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पुलाराधना
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एवं संथारगदो विसोइता वि दसणचरितं ॥ परिवsदि पुणो कोई झायंतो अट्टहाणि ॥। १९४६ ॥ इत्थं संस्तरमापन्ना रौद्रावर्तिनः ॥
रत्नत्रयं विशेष्यापि भूयो भ्रश्यन्ति केचन । २०२६ ॥
विजयोदया एवं संधारणको उकेन प्रकारेण संस्तरमुपगतोऽपि कृतदर्शनचारित्रशुद्धिरपि कचित्कर्मगौर वारीपरिणतः पतति ॥ तत्र दोषमाचष्टे ॥
एवं साक्षात्पारंपर्येण च प्राप्यमाराधनाफलं व्यावर्ण्य दुर्दैववशेन दुयनाद्विराधतां श्रामस्य फलं प्रबंधना - मुलारा - परिवदि रत्नत्रयात्मच्यवते ।
अर्थ – कोई मुनि संसारका आश्रय करने पर भी सम्यदर्शन और चारित्रकी शुद्धि करने पर भी पूर्वकर्म के भारसे आर्त ध्यान रौद्रध्यान में परिणत होकर अपने शुद्धस्वरूप से भ्रष्ट होते हैं.
झयंत अणगारो अरुद्दं च चरिमकालम्मि ||
जो जहइ सयं देहं सोण लहइ सुग्गादें खवओ ॥। १९४७ ॥ आतरौद्रपरः साधुय मुंचति कलेवरम् ॥
एतां दुःखप्रदामेष देवदुर्गतिमृच्छति ॥ २०२७ ॥
विजयोश्याज्झायंतो अणगारी मरणकाले मातेरोद्रयोः परिपतो भूषा यः स्वदेषं जहाति नासी क्षपकः
गतिं लभते ॥
बिरामिणस्य दक्षेत्रमाह---
मूलारा - स्पष्टम् ॥
आर्त रौद्र में परिणति होनेसे क्या हानि होती है इस प्रश्नका उत्तर ---
अर्थ - मरणके कालम आर्तध्यान और रौद्रध्यानका आश्रय करने से वह क्षपक आयुष्यकी समाप्ति होनेपर सुगति को प्राप्त नहीं कर सकता है.
आश्वास
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