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मूलारापना
आश्वास
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को याधिकारः सुफुलेषु नृणां का.या चिहिसान्यकुलप्रसूती॥
कार्योऽधिकारो ननु धर्म पंथ कार्या विहिसापि च दुष्फतेषु॥ किंच सर्वोऽपि पृथग्जनः स्वस्योत्कर्ष परस्य चापकर्ष मन्यमानो गर्वमुपैति । न चारयात्मन उचनीचकुलमाप्रिनिमित्ते वृद्धिहानी तस्तत्कोऽस्योचकुलत्वेऽहंकार इति शिक्षयति
मूलारा-जोणीसु कुलेषु । शरीरनिष्पादनस्थानानामुश्चत्त्वनीचत्वासंभवात् । अन्न योनिशब्देन कुलमेबोच्यते। तत्तिबोचेच असंख्यातप्रदेशप्रचयात्मक एव 1 मान्यकुले प्रसूतो भैकेनापि प्रदेशेन वर्द्धते, नापि निचे जातो हीयत इति भावः । ततो ज्ञानादिगुणातिशययोगादेव पूज्यते न कुलोकचत्वयोगात्तत्क; कुलीनत्वगर्व इति गर्वखयोपायशिक्षणं ।
गर्व करनेसे आत्मकी वृद्धि होती है और न करनेसे उसकी हानि होती हो तो गर्व करना योग्य होगा. परंतु आत्मा कम जादा होता हुआ नहीं दीखता है. इस विषयका विवेचन--
अर्थ--जहां आत्मा रहकर शरीर उत्पन्न करता है अर्थात् धारण करता है ऐसे आधारको योनि कहते हैं. आधाररूप योनि उच्चमी नहीं है और नीच भी नहीं है. इसलिये 'उच्चासु व गांचासु व' ऐसा कहना अनुचित है.
उत्तर--योनिशब्दका अर्थ उत्पत्तिस्थान ऐसा नहीं है. प्रस्तुत प्रकरणमें योनिशब्दका कुल ऐसा अर्थ लना चाहिए. इसलिए यहां ऐसा अर्थ समझना योग्य होगा-मान्यकुलम अथवा निंद्य कुलमें उत्पन्न होने पर भी जीवकी द्धि वा हानि नहीं होती है. सर्वत्र वह असंख्यात प्रदेशात्मक ही रहता है. ज्ञानादिगुणोंके अतिशय से ही उत्कृष्टता प्राप्त होती है. जिसके गुण निंद्य है वह कुलीन होनेपरभी अन्य पुरुषोंके द्वाग नहीं पूजा जाता है. हीन कुलमें उत्पन्न होने परभी यदि वह गुणी होगा तो पूजा जाता है.
अन्य ग्रंथमें इस विषय में ऐसा कहा है--
"इस संसारमें भ्रमण करनेवाले प्राणीका कोईभी कुल नित्य नहीं है. अपने किये हुए कर्मके वश होकर यह संसारी आत्मा नीच कुल, उच्च कुल और मध्य कुलमें जन्म लेता है. और नीच, उच्च, मध्यम अवस्थाको प्राप्त होता है, इस संसारमें राजा भी दुर्दैवयोगसे दास होता है. श्वपच मी-मातंगमी अन्य जन्ममें ब्राह्मण बन जाता है. दरिद्री वंश भी धनसंपन्न होता है. कर्मके वश होकर इस जीवको चोर, अग्नि, सर्प इत्यादिकोंसे दुःख प्राप्त होता है. मनुष्यको उच्च कुलकी प्राप्ति होनेपर गर्व नहीं करना चाहिये और नीच कुलमें उत्पन्न हुए प्राणिऑकी जुगुप्सा
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