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पुलाराधना
आश्वासः
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मिथ्यात्वमोहितस्थान्तो भव भ्रमति दुर्गमे ।।
मार्गभ्रष्ट हवारण्ये भवेभारिभपकरे ।। १८३९॥ विजयोदया-मिच्छत्तमोहिवमदी वस्तुयाथाम्याश्रद्धानं दर्शनमोहोदयज मिथ्यान्वं तेन मिथ्यान हेतुना मोहमुगमता मतिर्यस्यासौ संसारमहाडी संसारो महाटबी दुस्तरत्वादनेकदुःखस्वादहुत्वाद्विनाशयितुमुद्यनत्वासच तो संसारमहाटव । सदो नम्मात् मिथ्यात्वमूहमतित्वादतीति प्रविशति ।। ननु मिथ्यात्वासंयमकवाययोगाश्चत्वारोऽपि संसारस्य निमिसभूताः सूर्य किमुच्यते मिथ्यात्यमूहमतिः संसारमहाटवी प्रविशतीति । अत्रोच्यते--उपलक्षणं मिथ्यात्व ग्रहणं असंयमादीनां । जिणषयणधिप्पणटो ब्रभावकारातिमधात् जिनास्तेगं घनं जीयापर्धयाधाभ्यप्रकाशन पटु प्रत्यक्षादिममाणांतराविरोधिसतो विमनस्तापरिझानान् यत्सत्वाथद्धानं तन्निरूपितेन मार्गणानाचरणाच महाटपी प्रविशति । विष्णट्टो वा मार्गाविप्रनष्ट इच । संसारमविगम्म जीवपोतो भमदि संसारमहासमुदं प्रविश्य जीषयानपात्रं भ्रमति ॥ क्रीटरभून संसारमहोदधि ।
अHध्यानालंबनत्वेन संसारकारणस्वरूपपकारादिपरिकर गाथासप्तर्विशत्यानुपेक्षयिध्यन्नादौ संसारप्रवेशपर्यटने गाथाचतुष्टयेनानु चिंतयति-.
__ मूलारा--मिकाछत्त अपलमणावसयमादिश्व । नदो मिथ्यात्वमोहितमलित्वात् । अदीदि प्रविशति । विपणट्रो तदर्थानप्रबोधाबद्धानाननुष्ठानाउिजनवचनादपसृतः ॥ विप्पणट्टो व मार्गमूढ इव ।।
संसारानुप्रेक्षाका वर्णन विस्तारसे करते हैं
अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके उदय से जीवादि पदाघोपर यथास्वरूप श्रद्धा जीव नहीं करता है. जीवके इस अश्रद्धारूप परिणामको मिथ्यात्व कहते हैं. इस मिथ्यात्व परिणामसे जिसकी बुद्धि मोहित हुई है ऐसा प्राणी दुस्तर, नाश करनेवाला अनेक दुःखोंसे परिपूर्ण और अपार ऐसे संसाररूपी जंगल में भ्रमण करता है. अर्थात् जैसे सच्चे मार्गस प्रष्ट हुआ पथिक भूल कर महावन में प्रवेश करता है और दिङ्मूढ होकर उसमें ही इतस्ततः भ्रमण करता है. वैसे जिनेश्वर के वचनोंका अभिप्राय न जाननेस जीवादिक पदार्थोके सत्य स्वरूप पर श्रद्धा न रखनेवाला और जिनेवरके दिखाए हुए मार्गसे जानेवाला ऐसा ग्राणी संसारयनमें भ्रमण करता है।
ज्ञानावरणादि कमोंको द्रव्यकर्म कहते हैं और राग, द्वेष मोह, क्रोधादिक मनोविकारको भावकर्म | कहते हैं. जिसने इन दोनो कमौका अत्यंत नाश किया है ऐसे अईत्परमात्माको जिन कहते हैं. उनके मुखसे जो
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