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आश्वासः
चिन्तन करते समय मनोयोग वचन योग और काययोग इन योगोंका परिवर्तन होता है. अर्थात उपांत मोहमृलाराधना
नीय मुनि कभी मनोयोगके आश्रयमे, कभी वचनयोगस और कभी काययोगसे भिन्न भिन्न द्रव्योंका विचार करता है. ध्यानमें विषयभिन्नता, योगभिन्नता और पचनभिन्नता रहती हैं. इस वास्ते इस ध्यानको पृथक्त्व सवितर्क मविचार एमा आचार्य कहते हैं.
जम्हा सुदं वितकं जम्हा पुब्वगदअत्थकुसलो य ||
झायदि झाणं एवं सवितरक तण तं झाणं ॥ १८८१ ॥ विजयोदया-जम्हा सुदं बितकं यस्मात् श्रुतं वितर्क यस्मात् पूर्वगतार्धकुशलो भ्यानमेतत्पवर्तयति । तेन तत् ध्यान सयितकः । चतुर्दशपूर्माणां ध्रुतत्वातदुपविष्टोर्थः । साहचर्यात् वितर्कशाप्दनोच्यते । तेन पितणार्थथुतेन ध्येयेन सह वर्तत इति श्रुतशानमेवावलंब्य सबितकमिस्नुमा वा तिरसुदे कानात शुलमानसंशितं सह कारणेन थुतेन वर्तत इति सचितर्कः ॥
सवितर्कमिति समर्थय ते....
मूलारा-पुब्बगद भरथफुसलो सकलमत्रार्थ पटुः । स वितर्क वितर्काऽत्र अतस्वाकचतुर्दशपूर्वाणि सत्साहचर्याकच तदुपदिष्टोऽर्थी वितर्कशकदेनेष्टः । सह वितर्केण चतुर्दशपूपिविष्टार्थश्रुतेन ध्येयं घर्तते इति सबितर्कम् ॥ अथवा पितः। शब्दभुतं तसेतु । प्राकभुसमान ध्यामसंशितं । सह वितर्केण कारणेन श्रुतेन वर्तते इति सवितर्क ।।
अर्थ--इस ध्यानका स्वामी १४ पूर्वोके ज्ञाता मुनि होते हैं. श्रुतज्ञानको वितर्क कहते हैं. अर्थात् चौदा पूर्वोका जो ज्ञान उसको श्रुतज्ञान कहना चाहिये. पूर्वमें जो विषय कहा गया है उसकाभी ज्ञान के साहचर्यसे श्रुत कहते हैं. जैसे यष्टिके साहचर्यसे पुरुषकोभी यष्टि कहते हैं. इस श्रुतविषयकाभी वितर्क कह सकते है. यह विषय
ध्येय है. तात्पर्य यह है कि श्रुतशत पूर्वज्ञानका व तद्गत विषयकाभी याचक हैं ऐसा समझना चाहिये. यह श्रुत ANI ज्ञान इस ध्यानका कारण हैं इसलिये इसकोभी ध्यान कह सकने हैं.
अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो॥ तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं ॥ १८८२ ।।
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