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## Chapter Eight
**Other than this, the remaining are all of the nature of sin.** ||26||
§ 783. The group of karmic actions that are different from the group of karmic actions known as "punya" (meritorious) are called "papa" (sinful). They are of eighty-two types. For example:
* Five types of **jnana-avaran** (knowledge obscuring)
* Nine types of **darshan-avaran** (perception obscuring)
* Twenty-six types of **mohaniya** (delusive)
* Five types of **antaraya** (hindering)
* **Naraka-gati** (hellish rebirth)
* **Tiryag-gati** (animal rebirth)
* Four **jati** (castes)
* Five **samsthana** (physical forms)
* Five **samhanana** (physical constitutions)
* **A-prashasta** (undesirable) **varna** (color), **rasa** (taste), **gandha** (smell), and **sparsa** (touch)
* **Naraka-gati-anupurvi** (successive hellish rebirths) and **Tiryag-gati-anupurvi** (successive animal rebirths) - these two
* **Upadhata** (harmful)
* **A-prashasta viha-yoga-gati** (undesirable state of liberation)
* **Sthavara** (immobile)
* **Sukshma** (subtle)
* **A-paryapti** (insufficiency)
* **Sadharana-sharira** (ordinary body)
* **Asthira** (unstable)
* **A-shubha** (inauspicious)
* **Dur-bhag** (unfortunate)
* **Du-svara** (harsh voice)
* **Anadeya** (unworthy of respect)
* **A-yasha** (disgrace)
These are thirty-four types of **nama-karma** (name-karma), **asa-vedaniya** (unpleasant), **naraka-ayu** (hellish lifespan), and **neecha-gotra** (low birth).
Thus, the **bandha** (bondage) is explained in detail. It is known through **avadhi-jnana** (clairvoyance), **mana-paryaya-jnana** (knowledge of the mind), and **kevala-jnana** (omniscience), and is inferred from the **agama** (scripture) taught by those who possess these knowledges.
**Special Note:** Here, the names of the sinful karmic actions are mentioned. Those that lead to undesirable results and accumulate more **anubhaga** (karmic potential) are sinful karmic actions. Here, a total of eighty-two sinful karmic actions are listed. The five **bandhana** (bondages) and **sanghata** (aggregates) are included in the five bodies, and the two karmic actions of **misra-mohaniya** (mixed delusive) and **samyak-tva-mohaniya** (delusive of right conduct) are not included. Also, the twenty **varna** (color) etc. are both desirable and undesirable. This is why they are included in both the meritorious and sinful karmic actions. Thus, there are a total of eighty-two sinful karmic actions, whose names are mentioned in the commentary.
Thus, the eighth chapter of the **Tattva-artha-vrutti** (Commentary on the Principles of Reality), known as **Sarvartha-siddhi** (Complete Fulfillment of All Purposes), is complete. ||8||
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अष्टमोऽध्यायः
अतोऽन्यत्पापम् ॥26॥
8783. अस्मात्पुण्यसंज्ञिकर्म प्रकृतिसमूहादन्यत्कर्म 'पापम्' इत्युच्यते । तद् द्वयशीतिविधम् । तद्यथा - ज्ञानावरणस्य प्रकृतयः पंच दर्शनावरणस्य नव मोहनीयस्य षड्वंशतिः पंचान्तरायस्य नरकगतितिर्यग्गती चतस्रो जातयः पंच संस्थानानि पंच संहननान्यप्रशस्तवर्णरसगन्धस्पर्शा नरकगतितिर्यग्गत्यानुपूर्व्यद्वयमुपघाताप्रशस्त विहायोगतिस्थावर सूक्ष्मापर्याप्तिसाधारणशरीरास्थि राशुभदुभंगदुःस्वरानादेयायशः कीर्तयश्चेति नामप्रकृतयश्चतुस्त्रिशत् । असद्वेद्यं नरकायुनचंर्गोत्रमिति । एवं व्याख्यातः सप्रपञ्चो बन्धपदार्थः । अवधिमनः पर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाणगम्यस्तदुपदिष्टागमानुमेयः ।
इति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धि संज्ञिकायामष्टमोऽध्यायः समाप्तः ॥8॥
-8126 § 783]
इनके सिवा शेष सब प्रकृतियाँ पापरूप हैं ॥26॥
§ 783. इस पुण्यसंज्ञावाले कर्मप्रकृतिसमूहसे जो भिन्न कर्मसमूह है वह पापरूप का जाता है । वह बयासी प्रकारका है । यथा-ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरणकी नौ प्रकृतियाँ, मोहनीयको छब्बीस प्रकृतियाँ, अन्तरायकी पाँच प्रकृतियाँ, नरकगति, तिर्यंचगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्ण, अप्रशस्त रस, अप्रशस्त गन्ध और अप्रशस्त स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी और तिर्यग्गत्यानुपूर्वी ये दो, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और अयश:
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ये नामकर्मको चौंतीस प्रकृतियाँ, असाता वेदनीय, नरकायु और नीच गोत्र । इस प्रकार विस्तार के साथ बन्ध पदार्थका व्याख्यान किया । यह अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाणगम्य है और इन ज्ञानवाले जीवों द्वारा उपदिष्ट आगमसे अनुमेय है ।
विशेषार्थ - यहाँ पाप प्रकृतियाँ कौन-कौन हैं इनका नाम निर्देश किया गया है । अप्रशस्त परिणामोंके निमित्तसे जिनमें अधिक अनुभाग प्राप्त होता है वे पाप प्रकृतियाँ हैं । यहाँ पाप प्रकृतियाँ कुल बयासी गिनायी हैं । पाँच बन्धन और संघात इनका पाँच शरीरोंमें अन्तर्भाव हो जाता है तथा मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय ये दो बन्ध प्रकृतियाँ नहीं हैं । और वर्णादि बीस प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी । यही कारण है कि इन्हें पुण्य प्रकृतियों में भी गिनाया है और पाप प्रकृतियों में भी । इस प्रकार कुल बयासी पाप प्रकृतियाँ होती हैं जिनका नामनिर्देश टीका में किया ही है ।
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धिसंज्ञक तत्त्वार्थवृत्तिमें आठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ||8||
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