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## 108] Sarvath Siddhau
[2118 253 Mishraudayika Pariṇāmikā iti. Tathā sati dviḥ 'cha' śabdo na kartavyo bhavati. Naivam śakyam. Anyaguṇāpekṣayā iti pratīyeta. Vākye punaḥ sati 'cha' śabdena prakṛtobhāyanukaraṣaḥ kṛto bhavati. Tahi kṣāyopaśamikagrahaṇameva kartavyam iti cet. Na; gauravāṭ. Miśragrahaṇam madhye kriyate ubhayāpekṣārtham. Bhavyaśya aupaśamikakṣāyiko bhāvau. Miśraḥ punaḥ abhavyaśyāpi bhavati, auyikapariṇāmikābhyām saha bhavyaśyāpīti. Bhāvāpekṣayā talliṅsaṅkhyāprasanṅgaḥ svatattvasyeti cet? Na; upāliṅsaṅkhyatvāṭ. Tadabhāvastattvam. Svam tattvam svatattvam iti.
254. Atra āha tasyaikasyātmano ye bhāvā aupamikādayaste kim bhedavanta utābhedā iti. Atra ucyate, bhedavantaḥ. Yady evam, bhedā ucyantāmitiyat āha
Dvinavaṣṭādaśaika viṁśatitribhedā yathākramam ||2|| $ 255. Dvayādīnām saṅkhyāśabdānām kṛtadvandvānām bhedasabdena saha svapadārthe 'anyapade' vā vruttiyā
1. Saṅkhyātvāt-mu. | 2. Trayah. Ta ekha bhedā: mu. |
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108] सर्वाथसिद्धौ
[2118 253मिश्रौदयिकपारिणामिका इति । तथा सति द्विः 'च'शब्दो न कर्तव्यो भवति। नैवं शक्यम् । अन्यगुणापेक्षया इति प्रतीयेत । वाक्ये पुनः सति 'च'शब्देन प्रकृतोभयानुकर्षः कृतो भवति। तहि क्षायोपशमिकग्रहणमेव कर्तव्यमिति चेत् । न; गौरवात् । मिश्रग्रहणं मध्ये क्रियते उभयापेक्षार्थम् । भव्यस्य औपशमिकक्षायिको भावौ । मिश्रः पुनरभव्यस्यापि भवति, औयिकपरिणामिकाभ्यां सह भव्यस्यापीति । भावापेक्षया तल्लिङसंख्याप्रसङ्गः स्वतत्त्वस्येति चेत ? न; उपालिंगसंख्यत्वात। तदभावस्तत्त्वम् । स्वं तत्त्वं स्वतत्वमिति ।
254. अत्राह तस्यैकस्यात्मनो ये भावा औपमिकादयस्ते किं भेदवन्त उताभेदा इति । अत्रोच्यते, भेदवन्तः । यद्येवं, भेदा उच्यन्तामित्यत आह
द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥2॥ $ 255. द्वयादीनां संख्याशब्दानां कृतद्वन्द्वानां भेदशब्देन सह स्वपदार्थेऽन्यपदार्थे वा वृत्तियहाँ 'औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिकाः' इस प्रकार द्वन्द्व समास करना चाहिए। ऐसा करनेसे सूत्रमें दो 'च' शब्द नहीं रखने पड़ते हैं। समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए,
क्योंकि स्त्रमें यदि 'च' शब्द न रखकर द्वन्द्व समास करते तो मिश्रकी प्रतीति अन्य गुणको अपेक्षा · होती। किन्तु वाक्यमें 'च' शब्दके रहनेपर उससे प्रकरण में आये हुए औपशमिक और क्षायिक भावका अनुकर्षण हो जाता है। शंका-तो फिर सूत्र में 'क्षायोपमिक' पदका ही ग्रहण करना चाहिए ? समाधान नहीं, क्योंकि क्षायोपशमिक पदके ग्रहण करने में गौरव है; अतः इस दोषको दूर करनेके लिए क्षायोपशमिक पदका ग्रहण न करके मिश्र पद रखा है। दोनोंकी अपेक्षासे मिश्र पद मध्यमें रखा है। औपगमिक और क्षायिकभाव भव्यके ही होते हैं। किन्तु मिश्रभाव अभव्यके भी होता है। तथा औदयिक और पारिणामिक भावोंके साथ भव्यके भी होता है। शंका-भावोंके लिंग और संख्या के समान स्वतत्त्वपदका वही लिंग और संख्या प्राप्त होती है। समाधान-नहीं, क्योंकि जिस पदको जो लिंग और संख्या प्राप्त हो गयी है उसका वही लिंग और संख्या बनी रहती है। स्वतत्त्वका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वम्-जिस वस्तुका जो भाव है वह तत्त्व है और स्व तत्त्व स्वतत्त्व है।
विशेषार्थ-पाँच भावोंमें प्रारम्भके चार भाव निमित्तकी प्रधानतासे कहे गये हैं और अन्तिम भाव योग्यताकी प्रधानतासे। जगमें जितने कार्य होते हैं उनका विभागीकरण इसी हिसाबसे किया जाता है। कहीं निमित्तको प्रमुखता दी जाती है और कहीं योग्यताको। पर इससे अन्य वस्तुका कर्तृत्व अन्यमें मानना उचित नहीं। ऐसे विभागीकरणके दिखलानेका इतना ही प्रयोजन है कि जहाँ जिस कार्यका जो सुनिश्चित निमित्त हो उसका परिज्ञान हो जावे। यों तो कार्य अपनी योग्यतासे होता है, किन्तु जिसका जिसके होने के साथ सुनिश्चित अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है वह उसका सुनिश्चित निमित्त कहा जाता है । इस हिसाबसे विचार करनेपर औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक ये चार नैमित्तिक भाव कहलाते हैं।
6254. उस एक आत्माके जो औपशमिक आदि भाव हैं, उनके कोई भेद हैं या नहीं ? भेद हैं । यदि ऐसा है तो इनके भेदोंका कथन करना चाहिए, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
उक्त पाँच भावोंके क्रमसे दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद हैं ॥2॥ 8255. संख्यावाची दो आदि शब्दोंका द्वन्द्व समास करके पश्चात उनका भेद शब्दके
1. संख्यात्वात्-मु.। 2. त्रयः। त एक भेदा:--मु. ।
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