन्तर्मुहूर्त कहलाता है । 'अन्तर्मुहूर्त काल तक' इस पद द्वारा कालकी अवधि की गयी है । इतने कालके बाद एकाग्रचिन्ता दुर्धर होती है। शंका-यदि चिन्ताके निरोधका नाम ध्यान है और निरोध अभावस्वरूप होता है, इसलिए गधेके सींगके समान ध्यान असत् ठहरता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अन्य चिन्ताकी निवृत्तिकी अपेक्षा वह असत् कहा जाता है और अपने विषयरूपसे प्रवृत्ति होनेके कारण वह सत् कहा जाता है, क्योंकि अभाव भावान्तरस्वभाव होता है और अभाव वस्तुका धर्म है यह बात सपक्ष सत्त्व विपक्षव्यावृत्ति इत्यादि हेतुके अंग आदिके द्वारा सिद्ध होती है । अथवा, यह निरोध शब्द 1. 'ध्यानं निर्विषयं मनः ।' -सां. सू. 6, 25 1 2. --दुर्धरत्वात् । चिन्ताया नि-• ता. ना. ।
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-9129 8877] नवमोऽध्यायः
[351 निरोधश्च चिन्तानिरोध इति । एतदुक्तं भवति-ज्ञानमेवापरिस्पन्दाग्निशिखावववभासमानं ध्यानमिति। 8 873. तद्भेदप्रदर्शनार्थमाह
प्रातरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥28॥ ६ 874. ऋतं दुःखम्, अर्दनमतिर्वा, तत्र भवमार्तम् । रुद्रः क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम् । धर्मो व्याख्यातः। धर्मादनपेतं धर्म्यम् । शुचिगुणयोगाच्छुक्लम् । तदेतच्चतुर्विषं ध्यानं द्वैविध्यमश्नुते । कुतः ? प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् । अप्रशस्तमपुण्यास्रवकारणत्वात् । कर्मनिर्दहनसामर्थ्यात्प्रशस्तम्। ६ 875. किं पुनस्तदिति चेदुच्यते
परे मोक्षहेतू ॥29॥ 8876. परमुत्तरमन्त्यम् । अन्त्यं शुक्लम् । तत्सामीप्याद्धर्म्यमपि 'परम्' इत्युपचर्यते । 1द्विवचननिर्देशसामर्थ्याद गौणमपि गृह्यते । "परे मोक्षहेतू' इति वचनात्पूर्वे आर्तरौद्रे संसारहेतू इत्युक्तं भवति । कुतः ? तृतीयस्य साध्यस्याभावात् ।
$ 877. तत्रातं चतुविधम् । तत्रादिविकल्पलक्षणनिर्देशार्थमाह-- 'निरोधनं निरोधः' इस प्रकार भावसाधन नहीं है । तो क्या है ? 'निरुध्यत इति निरोधः' जो रोका जाता है, इस प्रकार कर्मसाधन है। चिन्ताका जो निरोध वह चिन्तानिरोध है । आशय यह है कि निश्चल अग्निशिखाके समान निश्चलरूपसे अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है।
8873. अब उसके भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंआर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ये ध्यानके चार भेद हैं ॥28॥
8 874. आर्त शब्द 'ऋत' अथवा 'अति' इनमें से किसी एकसे बना है। इनमें से ऋतका अर्थ दुःख है और अतिकी 'अर्दनं अति:' ऐसी निरुक्ति होकर उसका अर्थ पीड़ा पहुँचाना है। इसमें (ऋतमें या अतिमें) जो होता है वह आर्त है। रुद्रका अर्थ क्र र आशय है। इसका कर्म या इसमें होनेवाला रौद्र है। धर्मका व्याख्यान पहले कर आये हैं । जो धर्मसे युक्त होता है वह धर्म्य है । तथा जिसमें शुचि गुणका सम्बन्ध है वह शुक्ल है। यह चार प्रकारका ध्यान दो भागोंमें विभक्त है, क्योंकि प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे वह दो प्रकारका है। जो पापास्रवका कारण है वह अप्रशस्त है और जो कर्मोके निर्दहन करनेकी सामर्थ्यसे युक्त है वह प्रशस्त है।
8875. तो वह क्या है ऐसा प्रश्न करनेपर आगेका सूत्र कहते हैंउनमें से पर अर्थात् अन्तके दो ध्यान मोक्षके हेतु हैं ॥29॥
8876. पर. उत्तर और अन्त्य इनका एक अर्थ है। अन्तिम शक्लध्यान है और इसका समीपवर्ती होनेसे धर्म्यध्यान भी पर है ऐसा उपचार किया जाता है, क्योंकि सूत्र में 'परे' यह द्विवचन दिया है, इसलिए उसकी सामर्थ्यसे गौणका भी ग्रहण होता है । 'पर अर्थात् धर्म्य और शुक्ल ये मोक्षके हेतु हैं' इस वचनसे पहलेके अर्थात् आर्त और रौद्र ये संसारके हेतु हैं यह तात्पर्य फलित होता है, क्योंकि मोक्ष और संसारके सिवा और कोई तीसरा साध्य नहीं है।
8877. उनमें आर्तध्यान चार प्रकारका है। उनमें से प्रथम भेदके लक्षणका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं1.-वचनसाम- मु.। 2. परे धHशुक्ले मोक्ष- बा., दि. 1, दि. 2, ता., ना.। .
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3521
सर्वार्थसिद्ध
[9133 § 878
श्रर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥30॥ 8878. अमनोज्ञमप्रियं विषकण्टकशत्रुशस्त्रादि, तद्बाधाकरणत्वाद् 'अमनोज्ञम्' इत्युच्यते । तस्य संप्रयोगे, स कथं नाम मे न स्यादिति संकल्पश्चिन्ताप्रबन्धः स्मृतिसमन्वाहारः प्रथममार्तमित्याख्यायते ।
8879. द्वितीयस्य विकल्पस्य लक्षण निर्देशार्थमाह
विपरीतं मनोज्ञस्य ॥31॥
8880. कुतो विपरीतम् ? पूर्वोक्तात् । तेनैतदुक्तं भवति - मनोज्ञस्येष्टस्य स्वपुत्रदारधनादेविप्रयोगे तत्संप्रयोगाय संकल्पश्चिन्ता प्रबन्धो द्वितीयमार्तमवगन्तव्यम् ।
8881. तृतीयस्य विकल्पस्य लक्षणप्रतिपादनार्थमाह
वेदनायाश्च ॥32॥
8. 882. 'वेदना' शब्दः सुखे दुःखे च वर्तमानोऽपि आर्तस्य प्रकृतत्वाद् दुःखवेदनायां प्रवर्तते, तस्या वातादिविकारजनितवेदनाया उपनिपाते तस्या अपायः कथं नाम मे स्यादिति संकल्पचिन्ताप्रबन्धस्तृतीयमार्तमुच्यते ।
8883. तुरीयस्यार्तस्य लक्षणनिर्देशार्थमाह
निदानं च ॥33॥
8884. भोगाकाङ्क्षातुरस्यानागतविषयप्राप्ति प्रति मनः प्रणिधानं संकल्पश्चिन्ताप्रबन्ध
अमनोज्ञ पदार्थ प्राप्त होनेपर उसके वियोगके लिए चिन्तासातत्यका होना प्रथम आर्तध्यान है ॥30॥
8878. अमनोज्ञका अर्थ अप्रिय है । विष, कण्टक, शत्रु और शस्त्र आदि जो अप्रिय पदार्थ हैं वे बाधाके कारण होनेसे अमनोज़ कहे जाते हैं । उनका संयोग होनेपर वे मेरे कैसे न हों इस प्रकारका संकल्प चिन्ताप्रबन्ध अर्थात् स्मृति समन्वाहार यह प्रथम आर्तध्यान कहलाता है ।
8879. अब दूसरे भेदने लक्षणका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मनोज्ञ वस्तुके वियोग होनेपर उसकी प्राप्तिकी सतत चिन्ता करना दूसरा आर्तध्यान
1311
8880. किससे विपरीत ? पूर्व में कहे हुए से । इससे यह तात्पर्य निकलता है कि मनोज्ञ अर्थात् इष्ट अपने पुत्र, स्त्री और धनादिकके वियोग होनेपर उसकी प्राप्तिके लिए संकल्प अर्थात् निरन्तर चिन्ता करना दूसरा आर्तध्यान जानना चाहिए ।
8881. अब तीसरे भेदके लक्षणका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
वेदना होनेपर उसे दूर करनेके लिए सतत चिन्ता करना तीसरा आर्तध्यान है ||32|| 6 882. वेदना शब्द यद्यपि सुख और दुःख दोनों अर्थों में विद्यमान है पर यहाँ आर्तध्यानका प्रकरण होनेसे उससे दुःखवेदना ली गयी है । वातादि विकारजनित दुःख वेदना होनेपर उसका अभाव मेरे कैसे होगा इस प्रकार विकल्प अर्थात् निरन्तर चिन्ता करना तीसरा आर्तध्यान कहा जाता है ।
8 883. अब चौथे आर्तध्यानके लक्षणका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंनिदान नामका चौथा आर्तध्यान है ॥33॥
$ 884. भोगोंकी आकांक्षाके प्रति आतुर हुए व्यक्तिके आगामी विषयोंकी प्राप्तिके
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--- 9135.8888] नवमाऽध्यायः
[333 स्तुरीयमार्तं निदानमित्युच्यते । $ 885. तदेतच्चतुर्विधमात किस्वाभिकमिति चेदुच्यते--
तदविरतदेशविरतप्रभत्तसंयतानाम् ॥34॥ 8886. अविरता असंयतसम्यग्दष्टयन्ताः । देशविरताः संयतासंयताः। प्रमत्तसंयताः पंचदशप्रमादोपेताः क्रियानुष्ठायिनः । तत्राविरतदेशविरतानां चविधमप्या तं भवति; असंयमपरिणामोपेतत्वात् । प्रमत्तसंयतानां तु निदानवय॑मन्यदातंत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात्कदाचित्स्यात् ।। $ 887. व्याख्यातमार्तं संज्ञादिभिः। द्वितीयस्य संज्ञाहेतुस्वामिनिर्धारणार्थमाह
हिंसानतस्तेविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥35॥ $ 888. हिंसादीन्युक्तलक्षणानि । तानि रौद्रध्यानोत्पतेनिमित्तीभवन्तीति हेतु निर्देशो विज्ञायते । तेन हेतुनिर्देशनानुवर्तमानः स्मृतिसमन्वाहारः' अभिसंबध्यते । हिंसायाः स्मृतिसमन्वाहार इत्यादि । तद्रौद्रध्यानमविरतदेशविरतयोर्वेदितव्यम् । अविरतस्य भवतु रौद्रध्यानं, देशविरतस्य कथम् ? तस्यापि हिंसाद्यावेशाद्वित्तादिसंरक्षणतन्त्रत्वाच्च कदाचिद् भवितुमर्हति । तत्पुनर्नारकालिए मनःप्रणिधानका होना अर्थात् संकल्प तथा निरन्तर चिन्ता करना निदान नामका चौथा आर्तध्यान कहा जाता है।
6 885. इस चार प्रकारके आर्तध्यानका स्वामी कौन है यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
यह आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीवोंके होता है ।।34॥
8886. असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके जोव अविरत कहलाते हैं, संयतासंयत जीव देशविरत कहलाते हैं और पन्द्रह प्रकारके प्रमादसे युक्त क्रिया करनेवाले जीव प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। इनमें से अविरत और देशविरत जीवोंक चारों ही प्रकारका आतध्यान होता है, क्योंकि ये असंयमरूप परिणामसे युक्त होते हैं। प्रमत्तसंयतोंके तो निदानके सिवा बाकीके तीन प्रमादके उदयकी तीव्रतावश कदाचित होते हैं।
विशेषार्थ-पुराण साहित्यमें मुनियों द्वारा निदान करनेके कई उदाहरण हैं पर इन उदाहरणोंसे प्रमत्तसंयत अवस्था में उन साधुओंने निदान किया ऐसा अर्थ नहीं लेना चाहिए। एक तो भावलिंगी साधुके आगामी भोगोंकी आकांक्षा होती ही नहीं और कदाचित् होती है तो उस समयसे वह भावलिंगी नहीं रहता ऐसा अर्थ यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
8887. संज्ञा आदिके द्वारा आर्तध्यानका व्याख्यान किया। अब दूसरे ध्यानकी संज्ञा, हेतु और स्वामीका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
हिंसा, असत्य, चोरी और विषयसंरक्षणके लिए सतत चिन्तन करना रौद्रध्यान है। वह अविरत और देशविरतके होता है ॥35॥
8888. हिंसादिकके लक्षण पहले कह आये हैं । वे रौद्रध्यानकी उत्पत्तिके निमित्त होते हैं । इससे हेतुनिर्देश जाना जाता है । हेतुका निर्देश करनेवाले इन हिंसादिकके साथ अनुवृत्तिको प्राप्त होनेवाले 'स्मृतिसमन्वाहार' पदका सम्बन्ध होता है। यथा--हिसाका स्मृतिसमन्वाह आदि । यह रौद्रध्यान अविरत और देशविरतके जानना चाहिए। शंका-रौद्रध्यान अविरतके होओ देशविरतके कैसे हो सकता है ? समाधान–हिंसादिकके आवेशसे या वित्तादिके संरक्षणके परतन्त्र होनेसे कदाचित् उसके भी हो सकता है। किन्तु देशविरतके होनेवाला वह रौद्रध्यान 1. --विधमात ता. मु.।
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सर्वार्थसिद्धौ
[9136 $ 889दीनामकारणं; सम्यग्दर्शनसामर्थ्यात् । संयतस्य तु न भवत्येव; तदारम्भे संयमप्रच्युतः ।
$ 889: आह, 'परे मोक्षहेतू' उपदिष्टे । तत्राद्यस्य मोक्षहेतोया॑नस्य भेदस्वरूपस्वामिनिर्देशः कर्तव्य इत्यत आह---
आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ॥36॥ $ 890. विचयनं विचयो विवेको विचारणे'त्यर्थः। आज्ञापायविपाकसंस्थानानां विचय आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयः । 'स्मृतिसमन्वाहारः' इत्यनुवर्तते । स प्रत्येकं संबध्यते-आज्ञाविचयाय स्मृतिसमन्वाहार इत्यादि । तद्यथा--उपदेष्टुरभावान्मन्दबुद्धित्वात्कर्मोदयात्सूक्ष्मत्वाच्च पदार्थानां हेतुदृष्टान्तोपरमे सति सर्वज्ञप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य इत्यमेवेदं "नान्यथावादिनो जिनाः" इतिगहनपदार्थश्रद्धाना दर्थावधारणमाज्ञाविचयः । अथवा स्वयं विदितपदार्थतत्त्वस्य सतः परं प्रति पिपादयिषोः स्वसिद्धान्ताविरोधेन तत्त्वसमर्थनार्थ तर्कन्यप्रमाणयोजनपरः स्मृतिसमन्वाहारः सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते । जात्यन्धवन्मिथ्यादृष्टयः सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद्विमुखा मोक्षार्थिनः सम्यङ्मार्गापरिज्ञानात्सुदूरमेवापयन्तीति सन्मार्गापायचिन्तनमपायविचयः। अथवा-मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायविचयः। कर्मणां ज्ञानावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकालभवभावप्रत्ययफलानुभवनं प्रति प्रणिधानं
नारकादि दुर्गतियोंका कारण नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शनकी ऐसी ही सामर्थ्य है । परन्तु संयतके तो वह होता ही नहीं है, क्योंकि उसका आरम्भ होनेपर संयमसे पतन हो जाता है।
8889. कहते हैं, अन्तके दो ध्यान मोक्षके हेतु हैं यह कह आये। उनमेंसे मोक्षके हेतुरूप प्रथम ध्यानके भेद, स्वरूप और स्वामीका निर्देश करना चाहिए, इसलिए आगेका सत्र कहते हैं
आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इनकी विचारणाके निमित्त मनको एकाग्र करना धर्म्यध्यान है ॥36॥
8890. विचयन करना विचय है। विचय, विवेक और विचारणा ये पर्याय नाम हैं। आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इनका परस्पर द्वन्द्व समास होकर विचय शब्दके साथ षष्ठीतत्पुरुष समास है और इस प्रकार 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयः' पद बना है । 'स्मृतिसमन्वाहारः' पदको अनुवृत्ति होती है । और उसका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध होता है। यथा-- आज्ञाविचयके लिए स्मृतिसमन्वाहार आदि । स्पष्टीकरण इस प्रकार है-उपदेश देनेवालेका अभाव होनेसे, स्वयं मन्दबुद्धि होनेसे, कर्मोंका उदय होनेसे तथा पदार्थोंके सूक्ष्म होनेसे तत्त्वके समर्थनमें हेतु और दृष्टान्तका अभाव होनेपर सर्वज्ञप्रणोत आगमको प्रमाण करके 'यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते' इस प्रकार गहन पदार्थके श्रद्धानद्वारा अर्थका अवधारण करना आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है । अथवा स्वयं पदार्थोंके रहस्यको जानता है और दूसरोंके प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्व-सिद्धान्तके अविरोधद्वारा तत्त्वका समर्थन करनेके लिए उसका जो तर्क, नय और प्रमाणको योजनारूप निरन्तर चिन्तन होता है वह सर्वज्ञकी आज्ञाको प्रकाशित करनेवाला होनेसे आज्ञाविचय कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि जीव जन्मान्ध पुरुषके समान सर्वज्ञप्रणीत मार्गसे विमुख होते हैं, उन्हें सन्मार्गका परिज्ञान न होनेसे वे मोक्षार्थी पुरुषोंको दूरसे ही त्याग देते हैं इस प्रकार सन्मार्गके अपायका चिन्तन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है। अथवा, ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रसे कैसे दूर होंगे इस प्रकार निरन्तर चिन्तन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है। बानावरणादि 1. विचारणमित्यर्थः मु. । विचारमित्यर्थः ता. । 2. --द्धानमर्था-- मु.।
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-91368 890] नवमोऽध्यायः
[355 विपाकविचयः। लोकसंस्थानस्वभावविचयाय स्मृतिसमन्वाहारः संस्थानविचयः । उत्तमक्षमादिलक्षणो धर्म उक्तः । तस्मादनपेतं धयं ध्यानं चतुर्विकल्पमवसेयम् । तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तपंयतानां भवति।
कर्मोके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावनिमित्तक फलके अनुभवके प्रति उपयोगका होना विपाकविचय धर्म्यध्यान है। तथा लोकके आकार और स्वभावका निरन्तर चिन्तन करना संस्थानविचय धर्म्यध्यान है। पहले उत्तम क्षमादिरूप धर्मका स्वरूप कह आये हैं । उससे अनपेत अर्थात् युक्त धर्म्यध्यान चार प्रकारका जानना चाहिए। यह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके होता है।
विशेषार्थ संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होनेके लिए या विरक्त होनेपर उस भावको स्थिर बनाये रखनेके लिए सम्यग्दृष्टिका जो प्रणिधान होता है उसे धर्म्यध्यान कहते हैं । यह उत्तम क्षमादिरूप धर्मसे युक्त होता है, इसलिए इसे धर्म्यध्यान कहते हैं। यहाँ निमित्तभेदसे इसके चार भेद किये गये हैं। यथा—आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । आज्ञाविचय तत्त्वनिष्ठामें सहायक होता है, अपायविचय संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्ति उत्पन्न करता है। विपाक विचयसे कर्मफल और उसके कारणोंकी विचित्रताका ज्ञान दृढ़ होता है और संस्थानविचयसे लोकको स्थितिका ज्ञान दृढ़ होता है।।
मूल टीकामें विपाकविचयके स्वरूपका निर्देश करते हुए जो द्रव्य, क्षेत्र और काल आदिके निमित्तसे कर्मफलकी चर्चा की है उसका आशय यह है कि यद्यपि कर्मोके उदय या उदीरणासे जीवके औदयिक भाव और विविध प्रकारके शरीरादिककी प्राप्ति होती है पर इन कर्मोंका उदय और उदीरणा बिना अन्य निमित्तके नहीं होती, किन्तु द्रव्य, क्षेत्र आदिका निमित्त पाकर हो कर्मोंका उदय और उदीरणा होती है । आगे इसी बातको विशेष रूपसे स्पष्ट करते हैं। द्रव्यनिमित्त-मान लो एक व्यक्ति हँस खेल रहा है, वह अपने बाल-बच्चोंके साथ गप्पागोष्ठीमें तल्लीन है । इतने में अकस्मात् मकानको छत टूटती है और वह उससे घायल होकर दुःखका वेदन करने लगता है तो यहाँ उसके दु:खवेदनके कारणभूत असाता वेदनीयके उदय और उदीरणा में टूट कर गिरनेवाली छतका संयोग निमित्त है । टूट कर गिरनेवाली छतके निमित्तसे उस व्यक्तिके असातावेदनीयकी उदय-उदीरणा हुई और असातावेदनीयके उदय-उदीरणासे उस व्यक्तिको दुःखका अनुभवन हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसी प्रकार अन्य कर्मोके उदयउदीरणामें बाह्य द्रव्य कैसे निमित्त होता है इसका विचार कर लेना चाहिए। कालनिमित्तकालके निमित्त होनेका विचार दो प्रकारसे किया जाता है। एक तो प्रत्येक कर्मका उदय-उदीरणा काल और दूसरा वह काल जिसके निमित्तसे बीच में ही कर्मोंकी उदय-उदीरणा बदल जाती है। आगममें अध्रुवोदय रूप कर्मके उदय-उदीरणा कालका निर्देश किया है उसके समाप्त होते ही विवक्षित कर्मके उदय-उदीरणाका अभाव होकर उसका स्थान दूसरे कर्मकी उदय-उदीरणा ले लेती है । जैसे सामान्यसे हास्य और रतिका उत्कृष्ट उदय-उदीरणाकाल छह महीना है। इसके बाद इनकी उदय-उदीरणा न होकर अरति और शोककी उदय-उदीरणा होने लगती है। किन्त छह महीनाके भीतर यदि हास्य और रतिके विरुद्ध निमित्त मिलता है तो बीच में ही इनकी उदयउंदीरणा बदल जाती है। यह कर्मका उदय-उदीरणा काल है। अब एक ऐसा जीव लो जो निर्भय होकर देशान्तरको जा रहा है, किन्तु किसी दिन मार्गमें ही ऐसे जंगल में रात्रि हो जाती है जहाँ हिंस्र जन्तुओंका प्राबल्य है और विश्राम करनेके लिए कोई निरापद स्थान नहीं है। यदि दिन होता तो उसे रंचमात्र भी भय न होता, किन्तु रात्रि होनेसे वह भयभीत होता है इससे इसके
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सर्वार्थसिद्धौ
[91368 890
असाता, अरति, शोक और भय कर्मकी उदय-उदीरणा होने लगती है। यह कालनिमित्तक उदय
णा है। इसी प्रकार क्षेत्र, भव और भावनिमित्तक उदय और उदीरणा जान लेनी चाहिए। कालप्राप्त कर्मपरमाणुओंके अनुभव करनेको उदय कहते हैं और उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंको कषायसहित या कषायरहित योग संज्ञावाले वीर्यविशेषके द्वारा उदयावलिमें लाकर उनका उदयप्राप्त कर्मपरमाणओं के साथ अनुभवन करनेको उदीरणा कहते हैं। इस प्रकार कर्मपरमाणुओंका अनुभवन उदय और उदीरणा दोनोंमें लिया जाता है। यदि इनमें अन्तर है तो कालप्राप्त और अकालप्राप्त परमाणुओंका है। उदयमें कालप्राप्त कर्मपरमाणु रहते हैं और उदीरणामें अकालप्राप्त कर्मपरमाण रहते हैं। सामान्य नियम यह है कि जहाँ जिस कर्मका उदय होता है वहाँ उसकी उदीरणा अवश्य होती है। फिर भी इनमें जो विशेषता है उसका यहाँ निर्देश करते हैं-मिथ्यात्वका उदय और उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है। इतनी विशेषता है कि उपशम सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके अन्तिम आवली प्रमाण कालमें मिथ्यात्वकी उदीरणा नहीं होती, वहाँ मात्र उसका उदय होता है। एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रियजाति, आतप, स्थावर. सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन नो प्रकृतियोंकी मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही उदय और उदीरणा होती है आगे नहीं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी प्रारम्भके दो गुणस्थानोंमें हो उदय और उदीरणा होती है आगे नहीं । सम्यमिथ्यात्वकी तीसरे गुणस्थानमें ही उदय और उदीरणा होती है, अन्यत्र नहीं । अप्रत्याख्यान चार, नरकगति, देवगति, वैक्रियिक शरीर,वैक्रियिक अंगोपांग, दुर्भग, अनादेय और अयशस्कीति इन ग्यारह प्रकतियोंका चौथे गणस्थान तक ही उदय और उदीरणा होतो है आगे नहीं। नरकाय और देवायुकी चौथे गुणस्थान तक ही उदय और उदीरणा होती है आगे नहीं । मात्र मरणके समय अन्तिम आवलिकालमें उदीरणा नहीं होती। चार आनुपूर्वियोंकी प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थानमें ही उदय और उदीरणा होती है अन्यत्र नहीं। प्रत्याख्यानावरणचतुष्क, तिर्यंचगति, उद्योत और नीचगोत्र इन सात प्रकृतियोंकी संयतासंयत गुणस्थान तक ही उदय और उदीरणा होती है आगे नहीं । तिर्यंच आयुकी पाँचवें गुणस्थान तक ही उदय और उदीरणा होती है । मात्र मरणके समय अन्तिम आवलि कालके शेष रहनेपर उदय ही होता है उदीरणा नहीं । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, सातावेदनीय और असातावेदनीय इन पाँच प्रकृतियोंकी छठे गुणस्थान तक ही उदय और उदीरणा होती है आगे नहीं। मात्र निद्रानिद्रादि त्रिककी उदीरणा वही करता है जिसने इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण कर ली है । ऐसा जीव यदि उत्तर शरीरकी विक्रिया करता है या आहारकसमुद्घातको प्राप्त होता है तो इन्हें प्राप्त होनेके एक आवलि कालपूर्वसे लेकर मूल शरीरमें प्रवेश होने तक इन तीनकी उदीरणा नहीं होती। तथा देव, नारकी और भोगभूमियाँ जीव भी इन तीनकी उदीरणा नहीं करते । आहारक शरीर और आहारक अंगोपांगका प्रमत्तसंयतमें ही उदीरणा और उदय होता है, आगे पीछे नहीं। मनुष्यायुकी छठे गुणस्थान तक उदीरणा और चौदहवें गुणस्थान तक उदय होता है। मात्र मरणके समय अन्तिम आवलि काल शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती। सम्यक्त्वप्रकृतिकी उदीरणा और उदय चौथेसे लेकर सातवें गुणस्थानतक वेदकसम्यग्दृष्टिके होती है। मात्र कृतकृत्यवेदकके कालमें व द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके उत्पसिकालमें एक आवलि शेष रहनेपर उदय ही होता है उदीरणा नहीं। अन्तके तीन संहननोंकी उदारणा व उदय सातवें गुणस्थान तक हो होती है आग नहीं हास्यादि छहको उदीरणा और उदय आठवें गुणस्थान तक होतो है आगे नहीं। इतनी विशेषता है कि देवोंके उत्पत्ति समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक हास्य और रतिको नियमसे उदीरणा होती है, आगे भजनीय है।
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- 9138 5893] नवमोऽध्यायः
[357 8891. त्रयाणां ध्यानानां निरूपणं कृतम् । इदानी शुक्लध्यानं निरूपयितव्यम् । तद्वक्ष्यमाणचतुर्विकल्पम् । तत्राद्ययोः स्वामिनिर्देशार्थमिदमुच्यते--
शुक्ले चाये पूर्वविदः ।।37।। 6892. वक्ष्यमाणेषु शुक्लध्यानविकल्पेषु आद्य शुक्लध्याने पूर्वविदो भवतः श्रुतकेवलिन इत्यर्थः । 'च'शब्देन धर्म्यमपि समुच्चीयते । तत्र 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः” इति श्रेण्यारोहणात्प्राग्धयं, श्रेण्योः शुक्ले इति व्याख्यायते।। 6893. अवशिष्टे कस्य भवत इत्यत्रोच्यते--
__ परे केविलनः ॥38॥ तथा नारकियोंके उत्पत्तिसमयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक अरति और शोकको नियमसे उदीरणा होती है, आगे भजनीय है । तीन वेद और क्रोधादि तोन संज्वलनोंकी उदीरणा व उदय नौवेंके उपान्त्य भाग तक ही होती है आगे नहीं । इतनी विशेषता है कि जो जिस वेदके उदयसे श्रेणि चढ़ता है उसके प्रथम स्थिति में एक आवलिकाल शेष रहनेपर उदोरणा नहीं होती। लोभसंज्वलनका दसवें गुणस्थान तक उदीरणा व उदय होता है । मात्र दसवें गुणस्थानके अन्तिम आवलि कालके शेष रहनेपर उदोरणा नहीं होती, उदय होता है । वज्रनाराच और नाराच संहननका ग्यारहवें गुणस्थान तक उदीरणा और उदय होता है। निद्रा और प्रचलाकी बारहवें गुणस्थानमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने तक उदय व उदीरणा दोनों होते हैं, आगे बारहवें गुणस्थानके उपान्त्य समय तक इनका उदय ही होता है । पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियोंका उदय तो बारहवें गुणस्थानके अन्तिम समय तक होता है और उदीरणा बारहवें गुणस्थानमें एक आवलि काल शेष रहने तक होती है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभनाराच संहनन, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, उच्छवास, दोनों विहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण और उच्चगोत्र इन अड़तीस प्रकृतियोंकी तेरहवें गणस्थान तक उदीरणा व उदय होते हैं आगे नहीं। तथा तीर्थंकर प्रकृतिका तेरहवें गुणस्थान में ही उदीरणा व उदय होता है । इस प्रकार आज्ञा आदिके निमिनसे सतत चिन्तन करना धर्म्यध्यान है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
8891. तीन ध्यानोंका कथन किया, इस समय शक्लध्यानका कथन करना चाहिए, उसके आगे चार भेद कहनेवाले हैं उनमें-से आदिके दो भेदोंके स्वामीका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आदिके दो शुक्लध्यान पूर्वविद्के होते हैं ॥37॥
६ 892. आगे कहे जानेवाले शुक्लध्यानके भेदों में-से आदिके दो शुक्लध्यान पूर्वविद अर्थात् श्रुतकेवलीके होते हैं। सूत्रमें 'च' शब्द आया है उससे धर्म्यध्यानका समुच्चय होता है। 'व्याख्यानते विशेष ज्ञान होता है' इस नियमके अनुसार श्रेणि चढ़नेसे पूर्व धर्माध्यान होता है और दोनों श्रेणियोंमें आदिके दो शुक्लध्यान होते हैं ऐसा व्याख्यान करना चाहिए।
$ 893. शेषके दो शुक्लध्यान किसके होते हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं---
शेषके दो शुक्लध्यान केवलीके होते हैं ॥38॥ 1. 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्न हि सन्देहादलक्षणम् ।' परि शे., पृ. 8 । पा. म. भा., पृ. 57, 130, 154 । बक्खाणओ विसेसो न हि संदेहादलक्खणया ॥' -वि. भा., गा., 340 ।
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सर्वार्थसिद्धौ
[91406 894
8894. प्रक्षीणसकलज्ञानावरणस्य केवलिनः सयोगस्यायोगस्य च परे उत्तरे शक्लध्याने भवतः।
8 895. यथासंख्यं तद्विकल्पप्रतिपादनार्थमिदमुच्यते
पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्यपरतक्रियानिवर्तीनि ॥39॥
$ 896. पृथक्त्ववितर्कमेकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्यपरतक्रियानिवति चेति चतुर्विधं शुक्लध्यानम् । वक्ष्यमाणलक्षण' मपेक्ष्य सर्वेषामन्वर्थत्वमवसेयम् । 8897. तस्यालम्बनविशेषनिर्धारणार्थमाह
व्येकयोगकाययोगायोगानाम् ।।40॥ 8 898. 'योग' शब्दो व्याख्यातार्थः 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' इत्यत्र । उक्तश्चतुभिः शुक्लघ्यानविकल्पैस्त्रियोगादीनां चतुर्णा यथासंख्येनाभिसंबन्धो वेदितव्यः। त्रियोगस्य पृथक्त्ववितर्कम्, त्रिषु योगेष्वेकयोगस्यैकत्ववितर्कम्, काययोगस्य सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, अयोगस्य व्युपरतक्रियानिवर्तीति। 8 899. तत्राद्ययोविशेषप्रतिपत्त्यर्थमिदमुच्यते
एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥1॥ 8900. एक आश्रयो ययोस्ते एकाश्रये । 'उभेऽपि परिप्राप्तश्रुतज्ञाननिष्ठेनारभ्येते,
8 894. जिसके समस्त ज्ञानावरणका नाश हो गया है ऐसे सयोगकेवली और अयोगकेवलीके पर अर्थात् अन्तके दो शुक्लध्यान होते हैं।
$ 895. अब क्रमसे शुक्लध्यानके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिति ये चार शुक्लध्यान हैं ॥39॥
8896. पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवति ये चार शुक्लध्यान हैं । आगे कहे जानेवाले लक्षणकी अपेक्षा सबका सार्थक नाम जानना चाहिए।
8 897. अब उसके आलम्बन विशेषका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वे चार ध्यान क्रमसे तीन योगवाले, एक योगवाले, काययोगवाले और अयोगके होते हैं।400
8 898. 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' इस सूत्र में योग शब्दका व्याख्यान कर आये हैं । पूर्वमें कहे गये शुक्लध्यानके चार भेदोंके साथ त्रियोग आदि चार पदोंका क्रमसे सम्बन्ध जान लेना चाहिए । तीन योगवालेके पृथक्त्ववितर्क होता है। तीन योगोंमें-से एक योगवालेके एकत्ववितर्क होता है । काययोगवालेके सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान होता है और अयोगीके व्युपरतक्रियानिवति ध्यान होता है।
8 899 अब इन चार भेदोंमें-से आदिके दो भेदोंके सम्बन्धमें विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पहलेके दो ध्यान एक आश्रयवाले, सवितर्क और सवीचार होते हैं ॥41॥
8 900. जिन दो ध्यानोंका एक आश्रय होता है वे एक आश्रयवाले कहलाते हैं। जिसने सम्पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त कर लिया है उसके द्वारा ही ये दो ध्यान आरम्भ किये जाते हैं। यह उक्त 1. --क्षणमुपेत्य सर्वे-- मु.। 2. --मन्वर्थमव- मु. ! 3. उभयेऽपि आ. दि. 1, दि. 2, ना. ।
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-9144 5906] नवमोऽध्यायः
[359 इत्यर्थः । वितर्कश्च वीचारश्च वितर्कवीचारौ, सह वितर्कवीचाराभ्यां वर्तत इति सवितर्कवीचारे। पूर्वे पृथक्त्वैकत्ववितर्के इत्यर्थः।। 8901. तत्र यथासंख्यप्रसंगेऽनिष्टनिवृत्त्यर्थमिदमुच्यते
__ अवीचारं द्वितीयम् ।।42॥ 8902. पूर्वयोर्यद् द्वितीयं तदवीचारं प्रत्येतव्यम् । एतदुक्तं भवति-आद्यं सवित सवीचारं च भवति । द्वितीयं सवितर्कमवीचारं चेति । 8903. अथ वितर्कवीचारयोः कः प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते
वितर्कः श्रुतम् ॥43॥ 8904. विशेषेण तर्कणमूहनं वितर्कः श्रुतज्ञानमित्यर्थः । 8905. अथ को वीचारः।
वीचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिः ॥4॥ 8906. अर्थो ध्येयो द्रव्यं पर्यायो वा । व्यञ्जनं वचनम् । योगः कायवाङ्मनःकर्मलक्षणः । संक्रान्तिः परिवर्तनम् । द्रव्यं विहाय पर्यायमुपैति पर्यायं त्यक्त्वा द्रव्यमित्यर्थसंक्रान्तिः। एकं श्रुतवचनमपादाय बचनान्तरमालम्बते तदपि विहायान्यदिति व्यञ्जनसंक्रान्तिः । काययोगं त्यक्त्वा योगान्तर गृह्णाति योगान्तरं च त्यक्त्वा काययोगमिति योगसंक्रान्तिः। एवं परिवर्तनं वीचार इत्युच्यते । तदेतत्सामान्यविशेषनिर्दिष्टं चतुर्विधं धयं शुक्लं च पूर्वोदितगुप्त्यादिबहुप्रकारोपायं कथनका तात्पर्य है । जो वितर्क और वीचारके साथ रहते हैं वे सवितर्कवीचार ध्यान कहलाते हैं। सूत्रमें आये हुए पूर्व पदसे पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क ये दो ध्यान लिये गये हैं।
8901. पूर्व सूत्रमें यथासंख्यका प्रसंग होनेपर अनिष्ट अर्थकी निवृत्ति करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
दूसरा व्यान अवीचार है॥42॥
6902. पहलेके दो ध्यानोंमें जो दूसरा ध्यान है वह अवीचार जानना चाहिए । अभिप्राय यह है कि पहला शुक्लध्यान सवितर्क और सवीचार होता है तथा दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क और अवीचार होता है।
६ 903. अब वितर्क और वीचारमें क्या भेद है यह दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वितर्कका अर्थ श्रुत है ॥43॥ 8 904. विशेष रूपसे तर्कणा करना अर्थात् ऊहा करना वितर्क श्रुतज्ञान कहलाता है। 8905. अब वीचार किसे कहते हैं यह बात अगले स्त्र द्वारा कहते हैं--- अर्थ, व्यञ्जन और योगको संक्रान्ति वीचार है॥441
8906. अर्थ ध्येयको कहते हैं । इससे द्रव्य और पर्याय लिये जाते हैं। व्यञ्जनका अर्थ वचन है तथा काय, वचन और मनकी क्रियाको योग कहते हैं। संक्रान्तिका अर्थ परिवर्तन है। द्रव्यको छोड़कर पर्यायको प्राप्त होता है और पर्यायको छोड़ द्रव्यको प्राप्त होता है-यह अर्थसंक्रान्ति है। एक श्रुतवचनका आलम्बन लेकर दूसरे वचनका आलम्बन लेता है और उसे भी त्यागकर अन्य वचनका आलम्बन लेता है-यह व्यंजन-संक्रान्ति है। काययोगको छोड़कर दूसरे योगको स्वीकार करता है और दूसरे योगको छोड़कर काययोगको स्वीकार करता है-यह योग1. --न्तरं त्यक्त्वा मु.। 2. इत्युच्यते । संक्रान्तौ सत्यां कथं ध्यानमिति चेत् ध्यानसंतानमपि ध्यानमुभते इति न दोषः । तदेतत्सामान्य- मु. दि. 1, दि. 2, आ.,
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360] सर्वार्थसिद्धौ
191445906 -- संसारनिवृसये मुनिातुमर्हति कृतपरिकर्मा । तत्र द्रव्यपरमाणं भावपरमाणु वा ध्यायन्नाहित. वितर्कसामयः अर्थव्यंजने कायवचसी च पृथक्त्वेन संक्रामता 'मनसापर्याप्तबालोत्साहवदव्यवस्थितेनानिशितेनापि शस्त्रेण चिरात्तरं छिन्दन्निव मोहप्रकृतीरुपशमयन्क्षपयंश्च पृथक्त्ववितर्कवी. चारध्यानभाग्भवति । स एव पुनः समूलतूल मोहनीयं निदिधक्षन्ननन्तगुणवि'शुद्धियोगविशेषमाश्रित्य बहुतराणां ज्ञानावरणसहायीभूतानां प्रकृतीनां बन्धं निरुधन स्थितिहासक्षयौ च कुर्वन् शुतज्ञानोपयोगो निवृत्तार्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिः अविचलितमनाः क्षीणकषायो वैडूर्यमणिरिव निरुपलेपो ध्यात्वा पुनर्न निवर्तत इत्युक्तमेकत्ववितर्कम। एवमेकत्ववितर्कशक्लध्यानवैश्वानरनिर्दग्धबातिकर्मेन्धनः प्रज्वलितकेवलज्ञानगभस्तिमण्डलो मेघाजरनिरोगनिर्गत इव धर्मरश्मिर्वा भासमानो भगवांस्तीर्थकर इतरो वा केवली लोकेश्वराणामभिगमनीयोऽर्चनीयश्चोत्कर्षेणायुषः पूर्वकोटी देशोनां विहरति । स यदा-तर्मुहर्तशेषायष्कस्तत्तुल्यस्थितिवेद्यनामगोत्रश्च भवति तदा सर्व बाङ्मनसयोगं बाउरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकाययोगालम्बनः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानमास्कन्वितुमर्हतीति । यवा पुनरन्तर्मुहर्तशेषायुष्कस्ततोऽधिक स्थितिशेषकर्मत्रयो भवति सयोगी तदात्मोपयोगातिशयस्य सामायिकसहायस्य विशिष्टकरणस्य महासंवरस्य लघुकर्मपरिपाचनस्यासंक्रान्ति है। इस प्रकारके परिवर्तनको वीचार कहते हैं । सामान्य और विशेष रूपसे कहे गये इस चार प्रकारके धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानको पूर्वोक्त गुप्ति आदि बहुत प्रकारके उपायोंसे यूक्त होनेपर संसारका नाश करने के लिए जिसने भले प्रकारसे परिकमको किया है ऐसा मूनि ध्यान करनेके योग्य होता है । जिस प्रकार अपर्याप्त उत्साहसे युक्त बालक अव्यवस्थित और मौथरे शस्त्रके द्वारा भी चिरकालमें वक्षको छेदता है उसी प्रकार चित्तकी सामर्थ्यको प्राप्तकर जो द्रव्यपरमाणु और भावपरमाणुका ध्यान कर रहा है वह अर्थ और व्यंजन तथा काय और वचनमें पृथक्त्व रूपसे संक्रमण करनेवाले मनके द्वारा मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंका उपशमन और क्षय करता हआ पृथक्त्ववितर्क वीचारध्यानको धारण करनेवाला होता है। पुनः जो समूल मोहनीय कर्मका दाह करना चाहता है, जो अनन्तगुणी विशुद्धिविशेषको प्राप्त होकर बहुत प्रकारको ज्ञानावरणकी सहायीभूत प्रकृतियोंके बन्धको रोक रहा है, जो कर्मों की स्थितिको न्यून और नाश कर रहा है, जो श्रुतज्ञानके उपयोगसे युक्त है, जो अर्थ, व्यजन और योगकी संक्रान्तिसे रहित है, निश्चल मनवाला है, क्षीणकषाय है और वैर्यमणिके समान निरुपलेप है वह ध्यान करके पुनः नहीं लौटता है । इस प्रकार उसके एकत्ववितर्क ध्यान कहा गया है । इस प्रकार एकत्ववितर्क शुक्लध्यान रूपो अग्निके द्वारा जिसने चार घातिया कर्मरूपो ईंधनको जला दिया है, जिसके केवलज्ञानरूपी किरणसमुदाय प्रकाशित हो गया है, जो मेघमण्डलका निरोध कर निकले हुए सूर्यके समान भासमान हो रहा है ऐसे भगवान्, तीर्थंकर केवली या सामान्य केवली इन्द्रों के द्वारा आदरणीय और पूजनीय होते हुए उत्कृष्ट रूपसे कुछ कम पूर्व कोटि काल तक विहार करते हैं। वह जब आयुमें अन्तर्मुहुर्त काल शेष रहता है तथा वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मकी स्थिति आयुकर्मके बराबर शेष रहती है तब सब प्रकारके वचनयोग, मनोयोग और बादरकाययोगको त्यागकर तथा सूक्ष्म काययोगका अवलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको स्वीकार करता है, परन्तु जब उन सयोगी जिनके आयु अन्तर्मुहुर्त शेष रहती है और शेष तीन कर्मोंकी स्थिति उससे अधिक शेष रहती है तब जिन्हें सातिशय आत्मोपयोग प्राप्त है, जिन्हें सामायिकका अवलम्बन है, जो विशिष्ट कारणासे युक्त हैं, जो काँका महासंवर कर रहे हैं 1. -सामर्थ्यादर्थ-- मु.। 2. मनसा पर्याप्त-- मु.। 3. समूलतलं मु., दि. !, दि. 2, आ.। 4. --शुद्धियोग --मु.। 5. -योगे निवृत्ता-- सु. ।
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--9145 8 908] नवमोऽध्यायः
1361 शेषकर्मरेणुपरिशातनशक्तिस्वाभाव्याद्दण्डकपाटप्रतरलोकपूरणानि स्वात्मप्रदेशविसर्पणतश्चतुभिः समयैः कृत्वा पुनरपि तावद्भिरेव समयैः समुपहृतप्रदेशविसरणः समीकृतस्थितिशेषकर्मचतुष्टयः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यानं ध्यायति । ततस्तदनन्तरं समुच्छिन्नक्रियानिवतिध्यानमारभते। समुच्छिन्नप्राणानप्रचारसर्वकायवाङ्मनोयोगसर्वप्रदेशपरिस्पन्दक्रियाव्यापारत्वात् समुच्छिन्नत्रियानिवर्तीत्युच्यते। तस्मिन्समुच्छिन्नक्रियानितिनि ध्याने सर्वबन्धास्रवनिरोधसर्वशेषकर्मशातनसामोपपत्तेरयोगिकेवलिनः संपूर्णयथाख्यातचारित्रज्ञानदर्शनं सर्वसंसारदुःखजालपरिष्वङ्गोच्छेदजननं साक्षान्मोक्षकारणमुपजायते । स पुनरयोगकेवली भगवांस्तदा ध्यानातिशयाग्निनिर्दग्धसर्वमलकलंकबन्धनो निरस्तकिटधातपाषाणजात्यकनकबल्लब्धात्मा परिनिर्वाति । तदेतद् द्विविधं तपोऽभिनवकर्मास्रवनिरोधहेतुत्वात्संवरकारणं प्राक्तनकर्मरजोविधूनननिमित्तत्वान्निर्जराहेतुरपि भवति ।
$ 907. अत्राह सम्यग्दृष्टयः कि सर्वे समनिर्जरा आहोस्वित्कश्चिदस्ति प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते-- ____ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त
___ मोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥45॥
8908. त एते दश सम्यग्दृष्टयादयः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः । तद्यथा भव्यः पचेन्द्रियसंज्ञी पर्याप्तकः पूर्वोक्तकाललब्ध्यादिसहायः परिणामविशुद्धया वर्धमानः क्रमेणापूर्वकरणादिसोऔर जिनके स्वल्पमात्रामें कर्मोका परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने आत्मप्रदेशोंके फैलनेसे कर्मरजको परिशातन करनेको शक्तिवाले दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घातको चार समयोंके द्वारा करके अनन्तर प्रदेशों के विसर्पणका संकोच करके तथा शेष चार कर्मोकी स्थितिको समान करके अपने पूर्व शरीरप्रमाण होकर सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको स्वीकार करते हैं। इसके बाद चौथे समुच्छिन्न क्रियानिवति ध्यानको आरम्भ करते हैं। इसमें प्राणापानके प्रचाररूप क्रियाका तथा सब प्रकारके काययोग, वचनयोग और मनोयोगके द्वारा होनेवालो आत्मप्रदेश परिस्पन्दरूप क्रियाका उच्छेद हो जानेसे इसे समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति ध्यान कहते हैं। इस समुच्छिन्नक्रियानिवति ध्यानमें सब प्रकारके कर्मबन्धके आस्रवका निरोध हो जानेसे तथा बाकीके बचे सब कर्मोके नाश करने की शक्तिके उत्पन्न हो जानेसे अयोगिकेवली के संसारके सब प्रकारके दुःखजालके सम्बन्धका उच्छेद करनेवाला सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्र, ज्ञान और दर्शनरूप साक्षात् मोक्षका कारण उत्पन्न होता है। वे अयोगिकेवली भगवान् उस समय ध्यानातिशयरूप अग्निके द्वारा सब प्रकारके मल-कलंकबन्धनको जलाकर और किट्ट धातु व पाषाणका नाशकर शद्ध हए सोने के समान अपने आत्माको प्राप्तकर परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार यह दोनों प्रकारका तप नूतन कर्मोके आस्रवके निरोधका हेतु होनेसे संवरका कारण है और प्राक्तन कर्मरूपी रजके नाश करनेका हेतु होनेसे निर्जराका भी हेतु है।
8907. यहाँ कहते हैं कि सब सम्यग्दष्टि क्या समान निर्जरावाले होते हैं या कुछ विशेषता है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं---
___सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धिवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन ये क्रमसे असंख्यगुण निर्जरावाले होते हैं ॥451
8908. सम्यग्दृष्टि आदि ये दश क्रमसे असंख्येयगुण निर्जरावाले होते हैं। यथा-जिसे पूर्वोक्त काललब्धि आदिकी सहायता मिली है और जो परिणामोंकी विशुद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त
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सर्वार्थसिद्धौ
[9145 § 908पानपङ्क्त्योत्प्लवमानो बहुतरकर्मनिर्जरो भवति । स एव पुनः प्रथमसम्यक्त्व प्राप्तिनिमित्तसंनिधाने सति सम्यग्दृष्टिर्भवन्नसंख्येयगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनश्चारित्रमोहकर्म विकल्पाप्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमनिमित्तपरिणामप्राप्तिकाले विशुद्धिप्रकर्षयोगात् श्रावको भवन् ततोऽसंख्येयगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनः प्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमकारणपरिणामविशुद्धियोगाव् विरलव्यपदेशभाक् सन् ततोऽसंख्येयगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनरनन्तानुबन्धिक्रोधमान माया लोभानां वियोजनपरो भवति यदा तदा परिणामविशुद्धिप्रकर्ष योगात्ततोऽसंख्येयगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनर्दर्शनमोहप्रकृतित्रयतृणनिचयं निर्दिधक्षन् परिणामविशुद्धयतिशययोगाद्दर्शनमोहक्षपकव्यपदेशभाक् पूर्वोक्तादसंख्येयगुणनिर्जरो भवति । एवं सः क्षायिकसम्यग्दृष्टिभूत्वा श्रेष्यारोहणाभिमुखचारित्रमोहोपशमं प्रति व्याप्रियमाणो विशुद्धिप्रकर्षयो गादुपशमकव्यपदेशमनुभवन् पूर्वोक्तादसंख्येयगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनरशेषचारित्र मोहोपशमनिमित्तसंनिधाने परिप्राप्तोपशान्तकषायव्यपदेशः पूर्वोक्ताद संख्येयगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनश्चारित्रमोहक्षपणं प्रत्यभिमुखः परिणामविशुद्धया वर्द्धमानः क्षपकव्यपदेशमनुभवन्पूर्वोक्ताद संख्येयगुण निर्जरो भवति । स यदा निःशेषचारित्रमोहक्षपणकारणपरिणामः भिमुखः क्षीणकषायव्यपदेशमास्कन्दन्पूर्वोक्तादसंख्येयगुणनिर्जरो भवति । स एव द्वितीयशुक्लध्यानानल निर्दग्धघातिकर्मनिचयः सन् जिनव्यपदेशभाक् पूर्वोक्ताद संख्येयगुणनिर्जरो भवति ।
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हो रहा है ऐसा भव्य पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक जीव क्रमसे अपूर्वकरण आदि सोपान पंक्तिपर चढ़ता हुआ बहुतर कर्मोकी निर्जरा करनेवाला होता है । सर्वप्रथम वह ही प्रथम सम्यक्त्वकी प्राप्ति के निमित्तके मिलनेपर सम्यग्दृष्टि होता हुआ असंख्येयगुण कर्मनिर्जरावाला होता है । पुनः वह हो चारित्र मोहनीय कर्मके एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कर्मके क्षयोपशम निमित्तक परि णामोंकी प्राप्ति के समय विशुद्धिका प्रकर्ष होनेसे श्रावक होता हुआ उससे असंख्येयगुण निर्जरावाला होता है । पुनः वह हो प्रत्याख्यानावरण कर्मके क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की विशुद्धिवश विरत संज्ञाको प्राप्त होता हुआ उससे असंख्येयगुण निर्जरावाला होता है । पुनः वह ही जब अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभकी विसंयोजना करता है तब परिणामोंकी विशुद्धिके प्रकर्षवश उससे असंख्येयगुण निर्जरावाला होता है । पुनः वह ही दर्शनमोहनीयत्रिकरूपी तृणसमूहको भस्मसात् करता हुआ परिणामोंकी विशुद्धिके अतिशयवश दर्शनमोह क्षपक संज्ञाको प्राप्त होता हुआ पहले से असंख्येयगुण निर्जरावाला होता है। इस प्रकार वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर श्रेणिपर आरोहण करनेके सम्मुख होता हुआ तथा चारित्र मोहनीयके उपशम करनेके लिए प्रयत्न करता हुआ विशुद्धिके प्रकर्षवश उपशमक संज्ञाको अनुभव करता हुआ पहले कही गयी निर्जरासे असंख्येयगुण निर्जरावाला होता है । पुनः वह ही समस्त चारित्रमोहनीयके उपशमक निमित्त मिलनेपर उपशान्तकषाय संज्ञाको प्राप्त होता हुआ पहले कही गयी निर्जरासे असंख्येयगुण निर्जरावाला होता है । पुनः वह ही चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए सम्मुख होता हुआ तथा परिणामोंकी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होकर क्षपक संज्ञाको अनुभव करता हुआ पहले कही गयी निर्जरासे असंख्येयगुण निर्जरावाला होता है । पुनः वह ही समस्त चारित्रमोहनीयकी क्षपणा के कारणोंसे प्राप्त हुए परिणामोंके अभिमुख होकर क्षीणकषाय संज्ञाको प्राप्त करता हुआ पहले कही गयी निर्जरासे असंख्येय गुण निर्जरावाला होता है । पुनः वह ही द्वितीय शुक्लध्यान रूपी अग्निके द्वारा घातिकर्म समूहका नाश करके जिन संज्ञाको प्राप्त होता हुआ पहले कही गयी निर्जरासे असंख्येयगुण निर्जरावाला होता है ।
1. भाक् तेष्वेव पूर्वो-- मु.
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-9146 8 910] नवमोऽध्यायः
[363 5909. आह, सम्यग्दर्शनसंनिधानेऽपि यद्यसंस्थेयगुणनिर्जरत्वात्परस्परतो न साम्यमेषां कि सहि बायकववमी विरतादयो गुणभेदान्न निर्ग्रन्थतामहन्तीति ? उच्यते, नैतदेवम् । कुतः । यस्माद् गुणमेवादन्योऽन्यविशेषेऽपि नेगमादिनयव्यापारात्सर्वेऽपि हि भवन्ति----
पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः ॥46॥ 8910. उत्तरगुणभाव'नापेतमनसो व्रतेष्वपि क्वचित्कदाचित्परिपूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तोऽ. विधुसपुलाकसादृश्यात्पुलाका इत्युच्यन्ते । नम्रन्थ्यं प्रति स्थिता अखण्डितव्रताः शरीरोपकरणविभूपानुवर्तिनोऽविविक्तपरिवारा मोहशबलयुक्ता बकुशाः । शबलपर्यायवाची बकुशशब्दः । कुशीला द्विविधाः--प्रतिसेवनाकुशीलाः कषायकुशीला इति । अविविक्तपरिग्रहाः परिपूर्णोभयाः कथंचिदुत्तरगुण विराधिनः प्रतिसेवनाकुशोलाः । वशीकृतान्यकषायोदयाः संज्वलनमात्रतन्त्राः कषायकुशीलाः। उदकदमराजिवदनभिव्यक्तोदयकर्माणः ऊध्वं मुहूर्तादुद्भिद्यमानकेवलज्ञानदर्शनभाजो निर्ग्रन्थाः।
विशेषा--यहाँ मुख्य रूपसे गुणश्रेणि निर्जराके दस स्थानोंका निर्देश किया गया है। वहंख्यात गुणितक्रम श्रेणिरूपसे कर्मोंकी निर्जरा होना गुणश्रेणिनिर्जरा है । यह गुणश्रेणि निर्जरा सर्वदा नहीं होती किन्तु उपशमना और क्षपणाके कारणभूत परिणामोंके द्वारा ही गुणश्रेणि रचना होकर यह निर्बरा होती है । गुणश्रेणि रचना दो प्रकारको होती है-एक तो गलितावशेष गुणश्रेणि रचना और दूसरी अवस्थित गुणश्रेणि रचना । यह कहाँ किस प्रकारकी होती है इसे लब्धिसार क्षपणासारसे जान लेना चाहिए । यहाँ इतना ही विशेष वक्तव्य है कि यहाँ जो दस स्थान बतलाये हैं उनमें उत्तरोत्तर गुणश्रेणिनिर्जराके लिए असंख्यातगुणा द्रव्य प्राप्त होता है किन्तु भागे-आगे गुणश्रेणिका काल संख्यातगुणा हीन-हीन है । अर्थात् सम्यग्दृष्टिको गुणश्रेणि निर्जरामें को बन्तर्महुर्त काल लगता है उससे श्रावकको संख्यात गुणा हीन काल लगता है पर सम्यग्दृष्टि गणवेणि द्वारा बितने कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा करता है उससे श्रावक असंख्यात गणे कर्मपरमाणओंकी निर्जरा करता है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए।
8909. कहते हैं, सम्यग्दर्शनका सान्निध्य होनेपर भी यदि असंख्येयगुण निर्जराके कारण ये परस्परमें समान नहीं हैं तो क्या श्रावकके समान ये विरत आदिक भी केवल गुणभेदके कारण निर्ग्रन्थपनेको नहीं प्राप्त हो सकते हैं, इसलिए कहते हैं कि यह बात ऐसी नहीं है, क्योंकि यतः गुणभेदके कारण परस्पर भेद होनेपर भी नैगमादि नयको अपेक्षा वे सभी होते हैं
पुसाक, बकुश, कुशील, निर्गन्य और स्नातक ये पांच निर्ग्रन्थ हैं ॥460
8910. जिनका मन उत्तरगुणोंकी भावनासे रहित है, जो कहीं पर और कदाचित् व्रतोंमें भी परिपूर्णताको नहीं प्राप्त होते हैं वे अविशुद्धपुलाक (मुरझाये हुए धान्य) के समान होनेसे पुलाक कहे जाते हैं । जो निर्ग्रन्थ होते हैं, व्रतोंका अखण्डरूपसे पालन करते हैं, शरीर और उपकरणोंकी शोभा बढ़ाने में लगे रहते हैं, परिवारसे घिरे रहते हैं और विविध प्रकारके मोहसे युक्त होते हैं वे बकुश कहलाते हैं । यहां पर बकुश शब्द 'शबल' (चित्र-विचित्र) शब्दका पर्यायवाची है। कुशील दो प्रकारके होते हैं---प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील । जो परिग्रहसे घि है, जो मूल और उत्तरगुणोंमें परिपूर्ण हैं लेकिन कभी-कभी उत्तरगुणोंको विराधना करते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील कहलाते हैं । जिन्होंने अन्य कषायोंके उदयको जीत लिया है और जो केवल संज्वलन कषायके अधीन हैं वे कषायकुशील कहलाते हैं। जिस प्रकार जलमें लकड़ीसे की गयी 1.-भावनोपेत-- मु.। 2. शुद्धा: पुलाक- मु.। 3. - वारा मोहछेदशवल- आ., दि. 1 ।--वारान मोहसवम-दि. 21 4. -विरोधिन: मु.।
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364] सर्वार्थसिद्धौ
[9147891 - प्रक्षीणघाटि... केलिनो द्विविधाः स्नातकाः । त एते पंचापि निम्रन्याः । चारित्रपरिणामस्य प्रकर्षाप्रकर्षभेदे सत्यपि नैगमसंग्रहादिनयापेक्षया सर्वेऽपि ते निम्रन्था इत्युच्यन्ते ।
8911. तेषां पुलाकादीनां भूयोऽपि विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
संयमश्रुतप्रतिसेवनातीलिंगलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ॥47॥
6 912. त एते पुलाकादयः संयमादिभिरष्टभिरनुयोगः साध्या व्याख्येयाः। तद्यथापुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीला द्वयोः संयमयोः सामायिकच्छेदोपस्थापनयोर्वर्तन्ते । कषायकुशोला द्वयोः संयमयोः परिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययोः पूर्वयोश्च । निर्ग्रन्थस्नातका एकस्मिन्नेव पयाख्यातसंयमे सन्ति।
$913. श्रुतं-पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कर्षेणाभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः। कषायकुशीला निम्रन्याश्चतुर्दशपूर्वधराः । जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु । बकुशकुशीलनिर्ग्रन्थानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः । स्नातका अपगतश्रुताः केवलिनः।
... $914. प्रतिसेवना-पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनवर्जनस्य च पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति । बकुशो द्विविधः--उपकरणबकुशः शरीरबकुशश्चेति । तत्रोपकरणबकुशो बहुविशेषयुक्तोपकरणाकांक्षी । शरीरसंस्कारसेवी शरीरबकुशः । प्रतिसेवनारेखा अप्रकट रहती है उसी प्रकार जिनके कर्मोंका उदय अप्रकट हो और जो अन्तर्मुहर्तके बाद प्रकट होनेवाले केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त करते हैं दे निग्रन्थ कहलाते हैं। जिन्होंने चार घातिया कर्मोका नाश कर दिया है ऐसे दोनों प्रकारके केवली स्नातक कहलाते हैं। ये पाँचों ही निर्ग्रन्थ होते हैं । इनमें चारित्ररूप परिणामोंकी न्यूनाधिकताके कारण भेद होनेपर भी नैगम और संग्रह आदि नयोंकी अपेक्षा वे सब निर्ग्रन्थ कहलाते हैं।
8911. अब उन पुलाक आदिके सम्बन्धमें पुनरपि ज्ञान प्राप्त करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिंग, लेश्या, उपपाद और स्थानके भेदसे इन निर्गन्धोंका व्याख्यान करना चाहिए ॥47॥
89 2. ये पुलाक आदि संयम आदि आठ अनुयोगोंके द्वारा साध्य हैं अर्थात् व्याख्यान करने योग्य हैं । यथा--पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील सामायिक और छेदोपस्थापना इन दो संयमोंमें रहते हैं । कषायकुशील पूर्वोक्त दो संयमोंके साथ परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय इन दो संयमोंमें रहते हैं । निर्ग्रन्थ और स्नातक एक मात्र यथाख्यात संयममें रहते हैं।
913. श्रुत--पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील उत्कृष्टरूपसे अभिन्नाक्षर दश पूर्वधर होते हैं । कषायकुशील और निर्ग्रन्थ चौदह पूर्वधर होते हैं । जघन्यरूपसे पुलाकका श्रुत आचार वस्तुप्रमाण होता है । बकुश, कुशोल और निर्ग्रन्थोंका श्रुत आठ प्रवचनमातृकाप्रमाण होता है । स्नातक श्रुतज्ञानसे रहित केवली होते हैं।
8914. प्रतिसेवना-दूसरोंके दबाववश जबरदस्तीसे पाँच मूलगुण और रात्रिभोजन वर्जन व्रतमेंसे किसी एकको प्रतिसेवना करनेवाला पुलाक होता है । बकुश दो प्रकारके होते हैं, उपकरणबकुश और शरीरबकुश। उनमेंसे अनेक प्रकारकी विशेषताओंको लिये हुए उपकरणोंको चाहनेवाला उपकरणबकुश होता है तथा शरीरका संस्कार करनेवाला शरीरबकुश होता है। प्रतिसेवना कुशील मूलगुणोंको विराधना न करता हुआ उत्तरगुणोंकी किसी प्रकारको विराधना
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-9147 § 719]
नवमोऽध्यायः
कुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेषु कांचिद्विराधनां प्रतिसेवते । कषायकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकाना प्रतिसेवना नास्ति ।
$915. तीर्थमिति सर्वे सर्वेषां तीर्थकराणां तीर्थेषु भवन्ति ।
8916. लिङ्ग द्विविधं द्रव्यलिगं भावलिगं चेति । भावलिगं प्रतीत्य सर्वे पंच निर्ग्रन्था लिगिनो भवन्ति । द्रव्यलिगं प्रतीत्य भाज्याः ।
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8917. लेश्या:- पुलाकस्योत्तरास्तिस्रः बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः षडपि । कषायकुशीलस्य चतस्र उत्तराः । सूक्ष्मसांपरायस्य निर्ग्रन्थस्नातकयोश्च शुक्लैव केवला । अयोगा अलेश्याः । 8918. उपपाद:- पुलाकस्योत्कृष्ट उपपाद उत्कृष्टस्थितिदेवेषु सहस्रारे । बकुशप्रतिसेवनाशीलयोर्द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिषु आरणाच्युतकल्पयोः । कषायकुशीलनिग्रं न्ययोस्त्रयस्त्रिशसागरोपमस्थितिषु सर्वार्थसिद्धौ । सर्वेषामपि जघन्यः सौधर्मकल्पे द्विसागरोपमस्थितिषु । स्नातकस्य निर्वाणमिति ।
8919. स्थानम् -- असंख्येयानि संयमस्थानानि कषायनिमित्तानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यानि लब्धिस्थानानि पुलाककषायकुशीलयोः । तौ युगपदसंख्येयानि स्थानानि गच्छतः । ततः लाको व्युच्छिद्यते । कषायकुशीलस्ततोऽसंख्येयानि स्थानानि गच्छत्ये काकी । ततः कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलवकुशा युगपदसंख्येयानि स्थानानि गच्छन्ति । ततो बकुशो व्युच्छिद्यते । ततोऽ
की प्रतिसेवना करनेवाला होता है । कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातकोंके प्रतिसेवना नहीं होती ।
8915. तीर्थ-ये सब निर्ग्रन्थ सब तीर्थंकरोंके तीर्थोंमें होते हैं ।
8916. लिंग - लिंग दो प्रकारका है, द्रव्यलिंग और भावलिंग । भावलिंगकी अपेक्षा पांचों ही साधु निर्ग्रन्थ लिंगवाले होते हैं । द्रव्यलिंग अर्थात् शरीरकी ऊँचाई, रंग व पीछी आदिकी अपेक्षा उनमें भेद है ।
$ 917 लेश्या – पुलाक के आगेकी तीन लेश्याएँ होती हैं । बकुश और प्रतिसेवना-कुशील के छहों लेश्याएँ होती हैं । कषायकुशीलके अन्तकी चार लेश्याएँ होती हैं। सूक्ष्मसाम्पराय कषायकुशील तथा निर्ग्रन्थ और स्नातकके केवल शुक्ल लेश्या होती है और अयोगी लेश्या रहित होते हैं ।
8918. उपपाद - पुलाकका उत्कृष्ट उपपाद सहस्रार कल्पके उत्कृष्ट स्थितिवाले देवोंमें होता है । बकुश और प्रतिसेवना कुशीलका उत्कृष्ट उपपाद आरण और अच्युत कल्पमें बाईस सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंमें होता है । कषायकुशील और निर्ग्रन्थका उत्कृष्ट उपपाद सर्वार्थसिद्धिमें तैंतीस सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंमें होता है । इन सभीका जघन्य उपपाद सौधर्म कल्पमें दो सागरोपम की स्थितिवाले देवोंमें होता है। तथा स्नातक मोक्ष जाते हैं ।
8919. स्थान -- कषायनिमित्तक असंख्यात संयमस्थान होते हैं । पुलाक और कषायकुशीलके सबसे जघन्य लब्धिस्थान होते हैं । वे दोनों असंख्यात स्थानोंतक एक साथ जाते हैं । इसके बाद पुलाककी व्युच्छित्ति हो जाती है। आगे कषायकुशील असंख्यात स्थानोंतक अकेला जाता है । इससे आगे कषायकुशील, प्रतिसेवना कुशील और बकुश असंख्यात स्थानोंतक एक साथ जाते हैं । यहाँ बकुशकी व्युच्छित्ति हो जाती है । इससे भी असंख्यात स्थान आगे जाकर 1. षडपि । कृष्णलेश्यादित्रितयं तयोः कथमिति चेदुच्यते—तयोरुपक रणासक्तिसंभवादार्तध्यानं कदाचित्संभवति, आर्तध्यानेन च कृष्णादिलेश्यात्रितयं संभवतीति । कषाय - मु.
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366] सर्वार्थसिद्धौ
[91478919प्यसंख्येयानि स्थानानि गत्वा प्रतिसेवनाकुशीलो व्युच्छिद्यते । ततोऽप्यसंख्येयानि स्थानानि गत्वा कषायकुशीलो व्युच्छिद्यते । अत ऊर्ध्वमकषायस्थानानि निर्ग्रन्थः प्रतिपद्यते। सोऽप्यसंख्येवानि स्थानानि गत्वा व्युच्छिद्यते । अत ऊर्ध्वमेकं स्थानं गत्वा स्नातको निर्वाण प्राप्नोतीत्येतेषां संयमलब्धिरनन्तगुणा भवति।
इति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धिसंजिकायां नवमोऽध्यायः समाप्तः ।
प्रतिसेवना कुशीलकी व्युच्छित्ति हो जाती है । पुनः इससे भी असंख्यात स्थान आगे जाकर कषाय कशीलकी व्यच्छित्ति हो जाती है। इससे आगे अकषाय स्थान है जिन्हें निर्ग्रन्थ प्राप्त होता है। उसकी भी असंख्यातस्थान आगे जाकर व्युच्छित्ति हो जाती है। इससे आगे एक स्थान जाकर स्नातक निर्वाणको प्राप्त होता है । इनकी संयमलब्धि अनन्तगुणी होती है।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धिनामक तत्त्वार्थवृत्तिमें नौवां अध्याय समाप्त हुआ।
1. प्राप्नोति तेषां मु.।
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श्रथ दशमोऽध्यायः
$ 920. आह, अन्ते निर्दिष्टस्य मोक्षस्येदानों स्वरूपाभिधानं प्राप्तकालमिति । सत्यमेवम् । मोक्षप्राप्तिः केवलज्ञानावाप्तिपूर्विकेति केवलज्ञानोत्पत्तिकारणमुच्यते
मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ॥1॥
8921. इह वृत्तिकरणं न्याय्यम् । कुतः ? लघुत्वात् । कथम् ? एकस्य 'क्षय' शब्दस्याकरणाद् विभक्त्यन्तरनिर्देशस्य चाभावात् 'च' शब्दस्य चाप्रयोगाल्लघु सूत्रं भवति 'मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात्केवलम्' इति । सत्यमेतत्, क्षयक्रमप्रतिपादनार्थी वाक्यभेदेन निर्देश: क्रियते । प्रागेव मोहं क्षयमुपनीयान्तर्मुहूर्तं क्षीणकषायव्यपदेशमवाप्य ततो युगपज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणां क्षयं कृत्वा केवलमवाप्नोति इति । तत्क्ष'यो हेतुः केवलोत्पत्तेरिति हेतुलक्षणो विभक्तिनिर्देशः कृतः । कथं प्रागेव मोहः क्षयमुपनीयते इति चेदुच्यते - भव्यः सम्यग्दृष्टिः परिणामविशुद्धया वर्धमानोऽसंयत सम्यग्दृष्टि संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानेषु कस्मिन्मोहस्य सप्त प्रकृतीः क्षयमुपनीय क्षायिक सम्यग्दृष्टिर्भूत्वा क्षपकश्रेण्यारोहणाभिमुखोऽधः प्रवृत्तकरणमप्रमत्तस्थाने प्रतिपद्यापूर्वकरणप्रयोगेणापूर्वक रणक्षपकगुणस्थानव्यपदेशमनुभूय तत्राभिनवशुभाभिसन्धितनूकृतपापप्रकृतिस्थित्यनुभागो विर्वावतशुभकर्मानुभवोऽनिवृत्तिकरणप्राप्त्यानिवृत्तिबादर सांप
8920. कहते हैं कि अन्तमें कहे गये मोक्षके स्वरूपके कथनका अब समय आ गया है । यह कहना सही है तथापि केवलज्ञानकी उत्पत्ति होने पर ही मोक्षकी प्राप्ति होती है, इसलिए पहले केवलज्ञानकी उत्पत्ति के कारणोंका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
मोहका क्षय होनेसे तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका क्षय होनेसे केवलज्ञान प्रकट होता है ulu
8921. इस सूत्र में समास करना उचित है, क्योंकि इससे सूत्र लघु हो जाता है। शंका--- कैसे ? प्रतिशंका- क्योंकि ऐसा करनेसे एक क्षयशब्द नहीं देना पड़ता है और अन्य विभक्तिके निर्देशका अभाव हो जानेसे 'च' शब्दका प्रयोग नहीं करना पड़ता है, इसलिए सूत्र लघु हो जाता है । यथा-' -'मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात्केवलम्' । समाधान - यह कहना सही है तथापि क्षयके क्रमका कथन करनेके लिए वाक्योंका भेद करके निर्देश किया है। पहले ही मोहका क्षय करके और अन्तर्मुहूर्त कालतक क्षीणकषाय संज्ञाको प्राप्त होकर अनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका एक साथ क्षय करके केवलज्ञानको प्राप्त होता है। इन कर्मोंका क्षय केवलज्ञानकी उत्पत्तिका हेतु है ऐसा जानकर 'हेतुरूप' विभक्तिका निर्देश किया है। शंका- पहले ही मोहके क्षयको कैसे प्राप्त होता है ? समाधान - परिणामोंकी विशुद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त होता हुआ असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानोंमें से किसी एक गुणस्थानमें मोहनीयकी सात प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर क्षपकश्रेणिपर आरोहण करने के लिए सम्मुख होता हुआ अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें अधःप्रवृत्तकरणको प्राप्त होकर अपूर्वकरणके प्रयोग द्वारा अपूर्वकरणक्षपक गुणस्थान संज्ञाका अनुभव करके और वहाँ पर नूतन-परिणामोंकी विशुद्धिवश पापप्रकृतियोंकी स्थिति और अनुभागको कृश करके तथा शुभकर्मोंके अनुभागकी वृद्धि करके अनिवृत्तिकरणको प्राप्ति द्वारा अनिवृत्तिबादर1. - ज्ञानाप्ति - आ । 2. कथम् ? क्षय- मु. 3. तत्क्षयहेतुः केवलोत्पत्तिरिति मु., ता.
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3681 सर्वार्थसिद्धौ
[912 8 922--- रायक्षपकगुणस्थानमधिरुह्य तत्र कषायाष्टकं नष्ट कृत्वा नपुंसकवेदनाशं समापाद्य स्त्रीवेदमुन्मूल्य नोकषायषटकं पुंवेदे प्रक्षिप्य क्षपयित्वा पुंवेदं क्रोधसंज्वलने, क्रोधसंज्वलनं मानसंज्वलने, मानसंज्वलनं मायासंज्वलने, मायासंज्वलनं च लोभसंज्वलने क्रमेण बादरकृष्टिविभागेन विलयमुपनीय लोभसंज्वलनं तनूकृत्य सूक्ष्मसांपरायक्षपकत्वमनुभूय निरवशेष मोहनीयं निर्मूलकषायं कषित्वा क्षीणकषायतामधिरुह्यावतारितमोहनीयभार उपान्त्यप्रथमे समये निद्राप्रचले प्रलयमुपनीय पञ्चानां ज्ञानावरणानां चतुर्णा दर्शनावरणानां पञ्चानामन्तरायाणां चान्तमन्ते समुपनीय' तदनन्तरं ज्ञानदर्शनस्वभावं केवलपर्यायमप्रतर्यविभूतिविशेषमवाप्नोति ।
8922. आह कस्माद्धेतोर्मोक्षः किलक्षणश्चेत्यत्रोच्यते -
बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥2॥
8923. मिथ्यादर्शनादिहेत्वभावादभिनवकर्माभावः पूर्वोदितनिर्जराहेतुसंनिधाने चाजितकर्मनिरासः । ताभ्यां बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यामिति हेतुलक्षणविभक्तिनिर्देशः । ततो भवस्थितिहेतुसमीकृतशेषकर्भावस्थस्य युगपदात्यन्तिकः कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः प्रत्येतव्यः । कर्माभावो द्विविधः--यत्नसाध्योऽयत्नसाध्यश्चेति । तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुणमभावो न यत्नसाध्यः, असत्त्वात् । यत्नसाध्य इत ऊर्ध्वमुच्यते--असंयतसम्यादृष्ट्यादिषु चतुर्पु गुणस्थानेषु कस्मिश्चि
साम्पराय क्षपकगुणस्थानपर आरोहण करके तथा वहाँ आठ कषायोंका नाश करके तथा नपुसकवेद और स्त्रीवेदका क्रमसे नाश करके, छह नोकषायका पूरुषवेद में संक्रमण द्वारा नाश करके तथा पुरुषवेदका क्रोधसंज्वलनमें, क्रोधसंज्वलनका मानसंज्वलनमें, मानसंज्वलनका मायासंज्वलनमें और मायासंज्वलनका लोभसंज्वलनमें क्रमसे बादरकृष्टिविभागके द्वारा संक्रमण करके तथा लोभसंज्वलनको कृश करके, सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकत्वका अनुभव करके, समस्त मोहनीयका निमल नाश करके, क्षीणकषाय गुणस्थानपर आरोहण करके, मोहनीयके भारको उतारकर क्षीणकषाय गणस्थानके उपान्त्य संमयमें निद्रा और प्रचलाका नाश करके तथा अन्तिम समय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्मोका अन्त करके तदनन्तर ज्ञानदर्शनस्वभाव अवितर्य विभूति विशेषरूप केवलपर्यायको प्राप्त होता है।
8922. कहते हैं कि किस कारणसे मोक्ष प्राप्त होता है और उसका लक्षण क्या है यह बतलानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं
बन्ध-हेतुओंके अभाव और निर्जर।से सब कर्मोंका आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है ।।2।।
६ 923 मिथ्यादर्शनादिक हेतुओंका अभाव होनेसे नूतन कर्मोका अभाव होता है और पहले कही गयी निर्जरारूप हेतुके मिलनेपर अजित कर्मोका नाश होता है। इन दोनोंसे, 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम्' यह हेतुपरक विभक्तिका निर्देश है, जिसने भवस्थितिके हेतुभूत आयुकर्मके बराबर शेष कर्मोकी अवस्थाको कर लिया है उसके उक्त कारणोंसे एक साथ समस्त कर्मोका आत्यन्तिक वियोग होना मोक्ष है ऐसा जानना चाहिए। कर्मका अभाव दो प्रकारका है-यत्नसाध्य और अयत्नसाध्य । इनमें-से चरम देहवालेके नरकायु, तिर्यंचायु और देवायुका अभाव यत्नसाध्य नहीं होता, क्योंकि चरम देहवाले के उनका सत्व नहीं उपलब्ध होता। आगे यत्न-साध्य अभाव कहते हैं-असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानोंमेंसे किसी एक गुणस्थानमें सात 1. -लन लोभ--- मु.। 2. --याणामन्त-- म.। 3. गमपगमय्य तद-- मु., ता.। 4 --वस्थितस्य मु., ता.। 5. .-दात्यतीकृतकृ-- मु. ।
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---1012 $ 923] दशमोऽध्यायः
[369 सप्तप्रकृतिक्षपः क्रियते । निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानगद्धिनरकगतितिर्यग्गत्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिनरकगतितिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्यातपोद्योतस्थावरसूक्ष्मसाधारणसंज्ञिकानां षोडशानां कर्मप्रकृतीनामनिवृत्तिबादरसांपरायस्थाने युगपत्क्षयः क्रियते । ततः परं तत्रैव कषायाष्टक नष्टं क्रियते । नपुंसकवेदः स्त्रीवेदश्च क्रमेण तत्रैव क्षयमुपयाति । 'नोकषायषट्कं च सहैकेनैव प्रहारेण विनिपातयति । ततः पुंवेदसंज्वलनकोधमानमायाः क्रमेण तत्रैवात्यन्तिकं ध्वंसमास्कन्दन्ति । लोभसंज्वलनः सूक्ष्मसापरायान्ते यात्यन्तम् । निद्राप्रचले क्षोणकषायवीतरागच्छद्मस्थस्योपान्त्यसमये प्रलयमुपव्रजतः । पंचानां ज्ञातावरणानां चतुर्णा दर्शनावरणानां पंचानामन्तरायाणां च तस्यैवान्त्यसमये प्रक्षयो भवति । अन्यतरवेदनीयदेवगत्यौदारिफवैक्रियिकाहारकतैजसफार्मणशरीपंचबन्धनपंचसंघातसंस्थानषट्कौदारिकवैक्रियिकाहारकशरीराङ्गोपाङ्गषट् संहननपंचप्रशस्तवर्णपंचाप्रशस्तवर्णगन्धद्वयपंचप्रशस्तरसपञ्चाप्रशस्तरसस्पर्शाष्टकदेवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातोछवासप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगत्यपर्याप्तकप्रत्येकशरीरस्थिरास्थिरकाभ
रदुःस्वरानावेयायशःकोतिनिर्माणनामनीचैर्गोत्राख्या द्वासप्ततिप्रकृतयोऽयोगकेवलिन उपान्त्यसमये विनाशमुपयान्ति । अन्यतरवेदनीयमनुष्यायुमनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातिमनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वोत्रसवादरपर्याप्तकसुभगादेययशःकोतितीर्थकरनामोच्चैर्गोत्रसंज्ञिकानां त्रयोदशानां प्रकृतीनामयोगकेवलिनश्चरमसमये व्युच्छेदो भवति । प्रकृतियोंका क्षय करता है। पुन: निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगद्धि, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वोन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नामवाली सोलह कर्मप्रकृतियोंका अनिवृत्तिबादरसाम्पराय गुणस्थानमें एक साथ क्षय करता है । इसके बाद उसी गुणस्थानमें आठ कषायोंका नाश करता है । पुनः वहींपर नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका क्रमसे क्षय करता है। तथा छह नोकषायोंको एक ही प्रहारके द्वारा गिरा देता है । तदनन्तर पुरुषवेद संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान और संज्वलनमायाका वहाँपर क्रमसे अत्यन्त क्षय करता है। तथा लोभसंज्वलन सक्षमसाम्पराय गणस्थानके अन्तमें विनाशको प्राप्त होता है। निद्रा और प्रचला क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थगुणस्थानके उपान्त्य समयमें प्रलयको प्राप्त होते हैं। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय कर्मोका उसी गणस्थानके अन्तिम समय में क्षय होता है। कोई एक वेदनीय, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तेजसशरीर, कार्मण शरीर, पाँच बन्धन, पांच संघात, छह संस्थान, औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियिकशरीर अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग, छह संहनन, पाँच प्रशस्त वर्ण, पाँच अप्रशस्त वर्ण, दो गन्ध, पाँच प्रशस्त रस, पाँच अप्रशस्त रस, आठ स्पर्श, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पर घात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र नामवाली बहत्तर प्रकृतियोंका अयोगकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समयमें विनाश होता है तथा कोई एक वेदनीय, मनुष्य आयु. मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वी, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति, तीर्थकर और उच्चगोत्र नामवाली तेरह प्रकृतियोंका अयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें वियोग होता है ।
विशेषार्थ-कुल उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस हैं। उनमें से चरमशरीरी जीवके नरकायु, तिर्यंचायु और देवायुका सत्त्व होता ही नहीं । आहारकचतुष्क और तीर्थंकरका सत्त्व 1. -वेदश्च तत्रैव मु.। 2. नोकषायाष्टकं च सहै- मु.।
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370] सर्वार्थसिद्धौ
[1013 6 924$ 924. आह, किमासां पौद्गलिकोनामेव द्रव्यकर्मप्रकृतीनां निरासान्मोक्षोऽवसीयते उत भावकर्मणोऽपीत्यत्रोच्यते
औपशमिकादिभव्यत्वानां च ॥3॥ $ 925. किम् ? 'मोक्षः' इत्यनुवर्तते। भव्यत्वग्रहणमन्यपारिगामिकनिवृत्त्यर्थम् । तेन पारिणामिकेषु भव्यत्वस्यौपशमिकादीनां च भावानामभावान्मोक्षो भवतीत्यम्युपगम्यते।
8926. आह, यद्यपवर्गो भावोपरतेः प्रतिज्ञायते, 'ननु औपशमिकादिभावनिवृत्तिवत्सर्वक्षायिकभावनिवृत्तिव्यपदेशो मुक्तस्य प्राप्नोतीति । स्यादेतदेवं यदि विशेषो नोच्येत। अस्त्यत्र विशेष इत्यपवादविधानार्थमिदमुच्यते
अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥३॥ 8927. अन्यत्रशब्दापेक्षया का निर्देशः । केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्भनसिद्धत्वेभ्योऽन्यत्रान्यस्मिन्नयं विधिरिति । यदि चत्वार एवावशिष्यन्ते, अनन्तवीर्यादीनां निवृत्तिःप्राप्नोति ? नैव दोषः, किसीके होता है और किसीके नहीं होता। इनके सिवा शेष प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे होता है। यह जीव गुणस्थान क्रमसे बन्धहेतुओंका अभाव करता है इसलिए क्रमसे नूतन बन्धका अभाव होता जाता है और सत्ता में स्थित प्राचीन प्रकृतियोंका परिणाम-विशेषसे कम करता जाता है इसलिए सत्तामें स्थित कर्मोका भी अभाव होता जाता है और इस प्रकार बन्तमें सब कर्मोका वियोग हो जानेसे यह जीव मुक्त होता है। यहां मोक्ष शब्दका प्रयोग कर्म, नोकर्म और भावकर्मके वियोग अर्थमें किया गया है । संसारी जीव बद्ध है अतएव वह किसी अपेक्षा से परतन्त्र है। उसके बन्धनके टूट जाने पर वह मुक्त होता है अर्थात् अपनो स्वतन्त्रताको प्राप्त करता है। इस प्रकार मोक्ष क्या है इसका निर्देश किया।
8924. कहते हैं कि क्या इन पौद्गलिक द्रव्यकर्म प्रकृतियोंके वियोगसे ही मोक्ष मिलता है या भावकर्मोके भी अभावसे मोक्ष मिलता है इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
तथा औपशमिक आदि भावों और भव्यत्व भावके अभाव होनेसे मोक्ष होता है ॥3॥
8925. क्या होता है ? मोक्ष होता है । यहाँ पर 'मोक्ष' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। अन्य पारिणामिक भावोंकी निवृत्ति करनेके लिए सूत्रमें भव्यत्व पदका ग्रहण किया है। इससे पारिणामिक भावोंमें भव्यत्वका और औपमिक आदि भावोंका अभाव होनेसे मोक्ष होता है यह स्वीकार किया जाता है।
8926. कहते हैं, यदि भावोंके अभाव होनेसे मोक्षकी प्रतिज्ञा करते हो तो औपशमिक आदि भावोंकी निवृत्तिके समान समस्त क्षायिक भावोंकी निवृत्ति मुक्त जीवके प्राप्त होती है ? यह ऐसा होवे यदि इसके सम्बन्ध में कोई विशेष बात न कही जावे तो। किन्तु इस सम्बन विशेषता है इसलिए अपवादका विधान करनेके लिए यह आगेका सूत्र कहते हैं -
पर केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व भावका अभाव नहीं होता।
8927. यहाँ पर अन्यत्र शब्दको अपेक्षा पंचमी विभक्तिका निर्देश किया है। केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व इनके सिवा अन्य भावोंमें यह विधि होती है। अंका-सिद्धोंके यदि चार ही भाव शेष रहते हैं तो अनन्तवीर्य आदिकी निवृत्ति प्राप्त होती है ? 1. --यते नत्वोप-- मू.। --यतेत दोप-- ना.। 2. 'कापदाने' -जैनेन्द्र. 1, 4,411 'अपादाने कारके का विभक्तिर्भवति।' वृत्तिः । प्रतिष 'को निर्देशः' इति पाठः ।
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~1016 8 931] दशमोऽध्यायः
1371 ज्ञानदर्शनाविनाभावित्वादनन्तवीर्यादीनामविशेषः, अनन्तसामर्थ्यहीनस्यानन्तावबोधवृत्त्यभावाम्ज्ञानमयस्त्वाच्च सुखस्येति। अनाकारत्वान्मक्तानामभाव इति चेन्न; अतीतानन्तरशरीराकारत्वात् ।
8928. स्यान्मतं, यदि शरीरानुविधायी जीवः, तदभावात्स्वाभाविकलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वातावद्विसर्पणं प्राप्नोतीति । नैष दोषः । कुतः ? कारणाभावात् । नामकर्मसंबन्धो हि संहरणविसर्पणकारणम् । तदभावात्पुनः संहरणविसर्पणाभावः ।
8929. यदि कारणाभावान्न संहरणं न विसर्पणं तहि गमनकारणाभावादूर्ध्वगमनमपि न प्राप्नोति अधस्तिर्यग्गमनाभाववत्, ततो यत्र मुक्तस्तत्रैवावस्थानं प्राप्नोतीति । अत्रोच्यते----
तदनन्तरमूवं गच्छत्या लोकान्तात् ॥5॥ 8930. तस्यानन्तरम् । कस्य ? सर्वकर्मविप्रमोक्षस्य । आङभिविध्यर्थः । ऊर्ध्व गच्छत्या लोकान्तात् । 8931. अनुपदिष्टहेतुकमिदमूर्ध्वगमनं कथमध्यवसातुं शक्यमित्यत्रोच्यते
पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥6॥ समाधान यह कोई दोष नहीं है क्योंकि ज्ञान-दर्शनके अविनाभावी होनेसे अनन्तवीर्य आदिक भी सिद्धोंमें समानरूपसे पाये जाते हैं, क्योंकि अनन्त सामर्थ्य से हीन व्यक्तिके अनन्तज्ञान नहीं हो सकती और सुख ज्ञानमय होता है । शंका-अनाकार होनेसे मुक्त जीवोंका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान नहीं। क्योंकि उनके अतीत अनन्तर शरीरका आकार उपलब्ध होता है।
6928. शंका-यदि जीव शरीरके आकारका अनकरण करता है तो शरीरका अभाव होनेसे उसके स्वाभाविक लोकाकाशके प्रदेशोंके बराबर होनेके कारण जीव तत्प्रमाण प्राप्त होता है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीवके तत्प्रमाण होनेका कोई कारण नहीं उपलब्ध होता । नामकर्मका सम्बन्ध जीवके संकोच और विस्तारका कारण है, किन्तु उसका अभाव हो जाने से जीवके प्रदेशोंका संकोच और विस्तार नहीं होता।
8929. यदि कारणका अभाव हो जानेसे जीवके प्रदेशोंका संकोच और विस्तार नहीं होता तो गमनके कारणका अभाव हो जानेसे जिस प्रकार यह जीव तिरछा और नीचेकी ओर गमन नहीं करता है उसी प्रकार उसका ऊर्ध्वगमन भी नहीं प्राप्त होता है, इसलिए जिस स्थानपर मुक्त होता है उसी स्थान पर उसका अवस्थान प्राप्त होता है, ऐसी शंकाके होनेपर आगेके सूत्र द्वारा उसका समाधान करते हैं।
तवनन्तर मुक्त जीव लोकके अन्त तक ऊपर जाता है ॥5॥
8930. उसके अनन्तर । शंका--किसके ? समाधान-सब कर्मोंके वियोग होनेके । सूत्रमें 'आङ्' पद अभिविधि अर्थ में आया है । लोकके अन्त तक ऊपर जाता है।
8931. जीव ऊर्ध्वगमन क्यों करता है इसका कोई हेतु नहीं बतलाया, इसलिए इसका निश्चय कैसे होता है, अतः इसी बातका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पूर्वप्रयोगसे, संगका अभाव होनेसे, बन्धनके टूटनेसे और वैसा गमन करना स्वभाव होनेसे मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है ॥6॥ 1. --मयपर्यायत्वाच्च मु., ता.। 2. अतीतानन्तशरी-- मु.। 3. --कर्मसंसर्गो हि ता. ।
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372]
सर्वार्थसिद्धी
[1017 § 932
8932. आह, हेत्वर्थ: पुष्कलोऽपि दृष्टान्तसमर्थनमन्तरेणाभिप्रेतार्थसाधनाय नालमित्य
त्रोच्यते
श्राविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ॥7॥ 8933. पूर्व सूत्रे' विहितानां हेतुनामत्रोक्तानां दृष्टान्तानां च यथासंख्यमभिसंबन्धो भवति । तद्यथा - कुलालप्रयोगापादितहस्तदण्डचक्रसंयोगपूर्वकं भ्रमच्यम् । उपरतेऽपि तस्मिन्पूर्वप्रयोगादा संस्कारक्षयाद् भ्रमति । एवं भवस्थेनात्मनापवर्गप्राप्तये बहुशो यत्प्रणिधानं तदभावेऽपि तदावेशपूर्वक मुक्तस्य गमनमवसीयते । किं च, असङ्गत्वात् । यथा मृत्तिकालेपजनितगौरवमलाबुद्रव्यं जलेऽधः पतितं जलक्लेदविश्लिष्टमृत्तिकाबन्धनं लघु सदृध्वंमेव गच्छति तथा कर्मभाराकान्तिवशीकृत आत्मा तदावेश्वशात्संसारे अनियमेन गच्छति । तत्सङ्गविमुक्त स्तूपर्येवोपयाति । कि च, बन्धच्छेदात् । यथा बीजकोशबन्धच्छेदादेरण्डबीजस्य गति ष्टा तथा मनुष्याविभवप्रापकगति जातिनामादिसकलकर्मबन्धच्छेदान्मुक्तस्य ऊर्ध्वगतिरवसीयते । कि च, तथागतिपरिणामात् । यथा तिर्यक्प्लवनस्वभावसमीरण संबन्धनिरुत्सुका प्रदीपशिखा स्वभावादुत्पतति तथा मुक्तात्मापि नानागतिविकार कारणकर्मनिर्वारणे सत्यूर्ध्वगतिस्वभावा' दूर्ध्वमेवारोहति ।
8934. आह, यदि मुक्त ऊर्ध्वगतिस्वभावो लोकान्तादूर्ध्वमपि कस्मान्नोत्पततीत्यत्रोच्यते
8932. कहते हैं, पुष्कल भी हेतु दृष्टान्त द्वारा समर्थनके बिना अभिप्रेत अर्थकी सिद्धि करने में समर्थ नहीं होते इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
घुमाये गये कुम्हारके चक्रके समान, लेपसे मुक्त हुई तुमड़ीके सम्मान, एरण्डके बीजके समान और अग्निकी शिखाकें समान ॥ 7 ॥
8933. पिछले सूत्र में कहे गये हेतुओंका और इस सूत्रमें कहे गये दृष्टान्तोंका क्रमसे सम्बन्ध होता है । यथा- - कुम्हारके प्रयोगसे किया गया हाथ, दण्ड और चक्के संयोगपूर्वक जो भ्रमण होता है उसके उपरत हो जानेपर भी पूर्व प्रयोगवश संस्कारका क्षय होने तक चक्र घूमता रहता है । इसी प्रकार संसारमें स्थित आत्माने मोक्षकी प्राप्तिके लिए जो अनेक बार प्रणिधान किया है उसका अभाव होनेपर भी उसके आवेश पूर्वक मुक्त जीवका गमन जाना जाता है । असंगत्वात् - जिस प्रकार मृत्तिकाके लेपसे तुमड़ीमें जो भारीपन आ जाता है उससे जलके नीचे पड़ी हुई तुमड़ी जलसे मिट्टीके गीले हो जानेके कारण बन्धनके शिथिल होनेसे शीघ्र ही ऊपर ही जाती है उसी प्रकार कर्मभारके आक्रमणसे आधीन हुआ आत्मा उसके आवेशवश संसारमें अनियमसे गमन करता है किन्तु उसके संगसे मुक्त होनेपर ऊपर ही जाता है । बन्धच्छेदात्जिस प्रकार बीजकोशके बन्धनके टूटनेसे एरण्ड बीजकी ऊर्ध्वं गति देखी जाती है उसी प्रकार मनुष्यादि भवको प्राप्त करानेवाले गतिनाम और जातिनाम आदि समस्त कर्मोंके बन्धक छेद होने से मुक्त जीवकी ऊर्ध्वगति जानी जाती है । तथागतिपरिणामात् - जिस प्रकार तिर्यग्वहन . स्वभाववाले वायुके सम्बन्धसे रहित प्रदीपशिखा स्वभावसे ऊपरकी ओर गमन करती है उसी प्रकार मुक्त आत्मा भी नानागति रूप विकारके कारणभूत कर्मका अभाव होनेपर ऊर्ध्वगति स्वभाव होनेसे ऊपरकी ओर ही आरोहण करता है ।
8934 कहते हैं कि यदि मुक्त जीव ऊर्ध्व गति स्वभाववाला है तो लोकान्दसे ऊपर भी किस कारण से नहीं गमन करता है, इसलिए यहाँ आगेका सूत्र कहते हैं --
1. पूर्वसूत्रोदितानां मु. 2 - विप्रमुक्तौ तूपर्येदोप-- मु.। - विभुक्ते तूपर्धेवोप-ता । -विमुक्तोऽत्र दि. 1, दि. 21 3. -भावत्वादू-- सु. !
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---1019 8 937] दशमोऽध्यायः
[373 धर्मास्तिकायाभावात् ॥8॥ 6 935. गत्युपग्रहकारणभूतो धर्मास्तिकायो नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभावः । तदभावे च लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते।
8936. आह, अमी परिनिवृत्ता गतिजात्यादिभेदकारणाभावादतीतभेदव्यवहारा एवेति । अस्ति कथंचिद् भेदोऽपि । कुतः--
क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञाना
वगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥9॥ 8937. क्षेत्रादिभिर्वादशभिरनुयोगः सिद्धाः साध्या विकल्प्या इत्यर्थः, प्रत्युत्पन्नभूतानुग्रहतन्त्रनयद्वयविवक्षावशात् । तद्यथा-क्षेत्रेण तावत्कस्मिन् क्षेत्र सिध्यन्ति ? प्रत्युत्पन्नग्राहिनयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे स्वप्रदेशे आकाशप्रदेशे वा सिद्धिर्भवति । भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धिः । कालेन कस्मिन्काले सिद्धिः ? प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धचन सिद्धो भवति। भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सपिण्यवसपिण्योर्जातः सिध्यति । विशेषेणावसपिण्यां सुषमदुःषमाया अन्त्ये भागे दुःषमसुषमायां च जातः सिध्यति । न तु दुःषमायां जातो दुःषमायां सिध्यति । अन्यदा नैव सिध्यति । संहरणतः सर्वस्मिन्काले उत्सपिण्यामवसपिण्यां च सिध्यति । गत्या कस्यां गतौ सिद्धिः ? सिद्धिगतो मनुष्यगतौ
धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे मुक्त जीव लोकान्तसे और ऊपर नहीं जाता ॥8॥
8 93 5. गतिके उपकारका कारणभूत धर्मास्तिकाय लोकान्तके ऊपर नहीं है, इसलिए मुक्त जीवका अलोकमें गमन नहीं होता। और यदि आगे धर्मास्तिकायका अभाव होनेपर भी अलोकमें गमन माना जाता है तो लोकालोकके विभागका अभाव प्राप्त होता है।
8936. कहते हैं कि निर्वाणको प्राप्त हुए ये जीव गति, जाति आदि भेदके कारणोंका अभाव होनेसे भेद व्यवहारसे रहित ही हैं । फिर भी इनमें कथंचित् भेद भी है क्योंकि
क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बोधितबुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहत्व इन द्वारा सिद्ध जीव विभाग करने योग्य हैं ।।9।
8937. क्षेत्रादिक तेरह अनुयोगोंके द्वारा सिद्ध जीव साध्य हैं अर्थात् विभाग करने योग्य हैं और यह विभाग वर्तमान और भूतका अनुग्रह करनेवाले दो नयोंकी विवक्षासे किया गया है। यथा-क्षेत्रकी अपेक्षा किस क्षेत्रमें सिद्ध होते हैं ? वर्तमानको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा सिद्धि क्षेत्रमें, अपने प्रदेशमें या आकाश-प्रदेशमें सिद्धि होती है। अतीतको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा जन्मकी अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियोंमें और अपहरणकी अपेक्षा मानुष क्षेत्रमें सिद्धि होती है। काल-कालकी अपेक्षा किस कालमें सिद्धि होती है ? वर्तमानग्राही नयकी अपेक्षा एक समयमें सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है । अतीतग्राही नयको अपेक्षा जन्मकी अपेक्षा सामान्य रूपमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । विशेष रूपसे अवसर्पिणी कालमें सुषमा-दुःषमाके अन्त भागमे और दुःषमा-सुषमामें उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। दुःषमा उत्पन्न हुआ दुःषमामें सिद्ध नहीं होता । इस कालको छोड़कर अन्यकाल में सिद्ध नहीं होता है । संहरणकी अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके सब समयोंमें सिद्ध होता है। गति-गतिकी अपेक्षा किस गतिमें सिद्धि होती है ? सिद्धगतिमें या मनुष्यगतिमें सिद्धि होती है। लिंग-किस लिंगसे 1. --दिभिः त्रयोदश-- ता., ना.। 2. जन्मप्रति पञ्चदशकर्म- मु.।
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374]
सर्वार्थसिद्धौ
[1019 § 937बा | लिंगेन केनसिद्धि: ? अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो न द्रव्यतः । द्रव्यतः पुल्लिगेनैव । अथवा, निर्ग्रन्थलिगेन । सग्रन्थलिगेन वा सिद्धिर्भूतपूर्व नयापेक्षया । तीर्थेन', तीर्थसिद्धिः द्वेधा तीर्थकरेतर विकल्पात् । इतरे द्विविधाः सति तीर्थकरे सिद्धा असति चेति । चारित्रेण केन सिध्यति । अव्यपदेशेनैकचतुःपञ्चविकल्पचारित्रेण वा सिद्धिः । स्वशक्तिपरोपदेशनिमित्तज्ञानभेदात् प्रत्येकबुद्धबोधितविकल्पः । ज्ञानेन केन ? एकेन द्वित्रिचतुभिश्च ज्ञानविशेषः सिद्धि: । आत्मप्रदेशव्यापित्वमवगाहनम् । तद् द्विविधम्, उत्कृष्टजघन्यभेदात् । तत्रोत्कृष्टं पंचधनुःशतानि पञ्चविंशत्युत्तराणि । जघन्यमर्धचतुर्थारत्नयो देशोनाः । मध्ये विकल्पाः । एकस्मिन्नवगाहे सिध्यति । किमन्तरम् ? सिध्यतां सिद्धानामनन्तरं जघन्येन द्वौ समयो उत्कर्षेणाष्टौ । अन्तरं जघन्येनैकः समयः उत्कर्षेण षण्मासाः । संख्या, जघन्येन एकसमये एकः सिध्यति । उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्याः । क्षेत्रादिभेदभिन्नानां परस्परतः संख्याविशेषोऽल्पबहुत्वम् । तद्यथा— प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे सिध्यन्तीति नास्त्यल्पबहुत्वम् । भूतपूर्वनयापेक्षया तु चिन्त्यते, क्षेत्रसिद्धा द्विविधा - जन्मतः संहरणतश्च । तत्राल्पे संहरणसिद्धाः । जन्मसिद्धाः संख्ये यगुणाः । क्षेत्राणां विभागः कर्मभूमिरकर्मभूमिः समुद्रो द्वीप ऊर्ध्वमधस्तिर्यगिति । तत्र स्तोका ऊर्ध्वलोकसिद्धाः । अधोलोकसिद्धाः संख्ये यगुणाः । तिर्यग्लोकसिद्धा: संख्येयगुणाः । सर्वतः स्तोकाः समुद्रसिद्धाः । द्रोपसिद्धा: संख्येयगुणाः । एवं तावदविशेषेण । सर्वतः स्तोका लवणोदसिद्धाः । कालोदसिद्धाः सिद्धि होती है ? अवेद भावसे या तीनों वेदोंसे सिद्धि होती है। यह कथन भावकी अपेक्षा है द्रव्यकी अपेक्षा नहीं । द्रव्यकी अपेक्षा पुलिंगसे ही सिद्धि होती है अथवा निर्ग्रन्थलिंगसे सिद्धि होती है । भूतपूर्वनयकी अपेक्षा सग्रन्थ लिंगसे सिद्धि होती है । तीर्थं - तीर्थसिद्धि दो प्रकारकी है- तीर्थकरसिद्ध और इतरसिद्ध । इतर दो प्रकारके हैं, कितने ही जीव तीर्थंकरके रहते हुए सिद्ध होते हैं और कितने ही जीव तीर्थंकरके अभाव में सिद्ध होते हैं । चारित्र - किस चारित्रसे सिद्धि होती है ? नामरहित चारित्रसे सिद्धि होती है या एक, चार और पाँच प्रकारके चारित्रसे सिद्धि होती है । प्रत्येकबुद्ध-बोधितबुद्ध - अपनी शक्तिरूप निमित्तसे होनेवाले ज्ञानके भेदसे प्रत्येकबुद्ध होते हैं और परोपदेशरूप निमित्तसे होनेवाले ज्ञानके भेदसे बोधितबुद्ध होते हैं, इस प्रकार ये दो प्रकारके हैं | ज्ञान- किस ज्ञानसे सिद्धि होती है । एक, दो, तीन और चार प्रकारके ज्ञानविशेषोंसे सिद्धि होती है । अवगाहना - आत्मप्रदेश में व्याप्त करके रहना इसका नाम अवगाहना है। वह दो प्रकारकी है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ पचीस धनुष है और जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन अरत्नि है । बीचके भेद अनेक हैं। किसी एक अवगाहनामें सिद्धि होती है । अन्तर - क्या अन्तर है ? सिद्धिको प्राप्त होनेवाले सिद्धोंका जघन्य अन्तर का अभाव दो समय है और उत्कृष्ट अन्तर का अभाव आठ समय । जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अंतर छह महीना | संख्या - जघन्यरूपसे एक समय में एक जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्ट रूपसे एक समय में एक सौ आठ जीव सिद्ध होते हैं । अल्पबहुत्व - क्षेत्रादि की अपेक्षा भेदोंको प्राप्त जीवोंकी परस्पर संख्याका विशेष प्राप्त करना अल्पबहुत्व है । यथा - वर्तमान नयकी अपेक्षा सिद्धिक्षेत्रमें सिद्ध होनेवाले जीवोंका अल्पबहुत्व नहीं है । भूतपूर्व नयकी अपेक्षा विचार करते हैं - क्षेत्रसिद्ध जीव दो प्रकारके हैं—- जन्मसिद्ध और संहरणसिद्ध । इनमें से संहरणसिद्ध जीव सबसे अल्प हैं । इनसे जन्मसिद्ध जीव संख्यातगुणे हैं । क्षेत्रोंका विभाग इस प्रकार है— कर्मभूमि, अकर्मभूमि, समुद्र, द्वीप, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक । इनमें से ऊर्ध्वलोकसिद्ध सबसे स्तोक हैं । इनसे अधोलोक सिद्ध संख्यातगुणे हैं, इनसे तिर्यग्लोकसिद्ध संख्यातगुणे हैं । समुद्रसिद्ध सबसे स्तोक 1. तीर्थेन केन तीर्थेन सिद्धिः सु । 2. सिद्धानामन्तरं मु.
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-1019 § 938]
दशमोऽध्यायः
[375
गुणाः । जम्बूद्वीप सिद्धाः संख्येयगुणाः । धातकीखण्डसिद्धा: संख्येयगुणाः । पुष्करद्वीपार्थं 'सिद्धाः संख्येयगुणा इति । एवं कालादिविभागेऽपि यथागममल्पबहुत्वं वेदितव्यम् ॥10॥
8938. स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायें
जैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता । सर्वार्थ सिद्धिरिति सद्भिरुपात्तनामा
तत्त्वार्यवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ॥1॥ तत्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वाः
शृण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या ।
1. द्वीपसिद्धा: मु.
हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं ते
मरेश्वर सुखेषु किमस्ति वाच्यम् ॥2॥
येनेदमप्रतिहतं सकलार्थतत्त्व
हैं । इनसे द्वीपसिद्ध संख्यातगुणे हैं । यह सामान्य रूपसे कहा है । विशेष रूपसे विचार करनेपर लवण समुद्रसिद्ध सबसे स्तोक हैं। इनसे कालोदसिद्ध संख्यातगुणे हैं । इनसे जम्बूद्वीपसिद्ध संख्यातगुणे हैं । इनसे धातकी खण्ड सिद्ध संख्यातगुणे हैं । इनसे पुष्करार्द्ध द्वीपसिद्ध संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार कालादिका विभाग करनेपर भी आगमके अनुसार अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए ।
मुद्द्योतितं विमलकेवललोचनेन । भक्त्या तमद्भुतगुणं प्रणमामि वीर
मारान्नरामरगणार्चितपादपीठम् ॥3॥
इति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धिसंज्ञिकायां दशमोऽध्यायः समाप्तः । शुभं भवतु सर्वेषाम् ।
8938. स्वर्ग और अपवर्गके सुखको चाहनेवाले आर्य पुरुषोंने इस तत्त्वार्थवृत्तिका सर्वार्थसिद्धि यह नाम रखा है। यह जिनेन्द्रदेवके शासनरूपी अमृतका सार है, अतः मनःपूर्वक इसे निरन्तर धारण करना चाहिए || || सब तत्त्वों के जानकार जो इस तत्त्वार्थवृत्तिको धर्मभक्ति से सुनते हैं और पढ़ते हैं मानो उन्होंने परम सिद्धिसुखा मृतको अपने हाथमें ही कर लिया 'है, फिर, चक्रवर्ती और देवेन्द्रके सुखके विषयमें तो कहना ही क्या है ||2|| जिन्होंने अपने विमल केवलज्ञानरूपी नेत्रके द्वारा इस निर्विवाद सकल तत्त्वार्थका प्रकाश किया है, मनुष्यों और देवोंके द्वारा पूजित अद्भुतगुणवाले उन वीर भगवान् को भक्तिपूर्वक मैं प्रणाम करता हूँ ||3||
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थवृत्तिमें दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ।
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परिशिष्ट 1
सूत्रपाठ
प्रथम अध्याय
1. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।
12. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।
3. तन्निसर्गादधिगमाद्वा ।
4. जीवाजीवास्रव' बन्धसंव रनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।
5. नामस्थापनाद्रव्य भावतस्तन्न्यासः ।
6. प्रमाणनयैरधिगमः ।
7. निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ।
8. सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावात्पबहुत्वैश्च ।
9. मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलानि ज्ञानम् । 10. तत्प्रमाणे ।
11. आद्य परोक्षम् ।
12. प्रत्यक्षमन्यत् ।
13. मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ।
14. तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।
15. अवग्रहेहावाय धारणाः ।
16. बहुबहुविधक्षिप्रानिः सृतानुक्त ध्रुवाणां सेतराणाम् । 17. अर्थस्य ।
18. व्यञ्जनस्यावग्रहः ।
19. न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ।
20. श्रुतं मतिपूर्वं यनेकद्वादशभेदम् ।
21. भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम् । "
22. क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ।
23. ऋजुविपुलमती मनः पर्ययः । 8
24. विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ।
25. विशुद्धक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन:पर्यययोः ।
26. मतिश्रुतयोर्निबन्धो " द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु ।
पैराग्राफ संख्या
4
9
13
17
21
23
25
32
163
165
173
175
181
184
189
191
197
199
201
205
212
214
216
1. आश्रव - हारिभ. 12. मनःपर्याय त. भा. । 3. तत्र आधे - हारिभ । 4. हेहापाय त भा., हारिभ सि । तत्त्वार्थवार्तिक में 'अवाय और अपाय' दोनों पाठ हैं । 5. - निश्रिता- त. भा. क्षिप्रनिःसृतानु- स., श्रितनिश्चितधु सि. वृ. पा. 6. त. भा. में भवप्रत्ययो इत्यादि सूत्रके स्थान पर द्विविधोऽवधिः ॥21॥ भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् ॥22॥ ऐसे दो सूत्र हैं। 7. यथोक्तनिमित्तः । त. भा. । 8 -- मनः पर्यायः । त भा. । 9. मन: पर्याययोः । त. भा. । 10. सर्वद्रव्ये- त. भा. ।
219
221
223
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परिशिष्ट 1
[377
225 227 229 231
27. रूपिष्ववधेः। 28. तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ।। 29. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । 30. एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्यः । 31. मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्व । 32. सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत् । 33. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्द समभिरूद्वैवंभूता नयाः ।
इति प्रथमोऽध्यामः ।
233
235 240
251
260
दूसरा अध्याय 1. औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च। 2. द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम ।
254 3. सम्यक्त्वचारित्र।
256 4. ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च । 5. ज्ञानाज्ञानदर्शन'लब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदा:सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ।
262 6. गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्ध'लेश्याश्चतुश्चतुस्त्येकैकैकैकषड्भेदाः । 7. जीवभव्याभव्यत्वानि च ।
267 8. उपयोगो लक्षणम् ।
270 9. सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।
772 10. संसारिणो मुक्ताश्च ।
274 11. समनस्कामनस्काः ।
281 12. संसारिणस्त्रसस्थावराः।
283 13. पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा: ।
285 14. द्वीन्द्रियादयस्त्रसा: ।।
287 15. पंचेद्रियाणि ।
289 16. द्विविधानि।
291 17. निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्।
293 18. लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् ।
295 19. स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि ।12
297 20. स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः ।13
299 21. श्रुतमनिन्द्रियस्य ।
301 1. मन:पर्यायस्य त. भा.। 2. -श्रृतिविभंगा विप-- हारिभ.। 3. सूत्रशन्दा नयाः त. भा.। 4. त. भ. में आधशब्दो द्वित्रिभेदो ॥35॥ यह सूत्र अधिक है। 5. -दानादिलब्धय- त. भा.। 6. त. भा. में 'यथाक्रमम्' इतना पाठ अधिक है। 7. सिद्धत्व- त भा.। 8. भब्यत्वादीनि- त. भा.। 9. 'स' पाठ नहीं है सि.. पा.। 10. 'पृथिव्यम्बुवनस्पतय: स्थावराः' त. भा.। 11. तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः त. भा.। 12. 'स्पर्शनरसन'- इत्यादि सूत्रके पूर्व 'उपयोग: स्पर्शादिष' ॥19॥ यह सूत्र त. भा. में अधिक है। 13,सन्दास्तेषामर्थाः । त. भा.।
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378]
सर्वार्थ सिद्धौ 22. वनस्पत्यन्तानामेकम् ।
303 23. कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ।
305 24. संज्ञिन: समनस्काः । 25. विग्रहगतो कर्मयोगः । 26. अनुश्रेणि गतिः ।
311 27. अविग्रहा जीवस्य ।
313 28. विग्रहवती च संसारिण: प्राक् चतुभ्यः ।
315 29. एकसमयाविग्रहा।
317 30. एक द्वौत्रीन्वानाहारकः ।
319 31. संमूर्च्छनगर्भोपपादा जन्म ।
321 32. सचित्तशीतसंवृता: सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ।
323 33. जरायुजाण्ड जपोतानां गर्भः ।
325 34. देवनारकाणामुपपादः । 35. शेषाणां समूच्र्छनम् । 36. औदारिकवै क्रियिका हारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ।
330 37. परं परं सूक्ष्मम् ।
332 38. प्रदेशतोऽसंख्येयगुण प्राक् तैजसात् ।
334 39. अनन्तगुणे परे । 40. अप्रतीघाते। 41. अनादिसंबन्धे च ।
340 42. सर्वस्य।
342 43. तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना'चतुर्यः ।
344 44. निरुपभोगमन्त्यम ।
346 45. गर्भसमर्छनजमाद्यम् ।
348 46. औपपादिकं वैक्रियिक्रम।10
350 47. लब्धिप्रत्ययं च।
352 48. तैजसमपि ।
354 49. शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारक12 प्रमतसंयतस्यैव । 50. नारकसमूच्छिनो नपुंसकानि ।
358 51. न देवाः । 52. शेषास्त्रिवेदाः ।13
362 53. औपणादिकचरमोत्तमदेहा' ऽसंख्येय'वर्पायुषानपवायुषः ।
364 इति द्वितीयोऽध्यायः । 1. वायवन्तानामेकम् त. भा.। 2. एकसमयोऽविग्रहः त. भा.। 3. द्वौ वानाहारक: त. भा.। 4. --गर्भोपपाता त. भा.। 5. जराय्वण्डपोतजानां त. भा. । 6. नारकदेवानामुपपात: त. भा. । 7. --वैक्रियाहारक-- त. भा.। 8. अप्रतिघाते । त. भा.। 9. युगपदेकस्या। 10. वैक्रियमोपपातिकम् । त. भा.। 11. त. भा. में यह सूत्र नहीं है। 12. चतुर्दशपूर्वधरस्यैव । त. भा. में इतना पाठ अधिक है। 13. त. भा. में यह सूत्र नहीं। 14. 'चरमदेहा' यह भी पाठान्तर है। स., त. वा. । 15. औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासंख्येय-- | त. भा. ।
336 338
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परिशिष्ट 1
तीसरा अध्याय
1. रत्नशं राबालुकापंकधूमतमोमहातमः प्रभा भूमयो घनाम्बुवताकाशप्रतिष्ठा: सप्ताधोऽधः ।
2. तासु त्रिशत्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचोन कनरकशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम् । 3. नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणाम देहवेदनाविक्रियाः ।
4. परस्परोदीरितदुःखाः ।
5. संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ।
6. तेष्वेक त्रिसप्तदशसप्तदशद्व । विंशतित्रयस्त्रित्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ।
7. जम्बूद्वीपलवणोदादय: शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ।
8. द्विद्विविष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः ।
13. मणिविचित्रपार्खा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ।
14. पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका ह्रदास्तेषामुपरि ।
15. प्रथमो योजन सहस्रायामस्तदर्धविषकम्भो हृदः ।
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9. तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृ त्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ।
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10. भरतहैमवतहरिविदेह रम्यक हैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ।
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11. तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो 'वर्षधरपर्वताः । 386 12. हेमार्जुनतपनीय वैडूर्य रजतहेममयाः । 7
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16. दशयोजनावगाहः ।
17. तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ।
18 तद्विगुणद्विगुणा हदाः पुष्कराणि च ।
19. तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ।
20. गंगा सिन्धु रोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदाना रीनरकान्ता सुवर्ण रूप्यकूलारक्ता रक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ।
21. द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः ।
22. शेषास्त्वपरगाः ।
23. चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिन्ध्वादयो नद्यः ।
24. भरत: षड्विंशतिपंचयोजनशतविस्तारः षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य । 25. तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः ।
29. उत्तरा दक्षिणतुल्याः ।
27. भरत रावतयोर्वृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्य वसर्पिण्यवर्पिणीभ्याम् ।
28. ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ।
26. एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहारिवर्ष कदैव कुरवकाः । 30. तथोत्तराः ।
31. विदेहेषु संख्येयकालाः ।
32. भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः । 33. द्विर्धातकीखण्डे ।
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1. त. भा. में पृथुतराः पाठ अधिक है। 2. त. भा. में तासु नरकाः इतना ही सूत्र है। नरकोंकी संख्याएँ तत्त्वार्थभाष्य में दी हैं। 3. त. भा. में नारकाः यह पाठ नहीं है । 4. --लवणादयः त. भा. । 5. त. भा. में 'तत्र' इतना पाठ अधिक है। 6. वंशधरपर्वताः सि. । 7. यहाँसे लेकर आगे 'द्विर्धातकीखण्डे' इस सूत्र के पूर्वतकके 21 सूत्र तस्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ में नहीं हैं।
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सर्वार्थ सिद्धौ 34. पुष्कराः च । 35. प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः। 36. आर्या म्लेच्छाश्च। 37. भरतरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः । 38. नृस्थिती परावरे' त्रिपल्योपमान्तर्मुहुर्ते। 39. तिर्यग्योनिजानां च।
इति तृतीयोऽध्यायः ।
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चौथा अध्याय 1. देवाश्चतुर्णिकायाः।
442 2. आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः।
444 3. दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः।
446 4. इन्द्रसामानिकत्रास्त्रिशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः।
448 5. त्रायस्त्रिशल्लोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः। 6. पूर्वयोर्दीन्द्राः।
452 7. कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ।
454 8. शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः
456 9. परेऽप्रवीचाराः। 10. भवनवासिनोऽसुरनागविद्यु त्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः।
460 11. व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्व यक्षराक्षसभूतपिशाचाः। 12. ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ।
464 13. मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ।
466 14. तत्कृतः कालविभागः ।
468 15. बहिरवस्थिताः।
470 16. वैमानिकाः।
472 17. कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ।
474 18. उपर्यपरि।
476 19. सौधर्मशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्रशतारसहस्रारेष्वानत
प्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु वेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ।
478 20. स्थितिप्रभावसुखद्य तिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः।
480 21. गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ।
482 1. म्लिशश्च । त. भा., हारिभ.। 2. परापरे । त. भा.। 3. तिर्यग्योनीनां च । त. भा.। 4.-चतु
कायाः त. भा.। 5. त. भा. में 'तृतीयः पीतलेश्य: ऐसा सूत्र है। 6. -पारिषद्यात्म.-त. भा.। 7.त. भा. में इस सूत्र के आगे सीतान्तलेश्याः ' सूत्र अधिक है। 8. त. भा. में द्वयोर्द्वयोः इतना पाठ अधिक है। 9. गान्धर्व- त. भा.। 10. सूर्याश्चन्द्रमसो। त. भा.। 11. प्रकीर्णतारकाश्च । त. भा.। 12. बाह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहनरिष्वानत-त. भा.। 13. सर्वार्थसिद्धे च । त. भा.।
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परिशिष्ट ।
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22. पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु । 23. प्राग्ग्रे वेयकेभ्यः कल्पा: । 24. ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः । 25. सारस्वतादित्यवह्नयरुणगर्दतोयतुषिताव्यावाधारिष्टाश्च । 26. विजयादिषु द्विचरमाः । 27. औपपादिकमनुष्येभ्य: शेषास्तिर्यग्योनयः। 28. स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमाद्ध हीनमिताः ।। 29. सौधर्मेशानयोः सागरोपमेऽधिके । 30. सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ।' 31. त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु ।। 32. आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु वेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च । 33. अपरा पल्योपममधिकम् । 34. परतः परत: पूर्वा पूर्वानन्तरा।1 35. नारकाणां च द्वितीयादिषु । 36. दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् । 37. भवनेषु च। 38. व्यन्तराणां च । 39. परापल्योपममधिकम । 40. ज्योतिष्काणां च ।12 41. तदष्टभागोऽपरा ।13 42. लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ।14
इति चतुर्थोऽयायः ।
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पांचवां अध्याय 1. अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ।
526 2. द्रव्याणि ।'
528 3. जीवाश्च।
530 1. पीतमिश्न-पद्ममिश्रशुक्ललेश्या द्विद्वि चतुश्चतुःशेषेषु इति त. भा.। 2. लोकान्तिकाः त. भा.। 3. व्यावाधमरुतोऽरिष्टाश्च । त. भा. । 4. औपपातिक- त. भा.। 5. इस एक सूत्र के स्थान पर त. भा. में चार सूत्र हैं। वे इस प्रकार हैं:--स्थितिः।।29।। भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्धम।। 30॥शेषाणां पादोने।।31॥ असुरेन्द्रयोः सागरोपममधिकं च ।।32। 6. त. भा. में इस एक स्त्र के स्थान पर 'सौधमादिष यथाक्रमम् ॥3311 सागरोपमे ।।3411 अधिके ।।351 ऐसे तीन सत्र हैं। 7. त. भा. में 'सप्त सानत्कुमारे' ऐसा सूत्र है। 8. त. भा. में 'विशेषत्रिसप्तदशैकादशपंचदशभिरधिकानि च' ऐसा सत्र है। 9. सर्वार्थसिद्धे च त. भा.। 10. -मधिकं च त. भा.। 11. त. भा. में इस सूत्र के पूर्व दो सूत्र और पाये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं-सागरोपमे ॥401 अधिके च ॥411 12. ज्योतिष्काणामधिकम् त. भा. । 13. इस सूत्र के स्थान पर त. भा. में निम्नलिखित सूत्र हैं:-प्रहाणामेकम् ॥491 नक्षत्राणामर्धम् ॥5011 तारकाणां चतुर्भागः ।।51॥ जघन्या त्वष्टभागः ।। 52॥ चतुर्भाग: शेषाणाम् ।।5411 14. 'ते. भा. में यह सूत्र नहीं है। 15. त. भा. में 'द्रभ्याणि जीवाश्च' ऐसा दो सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र है।
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382]
सर्वार्थसिद्धौ 4. नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।
532 5. रूपिणः पुद्गलाः ।
534 6. आ आकाशादेकद्रव्याणि ।
536 7. निष्क्रियाणि च । 8. असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मेकजोवानाम् ।
540 9. आकाशस्यानन्ताः ।
542 10. संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् । 11. नाणोः ।
546 12. लोकाकाशेऽवगाहः ।
548 13. धर्माधर्मयो: कृत्स्ने। 14. एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् । 5. असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ।।
554 6. प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् । 17. गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः । 18. आकाशस्यावगाहः ।
560 19. शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् । 20. सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ।
564 21. परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।
566 22. वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ।
568 23. स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पूदगलाः ।
569 24. शब्दबन्धसौक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ।
571 25. अणवः स्कन्धाश्च ।
573 26. भेदसंघातेभ्य: उत्पद्यन्ते ।
575 27. भेदादणुः । 28. भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः ।
579 29. सद्रव्यलक्षणम् ।
581 30. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।
583 31. तद्भावाव्ययं नित्यम्।
585 32. अर्पितानर्पितसिद्ध: । 33. स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः । 34. न जघन्यगुणानाम् ।
591 35. गुणसाम्ये सदृशानाम् ।
593 36. द्वयधिकादिगुणानां तु ।
595 37. बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ।
597 38. गुणपर्ययवद् द्रव्यम् । 1. त. भा. में 'आकाशदेशद्रव्याणि' सूत्र है। 2. इस सूत्र के स्थान पर त. भा. में दो सूत्र हैं :-असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः ॥7॥ जीवस्य ॥8॥ 3. विसर्गाभ्यां-- त. भा.। 4. स्थित्यूपग्रहो -त. भा.। 5. वर्तना परिणामः क्रिया त. भा.। 5. संघातभेदेभ्यः त. भा.। 7. चाक्षुषाः। 6. त. भा. में यह सूत्र नहीं है। 9. बन्धे समाधिको पारिणामिको त. भा.। :0. पर्यायवद् द्रव्यम् त. भा. ।
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39. कालश्च ।
40. सोऽनन्तसमयः ।
41. द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः । 42. तद्भावः परिणामः । 2
परिशिष्ट 1
इति पञ्चमोऽध्यायः ।
छठा अध्याय
1. कायवाङ्मनः कर्म योगः ।
2. स आस्रवः ।
3. शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ।
4. सकषायाकषाययोः सांपरायिकेर्यापथयोः ।
5. इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुः पञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ।
6. तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरण वीर्यं विशेषेभ्यस्तद्विशेषः ।
7. अधिकरणं जीवाजीवाः ।
8. आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भ योग कृतकारितानुमत कषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रि
श्चतुश्चैकशः ।
9. निर्वर्तेनानिक्षेप संयोगनिसर्गाद्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ।
10. तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः । 11. दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्व द्यस्य । 12. भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्व द्यस्य । 13. केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ।
14. कषायोदयात्तीव्रपरिणाम श्चारित्रमोहस्य ।
15. बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ।
16. माया तैर्यग्योनस्य ।
17. अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ।
18. स्वभावमार्दवं च ।
19. निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् ।
20. सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य ।
21. सम्यक्त्वं च 10 |
22. योगवऋता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ।
23. तद्विपरीतं शुभस्य ।
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1. कालश्चेत्येके त. भा. । 2. इस सूत्र से आगे त. भा. में तीन सूत्र और पाये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं :- अनादिरादिमांश्च ॥1421 रूपिष्वादिमान् ॥43॥ योगोपयोगी जीवेषु ।।4411 3. इसके स्थान पर त. मा. में दो सूत्र हैं—–शुभः पुण्यस्य ||3|| अशुभः पापस्य ||4|| 4. अव्रतकषायेन्द्रियक्रिया । त. मा. । 5. ज्ञाताज्ञातभाववीर्याधिकरणविशेषेभ्यस्तद्विशेषः । त. भा. । 6. भूतवत्यनुकम्पादानं सरागसंयमादि योगः । त. मा. । 7. कषायोदयात्तीवात्मपरिणाम त. भा. । 8. परिग्रहत्वं च त. भा. 9 17-18 नं. के सूत्रों के स्थान पर त. भा. में एक सूत्र है :- अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य । 10. त. ना. में यह सूत्र नहीं है ।
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384]
सर्वार्थसिद्धौ 24. दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्ण'ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्ति
तस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यका
परिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य । 25. परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य । 26. तद्विपर्ययोनीचैव त्यनुत्सेको चोतरस्य । 27. विघ्नकरणमन्तरायस्य ।
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इति षष्ठाऽध्यायः ।
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सातवाँ अध्याय 1. हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ।
663 2. देशसर्वतोऽणुमहती।
665 3. तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ।
667 4. वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पंच ।
668 5. क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्युवीचिभाषणं च पंच ।
670 6. शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्षशुद्धिसधर्माविसंवादाः पंच।
672 7. स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागा: पंच।
674 8. मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पंच।
676 9. हिंसादिविहामुत्रा'पायावद्यदर्शनम् । 10. दुःखमेव वा।
680 11. मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ।
682 12. जगत्कायस्वभावौ वा10 संवेगवैराग्यार्थम् ।
684 13. प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा । 14. असदभिधानमनृतम् ।
688 15. अदत्तादानं स्तेयम् ।
690 16. मैथुनमब्रह्म।
692 17. मच्छी परिग्रहः ।
694 18. निःशल्यो व्रती।
696 19. अगार्यनगारश्च ।
698 20. अणुव्रतोऽगारी।
700 21. दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च ।
702 22. मारणान्तिकी सल्लेखनांजोषिता । 1. अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोग-- त. भा.। 2. संघसाधुसमाधिवैयावृत्त्य-- त. भा.। 3. तीर्थकृत्त्वस्य । त. मा. । 4. गुणाच्छाद- त. भा.। 5. तद्विपर्ययो त. भा.। 6. इससे आगेके भावनावाले पाँचों सूत्र त. भा. में नहीं हैं। 7. --मुत्र चापाया। त. भा.। 8. माध्यस्थ्यानि त. भा.। 9. त. भा. में 'च' पद नहीं है। 10. त. भा. में 'वा' के स्थान में 'च' पाठ है। 11. पौषधोप- त. भा.। 12. संलेखनां त. भा.।
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परिशिष्ट 1
23. शंकाकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः । 24. व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।
25. बन्धवध' च्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ।
32. कन्दर्प कौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोग परिभोगानर्थक्यानि ।
33. योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि । 8
34. अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादान 'संस्त रोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ।
35. सचित्तसम्बन्ध संमिश्राभिषवदुः पक्वाहाराः ।
36. सचित्तनिक्षेपा" पिधानपरव्यपदेश मात्सर्यकालातिक्रमाः ।
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26. मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानक्टलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः । 27. स्तेन प्रयोगतदाहृतादानविरुद्ध राज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः । 712 28. परविवाहकरणेत्वरिका परिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडा' कामतीव्राभिनिवेशा: । 713 29. क्षेत्र वास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ।
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30. ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ।
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31. आनयनप्रेष्य प्रयोगशब्दरूपानुपातपुद् गलक्षेपाः ।
37. जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि 2 | 38. अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ।
39. विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ।
इति सप्तमोऽध्यायः ।
आठवां अध्याय
1. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ।
2. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ।
3. प्रकृतिस्थित्यनुभव 14 प्रदेशांस्तद्विधयः ।
4. आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीया युर्नामगोत्रान्तरायाः ।
5. पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ।
6. मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानाम् 116
7. चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च" । 8. सदसद्वद्य ।
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1. - रतिचाराः त. भा. । 2. वधच्छविच्छेदा- त. भा. । 3. रहस्याभ्याख्यान त. भा. । 4. करणेत्वरपरिगृहीता- त. भा. । 5. क्रीडातीवकामाभि त. भा. । 6 स्मृत्यन्तर्धानानि । त. भा. । 7 भोगाधिकत्वानि । त. भा. । 8. नुपस्थापनानि । त. भा. । 9. निक्षेप संस्ता रोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि । त भा. । 10. संबद्ध त. भा. । 11. निक्षेपविधान । त. भा. 12. निदानकरणानि । त. भा. । 13. त. भा. में 'सम्बन्ध' इतना अंश पृथक् सूत्र है । 14. -त्यनुभाव- त. भा. 15. -नीयायूष्कनाम । त. भा. | 16. त. भा. में 'मत्यादीनाम्' इतना ही सूत्र है । 17. स्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च । त. भा. ।
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386]
सर्वार्थसिद्धौ
9. दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषाय वेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवपोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्यख्यानसंज्वलन विकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः ।
10. नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ।
11. गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणवन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्श रसगन्धवर्णानुगुरुलधूपघातपघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरोरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेय यशःकोत्तिसेतराणि तोर्थ करत्वं च । 12. उच्चैर्नीचैश्च ।
13. दानलाभ भोगोपभोगवीर्याणाम् ।
14. आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटोकोटयः परा स्थितिः ।
15. सप्ततिर्मोहनीयस्य ।
16. विंशतिर्नामगोत्रयो: "
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17. त्रयस्त्रित्सागरोपमाण्यायुषः ।
18. अपरा द्वादश मुहूर्त्ता वेदनीयस्य ।
19. नामगोत्रयोरष्टौ ।
20. शेषाणामन्तर्मुहूर्ता:" । 21. विपाकोऽनुभव: ।
22. स यथानाम |
23 ततश्च निर्जरा ।
24. नामप्रत्ययाः सर्वतो योग विशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाह स्थिताः सर्वात्मप्रदेशोष्वनन्ता
नन्तप्रदेशाः ।
25. सद्यशुभायुर्नामगोत्राणि "पुण्यम् । 26. अतोऽन्यत्पापम्” ।
इत्यष्टमोऽध्यायः ।
नौवाँ अध्याय
1. आस्रवनिरोधः संवरः ।
2. स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ।
3. तपसा निर्जरा च ।
4. सम्यग्योग निग्रहो गुप्तिः ।
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सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानि
1. दर्शनचारित्रमोहनीय कष । याकषाय वेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडशनवभेदाः कषायानन्तानुवन्ध्य प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसं ज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभा हास्य रत्य रतिशोकभय जुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसक वेदाः ॥10॥ त. भा. । 2. पूर्व्यं गुरु - त. भा. । 3. यशांसि सेतराणि त. भा. 4. तीर्थकृत्वं च । त. भा. । 5 दानादीनाम् त. भा. । 6 नामगोत्रयोविंशतिः । त. भा. । 7. माण्यायुष्कस्य त. भा. । 8. -मन्तर्मुहुर्तम् त. भा. । 9 नुभावः त. भा. । 10. वगाढस्थिताः त. भा. । 11. सद्वेद्यसम्यक्त्व हास्य रति पुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि त. भा. । 12. त. भा. में यह सूत्र नहीं है ।
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परिशिष्ट 1
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5. ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ।
794 6. उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ।।
796 7. अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्या स्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभः 'मस्वाख्यात
त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः। 8. मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः। 9. क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याकोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ।
814 10. सूक्ष्मसांपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश । 11. एकादश जिने। 12. बादरसांपराये सर्वे। 13. ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने।
844 14. दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ।
946 15. चारित्रमो नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः।
847 16. वेदनीये शेषाः।
849 17. एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशते ।
851 18. सामायिकच्छेदोपस्थापना परिहारविशुद्धिसूक्ष्म सांपराययथाख्यातमिति चारित्रम् । 853 19. अनशनावमौदर्यवत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः। 855 20. प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ।
857 21. नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदा' यथाक्रम प्रारध्यानात् ।
859 22. आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापना: ।
861 23. ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः।
863 24. आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलसंघसाधु मनोज्ञानाम् ।
865 25. वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाऽऽम्नायधर्मोपदेशा: । 26. बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ।
869 27. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ।
871 28. आर्तरौद्रधHशुक्लानि । .
873 29. परे मोक्षहेतू।' 30. आर्तगमनोज्ञस्य सांप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः। 31. विपरीतं मनोज्ञस्य । 32. वेदनायाश्च। 33. निदानं च।
883 34. तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ।
885 35. हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ।
887 1. उत्तमः क्षमा। त. भा.। 2. शुचित्वास्रव. । त. भा.। 3. युगपदैकोनविंशतेः । त. भा.। 4. -पस्थाप्यपरिहार । त. भा.। 5. सूक्ष्मसंपराय. । त. भा.। 6. यथाख्यातानि । त. भा.। 7. द्विभेदं त. भा.। 8. स्थापनानि त. भा.। 9. शैक्षक- त. भा. । 10. साधुसमनोज्ञानाम् त. भा.। 11. इस सूत्र के स्थान में त. भा. में उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।।27।। आ अन्तर्मुहूर्तात् ॥28॥ ये दो सूत्र हैं। 12. धर्म । त. भा.। 13. -ममनोज्ञानां त. भा. । 14. त. भा. में 'विपरीतं मनोज्ञानाम्' ऐसा पाठ है और यह सत्र वेदनायाश्च' इस सत्र के बादमें है।
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388]
36. आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय 'धर्म्यम् ।
37. शुक्ले चाद्य पूर्वविदः ।
38. परे केवलिनः ।
39. पृथक्त्वकत्ववितर्क सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिव्युपरत क्रियानिवर्तीनि' ।
40. त्र्येक' योगकाययोगायोगानाम् ।
सर्वार्थसिद्धौ
41. एकाश्रये सवितर्कवीचारे' पूर्वे ।
42. अवीचारं द्वितीयम् ।
43. वितर्कः श्रुतम् ।
44. वीचारोऽर्थ व्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ।
45. सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्तवियोजक दर्शन मोहक्षपकोपशम कोपशान्तमोहक्षपकक्षीण
मोह जिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ।
46. पुलाकब कुशकुशोलनिग्रन्थस्नातकाः निर्ग्रन्थाः ।
47. संयमश्रुत प्रतिसेवनातीर्थलिंगलेश्यांपपादस्थान 'विकल्पतः साध्याः ।
इति नवमोऽध्यायः ।
दसवाँ अध्याय
1. मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ।
2. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ।
3. औपशमिकादिभव्यत्वानां च ।
4. अन्यत्र केवल सम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ।
5. तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्नात् ।
6. पूर्व प्रयोगादसंगत्वाद् वन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च । 7. आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतपालांबुवदेरण्डवी नवदग्निशिखावच्च । 8. धर्मास्तिकायाभावात् ।
9. क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्र प्रत्येकबुद्ध
साध्याः ।
कबुद्धबोधितज्ञानावगाह्नान्तरसंख्या पबहुत्वतः
इति दशमोऽध्यायः ।
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1 धर्मप्रमत्तसंयतस्य त. भा. 1 2. इम सूत्रके पूर्व त. भा. में 'उपशान्तक्षीणकपाययोश्च' ऐसा एक सूत्र और है । 3. निवृतीनि त. भा. । 4. तत् त्र्यैककाययोगा- त. भा. । 5. सवितर्के पूर्व त. भा. 1 6. अविचारं त. भा. । 7. लेश्योपपातस्थान त. भा. । 8 त. भा. में 'बन्धत्वभावनिर्जराभ्याम् ||2|| कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ||3|| इस प्रकारके दो सूत्र हैं। 9. त. भा. में तीसरे चौथे सूत्रके स्थानपर 'ओपशमिकादिभव्यत्वाभावाच्चान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः' ऐसा एक सूत्र है । 10. परिणामाच्च तद्गतिः त. भा. । 11. त. भा. में सातवें और आठवें नम्बर के दो सूत्र नहीं हैं ।
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परिशिष्ट 2
श्रीप्रभाचन्द्रविरचिततत्त्वार्थवृत्तिपदम्
सिद्ध जिनेन्द्र ममलप्रतिमबोधं त्रैलोक्यवन्द्यमभिवन्द्य गतप्रबन्धम् ।
दुर्वारदुर्जयतमःप्रविभेदनाक तत्त्वार्थवृत्तिपदमप्रकट प्रवक्ष्ये ॥ अंकों में पहला सन्दर्भ पैराग्राफ ($) का है, तथा दूसरा पृष्ठ का और तीसरा पंक्ति का है।
'वर्गः शक्तिसमहोणोरणनां वर्गणोदिता । 1.1 'भोक्षमार्गस्य' मीमांसं प्रति । 'भेत्तारं' योग
वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धकं स्पर्धकापहैः ॥' प्रति । 'ज्ञातारं' सौगत प्रति ।
-[अमित पञ्चसं० 1/45] [मंगलाचरण में 'मोक्षमागस्य' पद मीमांसकको लक्ष्य 2.3 आहत्यनिरूपिता हठात् समर्थिता । करके रखा गया है, क्योंकि वह मोक्ष को स्वीकार
सम्यग्दर्शन...॥1॥ नहीं करता ! 'भेत्तारं कर्मभूभृता' पद नैयायिक वैशेषिकको लक्ष्य करके रखा गया है, क्योंकि वे ईश्वरको अनादि सिद्ध मानते हैं। तथा 'ज्ञातारं विश्वतत्त्वाना' पद बौद्धको लक्ष्य करके रखा गया है।
4.5 लक्षणता लक्षण माधित्य विधानतो विधानं
प्रकारमाश्रित्य । उद्देश्यमात्र स्वरूपकथनमात्रम् । 1.2 विविक्तं त्रसबाधारहिते।
4.5 एतेषां निर्देक्ष्यामः निर्देशं करिष्यामः । 1.3 कश्चिद्भव्यः प्रसिडेंकनामा । 'प्रत्यासन्न
4.7 मोहः अनध्यवसायम् (यः) निष्ठः' निष्ठाशब्देन निर्वाण चारित्रं चोच्यते । प्रत्यासन्ना निष्ठा यस्यासौ प्रत्यासन्ननिष्ठः ।
4.8 आगूर्णस्थ उद्यतस्य। 1.4 अधाग्विसर्ग न विद्यते बाचा विसर्गो विसर्जन- 8.22 मुच्चारणं यत्र निरूपण कर्मणि ।
नामस्थापना 1411 15 उपसद्य समीपे गत्वा । 1.8 कर्म द्रव्य कर्म, मल भावकर्म ।
13.2 अतद्गुणे न विद्यते शब्दवत्तिनिमित्तभता: ते
प्रसिद्ध जाति-गुण-क्रिया-द्रव्यलक्षणगुणा- विशेषणानि .2
यत्र वस्तुनि तद् अतद्गुणं तस्मिन् । पुरुषाकारात् 1.10 प्रमाणेन शून्यो वादः प्रदादः। तीर्थङ्करमिवा. हठात् । पुस्तकर्म लेपकर्म। . . त्मानं मन्यन्ते तीर्थङ्करंमन्याः निश्चयरवरूपशून्यत्वात्। 13.6 अक्षाणां पाशानां, निक्षेयो विवक्षितप्रदेशे 2.1 निराकारत्वात् स्वपरव्यवसायलक्षणाकारशून्य- स्थानपम् । आदि शब्दात् वराटकादी (दि) निक्षेपस्वात् ।
रहणम्। 2.1 'बुद्धि - सुख- दुःखच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्का- 13.11 मनुष्यभाविजीवो यदा जीवादिप्राभूतं न राणां नवानामात्मगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः ।' जानाति अग्रे तु ज्ञास्यति तद्भाविनो आगमः।
1. 'मलमप्रतिमप्रबोध' इत्यपि पाठान्तरं । अनेकान्त वर्ष 1, कि० 1, पृ० 197 2. एतत्पद्य किमर्थमवायतमिति न प्रतीयते। अमितगतिकृतपञ्चसंग्रहस्य पञ्चचत्वारिंशत् संख्याकमिदं
पद्यमस्ति।
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390]
सर्वार्थसिद्धि
13.12 औदारिक-वैक्रियिकाहारकलक्षणत्रयस्य षट्- उत्तर---ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि सात पर्याप्तीनां च योग्यपुद्गलादानं नोकर्म ।
प्रकृतियोंकी क्षपणाके प्रारम्भक वेदकसम्यक्त्वसे 13. 13. अाविष्टः परिणतः ।
युक्त जीव कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होकर जब 13. 15. अप्रकृतनिराकरणाय अप्रकृतस्याप्रस्तुतस्य
क्षायिकसम्यक्त्वके अभिमुख होता है तब यदि वह मुख्यजीवादेनिराकरणाय । प्रकृतस्य प्रस्तुतस्य नाम
मरता है तो कृतकृत्य वेदक कालके अन्तर्मुहूर्त स्थापनाजीवादेनिरूपणाय ।
प्रमाण चार भागोंमें-से यदि प्रथम भागमें मरता है
तो देवोंमे उत्पन्न होता है, दूसरे भागमें मरने पर 8. 23
देव या मनुष्योंमें उत्पन्न होता है, तीसरे भागमें प्रमाणनय.61
मरने पर देव, मनुष्य या तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है
और चतुर्थ भागमें मरने पर चारोंमें से किसी भी 8. 24
गतिमें उत्पन्न होता है, अतः वेदक सम्यग्दृष्टिके 15. 5. प्रगृह्य-परिच्छिद्य । प्रमाणत:---प्रमाणेनार्थ,
तियंचगति और नरकगतिमें उत्पन्न होने में कोई पश्चात् स्वरूपादिचतुष्टयापेक्षयासत्त्वमेव पररूपादि
विरोध नहीं है, इसी तरह तिथंच अपर्याप्तकोंके भी चतुष्टयापेक्षयाऽसत्त्वमेवेत्यादिरूपतया, परिणतिवि
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जानना चाहिए। शेषात प्रवीणिताविशेषात् । यदि वा परिणतिविशे
17.1 तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति। कुत इति चेदुषात सत्वासत्त्वनित्यत्वानित्यत्वादिलक्षणमर्थगतं परिणामविशेषमाश्रित्य ।
च्यते-कर्मभूमिजो मनुष्य एव दर्शनमोहक्षपण
प्रारम्भको भवति । क्षपणप्रारम्भकालात्पूर्व तिर्यक्षु निर्देशस्वामित्व...॥7॥
बद्घायुष्कोऽप्युत्कृष्टभोगभूमिजतिर्यक्पुरुषेष्वेवोत्पद्यते
न तिर्यस्त्रीषु । तदुक्तम्६. 26 16.6 नरकगतौ पूर्व बद्धायुष्कस्य पश्चाद् गहीत- 'दसणमोहक्खवगो पट्टवगो कम्मभूमिजावोदा क्षायिकक्षयोपशमिकसम्यक्त्वस्याधः पृथिव्यामुत्पादा
णियमा मणुसगदीए मिट्ठवगो चावि सम्वत्था भावात् । प्रथमपथिव्यां पर्याप्तकापर्याप्तकानां क्षायिक
(कसायपा० 106) क्षायोपशमिकं चास्ति । ननु वेदकयुक्तस्य तिर्यक्नर- पट्टवगो प्रारम्भकः । णिवगो स्फेटिकः । केष'त्पादाभावात् कथमपर्याप्तकानां तेषां क्षायोपश- [तिर्यचोंके क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता, क्योंकि मिकमिति । तदयुक्तं, सप्तप्रकृतीनां क्षपणाप्रारम्भ- कर्मभूमिमें जन्मा हुआ मनुष्य ही दर्शन मोहके कवेदकयुक्तस्य कृतकरणस्य जीवस्यान्तर्मुहूर्ते सति क्षपणका प्रारम्भ करता है। क्षपण प्रारम्भ करनेसे क्षायिकाभिमुखस्य तत्रोत्पादे विरोधाभावात् । एवं पहले तिर्यंचोंकी आयु बाँध लेने पर भी वह मरतिरश्चामप्यपर्याप्तकानां क्षायोपशमिक शेयम् । कर उत्कृष्ट भोगभूमिके तिथंच पुरुषोंमें ही उत्पन्न [जिसने पहले नरकगतिकी आयुका बन्ध किया है होता है तियंचस्त्रियोंमें नहीं। कहा भी है 'दर्शन और पीछे क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको मोहकी क्षपणाका प्रारम्भक नियमसे मनुष्य गतिमें ग्रहण किया है वह जीव नीचेके नरकोंमें उत्पन्न कर्मभूमिमें जन्मा जीव ही होता है और निष्ठापक नहीं होता । अतः पहले नरकमें पर्याप्तक और सब गतियों में होता है।' गाथामें आये 'पटवयो। अपर्याप्तक नारकियोंके क्षायिक और क्षायोपशमिक शब्द का अर्थ प्रारम्भक है और 'णिवगो' का अर्थ सम्यक्त्व होते हैं।
पूरक है ।] शंका-वेदक सम्यक्त्व सहित जीव तिर्यंचों में नरकों 17.4 मानुषीणां भाववेदस्त्रीणां न द्रव्यवेदस्त्रीणां में उत्पन्न नहीं होता। तब कैसे उनके अपर्याप्त तासां क्षायिकासंभवात । अवस्था में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सम्भव है ? मानुषी का अर्थ भाववेदी स्त्री है, द्रष्यवेदी स्त्री
कर
1. उत्पद्यते हि वेदकदृष्टिः स्वमरेषु कर्मभूमिनृषु ।
कृतकृत्यः क्षायिकदृग् बदायुष्कश्चतुर्गतिषु ।'
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परिशिष्ट 2
[391
2- संभव नहीं है।
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नहीं, क्योंकि द्रव्यवेदी स्त्रियोंके क्षायिक सम्यक्त्व संयम, उपशम सम्यक्त्व और दोनों आहारक, इनमेंसे
एकके होने पर शेष नहीं होते।' 'आहारया दोषिण'से 17.5 अपर्याप्तावस्थायां देवानां कथमोपशमिकं तय - आहारक और आहारकमिश्र लेना चाहिए। क्तानां मरणासंभवात् । तदनुपपन्नं मिथ्यात्वपूर्वकोपशमिकयुक्तानामेव मरणासंभवात वेदकपूर्वका ग्रोप-8. 28 शमिकयुक्तास्तु नियमेन श्रेण्यारोहणं कुर्वन्तीति श्रेण्या- 19.7 नववेयकवासिनामहमिन्द्रत्वात् कथं धर्मश्रवरूढान् चारित्रमोहोपशमेन सह मृतानपेक्ष्यापर्याप्ता- णमिति चेत्, उच्यते--कश्चित् सम्यग्दृष्टिः परिपाटी वस्थायामपि देवानामौपशमिकं संभवति।
करोति तां श्रुत्वाऽन्यस्तत्र स्थित एव सम्यक्त्वं [शंका-अपर्याप्त अवस्थामें देवोंके कैसे प्रौपश- गृहति । अथवा प्रणामादिकं (प्रमाणादिक) तेषां मिक सम्यक्त्व हो सकता है, क्योंकि प्रौपशमिकसम्य- न (?) विद्यते तत्त्वविचारस्तु लिङ्गिनामिव विद्यते क्त्वसे युक्त जीवोंका मरण असंभव है ? उत्तर- इति न दोषः।
ऐसा कहना ठीक नहीं है। जो जीव मिथ्यात्व गुण- शंका-नव अवेयकवासी देव ता अहमिन्द्र होते हैं 3 स्थानसे .औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं उनके धर्मश्रवण कैसे संभव है ? उत्तर-कोई सम्य3 उनका ही मरण असंभव है, किन्तु जो वेदकसम्यक्त्व- दृष्टि पाठ करता है उसे सुनकर दूसरा कोई वहीं 3 पूर्वक औपशमिक सम्यक्त्व से युक्त होते हैं वे नियम- रहते हुए सम्यक्त्वको ग्रहण करता है। अथवा उनमें 3 से श्रेणिपर आरोहण करते हैं। श्रेणिपर आरूढ़ प्रमाण नय आदिको लेकर चर्चा नहीं होती। लिगि3 होकर चारित्रमोहनीयके उपशमकके साथ मरणको योंकी तरह सामान्य तत्त्वविचार कोई होता है अतः 3 प्राप्त हुए जीव मरकर नियमसे देव होते हैं। उन दोष नहीं है।]
देवोंके अपर्याप्तावस्थामें भी ग्रौपशमिक सम्यक्त्व होता है।
8.30
20.5 संसारिक्षायिकसम्यक्त्वस्योत्कृष्टा स्थितिः ६. 27
त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि । सागरोपमस्य लक्षणं18.2 परिहारशुद्धिसंयतानामोपशमकं कुतो "दहकोडाकोडिओ पल्लजाव, सा सायरु उच्चइ एक्कनास्तीति चेदुच्यते, मनःपर्ययपरिहारशुद्धयोपशमिक- ताव।" सान्तमुहूर्ताष्टवर्षहीनपूर्वकोटिद्वयाधिकानि । सम्यक्त्वाहारकर्धीनां मध्येऽन्यतरसंभवे परं त्रितयं न पश्चात् संसारिविशिष्टत्वं तस्य व्यावर्तते । तथाहि संभवत्येव । यतो मनःपर्यये तु मिथ्यात्वपूर्वकोपश- -कश्चित् कर्मभूमिजो मनुष्य:मिकप्रतिषेधो द्रष्टव्यो न वेदकपूर्वस्य । उक्तं च- 'पध्वस्स दु परिमाणं सर खलु सदसहस्सकोडीओ। 'मणपज्जवपरिहारो उबसमसम्मत्तहारया दोण्णि ।
छप्पण्णं च सहस्सा णायव्वा वासगणनाए ।' एदेसि एक्कगवे 'सेसाणं संभवो णत्थि ।'
इत्येवंविधवर्षपरिमाणपूर्वकोट्यायुरुत्पन्नो गर्भाष्टमआहारया दोण्णिा...--आहारकाहारकमिश्रको
वर्षानन्तरमन्तर्मुहूर्तेन दर्शनमोहं क्षपयित्वा क्षायिक[परिहार शुद्धि संयतोंके औपशमिकसम्यक्त्व क्यों ।
सम्यग्दृष्टि: संजातः । तपश्चरणं विधाय सर्वार्थसिद्धानहीं होता? इसका उत्तर है कि मनःपर्यय, परिहार
वुत्पन्नस्तत आगत्य पुनः पूर्वकोट्यायुरुत्पन्नः, कर्मशुद्धि, औपशमिक सम्यक्त्व और आहारकऋद्धि में-से
क्षयं कृत्वा मोक्षं गतः । तस्याधिककालावस्थित्यसंभकिसी एकके होनेपर शेष तीन नहीं होते। किन्तु
वात् । यद्भवेऽसौ दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भको भवति मनःपर्ययज्ञान के साथ मिथ्यात्वगुणस्थानपूर्वक होने
ततोऽन्यद्भवत्रयं नातिक्रामतीति तदुक्तं-- वाले औपशमिक सम्यक्त्व का निषेध जानना चाहिए,
'खवणाए पट्टयगो जम्मि भवे नियमदो तदो अण्णं । वेदकसम्यक्त्वपूर्वक होनेवाले औपशमिक सम्यक्त्व णाकार
णाकामदि तिण्णि भवे दसणमोहम्मि खीणम्मि ।' का नहीं। कहा भी है-..'मनःपर्यय, परिहारशुद्धि
(प्रा० पञ्चसं० 1/203) 1. गो० जी०, गा० 728 । प्रा० पञ्चसं० 11/94 ‘णत्वित्ति असेसयं जाणे ।' 2. पु. कोडिसदसहस्साइं।'बोद्धव्वा वासकोडीणं ।।-सर्वा०सि० उद्धृत । जम्बू०प्र० 13/1.2
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392]
सर्वार्थसिद्धि
[संसारी क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस शंका-इसमें मनुष्याय को जोड़ने पर छियासठ सागर तथा अन्तर्मुहुर्त आठ वर्ष कम दो पूर्वकोटि सागर से अधिक काल प्राप्त होता है ? होती है। सागरोपम का लक्षण- दस कोडाकोड़ी उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पल्यों का एक सागर कहा जाता है । उतने कालके स्वर्गों की आयु के अन्तिम सागर में-से मनुष्याय कम पश्चात् संसारी विशेषण छूट जाता है। इसका कर दी जाती है।] खुलासा इस प्रकार है-कोई कर्मभूमिया जीव एक ।
8. 31 पूर्वकोटि की आयु लेकर उत्पन्न हुआ। वर्षों की
21.2 सख्येया विकल्पा शब्दतः। एक सम्यग्दर्शनगणना के अनुसार सत्तर लाख छप्पन हजार करोड़
मित्यादि सम्यग्दर्शनप्ररूप शब्दानां संख्यातत्वात् । वर्षों का एक पूर्व होता है । इस प्रकार आयु लेकर
असंख्येया अनन्ताश्च भवन्ति तद्विकल्पाः श्रद्धातृश्रद्धाउत्पन्न होनेके पश्चात् गर्भसे आठ वर्ष अनन्तर अन्त
सव्यभेदात् । तत्र श्रद्धातृणां भेदोऽसंख्यातानन्तमानावमुहूर्तमें दर्शनमोहका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि
च्छिन्नतद्वत्तित्वात् । श्रद्धेयस्याप्येतदवच्छिन्नत्वमेव हो गया। तथा तपश्चरण करके सर्वार्थ सिद्धि में
भेदस्तद्विषयत्वात् सम्यग्दर्शनस्य तावद्धा . विकल्पा उत्पन्न हुआ। वहाँसे आकर पुनः एक पूर्वकोटिकी
भवन्तीति। आयु लेकर उत्पन्न हुआ तथा कर्मों का क्षय करके
[शब्द की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के संख्यात भेद हैं, क्यों मोक्ष गया क्योंकि वह इससे अधिक समय तक
कि सम्यग्दर्शन का कथन करनेवाले शब्द संख्यात संसारमें नहीं रह सकता। ऐसा नियम है कि जिस
हैं। श्रद्धा करनेवाले जीवों और श्रद्धा के योग्य भावों भवमें वह दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भक होता
के भेद से सम्यग्दर्शन के असंख्यात और अनन्त भेद है उससे अन्य तीन भवोंको नहीं लाँघता है। कहा
हैं, क्योंकि श्रद्धा करनेवालों की वृत्तियाँ असंख्यात भी है-'जिस भवमें क्षपणाका प्रारम्भक होता है,
और अनन्त प्रमाण होती हैं। श्रदेय के भी असंख्यात दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर नियमसे उससे अन्य
और अनन्त भेद होते हैं और सम्यग्दर्शन का विषय तीन भवोंका अतिक्रमण नहीं करता है।']
श्रद्धेय होता है अतः उसके भी असंख्यात पौर अनन्त 20.7 वेदकस्य षट्षष्टिः। तथाहि सौधर्मशुक्रशतारा
भेद होते हैं।] अवेयकमध्येन्द्रकेषु यथासंख्यं द्वि-षोडशाष्टादशत्रिंशत्सागरोपमाणि । अथवा सौधर्मे द्विरुत्पन्नस्य चत्वारि . 32 सागरोपमाणि, सानत्कुमारब्रह्मलान्तवानदेयकेषु सत्संख्या ...॥8॥ यथाक्रम सप्तदशचतुर्दशकत्रिंशत्सागरोपमाणि। . मनुष्यायुषा सहाधिकानि प्राप्नुवन्तीति नाशंकनीयम्, . अन्त्यसागरोपमायुःशेषेऽवशिष्टातीतमनुष्यायुःकाल - 22.3 अवरोधः स्वीकारः। सदावनुयोगः सदाद्यपरिमाणो तत्त्यागात्।
धिकारः।
[वेदक या क्षायोपशामिक सभ्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति 8.35 छियासठ सागर है। वह इस प्रकार है-सौधर्मम्वर्ग, 23.1 एकस्यैवानिवृत्तिगुणस्थानस्य सवेदत्वमवेदत्वं शुक्रस्वर्ग, सतारस्वर्ग और उपरिम ग्रैबेयक के मध्यम च कथमिति चेदुच्यते, अनिवृतिः षड्भागीक्रियते। इन्द्र क विमान में क्रम से दो सागर, सोलह सागर, तत्र प्रथमे भागत्रये वेदानामनिवृत्तेः सवेदत्वमन्यत्र अठारह सागर और तीस सागर की स्थिति है (इन तेषां निवृत्तेरवेदत्वम् । सबका जोड़ छियासठ सागर है) अथवा सौधर्मस्वर्ग- शंका-एक ही अनिवृत्तिगुणस्थान में सवेदपना और में दो बार उत्पन्न होनेपर चार सागर होते हैं। अवेदपना कैसे सम्भव है? और सानत्कुमार, ब्रह्मस्वर्ग, लान्तवस्वर्ग और उप. उत्तर--अनिवृत्ति गुणस्थानके छह भाग किये जाते रिमौवेयकमें क्रमसे सात सागर, दस सागर, चौदह हैं उनमेंसे प्रथम तीन भागोंमें वेद रहता है अतः सागर और इकतीस सागरकी स्थिति है (इन सब- सवेदपना है। शेष भागोंमें वेद चला जाता है अतः का जोड़ भी छियासठ सागर होता है)।
अवेदपना है।
.
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परिशिष्ट 2
[393
६. 37
द्वयषण्णवतिलक्षनवनवतिसहस्रन्यधिकशतपरिमाणा: 23.5 सम्यगित्यविरोधः । सम्यगमिथ्यादष्टेनिम- (29699103) । तदुक्त्त-- ज्ञानं वा केवलं न संभवति । तस्याज्ञानत्रयमिश्रज्ञान- 'छ सण्णवेण्णिअट्रयणवतियणव पंच होंति ह पमत्ता। त्रयाधारत्वात् । उक्तं च
ताणद्धमप्पमत्ता इति ।' 'मिस्से णाणाणतयं मिस्सं अण्णाणतिदयेण' इति। [अप्रमत्त संयत संख्यात हैं अर्थात प्रमत्त संयतों से तेन ज्ञानानुवादे तस्य वृत्तिकारैरनभिधानं परमार्थ - आधे हैं-दो करोड़ छियानबे लाख निन्यानबे हजार तस्तु तस्याज्ञानप्ररूपणायामेवाभिधानं द्रष्टव्यं तद्- एक सौ तीन हैं। कहा भी है-प्रमत्त संयत ज्ञानस्य यथावस्थितार्थविषयत्वाभावात् ।
59398206 हैं और अप्रमत्त उनसे आधे हैं] [सम्यमिथ्यादष्टिके न तो अकेला ज्ञान ही होता है चत्वार उपशमकास्ते प्रत्येकमेकत्रैकत्र गुणस्थाने और न अज्ञान ही होता है। किन्तु उसके तीन अष्टसु-अष्टसु समयेषु एकस्मिन्नेकस्मिन् समये यथाअज्ञानोंसे मिश्रित तीन ज्ञान होते हैं। कहा भी है- संख्यं षोडश चतुर्विशतिः त्रिंशत् षत्रिशत द्विचत्वा'मिश्र गुणस्थानमें तीन ज्ञान तीन अज्ञानोंसे मिले रिशत् अष्टचत्वारिंशत् द्विःचतुःपञ्चाशद् भवन्तीति । हुए होते हैं।' इसीरो ज्ञानकी अपेक्षा कथन करते अष्टसमयेषु चतुर्गणस्थानवतिनां सामान्येनोत्कृष्टा हए सर्वार्थसिद्धिकारने उसका कथन नहीं किया, ___ संख्या 16,24,30,36,42,48,54,54। विशेषेण
तु प्रथमादिसमयेष्वेको वा द्वौ वा त्रयो वेत्यादि षोडपरमार्थ तो उसका अज्ञान प्ररूपणमें ही कथन देखना चाहिए क्योंकि सम्यग्मिथ्यादष्टि का ज्ञान
शाद्युत्कृष्टसंख्या यावत् प्रतिपत्तव्या। उक्तं च-- यथावस्थित अर्थको नहीं जानता।]
'सोलसगं चउवीसं तीसं छत्तीसमेव जाणाहि ।
वादालं अडदालं दो चउवण्णा य उवसमगा।' 8.45
प्रवेशेनैको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षेण चतुःपञ्चा24.15 संख्या, सासादनसम्यग्दष्ट्यादिसंयतासंय
शदिति तु वृत्तिकारैरुत्कृष्टाष्टमसमयप्रवेशापेक्षया तान्ताः पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः। शब्दतश्चात्र प्राक्तम् । स्वकालन समुराद
प्रोक्तम् । स्वकालेन समुदिताः संख्येया नवनवत्यधिकसाम्यं नार्थतः परस्परं स्तोकबहुत्वभेदात्। तत्र शतद्वयपार
शतद्वयपरिमाणा एकत्रकत्र गुणस्थाने भवन्ति ।2991 प्रथमापेक्षया द्वितीया बहवः। द्वितीयापेक्षया ततीया तदुक्तम्बहवः । संयतासंयतास्तु सर्वतः स्तोकाः। प्रमत्तसंयताः णवणवदी दोणि सया एअट्ठाणम्मि उवसता ॥ कोटिपथक्त्वसंख्या:-कोटिपञ्चकत्रिनवतिलक्षाष्ट
इति। नवतिसहस्रषडधिकशतद्वयपरिमाणा भवन्ति
चार उपशमकों में से प्रत्येक एक-एक गणस्थानमें (59398206)।
आठ-आठ समयोंमेंसे एक-एक समय में क्रमसे १६, [आगे संख्या कहते हैं-सासादन सम्यग्दृष्टिसे 24,30,36,४2,48,54,54 होते हैं। आठ समयोंलेकर संयतासंयत पर्यन्त प्रत्येककी संख्या पल्पोपमके में चार गुणस्थानवतियोंकी सामान्यसे उत्कृष्ट असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इस संख्या में केवल संख्या 16,24,30,36,४2,48,54,54 होती है। शब्दों से समानता है अर्थरूपसे नहीं, क्योंकि संख्या विशेषसे प्रथमादि समयों में एक अथवा दो अथवा में कमती बढ़तीपना है। सासादनसम्यग्दृष्टि की तीन इत्यादि 16 उत्कृष्ट संख्या पर्यन्त जानना अपेक्षा मिश्र गुणस्थान-वालोंकी संख्या अधिक है चाहिए। कहा है-'उपशमकों की संख्या सोलह, और मिश्रसे सम्यग्दृष्टियोंकी संख्या बहुत है। चौबीस, तीस, छत्तीस, बयालीस, अड़तालीस, चौवन संयतासंयत तो सबसे कम हैं। प्रमत्त संयतोंकी संख्या और चौवन जानो।' कोटि पृथक्त्व प्रमाण है अर्थात् पाँच करोड़ तिरानबे
प्रवेशकी अपेक्षा एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्टसे लाख अठानबे हजार दो सौ छह है।]
चौवन जो सर्वार्थसिद्धिकार ने कहा है वह उत्कृष्टसे 24.17 अप्रमत्तसंयताः संख्येयाः । तदर्धन कोटि- आठवें समयमें प्रवेशकी अपेक्षा कहा है। अपने काल
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सर्वार्थसिद्धि
394]
में एकत्र हुए.जीवोंकी संख्या संख्यात अर्थात् एक- 25.2--चतुर्णा क्षपकाणामयोगलेवलिनां चाष्टधा एक गुणस्थान में 299 होती है। कहा भी है--'एक समयक्रमः पूर्ववद् द्रष्टव्यः । केवलं तेगामुपशामकेभ्यो गुण-स्थान में 299 उपशमक होते हैं।'
द्विगुणा संख्या प्रतिपत्तव्या। तदुक्तं-- विशेषार्थ-उपशम श्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें एक 'बत्तीसं अडदालं सट्ठी बाहत्तरीय चुलसीदि । समयमें चारित्रमोहनीयका उपशम करता हुआ छण्णऊदी अठत्तर सयमठ्ठत्तरसयं च बोधब्वा ॥ जघन्यसे एक जीव प्रवेश करता है और उत्कृष्ट से
(गो० जी०, 627) चौवन जीव प्रवेश करते हैं । यह कथन सामान्य से है। विशेषकी अपेक्षा तो आठ समय अधिक वर्ष
32,48,60,72,84,96,108,108: अत्राप्येको
वा द्वौ वा इत्याद्य त्वष्टाष्टमसमयप्रवेशापेक्षया पृथक्त्व कालमें उपशम श्रेणीके योग्य लगातार आठ
प्रोक्तम् । स्वकालेन समुनिताः प्रत्येकमष्टानवत्युत्तरसमय होते हैं। उनमेंसे प्रथम समय में एक जीव
पञ्चशतपरिमाणा भवन्ति (598) गुणस्थानपञ्चकको प्रादि लेकर उत्कृष्ट रूपसे सोलह जीव तक
वतिनां क्षपकाणां समुदितानां. दशोनानि त्रीणि उपशम श्रेणीपर चढ़ते हैं। दसरे समय में एक जीवको
सहस्राणि भवन्ति । तदुक्तम् --- आदि लेकर उत्कृष्ट रूपसे चौबीस जीव तक चढ़ते हैं। तीसरे समय में एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्ट खीणकसायाण पुणो तिण्णि सहस्सा वसूयणा रूप से तीस जीव तक चढ़ते हैं। चौथे समय में एक भणिया। 112990।। जीवको आदि लेकर उत्कृष्ट रूपसे छत्तीस जीव तक
[चारों क्षपकों का और अयोगकेवलियों का आठ चढ़ते हैं। पांचवें समयमें एक जीवको आदि लेकर
रूप समयक्रम उपशमकों की तरह जाना चाहिए। उत्कृष्ट रूपसे बयालीस जीव तक चढ़ते हैं। इसी
अन्तर केवल इतना है कि उनकी संख्या उपशमकोंसे तरह छठे समय में अड़तालीस जीव तक और सातवें
दूनी जाननी चाहिए, कहा है—'बत्तीस, अड़तालीस तथा आठवें समय में एक जीवको आदि लेकर
साठ, बहत्तर, चौरासी, छियानबे, एक सौ आठ, एक उत्कृष्ट से चौवन-चौवन जीव तक उपशम श्रेणीपर
सौ आठ जानना चाहिए।' चढ़ते हैं। इन सबका जोड़ 304 होता है, किन्तु कितने ही आचार्य उसमें पांच कम करके 299 यहाँ भी एक, दो या तीन आदि से लेकर उत्कृष्टसे कहते हैं। धवलामें वीरसेन स्वामीने 299 के प्रमाण आठवें समयमें प्रवेश तक उक्त संख्या कही है। अपने को ही आचार्यपरम्परागत कहा है । देखो पु. 3, कालमें एकत्र हुए प्रत्येक क्षपकका परिमाण,598 पृ० 92।
होता है। और चारों क्षपक तथा पांचवें अयोगननु चाष्टसमयेषु षोडशादीनां समुदितानां चतुर
केवलि गुणस्थानति जीवोंका परिमाण दस कम धिकशतत्रयं प्राप्नोति; तदयुक्तम, अष्टसमयषप- 'तीन हजार होता है। कहा भी है-क्षीणकषायोंका शामका निरन्तरं भवन्तः परिपूर्णा न लभ्यन्ते । परिमाण दस कम तीन हजार अर्थात् दो हजार नौ किं तर्हि ? पञ्चहीमा भवन्तीति चतर्गणस्थानवति- सो नब्बे होता है। नामप्यपशमकानां समुदितानां षण्णवत्यधिकान्येका- 25.4-सयोगकेवलिनामप्यूपशमकेभ्यो द्विगणबशशतानि भवन्ति ॥1196॥
त्वादष्टसमयेषु प्रथमादिसमयक्रमणको वा द्वौ वेत्यादि [शंका-आठ समयोंमें सोलह आदि संख्याओं का द्वात्रिंशदाद्य त्कृष्टसंख्या यावत् संख्याभेदः प्रतिपत्तव्य: जोड़ तीन सौ चार प्राप्त होता है ? समाधान- नन्वेवमुदाहृतक्षपकेभ्यो भेदेनाभिधानमेषामर्थकमिति ऐसा कहना यक्त नहीं है। आठ समयोंमें उपशामक चेत् न, स्वकालसमुदितसंख्यापेक्षया तेषां तेभ्यो निरन्तर होते हए भी पूर्ण नहीं होते हैं किन्तु पाँच विशेषसंभवात् । सयोगकेवलिनो हि स्वकाले कम होते हैं। इसलिए आठवें से ग्यारहवें तक चार समुदिताः शतसहस्रपृथक्त्वसंख्या, अष्टलक्षाष्टनवगुणस्थानवर्ती उपशमकोंका जोड़ ग्यारह सौ छियानबे तिसहस्राद्यधिकपञ्चशतपरिमाणाः (898502)। होता है।
उक्तं च
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परिशिष्ट 2
[395
'अठे व सयसहस्सा अट्ठानवदि तहा सहस्साणं। इत्याह-प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः । श्रेणिः श्रेण्या खामोशिजणा पंचव सया विउत्तरा हौदि।।' गुणिता प्रतरा भवति । तदसंख्यातभागप्रमितानाम
-[गो० जी० ६२८] संख्यातश्रेणीनां यावदन्तःप्रदेशास्तावन्तस्तत्र नारका [सयोगकेवलियों की संख्या भी उपशमकों से दनी इत्यथः । होती है, अतः आठ समयों में प्रथम आदि समय के [प्रथम पृथिवी में मिथ्यादृष्टि नारकी असंख्यात श्रेणि क्रमसे एक अथवा दो इत्यादिसे लेकर बत्तीस आदि प्रमाण हैं । शंका-यह श्रेणी क्या वस्तु है ? उत्तर उत्कृष्ट संख्या पर्यन्त संख्या भेद जानना चाहिए। -सात राजू लम्बी मोतियों की मालाके समान
आकाशके प्रदेशोंकी पंक्तिको श्रेणि कहते हैं। यह शंका---तब तो कहे गये क्षपकों से सयोग केवलियों
श्रेणि एक परिमाणविशेष है। वे श्रेणियाँ प्रतरके का भिन्न कथन करना व्यर्थ है (क्योंकि क्षपक भी
असंख्यातवें भागप्रमाण यहां जानना । श्रेणिको श्रेणि उपशमकोंसे दूने हैं ?)
से गुणा करने पर प्रतर होता है । उस प्रतरके असंउत्तर-नहीं, क्योंकि स्वकाल में समृदित (एकत्री
ख्यातवें भागप्रमाण, असंख्यात श्रेणियों के अन्तर्गत भूत) संख्या की अपेक्षा सयोगकेवलियों में क्षपकोंसे
जितने प्रदेश होते हैं उतने ही प्रथम नरकमें मिथ्याभेद सम्भव है। स्वकाल में समदित सयोगकेवलियों
दृष्टि नारकी हैं।] का परिमाण लाखपृथक्त्व है अर्थात् आठ लाख अठा
25.11 सूक्ष्ममनुष्यं प्रति मनुष्या मिथ्यादृष्टयः नबे हजार पाँच सौ दो है। कहा भी है-'सयोग
श्रेण्यसंख्येयभाग प्रमिताः । सासादनादिसंयताकेवली जिनों की संख्या आठ लाख अठानबे हजार
संयतान्ताः संख्येयाः । तद्यथा सासादनाः 520000पाँच सौ दो है।']
000। मिश्राः 1040000000। असंयता:सर्वेऽप्येते प्रमत्ताद्ययोगकेवल्यन्ताः समुदिता उत्कर्षण 7000000000। देशाः 130000000 । तथा यदि कदाचिदेकस्मिन् समये संभवन्ति तदा त्रिहीन- चोक्तम् --- नवकोटिसंख्या एव भवन्ति (89999997)। तेरसकोडी देसे वावण्णं सासणे मणेयम्वा । तदुक्तम्
मिस्से विय तद्गुणा असंजदा सत्तकोडिसया।।' “सत्ताई अटुंता छण्णवमञ्झा य संजदा सवे ।
[मनुष्यगतिमें सासादन गुणस्थानी से लेकर संयताअंजलिमौलियहत्थो तियरणसुद्धो णमंसामि॥' संयत पर्यन्त मनुष्यसंख्या संख्यात है। कहा भी है
(गो० जी० 632) पांचवें देशविरत गुणस्थान में तेरह करोड़ मनुष्य [प्रमत्त संयतसे लेकर अयोग केवली पर्यन्त ये सभी होते हैं, सासादन गुणस्थानमें बावन करोड़ और संयत उत्कृष्ट रूप से यदि एक समय में एकत्र होते मिथ गुणस्थान में उनसे दुगुने अर्थात् एक सौ चार हैं तो उनकी संख्या तीन कम नौ करोड़ होती है। करोड़ मनुष्य होते हैं । असंयतसम्यग्यदृष्टि सात सौ कहा भी है. सभी संयतोंका परिमाण आठ करोड करोड़ होते हैं ।। निन्यानबे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तानबे होता है। हाथों की अंजुलि बनाकर और मन वचन .48 कायको शुद्ध करके उन्हें नमस्कार करता हूँ।
26.7 पर्याप्तपथिव्यादिकायिका असंख्येयलोकाः ।
अथ कोऽयं लोको नाम । प्रतरः श्रेण्या गुणितो लोको ६. 46
भवति मानविशेषः। 25.7 असंख्येयाः श्रेणयः। अथ केयं श्रेणिरिति [पर्याप्त पथिवीकायिक आदि जीवों का परिमाण चेदुच्यते--सप्तरज्जूमयी मुक्ताफलमालावदाकाश- असंख्यात लोक है। प्रतरको श्रेणिसे गुणा करनेपर प्रदेशपंक्तिः श्रेणिर्मान विशेषः । किं विशिष्टास्ता लोक होता है यह एक परिमाणका भेद है।]
2. गो जी०, गा० 633। 3. धवला पु०3,
1. धवला पु०3,१० 96 । गो० जी० गा०6291 पृ. 254 । गो० जी० गा० 641।
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396]
साथासद्धि
8. 60
न्द्रियोंका नहीं, क्योंकि पंचेन्द्रिय तो नरक लाकम, 29.12 क्षेत्र, सयोगकेवलिनां दण्डकवाटावस्थापेक्षया
मध्यलोकमें तथा देवलोक में पाये जाते हैं ? उत्तरलोकस्यासंख्येयंभागः क्षेत्रम्, प्रतरापेक्षया असंख्येय
ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि पंचेन्द्रिय भी त्रसभागाः वातवलयत्रयादर्वागेव तदात्मप्रदेश निरन्तरं
नालीके भीतर नियत स्थानोंमें ही पाये जाते है, लोकव्याप्तेः । लोकपूरणापेक्षया सर्वलोकः ।
अतः उनका क्षेत्र भी लोकका असंख्यातवां भाग
बनता है। (सयोगकेवलियोंका क्षेत्र दण्ड और कपाटरूप
8.75 समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग है। प्रतररूप समुद्घातकी अपेक्षा असंख्यात बहुभाग क्षेत्र
33.1 स्पर्शनम् । असंख्यातयोजनकोट्याकाशप्रदेशहै, क्योंकि तीनों बातवलयसे पहले तक ही उनकी
परिमाणा रज्जूः । तल्लक्षणसमचतुरस्र रज्जुत्रिचत्वा.
रिंशदधिकशतत्रयपरिमाणो लोकः। तत्र स्वस्थानआत्माके प्रदेशोंसे बिना किसी अन्तरालके लोक
विहार: परस्थानविहारो मारणन्तिकमुत्पादश्च व्याप्त होता है। और लोक पूरण समुद्घातकी अपेक्षा
जीवैः क्रियते । तत्र स्वस्थानविहारापेक्षया सासादनसयोगकेवलियों का क्षेत्र सर्वलोक है।।
सम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः स्पष्टः। सर्वत्राग्रे
लोकस्यासंख्येयभागः स्वस्थानविहारापेक्षया द्रष्टव्यः । 5.62
परस्थानविहारापेक्षया तु सासादनदेवानां प्रथम 30.5 एकेन्द्रियाणां क्षेत्र सर्वलोकः, तेषां सर्वत्र पथिवीत्रये विहाराद् रज्जद्वयम् । अच्युतान्तोपरि संभवात विकलेन्द्रियाणां लोकस्यासंख्येयभागः। विहारात षडरज्जव इत्यष्टोचतवंशभागाः। त्रसनाडा देवनारकमनुष्यवत्तेषां नियतोत्पादस्थानत्वात् । ते हि चतुर्दशरज्जूनां मध्ये अष्टौ रज्जव इत्यर्थः । सर्वअर्ध तृतीयद्वीपे लवणोदकालोद-समुद्रद्वये स्वयम्भूर- त्राप्यष्टौ चतुर्दशभागा इत्थं द्रष्टव्याः। तथा द्वादश । मणे द्वीपे समुद्रे चोत्पद्यन्ते, न पुनरसंख्यातद्वीपसमुद्रेषुः तथाहि सप्तमपृथिव्यां परित्यक्तसासादनादिगणस्थान नरकस्वर्गादिषु भोगभूमिषु म्लेच्छादिषु च। पञ्चे- एव मारणान्तिकं करोतीति नियमात् । षष्ठीतो मध्यन्द्रियाणां मनुष्यवत् । इत्ययुक्तम्, मनुष्याणां प्राग्मा- लोके पञ्चरज्जः सासादनो मारणान्तिकं करोति । नुषोत्तरादेव संभवाल्लोकस्यासंख्येयभागो युक्तो न मध्यलोकाच्च लोकाग्रे बादरपथिव्यां वनस्पतिकायिपूनः पञ्चेन्द्रियाणां नारकतिर्यग्लोके देवलोके च केष सप्तरज्जव इति द्वादश । सासादनो हि वायुकायतत्संभवात् । तदसुन्दरं तेषामपि त्रसनाड्या मध्ये तेजस्कायनरकसर्वसूक्ष्मकायलक्षणानि चत्वारि स्थाननियतेष्वेव स्थानकेषूत्पादसंभवात् लोकस्यासंख्येव- कानि वर्जयित्वान्यत्र सर्वत्रोत्पद्यते । तदुक्तम्-- भागोपपत्त।
'वज्जिय ठाणचउक्कं तेऊ वाऊ यणिरयसहमं च । [एकेन्द्रियों का क्षेत्र सर्वलोक है क्योंकि वे सर्वत्र ।
अण्णत्य सव्वट्ठाणे उववज्जदि सासणो जीवो।' पाये जाते हैं । विकलेन्द्रियों का क्षेत्र लोकका असं- केचित्प्रदेशाः सासादनस्य स्पर्शनयोग्या न भवन्तीति ख्यातवां भाग है क्योंकि देव और नारकियों और देशोनाः । सर्वत्र चाग्रे स्पर्शनायोग्यप्रदेशापेक्षया देशोमनुष्यों की तरह विकलेन्द्रिय भी नियत स्थानमें नत्वं द्रष्टव्यम् । उत्पन्न होते हैं। वे अढाई द्वीपमें लवणोद और [आगे स्पर्शनका कथन करते हैं । असंख्यात करोड कालोद समद्रमें तथा स्वयंभ रमणद्वीप और स्वयंभ- योजन प्राकाश प्रदेशों के परिमाणवाली एक राज रमण समद्र में उत्पन्न होते हैं। शेष असंख्यात द्वीप होती है । और तीन सौ तेतालीस घन राज प्रमाण समद्रोंमें नरक और स्वर्गादिमें भोगभमियोंमें और लोक होता है। उसमें जीवों के द्वारा स्वस्थानविहार, म्लेच्छादिमें विकले न्द्रिय जीव उत्पन्न नहीं होते। परस्थानविहार, मारणान्तिकसमुद्घात और उत्पाद पंचेन्द्रियों का क्षेत्र मनुष्यों की तरह कहा है। किया जाता है। उसमें से स्वस्थानविहार की अपेक्षा शंका----यह युक्त नहीं है क्योंकि मनुष्य तो मानुषो- सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग त्तर पर्वतसे पहले तक ही पाये जाते हैं अतः उनका क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आगे भी सर्वत्र स्वस्थान क्षेत्र तो लोकका असंख्यातवाँ भाग उचित है। पंचे- विहारकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग जानना
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परिशिष्ट 2
1397
चाहिए। परस्थानविहारकी अपेक्षा तो सासादन रज्जवः स्पृष्टाः । सम्यगमिथ्यादृष्टीनां मारणान्तिसम्यग्दृष्टि देवोंका प्रथम तीन पृथिवियोंमें विहार कोत्पादायुर्बन्धावस्थायां नियमेन तद्गुणस्थानत्यागात् करनेसे दो राजु और ऊपर अच्युत स्वर्ग तक विहार स्वस्थानविहारापेक्षया लोकस्यासंख्येयभागः स्पर्शकरनेसे छह राजू इस तरह आठ बटे चौदह राजु नम्। असंयतसम्यग्दृष्टीनां मारणान्तिकापेक्षयापि स्पर्शन होता है अर्थात् सनाडीके चौदह राजुओंमेंसे लोकस्यासंख्येयभागः तेषां नियमेन मनुष्येष्वेवोत्पाआठ राजु प्रमाण । सर्वत्र आठ बटे चौदह इसी प्रकार दात्तेषां चाल्पक्षेत्रत्वात् । जानना । तथा बारह बटे चौदह इस प्रकार जानना
सप्तम्यां मिथ्यादृष्टिभिर्मारणान्तिकोत्पादापेक्षया षड्सातवीं पृथ्वीमें सासादन आदि गुणस्थानोंको छोड़
रज्जवः शेषस्त्रिभिलॊकस्यासंख्येयभागः। स्वस्थानकर मिथ्यात्व गुणस्थानवाला जीव ही नियमसे ।
विहारापेक्षया मारणान्तिकापेक्षयाप्येषां स्पर्शनं कूतो मारणान्तिक समुद्धात करता है ऐसा नियम है। और
न कथितमिति चेत् तत्रत्यनारकाणां मारणान्तिछठी पृथ्वीसे मध्य लोक पर्यन्त पाँच राजू सासादन
कोत्पादात्पूर्वकाले नियमेन तद्गुणस्थानत्यागात् । सम्यग्दृष्टि मारणान्तिक करता है । और मध्यलोकसे
सासादनोऽधो न गच्छतीति नियमात्तिर्यक्सासादनस्य लोकके अग्रभागमें बादर पृथ्वीकाय, जलकाय और
लोकाग्रे बादरपृथिव्यादिषु मारणान्तिकापेक्षयापि वनस्पतिकायमें मारणान्तिक करनेसे सात राजू, इस साजरा तरह बारह राजू स्पर्श होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि वायुकाय, तेजस्काय, नरक और सर्व सूक्ष्मकाय, इन मनुष्यमिथ्यादष्टिभिर्मारणान्तिकापेक्षया सर्वलोकः चार स्थानोंको छोड़कर सर्वत्र उत्पन्न होता है। स्पष्टः। पृथिवीकायिकादेस्तत्रोत्पादापेक्षया वा । कहा भी है-'तेजस्काय, वायुकाय, नरक और सूक्ष्म- यो हि यत्रोत्पद्यते तस्योत्पादावस्थायां तद् व्यपदेशो कायोंको छोड़कर, अन्यत्र सर्वत्र सासादन सम्यग्दृष्टि भवति । सर्वलोकस्पर्शनं चाने सर्वत्रेत्थं द्रष्टव्यम् । जीव उत्पन्न होता है।' कुछ प्रदेश सासादन, जीवके मिथ्यादष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिदेवानां तृतीयपृथिवीस्पर्णन योग्य नहीं होते, इसलिए देशोन (कुछ कम) गतानां लोकाग्रे बादरपृथिव्यादिषु मारणान्तिकाकहा है। आगे सर्वत्र स्पर्शनके अयोग्य प्रदेशों की पेक्षया नव रज्जवः । नवरज्जुस्पर्शनमग्रेऽपीत्थं अपेक्षा देशोनपना जानना।]
द्रष्टव्यम्। सम्यगमिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टीनां
त्वेकेन्द्रियेषूत्पादाभावात् विहारापेक्षयाष्टौ रज्जवः । 8.76
[सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयत सम्यग्दष्टि देवों के द्वारा 35.1 सम्यग्मिथ्यादष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिभिदेवैः पर- परस्थान विहारकी अपेक्षा र
परस्थान विहारकी अपेक्षा आठ राजु स्पृष्ट किये गये स्थानविहारापेक्ष याष्टौ रज्जवः स्पृष्टाः । संयतासंयतः हैं। स्वयंभूरमणके पंचमगुणस्थानवर्ती तिर्यचोंके द्वारा स्वयंभरमणतिर्यगभिरच्युते मारणान्तिकापेक्षया षड्- अच्युत स्वर्गमें मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा ज्जवः स्पृष्टाः। प्रमत्तसंयतादीनां नियतक्षेत्रत्वात् भवा
छह राजू स्पष्ट किये गये हैं। प्रमत्तसंयत आदि न्तरे नियतोत्पादस्थानत्वाच्च उत्पादे चतुर्थगुणभावात्
गुणस्थानवी जीवोंका क्षेत्र नियत है, भवान्तरमें समचतुरस्ररज्जूप्रदेशव्याप्त्यभावाल्लोकस्यासंख्येय
उत्पादस्थान भी नियत है तथा उत्पाद अवस्थामें भागः। सयोगकेवलिना क्षेत्रवल्लोकस्यासंख्येयभागोऽ• . चौथा गुणस्थान हो जाता है अतः समचतुरस्र रज्जू संख्येया भागाः सर्वलोको वा स्पर्शनम् सर्वनारकाणां प्रदेशमें व्याप्त न होनेसे उनका स्पर्शन लोकका नियमेन संज्ञिपर्याप्तकपञ्चेन्द्रियेषु तिर्यक्षु मनुष्येषु वा असंख्यातवाँ भाग है। सयोगकेवलियोंका स्पर्शन प्रादुर्भावः । तत्र प्रथमपृथिव्याः संनिहितत्वेनाधो- क्षेत्रकी तरह लोकका असंख्यातवा भाग, असंख्यात रज्जपरिमाणाभावात्तत्र त्यनारकैश्चतुर्गुणस्थान र्लोक - बहुभाग और सर्वलोक है । सब नारकी नियमसे संज्ञी स्यासंख्येयभागः स्पृष्टः। द्वितीयपृथिव्यास्तिर्यग्लो- पर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंचों अथवा मनष्यों में उत्पन्न कादधो रज्जूपरिमाणत्वादध:पृथिवीनां चैकंकाधिक- होते हैं। उनमें-से पहली पृथिवी तो मध्यलोकके रज्जूपरिमाणत्वात् तत्रत्यमिथ्यादृष्टिसासादन- निकट है, मध्यलोकसे नीचे पहली पथिवी तक एक सम्यग्दष्टिभिर्यथासंख्यमेका द्वे तिस्रश्चतस्रः पञ्च राजुका भी परिमाण नहीं है। अतः पहली पथिवीके
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3981
चारों गुणस्थानवर्ती नारकियोंका स्पर्मन लोकका असंख्यातवाँ भाग है । दूसरी पृथिवी मध्यलोकसे नीचे एक राजके परिमाणपर स्थित है तथा उससे नीचे की तीसरी आदि पृथिवियाँ भी एक-एक राजूका अन्तरात देकर स्थित हैं अतः उन पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यदृष्टि नारकियोंने कमसे एक, दो, तीन, चार और पाँच राजुका स्पर्शन किया है। सम्यरमध्यादृष्टि मारणान्तिकसमुद्घात, उत्पाद और आयुबन्धके समय नियमसे तीसरे गुणस्थानको छोड़ देते हैं क्योंकि तीसरे गुणस्थान में ये तीनों कार्य नहीं होते । अतः स्वस्थान विहारकी अपेक्षा उनका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग है। संयत सम्यग्दृष्टि नारकियोंका स्वर्शन मारणान्तिककी अपेक्षा भी लोकका असंख्यातवाँ भाग है क्योंकि वे नियमसे मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं और मनुष्योंका क्षेत्र अल्प है ।
सर्वार्थसिद्धि
सातवीं पृथिवी में मिथ्यादृष्टि नारकियोंने मारणान्तिक और उत्पादकी अपेक्षा छह राजुका स्पर्श किया है। शेष तीन गुणस्थानवर्ती नारकियों का स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है।
शंका- स्वस्थानविहारकी अपेक्षा और मारणान्तिककी अपेक्षा इन तीन गुणस्थानवर्ती नारकियोंका स्पर्शन क्यों नहीं कहा ?
उत्तर- सप्तम पृथिवीके नारकी मारणान्तिक और उत्पाद से पूर्व नियमसे उन गुणस्थानोंको छोड़ देते हैं ।
सासादन सम्यग्दृष्टि भरकर नरकमें नहीं जाता ऐसा नियम है अतः सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यचका स्पर्शन लोकान में बादर पृथिवी आदिमें मारणान्तिककी अपेक्षा भी सात राजु है। मिध्यादृष्टि मनुष्योंका स्पर्शन मारणान्तिककी अपेक्षा सर्वलोक है। अथवा पृथिवीकायिक आदिके मनुष्योंमें उत्पन्न होनेकी अपेक्षा सर्वलोक है; क्योंकि जो मरकर जहाँ उत्पन्न होता है वह उत्पाद अवस्थामें वही कहा जाता है अर्थात् पृथिवीकायिक बाविसे मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले जीव उत्पाद अवस्था में मनुष्य ही कहलाते हैं। सर्वलोक स्पर्शन धागे सर्वत्र इसी प्रकार
।
1. गो० जो० ना० । मूलाचार गा० 1134
जानना चाहिए। तीसरे नरक गये मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देवोंका लोकके अग्रभाग में बादरपृथिवीकाधिक आदिमें मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा नौ राजु स्पर्शन है। नौ राजु स्पर्शन आगे भी इसी प्रकार जानना चाहिए। और सम्यग्मिथ्यादृष्टि तथा असंयत सम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न नहीं होते। उनका विहारवत्स्व स्थानकी अपेक्षा आठ राजू स्पर्णन है ।
§. 77
।
35.4. पञ्चेन्द्रियमिपावृष्टिभिः अष्टौ देवान् प्रति सर्वलोको मनुष्यान् प्रति सयोगकेवलिनां दण्डाद्यव स्थायां वाङ्मनसवर्गणामवलम्ब्यात्मत्र देशपरिस्पन्दाभावात्लोकस्यासंख्येयभागः ।
[पंचेन्द्रिय मिध्यादृष्टियोंका आठ राजु स्पर्शन देवोंकी अपेक्षा जानना अर्थात् पंचेन्द्रिय मिथ्या दृष्टिदेव तीसरे नरक तक विहार करते हैं अतः मेरुके मूलसे ऊपर छह राजु और नीचे दो राजु, इस प्रकार आठ राजु क्षेत्र के भीतर सर्वत्र उक्त प्रकारसे पंचेन्द्रिय पाये जाते हैं। सर्वलोक स्पर्शन मनुष्योंकी अपेक्षा है सयोगकेवलियोंके दण्ड आदि अवस्थामें वचनवर्गणा मनोवर्गणाका अवलम्बन लेकर आत्मप्र देशोंका परि स्पन्दन नहीं होता अतः लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है ]
5.85
37.9 सप्तनरकेषु नारका यथासंख्यमेतल्लेश्या भवन्ति । उक्तं च
"काळ काळ तह काउणीला गीला व जीलकिन्हाए । किव्हा य परमकिण्हा लेस्सा रयणाविपुढवीसु ॥' (मूलाचार ११३४) तत्र षष्ठपृथिव्यां कृष्णलेष्यैः सासादनसम्यग्दृष्टिभि मरणान्तिकाद्यपेक्षया पञ्च पञ्चमपृथिव्यां कृष्णलेश्याऽविवक्षया नीललेश्यैश्चतस्रो रज्जवः स्पृष्टाः । तृतीयपृथिव्यां नीललेश्याविवक्षया कापोततले रज्जू स्पृष्टे । सप्तमपृथिव्यां यद्यपि कृष्णलेश्यास्ति तथापि मारणान्तिकाद्यवस्थायां सासादनस्य तत्र न सा संभवति तदा नियमेन मिध्यात्वग्रहणादिति नोदाहृता । तेजोलेश्यैः संयतासंयतः प्रथमस्वर्गे
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परिशिष्ट 2
[399
मारणान्तिकाद्यपेक्षया साधरज्जुः स्पृष्टा । पद्मलेश्यः नियमसे वह मिथ्यात्वमें चला जाता है इसलिए यहाँ संयतासंयतैः सहस्रारे मारणान्तिकादिविधानात पंच उसका कथन नहीं किया है। रज्जवः स्पृष्टाः । शुक्ललेश्यमिथ्यादृष्ट्यादिसंयता
तेजोलेश्यावाले संयतासंयत जीवोंने प्रथम स्वर्ग पर्यन्त संयतान्तरणान्तिकाद्यपेक्षया षट्रज्जव: स्पृष्टाः ।
मारणान्तिक समुद्घात आदि करनेकी अपेक्षा डेढ सम्यग्मिथ्यादृष्टिभिस्तु मारणान्तिके तद्गुणस्थान
राज स्पष्ट किया है। पद्मलेश्यावाले संयतासंयतोंने त्यागाद्विहारापेक्षया षडरज्जव: स्पृष्टाः । अष्टावपि
सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त मारणान्तिक आदि करनेकी कुतो नेति नाशङ्कनीयम्, शुक्ललेश्यानामधो विहारा
अपेक्षा पाँच राजु स्पृष्ट किये हैं। शुक्ललेश्याबालें भावात् । यथा च कृष्णलेश्यादित्रयापेक्षयावस्थित
मिथ्यादष्टिसे लेकर संयतासंयत पर्यन्त जीवोंने मारलेश्या नरिकाः, तथा तेजोलेश्यादित्रयापेक्षया देवा
णान्तिक आदिकी अपेक्षा छह राजु स्पृष्ट किये हैं। अपि । तदुक्तम्
किन्तु मारणान्तिक समुद्घात होनेपर सम्यग्मिथ्या'तेऊ तेऊ तह तेऊपम्मा पम्मा य पम्मसुक्काय। दृष्टि उस गुणस्थान को छोड़ देता है अतः उनमें सुक्का य परमसुक्कालेस्सा भवणादिदेवाणं ।। विहार की अपेक्षा छह राज स्पर्शन होता है। -(प्रा० पंचसं० 189)
शंका-विहारकी अपेक्षा आठ राजु स्पर्श क्यों नहीं तद्यथा भवनवासिव्यन्त रज्योतिष्केषु जघन्या तेजो- कहा ? लेश्या । सौधर्मशानयोर्मध्यमा। सानत्कुमारमाहेन्द्र
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी राहिए क्योंकि योरुत्कृष्टा तेजोलेश्या जघन्यं पद्यलेश्याविवक्षया ।
शुक्ललेश्यावाले देवोंका नीचे विहार नहीं होता। ब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशक्रमहाशुक्रषु मध्यमा पालेश्या । शतारसहस्रारयोरुत्कृष्टा पद्यलश्या जैसे कृष्ण आदि तीन लेश्याओंकी अपेक्षा नारकी जघन्य शक्ललेश्याविवक्षया। आनतप्राणतारणा- जीवोंकी लेश्या अवस्थित होती है वैसे ही तेजोलेश्या च्युतनवग्रं वेयकेषु मध्यमा शुक्ललेश्या। नवानुदिश- आदि तीन लेश्याओंकी अपेक्षा देव भी अवस्थित लेश्यापञ्चानुत्तरेषत्कृष्टा । उक्तं च
वाले होते हैं। कहा भी है-भवनवासी आदि देवोंमें 'तिण्हं दोण्हं दोहं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च ।। तेजोलेश्या, तेजोलेश्या, तेज और पद्मलेश्या, पालेश्या, एत्तो य चोदसम्हं लेस्सा भवादिदेवाणं ॥' पद्म और शुक्ललेश्या, शुक्ललेश्या और परमशुक्ल__-(पंच० गा० 188) लेश्या होती है। इसका अभिप्राय यह है कि भवनवासी,
व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंमें जघन्य तेजोलेश्या होती ततोऽन्यत्र लेश्यानियमाभावः ।
है। सौधर्म और ऐशान स्वर्गों में मध्यमतेजोलेश्या [सातों नरकों में नारकियोंके ये लेश्या होती हैं। होती है। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गमें उत्कृष्ट कहा भी है-'रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में क्रमसे तेजोलेश्या तथा अविवक्षासे जघन्य पद्यलेश्या होती है। कापोत, कापोत, कापोत-नील, नील, नील-कृष्ण, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र और महाशुक्र कृष्ण और परमकृष्ण लेश्या होती हैं।' उनमें-से छठी स्वर्गों में मध्यम पद्मलेश्या होती है। शतार और प्रथिवी में कृष्णलेश्यावाले सासादन सम्यग्दृष्टि नार
सहस्रार स्वर्गों में उत्कृष्ट पद्मलेश्या तथा अविवक्षासे कियों ने मारणान्तिक आदिकी अपेक्षा पांच राज
जघन्य शुक्ललेश्या होती है । आनत, प्राणत, आरण, और पांचवीं पथ्वीमें कृष्णलेश्याकी विवक्षा न करके अच्यत और नौ ग्रेवेयकोंमें मध्यम शुक्ललेश्या होती नीललेश्यावाले नारकियों ने चार राजु स्पष्ट किये है। नौ अनुदिशों और पांच अनुसरोंमें उत्कृष्ट शुक्ल. हैं। तीसरी पृथ्वीमें नीललेश्याकी विवक्षा न करके लेश्या होती है। कहा भी हैकापोत लेश्यावाले नारकियों ने दो राजु स्पृष्ट किये हैं। सातवीं पृथिवीमें यद्यपि कृष्णलेश्या है तथापि भवनवासी आदि देवोंमें से तीनमें, दोमें, दोमें, छ मारणान्तिक आदि अवस्थामें सासादन सम्यग्दष्टिके में, दोमें, तेरह में और चौदहमें (उक्त क्रमसे) लेश्या वहाँ कृष्णलेश्या नहीं होती, क्योंकि उस अवस्थामें होती है।'
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400]
इनके सिवाय अन्य लेण्याका नियम नहीं है। §. 87
39.3 शायिक सम्यक्त्वयुक्त संयतासंयतानामितर सम्यक्त्वयुक्तसंयतासंयतानामिव षडपि रज्जवः कुतो नेति नाशंकनीयं तेषां नियतत्रत्वात् कर्मभूमिजो हि मनुष्यः सप्तप्रकृतिशयप्रारम्भको भवति तद्दर्शन लाभात्प्रागेव तिर्यक्षु बद्धायुष्कस्तु संयतासंयतत्वं न प्रतिपद्यते । श्रपशमिकसम्यक्त्वयुक्त संयतासंयतानां कुतो लोकसंख्येवभाग इति चेत् मनुजेष्वेव तत्संभ वात् वेदपूर्वकौपशमिकसम्यक्त्वयुक्तो हि घेण्यारोहणं विधाय मारणान्तिकं करोति मिध्यात्वपूर्व कौशमिकयुक्तानां मारणान्तिकासंभवात् ।
1
सर्वार्थसिद्धि
[शंका- क्षायिक सम्यक्त्वसे युक्त संयतासंयतों का अन्य सम्यक्त्वयुक्त संयतासंयतोंकी तरह छह राजु स्पर्शन क्यों नहीं है ?
उत्तर- ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनका क्षेत्र नियत है। कर्मभूमि में जन्मा मनुष्य सात प्रकृतियोंके क्षयका प्रारम्भ करता है। क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति से पहले ही जो तियंचगतिकी आयुका बन्ध कर लेता है वह तो संयतासंयतपने को प्राप्त नहीं कर सकता ।
शंका-औपमिक सम्यक्त्वसे युक्त संयतासंयतों का स्पर्शन कैसे लोकका असंख्यातवां भाग है ?
उत्तर- औपशमिक सम्यक्त्वसे युक्त संयतासंयत मनुष्यों में ही होते हैं, क्योंकि वेदकसम्यवत्वपूर्वक औपशमिक सम्यक्त्वसे युक्त मनुष्य श्रेणिपर आरोहण करके मारणान्तिक समुद्घात करता है । और मिथ्यात्वपूर्वक पशमिक सम्यग्दृष्टि मारणान्तिक समुद्घा नहीं करते।]
31
§. 89
39. 12 सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभागः कुतः । इति चेत्, आहारकावस्थायां समचतुरस्ररज्ज्वादि व्याप्त्यभावात् दण्डद्वयावस्थायां कपाटद्वयावस्थायां च सयोगकेवली औदारिकौदारिक मिश्रशरीरयोग्यपुद् - गलादानेनाहारकः ।
उक्तं च-
दंडगे ओराले कवाटजुगले य पयरसंवरणे । मिस्सोरावं भणिर्य सेस लिए जान कम्मइयं ॥
दण्डकवाटयोश्च पिण्डतोऽल्पक्षेत्रा समचतुरस्ररज्ज्वादिव्यास्यभावात् सिद्धो लोकस्यासंख्येय-भागः । अनाहारकेषु सासावनस्प षष्ठपृथ्वीतो नित्य तिर्यग्लोके प्रादुर्भावात् पञ्च, अच्युतादागत्य तत्रैवोस्पादात्पडित्येकादश । ननु पूर्व द्वादशोक्ता इदानी श्वेकादशेति पूर्वापरविरोधः तदयुक्तम्, मारणान्तिकापेक्षा पूर्व तथाभिधानात् । न च मारणान्तिकावस्थायामनाहारकत्वं किम्भूत्पादावस्थायाम्। सासा दनश्च मारणान्तिकमेर्केन्द्रियेषु करोति नोत्पादं तदा सासादनत्वत्यागात् ।
[ शंका-सयोगकेवलियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग कैसे है ?
उत्तर -- आहारक अवस्थामें समचतुरस्र रज्जु आदिकी व्याप्तिका अभाव होनेसे सयोगकेवलीके आहारक अवस्थामे स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग है तथा विस्तार और संकोचरूप दोनों दण्डसमुद्घातों में तथा दोनों कपाटसमुद्घातोंमें औदारिक और औदारिकमिध शरीरके योग्य पुलोंको ग्रहण करनेसे सयोगकेवली आहारक होते हैं। कहा भी है
'विस्तार और संकोचरूप दोनों दण्डसमुद्घातोंमें औदारिकाययोग होता है। विस्तार और संकोचरूप दोनों कपाट समुद्घातोंमें तथा संकोचरूपे प्रतर समुद्घातमें औदारिकमिश्रकाययोग होता है । शेष तीनमें कार्मणकाययोग होता है।'
1. 'कम्मदओसेस तत्व जणहारी ॥ प्रा० पंसं 1/199
दण्ड और कपाट में पिण्डरूपसे अल्पक्षेत्र होने के कारण समचतुरखरज्जु आदिकी व्याप्तिका अभाव होनेसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन सिद्ध होता है । अनाहारकोंमें सासादन सम्यग्दृष्टि के छठी पृथिवीसे निकलकर तिर्यग्लोक में उत्पन्न होनेसे पाँच राजु होते हैं और अच्युतस्वर्गसे आकर तिर्यग्लोक में उत्पन्न होने से छह राजु होते हैं इस तरह ग्यारह राजु होते हैं ।
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परिशिष्ट 2
[401
शंका-पहले तो आपने बारह राजु कहे थे अब न्नस्सान्तमहर्ताष्टवर्षानन्तरं सम्यक्त्वमादाय तपोविग्यारह कहे हैं इससे तो पूर्वापर विरोध आता है? शेषं विधाय सर्वार्थसिद्धावुत्पद्यन्ते ततश्च्युत्वा पूर्वउत्तर-ऐसा कहना उचित नहीं है, पहले मारणा- कोट्यायुरुत्पन्नोऽष्टवर्षानन्तरं संयममाददातीति । न्तिक समुदघातकी अपेक्षा बारह राजु स्पर्शन कहा जघन्येनकः समयः । तथाहि-सर्वो जीवः परिणामविशेहै। किन्तु मारणान्तिक अवस्थामें जीव अमाहारक षवशात् प्रथमोऽप्रमत्तगुणं प्रतिपद्यते । पश्चात्तत्प्रतिनहीं होता किन्तु उत्पाद अवस्थामें अनाहारक । पक्षभूतं प्रमत्तगुणम् । तत्र गुणस्थानान्तरस्थितो होता है। सासादन सम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियोंमें मारणा- निजायुःसमयशेषेप्रमत्तगुणं प्रतिपद्य म्रियत इत्यप्रमन्तिक करता है उत्पाद नहीं करता; क्योंकि उत्पाद तैकजीवंप्रति जघन्येनकसमयः तथाऽप्रमत्तस्थाने स्थि. अवस्थामें सासादनपना छूट जाता है।]
तो निजायुःकालान्त्यसमये प्रमत्तगुणं प्रतिपद्य म्रियते
इति प्रमत्तैकजीवं प्रत्यपि जधन्येनैकसमयः चतुर्णामु६. 90
पशमकानां चतुःपञ्चाशद्यावद्यथासंभवं भवतां युगप40.1 काल:-जघन्येनान्तमहतः मूहर्तश्च सहस्र- दपि प्रवेशमरण संभवान्नानाजीवापेक्षयकजीवापेक्षया त्रितयसप्तशतत्र्यधिकसप्ततिपरिमाणोच्छ्वासलक्षणः। च जघन्ये नक: समयः । नन्वेवं मिथ्यादृष्टेरप्येकसमयः तस्यान्तरन्तर्मुहर्तः समयाधिकामावलिकामादिं कृत्वा कस्मान्न संभवतीत्यप्यनुपपन्नं, प्रतिपन्नमिथ्यात्वस्यासमयोनमहतं यावत । - चेत्थमसंख्यातभेदो भवति। न्तर्मुहूर्तमध्ये मरणासंभवात् । तदुक्तं, प्रलोकःतदुक्तम्
'मिथ्यादर्शनसंप्राप्तस्त्यिनन्तानुबन्धिनाम् । 'तिणि सहस्सा ससय सदाणि तेहरिं च उस्सासा। यावदावलिकापाकोऽन्तर्महर्ते मतिर्न च ।।' एसो हवदि महत्तो सर्वसिं चेव मणुयाणं ।'
सम्यग्मिथ्यादृष्टेरपि मरणकाले तद्गुणस्थानत्यागान्नउत्कर्षेणार्धपुद्गलपरिवर्तों देशोनः । स च 'संसारिणो कसमय संभवति । प्रतिपन्नासंयतसंयतासंयंतगुणोऽपि मुक्ताश्च' (त. सू. 2,10) इत्यत्र वक्ष्यते । सासा- नान्तर्मुहूर्तमध्ये म्रियते ततो नासंयतसंयतासंयतयोरदनकजीवं प्रत्युत्कर्षेण षडावलिकाः । आवलिका प्येकसमयः संभवति । चतुर्णा क्षपकाणामयोगकेवलीचासंख्यातसमयलक्षणा भवति ।
नां च मुक्तिभाक्त्वेनावान्तरमरणासंभवान्नानकजीवा
पेक्षया जघन्यश्चोत्कृष्टश्चान्तर्मुहर्तः । सयोगकेवल्येक'आवलि' असंखसमया संखेज्जा आवली य उस्सासो।
जीवं प्रति जघन्येनान्तर्महर्तस्तद्गुणस्थानप्राप्त्यनन्तरसत्तुस्सासो थोवो सत्तत्थोवो लवो भणियो।
मन्तमहतमध्येऽयोगगुणस्थानप्राप्तेः । उत्कर्षेण पूर्व"अट्रतीसबलवा णालीबेणालियामहत्तं तु ।
कोटी अष्टवर्षानन्तरं तपो गृहीत्वा केवलमुत्पादयतीति तीसमुहतं दिवसं पणरस दिवसाण हवइ तह पक्वं ॥
कियद्वर्षहीनत्वात् देशोना। इति वचनात् । सम्यग्मिथ्यादृष्ट्येकजीवं प्रति जघन्येन जघन्योऽन्तमुहर्तः, उत्कर्षेण चोत्कृष्टो अन्तर्मुहर्तश्च । [अब कालका कथन करते हैं । जघन्यकाल अन्तमहत पश्चाद् गुणान्तरं यातीत्यग्रे बोद्धव्यम् । असंयतसम्य- है। तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वासोंका एक ग्दृष्ट्यैकजीवं प्रत्युत्कर्षेण प्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि मुहूर्त होता है । उसके अन्तर्गत अन्तर्मुहर्त होता है। सातिरेकाणि । तथाहि कश्चिज्जीवः पूर्वकोट्यायुरुत्प- अर्थात् एक समय अधिक आवलीसे लेकर एक समय
1. गो० जी० 573। 2. गो० जी० 574 । 'एगसमएण हीणं भिण्णमुहत्तं तदो सेस' इति उत्तरार्धपाठः जम्बू०प० 13/5-6 | 3. अपूर्वकरणस्य अवरोहणकाले मरणमवबोद्धव्यम् । आरोहकापूर्वकरणस्य प्रथमभागे-'मिस्साहारस्स य खवगा चढमाणपढमपुव्वा य । पढमुवसम्मा तमतमगुणपडिवण्णा य ण मरंति ॥' इत्यागमोक्तप्रकारेण मरणाभावात् । ननु अधस्तनगुणस्थानेभ्य: स्वस्वगुणस्थानानि प्राप्य तत्रैकैकसमयान स्थित्वा निवृत्तानां चतुर्णामुपशमकानामप्येकैकसमयाः संभवन्तीति न शङ्कनीयम्, तदसंभवात्, तत्संभवे च जघन्यतोऽन्तमहर्तान्तरवचनानुपपत्तेः । वक्ष्यते च तत् चतुर्णामुपशमकानामेकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्त इति ।
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402]
सर्वार्थसिद्धि
कम मुहर्त पर्यन्त अन्तर्मुहूर्त होता है। इस प्रकार इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा प्रमत्त गुणस्थानका अन्तर्मुहर्त के असंख्यात भेद होते हैं। कहा भी है- काल भी एक समय है। चारों उपशमकोंका यथा 'सभी मनुष्योंके तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्- सम्भव चौवन संख्यापर्यन्त एक साथ भी प्रवेश और वासोंका एक मुहूर्त होता है।'
मरण सम्भव होनेसे नाना जीव और एक जीवकी
अपेक्षा जघन्य काल एक समय है। उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्त है।
शंका-इस तरह मिथ्यादृष्टिका भी काल एक समय । उसका कथन आगे 'संसारिणो मुक्ताश्च' इस सूत्रके
क्यों नहीं होता? 'अन्तर्गत करेंगे । सासादन गुणस्थानका काल एक (जीवकी अपेक्षा उत्कर्षसे छह आवली है । असंख्यात उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है। मिथ्यात्व गुणसमयोंकी एक आवली होती है। कहा है-असंख्यात स्थानको प्राप्त होनेवाले जीवका मरण अन्तर्मुहर्तके समयकी एक आवली होती है। संख्यात आवलीका मध्य असम्भव है । कहा है-'अनन्तानुबन्धीका एक उच्छ्वास होता है । सात उच्छ्वास का एक विसंयोजन करनेवाले वेदक सम्यग्दष्टिके मिथ्यात्व स्तोक होता है । सात स्तोकका एक लव होता है। गुणस्थानको प्राप्त होनेपर एक आवलीकाल तक साढ़ अडतीस लवकी एक नाली होती है। दो नाली अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता तथा एक अन्तका एक मुहूर्त होता है। तीस मुहर्तका एक दिन मुहूर्त काल तक मरण नहीं होता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है और पन्द्रह दिनका एक पक्ष होता है।' का भी काल एक समय नहीं है क्योंकि मरणकाल
आनेपर वह गुणस्थान छूट जाता है। असंयत और सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानका काल एक जीवकी संयतासंयत गुणस्थानको प्राप्त होनेवाला भी अन्तअपेक्षा जघन्यसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टसे मुहूर्त तक नहीं मरता अत: असंयत और संयतासंयत उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । अन्तर्मुहर्त आगे गुणित होता का भी काल एक समय नहीं होता। जाता है ऐसा आगे जानना चाहिए । असंयतसम्यग्
चारों क्षपकों और अयोगकेवलियोंके. मक्तिगामी होनेदृष्टि गुणस्थानका काल एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्ष
के कारण अवान्तर में मरण सम्भव न होनेसे नाना से कुछ अधिक तेतीस सागर है। उसका खुलासा इस प्रकार है-कोई जीव एक पूर्वकोटिकी आयु
जीवों और एक जीवको अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट लेकर उत्पन्न हुआ। एक अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष
काल अन्तर्मुहूर्त है। सयोगकेवली का काल एक जीवके पश्चात् सम्यक्त्वको ग्रहण करके तथा तपस्या
की अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है क्योंकि उस गुणकरके सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न हुआ। वहाँसे च्युत होकर
स्थानको प्राप्त होनेके अनन्तर अन्तर्मुहुर्तमें अयोग: पुनः एकपूर्वकोटिकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ । आठ
केवली गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है। उत्कृष्टकाल वर्षके पश्चात् संयम को स्वीकार किया। इस तरह
कुछ कम पूर्वकोटि है क्योंकि जन्मसे आठ वर्षके सातिरेक तेतीस सागर काल होता है। प्रमत्त और
पश्चात् तप स्वीकार करके केवलज्ञानको उत्पन्न अप्रमत्त गुणस्थानका काल एक जीवकी अपेक्षा
करता है इसलिए पूर्वकोटिमें कुछ वर्ष कम हो जाते जघन्यसे एक समय है, वह इस प्रकार है--सभी जीव विशेष परिणामों के वश सर्वप्रथम अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त करते हैं । उसके पश्चात् उसके प्रतिपक्षी
६. 92 प्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त करते हैं। अत: अन्य गण- 41.8 तिर्यगसंयतसम्यग्दृष्ट्येकजीवं प्रत्युत्कर्षण स्थानमें स्थित जीव अपनी आयुमें एक समय शेष दर्शनमोहक्षपकवेदकापेक्षया त्रीणि पल्योपमानि। रहनेपर अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त करके मर जाता पश्चाद् गत्यतिक्रमः । है। इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अप्रमत्तका काल तिर्यंचगतिमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका काल जघन्यसे एक समय होता है । तथा अप्रमत्त गुणस्थान एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्ष से दर्शनमोहका क्षय में स्थित जीव अपनी आयुके काल में एक समय शेष करनेवाले वेदक सम्यकदृष्टि की अपेक्षा तीन पल्योपम रहनेपर प्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त करके मरता है। है। उसके पश्चात् गति बदल जाती है]
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परिशिष्ट 2
§. 93
तावदेकेन्द्रियो भूत्वा कश्चिज्जीवः षट्षष्टिसहस्रद्वा41.10 मिध्यादृष्टिमनुष्यैकजीवं प्रत्युत्कर्षेण त्रीणि त्रिंशदधिकशतपरिमाणानि जन्ममरणान्यनुभवति एन्योपमानि पूर्व कोटिपृथक्त्वैः सप्तचत्वारिंशत् पूर्व- 66132 । तथा स एव जीवस्तस्यैव मुहूर्तस्य मध्ये कोटिभिरभ्यधिकानि । तथाहि — नपुंसक - स्त्री-पुंवेदे - द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियो भूत्वा यथासंख्यमशीतिषष्ठिनाष्टावष्टौ वारान् पूर्वंकोट्यायुषोत्पद्यावान्तरेऽन्त- चत्वारिंशच्चतुर्विंशतिजन्ममरणानि स्वकृतकर्मवैचियादनुभवति ||8016014012411 सर्वेऽप्येते समु. दिताः क्षुद्रभवा एतावन्तो भवन्ति 1166336।। उक्तं
च-
मुहूर्त मध्ये पर्याप्तक मनुष्यक्षुद्रभवेनाष्टौ वारानुत्पद्यते । पुनरपि नपुंसकस्त्री वेदेनाष्टावष्टौ पुंवेदेन तु सप्तति । ततो भोगभूमी त्रिपल्योपमायुष्कः, भोगभूमिजानां नियमेन देवेषूत्पादात् । पश्चाद् गत्यतिक्रमः । असंयतसम्यग्दृष्टिमनुष्यैकजीवं प्रत्युत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि । कर्मभूमिजो हि मनुष्यः क्षायिक सम्यक्त्वयुक्तो | दर्शनमोहक्षपवेदकयुक्तो वा भोगभूमिजमनुष्येषूत्पद्यते । इति मनुष्यगत्यपरित्यागात् सातिरेकाणि पश्चाद्गत्यतिक्रमः ।
[ मनुष्य गतिमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका काल एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्षसे पूर्वकोटि पृथक्त्व अर्थात् संतालीस पूर्वकोटिसे अधिक तीन पल्य है । उसका खुलासा इस प्रकार है-नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके साथ आठ-आठ बार पूर्वकोटिकी आयुसे उत्पन्न होकर अवान्तर में अन्तर्मुहूर्तके अन्दर लकयपर्याप्तक मनुष्यके क्षुद्रभवके साथ आठ बार उत्पन्न होता है । उसके पश्चात् पुनः नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके साथ आठ-आठ बार उत्पन्न होता है किन्तु पुरुषवेदके साथ सात-सात बार उत्पन्न होता है । उसके बाद भोगभूमिमें तीन पल्यकी आयुसे उत्पन्न होता है । भोगभूमिके जीव मरकर देवोंमें ही उत्पन्न होते हैं । अतः उसके बाद गति बदल जाती है। असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानका उत्कृष्ट काल एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्षसे तीन पल्य है । क्योंकि कर्मभूमिका जन्मा ( बद्धमनुष्यायु) मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्वसे युक्त हो या दर्शनमोहके क्षपक वेदकसम्यक्त्वसे युक्त हो, मरकर भोगभूमिज मनुष्योंमें उत्पन्न होता है। अतः मनुष्यगतिके न छूटनेसे साधिक तीन पल्य काल होता है । उसके बाद गति बदल जाती है ]
[403
"" तिणिसया छत्तीसा छावट्टीसहस्सजम्ममरणाणि । एवदिया खुद्दभवा हवंति अंतोमुहस्स ॥ विगलिदिए असीबि सट्ठी चालीसमेव जाणाहि । पंचेंदिचवीसं खुद्दभवतोमुहुस्स ॥"
यदा चैवं मुहूर्तस्य मध्ये एतावन्ति जन्ममरणानि भवन्ति तदैकस्मिन्नुच्छ्वासेऽष्टादश जन्ममरणानि लभ्यन्ते । तत्रैकस्य क्षुद्रभवसंज्ञा । उत्कर्षेणानन्तकालोऽसंख्यातपुद्गलपरिवर्तनलक्षणो निरन्तरमेकेन्द्रियत्वेन मृत्वा मृत्वा पुनर्भवनात् । ततो विकलेन्द्रियः पञ्चेन्द्रियो वा भवति ।
[ एकेन्द्रिय एक जीवके प्रति जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहण है । वह क्षुद्रभव किस प्रकार है यह कहते हैंउक्त लक्षणवाले मुहूर्त में एकेन्द्रिय होकर कोई जीव छियासठ हजार एक सौ बत्तीस जन्म मरणका अनुभव करता है। तथा वही जीव उसी मुहूर्तके भीतर दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय होकर यथाक्रमसे अस्सी, साठ, चालीस और चौबीस जन्म मरणोंको अपने द्वारा किये गये कर्मबन्धकी विचित्रता से अनुभव करता है । ये सभी क्षुद्रभव मिलकर छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस होते हैं । कहा है – 'छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस जन्ममरण होते हैं । एक अन्तर्मुहूर्त में उतने ही क्षुद्रभव होते हैं। इसी अन्तर्मुहूर्तमें विकलेन्द्रियके अस्सी, साठ और चालीस तथा पञ्चेन्द्रियके चौबीस क्षुद्रभव जानना चाहिए ।'
§. 95
जब एक मुहूर्त के भीतर ( अन्तर्मुहूर्त में ) इतने जन्ममरण होते हैं तब एक उच्छ्वास में 18 जन्ममरण प्राप्त होते हैं । उनमेंसे एककी संज्ञा क्षुद्रभव है । णम् । तत्कीदृशमिति चेदुच्यते । उक्तलक्षणमुहूर्तमध्ये उत्कर्षसे अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परावर्त
42.7
एकेन्द्रियैकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रह
1. गो० जी० मा० 122,123 2. कल्लाणा- लोयणा 6 ।
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404]
सर्वार्थसिद्धि
रूप है। इस कालमें निरन्तर एकेन्द्रिय रूपसे मर- समयः । तथाहि-केषांचिद् गुणान्तरयुक्तवाड्.मनमरकर पुनः जन्म लेते रहते हैं। उसके बाद विकले- सान्यतरयोगकालान्त्यसमये यदा (यथा) सम्यन्द्रिय या पंचेन्द्रिय होते हैं।
ग्मिथ्यात्वसंक्रमणं तथैवान्येषां योगान्तरानुभूत
सम्यग्मिथ्यात्वकालान्त्यसमये वाड्.मनसान्यतरयोग8.95
संक्रम इति क्षपकोपशमकानामप्येवमेकः समयो 42.11 पञ्चेन्द्रियमिध्यादृष्ट्येकजीवं प्रति उत्कर्षण द्रष्टव्यः, शेषाणां सासादनादीनां मनोयोगिवत् । यथा सागरोपमसहस्र (-स्र) पूर्वकोटीपृथक्त्वैः षण्णवति मनोयोगिनो योगगणपरावर्तापेक्षेतराभ्यां जघन्योपूर्वकोटिभिरभ्यधिकम् । तथाहि-नपुंसकस्त्रीपुंवेदे त्कृष्टः कालस्तद्वत्तेषामपि । संज्ञित्वेनाष्टावष्टौ वारान् पूर्वकोट्यायुषोत्पद्यते । तथासंज्ञित्वेन चावान्तरेऽन्तर्मुहूर्तमध्ये पञ्चेन्द्रियक्षुद्र- [वचनयोगी और मनोयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि आदिभवेनाष्टौ । पुनरपि नपुंसकस्त्रीपुंवेदे संज्ञित्वासंज्ञि
का कालयोगपरिवर्तन और गुणस्थानपरिवर्तनको त्वाभ्यामष्टचत्वारिंशत्पूर्वकोट्यो योजनीयाः। एवं
अपेक्षा जघन्यसे एक समय है जो इस प्रकार हैवसकायेऽपि पूर्वकोटिपृथक्त्वैः षण्णवतिपूर्वकोटिभि
विवक्षित योगसे युक्त मिथ्यात्व आदि गुणस्थानके रभ्यधिकत्वं द्रष्टव्यम् ।
कालके अन्तिम समय में वचनयोग और मनोयोग में [पंचेन्द्रियमें मिथ्यादृष्टि एक जीवकी अपेक्षा से किसी एक योगका बदलना योगपरिवर्तन है उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्व अर्थात् छियानवे पूर्व- उसकी अपेक्षासे एक समय काल होता है । तथा कोटियोंसे अधिक एक हजार सागर काल होता है। गुणस्थानान्तरसे युक्त वचनयोग और मनोयोगमेंसे उसका खुलासा इस प्रकार है-नपुंसकवेद, स्त्रीवेद किसी एक योगके कालके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व और पुरुषवेदमें संज्ञीरूपसे आठ-आठ बार एक पूर्व- आदि गुणस्थानका बदलना गुणस्थान परिवर्तन है कोटिकी आयु लेकर उत्पन्न होता है। इसी तरह उसकी अपेक्षासे एक समय होता है । उत्कर्षसे अन्तअसंज्ञी रूपसे उत्पन्न होता है। बीचमें अन्तर्मुहूर्तमें मुहूर्तकाल है अर्थात् योगकाल पर्यन्त; क्योंकि वचनआठ बार क्षुद्रभवधारी पंचेन्द्रिय होता है। पुनः योग और मनोयोगका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। दूसरी बार नपुंसकवेद स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें संज्ञी उसके बाद योग बदल जाता है। सम्यग्मिध्यादृष्टिऔर असंजीके रूपमें अड़तालीस पूर्वकोटि लगा लेना का नानाजीवोंकी अपेक्षा योगपरिवर्तन और गुणचाहिए। इसी तरह त्रसकायमें भी पूर्वकोटिपृथक्त्व स्थान परिवर्तनकी अपेक्षासे जघन्यसे एक समय है के साथ छियानबे पूर्वकोटि अधिक जानना चाहिए। जो इस प्रकार है-'किन्हीके अन्यगुणस्थानसे युक्त
वचनयोग और मनोयोगमेंसे किसी एक योगके काल8. 97
के अन्त समयमें जैसे सम्यक् मिथ्यात्व गुणस्थानमें 42.16 वाड्.मनसयोगिषु मिश्यादपट्यादीनां योग- संक्रमण हो जाता है वैसे ही दूसरोंके योगान्तरसे परावर्तगुणपरावर्तापेक्षया जघन्येनैकः समयः। अनुभूत सम्यक् मिथ्यात्व गुणस्थानके कालके अन्त तथाहि-विवक्षितयोगयुक्तमिथ्यात्वादिगणस्थानकाला- समयमें वचनयोग और मनोयोगमें से कोई एक योग न्स्यसमये वाड्.मनसान्यतरयोगसंक्रमणं योगपरावर्त- बदल जाता है। क्षपक और उपशमकोंके भी इसी स्तदपेक्षया गुणान्तरयुक्वाड्.मनसान्यतरयोगकाला- प्रकार एक समय जानना चाहिए। शेष सासादन न्त्यसमये मिथ्यात्वादिगुणसंक्रमो गुणपरावर्तस्तद- आदिका काल मनोयोगीकी तरह जानना। अर्थात् पेक्षया वा। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तो योगकालं यावदित्यर्थः। जैसे मनोयोगियों के योगपरिवर्तन और गुणस्थान पश्चात्तेषां योगान्तरसंक्रमः । सम्यरमिथ्यादष्टेन ना- परिवर्तनकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल होता जीवापेक्षया योगगुणपरावर्तमपेक्ष्य जघन्येनक: है उसी प्रकार उनका भी जानना।]
1. उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । 136। षट्ख० पु० ४ । 'उत्कर्षेण साग
रोपमसहस्र पूर्वकोटिपृथक्त्वैरभ्यधिकम् ।'-सर्वार्थ० 118 ।
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[405
६. 98
स्थान पर्यन्त कषाय और गुणस्थान के बदल जानेकी 43.8 एकजीवस्य मिथ्यात्वयुक्तस्त्रीवेदकालो जघन्ये
अपेक्षासे एक जीव के मनोयोगी की तरह जघन्यसे नान्तर्मुहूर्तः । ततो गुणान्तरसंक्रमः । उत्कर्षण- एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्महत काल है। पल्योपमशतपृथक्त्वम् । तथाहि-स्त्रीवेदयुक्तो 8. 100 मिथ्यादष्टिदेवेष आयर्बध्नाति । ततस्तिर्पग्मनुष्येषु 44.8 विभङ्गज्ञानिमिथ्यादष्ट्येकजीवं प्रत्युत्कर्षण नारकसम्मळुनवर्ज तावद्यावत्पल्योपमशतपथक्त्वं
नारकापेक्षया त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि । पर्याप्तश्च ततो वेदपरित्यागः । स्त्रीवेदासंयतसम्यग्दष्ट्येकजीवं
विभङ्गज्ञानं प्रतिपद्यत इति पर्याप्तिसमापकान्तर्म हर्तप्रति उत्कर्षेण पञ्चपञ्चाशतपल्योपमानि, गहीत
हीनत्वाद्देशोनानि । सम्यक्त्वस्य स्त्रीवेदेनोत्पादाभावात् पर्याप्तः सम्यक्त्वं ग्रहीष्यतीति पर्याप्तिसमापकान्तर्मुहूर्तहीनत्वाद्दे- [विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि एक जीवके उत्कर्षसे शोनानि । नपुंसकवेदासंयतसम्यग्दष्ट्यकजीवं नारकों की अपेक्षासे तेतीस सागर काल है। पर्याप्त प्रत्युत्कर्षेण सप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिशसागरोपमाणि । जीव ही विभंगज्ञान को प्राप्त होता है इसलिए तत्र च पर्याप्तः कियत्कालं विश्रम्य विशुद्धो भूत्वा पर्याप्तिके समापक अन्तर्महतके कम कर देनेसे देशोन सम्यक्त्वं गृह णात्यन्ते त्यजति चेति देशोनानि । लेना चाहिए।
[एक जीवके मिथ्यात्वयुक्त स्त्रीवेदका काल जघन्य- . 103 से अन्तर्महर्त है । उसके बाद गुणस्थान बदल जाता 45.3 कृष्णनीलकापोतलेश्यमिथ्यादष्टयकजीवं प्रति है। उत्कर्ष से सौ पल्योपमपृथक्त्व है जो इस प्रकार जधन्येनान्तर्महर्तः, तिर्यग्मनष्यापेक्षया तेषामेव लेश्याहै-स्त्रीवेदसे युक्त मिथ्यादृष्टि देवगतिकी आयु का परावर्तसंभवात । सर्वत्र च लेश्यायक्तस्यान्तर्महर्तः बन्ध करता है। वहाँसे तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न तिर्यग्मनुष्यापेक्षया द्रष्टव्यः । उत्कर्षेण नारकापेक्ष या होता है। इस तरह नारक और सम्मूर्च्छनको छोड़कर यथासंख्यं सप्तमपञ्चम-तृतीयपृथिव्यां त्रयस्त्रिशत् सौ पल्योपमपृथक्त्व तक स्त्रीवेद सहित रहता है सप्तदशसप्तसारोपमाणि देवनारकाणामवस्थितफिर वेद बदल जाता है । स्त्रीवेद सहित असंयत लेण्यत्वात् । व्रजन्नियमेन तल्लेश्यायुक्तो व्रजति आगसम्यग्दृष्टि एक जीवका उत्कर्षसे पचपन पल्य काल च्छतो नियमो नास्तीति सातिरेकाणि । उक्तलेश्याहै.। सम्यग्दृष्टि तो स्त्रीवेदके साथ उत्पन्न नहीं होता युक्तासंयतसम्यग्दागकजीवं प्रत्युत्कर्षण नारकाअतः स्त्रीवेदी जीव पर्याप्त अवस्थामें सम्यक्त्वको पेक्षया उक्तान्येव सागरोपमाणि। पर्याप्तिसमापग्रहण करता है इसलिए पर्याप्तिकी पूर्ति में लगने- कान्तर्महूर्ते सप्तम्यां मारणान्तिके च सम्यक्त्वाभावावाला अन्तर्मुहूर्त कम कर देनेसे देशोन (कुछ कम देशोनानि । तेजः पद्यलेश्यामिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यपचपन पल्य) होता है । नपुंसकवेदी असंयत सम्यग्- 'दृष्ट्य कजीवं प्रत्युत्कर्षेण यथासंख्यं प्रथमद्वादशदष्टि एक जीव का उत्कर्षसे सातवें नरकमें तेतीस स्वर्गापेक्षया द्वे सागरोपमे अष्टादश च । तद्य क्तानां सागर काल है। क्योंकि वहाँ पर्याप्त होकर कुछ मारणान्तिकोत्पादः संभवतीति सातिरेकाणि । शुक्लकाल विश्राम करके विशुद्ध होकर सम्यक्त्वको ग्रहण लेश्यमिथ्यादष्ट्यैकजीवं प्रत्युत्कर्षेण एककरता है और अन्तमें छोड़ देता है इसलिए देशोन त्रिंशत्सारोपमाणि अग्रग्रेवेयकदेवापेक्षया तेषां (कुछ कम) तेतीससागर होता है।]
मारणान्तिकोत्पादावस्थायामपि शुक्ललेश्यासंभवात्
सातिरेकाणि । संयतासंयतशुक्ललेश्यकजीवं प्रति 8..99
गणलेश्यापरावर्तापेक्षेतराभ्यां जघन्ये नकः समयः 44.5 चतुःकषायाणां मिथ्यादृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां उत्कर्षेणान्तर्मुहर्तः । कषायगुणपरावर्तापेक्षया एकजीवं प्रति मनोयोगि
[कृष्ण, नील या कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि एक वज्जघन्येनैक: समयः, उत्कर्षेणान्तर्मुहुर्तः ।
जीवके प्रति जघन्यसे अन्तर्महर्तकाल है क्योंकि तियंच [चारों कषायों का मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तगुण- और मनुष्यकी अपेक्षासे उनकी लेश्यामें परिवर्तन
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सम्भव है। सर्वत्र लेश्यायुक्त जीवका अन्तर्मुहूर्तकाल स्यात् । तदयुक्तं, बृहदसंख्यातसमयमानलक्षणत्वात । तिर्यच और मनष्यकी अपेक्षासे देखना चाहिए। आवलिकासंख्येयभागस्य चाल्पासंख्यातसमयमानउत्कर्षसे नारकोंकी अपेक्षा सातवीं, पाँचवीं और लक्षणत्वादिति । सयोगकेवलिनां नानाजीवापेक्षया तीसरी पथिवीमें क्रमसे तेतीस सागर, सतरह सागर जघन्येन त्रयः समया: समसमये दण्डादिप्रारम्भऔर सात सागर काल होता है क्योंकि देवों और करवा
कत्वात् । उत्कर्षेण संख्येयाः समया: अजघन्योत्कृष्टनारकोंकी लेण्या अवस्थित होती है। जब वे अपनी संख्यातमानावमिना
संख्यातमानावच्छिन्नाः निरन्तरं विषमसमये दण्डादिगतिमें जाते हैं तो नियमसे उसी लेश्याके साथ जात प्रारम्भकत्वात् । एकजीवं प्रति जघन्य उत्कृष्टश्च हैं किन्तु वहाँसे आते हुए नियम नहीं हैं इसलिए कुछ त्रयः समयाः प्रतरद्वयलोकपूरणलक्षणाः । अधिक उक्त काल होता है। उक्त लेश्याओंसे युक्त असंयत सम्यग्दृष्टि एक जीवके प्रति उत्कर्षसे नारकों [आहारकाम मिथ्यादृष्टि एक जीवके प्रति जघन्यसे की अपेक्षासे उक्त तेतीस आदि सागर ही काल है। "
अन्तर्मुहूर्त काल है, वक्रगतिसे जाकर क्षुद्रभवसे किन्तु पर्याप्ति समापक अन्तम हर्त में और सातवीं
उत्पन्न हुआ और पुनः मरकर वक्रगतिसे गया पृथिवी में मारणान्तिक समुद्घातमें सम्यक्त्व नहीं विक्रमातम अनाहारक रहा और मध्यमें आहारक)। होता इसलिए कुछ कम उक्त काल होता है। तेजो- उत्कषस अगुलके असंख्यातवें भाग है जो असंरू लेण्या और पदालेश्यावाले मिथ्यादष्टि और असंयत
संख्यात उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालप्रमाण है। सम्यग्दरि- एक जीवके प्रति उत्कर्ष से क्रमानुसार शंका-आवलीका प्रमाण असंख्यात समय है अतः प्रथम और बारहवें स्वर्गकी अपेक्षा दो सागरोपम .
उसका असंख्यातवां भाग एक समय ही होगा? और अठारह सागरोपमकाल है। उक्त अवस्थाविशिष्ट उन जीवों के मारणान्तिक और उत्पाद उत्तर-ऐसा कहना युक्त नहीं है क्योंकि आवलीके सम्भव है इसलिए कुछ अधिक उक्त काल लेना समयों का प्रमाण बृहत् असंख्यात है और आवलीके चाहिए । शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि एक जीवके असंख्यातवें भागके समयोंका प्रमाण अल्प असंख्यात प्रति उत्कर्षसे सबसे ऊपरवाले ग्रैवेयकके देवोंकी है। अपेक्षा इकतीस सागर काल है । उनके मारणान्तिक और उत्पाद अवस्था में भी शुक्ललेश्या होती है अतः सयोगकेवलियोंका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा कुछ अधिक इकतीस सागर लेना चाहिए। शक्ल- जघन्यसे तीन समय है, क्योंकि समान समयमें दण्डालेश्यावाले संयतासंयत-गुणस्थानवर्ती एक जीवके प्रति दि समुद्घात का प्रारम्भ करते हैं। उत्कर्ष से संख्यात गुणस्थान और लेश्यापरिवर्तन को अपेक्षा जघन्यसे
समय है जो मध्यमसंख्यात प्रमाण है, क्योंकि लगाएक समय और उत्कर्षसे अन्तर्महर्त काल है।।
तार विभिन्न समयोंमें दण्डादिसमुद्घातका प्रारम्भ
करते हैं। एक जीवकी अपेक्षा अनाहारकका जघन्य 8. 107
और उत्कृष्ट काल तीन समय है, विस्तार और
संकोचरूप दो प्रतर और एक लोकपूरणसमुद्घात 47.1 आहारकेषु मिथ्यादृष्ट्यकजीवं प्रति के समय ।। जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । वक्रण गतः क्षुद्रभवेनोत्पन्नः । पुनरपि वक्रेण गतः । उत्कर्षणासंख्यातासंख्यातमाना- ६. 108 वच्छिन्नोत्सपिण्यवसर्पिणीलक्षणोंऽगुल्यसंख्येयभागः शश्वद्ऋजुगतिमत्त्वात्। अनाहारकसासादनसम्यग्- १
47.9 अन्तरम् । मिथ्यादृष्ट्यैकजीवं प्रत्यन्तरमदष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्ट्यो नाजीवापेक्षयोत्कर्षेणावलि- त्कर्षेण द्वे षट्पष्टी सागरोपमाणाम् । तथाहिकाया असंख्येयभागः । नन्वावलिकाया असंख्यात- वेदकसम्यक्त्वेन युक्त एका षषष्टी तिष्ठति तत्सम्यसमयमानलक्षणत्वात्तदसंख्ययभाग एकसमय एव क्त्वस्योत्कर्षेणैतावन्मात्रस्थितिकत्वात् । पुनरवान्तरे
1. आदावन्ते च वक्रगतिकालयोरनाहारकः । मध्येऽन्तर्मुहूतं यावदाहारक इत्यर्थः ।
.
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अन्तर्महतं यावत् सम्यग्मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते। पुनर- . 110 परां षट्पष्टों वेदकसम्यक्त्वेन तिष्ठति । अन्त्यसागरोपमावसानशेषे मिथ्यात्वं प्रतिपद्यत इति देशोने ।
48.4 तिर्यगमिथ्यादृष्ट्येकजीवं प्रत्युत्कर्षेण त्रीणि सासादनकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागः।
पल्योपमान्यन्तरम् । अधिकमपि कस्मान्नेति चेत्, अन्तर्महतः कस्मान्नेति च न चोद्यम, अन्तर्महर्तमध्ये
वेदकयुक्तस्य तिर्यक्षुत्पादाभावात् तद्य क्तो हि पुनः सासादनगुणग्रहणे योग्यतासंभवात् । परित्यक्तौ
देवेष्वेवोत्पद्यते । अतो मिथ्यात्वयुवतस्त्रिपल्योपमापशमिकसम्यक्त्वो हि मिथ्यात्वप्राप्त्यन्तराले वर्तमानः
युष्को भोगभूमिपूत्पद्यते । तत्र चोत्पन्नानां तिर्यग्मसासादनोऽभिधीयते। तस्य च मिथ्यात्वं गतस्य
नुष्याणां किंचिदधिकाष्टचत्वारिंशदिनेषु सम्यक्त्वपुनरौपशमिकसम्यक्त्वग्रहणे योग्यता पल्योपमासंख्येय- ग्रहणयोग्यता भवतीति नियमादेतावद्दिनेषु गतेषु भागे सत्येव नावान्तरे तत्र वेदकग्रहणयोग्यताया एव
मिथ्यात्वपरित्यागेन सम्यक्त्वं गह्णातीति त्रिपल्योपसंभवात् ।
मायुशेषे पुनर्मिथ्यात्वं प्रतिपद्यत इति गर्भकालेन किंचिदधिकाष्टचत्वारिंशद्दिनरचसानकालशेषेण च
हीनत्वाद्देशोनानि । . [आगे अन्तरका कथन करते हैं। मिथ्यादष्टि एक जीवके प्रति अन्तरकाल उत्कर्षसे दो छियासठ सागर [तिर्यचमिथ्यादृष्टि एक जीवके प्रति उत्कर्षसे तीन है जो इस प्रकार है-वेदकसम्यक्त्वसे युक्त जीव । पल्योपम अन्तरकाल है। एक छियासठसागर तक रहता हैं क्योंकि वेदक
शंका-अधिक क्यों नहीं है ? सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति इतनी ही है। उसके
उत्तर--क्योंकि वेदक सम्यक्त्वसे युक्त जीव तिर्यंचोंमें 'पश्चात् एक अन्तर्मुहुर्तके लिए सम्यमिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त करता है । पुनः दूसरे छियासठ
उत्पन्न नहीं होता, देवोंमें ही उत्पन्न होता है । अत: सागर तक वेदकसम्यक्त्वके साथ रहता है । अन्तिम
तीन पल्यकी आयका बन्ध करनेवाला मिथ्यादृष्टि सागरके अन्त में कुछ काल शेष रहनेपर मिथ्यात्वमें
भोगभूमि में उत्पन्न होता है। भोगभूमिमें उत्पन्न चला जाता है । इस प्रकार देशोन दो छियासठ सागर हुए तियच आर मनुष्याम कुछ अधिक अड़त अन्तरकाल होता है। सासादन एक जीवके प्रति दिन बीतने पर सम्यक्त्वग्रहणकी योग्यता आती है अन्तरकाल जघन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग है।
ऐसा नियम है । अतः इतने दिन बीतने पर वह
मिथ्यात्वको त्याग कर सम्यक्त्वको ग्रहण करता है शंका-अन्तर्मुहूर्त अन्तरकाल क्यों नहीं है ?
और तीन पल्य की आयु में कुछ शेष रहने पर पुनः उत्तर-ऐसा तर्क नहीं करना चाहिए, क्योंकि अन्त- मिथ्यात्वको ग्रहण कर लेता है। इस तरह गर्भकाल मुहर्तकालके अन्दर पुनः सासादनगुणस्थान को ग्रहण से किचित् अधिक अड़तालीस दिनों और अन्तिमकरने की योग्यता सम्भव नहीं है। इसका कारण कालसे हीन होनेसे देशोन तीन पल्य अन्तरकाल यह है कि जो जीव औपशमिक सम्यक्त्वको छोड़कर होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्तिके बीचके समयमें रहता
६. 111 है उसे सासादन कहते हैं। उसके मिथ्यात्वमें चले। जानेपर पूनः औपशमिक सम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी 49.6 मनुष्यगतौ सासादनसम्यग्दृष्टि-सम्यग्मिथ्यायोग्यता पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल बीतनेपर दृष्टि-असंयतसम्यग्दृष्टयः पूर्वकोटिपृथक्त्वकाले सति ही मानी है उससे पहले नहीं। उससे पहले वेदक स्वस्वगुणं परित्यज्य भोगभूमावुत्पद्यन्ते । पश्चात् सम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी योग्यता ही सम्भव स्वगुणं गृहन्ति । एकमेव जीवं प्रति उत्कर्षेण त्रीणि
पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाधिकानि भवन्ति ।
1. धवला पु. 5, पृ०.७ में प्रथम छियासठ सागरमें अन्तर्महत काल शेष रहने पर ही सम्यक् मिथ्यात्वको प्राप्त कराया है ।---सं० । 2. धवला पु.5, पृ० 32 में आदिके महर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मास और आय के अवसानमें उपलब्ध दो अन्तर्मुहौसे हीन तीन पल्योपम अन्तरकाल कहा है ।-सं० ।
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[मनुष्यगतिमें सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, और एकेन्द्रियजीव विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पुन: असंयतसम्यग्दष्टि जीव अपने-अपने गुणस्थानको छोड़- एकेन्द्रियमें उत्पन्न हो तो अन्तराल आता है। किन्तु कर पूर्वकोटिपृथक्त्वकाल होनेपर भोगभूमिमें उत्पन्न पंचेन्द्रियोंमें तो गुणस्थान बदलना सम्भव है अतः होते हैं । पीछे अपने गुणस्थान को ग्रहण करते हैं । इस । मिथ्यात्व आदिका अन्तर सम्यक्त्व आदिके द्वारा तरह एक जीवके प्रति उत्कर्ष से पूर्वकोटि पृथक्त्व लगा लेना चाहिए। अधिक तीन पल्योपम अन्तरकाल होता है।
8. 114 $. 112
51.5 पृथिव्यादिकायिकानां वनस्पतिकायिकैरन्तर50.5 देवगतौ मिथ्यादष्टेरेकजीवं प्रत्युत्कर्षेणैक- मुत्कर्षेणासंख्येयाः पुद्गलपरावर्ताः । तेषां त नरन्तरनिशत्सागरोपमाणि । तथाहि---मिथ्यात्वयुक्तोऽग्र- मुत्कर्षणासंख्येया लोका: वनस्पतिकायिकेभ्योऽन्येषाअवेयकेषुत्पद्यते पश्चात् सम्यक्त्वमादायकत्रिंशत्साग- मल्पकालत्वात् । रोपमाणि तिष्ठति। अवसानकालशेषे पुनमिथ्यात्वं
[पृथिवीकायिकोंका वनस्पतिकायिक जीवोंके द्वारा प्रतिपद्यतेऽन्यथा गत्यतिक्रमः स्यादिति देशोनानि ।
अन्तर उत्कर्षसे असंख्यात पुनलपरावर्त है और एवमसंयतसम्यग्दृष्टेरपि योजनीयम् ।
वनस्पतिकायिकोंका पृथिवीकायिक आदि के द्वारा [देवगतिमें मिथ्यादष्टि एक जीवके प्रति उत्कर्षसे
अन्तर उत्कर्षसे असंख्यातलोक है क्योंकि वनस्पतिइकतीस सागर अन्तरकाल है जो इस प्रकार है
कायिकोंसे पृथिवीकायिक आदिका काल थोड़ा है।। एक द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि उपरिमवेयकमें उत्पन्न
8. 115 हुआ। पीछे सम्यक्त्वको ग्रहण करके इकतीस सागर तक रहा । अन्त समय में पुनः मिथ्यादृष्टि हो गया।
52.3 कायवाड्.मनसयोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादिषड्यदि ऐसा न हो तो गति बदल जायेगी। अत: देशोन
गुणस्थानानां नानकजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक
जीवापेक्षया कथं नास्तीति चेत् कायादियोगाइकतीस सागर होता है। इसी तरह असंयत सम्यग्दृष्टिका भी अन्तरकाल लगा लेना चाहिए ।
नामन्तर्मुहूर्तकालत्वात् कायादियोगे स्थितस्यात्मनो
मिथ्यात्वादिगुणस्य गुणान्तरेणान्तरं पुनस्तत्प्राप्तिश्च 8. 113
संभवतीति । सासादनसम्यग्दृष्ट्यादीनामप्येकजीवा
पेक्षया तत एव नास्त्यन्तरम् ।। 50.9 एकेन्द्रियकजीवस्योत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटिपृथक्त्वैः षण्णवतिपूर्वकोटिभिरभ्यधिकेऽन्त
[काययोगी, वचनयोगी और मनोयोगियोंमें मिथ्यारम् । अग्रे हीत्थं सर्वत्र सागरोपमसहस्रद्वयस्य पूर्व
दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, कोटिपृथक्त्वैरभ्यधिकत्वं द्रष्टव्यम् । एकेन्द्रियविकले
अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवलीका नानाजीवों और न्द्रियाणां च गुणस्थानान्तरासंभादिन्द्रियेणान्तरम् । एकजीवकी अपेक्षा अन पञ्चेन्द्रियाणां तु तत्संभवान्मिथ्यात्वादेः सम्यक्त्वादिनान्तरं द्रष्टव्यम् ।
शंका-एक जीवकी अपेक्षा अन्तर क्यों नहीं है ?
उत्तर–क्योंकि कायादियोगोंका अन्तर्महर्त काल है [एकेन्द्रिय एक जीवका अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व इसलिए कायादि योगमें स्थित जीवके मिथ्यात्व आदि छियानबे पूर्वकोटियोंसे अधिक दो हजार सागर है। गुणस्थानका अन्य गुणस्थानसे अन्तर करके पूनः उसी आगे इस प्रकार सर्वत्र पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो गुणस्थानमें पाना सम्भव नहीं है। सासादन सम्यग. हजार सागर जानना चाहिए । एकेन्द्रिय और विक- दृष्टि आदिका भी एक जीवकी अपेक्षा इसीलिए लेन्द्रियोंके मिथ्यात्व गुणस्थानके अतिरिक्त अन्य अन्तर नहीं है।] गुणस्थान नहीं होता इसलिए इन्द्रियों की अपेक्षा अन्तर लगा लेना अर्थात् विकलेन्द्रिय जीव एके-5. 117 न्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पुनः विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो 53.6 पुंवेदे द्वयोः क्षपकयोरिति पृथग्वचनमृत्तरत्र
.
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[409
वेदाभावात् । नानाजीवापेक्षया उत्कर्षेण संवत्सरः मुपशमकानामुत्कर्षेण पूर्वकोटी। उपशमश्रेणिती हि सातिरेकः अष्टादशमासा इत्यर्थः।
पतितास्ते मनःपर्ययज्ञानमपरित्यजन्तः प्रमत्ताप्रमत्त[पुरुषवेद में 'दो 'क्षपकोंका' पृथक् कथन इसलिए गुणस्थाने वर्तन्ते यावत्पूर्वकोटिकालशेषः पुनस्तदाकिया है कि आगे वेदका अभाव हो जाता है। नाना रोहणं कुर्वन्तीति देशोना। जीवोंकी अपेक्षा उत्कर्ष से कुछ अधिक एक वर्ष
कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभङ्गज्ञानसे युक्त अन्तर है। कुछ अधिक एक वर्षसे १८ मास लेना ,
एक जीवके प्रति मिथ्यात्वका अन्तर नहीं है क्योंकि चाहिए।
अन्य गुणस्थानमें कुमति आदि तीनों ज्ञान नहीं
होते। ६. 118
शंका-सासादन में जानेपर अन्तर पड़ सकता है? 53.13 अवेदेषूपशान्तकषायकजीवं प्रति नास्त्यन्तरं सवेदत्वात्।
उत्तर-नहीं, क्योंकि सासादन गुणस्थान सम्यक्त्व [अपगत वेदियों में उपशान्तकषाय एक जीवके प्रति ग्रहण करनेके बाद होता है और सम्यग्दष्टिके मिथ्या
ज्ञान नहीं होता। मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिअन्तर नहीं है क्योंकि उपशान्तकषायसे नीचेके
ज्ञानियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि एक जीवके प्रति उत्कर्षगुणस्थान नौवें आदि में वेद पाया जाता है अर्थात्
से देशविरत आदि गुणस्थानके द्वारा पूर्वकोटि अन्तर नीचे गिरनेपर अवेदरूपसे उपशान्तकषाय गुणस्थान
काल है। अर्थात् एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संयमाको प्राप्त करना सम्भव नहीं है।]
संयमको प्राप्त हुआ। कुछ कम पूर्वकोटिकाल तक
संयमासंयमका पालन करके अन्त में असंयमी हो गया ६. 120
तो कुछ कम पूर्वकोटि अन्तर होता है। संयतासंयत' 54.5 अज्ञानत्रययुक्तकजीवेऽपि मिथ्यात्वस्यान्तरं
एक जीवके प्रति उत्कर्षसे छियासठ सागर अन्तरनास्ति गुणान्तरेऽज्ञानत्रयव्यभिचारात् ।सासादनेऽस्ती
काल है। असंयत प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानके द्वारा ति चेन्न, तस्य सम्यक्त्वग्रहणपूर्वकत्वात् सम्यग्दृष्टश्च
अन्तर होने पर चार पूर्वकोटि और आठ वर्ष अधिक मिथ्याज्ञानविरोधात् । आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानि
छियासठ सागर होता है क्योंकि मनुष्योंमें उत्पन्न ष्वसंयतसम्यग्दृष्ट्यंकजीवं प्रत्युत्कर्षेण पूर्वकोटी
हुआ जीव आठ वर्षके अनन्तर संयतासंयतपने को देशविरतादिगुणस्थानेनान्तरमवसानकाले शेषे पुनर
प्राप्त करता है। मनःपर्ययःज्ञानियों में एक जीवके संयतत्वं प्रतिपद्यत इति देशोना। संयतासंयतकजीव प्रति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। प्रत्युत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि, असंयतप्रमत्तादिगुणस्थानेनान्तरं पूर्वकोटिचतुष्टयाष्टवषैः सातिरे- शंका-अधिक अन्तर क्यों नहीं होता? काणि मनजेषत्पन्नो हि अष्टवर्षानन्तरं संयतासंयतत्वं उत्तर-नीचे के गुणस्थानोंमें आनेपर ही अधिक प्रतिपद्यत इति । मनःपर्ययज्ञानिष्वेकजीवं प्रति अन्तर संभव है किन्तु उनमें मनःपर्ययज्ञान संभव नहीं जयत्यमत्कष्टं चान्तर्महर्तः। अधिकमपि कस्मान्नेति है। मनःपर्ययज्ञानी चारों उपशमकोंका उत्कृष्ट अन्तर चेत अधोगणस्थानेषु वर्तमानानां मनःपर्ययासंभवात्। पूर्वकोटि है क्योंकि उपशमश्रेणीसे गिरकर मनःपर्ययतेष वर्तमानानां चाधिकमन्तरं संभवतीति। चतुर्णा- ज्ञानको अपनाये हुए प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें
1. धवलामें लिखा है-पूर्वकोटिकाल प्रमाण संयमासंयमको पालकर मरा और देव हुआ । पु. 5, पृ०1131 2. धवला में लिखा है-एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। आठ वर्षका होकर एक साथ संयमासंयम और वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तर्मुहर्तमें संयमको प्राप्त करके अन्तरको प्राप्त हुआ। संयमके साथ पूर्वकोटि काल बिताकर तेतीस सागरकी आयुके साथ देव हुआ। वहाँसे च्युत होकर पूर्वकोटि आयुके साथ मनुष्य हुआ। पुनः मरकर तेतीस सागरकी आयु लेकर देव हुआ। वहां से च्युत हो पुनः पूर्वकोटि आयु लेकर मनुष्य हुआ । वहाँ दीर्घकाल तक रहकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ। इस तरह आठ वर्ष कुछ अन्तर्मुहर्त कम तीन पूर्वकोटि अधिक 66 सागर अन्तर होता है। -पु.5, पृ० 116 ।
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410]
सर्वार्थसिद्धि
६. 129
(कुछ कम) पूर्वकोटि काल तक रहता है पुनः उपशम- बहुत है।] श्रेणिपर आरोहण करता है। इस तरह देशान पूर्व
६. 125 कोटि अन्तर होता है।]
57. 10 शुक्ललेश्येष्वप्रमत्तादीनामुपशमश्रेण्यारोह६. 121
णाभिमुख्यारोहणसद्भावाभ्यां लेश्यान्तरपरावर्ताभा
वादेकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः। उप55.5 सामायिकछेदोपस्थापनशुद्धिसंयतेषु द्वयोरुप- शान्तकषायस्य पतितस्य प्रमत्ते लेश्यान्तरं संस्पृश्य शमकयोरेकजीवं प्रत्युत्कर्षेण पूर्वकोटी अष्टवर्षानन्तरं श्रेण्यारोहणादेकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । तपो गृहीत्वोपशमश्रेणिमारुह्य पतितः प्रमत्ताप्रमत्तयोः
[शुक्ललेश्या में अप्रमत्तसंयत आदिका एक जीवके पूर्वकोटिकालशेषं यावद् वर्तित्वा पूनस्तदारोहणं करो
प्रति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है क्योंतीति देशोना। सूक्ष्मसांपरायसंयमे उपशमकस्यैक
कि शुक्ललेश्यावाला कोई एक अप्रमत्तसंयत उपशम जीवं प्रति नास्त्यन्तरं गुणान्तरे तत्संयमाभावात् ।
श्रेणिपर चढ़कर अन्तरको प्राप्त हुआ और सर्वजघन्यअसंयमेषु मिथ्यादृष्ट्यैकजीवं प्रत्युत्कर्षेण नरके सप्तम
कालमें लौटकर अप्रमत्त संयत हुआ। इसी प्रकार पृथिव्यामुत्पद्यतेऽन्तर्मुहुर्ते गते सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते
उत्कृष्ट अन्तर भी होता है, इस कालमें लेश्या परिमुहूर्तशेषे त्यजतीति देशोनानि।
वर्तन नहीं होता। शुक्ललेश्यावाले उपशान्त कषाय[सामयिक दोपस्थापना संयमियों में दो उपशमकों- का जीवके प्रति अन्तर नहीं है क्योंकि उपशान्तका एक जीवके प्रति उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि कषायसे गिरकर छठे गुणस्थानमें लेश्या परिवर्तन अन्तर है क्योंकि पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य आठ- - होकर ही श्रेणिपर आरोहण होता है। वर्षके पश्चात् संयमको ग्रहण करके उपशम श्रेणिपर आरोहण करके गिरा और प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानोंमें 3. पूर्वकोटिकालके शेष होने तक रहकर पुनः उपशम- 58. 10 औपशमिकासंयतसम्यग्दृष्टीनां सान्तरत्वाश्रेणिपर आरोहण करता है इस तरह देशोन होता नानाजीवापेक्षया सप्तरात्रिदिनानि । औपशमिकहै। सक्षमसाम्पराय संयममें एक जीवके प्रति उप- सम्यक्त्वं हि यदि कश्चिदपि न गलति तदा सप्तशमकका अन्तर नहीं है क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय संयम रात्रिदिनान्येव । संयतासंयतस्य चतुर्दश, प्रमत्ता. दसवें गणस्थान में ही होता है। असंयमियों में मिथ्या- प्रमत्तयोः पञ्चदश एकजीवं प्रति जघन्येन जघन्य दष्टि एक जीवके प्रति उत्कर्षसे कुछ कम तेतीससागर उत्कर्षेण चोत्कृष्टोऽन्तर्मुहर्तः । तदुक्तम्--- अन्तर है क्योंकि एक मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं
सम्मत्ते. सत्तदिणा विरदाविरवेस चोइसा होति । थिवीमें उत्पन्न होता है। अन्तर्मुहूर्त बीतनेपर सम्यक्त्व को ग्रहण करता है । अन्तर्मुहुर्त प्रमाण आयु शेष
विरदेसु य पण्णरसा विरहणकालो य बोधव्यो ।। रहनेपर सम्यक्त्वको छोड़कर मिथ्यात्वमें आ जाता
[प्रा०५० सं० 205] है। इस प्रकार देशोन तेतीससागर अन्तर होता है।] उपशान्तकषायकजीवं प्रति नास्त्यन्तरं वेदकपूर्वकोप
शमिकेन हि श्रेण्यारोहणभाग् भवति, तस्याः पतितो 8. 124
न तेनैव श्रेण्यारोहणं करोति, सम्यक्त्वान्तरं मिथ्यात्वं 57.1 तेज:पद्मलेश्यसंयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयता- वा गत्वा पश्चात्तदादाय करोतीति । अतो नास्ति नामेकजीवापेक्षयापि नास्त्यन्तरमन्तर्मुहूर्त परावर्त- तस्यान्तरम् । सामानसम्यग्मिथ्यात्व-मिथ्यात्व. मानलेश्यत्वात् ।
युक्तैकजीवं प्रति नास्त्यन्तरं गुणे गुणान्तरविरोधतः
सासादनादिगणे स्थितस्य मिथ्यात्वादिनान्तरासंतेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्त--
भवात्। संयत, और अप्रमत्तसंयतोंका एक जीवकी अपेक्षासे भी अन्तर नहीं हैं क्योंकि अन्तर्मुहुर्तमें लेश्या बदल [औपशमिक असंयतसम्यग्दृष्टियोंके सान्तरं होनेसे जाती है (और लेश्याके कालसे गुणस्थानका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा सात रातदिन अन्तरकाल है।
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परिशिष्ट 2
[411
यदि कोई भी जीव औपशमिक सम्यक्त्वको ग्रहण तीन समय है। उनके गुणस्थानका काल उससे बहुत नहीं करता तो सात रातदिन तक ही ग्रहण नहीं है अतः वहाँ उसका अन्य गुणस्थानसे अन्तर असम्भव करता । औपशमिक सम्यक्त्वके साथ संयतासंयतोंका है। अन्तरकाल चौदह दिन है और प्रमत्तसंयत तथा 'अप्रमत्तसंयतका पन्द्रह दिन है। एक जीवके प्रति . 133 जघन्य अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट 61.1 भावः-मिथ्यादष्टिरित्यौदयिको भावो अन्तरकाल उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । कहा है
मिथ्यात्वप्रकृतेरुदये प्रादुर्भावात् । सासादनसम्यऔपशमिक सम्यक्त्वका अन्तरकाल सात दिन,
ग्दृष्टिरिति पारिणामिको भावः। नन्वनन्तानुबन्धिऔपशमिक सम्यक्त्वके साथ विरताविरतका अन्तर
क्रोधाद्य दयेऽस्य प्रादुर्भावादीदयिकत्वं कस्मान्नोच्यत काल चौदह दिन और विरतोंका अन्तरकाल पन्द्रह
इति चेत्, अविवक्षितत्वात्। दर्शनमोहापेक्षया हि दिन जानना चाहिए।
मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानचतुष्टये भावो निरूपयितुमउपशान्तकषाय का एक जीवके प्रति अन्तर नहीं है भिप्रेतोऽत: सासादने सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयलक्षणक्योंकि वेदकसम्यक्त्वपूर्वक होनेवाले औपशमिक- स्य त्रिविधस्यापि दर्शनमोहस्योदय-क्षय-क्षयोपशमाभासम्यक्त्वसे जीव उपशमश्रेणिपर आरोहण करता है। वात् पारिणामिकत्वम् । सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति क्षायोउससे गिरने पर पुनः उसी सम्यक्त्वसे श्रेणिपर पशमिको भावः । ननु सर्वघातिनामुदयाभावे देशआरोहण नहीं करता किन्तु अन्य सम्यक्त्वको ग्रहण घातीनां चोदये य उत्पद्यते भावः स क्षायोपशमिकः। करके या मिथ्यात्वमें जाकर पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण न च सम्यमिथ्यात्वप्रकृतेर्देशधातित्वं संभवति, करके तब श्रेणिपर आरोहण करता है। अतः उसका सर्वघातित्वेनागमे तस्याः प्रतिपादितत्वादिति। तदअन्तर नहीं है। सासादनसम्यक्त्व, सम्यक्मिथ्यात्व युक्तम्, उपचारतस्तस्या देशघातित्वस्यापि संभवात् । और मिथ्यात्वसे युक्त एक जीवके प्रति अन्तर नहीं है उपचारनिमित्तं च देशतः सम्यक्त्वस्य घातित्वं, न हि क्योंकि एक गुणमें दूसरे गुणका विरोध होनेसे सासा- मिथ्यात्वप्रकृतिवत् सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्या सर्वस्य दन आदि गुणस्थानमें स्थित जीवका मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वस्वरूपस्य (सम्यक्त्वस्वरूपस्य) घातः आदि गुणस्थानसे अन्तर असम्भव है।]
संभवति सर्वज्ञोपदिष्टतत्त्वेषु रुच्यंशस्यापि संभवात् ।
तदुपदिष्टतत्त्वेषु रुच्यरुच्यात्मको हि परिणामः 8. 130
सम्यग्मिथ्यात्वमिति । 59. 13. असंज्ञिनां नानकजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्
[अब भावका कथन करते हैं-मिथ्यादृष्टि यह एक मिथ्यात्वगुणस्थानवतित्वेन तेषां सासादिनान्तरा
औदयिक भाव है क्योंकि मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयमें संभवात् ।
होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि यह पारिणामिक [असंज्ञियोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर भाव है। नहीं है क्योंकि असंशियोंके केवल एक मिथ्यात्वगुणस्थान ही होता है अतः उनका सासादन आदि गुण
शंका-अनन्तानुबन्धि क्रोध आदि कषायके उदयमें स्थानोंसे अन्तर सम्भव नहीं है।]
सासादन गुणस्थान प्रकट होता है तो इसे औदयिक
क्यों नहीं कहते ? ६. 132
उत्तर-उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। दर्शनमोहकी 60.8 अनाहारकेषु मिथ्यादृष्ट्येकजीवं प्रति
अपेक्षासे ही मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानोंमें भाव नास्त्यन्तरमनाहारकत्वस्यक-द्वि-त्रिसमयत्वात् गुण
बतलाना इष्ट है अतः सासादनमें सम्यक्त्व प्रकृति, स्थानस्य च ततो बहुकालत्वात् तत्र तस्य गुणान्तरे
मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्वरूप दर्शनमोहकी तीनों णान्तरासंभवादिति।
प्रकृतियोंका उदय, क्षय और क्षयोपशमका अभाव [अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टि एक जीवके प्रति अन्तर होनेसे पारिणामिक भाव कहा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं है क्योंकि अनाहारकपनेका काल एक, दो या यह क्षायोपशमिक भाव है।
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412]
सर्वार्थसिद्धि शंङ्का-सर्वघातिप्रकृतियों के उदयके अभावमें और 8. 164 देशघाती प्रकृतियोंके उदयमें जो भाव उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक कहते हैं। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व
मति..."9॥ प्रकृतिको देशघातिपना तो संभव नहीं हैं क्योंकि आगममें उसे सर्वघाती कहा है ?
67.13 अवाग्धानात् अधस्ताद् बहुतरविषयग्रहणात् ।
अवच्छिन्नविषयत्वाद्वा रूपिलक्षणविविक्सविषयउत्तर-ऐसा कहना युक्त नहीं है, उपचारसे सम्यक् त्वाद्वा । मिथ्यात्व प्रकृतिको देशघातिपना भी सम्भव है। उपचार का निमित्त है एक देशसे सम्यक्त्वका घाती
68.2 स्वपरमनोभियंपदिश्यते यथा परमनस्थितमर्थ होना। मिथ्यात्वप्रकृतिकी तरह सम्यग्मिथ्यात्व मनसा परिविद्यत (परिच्छिद्यत) इति । प्रकृतिके द्वारा समस्त सम्यक्त्वरूप और मिथ्यात्वरूपका घात सम्भव नहीं है। सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट 68.3 यदर्थ केवन्ते सेवां कुर्वन्ति । कस्येति चेत. तत्त्वोंमें रुचिका भी अंश रहता है। सर्वज्ञके द्वारा केवलस्यैव संपन्नतत्प्राप्तिपरिज्ञाततदुपायस्याहदाउपदिष्ट तत्त्वोंमें रुचि और अरुचिरूप परिणामको देर्वा । सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं।
68.6 सुगमत्वात् सुखप्राप्त्यत्वात् । ६. 148
68.7 मतिश्रुतपद्धतिः-मतिश्रुतानुपरिपाटी । तस्या 63.11 अल्पबहुत्वम् । उपशमकानामितरगुणस्थान- वचनेन श्रुताया: सकृत्स्वरूपसंवेदनमात्रत्वं परिचिवतिभ्योऽल्पत्वात् प्रथमतोऽभिधानम्। तत्रापि त्रय तत्वम् । अशेषविशेषतः पुनश्चेतसि तत्स्वरूपपरिउपशमकाः सकषायत्वादुपशान्तकषायेभ्यो भेदेन भावनमनुभूतत्वम् । निर्दिष्टाः । प्रवेशेन तुल्यसंख्याः सर्वेऽप्येते षोडशादिसंख्याः । त्रय क्षपकाः संख्येयगुणा उपशमकेभ्यो
बहुबहुविध . . . . ||16॥ द्विगुणा इत्येवमादिसंख्या संख्याविचारे विचारितमिह
8. 195 द्रष्टव्यम् । सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयता विशेषाधिकास्तत्संयमयुक्तानामुपशमकानामिव क्षपकाणामपि ग्रह- 81.5 अपरेषां निस्सत इति पाठः । तत्र द्विः सकारणात् । संयतासंयतानां नास्त्यल्पबहुत्वमेकगुणस्थान- निर्देशस्यायमर्थो मयूरस्य कुररस्य वेति स्वतः परोपवर्तित्वात् संयतानामिव गुणस्थानभेदासंभवादिनि ।
देशमन्तरेणव कश्चित् प्रतिपद्यते। येषां तु निसृत इति
पाठस्तेषां 'अपरः' प्रतिपत्तो स्वरूपमेव शब्दमेवाश्रित्व [उपशमक उपशमश्रेणिपर आरोहण करनेवाले अन्य।
विशेषरूपतयानवधार्य प्रतिपद्यत इति व्याख्या । गुणस्णानवी जीवोंसे अल्प होते हैं इसलिए उनका प्रथम कथन किया है। उनमें भी तीन उपशमकोंको कषायसहित होनेके कारण उपशान्तकषायोंसे भिन्न निर्दिष्ट किया है। प्रवेशकी अपेक्षा इन सभीकी संख्या
व्यंजनस्य .... ||18।। सोलह आदि समान है । तीन क्षपक संख्यातगुने हैं, उपशमकोंसे दूने हैं इत्यादि संख्याका संख्याविचारमें 83.1 व्यञ्जनं शब्दादिजातं शब्दादिसंघातः। विचार किया है उसे ही यहां देख लेना चाहिए। 83.3 अन्तरेणैवकारं-एवकारं विना। सूक्ष्मसाम्पराय संयमवाले विशेष हैं क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय संयम से युक्त उपशमकोंकी तरह क्षपकोंको 9.4 भी ग्रहण किया है। संयतासंयतों में अल्पबहत्व नहीं
न चक्षु.....॥19॥ है क्योंकि उनके एक ही गुणस्थान होता है, संयतोंकी तरह उनमें गुणस्थानभेद नहीं है।]
84.2 अविदिक्कं यन्मुखदिशम्।
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परिशिष्ट 2
1413
8. 206
8. 213
भवप्रत्यय..."12211 श्रुतं मतिपूर्व...||200
89.7 प्रकर्षाप्रकर्षवृत्तिरागमतः । तथाहि, देवानां 85.4 उपादाय-आश्रित्य।
तावत्85.5 पर्यवदाते क्षेमे।
सक्कीसाणा पढम दोव्वं च सणक्कुमारमाहिंवा । ६. 207
बह्मालांतव तइयं सुक्कसहस्सारया चउत्थीओ।।
पंचम माणदपाणद छट्ठीओ आरणाच्चदाय पस्संति । 86.2 द्रव्यादिसामान्यार्पणात्-द्रव्यक्षेकालभावार्प- णवगेवेज्जा सत्तम माणुतरा सव्वलोयं तु ॥ णात् ।
तथा नारकाणां
रयणप्पहाए जोयणमेगं ओहिविसओ मुणेयव्वो। 86.3. उत्प्रेक्षितं-कृतम् । तेषामेव---द्रव्यादीनामेव ।
पुढवीदो पुढवीदो गाउदयद्ध' परिहरेज्जा ॥
[अवधिज्ञानकी हीनाधिकता आगमसे जाननी चाहिए। ६. 208
जो इस प्रकार है-देवोंमें सौधर्म-ऐशान स्वर्गके देव
पहली पृथिवीपर्यन्त, सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गके देव 86.8 सम्यक्त्वस्य-समीचीनत्वस्य। ज्ञाने तद- दूसरी पृथिवीपर्यन्त, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर लान्तव-कापिष्ठ पेक्षत्वात-सम्यक्त्वापेक्षत्वात् । तदुक्तम्
स्वर्गके देव तीसरी पृथिवीपर्यन्त, शुक्र-महाशुक्र,
शतार-सहस्रार स्वर्गके देव चतुर्थ प्रथिवीपर्यन्त, कारणकज्जविहाणं दीवपयासाण जुगवजम्मे वि ।
आनत - प्राणत स्वर्गके देव पांचवी पृथिवीपर्यन्त, जुगवुप्पण्णं पि तहा हेऊ गाणस्स सम्मत्तं ।।
आरण-अच्युत स्वर्गके देव छठी पृथिवीपर्यन्त, नवप्रैवे
यकोंके देव सातवीं पृथिवीपर्यन्त और अनुदिश-अनु. ६. 209
तरवासी सर्वलोकको जानते हैं। तथा नारकोंमें 86.11 आहितो धृतः स्थापितो वा। कृतसंगीति:
रत्नप्रभा पृथिवीमें एक योजन क्षेत्र अवधिज्ञानका कृतसंकेतः। घट इत्युक्ते धकार-टकार-विसर्ज- विषय है । आगे प्रत्येक पृथिवी में आधा-आधा कोस नीयात्मकं शब्दं मतिज्ञानेन प्रतिद्यते । ततो घट- कम करते जाना चाहिए। शब्दात् घटाद्यर्थ श्रुतज्ञानेन तस्मादपि घटार्थाज्जलधारणादिकार्यम् । तथा चक्षुरादिविषयाधुमादेः ।। तत्रापि धूमदर्शनं मतिज्ञानं तस्मादग्निविषयं ज्ञानं
क्षयोपशमनिमित्तः...."122|| श्रतज्ञानम । तस्मादपि दाहादिकार्यज्ञानं श्रुतमिति । 90.2 देशघातिस्पर्धकानां किं पुनः स्पर्धकम् इति
चेत, कर्मपुद्गल-शक्तिनां क्रमवृद्धिः क्रमहानिश्च
स्पर्धकम् । शान्त:-उपशान्तः । उन्मुग्धेत्यादि, 87.11 आरातीयोऽवान्तरः ।
उन्मुग्धस्य विवेकपराड्.मुखस्य, प्रश्ने सति आदेशि
पुरुषवचनं यथा तत्रैवातिपतति नाभिहितेऽर्थे तेनाले 8.212
प्रवर्त्यते। लिङ्गवत्-लाञ्छनवत् । 88.3 व्याक्रियता-व्युत्पाद्यताम् ।
रूपि......॥27॥
. 215
5.211
1. कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।। -पुरुषार्थ०, 34 1 2. विदियं"-मूलाचार 1148। 3. .."सत्तमि अणुदिस अणुत्तराय लोगं तु ।। -मूलाचार 11491 4. गाऊ अद्ध परिहाणी।।-मूलाचार, 1152 ।
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414]
सर्वार्थसिद्धि
न च पुद्गलद्रव्यसंबन्धजीवानां रूपित्वाभिधाने 8. 275 प्रवचनविरोधः । तत्रापि तेषां तथाभिधानात् ।
उक्तञ्च
119.3
नोकर्मपरिवर्तनम् — औदारिकवैक्रियिकाः हारकलक्षणानां त्रयाणां शरीराणामाहारशरीरेन्द्रियानप्राणभाषामनोलक्षणषट्पर्याप्तीनां च योग्या ये पुद्गला एकजीवेन एकस्मिन् समये गृहीताः स्निग्धादिस्वरूपस्तीव्रमन्दं मध्यभावेन चेति । तेषां फलदानसामर्थ्य स्वरूपनिरूपणम् । तेषामल्पकालत्वात् । द्वितीयादिसमयेषु यथावस्थितास्तीवादिभावेन स्थिता निर्जीणाः फलमनुभूय त्यक्ताः । पश्चाद्य कदाचनापि । शरीरत्रयादिरूपतया न गृहीतास्तानेवा
वस्तुनि —जीवादी । अनेकात्मन्यनेकरूपे । अविरोधेनप्रतीत्यनतिक्रमेण हेत्वर्पणात् -- द्रव्यपर्यायार्पणात् । साध्य विशेषस्य नित्यत्वादेः । याथात्म्यप्रापणप्रवण
प्रयोग यथावस्थितस्वरूपेण प्रदर्शनसमर्थव्यापारो नयो गृहीतान् गृहीत्वा त्यजत्यवान्तरे स पूर्वान् मिश्रकांश्च वस्त्वेक- देशग्राही ज्ञातुरभिप्रायः । उक्तं चगृहीतानपरिगणय्य यावत्तेषामेवानन्तवारत्वरत्वं पश्चादेकवारं मध्ये मिश्रकान् स्वगृहीतानादाय त्यजति । पुनरप्यगृहीतानेवानन्तवारानादाय त्यजति । पुनरप्येकवारं मिश्रकानेव तावद्यावन्मिश्रकाणामप्यनन्तवारत्वं पश्चाद् गृहीताने वकवारमादाय त्यजति । अनेनोक्तविधिनाऽरगर्तभ्रमणन्यानेन मिश्रकाननन्तवारान् गृहीत्वा गृहीतानेवादाय त्यजति । यावत्तेषामप्यनन्तवारत्वं पश्चात्त एव ये प्रथमतो गृहीतास्तेनैव स्निग्धादितीव्रादिप्रकारेण तस्यैव नोकर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत् समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते । तदेवाद्धितमर्धपुद्गलावर्त इति । कर्मद्रव्यपरिवर्तनं संसार
बहुस्थतिकं कर्म बघ्नाति । तस्यापक्वपाचनलक्षणोदीरणापेक्षया समयाधिकामावलिकामतीत्येत्युक्तम् । पूर्ववत् प्रक्रिया द्रष्टव्या ।
"बंध पडि एयत्तं लक्खणदो हवदि तस्स णाणत्तं । तम्हा अमुत्तिभावो णेयंतो हवदि जीवाणं ।' नैगम ... 113311
अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । स्यान्नयोऽर्थान्तरापेक्षी दुर्नयस्तन्निराकृतेः ॥' अमभिनिवृत्तार्थः — अनिष्पन्नार्थ: । उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वात् । नैगमात् खलु संग्रहो - ल्पविषयः, सन्मात्रग्राहित्वात्, नैगमस्तु भावाभावविषयत्वाद् बहुविषयः । यथैव हि भावे संकल्पस्थाभावेऽपि । एवमुत्तरत्रापि योज्यम् । अर्थमात्र :प्रयोजनलेशः ।
इति प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
trafacarat ... 11111
§. 276
119.13 क्षेत्र परिवर्तनम् । अनन्तमानावच्छिन्नवनस्पतिकायाः साधारणशरीराहारोच्छ्वासनिः श्वासमरणोत्पादा निगोताः । जघन्यावगाहप्रतिपादनार्थं सूक्ष्म - अपर्याप्त कविशेषणम् । तेषामपि परस्परतः तरतमभावसद्भावात् सर्वजघन्यप्रदेशशरीरत्वविशेषणम् । स इत्थंभूतो जीवो मेरोरधोभागे गोस्तनाकाराष्टलोक मध्यप्रदेशान् स्वशरीर मध्यप्रदेशान् कृत्वोत्पन्नः । सर्वजघन्य प्रदेशशरीरस्याष्टप्रदेशव्या पित्वं विरुद्धमिति चेत् न तच्छरीरस्यासंख्याताकाशप्रदेशावगाहित्वात् । क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृतः स
§. 253
107.10 औपशमिकमादो लभ्यते । तदुक्तम् — 'पढमप्पढमं णियदं पढमं विदियं च सव्वकालेसु । खाइयसम्मत्तं पुण जत्थ जिणा केवलीकाले ।" द्रव्यतः जीवतः । संसारिक्षायिकसम्यग्दृष्टिजीवानां तत औपशमिकसम्यग्दृष्टिजीवेभ्योऽसंख्येयगुणत्वात् । संसारिण: " '11101
1. सर्वार्थसिद्धिमे उद्धृत 1 2. अकलंकदेवकृत अष्टशती में उद्धृत, अष्टस०, पृ० 290 1
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परिशिष्ट 2
एव पुनस्तेनैव सर्वजधन्यशरीराष्टलोक मध्यप्रदेशावगाहेन द्विरुत्पन्नो निरन्तरम् । अन्यत्रोत्पद्य वा तत्र वाधिक मवगाहेन वा उत्पद्यमानं न गणयित्वा तथा त्रिस्तथा चतुरिति एवं यावतो विस्तारोत्सेधावगाहत : समचतुरस्रोत्सेधांगुलस्यासंख्येयभाग प्रमिताकाश प्रदेशास्तावतो वारान् तत्रैवोत्पद्य पुनर्व्याप्तक्षेत्रापरि त्यांगेनाभिनव के प्रदेशादिकावगाहेनैव सर्वलोकव्याप्तिः । नन्वेवं लोकपरिमाणं तत् शरीरं स्यादिति चेत् न, पूर्वपूर्वव्याप्ताकाशप्रदेशपरित्यागेन व्याप्त्यभ्युपगमात् ।
तद्
§. 277
120.5 कालपरिवर्तनम् । प्रथमद्वितीयाद्य त्सर्पि गीनां क्रमेण प्रथमद्वितीयादिसमयेषूत्पद्यते यावद्दशसागरोपमकोटी कोटिपरिमाणोत्सर्पिणी परिसमाप्ता भवति । तथा तत्परिमाणावसर्पिणी च । एवं मरणनैरन्तर्यमपि ज्ञेयम् । क्रमातिक्रमेणोत्पन्नस्योत्पत्तिमरणे न परिगण्येते ।
§. 279
121.6 भावपरिवर्तनम् । ज्ञानावरणप्रकृतेराद्यत्वा तामधिकृत्योच्यते । पञ्चेन्द्रियादिविशेषेण विशिष्टो मिथ्यादृष्टिरेव कविधां सर्वजघन्यां स्थिति बघ्नातीति तस्य सा स्वयोग्येत्युच्यते । सागरोपमैककोट्या उपरिकोटी कोट्या मध्यमन्तः कोटीकोटीत्युच्यते । कषायाव्यवसायस्थानानि असंख्यात लोकमानावच्छिन्नानि षट्स्थानानि अनन्तभागवृद्ध्यसंख्यातभागवृद्धि-संख्यातभागवृद्धि - संख्यातगुणवृद्ध्यसंख्यातगुणवृद्ध्यनन्तगुणवृद्धिरूपाणि तेषु पतितानि तद्वृद्ध्य वृद्धि गतानि । अनेन तेषां न्यूनाधिकत्वं सूचितम् । तानीत्थंभूतानि कषायाध्यवसायस्थानानि तस्य मिथ्यादृष्टिजीवस्य तस्थिति बनतो योग्यानि भवन्ति । तेषां मध्ये सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थान मुक्त स्थितियोग्यकषा याध्यवसायस्थानेभ्योऽतिशयेन मन्दकषायाध्यवसायस्थानं जघन्यत्वमुत्कृष्टं च स्वरूपं तेषां स्थितिकार्य प्रति सर्वेषां विशेषाभावात् । तथाविधां स्थिति कुर्वत्तदेव कषायाध्यवसायस्थानं कर्मणां फलदानसामर्थ्य लक्षणानुभवान्नाना करोतीति तन्निमित्तानीत्युच्यते । 'जोगा पयडिपदेसा द्विदिअणुभागा कसायदो
[415
कुणदि' इत्यभिधानात् । अतस्तदेव जघन्यनानाशक्तिविशेषैर्युक्तमनुभवाध्यवसायस्थानान्यसंख्येय लोकप्रमितानि विदधते । सर्वजघन्यमेतत्त्रितयमेवमास्कन्दतः कर्तृत्वेन व्रजतस्तद्योग्यं तदनुकूलं सर्वजघन्ययोगस्थानं भवति । योगादीनां च अन्तर्मुहूर्तकालत्वाद्योगान्तरं कषायान्तरं च प्रतिपद्य कदाचित् कालविशेषे प्रथमसर्वजघन्ययोगस्थानात्तेषामेव सर्वजघन्यस्थित्यादीनां सम्बन्धि द्वितीयमसंख्येयभागवृद्धियुक्तं योगस्थानं भवति । एवं चतुःस्थानपतितानि । अनन्तभागानन्त गुणवृद्धिहीनेतरचतुःस्थानवृद्ध्या वृद्धि नीतानि तावद् भवन्ति यावच्छ्रे ण्यसंख्येयभाग प्रमितानि । एवं सर्वजघन्यानुभवाध्यवसायस्थाने श्रेण्यसंख्येयभागपरिमितेषु योगस्थानेषु सत्सु सर्वजघन्यस्थिति कषायाध्यवसायस्थानयुक्तस्यैव द्वितीयमनुभवाध्यवसायस्थानं भवति । तस्यापि योगस्थानानि
चतुःस्थानपतितानि । तानि श्रेण्यसंख्येभाग परिमितानि पूर्ववद् वेदितव्यानि । एवं तृतीयाद्यनुभवस्थानेषु आ असंख्येयलोकपरिसमाप्तेरयं क्रमो वेदितव्यः । एवं तामेव सर्वजघन्यां स्थितिमापद्यमानस्य द्वितीयं कषायाध्यवसायस्थानं भवति । तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्थानानि असंख्यातलोकपरिमितानि प्रत्येकं चतु:स्थानपतितश्रेण्यसंख्येयभागपरिमितयोगस्थान युक्तानि पूर्ववद् वेदितव्यानि । उक्तसर्व जघन्य स्थिते र कैकसमयाधिकक्रमेण वृद्धिं गच्छन्त्यास्त्रि शत्सागरोपमकोटीकोटीपरिमितोत्कृष्टस्थितिः यावत् कषायानुभवयोगस्थानानि प्रत्येक मुदाहृतक्रमेण वेदितव्यानि ।
§. 284
संसारिणस्त्रस........।।12।।
124.5 अभ्यर्हितत्वात् पूज्यत्वात् ।
8. 285
124.7 विभज्यानुपूर्वी उल्लंध्यानुपूर्वी ।
§. 286
124.10 पृथिव्यादीनामार्षे चातुविध्यमुक्तम् । तथाहि
पुढवी पृढवीकाओ पुढवीकाया य पुढविजीवा य । साहारणोपमुक्को सरीरगहिदो भवंतरिदो ॥
-
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416]
सर्वार्थसिद्धि
8. 237
पञ्चेन्द्रियाणि......॥15॥
६. 331 126.4 कर्मेन्द्रियाणां वाक्पाद-पाणि-पायूपस्थान- 139.12 अष्टगुणैश्वर्ययोगात् अणिमा • महिमालक्षणानाम् ।
लघिमा-प्राकाम्य-प्राप्तीशित्व-वशित्व-कामरूपित्वलक्ष
णात् । 8. 294
प्रदेशतो....||381 निर्वृत्ति......।।160
8. 335 127.5 उत्सेधांगुलपरिभाषानिष्पन्नं यस्यकस्मिन् 140.12 को गुणाकारः । पस्योपमासंख्येयभागः । प्रमाणांगुले पञ्चशतानि भवन्ति ।
तथाहि-औदारिकात् पल्योपमासंबोयभागाधिक
वक्रियिकं तस्मादप्याहारकम् । ६. 316
अनन्तगुणे.....||39॥ विग्रहवती.....॥28॥ 135.2 सर्वोत्कृष्टविग्रहनिमित्तनिष्कुटक्षेत्रे सर्वोकष्टविग्रहस्त्रिवता, तस्य निमित्तं यन्निष्कुटक्षेत्र 141.3 को गुणकारोऽभव्यातन्तगण: सितात. वक्रक्षेत्रम् ।
भागः । अत्रोभयोरेकार्थत्वं यदेव भव्यानामनन्त
गुणत्वं तदेव सिद्धानामनन्तभागत्वमिति । अनेना६. 320
जघन्योत्कृष्टं चानन्तमानमत्र द्रष्टव्यम् । एकं द्वौ......||3011
निरुपभोगः...|440 135.13 यथेच्छातिसर्गः यथेष्टप्रवृत्तिः ।
६. 347 143.3 इन्द्रियप्रणालिकया इन्द्रियद्वारेण ।
इन्द्रियलब्धौ-इन्द्रियशक्ती । संमूर्छ....॥31॥
शुभं....।।49।। 136.6 उपेत्य-गत्वा पद्यते-उत्पद्यते ।
६. 357 8. 324
145.9 प्रत्याम्नायः पुरभिधानम् । सचित्त......"||3211
६. 365
148.1 चरमदेहस्योत्तमविशेषणात्तीर्थकरदेहो गृह्यते। 138.3 तभेदाश्चतुरशीतिसहस्रसंख्या। तथाहि
ततोऽन्येषां चरमदेहानामपि -नित्येरनिगोतस्य पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां च
गुरुदत्तपाण्डवा
दीनामग्न्यादिना मरणदर्शनात् । उक्तेभ्योऽन्येषां प्रत्येक सप्त सप्त योनिलक्षाणि । वनस्पतिकायिका
विषादिनापवर्त्यमायुः उक्तं चनां दश । द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येक द्वे द्वे। सुरनारकतिरञ्चां प्रत्येक चत्वारि चत्वारि । मनुष्याणां
'विसवेयणरत्तक्खय-भय सत्थगहणसंकिलेसेहि । चतुर्दशेति ॥ तदुक्तम्
आहारुस्सासाण गिरोहओ छिज्जए आऊ।'
-[गो० कर्म० गा० 57] 'णिच्चिरधावु सत्तय तर दस विलिदिएसु छच्चेव । सुर-णिरय-तिरिय चउरो चोद्दस मणुए सदसहस्सा ॥' [चरम शरीरके साथ उत्तम विशेषण लगाने से [वारसअणु० गा० 35]
तीर्थंकरका शरीर ग्रहण किया जाता है क्योंकि
चरमशरीरी भी गुरुदत्त, पाण्डवों आदिका अग्नि औदारिक.....।।36॥
आदिसे मरण देखा गया है। इनसे जो अतिरिक्त
६. 322
.
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परिशिष्ट 2
[417 होते हैं उनकी आयुका विषादिके द्वारा घात होता . 399 है। कहा है-विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्रघात,
161.10 जलतलाज्जलोपरितनभागात् तावबहुलसंक्लेश, तथा आहार और श्वासोछ्वासके रुकनेसे
पत्रप्रचयं क्रोशद्वयस्थौल्योपेतपत्रप्रचयम् । आयु छिद जाती है। इति द्वितीयोऽध्यायः।
द्विर्धातकी ...॥33॥ ६. 430 169.13 टंकच्छिन्नतीर्थः टंकछिन्नतटः ।
भरत ... 137॥ तामु त्रिंश ... 120
8.437 ६. 369
173.8 नन्वशुभकर्मणः सप्तमनरकप्रापणस्य 152.7 इतरो विशेषो नरकप्रस्ताराणां रचना
न भरतादिष्वेवानमित्याद्य क्तं, स्वयंभरमणजलधिजप्रमाणादिलक्षणो लोकनयोगतः लोकानुयोगनाम्न भरतादिष्वेवानमित्याद्य क्तं ,
मत्स्यानां सप्तमनरकप्रापकाशुभकर्मारम्भकत्वाआगमविशेषात् ।
भावप्रसंगात् । तदयुक्तं तत्परभागस्य कर्मभूमित्वात् । परम्परो...॥4॥
तथाहि-स्वयंभूरमणद्वीपमध्ये तद्द्वीपार्धकारी मान
षोत्तराकारः स्वयंप्रभनगवरो नाम नगो व्यवस्थित8.372
स्तस्यार्वाग्भाग आमानुषोत्तराद् भोगभूमिभागः ।। 154.7 भिण्डिमवालो-गोफणा।
तत्र चतुर्गणस्थानवर्तिनस्तिर्यञ्चः सन्ति । ततः परतः
आलोकान्तात् कर्मभूमिभागः। तत्र पञ्चमुणस्थानसंक्लिष्टा...॥5॥
वर्तिनः प्रकृष्टशुभाशुभकर्मारम्भकास्ते सन्तीति कर्म8.375
भूमित्वम् । कथमन्यथा तत्र पूर्वकोट्यायुरर्वाग्माये
चासंख्येयवर्षायुरिति । मनुष्यक्षेत्रप्रधानतयाभिधा155.6 कुटशाल्मलिः कृत्रिमशाल्मलिः। अम्बरीषो
नाद्वा न दोषः । भ्राष्ट्रः।
शिंका-सातवें नरकमें ले जानेवाले अशुभकर्मका तद्विभाजिनः ...॥11॥
उपार्जन भरत आदिमें ही होता है यह कथन मिथ्या. 8. 387
होनेसे अयुक्त है । क्योंकि ऐसा कहनेसे स्वयम्भूरमण 159.9 क्षुद्रहिमवान् लघुहिमवान् । हरिवर्षस्य समुद्र में वर्तमान महामत्स्यके सातवें नरकमें ले जानेहरिक्षेत्रस्य।
वाले अशुभ कर्मके उपार्जन के अभावका प्रसंग आता
हेमार्जुन " ॥12॥ ६. 389 160.2 चीनपट्ट-शुभ्रपट्टोलकम् ।
पद्य .."11411
उत्तर-ऐसा कहना अनुचित है, क्योंकि स्वयंभरमणका पर भाग कर्मभूमि है । इसका खुलासा इस प्रकार है-स्वयंभूरमण द्वीपके मध्यमें उस द्वीपको दो भागों में विभाजित करनेवाला, मनुषोत्तर पर्वतके आकार स्वयंप्रभ नामक पर्वत स्थित है। उसके पूर्वभागमें मानुषोत्तर पर्यन्त भोगभूमि है। वहाँ चारगुणस्थानवाले तियंच रहते हैं। स्वयंप्रभ पर्वतसे आगेवाले भागमें लोकान्त तक कर्मभूमि है। वहां पांच गुणस्थानवाले प्रकृष्ट शुभ और अशुभ
६. 395 161.2 प्राक् पूर्वः । प्रत्यक पश्चिमः । उदक् उत्तरः। अवाक् दक्षिणः।
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418]
सर्वार्थसिद्धि
कर्मोंका उपार्जन करनेवाले तिर्यंच रहते हैं अत: वहाँ सौधर्म ... ॥19॥ कर्मभूमि है । यदि ऐसा न होता तो वहाँ पूर्वकोटिकी आयु और उससे पूर्वके भागमें असंख्यात वर्षकी आय . 479 कैसे होती। अथवा उक्त कथन मनुष्य-क्षेत्रकी 189.3 सर्वमन्यद् विमानरचना प्रमाणादिकं प्रधानतासे किया है इसलिए कोई दोष नहीं है।] लोकानुवेदाद्वेदितव्यम् । नृस्थिती ... ||381
स्थिति ... ॥20॥ 8. 439
वसनं वस्त्रं। 174.9 उत्सर्पिण्या अन्त्यचक्रवर्तिनः अवसर्पिण्याश्च गति... 11211 प्रथमचक्रवर्तिनः अंगुलप्रमाणं प्रमाणांगुलम्। 'दो दो चउ चउ दो दो तिय तिय चोइस य अंग अविकवाला:--मेषकेशाः।
उस्सेहो। इति तृतीयोऽध्यायः।
सत्त छप्पं च चउरो हत्थादो अवर होणादो।'
पीत ... ॥22॥ औत्तरपदिकं ह्रस्वत्वं यथाद्रतायाः तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानमिति। भरते हि इतरीतिः
लक्षणसूत्रं 'द्रुतौ वैस्त' इति । तत्र द्रुतोवैरिति सिद्धे इन्द्र ... 140
तपरकरणं व्यर्थमतस्तस्यां लक्षणसूत्रे तपकरणे 8. 449
मध्यविलम्बितयोरुपसंख्यानसंग्रहो भवति । अत्र च
यथोत्तरपदिकं ह्रस्वत्वमेवं पीतपद्यादावपि द्रष्टव्यम। 179.9 अर्थचरो अर्थचिन्तकः। आरक्षिकः कोटपालः । पदात्यादीनि सप्तानीकानि हस्त्यश्वरथपदा
इति चतुर्थोऽयायः। तिवृषगन्धर्व-नर्तकीलक्षणानि । उत्सर्गेण सामान्येन । पूर्व ... ॥6॥
अजीव ... ॥ ६.463
8. 527 88.9 सप्तेपर्णे:-पर्वणि पर्वणि सप्त पर्णानि
202.3 जीवलक्षणाभावमुखेन जीवलक्षणाभावयस्योसो सप्तपर्णो वृक्षविशेषः। तथा अष्टापदः
द्वारेण । प्रेक्ती पङ क्ती अष्टौ पदानि यस्यासौ अष्टापदो द्यतफलकः ।
द्रव्याणि ..॥2॥ तत्कृतः ।।140
६. 529
202.9 गुणसंद्रावो गुणसंघातः। . 469
8.530 185.6 क्रियाविशेषपरिच्छिन्न:-आदित्यगमनेन परिच्छिन्नः । अन्यस्य जात्यादेः अपरिच्छिन्नस्य 203.5 अद्यावापार्थं (अध्यापरोपणार्थ) समूच्चयार्थम कालनयत्यनानवधारितस्य परिच्छेदहेतुः ।
जीवाश्च ... ॥3॥
1. पा० महाभा० 111191691
.
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§. 531
204.6 तेषामपि वामनः पुद्गलानामपि तदुपपत्तेः भवः साचिव्यं सहायत्वम् । रूपादिमत्कार्योपपत्तेः ।
स्पर्शरस
112311
रूपिण: ... 11511
§. 535
206.4 तद्विकल्पः स्कन्धपरमाणुरूपपुद्गलभेदः । उपरिष्टात् अग्ने ।
आकाशस्य 11911
...
§. 543
2093 पूर्ववद् धर्मादीनामजघन्योत्कृष्टासंख्येयप्रदेशवत् अस्याप्याकाशस्यापि अजघन्योत्कृष्टानन्तप्रदेशकल्पना अवसेया ।
लोकाकाशे ।।12।। एवंभूतनयापेक्षया निश्चयनयापेक्षया ।
...
परिशिष्ट 2
एक प्रदेश 111411
...
§. 557
212.10 अविरोधेनावरोधः अविरोधेनावस्थानम् ।
प्रदेश ... ।।16।।
§. 557
214.3 मानिका उत्कणिका ।
गति 171
§. 559
215.1 पृथिवीधातुरिव ददातीति ( दधातीति) शि (?) धातुः आधारः पृथिव्येव धातु पृथिवीधातुरिति ।
शरीर ··· ।19।।
8. 563 ग्रहणं मूर्तिमता 219.5 मूर्तिमता धोत्रेण भीत्यादिनाऽवरोधकः प्रतिबन्धः मूर्तिमतश्च श्रोत्रस्य काहलादिशब्देन व्याघातो वाधिर्यादिलक्षणः। मूर्ति मता प्रतिकूलवायुना या शब्दस्य व्याघातो विवक्षितदेते गच्छतो व्यावर्तनम् । अभिभवः श्रोत्रस्य झटिति शब्दप्रतिपत्तिजननसामर्थ्य खण्डनं घण्टादिशब्देन क्रियते । तियंग्वातेन वा शब्दस्य तथा तज्जनन
[419
सामर्थ्यखण्डनं भेर्यादिशब्देव मशकादिना स्वरूपाभि
§. 570
224.2 व एते स्पर्णादीनां मूलभेदाः प्रत्येकं द्विल्पादिसंयोगेन संख्येयासंख्येयानन्ताश्च भवन्ति ।
...
शब्दबन्ध 11411
§. 570
224.12 अनक्षरात्मको द्वीन्द्रियादीनामेकेन्द्रियापेक्षया यदतिशयज्ञानं तस्य स्वरूपप्रतिपादनहेतुः । तथाहितेषां शब्दविषयं विशिष्टं ज्ञानमस्ति शब्दकरणान्वयानुपपत्तेः एकेन्द्रियाणां तु ज्ञानमात्रं नातिशयज्ञानं तत्करणाभावात् । अथवा अतिशयज्ञानं केवलज्ञानं तस्य स्वरूपप्रतिपादनहेतुः । अतिशयज्ञानवान् सर्वशोऽनक्षरात्मकशब्देनार्थप्रतिपादकत्वात् । यस्तु नेत्यं स न तथा, यथा रथ्यापुरुषः । उक्तं च'नष्टो वर्णात्मको ध्वनिः' । इति । वलाहको मेघः । पुष्करः-- पटहः । दर्पुरो रुजा (?) | सुघोषः किन्नरकः । जतु साक्षा
उत्पाद .. ॥10॥
§. 584
229.14 समाधिवचनस्तादात्म्यवचनः । युक्तशब्दो युजिर योग इत्यस्य त्यागेन 'युज् समाधी' इत्यस्य ग्रहणात् ।
तद्भावा
#11
§. 586
230.6 तदेवेदमिति स्मरणं तदेवेदमिति विकल्पः ।
बन्धेऽधिको 17
...
8.598
235.12 तृतीयमेव ताजिविकम् 'स्वार्थे तीयादिकण्' ।
कालश्च ... ॥9॥
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420]
सर्वार्थसिद्धि
in!
8.602
8.626 239.11 पूर्वोत्तरभावप्रज्ञापननयो व्यवहारनयः। 251.7 अनाभोगनिक्षेपः पुनरनालोमितरूपतयोप
करणादिस्थापनम् । सोऽनन्त .. 1400
तत्प्रदोष ...100 ६. 604
8.628 242.1 परमनिरुद्धो बुद्ध्या अविभागभेदेन भेदितः ।
251.12 अनभिव्याहरतः। वचनमनुच्चारयतः। इति पञ्चमोऽध्यायः।
दुःखशोक ... in 8.630 252.11 वैषलव्यविशेषो दीनत्वविशेषः। याविलान्तःकरणस्य कलुषितान्तःकरणस्य। तीवानुभयो
अतिशयेन पश्चात्तापः। काय...॥1॥
8. 630 8.610 244.7 औदारिकादिसप्तविधः काय: औदारिकी- 253.8 आस्थीयते (आस्तीर्यते) प्रतिज्ञायते।। दारिकमिश्रर्वक्रियिकवैक्रियिकमिश्राहारकाहारकमिश्र- 8. 630 कार्मणलक्षणो । मिश्रत्वं च कायस्यापरिपूर्णत्वम् ।
253.14 न दुःखं न सुखमित्यादि। चिकित्सिते हेतु:
शस्त्रादिः, स न दुःखं सुखो वा दुःखरूपः सुखरूपो वा शुभ ...॥3॥
स्वरूपेण न भवति जडत्वात् । चिकित्सायां तु युक्तस्य 8.614
वैद्यादेर्यदि क्रोधादिरस्ति सदा दुःखं स्यात् दुःखहेत्व
धर्मोपार्जनत्वात् । एवं मोक्षसाधने हेतुः उपवासलो245.11 शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्धहेतु
चादिः, स स्वरूपेण दुःखरूपः सुखरूपो वा न भवति । त्वाभ्युपगमात् । यथा उपोषितादे: पठतो विश्रम्य
यस्तु तेन युक्तो गुरुशिष्यादिः स पूर्ववत् सुखदुःखरूपो तामिति वागादियोगस्य।
वेदितव्यः क्रोधादिसद्भावासद्भावाभ्याम् । सकषाय...141
भूत...॥12॥ 8.616
8.632 246.7 ईरणमीर्या यमाह योग इति कायादिव्यापार इत्यर्थः । अस्यापि तात्पर्यमाह गतिरित्यर्थः।।
254.9 अक्षीणाशयः-गृहादावनिवृत्ताभिप्रायः। कायादिवर्गणालम्बी आत्मप्रदेशपरिस्पन्द इत्यर्थः ।
अवरोधः (अनुरोधः)-स्वीकारः। सिवान कषायादिद्वारमानव: मार्गों यस्य तत्तद्वारकं __ कषायोदय ...॥14॥ कर्म।
8. 636
256.6 अतिसन्धान-वचनम् ।
इन्द्रिय150 ६.618 247.15 विशसनं मारणम् ।
8. 336
निवर्तना॥9॥
256.7 व्यपरोपणं विनाशनम् । पराङ्गमावस्कान्दा परभार्यापहारः।
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परिशिष्ट 2
[421
बह्वारम्भ ...॥15॥ 8.638 257.1 अजस्र---अनवरतम् ।
६. 679 268.6 मिथ्याभ्याख्यानं-मिथ्यावचनम् । वासिता. वंचित:-हस्तिनीवंचितः।
॥12॥
अल्पारम्भ ...॥17 ६. 642 257.11 सद्ध्यासः''प्रपञ्चः ।
जगत् ६. 685
270.11 दुःखं भोज भोज-दुःखं भुक्त्वा भुक्त्वा ।
सरागसंयम... ॥20॥
प्रमत्त.." ||131 8. 648
8.687 258.11 चारकनिरोधबन्धनबद्धेष चारकेण बन्धन
271.13 आवादेज्ज-आपतेत् । कुलिङ्गः सूक्ष्मविशेषेण निरोधबन्धनबद्धेषु-गाढबन्धनबद्धेषु ।
जन्तुः । तं जोगमासेज्ज-पादयोगमासाद्य । मुच्छा
परिग्गहोत्तिय-म परिग्रह इति । अज्झप्पपमाणदोतद्विपरीत ... ॥23॥
अध्यात्मप्रमाणतः । अन्त्यः संकल्पानतिक्रमणेत्यर्थः। ६. 654
तथा हिंसापीति । 260.4 संभ्रमसद्भावोपनयन संभ्रमः-आदरः, सद्भावेन अमायया उप-समीपे गमनम्।
अगार्य ... ॥19॥
8.699 दर्शनविशुद्धि ... 02411
*276.9 प्रतिश्रयार्थिभि:-गृहार्थिभिः । 8.656 260.15 सत्कारः पूजा। अनिगूहितवीर्यस्य प्रकटी
दिग्देशा ... ॥31॥ कृतस्वसामर्थ्यस्य ।
8.703 261.5-प्रत्यूहे विध्ने ।
279.10 अवहितान्तःकरण:-एकाग्रमनाः। श्रृंग
वेरमाकम् । इति षष्ठोऽध्यायः ।
मिथ्योपद श . . . 136॥ 8.712 284.2 पराकूतं पराभिप्रायः ।
__ क्षेत्रवस्तु · · · ||29।। हिंसानत " 10 8.664
8.715 264.7 संभिन्नबुद्धिः विपरीतमतिः ।
285.9 क्षौम शभ्रपटोलक: । कौशेयं तसरीचीरं। 5.664
8.717 269.4 संवरपरिकर्मत्वात्-संवरपरिक रत्वात् ।
286.4 आविष्टाभिसन्धिः (आधिक्याभि") कृतपरिकर्मा कृतानुष्मनः ।
आविष्टाभिप्रायो लोभावेशात । यथा मान्यमेटाब
स्थितेन केनचिच्छावकेण क्षेत्रपरिमाणं कृतं दारा हिंसादि ...॥9॥
(धारा) लंघनं मया न कर्तव्यमिमि । पश्चादुज
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422]]
सर्वार्थसिद्धि
यिन्यामनेन भाण्डेन महान लाभ इति तदतिक्रम्य वाग्योगाश्च । एवं काययोगा औदारिकौदारिकमिश्र. गच्छति ।
वैक्रियिकर्वक्रियिकमिश्रकार्मणभेदात् पञ्च। शुद्ध
यष्टकम् शुद्ध्या उपलक्षितमष्टकं शुद्धयष्टकम् । किं 8.719
पुनरष्टकमिति चेत् । मनोवाक्काय-भैक्षर्यापथशयना286.11 तदेवोभयं-प्रहासाशिष्टवागुभयं दुष्टकाय
सनविनयप्रतिष्ठापनलक्षणम् । कर्मप्रयुक्तं भण्डिमाप्रदर्शककार्यव्यापारविशिष्ट । परत्र उपहसनीये प्राण्यन्तरे ।
8.734
293.6 जठराग्न्याशयात् जठराग्निवशात् । अहस्त: .121
अबाहुः । मिथ्यादर्शनाद्यावेशात् मिथ्यादर्शनाद्याग्रहात् 287.12 क्षुदभ्यादतत्वात्-बुभुक्षापीडितत्वात् ।
आर्वीकृतस्य सकषायी कृतस्य । अविभागेन एका
कारेण । 8.722
8.736 288.3 द्रवो वृष्यो वाभिषवः-द्रवो रात्रिचतुःप्रहरैः क्लिन्न ओदनादिः । वृष्यं इन्द्रियबलवर्धनं
295.12 अपरिणद उपशान्तकषायः। उच्छिण्णः
क्षीणकषायादिः। अथवा अपरिणदो-नित्यकान्तमाषविकारादि। दूष्पक्वस्य प्रासुकत्वात्तत्सेवने को
वादी। उच्छिण्ण-क्षणिकैकान्तवादी। दोषः । इति चेदुच्यते दुष्पक्वोऽक्लिन्नस्तत्सेवने चोदरपीडादिप्रादुर्भावादग्न्यादिप्रज्वालने महानसंयम
8.749 इति तत्परिहारः श्रेयान ।
300.10 सत्कर्मापेक्षया-कर्मसत्तामात्रापेक्षया। 8.723
निरुत्सुकः पराङ्मुखः। शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं-- 288.8 परव्यपदेशः कथमतीचारः । इति ।
शुभपरिणामनिराकृतफलदानसामर्थ्यम् । सामिशुद्धस्व
रसं ईषत्प्रक्षालितसामर्थ्यम् । चेदुच्यते, लोभावेशादतिथिवेलायामपि द्रव्योपायं परित्यक्तुमशक्मुवताऽन्यदातहस्तेन दाप्यते इति ।
8.755 8.728
304.3 शरीरनिर्व त्तिः-शरीरनिष्पत्तिः। अंगो289.12 विधिः प्रतिग्रहादिक्रमः ।
पांग: तत्राष्टावङ्गानि। पडिगहमुच्चट्ठाणं पादोदगमच्चणं च पणमं च । उक्तं चमणवयणकायसुद्धी एसणसुद्धीए णवविहं पुण्णं ।।
णलया बाहू या तहा णियंवपट्टी उरोय सीसंच। -[वसु०श्रा० 224] अट्ठ वदु अंगाई सेह उवंगा दुबेहस्स ॥ इति सप्तमोऽध्यायः ।
कर्णनासिकानयनोत्तराधरौष्ठांगुल्यादीन्युपाङ्गानि । न्यग्रोधो वटवृक्षः । स्वातिः वल्मीकः। हुण्डसंस्थानमविच्छिन्नावयवसंस्थानम् । असपाटिका चिचा।
8.755 8.732
305.8 स्वयंकृतोद्बन्धन-उद्वेगाद् गले पाशं 292.7 षटकायः • षड्जीवनिकायः। चत्वारो बद्ध्वा मरणार्थ वृक्षादावलम्बनम्। मरुत्पतनंमनोयोगाः सत्यासत्योभयानुभयविकल्पात्। तथा प्राणापातनिरोधनं गिरिपतनं च।
1. वसु० श्रा० , 224। 2. देहे सेसा उवंगाई ।-कर्म० गो०, गा० 28 ।
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परिशिष्ट 2
[423
६. 755
एक सागर, पच्चीस सागर, पचास सागर, सौ सागर 305.13 साधारणं शरीरमनन्तकायिकानाम् ।
और एक हजार सागर प्रमाण स्थिति जाननी
चाहिए। तदुक्तम्
आशय यह है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक मिथ्यासाहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च ।
दष्टिके मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एवं ।।
कोडाकोडी सागर प्रमाण होता है किन्तु एकेन्द्रिय "गढसिरसंधिपव्वं समभंगमहीरहं च छिण्णरह।
पर्याप्तकके एक सागर प्रमाण, दोइन्द्रिय पर्याप्तकके साहारणं शरीरं तविवरीयं च पत्तेयं ॥"
पचास सागर प्रमाण, तेइन्द्रिय पर्याप्तकके पचास 8.759
सागर प्रमाण, चौइन्द्रिय पर्याप्तकके सौ सागर प्रमाण
और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके एक हजार सागर दान ..॥13॥
प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। इसी अनुपातसे 308.3 भेदनिर्देश:-षष्ठीनिर्देशः।
राशिक द्वारा इन जीवोंके ज्ञानावरण, दर्शनावरण,
वेदनीय और अन्तराय कर्मका भी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदितस्तिसृणां · ...॥14॥
जाना जाता है। इन कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीस
कोडाकोडी सागर है। अतः तीस कोडाकोड़ी 8761
सागर में सत्तर कोडाकोड़ी सागरसे भाग 309.6 अन्येषामागमात् संप्रत्ययः। तथाहि---
देकर एक, पच्चीस, पचास, सौ और एक हजार एक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाणामसंज्ञिपर्याप्तकानां यथा
से गुणा करनेपर उक्त जीवोंके इन कर्मोके उत्कृष्ट संख्यं प्रत्येकं त्रिगुणितसप्तविभक्त एक-पञ्चविंशति
स्थितिबन्धका प्रमाण निकलता है। इन्हीं जीवोंके पञ्चाशच्छतसहस्रसागरोपमाणि । तदुक्तम्---
अपर्याप्तक अवस्थामें यही स्थिति एकेन्द्रियोंके पल्यो'एइंदिय विलिदिय-असण्णिपज्जत्तयाण बोधव्वा।
पमके असंख्यातवें भाग कम एक सागर प्रमाण तथा एवं तह पणुवीसं पंचासं तह सयसहस्सं च॥ दोइन्द्रिय आदिके पल्यके संख्यातवें भाग कम पच्चीस तिहयं सत्तविहत्तं सायरसंखा द्विदी एसा॥'
सागर आदि प्रमाण बँधती है। कहा भी हैतेषां चापर्याप्तकानामियमेव स्थितिरेकेन्द्रियाणां पल्यो
अपर्याप्तक एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि के ज्ञानापमासंख्येयभागोना । शेषाणां संख्येयभागोना।
वरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकी वही उक्तं च
स्थिति पल्यके असंख्यातवें भाग और संख्यातवें भाग अप्पजत्ताणं पुणो थावर विलिदियादीणं । कम जानना चाहिए तथा संज्ञी अपर्याप्तकके अन्त:ठिदि एसा परिहीणा पल्लासंखेयसंखभागेहि ॥
कोडाकोडी सागर प्रमाण जानना चाहिए। अंतोकोडाकोडी सण्णी अपज्जत्तयस्य णायव्वा ।
8.763 दसणणाणाधरणे वेदे तह अंतराये य॥
सप्ततिः [अन्य जीवोंके आगमसे जानना चाहिए। वह इस
."||1511 प्रकार है-एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय
309.10 इतरेषां वयागमं तथाहिऔर असंज्ञी पर्याप्तकोंके क्रमानुसार प्रत्येकके तीनसे
एगं पणवीसं पि य पंचासं तह सयं सहस्सं च । गणित और सातसे भाजित एक सागर, पच्चीस
ताणं सायर संखा ठिदि एसा मोहणीयस्स ।। सागर, पचास सागर, सौ सागर और हजार सागर प्रमाण स्थिति जाननी चाहिए। कहा भी है- अयं तु विशेषो मोहनीयस्येयं स्थितिः सप्तगुणाः सप्त एकेन्टिय. दोइन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी विभक्ता च कर्तव्या। इयमेवापर्याप्तकानां पल्योपमापंचेन्द्रिय पर्याप्तकके तीनसे गणित और सातसे भाजित संख्येयसंख्येयभागोना पूर्ववत प्रतिपत्तव्या
1. गो० जी०, गा० 1921 2. वही ग10 187 ।
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424]
सर्वार्थसिद्धि
मोडनीयकर्मकी उत्कृष्टस्थिति अन्य जीवोंके और विकलेन्द्रिय जीव पूर्वकोटि प्रमाण आयुका आगमके अनुसार जानना चाहिए। वह इस प्रकार बन्ध करते हैं। पीछे विदेह आदिमें उत्पन्न होते हैं। है-एकेन्द्रिय आदि जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागर, पच्चीस सागर, पचास सागर,
अपरा...18111 सो सागर और एक हजार सागर होती है। इतना
8.769 विशेष है कि मोहनीयकी इस स्थितिमें सातसे गुणा और सातसे भाग देना चाहिए। अपर्याप्तक जीवोंके 310.10 सूक्ष्मसाम्पराये इति वाक्यशेषः । उक्त स्थिति पूर्ववत् पल्यके असंख्यातवें भाग और संख्यातवें भाग कम जानना।]
विपाकः . . .1121
६. 774 विशतिर्नाम . . .॥6॥
311.12 स्वमुखेन मतिज्ञानावरणं मतिज्ञानावरण8.765
रूपेणैव । परमुखेन श्रुतज्ञानावरणरूपेणापि भुज्यते । 310.2 इतरेषां यथागमम्-या पूर्व चतसृणां
8.775 कर्मप्रकृतीनां स्थितिरुक्ता सा न त्रिगुणा किन्तु द्विगुणा । कर्तव्या ततो नामगोत्रयोर्भवति। शेषं पूर्ववत् । 312.1 प्रसंख्यातोऽन्वर्थः । अप्रसंख्यातोऽनन्वर्थः । [ अर्थात् पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीवके नाम और गोत्रकर्मकी उत्कृष्टस्थिति एक सागरके सात भागोंमें से स यथा . . . ।।2211 दो भाग प्रमाण है। पर्याप्तक दो इन्द्रिय जीवके
६. 776 पच्चीस सागरके सात भागोंमें से दो भाग है। पर्याप्तक . तीन इन्द्रिय जीवके पचास सागरके सात भागों में से 312.3 दर्शनशक्त्युपरोधो-दर्शनशक्तिप्रच्छादो भाग है। पर्याप्तक चार इन्द्रिय जीव के सौ सागर- दनता ।। के सात भागोंमें से दो भाग है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके हजार सागरके सात भागोंमें से दो
ततश्च .. 12311 भाग है। इनके जघन्य स्थिति पूर्ववत् पल्यके
६. 778 असंख्यातवें भाग और संख्यातवें भाग कम जाननी चाहिए।]
312.9 जातिविशेषावणिते एकेन्द्रियादिजीवविशेषः
संस्कृते। अनुभवोदयावलीस्रोतः अनुभवोदयावलीत्रय • • • 171
प्रवाहः।
६. 767
नामप्रत्याय-12411 310.6 शेषाणामागमतः, तथाहि-असंज्ञिनः ६. 780 स्थितिरायुषः पल्योपमासंख्येयभागः, तिर्यसंज्ञी हि स्वर्गे नरके वा पल्योपमासंख्येयभागमायुर्वध्नाति ।
315.3 नामप्रत्ययाः कर्मकारणभूताः। य: पूदगल: एकेन्द्रियविकलेन्द्रियास्तु पूर्वकोटिप्रमाणं, पश्चाद्विदेहा-.
कर्माणि प्रारभ्यन्ते त एव कृष्यन्ते नान्ये इति ।
एकक्षेत्रावगाहस्थिताः--जीव ' संलग्ना इत्यर्थः । दावुत्पद्यन्ते ।
पञ्चरस-मधुररसे लवणरसस्यान्तर्भावात् । स्पर्श[असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके आय कर्मकी स्याष्टविधत्वात्कथं चतुःस्पर्शास्ते, इति नाशहनीयं, उत्कृष्ट स्थिति पल्यके असंख्यातवें भाग है क्योंकि शीतोष्णस्पर्शादीनां विरोधिना सहभावाभावात। तियंच असंज्ञी स्वर्ग या नरककी पल्योपमके असंख्यातवें भाग आयु का बन्ध करता है । एकेन्द्रिय
इत्यष्टमोऽध्यायः।
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परिशिष्ट 2
[425 स गुप्ति ... ॥2॥
8.816 ६. 789
330.10 आसनं उपवेशस्थापनम् । आवसथो गृहम् ।
महद्धि महिमानम् । 321.6 शीर्षोपहारो-मस्तकेन पूजा ।
६. 819 उत्तम ... ॥6॥
331.8 पुत्तिका मधुमक्षिका। ६. 797 323.4 मार्गणार्थ अन्वेषणार्थम। धर्मोपबं हणार्थं 8.820 धर्मोपचयार्थम् ।
231.11 जातरूपवत् जातिसुवर्णवत् । कुणप
मृतकम् । अनित्य ... 17॥
8. 822 ६. 799
332.4 स्मितं—ईषद्हसितम् । 324.11 समुदितं समुत्पन्नम्। अभिष्वंगाभावात् अनुबन्धाभावात् । विनिपातो दुःखम् ।
8.823 8. 800
332.6 अनूषितं सेवितम् । संयमायतनं यतिः। 325.2 व्यसनोपनिपाते दुःखोपनिपाते ।
६. 824 8.801
333.1 चतुर्विधोपसर्ग देवमानवतिर्यगचेतनकृतोप.
सर्गभेदात् । 325.14 निर्वेदो वैराग्यम् ।
8.825 ६. 806
333.5 व्यपगतासुवत् मृतकवत् । 327.8 क्रमस्र तजलाभिप्लवे क्रमप्रविष्टजलेन 8.826 नावो. निमज्जते।
333.8 मिथ्यादर्शनोदृप्तः मिथ्यादर्शनोद्धत: 8.808
5. 827 - 328.2 बहुमध्यप्रदेशे अतिशयेन मध्यप्रदेशः ।
333.12 विशसनं शस्त्रम् । 8.809
8. 828 328.8 सरीसृपः करकेन्दुकः । दुरासदो दुष्प्रापः । 354.2 निस्सारीकृतमूर्तेः कृशतरशरीरस्य । 8.810 329.2 नियताऽवश्यभाविनी।
334.6 वाचंयमस्य मौनिनः। तत्समितरय परिमित
भाषिणः । मार्गा ... ॥8॥
६. 830 8.813
'334.12 विरुद्धाहारस्य सकृदुपभोग: सेवा, पुनः 329.12 तन्मार्गपरिक्रमणपरिचयेन-जिनोपदिष्ट- पुनरुपभोग आसेवा पथ्यापथ्याहारसेवनं वैषम्यम् । मार्गानुशीलसंबन्धेन।
६. 832 क्षुत्पिपासा 9॥
335.5 सक्तो—लग्नः । सिध्म-दुभित्तं (?) ।
६. 829
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426]
सर्वार्थसिद्धि
६. 833
335.9 चिरोषितब्रह्मचर्यस्य चिरतपस्विनः । प्रत्यग्रपूजा झटितिपूजा। ६. 836 336.8 एवमसमादधानस्य एवमसमाहितचेतसः।
शस्तस्य दोषस्तादृशौ ममापीति । शब्दाकुलो वा यथा गुरुर्न शृणोति, बहुगुरुजनस्य वा । अबुद्धस्य वा तद्दोषसेविनो वा। यास्वेवमालोचयतीति आलोचनादोषाः । तदुक्त्तम्--- आकंपिय अणुमाणिय जं दिट्ठबादरं च सुहम च। छण्णं सहाउलियं बहुजण अव्वत्त तस्सेवि ।। अन्नपानाधु पकरणस्य पूर्व परित्यक्तस्य पश्चात् कुतश्चित् कारणात् संसक्तस्य उपढौकितस्य प्राप्तस्येति यावत् । यद्विभजनं विगतसेवनं परित्याग इत्यर्थः । तदेव प्रायश्चित्तम् ।
एकादश " |||10 8.841 338.2 तत्फलकर्मनिर्हरणफलापेक्षया चिन्ताकार्यकर्माभावफलापेक्षया ।
ज्ञानावरणे ... ||13||
ज्ञान .."1231
६. 845
६. 864
348.4 सबहुमान -बहुपूजासहितम् ।
340.5 क्षायोपशमिकी श्रुतविषया प्रज्ञा अभ्यस्मिनवध्याद्यावरणे सति मदं जनयति ।
सामायिक ...1181
आचार्यो ... ॥24॥ 8.866
8.854
348.12 क्लिष्टशरीर:—पीडितशरीरः। संस्त्याय:संघातः।
343.9 प्रमादेन कृतो योऽनर्थप्रबन्धो हिंसाद्यव्रतानुष्ठानं तस्य विलोपे सर्वथा परित्यागे सम्यगागमोक्तविधिना प्रतिक्रिया पूनर्वतारोपणं छेदोपस्थापना । छेदेन दिवसपक्षमासादिप्रव्रज्याहापनेन उपस्थापना व्रतारोपणम् ।
उत्तम
||271
६. 872
अनशन .||1911
350.12 हेत्वङ्गत्वादिभिरभावस्य वस्तुधर्मत्वसिद्धिः-तदुक्तम्
8.856 345.6 एकागारादिविषयो यः संकल्पः तेन चित्तस्यावरोधो नियंत्रणम् । दुःखतितिक्षा दुःखसहनम् । सुखानभिष्वंगः सुखानुबन्धाभावः ।
भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भावान्तरं भाववदहतस्ते। प्रमीयते च व्यपदिश्यते च वस्तुव्यवस्थाङ्गममेयमन्यत् ॥
-[युक्त्यनुशा० 60] निदानं ... ।।33।। 8.884
8.862 346.12 उपासनमाराधनम् । दशदोषवजितमा- लोचनम्। तथाहि उपकरणादिदानेन गुरुमनुकम्प्य आलोचयति, वचनेनानुमान्य वा । यल्लोकर्दष्टं तदेव वा, स्थूलमेव वा, सूक्ष्ममेव वा व्याजेन वा। याद-
353.1 तुरीयस्य-चतुर्थस्य ।
-
1. भगवती आरा० गा० 5621
2. युक्त्यनुशा० श्लो० 60 ।
.
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आज्ञा
113611
§. 890
354.8 हेतुदृष्टान्तोपरमे हेतुदृष्टान्ताभावे । गहनेपदार्थश्रद्धानात् — अशेषविशेषतोऽस्मदादिबुद्ध्यगोचरपदार्थसंघातश्रद्धानात् । विमुखाः पराङमुखाः ।
एकाश्रये *** 114111
900
358.15 प्राप्तश्रुतज्ञाननिष्ठेन प्राप्तश्रुतज्ञानपर्यवसानेन ।
वीचारो
114411
परिशिष्ट 2
§. 906
358.15 द्रव्यपरमाणु द्रव्यस्य सूक्ष्मत्वम् । भावपरमाणु - पर्यायस्य सूक्ष्मत्वम् । अपर्याप्तबालोत्साहवत् - असमर्थ बालोत्साहह्वत् । समूलतूलं - तत्कारणभूतसूक्ष्मलोभेन सह । निरुपलेपः – अकलङ्कः । गभस्तिः – किरणः । मेघपञ्जरवि (नि) रोधः - मेघपटलप्रच्छादनम् । धर्मरश्मिः आदित्यः । आत्मन उपयोगातिशयस्य व्यापारविशेषस्य । विशिष्टकरणस्य - विशिष्टानि दण्डकपाटादीनि करणानि यत्र । सामायिक सहायस्य - सामायिकं यथाख्यातचारित्रं सहायं यस्य ।
पुलाक ।।4611
§. 910
363.6 अविशुद्धपुलाकसादृश्यात्— अविशुद्धतण्डुलसादृश्यात् । अविविक्तपरिवारः – असंयतपरिवारः । परिपूर्णोभयाः परिपूर्णमूलोत्तरगुणाः । दण्डराजिवत् - दण्डरेखावत् । उद्भिद्यमानः- उत्पद्य
मानः ।
सयम ... 114711
§. 912
364.5 अनुयोगः - प्रश्नः ।
8.913
364.9 अभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः - परिपूर्णदशपूर्व धरा: अक्षरेणापि भिन्नानि न्यूनानि न भवन्तीति ।
§. 913
364.11 अष्टो प्रवचनमातरः पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकागमः ।
[427
8.914
364.12 पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनवर्जनस्य च पराभियोगाद्- परोपरोधात् । श्रावकाद्युपकारोऽनेनेति मत्वा । अन्यतममेकं प्रतिसेवमानो विराधयन् । रात्रिभोजनवर्जनस्य कथं विराधनेति चेत् छात्रादिकं रात्रौ भोजयन् विराधको भवति ।
§. 914
364.14 शरीरसंस्कारो - अभ्यङ्गमर्दनादिः । §. 917
365.6 बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः षडपि । कृष्णलेश्यादित्रयं कथं तयोरिति चेदुच्यते तयोरुपकरणासक्तिसंभवादार्तध्यानं कादाचित्कं संभवति । आर्तध्यानेन च कृष्णलेश्यादित्रयं संभवतीति । कषायकुशीलस्य चतस्र उत्तराः कापोतलेश्या ततोऽप्युक्तन्यायेन बोधव्या तस्यापि संज्वलनमात्रान्तरङ्गकषायसद्भावेन परिग्रहासक्तिमात्र सद्भावात् ।
8. 919
365.12 कषायनिमित्तानि कषायास्तरतमभावेन भिद्यन्ते इति कषायनिमित्तानीत्युच्यन्ते । तत्र तेषु असंख्यात मानावच्छिन्नसंयमस्थानेषु मध्ये सर्वजघन्यानि लब्धिस्थानानि —संयमस्थानानि ।
इति नवमोऽयायः ।
मोहक्षयात् m1m
§. 9.21
367.12 अथाप्रवृत्तकरणपूर्वचारित्रम् । यदि वा अथाप्रवृत्तकरणं --- अथाप्रवृत्तकरणमुच्यते परिणामविशेष इत्यर्थः । कीदृशास्ते तच्छन्दवाच्या इति चेत् उच्यते – एकस्मिन्नेकस्मिन् समये एकैकजीवस्या
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4281
सर्वार्थसिद्धि
संख्येयलोकमानावच्छिन्नाः परिणामा भवन्ति । तत्रा- --विशेषव्यपदेशरहितेन सर्वसावधविरतोऽस्मीत्येवंप्रमत्तादिगुणस्थाने पूर्वसमये प्रवृत्ता यादृशाः परिणा- रूपेण सामायिकेन, ऋजुसूत्रनयाद्यथाख्यातेनैकेन व्यवमास्तादशा एव । अथानन्तरमुत्तरसमयेषु आसमन्ता- हारनयात् पञ्चभि: परिहाररहितैश्चतुभिर्वा सिद्धिः । प्रवत्ता विशिष्टचारित्ररूपा अथाप्रवृत्तकरणशब्द- स्वयमेव ज्ञानं स्वशक्तिः । ऋजुसूत्रनयादेकेन केवलवाच्या:। अभिनवशुभाभिसंधि:-धर्म्यशुक्लध्याना- ज्ञानेन, व्यवहारनयात् पश्चात्कृतमतिश्रुतज्ञानद्वयेन भिप्रायः । कषायाष्टक-अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्ट- मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयेण मतिश्रुतमनःपर्ययज्ञानत्रयेण यस्य पूर्वमेव विनष्टत्वात् मध्यमकषायाष्टकं गृह्यते। वा मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानचतुष्टयेन वा सिद्धिः । बादरकृष्टिविभागेन--स्थूलकर्मपर्यायभेदेन उपायद्वा- मतिश्रुतयोः पूर्व स्थित्वा पश्चात् केवलमुत्पाद्य रेण फलमनभय निर्जीर्यमाणमुद्धरितशेषमुपहतशक्तिकं सिद्धयन्तीत्येवं सर्वत्र योज्यम् । तदुक्तमकर्म कृष्टिरित्युच्यते । धृतकृष्टिवत् । सा च द्विप्रकारा भवति बादरेतरविकल्पात् । 'बादर किट्टी पछायडेयरसिद्ध दगतिगचवणाण पंचचदरयमे। सुहम किट्टी इत्यभिधानात्।' अवतारितमोहनीयभारः
-प्रा० सिद्ध भक्ति, गा० 4 । –स्फेटितमोहनीयभारः । अप्रत_विभूतिविशेषअचिन्त्यविभूतिमाहात्म्यम् ।
अर्धचतुर्था रत्नयः । तथाहि-यः षोडशवर्षेः सप्त
हस्तो भविष्यति गर्भाष्टमवर्षेऽर्धचतुर्थारत्निप्रमाणो औपशमिक ...113॥
भवति । तस्य च मक्तिरस्ति । एवं कालादिविभागेऽपि ६. 925
कालगतिलिङ्गादिभेदेऽपि । तत्र कालस्त्रिविध उत्सपि.
ण्यवसपिण्यनुत्सपिण्यवसर्पिणीभेदात् । तत्र सर्वत्रः 370.4 अन्यपारिणामिकभावसत्त्ववस्तुत्वामूर्त
स्तोका उत्सपिणीसिद्धाः । अवसर्पिणीसिद्धा विशेषात्वादि ।
धिकाः। अनुत्सपिण्यवसर्पिणीसिद्धाः संख्येयगुणाः । अन्यत्र " ||4||
ऋजसूत्रनयापेक्षया त्वेकसमये सियन्तीति नास्त्य
ल्पबहुत्वम् । गति प्रति ऋजुसूत्रनयापेक्षया सिद्धिगतो 8. 927
सिद्धयन्तीति नास्त्यल्पबहुत्वम् । व्यवहारनयापेक्षया 371.1 अवशेषः -अवस्थितिः ।
पुनरनन्तरमनुष्यगतौ सियन्तीत्यल्पबहुत्वाभावः ।
एकान्त रगतो त्वस्तीति तदुच्यते-सर्वतः स्तोका पूर्वप्रयोगात ... ||61
स्तिर्यग्योन्यन्तरगतिसिद्धाः, मनुष्ययोन्यन्तर६. 932
गतिसिद्धाः संख्येयगुणाः । नरकयोन्यन्तरगतिसिद्धाः
संख्यगुणाः । देवयोन्यन्तरगतिसिद्धा संख्येयगुणाः । 372.1 हेत्वर्थः पुष्कलोऽपि-हेतुरूपः प्रचुरोऽपि ।
ऋजुसूत्रनयापेक्षयाऽवेदास्सियन्तीत्यल्पबहुत्वाभावः । आविद्ध ...॥7॥
व्यवहारनयात् सर्वतः स्तोका नपुंसकवेदसिद्धाः ।
स्त्रीवेदसिद्धाः संख्येयगुणाः। पंवेदसिद्धाः संख्येयगुणाः । 372.12 संबन्धनिरुत्सुका-संबन्धरहिता।
तदुक्तम्क्षेत्र ... ॥9॥
'वीस णवंसयवेदा थोवेदा तहय होति चालीसं। ६.937
अडदालं पुंवेदा समयेणेगेण ते सिद्धा।" 373.8 प्रत्युत्पन्न:-ऋजुसूत्रः । भूतानुग्रहतन्त्रो- इत्येवमाद्यशेषतः प्रवचनादवगन्तव्यमिति । व्यवहारः । संहरणं प्रति क्रोधादिवशाद्देशान्तरे नयनं संहरणम् । मनुष्यक्षेत्रे अर्धतृतीयद्वीपेषु । अव्यपदेशेन
दशमोऽध्यायः समाप्तः ।
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________________
प्रशस्तिः
ज्ञानस्वच्छ जलस्सुरत्ननिचयश्चारित्रवीचिचयसिद्धान्तादि समस्तशास्त्रजलधिः श्रीपद्मनन्दिप्रभुः । तच्छिष्यान्निखिल प्रबोधजननं तत्त्वार्थ वृत्त ेः पदं सुव्यक्तं परमागमार्थविषयं जातं प्रभाचन्द्रतः ॥
श्रीपद्मनन्दिसंद्धान्तशिष्योऽनेकगुणालयः । प्रभाचन्द्रश्चिरं जीयात पादपूज्यपदे रतः ॥
मुनीन्दुर्नन्दितादिन्दन्निजमानन्दमन्दिरम् । सुधाधारोद्गिरन्मूर्तिः काममामोदयज्जनम् ॥
इति तत्त्वार्थवृत्तिपदं समाप्तम् ।
ग्रन्थोऽयं वेणुपुरे (जंनमूडविडी) निवसिता 'एन नेमिराजेन' इत्याख्येन मया लिखितः । रक्ताक्षि सं० कार्तिक कृ०प० सप्तम्यां तिथौ समाप्तश्चेति विरम्यते समाप्तः ।
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________________
परिशिष्ट 3
तत्वार्थवृत्तिपदे उद्धृतपद्यानुक्रमणी
अट्ठ तीसद्धलवा [ गो० जी० 574] अट्ठेव सयसहस्सा [गो० जी० 628] अप्पज्जत्ताण पुणो
अर्थस्यानेकरूपस्य [अष्टशतीसे उद्धृत ] अंतो कोडाकोडी
कंपय अणुमणिय [ भ० आ० 562 ] आवलिअसंखसमया [गो० जी० 562] एइंदिय वियलिंदिय
एगं पणवीसं पिय
काऊ काऊ तह [मूलाचार 1134] कारणकज्ज विहाणं
खवणाए पट्ठवगो [पञ्चसं२ 41203 ] कसायाण पुण
गूढसिरसंधिपव्वं [गो० जी० 387 ] छण वेणि अट्टय
जोगा पडदेसा [ पञ्चसं० 41513] णलया बाहू य तहा [गो० क० 28] णवणवदि दोणि सया
चिदधा सत्य [ वा० अणु० 28 ] तिष्णिसया छत्तीसा [गो० जी० 123] तिष्णिसहस्सा सत्तय
तिन्हं दोन्हं दोण्हं [गो० जी० 533] तिह्यं सत्त वित्त
ते ते तह तेऊ [पञ्चसं० 11189] तेरसकोडीदेसे [ गो० जी० 641] asदुगे ओलं [ पञ्चसं 11199]
पृष्ठ
401
395
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414
423
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393
416
403
401
399
423
399
395
400
दंसणमोहक्खवगो [ पञ्चसं० 11202 ] दहकोडाकोडिउ
दो दो चउ चउ दो दो
पच्छायडे य सिद्ध [ सिद्धभ० 4]
पsिहमुच्चद्वाणं [वसु० श्रा० 224 ] पढमप्पढमं णियदं
पंचम आणद पाणद [मूलाचार 1149]
पुढवी पुढवीकाओ
पुव्वस्सदु परिमाणं
बत्तीसं अडदाल [ गो० जी० 627]
बंधं पडि एयत्तं
भवत्यभावोऽपि च [युक्त्यनु० 60 ]
मणपज्जवपरिहारो [ पञ्चसं० 11194 ] मिथ्या दर्शनप्राप्ते
मिस्सेणाणाणतियं
रयणप्पहाए जोयण [मूलाचार 1142]. वज्जियणाणचक्कं
वर्ग: शक्तिसमूहो [सं० पं० सं० 1145] विगलिदिए असीदि [ भावपा० 29] विसवेयणरत्तक्खय [ गो० क० 57] वीनसय वेदा
सक्कीसाणा पढमं [मूलाचार 1148] सत्ताई अट्ठता [गो० जी० 632] सम्मत तदिणा [पञ्चसं० 11205] सोलसगं चउवीगं
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390
3.91
218
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413
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391
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389
403
416
428
9413
495
410
393
Page #551
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________________
परिशिष्ट 4
उद्धृतवाक्य-सूचि
[सर्वार्थसिद्धिमें हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे जो गाथा, श्लोक या वाक्य उद्ध त मिलते हैं वे किन ग्रन्थों के हैं या किन ग्रन्थोंके अंग बन गये हैं यहाँ उन ग्रन्थोंके
नाम निर्देशके साथ यह सूची दी जा रही है।
557 574
16 186 681 164
553
693 731 529
166
687 20
277
अण्णोण्णं पविसंता [पंचत्थि० गा०7] अत्तादि अत्तमझ [णियमसार 26] अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा । [पा० म० भा० पृ० 335, परि० शे० ५.० 380] अनुदरा कन्या अन्नं वै प्राणाः अभ्र चन्द्रमसं पश्य अवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः [पा० म० भा० 2, 2, 2, 24] अश्ववृषभयोमथुनेच्छायाम् [पा० सू० वार्तिक] असिदिसदं किरियाणं गो० क० गा० 876] आविष्टलिंगा' शब्दा न कदाचिल्लिगं व्यभिचरन्ति इन्द्रियं प्रमाणम् उच्चालदम्हि पादे [प्रवचन० क्षे० 3, 16] उपयोग एवात्मा उस्सप्पिणि अवसप्पिणि [बारह अणुपेक्खा 27, सुदखंड 2] ओगाढगाढणिचिओ कल्प्यो हि वाक्यशेषो वाक्यं च वय॑धीनम् [पा० म० भा० 1, 1, 8] क्व भवानास्ते? आत्मनि काकेभ्यो रक्ष्यतां सपिः कारणसदृशं हि लोके कार्य दृष्टम् कारीषोऽग्निरध्यापयति [पा० म० भा० 3, 1, 2, 26] क्षणिकाः सर्वसंस्काराः क्षत्रिया आयाताः, सूरवर्माऽपि गुण इदि दवविहाणं चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम् जोगा पयडि पएसा [मूला० 244, पंचसं० 4, 507 गो० क० गा० 257] णवदुत्तरसत्तसया [ति० सा० गा० 332] णहि तस्स तणिमित्तो प्रवच० क्षे० 3, 17] णिच्चिदरधातुसत्त य [मूलाचार 529 एवं 12.63, गो० जी०"] णिद्धस्स णि ण दुराधिएण [षट्खण्डागम, गो० जी० 614]
553 841 549 819 206 569
180
19 600
2
736 465 687 324 596
Page #552
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________________
432
गिरवादि जहणादिमु [बारहअणुपेवखा 28]
तदस्मिन्नस्तीति
तस्य निवास:
वायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानम् [पा० मा० भ० . 1. 9]
धनं प्राणाः
न दुःखं न तु
यद्वद्
न दुःखं न सुखं यद्वद्धे तु०
नान्यषावादिनो जनाः
ध्रुवेत्यः [जैनेन्द्र० 3, 8, 82]
पुट्ठे सुणेदि सद्दं [पंचसंग्रह 1, 68] पुरुष एवेदं सर्वम्
उद्भुत वाक्य-सूची
पुब्वसदु परिमाणं [ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 13 12] प्रथिव्यादिजातिभिन्नाः परमाणवः
प्रथिव्यप्तेजोवायवः काठिन्यादि
प्रथिव्यादीनि चत्वारि भूतानि
प्रगृह्य प्रमाणतः परिणतिविशेषादर्थावधारणं नयः
प्रत्यासत्तेः प्रधानं बलीयः
प्रदीप निर्वाणकल्पमात्मनिर्वाणम् बुद्धादिवंशेधिकगुणोच्छेदः पुरुषस्य मोक्षः
बंध पडि यत्त
मरदु व जियदु व जीवो [ प्रवचन० 17] रागादीणमणुप्पा
लोगागासपदेसे [गो० जी० 588, दब्वसं० 22]
हारुद्वारा पल्ला [तिलो० पं० 1 94 जंबू० प० 13,36]
विजानाति न विज्ञान [ ति० सा० 1, 94]
वियोजयति चासुभिर्न च [ सिद्ध० द्वा० 3. 16 ]
विशेषण - विशेष्यसंबन्धे
विशेषणं विशेष्येणेति [ जैनेन्द्र० 1, 3, 48 ] सकलादेश: प्रमाणाधीन विकलादेशी नवाधीनः
सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वक र्मत्वादि तत्त्वम् मन्निकर्षः प्रमाणम्
सम्हि लोयखेत्ते [वारह अपेक्खा 26]
सव्वा पर्याडीिओ [बारह अणुपेक्खा 29] सध्ये वि पोग्ला खल [वारह गया 25] साधी कार्य तप
श्रुते
सिद्धं विधिरारभ्यमाणो नियमार्थः
स्वयमेवात्मनात्मानं
278
479
479
485
681
630
630
890
533
203
12
426
236
236
236
24
16
2
2
269
687
705
602
439
179
687
20
527
24
12
166
276
279
275
569
200, 578
687
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
अकषाय
अकषाय वेदनीय
अकामनिर्जरा
अकायत्व
अगार
अगारिन्
अगुरुलघुगुण
अगुरुलघुनामकर्म
अग्निकुमार
अग्निमाणव
अग्निशिख
अग्निशिखा
अचक्षुदर्शनावरण
अचित्त
अचित्तयोनि
अच्युत
अ
अजीव
अजीवकाय
अज्ञातभाव
अज्ञान
324
324
478
541
18
527
619
264
835
अज्ञानपरीषहजय अज्ञानिकमिथ्यादर्शन 731
अणु 527,547, 574, 701
572
666, 701
717
717
703
703
702
418
अजघन्योत्कृष्टासंख्येय
अणुचटन
अणुव्रत
अतिक्रम
अतिचार
अतिथि
616
648
632, 635
602
697
697
अतिथिसंविभाग
अतिथिसंविभागवत
अतिदुष्षमा
568
755
453
453
453
932
744
परिशिष्ट 5
शब्दानुक्रमाणिका
अतिप्रसंग
अतिभारारोपण
अतिसन्धानप्रियता
अर्थ
अर्थाधिगम
अदत्तादान
अदर्शनपरिषहसहन
अदृष्ट
अद्धापल्य
अद्धासागरोपम
अधर्म
अधिकरण
अधिगमज सम्यग्दर्शन
अधोवेयक
अधोऽतिक्रम
अधोलोक
अर्धनाराचसंहनन अर्धपुद्गलपरिवर्तन
अर्धी
अध्र वावग्रह
अनक्षरात्मक
अनगार
अनंगक्रीडा
अनन्त
अनन्तगुणवृद्धि
अनन्तभागवृद्धि
अनन्तवियोजक
अनन्तानन्त
अनन्तानुबन्धी
अनर्थदण्ड
308
710
640
10
177
690
836
533
439
439
526
25. 619
अनर्थदण्डविरति
अनुगामि (अवधि) अनपवर्षायुष
717
479
755
258
410
193
572
697
714
542
279
279
907
545, 776
751
703
703
215
364
15
505
अनर्पित
अनवस्थित (अवधि)
587
215
अनशन तप
855
अनाकार (दर्शनोपयोग ) 273 अनाकाङक्षक्रिया
618
अनादर
720
अनादिसंबन्ध
340
अनादेयनाम
755
618
अनाभोगक्रिया अनाभोगनिक्षेपाधिकरण 626
319
579
अनाहारक
अनित्यानुप्रेक्षा अनित्थंलक्षणसंस्थान
872
अनिन्द्रिय
186
अनियतकाल ( सामायिक) 854 अनिवृत्तिबादरसाम्पराय
34
अनिःसृत
अनीक
अनुकम्पा
अनुक्त
अनुगामि (अवधि)
अनुग्रह
अनुदिश
अनुदिशविमान
अनुत्तरोपपादिकदश
210
अनुप्रेक्षा 788, 798, 867
अनुभव
736, 773 279
279
623
659
670
311
अनुभागबन्धस्थान अनुभागाध्यवसायस्थान
191
449
631
194
215
726
479
505
अनुमत
अनुत्सेक
अनुवीचिभाषण
अनुश्रेणी
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
434]
अनुश्रेणिगति
अनृत
अनृद्धिप्राप्तार्य
अनेकान्त
अन्तकृद्दश
अन्तर
अन्तर्मुहूर्त
अन्तराय
अन्नपाननिरोध
अन्त्य
अन्त्यसौक्ष्म्य
अन्त्यस्थौल्य
अन्यत्वानुप्रेक्षा
अन्यदृष्टिप्रशंसा
अन्यदृष्टिसंस्तव
अपध्यान
अपर्याप्तिनाम
अपरगा
अपरत्व
अपरा (स्थिति)
अपराजित
अपवर्ग
अपवर्त्यष
अपान
अपाय
अपायवितय
अपूर्वकरण
अप्रतिपात
314
अप्रत्याख्यानकिया
अप्रत्याख्यानावरण
अप्राप्यकारि
अर्पेण..
688
435
169
210
936
871
846
710
346
572
572
802
706
अप्रतीघात
338
अप्रवीचार
458
34
अप्रमत्तसंयत अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपःधिकरण 626 अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान 721
अप्रत्यवेक्षितानमा जितोत्सर्ग 721 अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जित
706
703
755
408
568
770
478
926
365
563
678
890
34
220
संस्तरोपक्रमण 721
618
751
204
588
अर्पित
अबुद्धिपूर्वा (निर्जरा)
अब्रह्म
अभव्य
अभव्यत्व
अभाषात्मक
अभिनिबोध
अभिभव
अभिमान
अभिषव
सर्वार्थसिद्धि
721
अभीक्ष्णजनोपयोग 635 अभ्यन्तरोपधित्यागव्युत्सर्ग 870 अभ्यर्हितत्व
17, 273
अमनस्क
281
अमनोज
676
अमनोज्ञसंप्रयोग (आर्तध्यान)
877
453
453
269, 602
375 अयत्नसाध्य (कर्माभाव ) 923 अयथाकाल
364
755
897
34
अमितगति
अमितवाहन
अमूर्त
अम्बारीष
अयशः कीर्तिनाम
अयोग
अयोगकेवली
अरति
587
807
693
268, 742
268
572
181
568
582
अरतिपरीयह जय
अरत्नि
अरिष्ट
अरुण
अरुणवरद्वीप
अरुणवरसमुद्र
750
847
483
491
490
379
379
534
563
425
267
33, 936
193 396, 548
अरूप
अलातचक्र
अलाभपरीषह विजय
अलेश्य
अल्पबहुत्व
अल्पस्यावग्रह
अवगाह
अवगाहना
अवग्रह
अवर्णवाद
अवद्य
अवधि
633
679
164
अवमौदर्यतप
855
अवसर्पिणी 277, 417, 418,
439
533, 34
215
189
313
317
570
682
778
855
729
585
356
491
617, 18
800
804
614
755
614
614
अवस्थित
अवस्थित (अवधि)
अवाय
अविग्रह
अनियमति
अविनाभावी
अविनेय
अविपाकजा (निर्जरा)
अविरत
अविरति
अव्यय
अव्याचाति
अव्याबाध
अव्रत
अशरणानुप्रेक्षा अशुचित्वानुप्रेक्षा
अशुभका योग
अणुभनाम अशुभ मनोयोग
अशुभयोग
अशुभवाम्योग
अशुभभूति
अश्व
936
189
614
703
491
422
236, 689, 89
अष्टमभक्त
असत् असमीक्ष्याधिकरण
असई द्य
'असाधारण (भाव)
असिद्धभाव
असुरकुमार
असुरभि
असुरभिगन्धनाम
720
745
269
265.
461
570
755
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट 5
[435
264
आहारपर्याप्तिनाम आहारमार्गणा
755
30
279
असंयत असंयम
187 असंख्येय 544, 334,540 असंख्येयगुण
334 अमरूपयगणवद्धि असंख्य यगुण निर्जरा 908 असख्ययभागवृद्धि 279 असंगत्व
931 अमंज्ञिपंचेन्द्रिय 288 असम्प्राप्तामपाटिकासंहनननाम
755 अस्तित्व
269 अस्तिनास्तिप्रवाद 210 अस्थिरनाम
755 अहमिन्द्र
493 अर्हत्पूजाकरणतत्परता 632
इक्षुवरद्वीप
379 इक्ष वर समुद्र
379 इत्वरिका
714 इत्थंलक्षणसंस्थान 572 इन्द्रक
473 इन्द्रिय 184, 294, 618 इन्द्रियपर्याप्तिनाम 755 इन्द्रियमार्गणा इन्द्रियविषय
676
34
40
आदित्य
491 आदेयनाम
755 आद्य
349 आद्यअणुव्रत
701 आधाराधेयकल्पना 549 आधाराधेयभाव 549 आधिकरणिकी क्रिया 618 आनत
479 आनयन
717 आनुपूर्व्यनाम
755 आपेक्षिकसौम्य 572 आपेक्षिकस्थौल्य 572 आभियोग्य
449 आभ्यन्तरनिर्वृति 294 आम्ल (रस)
569 आम्लनाम
755 आम्नाय -
867 आयत 430, 572 आयाम
395 आयुःप्राण
286 आयुःस्थिति 461 आरण
478 आरम्भ
638, 646 आरातीय
211
434 आलोकितपानभोजन 668 आलोचन
861 आवरण
737 आवलिका 275, 604 आवश्यकापरिहाणि 656 आशंसा
724 आसादन
627 आस्रव
17 आस्रवानुप्रेक्षा 805 आहार
319 आहारक
320 आहारकशरीर 330, 357 आहारकशरीरनाम 755 आहारकशरीररांगोपांगनाम
755
ईर्या ईपिथ ईर्यापथक्रिया ईर्यासमिति ईशान
616 616
618 668,794
478 189
m
उक्त
आ आक्रन्दन
630 आकाश - 526, 542, 43 आकिञ्चन्य
797 आक्रोशपरिषहसहन 826 आगम
211 आगमद्रव्यजीव
22 आगमभावजीव 22 आग्रायणीय
210 आङ
537 आचार
210
865 आर्जव
796 आज्ञाविजय
890 आज्ञाव्यापादिकी क्रिया 618 आतप
572 आतपनाम
755 आतध्यान
773 . आत्मप्रवाद
210 आत्मरक्ष
449 आत्मरक्षित
491 अ..मवध
705 आदान
691
आर्य
194 757 658 755 286 572 761 383 418 626
उच्चैर्गोत्र उच्छादन उच्छ्वासनाम उच्छ्वासनिःश्वासप्राण उत्कर उत्कृष्टस्थिति उत्तरकुरु उत्तरकुरुमनुष्य उत्तरगुणनिर्वर्तन उत्तरप्रकृति उत्पाद उत्पादपूर्व उत्तम उत्तमसंहनन उदय उदधिकुमार उदार
आचार्य
279
583 210 364 871 635 460 331
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
436]
सर्वार्थसिद्धि
210 210
755
अंगप्रविष्ट अंगबाह्य अंगोपांगनाम अंड अंडज अंतःकरण अंतःकोटाकोटी अन्तर अन्तराय अन्तर्मुहूर्त
326 326 187 258
245
ऋतु
32
627, 738 278, 438
755
उद्धारपल्य
439 उद्भावन 659 ऊर्ध्वातिक्रम
717 उद्योत
572 उद्योतनाम
755 उत्सर्गसमिति 794 ऋजुगति
320 उत्सर्पिणी 439, 418 ऋजुमतिमनःपर्यय 217 उत्सेध
371 ऋजुविमान
479 उपकरण 293, 703 ऋजुसूत्र उपकरणसंयोगाधिकरण 626
689 उपकार 557 ऋद्धिप्राप्त
435 उपग्रह
557 ऋद्धिप्राप्तार्य 435 उपघात
628 उपघातनाम
755 एकक्षेत्रावगाह 779 उपचारविनय 864 एकत्ववितर्क
906 उपन्यास
249 एकत्ववितर्कशुक्लध्यान 895 उपाध्याय 865 एकत्वानुप्रेक्षा
802 उपासकाध्ययन 210 एकयोग
897 उपपाद 321, 918 एकान्त
269 उपपादक्षेत्र
316 ___एकान्तमिथ्यादर्शन 731 उपपादजन्म
327 एकेन्द्रियजातिनाम उपभोग 346, 703 एरण्डबीज
932 उपभोगपरिभोगानर्थक्य 719 एवम्भूत
248 उपभोगपरिभोगपरिमाण 702, एषणासमिति
794 703 उपभोगान्तराय उपयोग 270, 295 ऐरावतवर्ष
385 उपरिमग्रैवेयक 504 ऐशानकल्प
478 उपवास
703 उपशम 268
आ उपशमक
औदयिक
252 उपशान्तकषाय 220 औदारकशरीर
330 उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ औदारिकशरीरनाम 755
औदारिकशरीरांगोपांगनाम उपशान्तमोह 908
755 उपसर्जनीभूत 588 औपपादिक
350 उपस्थापना
861 औपशमिकभाव उष्ण
324, 570 औपशमिकचारित्र उष्णनाम
755 औपशमिकसम्यक्त्व 259 उष्णपरिषहसहन 818 औपशमिकादि 924 उष्णयोनि
324 औषध
703
755
758
कटुकनाम कटुकरस
570 कठिन
570 कञ्चित्
586 कर्कशनाम
755 कर्म ____ 310, 610 कर्मद्रव्यपरिवर्तन 275 कर्मनोकर्मबन्ध 572 कर्मप्रवाद
210 कर्मभूमि
435 कर्मभूमिज म्लेच्छ 435 कर्मस्थिति
440 कार्य
435 कल्प 418, 447, 486 कल्पातीत
474 कल्पोपपन्न 446, 474 कल्याणनामधेय 210 कषाय 264, 615,729 कषायकुशील
910 कषायनाम
755 कषायरस
570 कषायवेदनीय
257 कषायाध्यवसायस्थान 279 कांक्षा
706 कापोतलेश्या
445 कापोतीलेश्या
371
907
349
251 259
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट 5
[437
251
793
कृत
570
शायोपशामिक क्षायोपमिकचारित्र 263 क्षायोगशमिकभाव 263 क्षायोपशामिकसम्यक्त्व 263 क्षायोपशमिकमयमासंयम 263
191 क्षीणकपाय 220,908 श्रीणकषायवीतरागछद्मस्थ 34 क्षीणमोह
907 क्षीरवरद्वीप क्षीरवरसमुद्र 379 क्षुद्रभव
276 क्षुद्रहिमवान्
385 क्षेत्र 32, 404,715, 937 क्षेत्रपरिवर्तन
276 क्षेत्रवृद्धि
716 क्षेत्रसंसार
276 क्षेत्रार्य
435 क्षेमकर
491
379
कुन्जसंस्थाननाम 755 कुप्य
714 कुल
821 कुलपर्वत कृपलमला (निर्जरा) 807 सुशील
909 कूटलेख क्रिया
623 कृष्ण कृष्णवर्णनाम 755 कृष्णलेण्या 371, 445 केवल
164,920 केवलदर्शनावरण 744 केवलि-अवर्णवाद 634 केवलिन् 633,892 केसरिन कोटाकोटी
760 क्रोध
670 क्रोधप्रत्याख्यान 671 कोत्कुच्य 718,719 कन्दप
719
626
392
कापिष्ठ
478 कामचार
491 कामतीवाभिनिवेश 714 कार्गणकाययोगस्थ 286 कार्मणणगेर 310,330 कामशरीग्नाम 755 काय
286,526 कायद्यप्ति कायक्लेणतप
855 कायत्व
602 कायदुष्प्रणिधान 720 कायनिसर्गाधिकरण कायबलप्राण
286 कायमार्गणा
34 काययोग 610, 897 कायस्वभाव
684 कास्थिति कायिकी क्रिया
618 कारणविपर्यास 237 कारित
623 कारुण्य
682 कार्यकारणभावसन्तति 341 काल 33, 453, 577, 601
102,936 कालनियम
312 कालपरमाण
528 कालपरिवर्तन
277 कालव्यभिचार 246 काललब्धि
258 कालसंसार
277 कालादि क्रम
723 कालोद
379 किन्नर 453,462 किम्पुरुष 453,462 किल्विपिक
449 क्रिया 539.568, 617 क्रियाविशाल
210 क्लिश्यमान
683 कीति
402 ""कासहननाम 755
439
खण्ड
572
865
क्षपक
908 क्षमा
796 क्षय
215, 252 क्षयोपशम
215 क्षयोपशम निमितक-अवधि
212, 214 क्षायिक
251 क्षायिक उपभोग 260 क्षायिकजान
260 क्षायिकदर्शन
260 क्षायिकदान
260 क्षायिक भोग
260 क्षायिकलाभ
260 क्षायिकवीर्य
260 क्षायिकसम्यक्त्व 260-
गंगा.
385,404 गण गति 264,482,558,755 गतिमार्गणा
34 गन्ध
299, 570 गन्धनाम
755 गन्धर्व
462 गर्दतोय गर्भ
591,599, 606 गुणकार
335 गुणस्थान
34 गुणाधिक
682
491 321
गुण
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
438]
सर्वार्थसिद्धि
गुप्ति
6,788
847
788, 792
570 755 705
गुरुनाम गृहस्थ ग्रं वेयक गोत्र ग्लान
चारित्र चारित्रमोह चारित्रविनय चारित्रार्य चित्त चिन्ता
864 435 323 181
478
ज्ञ ज्ञातभाव
619 ज्ञातृधर्मकथा 210 ज्ञान 6, 272, 926, 936 ज्ञानप्रवाद
210 ज्ञानविनय
864 ज्ञानवरण 737, 844 ज्ञायकशरीर ज्ञानोपयोग
273
738 865
572
22
चूर्णिका चूलिका
572 210
घन
घनवातवलय घनांगुल घनोदधिवलय
570
367 276,760
367
छमस्थ
273 छद्यस्थवीतराग 839 छाया
711, 861 छेदोपस्थापनाचारित्र 853
572
घृतवरद्वीप
379 398
घृतवरसमुद्र
घ्राण
288
367
298
744
तप
288 433 701 422
572
तत
572 तत्व
10, 20 तत्त्वार्थ
9, 10 तत्त्वाधिगम
23 तथागतिपरिणाम
931 तद्व्यतिरिक्तजीव ___22 तदाहृतादान
712 तदुभय (प्रायश्चित्त) 862 तनुवातवलय तन्मनोहरांगनिरीक्षणत्याग
674
656,796 तपःप्रायश्चित्त
861 तपस्विन्
86 तमस्
572 तमःप्रभा
366 ताप
630 तिक्त
570 तिक्तनाम
755 तिगिञ्छ
392 तिर्यगतिक्रम
717 तिर्यग्गति
755 तिर्यग्योनि
495 तिर्यग्यो निज
441 तिर्यग्लोक
471 तीर्त
915 तीर्थकर तीर्थकरत्वनाम 755
453
चक्षुष चक्षुर्दर्शनावरण चक्षुःप्राण चतुणिकाय चतुर्थ-अणुव्रत चतुर्यभक्त चतुरस्र चतुरस्रादि चतुरिन्द्रिय चतुरिन्द्रियजातिनाम चन्द्राभ चमर चरम चरमदेह चरमोत्तमदेह चर्यापरिषहसहन चाक्षुष चाप
जगत्स्वभाव
685 जधन्यगुण
592 जन्म
324 जम्बूद्वीप 378,379 जम्बूवृक्ष 383, 430 जयन्त
478 जरायु
325 जरायुज
3212 जलकान्त जलप्रभ
453
755 जात्यार्य
435 जिन
840, 841 जीव 17, 296, 734 जीवत्व
267 जीवसमास
34 जीवाधिकरण 623 जीवित
56: जीविताशंसा
724 जुगुप्सा
750
जाति
381 288 565 191 453 365 365 364 423 579 422
|
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट 5
[439
492, 493
493 701
701
288
द्विचरम द्विचरमदेहत्व द्वितीय-अणुव्रत द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियजातिनाम द्वीप द्वीपकुमार यणुक
755
देव
तीव्रभाव
619 तुषित
491 तृणस्पर्शपरिषहविजय 831 तृतीय-अणुव्रत तेजसशरीरनाम तैर्यग्योनायु
753 तोरणद्वार
409 त्याग
655,797 त्रस
701, 754 त्रसनाम
755 त्यस्त्र
572 त्रायस्त्रिश
449 त्रियोग
898 श्रीन्द्रिय श्रीन्द्रियजातिनाम
754 378 460
545
676
दुःप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण 626 दुष्पमा
418 दुष्षमसुषमा
418 दुःस्वरनाम
755 दृष्टिवाद
210
442, 633 देवगति
755 देवातिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम 755 देवषि
491 देवावर्णवाद
634 देवी
402
370,371 देश
666,702 देशनियम
312 देशप्रत्यक्ष
212 देशविरत
885 देश विरति देशघातिस्पर्धक
263 देवकुरवक
422 दैवायु
752 दंशमशकपरीषहक्षमा 819 धुति
480 द्रव्य 21, 241,528, 581
देह
288 751
म
702
873
34
धन
714 धनुष्
422 धरण
453 धर्म 526, 633,788 धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा 810 धर्थध्यान धर्मावर्णवाद
634 धर्मास्तिकाय 561, 934 धर्मोपदेश
867 धान्य
714 धारणा
189, 196 घातकीखण्ड 379, 430 घातकीवृक्ष
430 ध्यान
857, 871 धूमप्रभा
366 धृति
402 ध्रुव
192 ध्रुवावग्रह
196 ध्रौव्य
583
दशवकालिक
211 दर्शन 6, 190, 273, 926 दर्शनक्रिया
618 दर्शनमार्गणा दर्शनमोह
846 दर्शनमोहक्षपक 907 दर्शनविनय
864 दर्शनविशुद्धि
655 दर्शनार्य
435 दर्शनावरण
737 दर्शनोपयोग
273 दातृविशेष
727 दान
632,726 दानान्तराय
758 दास
714 दासी
714 दिक्कुमार
460 दिगन्तरक्षित
493 दिग्विरति
702 दिशा
531 दु:ख 564, 629, 680 दुर्भगनाम
755 दुष्पक्व
599 924
563
द्रव्यकर्म द्रव्यजीव
22 द्रव्यत्व
529 द्रव्यपरमाणु
906 द्रव्यपरिवर्तन
275 द्रव्यमन 282, 531, 563 द्रव्यवाक द्रव्यविशेष
727 द्रव्यलिग 363,916 द्रव्यलेश्या
265 द्रव्यसंवर
785 द्रव्याथिकनय द्रव्याश्रय
605 द्रव्येन्द्रिय
292 द्विगुण द्विगुणद्विगुण
413
410
नदी नन्दीश्वरद्वीप नन्दीश्वरसमुद्र नपुंसक नपुंसकवेद नय नरक नरकगतिनाम
379
379 358, 363
750 24, 240
369 753
410
721
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
440]
नरकगतिप्रायोग्यानुपूज्यनाम
नरकप्रस्तार
नागकुमार नाम्यपरीषह नाम (कर्म)
नामजीव
नामनिक्षेप
नामप्रत्यय
नारक
नारकभाव
नारकापु
नाराचसंहनननाम
निकाय
निक्षेप
निगोद्रजीव
निर्गुण
निर्ग्रन्थ
निर्जरा
निर्जरानुप्रेक्षा
625
555
605
909
17, 777, 790
807
371, 585
269 697, 723
883
657
743
743
25
223
755
निर्माणरज :
491
नियतकाल ( सामायिक) 854
निरपवाद
706
343
347
625
नित्य
नित्यत्व
निदान
निदान (ध्यान)
निन्दा
निद्रा
निद्रानिद्रा
निर्देश
निबन्ध
निर्माण
निरवशेष
निरुपभोग
निर्वर्तना
निर्वर्तनाधिकरण
निर्वृति
निःशीलता
निःश्रीसव्रत
755
369
460
820
738
22
22
779
359, 368
265
752
755
442
626
293
640
645
निसर्ग
निसर्गक्रिया
निःसृत
निःसृतावग्रह
निषेध
निद्रव
नीचगत्र
निपद्यापरीषहविजय
निष्कुटक्षेत्र
निष्क्रिय
नीबू ति
नील
नीलवर्णनाम
नीललेश्या
नृलोक
नैगमनय
सर्वार्थसिद्धी
नैसगिक (मिथ्यादर्शन)
नैसगिक (सम्यग्दर्शन)
न्यासापहार
नोआगमद्रव्यजीव
नोआगमभावजीव
नोआगमभाविजीव
नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन नोकषायवेदनीय
न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान
पद्म
पद्यलेश्या
625
618
194
193
386
824
716
539
627
757
659
386,570
755
271, 445
470
240
731
15
22
22
22
275
257
पप्रभा
पञ्चम (अणुव्रत ) पञ्चेन्द्रियजातिनाम
पर
परघातनाम
परत्व
परप्रत्यय उत्पाद
परमार्थंकाल
परविवाहकरण
परव्यपदेश
नाम 755
711
266
701
755
392
485
333
755
568
539
568
713
723
परा (स्थिति)
परा (प्रमाण)
परिकर्म
परिवह
परिणाम
परिभोग
परिमण्डल
परिवर्तन
परिवारप
परिषद्
परिषत्क
275
403
403
403
परिवह
788
861
परिहार ( प्रायश्चित्त) परिहारविशुद्धिचारित्र 853
545
812
परीतानन्स
परीषह
परोक्ष
परोपकार
परोपदेशनिमित्तक
210
883, 638, 695
371, 607
703
572
पल्य
पल्योपम
पाप
पाप (बन्ध ) पापोपदेश
पारिग्रहित किया
पारिणामिक
पारिणामिकभाव
पारितापिकी क्रिया
पारिषद्
पीत
760
24
( मिथ्या० ) 731
672
परोपरोधाकरण पर्याप्तिनाम
755
पर्याय 241, 599, 606 पर्यायाधिकनय
24 438
325, 422
614, 783
781
703
618
251, 597
266
618
449
570
484
444
816
462
392
पीतलेश्या
पीता (लेश्या)
पिपासासहन
पिशाच
पुण्डरीक
174
726
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्य पुष्प (बन्ध)
पुद्गल पुद्गलक्षेप
पुद्गलस्कन्ध
पुमान्
पुरुषव्यभिचार
पुलाक
पुष्कर
पुष्करवरद्वीप
379
473
750
453
453
406, 427
426
210
406
931
674
891
पूर्वरतानुस्मरणत्याग पूर्ववित् पृथक्त्ववितकंवीचारभा 906 पृथक्त्ववितर्कशुक्लध्यान 895
286
286
286
286
326
449
736
760
743
पुष्करवर समुद्र
पुष्पप्रकीर्णक
पुंवेद
पूर्ण
पूर्णभद्र
पूर्व
पूर्वकोटी
पूर्वगत
पूर्वगा
पूर्वप्रयोग
पृथिवी पृथिवीकाय पृथिवी कायिक
पृथिवीजीव
पोत
प्रकीर्णक
प्रकृति
प्रकृतिबन्धविकल्प
प्रचला
प्रचलाप्रचला
प्रच्छना
प्रशापरिषहजय
प्रतर
प्रतिक्रमण
प्रतिषात
प्रतिपात
614, 781
781
275, 544
717
780
363
246
909
400
379
743
867
834
572
861
565
220
प्रतिरूप
प्रतिरूपकव्यवहार
प्रतिश्रय
प्रतिसेवना
प्रतिसेवनाकुशील
परिशिष्ट 5
प्रतीघात
प्रथमसम्यक्त्व
प्रथमानुयोग
प्रदेश 334,540,736,780
प्रदेशप्रचय
प्रदेशबन्ध
प्रदेशवत्त्व
602
780
269
प्रदेशसंस्थानविष्कम्भ 382
628
453
686
453
712
703
914
910
339
258
210
प्रदोष
प्रभञ्जन
प्रमत्त
प्रमत्तसंयत 34 732, 886 प्रमार्जित 720 23, 171
प्रमाण
प्रमाणनिर्माण
755
प्रमाणफल
169
प्रमाणांगुल
प्रमाद
प्रमादाचरित
प्रमोद
प्रत्यक्ष
प्रत्यभिज्ञान
प्रत्यवेक्षण
प्रत्याख्यानपूर्व
प्रत्याख्यामावरण
प्रत्येकबुद्धबोधित
प्रत्येकशरीरनाम
प्रयोगक्रिया
प्राण
प्राणत
प्रवचनवत्सलत्व
प्रवादिन्
प्रवीचार
प्रशंसा
प्रश्नव्याकरण
439
687, 729
703
682
176
586
721
210
751
936
755
618
656
559
455, 457
657, 706, 707
210
286, 563
478
प्राणव्यपरोपण
प्राणातिपातिकी क्रिया
प्राणापानपर्याप्तिनाम
प्राणावाय
प्रात्ययिकी क्रिया
प्रादोषिकी किया
प्राप्यकारि
प्रायश्चित्त तप
प्रायोगिक
प्रायोगिक बन्ध
प्रायोगिकी
प्रेष्यप्रयोग
प्रोषध
प्रोषधोपवास प्रोषधोपवासव्रत
बन्ध
ब
17, 572, 589,
711, 735
931
755
783
बहु
191, 194
बहुविध
191, 194
बादर
555
बादरनाम
755
बादरसाम्पराय
842
बाल तप
632, 648
294
बाह्यनिवृति बाह्योपधित्यागव्युत्सर्ग 870
402
बन्धच्छेद
बन्धननाम
बन्धपदार्थ
बुद्धि
बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा
ब्रह्म
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मलोकालय
ब्रह्मा
ब्रह्मोत्तर
[441
687
618
755
210
618
618
204
857
572
572
568
717
703
703
702
भक्ति
809
478, 693
797
488
479
478
भ भक्तपानसंयोगाधिकरण 626
656
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
442]
747
385
427
460
278
212
440
568
253, 268, 742
268, 924
34
भाव
21, 32
भावकर्म
924
भावजीव
भावना
22 664, 673 906 भावमन 282, 531, 563
भावपरमाणु
भावलिंग
भावलेल्या
भय
भरतवर्ष
भरतविष्कम्भ
भवनवासी
भवपरिवर्तन
भवप्रत्यय-अवधि
भवस्थिति
भविष्यत्
भव्य
भव्यत्व
भव्यमार्गणा
भाववाकू
भावसंवर
भावसंसार
भावागार
भाषापर्याप्तिनाम
भाषालक्षण
भाषासमिति
भिक्षा
भीम
भीरुत्वप्रत्याख्यान
भूत
भूतानन्द
भूमि
भेद
भेदाभेदविपर्यास
शुद्धि भोगभूमि भोगान्तराय
मति
363, 916
264
म
563
785
279
699
755
572
670
462, 568, 631
453
366
572, 575
236
672
437
794
703
453
759
163, 181
मधुर
मधुरनाम
मध्यग्रैवेयक
मध्यप्रदेश
मन
मन:पर्यय मनः पर्याप्तिनाम
मनःप्रवीचार
मन्दभाव
मनुष्यगति
सर्वार्थसिद्धि
मनोगुप्ति
मनोज
मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम
मनोयोग दुष्प्रणिधान मनोबलप्राण
मनोयोग
मनोनिसर्गाधिकरण
मरण
मरणासा
मरुद्
मलपीडासहन
महाकाय
महाकाल
महाघोष
महातमः प्रभा
महापद्म
महापुण्डरीक
महापुरुष
महाभीम
महामन्दर
महाव्रत
महाशुक्र
महास्कन्ध्र
महाहिमवान्
कले
महेन्द्र
महोरग
नात्मय मार्गणास्थान
570
755
505
541
563
164, 216
755
456
619
755
755
669, 793
676, 865
719
288
610
626
565 705
724
492
832
453
452
453
367
392
392
453
453
479
666
478
572
385
435
479
462
628, 723 34
मात्र भावना
मणिभद्र
मार्दव
मानुषोत्तरशेल
माया
मायाक्रिया
मारणानि की
माहेन्द्रकल्प
मित्रानुराग
मिथुन
मिथ्यात्व
मिथ्यात्व किया
मिथ्यादर्शन
गिध्यादर्शनक्रिया
मिष्यावृष्टि भिष्योपदेश
मिश्र (भाव)
मिश्र (योनि)
मुक्त
मुख्यकाल
मूर्च्छा
मूर्त
मूर्ति
मूर्तिमत्त्व
मूलगुण निर्वर्तन
मूलप्रकृति
मृदुनाम
मेरु
मेरुचूलिका
मेस्नाभि
मैत्री
मैद
मोक्ष
मोक्षमार्ग मोक्ष हेतु मोहनीय
मौर्य
656
453
644, 796
434
639, 697
य
6,18
705
479
723
693
749
618
697, 729
618 34,786
711
252
324
274,280
603
694
269
535
564
626
279
755
382
479.
383
382
692
1, 8, 17, 922
4, 8 19 737 719
यक्ष
462
यत्नसाध्य (कर्माभाव ) 923
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट 5
[443
364
वसु
584
लक्षण लक्ष्मी लक्ष्य
402 584 584
लघु
यश:काल यथाख्यातचारित्र 853 यशःकीर्तिनाम
754 याचनापरीषहसहन 828 युक्तानन्त
545 योग 310, 632, 729 योगदुष्प्रणिधान
719 योगनिग्रह
792 योगमार्गणा
34 योगवक्रता
651 योगविशेष
779 योगस्थान
279 योगिप्रत्यक्ष
178 योजन
394 324
460
755
योनि
लक्ष्यलक्षणभाव
570 लघनाम
755 लब्धि
253,295 लब्धिप्रत्यय
252 लवणोद
378 लान्तव
478, 479 लाभान्तराय
759 लिंग 264,363,916,936 लिंगव्यभिचार
243 लेश्या 34,265,266,445
481,917 लेश्याविशुद्धि
480 लोक
276, 545 लोकक्षेत्र
276 लोकपाल लोकपूरण (समुद्घात) 541 लोक बिन्दुमार
210 लोकाक!श 541,548 लोकानुप्रेक्षा
808 लोकानुयोग 369,479 लोभप्रत्याख्यान लोहित लौकान्तिक
488
755
रक्तवर्णनाम रक्ता रक्तोदा रत्नप्रभा
वशिष्ट
453
491 वाक्प्राण
288 वाग्गुप्ति 668,793 वाग्दुष्प्रणिधान 719 वाग्निसर्गाधिकरण 626 वाग्योग
610 वाचना
867 वातकुमार वापी
405 वामनसंस्थाननाम वारुणीवरद्वीप 379 वारुणीवरसमुद्र 379 वालुकाप्रभा
366 वास्तु
714 विकलादेश
24 विक्रिया
331 विग्रह
310,314 विग्रहगति
309 विघ्न विचिकित्सा
706 विजय
478 विजयार्ध वितर्क
903
572 विदारण क्रिया
618 विदेह विदेहजन विद्यानप्रवाद
210 विद्याधर
434 विद्युत्कुमार
460 विधान (अनुयोगद्वार) 26 विधि
727 विधिविशेष विनय (तप)
857 विनयसम्पन्नता 655 विपर्यय
233 विपरीत (मिथ्यादर्शन) 731 विपाक
773 विपाकजा (निर्जरा) 778
385 385 369 750
662
449
रति
385
385
वितत
425
रम्यकवर्ष रस रसन (इन्द्रिय) रसनाम रसनप्राण रसपरित्याग रहोऽभ्याख्यान राक्षस राग रुविमन्
670 570
418
299,569
298 755 288 855 711 462 676
385 570, 589
755 535 456
728
रूक्षनाम रूप रूपप्रवीचार रूपानुपात रूपिन् रोगपरिषहसहन रौद्रध्यान
वकुश
909 वजनाराचसंहनननाम 755 वर्ण
299, 570 वर्णनाम
755 वर्तना
568 वध
630, 710 वधपरिपक्षमा 827 वनस्पति
303 वह्नि
490 वल यवृत्त
717
535
830
873
434
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
444]
सर्वार्थसिद्धि
216
825
473
478
324
453
572 572
588
वेदना आर्तध्यान 882 वेदनीय 737, 849 वेदमार्गणा
34 वैक्रियिकशरीर 330 वैक्रियिकशरीरनाम 755 वैक्रियिकशरीरांगोपांग
नाम 755 वैजयन्त वैनयिक (मिथ्यादर्शन) 731 वैमानिक
"473 वैयावृत्त्य 632, 656 वैयावृत्त्यतप
857 वैराग्य
684 वैरोचन वैलम्ब
453 वैससिक वैससिक बन्ध वैससिकी
568 व्यञ्जनावग्रह व्यन्तर
462 व्यपगतलेपालांबु व्यय
583 व्यवहार
245 व्यवहार काल 568, 603 व्यवहारपल्य
439 व्याख्याप्रज्ञप्ति
210 व्याघात
356
861 व्युत्सर्गतप
857 व्युपरतक्रियानिति 895 वृष्येष्टरसत्याग 674
663,708 व्रतिन
632
199
विपाकविचय
890 विपाकसूत्र
210 विपुलमतिमनःपर्यय विभंगज्ञान
239 बिमान विमोचितावास 672 विरत
907 विरताविरत
703 विरति
663 विरुद्धराज्यातिक्रम 712 विविक्तशय्यासनतप 855 विकृत विवृतयोनि
324 विवेक
861 विशुद्धि 219, 221 विशेष
588, 624 विशेषार्पणा विश्रेणिगति
314 विश्व
491 विषयनिबन्ध
225 विषयसंरक्षणस्मृतिसमन्वाहार
887-88 विष्कम्भ
380 विसर्प
557 विसवादन
652 विहायोगतिनाम वीचार
905 वीतरागसम्यक्त्व वीप्सा
624 वीर्य
620 वीर्यान्तराय
758 वीर्यानुप्रवाद
210 वत्त
572 वृत्तिपरिसंख्यान 855 वृद्धि
417 वृषभेष्ट
491 वेणुदेव वेणुधारी
453 वेद
362 वेदना
371
शुक्र
शब्दनय
246 शब्दप्रवीचार
456 शब्दानुपात
717 शय्यापरीषहक्षमा शर्कराप्रभा
366 शरीर
482, 562 शरीरनाम
755 शरीरपर्याप्तिनाम
755 शरीरोत्सेध
418 शल्य
696 शिखरिन्
386 शीत
570 शीतनाम
755 शीतयोनि
324 शीतवेदनासहन
817 शील
706,708 शीलवतेष्वनतिचार भावना
655
478, 479 शुक्ल
570 शुक्लध्यान
573 शुक्लेश्या 55, 485 शुक्लवर्णनाम 755 शुभनाम
755 शुन्यागारावास
672 शक्ष
865 शोक
629, 750 शौच
632,796 श्रावक
701, 907
402 श्रुत 164,205,301,
633,911 श्रुतकेवलिन् श्रुतज्ञान 207,302 श्रुताज्ञान
239 श्रुतावर्णवाद श्रेणि श्रेणीबद्ध
473 श्रेयस्कर
491 श्रोत्र
932
755
12
व्युत्सर्ग
211
शंका
264
453
शत
634 312
शतसहस्त्र शतार
283 283 478 299
शब्द
298
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रोत्रप्राण
288
279
षट्स्थानपतित षष्ठभक्त
34
422
555
34
618
656
721
सकलादेश
24 स कषाय 615,733 सक्रियत्व
602 सचित्त
323 सचित्त (योनि) 324 सचित्तनिक्षेप
722 सचित्तापिधान 723 सत् 32, 235, 581, 389 सत्कार-पुरस्कार परिषह
सहन 833 सत्त्व
682 सत्पुरुष
453 सत्य
796 सत्यप्रवाद
210 सत्याभ
491 सदुपशम
463 सदश
594 सद्वेद्य
745 सधर्माविसंवाद सनत्कुमार सन्निकर्ष
165 सप्रतिघात (शरीर) 555 समचतुरस्रसंस्थाननान 755 समनस्क 281, 307 समन्तानुपातक्रिया 618 समभिरूढ
247 समय
275 समवाय
210 सम्बन्ध
721 संभिन्नबुद्धि
664 सम्यक् चारित्र सम्यक्त्व 649,926 सम्यक्त्वक्रिया
618
परिशिष्ट 5 सम्यक्त्वप्रकृति 479 सम्यक्त्व-अधिकरण 28 सम्यक्त्व-निर्देश सम्यक्त्व मार्गणा सम्यक्त्व निधान 31 सम्यक्त्व साधन
28 सम्यक्त्व स्थिति 30 सम्यक्त्व स्वामित्व 25 सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन 4, 9, 10, 26 सम्यग्दृष्टि 749,907 सम्यङ मिथ्यात्व 749 सम्यङ मिथ्यादृष्टि सम्पराय
616 समादानक्रिया समाधि समारम्भ
624 समिति
488 सम्मिश्र समुच्छिन्नक्रियानिवति 906 समुद्र
378 सम्मूर्छन
321 सम्मूर्छनजन्म
329 सम्मूच्छिन
358 सयोगकेवली
34 सराग
632 सरागसम्यक्त्व __ 12 सराग संयम 632, 647 सरित्
404 सल्लेखना
705 सर्व
666 सर्वज्ञ
211,569 सर्वघातिस्पर्धक 263, 304 सर्वप्रत्यक्ष
212 सर्वरक्षित
491 'सर्वार्थसिद्धि
478 सहसानिक्षेपाधिकरण 627 सहस्त्र
382 सहस्रार
478 साकार
273
[445 साकारमन्त्रभेद 711 सागरोपम 258,439 सागरोपमकोटीकोटी 418 सादिसम्बन्ध
341 साधन
25 साधनव्यभिचार 246 साधारणभाव
269 साधारण शरीर साधारणशरीरनाम 755 साधु
865 साध्य
937 सानत्कुमार
478 सापवाद
706 सामान्य
588 सामानिक 402, 449 सामान्यसंज्ञा
527 सामान्यार्पणा 588 सामायिक (शिक्षाव्रत) सामायिकचारित्र 854 सामायिकव्रत
702 साम्परायिक
616 साम्य
594 सारस्वत
490 सासादनसम्यग्दृष्टि 34 सिद्धत्व
926 सिन्धु
385, 404
480, 564 सुघोष
453 624
479 सुपर्ण कुमार
460 शुभगनाम
755
570 सुरभिगन्धनाम 755
714 सुषमा
418 सुषमसुषमा
418 सुस्वरनाम
555 सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति 895,906
672
479
सुख
सुजन्त
सुधर्मा
सुरभि
सुवर्ण
755
सूक्ष्म
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
446]
सर्वार्थसिद्धि
755
297
210
स्व
सरम्भ
624 संवर
17,784,792 संवरानुप्रेक्षा
806 संवृत
323 संवृतयोनि
325 संवेग
655,684 संशय (मिथ्यादर्शन) 731 संसार संसारिन
274 संसार-हेतु संसारानुप्रेक्षा
801 संस्तव
707 संस्थाननाम
755 संहार
556
801
19
स्तेय
452
385
418
स्पर्शन (इन्द्रिय) स्पर्शनक्रिया
618 स्पर्शननाम
755 स्पर्शनेन्द्रियप्राण 286 स्पर्शप्रवीचार
456 स्थिर
755
726 स्वतत्त्व
251 स्वयम्भूरमणसमुद्र
379 स्वरूपविपर्यास 236 स्वातिसंस्थाननाम 755 स्वार्थप्रमाण
24 स्वामित्व
25 संकर
600 संक्लिष्टासुर
374 संख्या
32,936 संख्याव्यभिचार 240 संख्येय
544 संख्येय गुणवृद्धि
279 संख्येयभागवृद्धि 279 संग्रहनय
243 संघ
633,865 संघात
576 संघातनाम संघावर्णवाद
634 संज्वलन
751 संज्ञा
181,308 संज्ञित्व
308 सज्ञिपंचेन्द्रिय
288 संज्ञिन्
308 संस्थान
572 संस्थानविचय
890 संयत
632 संयतासंयत 34, 632 संयम 632,796,911 संयममार्गणा
34 संयमासंयम 932, 647 संयोग 589, 625
सूक्ष्मनाम सूक्ष्म निगोदजीव 276 सूक्ष्मसाम्पराय 34,838 सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र 853 सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाह 799
210 सूत्रकृत ( अंग) सूर्याभ
491 सौक्ष्म्य
572 सौधर्म
478 सौषिर
572 स्कन्ध
545, 573 स्तनितकुमार 460 स्त्यानगद्धि
743 स्तेनप्रयोग
712
690 स्तेयस्मतिसमन्वाहार 888 स्त्री
363 स्त्रीपरीषहसहन 822 स्त्रीसंगकथाश्रवणत्याग 674 स्त्रीवेद
750 स्थान
210,919 स्थाननिर्माण
755 स्थापना
21 स्थापनाजीव
22 स्थावर
384 स्थावरनाम
755 स्थति 25,366-77,480,
558,736 स्थितिबन्धविकल्प 760 स्थौल्य स्निग्ध
570 स्निग्धनाम
755
181 स्मृत्यनुपस्थान
720 स्मृत्यन्तराधान
716
299, 567 स्पर्शन (अनुयोगद्वार) 32
252
755
हरिकान्त हरिवर्ष हरिवर्षमनुष्य हरिसिंह हारिद्रवर्णनाम हारिवर्षक हास्यप्रत्याख्यान हिरण्य हिंसा हिंसाप्रदान हिंसास्मृतिसमन्वाहार हीनाधिकमानोन्मान हीयमान अवधि हुंडसंस्थान हुंडसंस्थाननाम हैमवतक हैमवतक मनुष्य हैमवतवर्ष हैरण्यवतवर्ष
755 421 670 714 687 703 888 712 215 371 755 421 418
572
385
स्मृति
385 382 417 402
स्पर्श
ह्रास ह्री
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--------------------------------------------------------------------------
________________
सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री (सन् १६०१-१९६२) भारतीय मनीषियों में, विशेषकर जैनदर्शन एवं सिद्धान्त के क्षेत्र में, सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री अपनी बहुआयामी शास्त्र-विद्या के लिए विख्यात रहे हैं। चिन्तन-मनन तथा साहित्य-साधना में सतत संलग्न पण्डितजी की राष्ट्रीय एवं सामाजिक उत्थान के आन्दोलनों में विशेष भूमिका रही है। भारत छोड़ो' आन्दोलन में आपने जेल-यात्रा भी की। पण्डितजी आगम के मर्म के विचक्षण व्याख्याता रहे हैं। निर्जीव गतानुगतिकता के मूल में पैठी, विलुप्त तेजस्विता को उभारकर जैनदर्शन के लोकोपकारी सार्वजनिक रूप के उद्घाटन तथा उसके प्रचार-प्रसार में आपका साहसिक नेतृत्व अनेक दशकों से क्रियाशील रहा है। ललितपुर (उ. प्र.) के निकट ही एक छोटे-से गाँव सिलावन में जन्मे पण्डितजी ने अनेक संस्थाओं में अध्यापनदायित्व के सफल निर्वाह के कारण अपनी एक लम्बी शिष्य-परम्परा को प्रभावित किया है। धर्माध्यापक के रूप में आप हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से भी सम्बद्ध रहे। दर्शन, सिद्धान्त एवं आचार विषयक कितनी ही चर्चाओं में आपने अपने अगाध ज्ञान से विद्वज्जगत् को चमत्कृत किया है। मौलिक रचनाएँ-१. जैन तत्त्वमीमांसा, २. जैनधर्म और वर्ण-व्यवस्था, ३. विश्वशान्ति और अपरिग्रहवाद, ४. वर्ण, जाति और धर्म। सम्पादित ग्रन्थ-पचास से अधिक। इनमें धवला और जयधवला के अनेक खण्ड, प्रमेयरलमाला, पंचाध्यायी, महाबन्ध, समयसार-कलश, लब्धिसार-क्षपणासार, आत्मानुशासन आदि आगम-साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ सम्मिलित हैं।
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________________ भारतीय ज्ञानपीठ स्थापना : सन् 1944 उद्देश्य ज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण संस्थापक स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन स्व. श्रीमती रमा जैन अध्यक्ष श्री अशोक कुमार जैन कार्यालय , 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110 003 Pie 2 Personal use only