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मुलासवना
माश्चासः
मित्रोंकी प्रतिमा या फोटो दीख पढनेपर रेप और प्रेम उत्पन्न होता है. यद्यपि उस फोटोने उपकार अथवा अनएकार बुद्ध भी नहीं किया है परंतु वह शत्रुकृत अपकार और मित्रकृत उपकारका स्मरण होनेम कारण है. जिनश्वर
और सिदोंके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, सम्यग्दर्शन, वीतरागतादिक गुणा यद्यपि अहत्पत्तिमा और सिद्धपतिमा में नहीं हैं तथापि उन गुणोंका स्मरण होनेमें ३ कारण होती हैं, क्योंकि अहंद और सिझोका उन प्रतिमाओमें सादृश्य है. यह गुणस्मरण अनुरागस्वरूप होनसे बान और श्रद्धान को उत्पन्न करता है और इनसे नवीन कोका अपरिमित संबर और पूर्वसे बंधे हुए कमौकी महानिर्जरा होती है. इसलिये आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होनेमें सहायक चैत्यभक्ति आप हमेशा करो. हे मुनिवृद! आप पांच प्रकारका विनय नित्य करो. 'विलयं नयति कर्ममलं इति विनयः' जो कमेमजा कमावतको विषय कहते हैं. इस विनयके ज्ञानविनय, दर्शनविनय चारित्रविनय तपो विनय और उपचारविनय एसे पांच भेद हैं. शास्त्रम वाचना और स्वाध्याय का जो काल कहा हुआ है उसी काल में श्रुतका अध्ययन करो, श्रुतज्ञानको बतानेकाले गुरुकी भक्ति करो, कुछ नियम ग्रहण कर आदरसे पढ़ो, गुरु और शास्त्रको छिपाकर स्वयं मैंने और मेरी बुद्धीसे सब श्रुतज्ञान धारण किया है ऐसा गवं मनमें धारण करना छोट दो. अर्थ शुद्धि, व्यंजनशुद्धि और उभयशुद्धिके साथ श्रुतज्ञानका अध्ययन करो. विनयपूर्वक अभ्यस्त हुआ श्रुतज्ञान कर्मोंका संवर और निजरा करता है. यदि विनय न होगा तो दोषसहित श्रुत्तज्ञान ज्ञानाचरण कर्मका निमित्त होता है,
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा इत्यादि दोषोंको जो हटाना वह दर्शन विनय है. इसकी आप प्राप्ति करने में प्रयत्न करो, नहीं तो शंकादिक परिणाम मिथ्यात्वको उत्पन्न करेंगे जिससे दर्शनमोहनीयके आसय आफर मिथ्यात्वी बनोगे. इस मिथ्या दर्शनके मिनसे बंधा हुआ कर्म वु:खभीरु ऐसे तुमको अनंत कालतक संसारमें भ्रमावेगा.
इष्ट और अनिष्ट एमे स्पर्श रस, गंध, रूप और शब्दों में अनंतकालतक जीवका अभ्यास होनेसे उनमें गग और टेप उत्पन्न होने हैं. कपाय भी बाह्य कारण और अभ्यंतर कारणोंको पाकर उदयमें आ जाते हैं. उनके उदयन चारित्रका घात होता है. कर्मका जिन्होंमे ग्रहण होता है ऐसी मानसिक, कायिक और वात्रनिक क्रिया ओंका अभाव होनेसे चारित्र उत्पन्न होता है. राग, द्वेष, मोह वगैरह परिणामोंसे कर्म आत्मामें आता है, तथा मन, वचन और शरीरके अशुभ व्यापारोंसे आत्मामें नवीन कर्म आता है. पानी, हवा, अग्नि, पृथ्वी और वनस्पति ये पांच प्रकारके स्थावर जीव हैं. द्वीन्द्रियादिक जीवोंको त्रसजीव कहते हैं. इन छह काय जीवोंको बाधा हो इस