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मूलाराधना
आश्वास
विजयोदया-तत्तो णपुंसं सतो मपुंसकं येई, लीये, हास्याविषट्कं, पुयेवं,संज्वलनशोधमानमायाःक्षपयति । पालोभसंज्वलनं ॥
तदनंतरमपणीयाकमेशाह---
मूलारा--"बुसगिस्थिवेदं नपुंसकवेदं नपुंसकभावप्रातिनिमित्तोदयकपायवेदनीयविशेषम् । एवं सीवर मीभावपरिणति कारणत्रिपाकम | हासादि छक्क हास्याविर्भावफलं हास्य । देशान्तरोद्यानौत्सुक्यानिमित्तोदया रतिः । तद्विलक्षणा रतिः । अनुप्राहकसंबंधिविच्छे वक्तव्यविशेषः शोकायद्विापाकाज्जायते सशोकः। उद्वेगहेतूदयं भयं । यदुदयादात्मदोष संचरणं अन्य दोष साधारण सा जुगुप्सा चिलिसाइतुः । तत्तो कपायषेदनीयफ्टं पुवेदे प्राप्य रुपयति, वेदं पुभावा पत्तिनिमित्त पुंदाय नोकपायवेदनीयं । क्रोधसंज्वलने प्रक्षिप्य पयति । कोधमित्यादि । संयमेन सहारस्थानादेकीभूता ज्वलन्ति, संयमो च। उबलत्येषु सरस्पीति संञ्चलमाः शोधादयोऽत्र पारिशध्यादहीताः सत्र क्रोधसंज्वलनं, मानसंबलने | तं मानसंचलने तं च लोभसवलने प्रक्षिप्य क्षपयति । ततो बादरकृष्टिविभागेन त लोभसंचलन र क्षपयति ।
इनके अनंतर नाश होनेवाली प्रकृतिका उल्लेख--
अर्थ-तदनंतर नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अति, शक, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन ग्यारह कोका नाश करता है.
जिसके उदयसे नपुंसक भावकी प्राप्ति होती है ऐसा अकपाय वेदनीयका एक विशेष भेद है. उसको नपुंसक वेद कहते हैं.स्त्रीके समान परिणाम उत्पन्न करना यह जिसका फल है उस कर्मको स्त्रीवेदनीय कहते हैं.जिससे हास्य उत्पन्न होता है वह हास्यवेदनीय है. देशांतर, उद्यान वगैरह पदार्थोके तरफ जाने के लिये जो मनमें उत्कंठा जिस कर्मके उदयसे उत्पन्न होती है उसको रति कहते हैं, अरतिका स्वरूप इससे विलक्षण है अनुग्रह करनेवाले पदार्थोका संबंध बिच्छेद होनेपर मन में जो खद उत्पन्न होता है उसको शोक कहते हैं. जिससे मनमें उद्वेग-हर उत्पन्न होती है उसको भय कहत हैं. जिसके उदयसे अपने दोष छिपाकर दूसरों के दोष प्रगट करना वह जुगुप्सा कर्म है. इन अकपाय वेदनीय की छहों मकृतिओंका वेदमें मक्षेपण करते हैं. पुरुषके परिणामोंकी उत्पत्ति जिसके उदयसे होती है ऐसे कर्मको-वेदको भी क्रोधसंज्वलनमें क्षेपण करते हैं. ये संज्वलनक्रोधादिक काय संयमके साथ रहकर ज्वलित होते हैं अथवा संयम इनके रहनेपर भी प्रज्वलित होता है. क्रोधसंज्वलनको मान संज्वलनमें, मानको