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पलाराधना
आश्चार
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नेव ममायं पुत्र इस्युपकार्योपकारकभावेनापि संबंधस्थानवस्थितस्वात् शत्रुणव पुत्रेणापि न स्वाभाविक संबंधोऽस्तीति भाषनाद्वोरण अन्यत्त्वनिष्ठतावसीयते ।
इसका विवेचन
अर्थ-जो शत्रु है वही उपकार करनसे मित्र बनता है. पुत्र भी एकक्षण में अपकार करनेसे शत्रु बनता | है. अर्थात् निर्भर्त्सना करना, ठोकना इत्यादि अपकारोंसे पुत्रं पिता का शत्रु बन जाता है. तमा ण कोई करसइ स्नगो व
ज टि संसार कज्जै पडि हुति जगे णी याव अरीब जीवाणं ॥ १७६२ ॥ ने कोपि देहिनः शत्रुर्न मित्रं विद्यते ततः ॥
जायते कार्यमाश्रित्य शत्रुर्मिन विनिश्चितम् ।। १८३१ ।। विजयोदया सहा तस्मात् । णको कस्सा सयणोष जणो व अस्थि संसारे नेय कविरकस्यचिरस्वजनः परजनो विद्यते किज परि होदि भीगा ये अरीब अम कार्यमेवोपकारापकारलक्षणे प्रति वः मति । स्वभाषिक पंधुता शत्रुता धा जीवानामस्ति उपकारापकारक्रिययोरनवस्थितत्वात्सन्मूलोऽरिमित्रभाषीप्यमवस्थित रति नै रागची क्वचिदपि कायौँ। मत्तोऽन्ये सर्व पथ प्राणभृत इति कार्यान्यत्यानुप्रेक्षेति प्रस्तुताधिकारेणाभिसंबंधः।।
यत एवम
मूलारा-सयणो व जणो व स्वजनो या बंधुः । जनो वा सामात्परजनः । अथवा अवजणो अपकर्ता जन इति प्रायम् । कजं उपकारांपकारलक्षणं कार्य । एवं च बंधुत्वशत्रुत्वयोःअनवस्थितत्वाध्यवसायाद्रागद्वेषोपरमान्मसोऽन्ये सर्वेऽपि जन्मिन इत्यन्यत्वानुप्रेक्षयकाभिसंबंधः ॥
अर्थ--इसलिये इस संसारमें कोई किसीका स्वजन और परजन नहीं है. कार्य के वंश होकर स्वजन परजन व्यवहार दुनिया में चलता है, जिसके ऊपर हम उपकार करते हैं वह हमारा मित्र पनता है. और जिसके ऊपर हम अपकार करेंगे वही इमारा शत्रु होमा. स्वाभाविक बंधुता किसी में नहीं है. शत्रुता भी किसी के साथ स्वाभाविक नहीं रहती है. उपकार और अपकार पर शत्रुत्व और मित्रत्वका व्यवहार निर्भर है ऐसा समझकर किसी भी रागद्वेष नहीं करना चाहिये. सभी प्राणी मेरसे भिन्न हैं यह भावना हृदयमें सदैव धारण करनी चाहिये
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