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## Chapter One [89 F213. "Bhava" is said. What is "Bhava"? "Bhava" is the state of the soul caused by the arising of the karma called "Aayu". "Pratyay", "Karan", and "Nimitta" are synonymous. The "Bhava Pratyay" is the knowledge of the Avadhi, Devas, and Narakas, which is the cause of the "Bhava". If this is so, then the "Kshayopa-shama" does not become the cause of their Avadhi knowledge. This is not a fault, because the "Kshayopa-shama" is achieved through the "Bhava". By taking "Bhava" as the object, "Kshayopa-shama" arises, and thus "Bhava" is considered the main cause. Just as the flight of birds in the sky is caused by "Bhava", not by special education or qualities, similarly, even in the absence of vows, rules, etc., Devas and Narakas have Avadhi knowledge, therefore it is called "Bhava Pratyay". If it is not considered so, then "Bhava" is common to all, and there would be no difference in the Avadhi knowledge of all. But it is said that there is a difference in the intensity of Avadhi knowledge. Even though the term "Devanarakaanaam" is used in a general sense, it only refers to the Samyagdrstis. Why? Because the term "Avadhi" is used. For the Mithyadrstis, it is called "Vibhanggyaan". The intensity of Avadhi knowledge in Devas and Narakas should be known from the scriptures. 214. If "Bhava Pratyay" is the Avadhi knowledge of Devas and Narakas, then what is the "Kshayopa-shama" caused Avadhi knowledge? This is explained further.
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________________ -1/215214] प्रथमोऽध्यायः [89 F213. भव इत्युच्यते । को भवः। आयुर्नामकर्मोदयनिमित्त आत्मनः पर्यायो भवः । प्रत्ययः कारणं निमित्तमित्यनान्तरम् । भवः प्रत्ययोऽस्य भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणां वेदितव्यः । यद्येवं तत्र क्षयोपशमनिमितत्वं न प्राप्नोति। नैष दोष; तदाश्रयात्तत्सिद्धेः। भवं प्रतीत्य क्षयोपशमः संजायत' इति कृत्वा भवः प्रधानकारणमित्युपदिश्यते । यथा पतत्रिणो गमनमाकाशे भवनिमित्तम्, न शिक्षागुणविशेषः तथा देवनारकाणां व्रतनियमाद्यभावेऽपि जायत 'इति भवप्रत्ययः' २ इत्युच्यते। इतरथा हि भवः साधारण इति कृत्वा सर्वेषामविशेषः स्यात् । इष्यते च तत्रावधेः प्रकर्षाप्रकर्षवृत्तिः। 'देवनारकाणाम्' इत्यविशेषाभिधानेऽपि सम्यग्दृष्टीनामेव ग्रहणम् । कुतः । अवधिग्रहणात् । मिथ्यादृष्टीनां च विभङ्ग इत्युच्यते । प्रकर्षाप्रकर्षवृत्तिश्च आगमतो विज्ञेया। 214. यदि भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्, अथ क्षयोपशमहेतुकः केषामित्यत आह 5 213. भवका स्वरूप कहते हैं । शंका-भव किसे कहते हैं ? समाधान-आयु नामकर्मके उदयका निमित्त पाकर जो जीवकी पर्याय होती है उसे भव कहते हैं ? प्रत्यय, कारण और निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं। जिस अवधिज्ञानके होने में भव निमित्त है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है । वह देव और नारकियोंके जानना चाहिए। शंका-यदि ऐसा है तो इनके अवधिज्ञानके होने में क्षयोपशमकी निमित्तता नहीं बनती? समाधान-यह कोई दोष नहीं है. क्योंकि भवके आश्रयसे क्षयोपशमकी सिद्धि हो जाती है। भवका आलम्बन लेकर क्षयोपशम हो जाता है ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है ऐसा उपदेश दिया जाता है । जैसे पक्षियोंका आकाशमें गमन करता भवनिमित्तक होता है, शिक्षा गुणको अपेक्षासे नहीं होता वैसे ही देव और नारकियोंके व्रत नियमादिकके अभावमें भी अवधिज्ञान होता है, इसलिए उसे भवनि मित्तक कहते हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो भव तो सबके साधारण रूपसे पाया जाता है, अतः सबके एक-सा अवधिज्ञान प्राप्त होगा। परन्तु वहाँपर अवधिज्ञान न्यूनाधिक कहा ही जाता है, इससे ज्ञात होता है कि यद्यपि वहाँपर अवधिज्ञान होता तो क्षयोपशमसे ही है पर वह क्षयोपशम भवके निमित्तसे प्राप्त होता है अतः उसे 'भवप्रत्यय' कहते हैं। सूत्र में 'देवनारकाणाम्' ऐसा सामान्य वचन होने पर भी इससे सम्यग्दृष्टियोंका ही ग्रहण होता हैं, क्योंकि सूत्रमें 'अवधि' पदका ग्रहण किया है। मिथ्यादृष्टियोंका वह विभंगज्ञान कहलाता है। अवधिज्ञान देव और नारकियोंमें न्यूनाधिक किसके कितना पाया जाता है यह आगमसे जान लेना चाहिए। विशेषार्थ-अवधिज्ञान वह मर्यादित ज्ञान है जो इन्द्रिय और मनकी सहायताके बिना मतिक पदार्थोंको स्पष्ट जानता है। मनःपर्ययज्ञानका भी यही स्वरूप कहा जाता है पर इससे मनःपर्ययज्ञानमें मौलिक भेद है। वह मनकी पर्यायों द्वारा ही मूर्तिक पदार्थोंको जानता है, सीधे तोरसे मूर्तिक पदार्थोंको नहीं जानता। यह अवधिज्ञान देव और नारकियोंके उस पर्यायके प्राप्त होने पर अनायास होता है। इसके लिए उन्हें प्रयत्न विशेष नहीं करना पड़ता। तथा तिर्यञ्चों और मनुष्यों के सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके निमित्तसे होता है। इससे इसके भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक ये दो भेद किये गये हैं। यहाँ भवप्रत्यय अवधिज्ञान मुख्यतः देव और नारकियोंके बतलाया है, पर तीर्थकर आदिके भी इस अवधिज्ञानको प्राप्ति देखी जाती है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। देव और नारकियोंमें भी उन्हींके भवके प्रथम समयसे अवधिज्ञान होता है जो सम्यग्दृष्टि होते हैं। मिथ्यादृष्टियोंके इसकी उत्पत्ति पर्याप्त होनेपर ही होती है और उसका नाम विभंगज्ञान है। इस ज्ञानकी विशेष जानकारी जीवकाण्ड, धवला वेदनाखण्ड आदिसे करनी चाहिए। 214. यदि भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है तो क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञान किसके होता है। आगे इसी बातको बतलाते हैं 1. -शमः संजात इति। आ. दि. 1, दि. 2। 2. -त्यय इष्यते। इत-आ., दि. 1, दि. 2 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001443
Book TitleSarvarthasiddhi
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size14 MB
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